इंडियन पीनल कोड, 1860 के तहत विवाह से संबंधित अपराध (सेक्शन 493-498)

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3707
Indian penal Code
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यह लेख Priyamvada Singh, द्वारा लिखा गया है, जो की स्कूल ऑफ लॉ, गलगोटियास यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा से एल.एल.बी. (एच) कर रहीं हैं। यह लेख भारत में विभिन्न वैवाहिक अपराधों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

आम तौर पर, विवाह की स्वीकृत परिभाषा, विवाह-संस्कार या वेडलॉक है, जो असल में दो लोगों के बीच का मिलन होता है और जिसे सांस्कृतिक रूप से समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। यह सबंध, इस मिलन के द्वारा, साथ जुड़ने वाले दो लोगों, उनके बच्चों और ससुराल वालों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करने में मदद करता है।

हालाँकि, विवाह की पवित्र संस्था पीढ़ियों से चलती आ रही है और इसने, अपने रूप को विभिन्न वर्ज़न्स में बदलने की कोशिश की है, जिससे पहले वाले वर्ज़न्स ठीक हो सके, और बाद में यह सुनिश्चित किया जा सके की, किसी भी निर्दोष को नुकसान न पहुंचे। विभिन्न न्यायालयों द्वारा विभिन्न कानून और प्रिसिडेंट्स लाये गए हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए है। कई तरह के दुर्व्यवहार, जैसे की: एडल्ट्री, डेसर्शन, क्रूरता, आदि, विवाह के खिलाफ अपराध या वैवाहिक अपराधों के नाम से जाने जाते हैं।

कानून द्वारा बनाए गए विभिन्न सुरक्षात्मक कानूनों और समाज में कानून और व्यवस्था बनाने वालों द्वारा उठाए गए कदमों के बावजूद भी वैवाहिक अपराधों की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। प्रत्येक बीतते दिन के साथ, अधिक से अधिक महिलाओं को इन अपराधों की पीड़ितों की सूची में जोड़ा जाता है।

इससे भी बुरी बात यह है कि इनमें से ज्यादातर मामलों की रिपोर्ट तक नहीं की जाती, क्योंकि समाज अपने इन घिनोने और शर्मनाक कर्मो को स्वीकार नहीं करना चाहता। स्थिति और खराब तब हो जाती है, जब उसे असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य के साथ जोड़ दिया जाता है। समाज में, विशेष रूप से महिलाओं को कानून में बहुत कम या बिल्कुल भी विश्वास नहीं है। वे आम तौर पर लंबी, अंतहीन (अनेंडिंग ) कानूनी लड़ाई से डरतीं हैं, और उन्हें बनाए रखने के लिए आवश्यक भारी मात्रा में संसाधनों (रिसोर्सेज) से डरतीं हैं।

अपराध को पूरी तरह से स्पष्ट करने के लिए, बर्डन ऑफ़ प्रूफ (बी.ओ.पी.) वादी (प्लेनटिफ) पर होता है। यह साबित करना कि, वैवाहिक अपराध के परिणामस्वरूप तलाक का आधार बनता है और यह इसलिए भी सिद्ध करना जरूरी होता है क्योंकि बाद में यह मजिस्ट्रेट की अदालत में आवेदन (एप्लीकेशन) में फाइनेंशियल रिलीफ की अर्जी करने के लिए महत्वपूर्ण होता है। इस लेख में, हम इनमें से कई लेजिस्लेशन्स और ऐतिहासिक मामले के निर्णयों पर चर्चा करेंगे।

विवाह से संबंधित अपराध (ओफ्फेंसेस रिलेटेड टू मैरिज) 

इंडियन पीनल कोड, 1860 (आई.पी.सी.) के सेक्शन 493 से 498 में विवाह से संबंधित अपराधों का प्रावधान (प्रोविज़न) है। ये कानून, विवाह के विभिन्न पहलुओं और उनके बाद के अपराधों से संबंधित हैं। इनमें से सबसे अधिक प्रकाशित सेक्शन 498-A है, जो क्रूरता कानून (क्रुएल्टी लॉ) के रूप में जाना जाता है। डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट (जो 2005 में पास हुआ) के साथ-साथ इस क्रूरता कानून का उद्देश्य, क्रूरता और घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करना है। इस तरह की प्रकृति के बढ़ते मामलों के साथ, यह देखा गया कि यह सुनिश्चित करने के लिए, ऐसा कानून आवश्यक था जो भारत के कॉन्स्टीट्यूशन द्वारा प्रत्येक नागरिक को सौंपे गए जीवन और सम्मान के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) का अनुपालन कर सके। इसके अलावा, क्रूरता को भी विवाह के डिजोल्यूशन के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बनाया गया था।

अध्याय (चैप्टर) XX के अन्य वर्गों में शामिल हैं:

धोखे से शादी का विश्वास पैदा करने के बाद सहवास (कोहेबिशन आफ्टर डीसीटफुल्ली इंड्यूसिंग ए बिलीफ ऑफ़ मैरिज )

सेक्शन 493, उस प्रत्येक पुरुष के लिए है, जो किसी महिला के साथ विवाहित होने के बहाने से