यह लेख हैदराबाद के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की द्वितीय वर्ष की छात्रा Shristi Suman ने लिखा है। इस लेख में, न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (रिटायर्ड) एवंअन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले के ऐतिहासिक फैसले पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी (रिटायर्ड) एवं अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एक ऐतिहासिक मामला है और निर्णय भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया था। बेंच द्वारा मामले में दिए गए फैसले ने नागरिकों के निजता (प्राइवेसी) के अधिकार को एक नया नजरिया (पर्सपेक्टिव) दिया। यह माना गया कि निजता का अधिकार इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 14, 19 और 21 के तहत एक मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) है।
माननीय न्यायालय ने आधार एक्ट को बरकरार रखा और एक्ट के उन प्रावधान (प्रोविजन) को रोक दिया जो असंवैधानिक (अनकॉन्स्टिट्यूशनल) थे। न्यायालय द्वारा यह माना गया कि नागरिकों के निजता के अधिकार को आर्टिकल 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आंतरिक (इन्ट्रिंसिक) भाग के रूप में और कॉन्स्टिट्यूशन के भाग III द्वारा गारंटी स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में सुरक्षित किया जायेगा। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट खड़क सिंह बनाम यूपी राज्य और एम.पी शर्मा बनाम सतीश चंद्र के पिछले ऐतिहासिक फैसलों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया, जिसमें यह माना गया था कि निजता का अधिकार इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के तहत नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है।
तथ्यों का सारांश (समरी ऑफ फैक्ट्स)
‘बीपीएल परिवारों के लिए विशिष्ट (यूनिक) पहचान’ एक परियोजना (प्रोजेक्ट) थी जिसे भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया था। परियोजना के लिए एक समिति का गठन (सेट-अप) किया गया था। कही हुई परियोजना के लिए समिति द्वारा एक विशिष्ट पहचान डेटाबेस के निर्माण का सुझाव दिया गया था। परियोजना को तीन चरणों में स्थापित करने का निर्णय लिया गया था।
जनवरी 2009 में, भारत के प्लानिंग कमीशन ने यू.आई.डी.ए.आई (यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया) पर एक अधिसूचना (नोटिफिकेशन) पास की। 2010 में, नेशनल आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया बिल कमीशन द्वारा पास किया गया था। नवंबर 2012 में रिटायर्ड जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी और श्री परवेश शर्मा ने आधार की वैधता (वैलिडिटी) को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक पी.आई.एल रिट पिटीशन दायर की।
इस योजना को चुनौती दी गई थी क्योंकि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। इस योजना ने भारतीय नागरिकों के आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार का उल्लंघन किया है। इस रिट पिटीशन को दायर करने के बाद, कई आदेश पास किए गए। आधार एक्ट 2016 में पास किया गया था। फिर याचिकाकर्ताओं (पिटीशनर्स) ने एक्ट के अधिकार को चुनौती देते हुए एक और रिट पिटीशन दायर की। इस रिट पिटीशन को पिछली रिट पिटीशन में मिला दिया गया था और इसे एक रिट पिटीशन के रूप में माना गया था।
जयराम रमेश जो फॉर्मर यूनियन मिनिस्टर और कांग्रेस नेता थे, मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट चले गए। उन्होंने आधार बिल को मनी बिल मानने के फैसले को चुनौती दी थी।
24 अगस्त 2017 को, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि निजता का अधिकार इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है। 17 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट में आधार मामले की सुनवाई शुरू हुई थी। 25 अप्रैल 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने आधार को मोबाइल से जोड़ने पर केंद्र से सवाल किया था। 26 सितंबर 2018 को, सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को वैध माना लेकिन मोबाइल, बैंक खातों और स्कूल एडमिशन के साथ आधार को अनिवार्य रूप से जोड़ने जैसे कुछ प्रावधानों को रद्द कर दिया।
पार्टियों की पहचान
याचिकाकर्ता- जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी (रिटायर्ड)।
उत्तरदाता (रेस्पोंडेंट)- यूनियन ऑफ इंडिया।
बेंच- जस्टिस डी. मिश्रा, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस ए भूषण, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस ए सीकरी।
न्यायालय के समक्ष मुद्दे (इश्यूज बिफोर द कोर्ट)
- क्या आधार परियोजना में एक निगरानी राज्य बनाने की प्रवृत्ति है और इस आधार पर यह असंवैधानिक है?
- क्या आधार परियोजना नागरिकों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है और इस आधार पर असंवैधानिक है?
- क्या आधार एक्ट की धारा 7 और 8 में बच्चे भी शामिल हैं?
- क्या आधार एक्ट के निम्नलिखित प्रावधान और विनियम (रेगुलेशन) असंवैधानिक हैं:
- धारा 2(c) और 2(d), धारा 32 के साथ पढ़ा जायेगा;
- धारा 2(h) एक्ट की धारा 10 के साथ पढ़ा जायेगा- सेंट्रल आइडेटिटीज़ डाटा रेपोसिटरी (सी.आई.डी.आर);
- धारा 2(v), धारा 3, धारा 5, धारा 6, धारा 8, धारा 9;
- धारा 11 से 23;
- धारा 23 और 54;
- चैप्टर VI और VII के साथ धारा 23(2)(g) पढ़ा जायेगा ;
- धारा 29, धारा 33, धारा 47, धारा 48, धारा 57, धारा 59
- क्या इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 110 के अर्थ में आधार एक्ट को ‘मनी बिल’ के रूप में माना जा सकता है?
- क्या इनकम टैक्स एक्ट, 1961 की धारा 139AA इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के तहत नागरिकों के निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है?
- क्या मनी लॉन्ड्रिंग प्रिवेंशन (मेंटेनेंस ऑफ रिकार्ड्स) रूल, 2005 के रूल 9 (a) और उसके बाद जारी अधिसूचनाएं, जो आधार को बैंक खातों से जोड़ने का आदेश देती हैं, इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के तहत मान्य हैं?
- क्या दूरसंचार (टेलीकम्यूनिकेशन) विभाग द्वारा जारी 23 मार्च, 2017 का परिपत्र (सर्कुलर), जिसमें नागरिकों के मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ना अनिवार्य है, अवैध और असंवैधानिक है?
- क्या प्रतिवादियों द्वारा की गई कुछ कार्रवाई न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम (इंटरिम) आदेशों का उल्लंघन है?
मुद्दों पर पार्टियों द्वारा विवाद (कण्टेंशन्स बाय पार्टीज ऑन इश्यूज)
याचिकाकर्ताओं (पिटीशनर्स)
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि आधार एक्ट की योजना अपने गुणों से प्रकृति में संभाव्य (प्रोबेबिलिस्टिक) है। एक्ट का उद्देश्य समाज को सब्सिडी, लाभ और सेवाओं का विस्तार करना है। यह संभव है कि समाज के उस वर्ग को इन लाभों, सब्सिडी और सेवाओं को प्रदान करने के बजाय, जिसके लिए ये हैं, यह उन्हें ऐसे लाभार्थियों को प्राप्त करने से बाहर कर सकता है।
मुख्य तर्क यह थे कि एक्ट देश के नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को छीन सकता है जो उन्हें इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के तहत गारंटी दी गई है। आधार एक्ट का सख्ती से क्रियान्वयन (इम्प्लीमेंटेशन) एक गंभीर समस्या हो सकती है क्योंकि यह उन मौलिक अधिकारों के विपरीत (कॉन्ट्ररी) है जो इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन में देश के नागरिकों को दिए गए हैं।
आधार कॉन्स्टिट्यूशन के उल्लंघन में था और इसमें घुसपैठ करने वाले राज्य को निगरानी राज्य बनने में सक्षम बनाने की क्षमता थी (एक राज्य जिसमें सरकार अपने नागरिकों की गतिविधियों की निगरानी करने की क्षमता रखती है) एक संयुक्त इलेक्ट्रॉनिक जाल बनाकर प्रत्येक व्यक्ति से एकत्र की जाने वाली जानकारी के आधार पर।
यह तर्क दिया गया था कि नागरिकों के निजता के अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है। निजता का अधिकार इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 यानी जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग है। एक्ट उन प्रतिबंधों (रेस्ट्रिक्शन्स) को लगाता है जो आर्टिकल 19 के तहत उचित प्रतिबंधों के रूप में प्रदान नहीं किए गए हैं। यदि कोई प्रतिबंध लगाया जाता है तो यह महत्वपूर्ण है कि वह इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 14 और 19 की आवश्यकताओं को पूरा करता हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा प्रतिबंध लगाने वाला कानून निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित हो।
वर्तमान मामले में, आधार एक्ट के माध्यम से सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध उचित प्रतिबंधों के अंतर्गत नहीं आते हैं और मनमाना और अनुचित हैं। कोई उचित वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) नहीं है क्योंकि एक्ट द्वारा बनाए गए समाज के वर्गीकरण और उस उद्देश्य के बीच कोई संबंध नहीं है जिसे प्राप्त करने के लिए एक्ट प्रयास करता है। नागरिकों से मांगी गई जानकारी नागरिकों की अखंडता (इंटीग्रिटी) का उल्लंघन करती है। एक्ट का उद्देश्य नागरिकों द्वारा एकत्र की जाने वाली जानकारी के साथ सांठगांठ (नेक्सस) में नहीं था। एक्ट ने धर्म के आधार पर नागरिकों का वर्गीकरण भी किया। धर्म के आधार पर वर्गीकरण ने न केवल नागरिकों के साथ भेदभाव किया बल्कि उन्हें अपने धर्म को प्रकट करने के लिए भी मजबूर किया जो इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 25 का उल्लंघन है। इसके अलावा, एक्ट ने कुछ लाभों का लाभ उठाने के लिए आधार कार्ड को भी अनिवार्य बना दिया जो सरकार द्वारा एक्ट के तहत नागरिकों को दिए गए थे। आधार कार्ड की बाध्यता सरकार को नागरिकों को अपनी निगरानी में रखने में भी सक्षम बनाएगी और यह कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा। निजता के अधिकार का उल्लंघन जीवन के अधिकार का एक बहुत ही गंभीर उल्लंघन है क्योंकि यह नागरिकों के जीवन और गरिमा का अतिक्रमण (एनक्रोचेस) करता है जो कि कॉन्स्टिट्यूशन के तहत गारंटीकृत मूल अधिकार है।
विभिन्न याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए ज्यादातर वकील इस बात से सहमत थे कि जहां तक निवासियों की विशिष्ट पहचान के लिए आधार संख्या के आवंटन (अलॉटमेंट) पर विचार किया जाता है, विवाद का कोई सवाल ही नहीं है।
आधार एक्ट के खिलाफ कुछ प्रसिद्ध वकीलों द्वारा दिए गए तर्क इस प्रकार थे:
श्याम दीवान
श्याम दीवान पहले वकील थे जिन्होंने याचिकाकर्ता की दलीलें शुरू कीं। उन्होंने आधार एक्ट, 2016 को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के अनुसार राज्य सब्सिडी और सेवाओं के माध्यम से अपने नागरिकों को लाभ प्रदान करने के लिए बाध्य है। आधार एक्ट इन लाभों को नागरिकों के लिए सशर्त बनाता है जो राज्य अपने नागरिकों को प्रदान करने के लिए बाध्य है। ऐसे लाभों का लाभ उठाने के लिए आधार एक्ट में नागरिकों को अपनी बायोमेट्रिक और डेमोग्राफिक जानकारी देने की आवश्यकता है। इसी आधार पर श्याम दीवान ने एक्ट की धारा 7 को चुनौती दी थी।
आधार एक्ट ने सरकार को उन नागरिकों को ट्रैक करने में सक्षम बनाया जिन्होंने उनके निजता के अधिकार का उल्लंघन किया और इसलिए यह असंवैधानिक था। यू.आई.डी.ए.आई राज्य को अपने आधार में प्रदान किए गए नागरिकों की संख्या को रद्द करने की शक्ति देता है और राज्य के इस तरह के एक्ट में कोई निवारण तंत्र (रिड्रेसल मैकेनिज्म) नहीं होगा।
कपिल सिब्बल
कपिल सिब्बल का मुख्य तर्क यह था कि जब कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया था तो नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी जो एक्ट प्राप्त करना चाहता है, की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। अधिनियम नागरिकों से चुनाव करने का अधिकार छीन लेता है क्योंकि एक्ट के अनुसार नागरिकों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सरकार द्वारा प्रदान किए गए लाभों और सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए राज्य को वह जानकारी दें जिसकी उन्हें आवश्यकता है। आधार अधिप्रमाणन (ऑथेंटिकेशन) के बिना नागरिकों को उन सरकारी लाभार्थियों से वंचित कर दिया जाएगा। आधार एक्ट उन नागरिकों से सूचनात्मक गोपनीयता (इन्फॉर्मेशनल प्राइवेसी) छीन लेता है जिन्हें निजता के अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।
उनके द्वारा यह तर्क दिया गया था कि नागरिकों से सूचना का संग्रह कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 का उल्लंघन करता है।
अरविंद दातार
अरविंद दातार ने तर्क दिया कि आधार एक्ट असंवैधानिक है क्योंकि इसे मनी बिल के रूप में नहीं माना जा सकता है। बैंक खातों को आधार से जोड़ना नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि उनके पास अपने बैंक खातों को यूनिक आईडी से जोड़े बिना संचालित (ऑपरेट) करने का विकल्प नहीं बचा है और इसलिए, यह कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 14 और 21 का उल्लंघन है। इसके अलावा, राज्य ने नागरिकों को अपने बैंक खातों को आधार से जोड़ने के लिए स्पष्टीकरण (एक्सप्लनेशन) भी दिया। ऐसा करने का एक कारण राज्य द्वारा दिए जाने की आवश्यकता थी ताकि उस उद्देश्य की व्याख्या की जा सके जिसे राज्य ऐसा करके प्राप्त करना चाहता है। चुनाव (चॉइस) करने का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जिसे निजता के अधिकार के तहत मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। आधार एक्ट नागरिकों द्वारा चुनाव करने का अधिकार छीन लेता है और इस प्रकार, कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
यह एक्ट कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 14 के तहत आनुपातिकता (प्रोपोर्शनालिटी) के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है क्योंकि आधार होने से व्यक्ति को एक वैध पहचान मिल जाएगी और जो कोई भी ऐसा करने में विफल रहता है उसे वैध पहचान नहीं माना जाएगा।
उन्होंने तर्क दिया कि इनकम टैक्स एक्ट की धारा 139AA, जो नागरिकों के लिए अपने आधार को अपने बैंक खातों से जोड़ना अनिवार्य बनाती है, कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार का उल्लंघन है और इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
पी चिदंबरम
पी चिदंबरम ने तर्क दिया कि आधार एक्ट किसी भी तरह से मनी बिल नहीं था और इसलिए इसके रूप में नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मनी बिल बनने के योग्य होने के लिए एक बिल को सख्त मानदंडों (क्राइटेरिया) से गुजरना पड़ता है जो निर्धारित किए गए हैं और यदि बिल ऐसे मानदंडों को पारित करता है तो इसे मनी बिल माना जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि सभी मनी बिल्स को राज्यसभा के माध्यम से जाने की जरूरत है और फिर इसे प्रेसिडेंट की सहमति के लिए पारित किया जाता है। प्रेसिडेंट के पास मनी बिल को पुनर्विचार (रिकंसीडरेशन) के लिए वापस भेजने की शक्ति है जिसे राज्यसभा द्वारा पारित किया गया है यदि उसे लगता है कि इसमें कुछ सुधार करने की आवश्यकता है।
इसलिए, आधार एक्ट के प्रावधान जो मनी बिल के मानदंडों को पूरा करने में विफल रहते हैं, उन्हें पारित नहीं माना जा सकता है और इसलिए पूरा कानून शून्य है और इसे रद्द करने की आवश्यकता है।
उत्तरदाताओं (रेस्पोंडेंट्स)
हलफनामे (एफिडेविट) में उत्तरदाताओं द्वारा यह कहा गया था कि एक्ट को पेश करने के पीछे उनका इरादा यह सुनिश्चित करना था कि सभी नागरिक जो सरकार द्वारा लाभ और सब्सिडी के लिए पात्र हैं, ऐसे लाभ और सब्सिडी प्राप्त करते हैं और इससे वंचित नहीं हैं।
उत्तरदाताओं द्वारा यह भी खंडन (रबूटेड) किया गया था कि आधार एक्ट ऐसी कोई जानकारी नहीं मांगता है जो किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन कर सकती है। उत्तरदाताओं द्वारा यह प्रस्तुत किया गया था कि एक्ट नागरिकों से कोई मुश्किल व्यक्तिगत जानकारी मांगता है जो उन पर राज्य की निगरानी को सक्षम कर सके। उत्तरदाताओं ने आगे कहा कि एक्ट नागरिकों से जो डेमोग्राफिक जानकारी मांगता है, उसमें नागरिकों का नाम, जन्म तिथि, लिंग, पता, मोबाइल नंबर और ईमेल पता शामिल है। राज्य को मोबाइल नंबर और ईमेल पता प्रदान करना नागरिकों के विकल्प पर छोड़ दिया गया था और इन दोनों की आवश्यकता केवल एएमएच को प्रासंगिक जानकारी प्रसारित करने और उनके प्रमाणीकरण के लिए वन टाइम पासवर्ड (ओटीपी) प्रदान करने के लिए है। एक्ट नागरिकों से जो जानकारी प्राप्त करना चाहता है वह सार्वजनिक डोमेन में है। उत्तरदाताओं द्वारा यह भी कहा गया था कि धारा 2(k) के तहत एक्ट विशेष रूप से प्रदान करता है कि विनियम नागरिकों से जाति, धर्म, जनजाति (ट्राइब), जातीयता (एथनिसिटी), भाषा, आय, पात्रता (एंटाइटलमेंट) के रिकॉर्ड या चिकित्सा इतिहास जैसी जानकारी नहीं मांग सकते हैं। और इसलिए, इस एक्ट के माध्यम से नागरिकों से कोई भी संवेदनशील (सेंसिटिव) जानकारी नहीं मांगी जा सकती है। ऊपर बताई गयी धारा के प्रकाश में किसी भी अतिरिक्त डेमोग्राफिक जानकारी प्राप्त करने का दायरा बहुत सीमित है और यहां तक कि बायोमेट्रिक जानकारी जो नागरिकों से प्राप्त करना चाहता है वह उनके फिंगरप्रिंट और आईरिस स्कैन तक सीमित है।
यह विशिष्ट बहिष्करण (एक्सक्लूजन), संदर्भ में, यह सुनिश्चित करता है कि अतिरिक्त (एडिशनल) डेमोग्राफिक जानकारी को शामिल करने का दायरा बहुत संकीर्ण (नैरो) और सीमित है। किसी व्यक्ति की पहचान करने के लिए इस तरह की बायोमेट्रिक जानकारी पूरी दुनिया में आम तौर पर प्राप्त की जाती है। इस प्रकार, प्रतिवादी का तर्क यह था कि आधार एक्ट जो जानकारी प्राप्त करना चाहता है वह गैर-आक्रामक (नॉन-इनवेसिव) और गैर-घुसपैठ (नॉन-इंट्रूसिव) पहचान जानकारी है।
डेटा प्रोटेक्शन और इन्फॉर्मेशनल प्राइवेसी पर व्यापक रिपोर्ट भारत के प्लानिंग कमीशन द्वारा रिटायर्ड जस्टिस एपी शाह की अध्यक्षता (चेयरमैनशिप) में तैयार की गई थी, रिपोर्ट में पांच मुख्य विशेषताएं शामिल हैं जिनका उद्देश्य नागरिकों की गोपनीयता की रक्षा करना है।
प्लानिंग कमीशन द्वारा सुझाया गया ढांचा निम्नलिखित पांच मुख्य विशेषताओं पर आधारित था:
- अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ तकनीकी तटस्थता (न्यूट्रैलिटी) और अंतःक्रियाशीलता (इंटरोऑपरेबिलिटी);
- बहुआयामी (मल्टी-डायमेंशनल) गोपनीयता;
- राज्य और गैर-राज्य संस्थाओं के लिए क्षैतिज प्रयोज्यता (हॉरिजॉन्टल ऍप्लिकेबिलिटी);
- गोपनीयता सिद्धांतों के अनुरूप (कन्फोर्मिटी); तथा
- एक सह-नियामक (को-रेगुलेटरी) प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) शासन।
31 जुलाई 2017 को, केंद्र सरकार ने देश में डेटा संरक्षण मानदंडों की समीक्षा (रिव्यु) करने और सिफारिशें करने के लिए एक समिति (कमिटी) का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता रिटायर्ड जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण, भारत के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश द्वारा की गयी थी। समिति ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट और पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल, 2018 का पहला ड्राफ्ट जारी किया था। यह व्यक्तिगत डेटा की प्रक्रिया को व्यापक रूप से संबोधित करता है। इसमें ऐसी जानकारी शामिल है जैसे भारत के क्षेत्र में इस तरह के डेटा को एकत्र, खुलासा, साझा या अन्यथा संसाधित किया गया है। यूरोप के जनरल डाटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (ई.यू.जी.डी.पी.आर) और यूरोपीय संघ के डेटा संरक्षण न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के प्रावधानों और सिद्धांतों का उपयोग बिल तैयार करने के उद्देश्य से किया गया था।
डेटा नियंत्रक की पारंपरिक अवधारणा जिसमें इकाई (एंटिटी) डेटा को संसाधित (प्रोसेस) करती है और जिस व्यक्ति का डेटा एकत्र किया जा रहा है उसे डेटा विषय के रूप में जाना जाता है, उसे ड्राफ्ट बिल द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस्ड) किया गया था। ड्राफ्ट बिल द्वारा पेश की गई नई अवधारणा ‘डेटा फिड्यूशरी और डैड प्रिंसिपल’ थी। नई अवधारणा का उद्देश्य इकाई और उस व्यक्ति के बीच विश्वास-आधारित संबंध स्थापित करना है जिसका डेटा एकत्र किया जा रहा है।
ड्राफ्ट बिल और रिपोर्ट में क्रमशः डेटा फिड्यूशरी और डेटा नियंत्रक (कंट्रोलर) के अधिकार और दायित्व शामिल हैं। इन अधिकारों में पहुंच और सुधार का अधिकार, डेटा पोर्टेबिलिटी का अधिकार और भूल जाने का अधिकार शामिल है – एक फिड्यूशरी द्वारा व्यक्तिगत डेटा के प्रकटीकरण (डिस्क्लोसर) को रोकने या प्रतिबंधित करने का अधिकार। सहमति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि इसे डेटा संरक्षण कानून के मसौदे में एक महत्वपूर्ण दर्जा दिया गया है। इस प्रकार, नागरिकों के व्यक्तिगत विवरणों को संसाधित करने की प्रक्रिया के प्रयोजन के लिए, यह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
उत्तरदाताओं द्वारा यह कहा गया था कि आधार एक पहचान पत्र के रूप में काम करता है जिसका उपयोग लगभग 92 करोड़ लोग विभिन्न सामाजिक योजनाओं तक पहुँचने या सरकार द्वारा अपने नागरिकों को प्रदान किए जाने वाले लाभों का लाभ उठाने के लिए करते हैं। यह एक ऐसा दस्तावेज है जिसका नागरिकों द्वारा व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है और इसे प्रतिबंधित करना नागरिकों के लिए एक समस्या पैदा करेगा। आधार एक दस्तावेज है जो मस्टर रोल और लाभार्थी सूचियों में दोहराव (डुप्लीकेशन) और प्रतिरूपण (इमपर्सोनेशन) का पता लगाने और समाप्त करने में सरकार की मदद कर सकता है। यह मनरेगा के तहत श्रमिकों (वर्कर्स) और पेंशन लेने वाले को को हर महीने अपना वेतन और पेंशन वापस लेने में भी मदद करता है।
उत्तरदाताओं ने गोपनीयता विवाद का भी खंडन करते हुए कहा कि एक्ट द्वारा प्राप्त किया गया डेटा सुरक्षित है क्योंकि यह अपने स्रोत पर एन्क्रिप्ट किया गया है और नागरिकों के सभी बायोमेट्रिक्स भारत सरकार के सर्वर में सरकार द्वारा संग्रहीत किए जाते हैं। भारत सरकार के सर्वरों का एक सुरक्षा मानक है जो दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक है। सरकार द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों का लाभ उठाने के लिए कार्ड या नकली कार्ड के दोहराव से नागरिकों से पूछे गए आधार नंबर की मदद से बचा जा सकता है। आधार उन बिच वाले व्यक्ति की भागीदारी को कम करने में भी मदद करेगा जो सरकार की सब्सिडी का एक हिस्सा निकालने की कोशिश करते हैं जो समाज के एक विशेष वर्ग के लिए उपलब्ध कराई जाती है। सरकारी सब्सिडी मुख्य रूप से खाद्यान्न (फ़ूड ग्रेन्स), उर्वरक (फर्टिलाइजर), पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी वस्तुओं और सेवाओं से संबंधित है। सरकार आमतौर पर इन वस्तुओं और सेवाओं को बाजार मूल्य से कम कीमत पर उपलब्ध कराती है। इस पहल को कुशलतापूर्वक कार्य करने के लिए आधार का उपयोग किया जा सकता है। आधार का उपयोग समाज के उन वर्गों को समय पर और सीधे भुगतान सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है जिनके लिए सरकार द्वारा सब्सिडी उपलब्ध कराई जाती है और धन के लीकेज को रोका जा सकता है। इस कदम से लीकेज में बर्बाद होने वाले हजारों करोड़ रुपये की बचत हो सकती है। सरकार ने करोड़ों डुप्लिकेट राशन कार्डों की पहचान की है, आधार यह सुनिश्चित कर सकता है कि समाज के कुछ वर्गों के लिए जो लाभ और सब्सिडी हैं, वे वास्तव में उन तक पहुंचें।
नागरिकों के लिए पैन कार्ड के लिए आवेदन करते समय और इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करने के लिए अपने आधार नंबर को उद्धृत (कोट) करने के लिए सरकार द्वारा शामिल प्रावधान के पीछे का उद्देश्य कर चोरों की पहचान उनके पैन कार्ड को आधार से जोड़ना है। पैन कार्ड को आधार से अनिवार्य रूप से जोड़ने से टैक्स चोरों पर अंकुश लग सकता है और यह भी सुनिश्चित हो सकता है कि एक व्यक्ति के पास केवल एक ही पैन कार्ड है। आधार को अनिवार्य बनाने से देश में चल रही धोखाधड़ी की प्रथाओं की पहचान की जा सकती है और इस पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया किसी व्यक्ति के नंबर को स्थायी (परमानेंटली) या अस्थायी (टेम्पोररीली) रूप से निष्क्रिय (डीएक्टिवेट) भी कर सकता है जो आधार में प्रदान किया गया है।
निर्णय (जजमेंट)
आधार एक्ट को सुप्रीम कोर्ट ने वैध ठहराया था। माननीय न्यायालय ने कहा कि डेटा को सुरक्षित रखने के लिए सरकार द्वारा पर्याप्त सुरक्षा उपाय किए गए हैं जिसे नागरिकों को आधार के लिए प्रकट करने के लिए कहा गया है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, दीपक मिश्रा की अगुवाई (लेड) वाली पांच जजों की बेंच ने मामले का फैसला किया। बेंच ने सरकार से कहा कि वह लोगों द्वारा प्राप्त आंकड़ों की सुरक्षा के लिए अधिक सुरक्षा प्रदान करने के उपाय करें। कोर्ट की ओर से यह भी कहा गया था कि आधार द्वारा प्राप्त की गई जानकारी को कमर्शियल बैंकों, भुगतान बैंकों और ई-वॉलेट कंपनियों को जारी नहीं किया जाना चाहिए। पेटीएम जैसी ई-वॉलेट कंपनियों ने अपने ग्राहकों से अपने आधार कार्ड का उपयोग करके केवाईसी करने के लिए कहा। कोर्ट ने कहा कि आधार की ऐसी जानकारी उन्हें जारी नहीं की जानी चाहिए। बेंच ने यह भी कहा था कि टेलीकॉम कंपनियां अपने ग्राहकों से नया सिम कार्ड खरीदते समय आधार का विवरण नहीं मांग सकती हैं और यहां तक कि स्कूल भी छात्रों को बोर्ड परीक्षा या एडमिशन के लिए अपना आधार नंबर प्रदान करने के लिए नहीं कहेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने आधार की वैधता को बरकरार रखा और सरकार के लाभों और सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए इसे अनिवार्य कर दिया। एक्ट यह सुनिश्चित करता है कि सरकार के लाभ और सब्सिडी उन लोगों को मिले जिनके लिए यह बनाई गई है। अदालत ने एक्ट की धारा 57 को असंवैधानिक करार दिया और इसलिए इसे रद्द कर दिया गया।
अदालत ने माना कि सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं, लाभों और सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य बनाया जाएगा क्योंकि यह गरीबों को सशक्त बनाता है और यह सुनिश्चित करता है कि लाभ और सब्सिडी समाज के उन वर्गों को मिले जिनके लिए इसका मतलब था। आधार एक्ट की धारा 57 को असंवैधानिक करार दिया गया और इसे रद्द कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर बच्चों के पास आधार कार्ड नहीं है तो उन्हें किसी भी सरकारी योजना के लाभ से वंचित नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आधार एक्ट के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा अपवाद को भी खारिज कर दिया।
कोर्ट ने पहचान पत्र और आधार के बीच का अंतर भी समझाया। आधार की एक विशिष्ट पहचान होती है और इसलिए इसे अन्य पहचान पत्रों की तरह डुप्लिकेट नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी कहा कि आधार का उद्देश्य यह सुनिश्चित करके समाज के गरीबों को पहचान देना और सशक्त बनाना है कि वे सरकार द्वारा उनके लिए प्रदान किए जाने वाले लाभों और सब्सिडी का लाभ उठाने में सक्षम हैं। इसलिए, सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आधार को अनिवार्य कर दिया गया है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
आधार एक्ट को समाज के वंचित वर्ग को पहचान और सशक्तिकरण (एम्पावरमेंट) देने के उद्देश्य से शुरू किया गया था। यह भारत के नागरिकों को एक विशिष्ट पहचान संख्या प्रदान करता है। आधार नंबर अद्वितीय (यूनिक) है और इसलिए, इसे डुप्लिकेट नहीं किया जा सकता है। विशिष्ट पहचान यह सुनिश्चित करती है कि सरकार के लाभ और सब्सिडी समाज के उस वर्ग द्वारा प्राप्त की जाती है जिसके लिए यह बनाई गई है। आधार अनुचित प्रथाओं और हजारों करोड़ रुपये के धन के लीकेज को रोक सकता है। मामले में कई गोपनीयता अधिकारों के सवाल भी उठाए गए थे। नागरिकों की गरिमा, इन्फोर्मटिव आत्मनिर्णय (सेल्फ-डेटर्मिनेशन) और सहमति के सवाल ने गोपनीयता अधिकारों के दावों का आधार बनाया।
निजता के अधिकार ने मामले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। 26 सितंबर 2018 को माननीय सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने प्रतिवादियों के पक्ष में फैसला सुनाया। आधार की वैधता को न्यायालय ने एक्ट के विभिन्न क्लॉजेस और धाराओं को रद्द करने के बाद बरकरार रखा था जो कॉन्स्टिट्यूशन के विपरीत थे और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करते थे। अधिकांश (मेजोरिटी) न्यायाधीशों को लिखने वाले न्यायमूर्ति एके सीकरी ने एक्ट की धारा 33 (2) और धारा 57 को समाप्त करने के बाद आधार एक्ट को वैध घोषित किया। याचिकाकर्ताओं द्वारा नागरिकों के निजता के अधिकार और राज्य की निगरानी की संभावना के साथ-साथ नागरिकों के आधार कार्ड के लिए सरकार द्वारा एकत्र की गई जानकारी के उल्लंघन की संभावना जैसे मुद्दों पर विभिन्न प्रश्न उठाए गए थे। याचिकाकर्ताओं के सवालों ने यू.आई.डी.ए.आई के इस दावे को कम कर दिया है कि उनकी प्रणाली (सिस्टम) दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक है और नागरिकों की जानकारी को सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त सुरक्षित है। न्यायालय ने आधार एक्ट को संवैधानिक रूप से वैध माना क्योंकि यह एक्ट कॉन्स्टिट्यूशन के उचित प्रतिबंधों के अधीन था।
अधिकांश माननीय बेंच ने यह भी कहा कि आधार एक्ट को बनाए रखने से नागरिकों के आधार कार्ड का लाभ उठाने का अधिकार सुरक्षित नहीं होगा। नागरिकों के पास कोई विकल्प नहीं होगा क्योंकि सरकार की सब्सिडी और लाभों का लाभ उठाने के लिए आधार अनिवार्य होगा और यदि आधार की कमी या अधिप्रमाणन समस्या के कारण किसी नागरिक को सरकार की सब्सिडी और लाभों का लाभ उठाने से बाहर रखा जाता है, तो इसका परिणाम नागरिक की गरिमा का हनन हो सकता है। बेंच ने यह भी कहा कि आधार को पैन कार्ड से जोड़ना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इसके पीछे कोई संवैधानिक तर्क नहीं है। एक्ट की धारा 33(2) और धारा 57 को समाप्त करने के बाद भी आधार को बनाए रखने से निजता के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है। नागरिकों के निजता के अधिकार की रक्षा के लिए न्यायालय ने निजी संस्थाओं द्वारा प्रमाणीकरण तंत्र का उपयोग करने या नागरिकों द्वारा आधार विवरण (डिटेल) मांगने की संभावना को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। न्यायालय द्वारा उठाया गया कदम नागरिकों के निजता के अधिकार की रक्षा करना था और यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि निजता का अधिकार वास्तव में एक मौलिक अधिकार है।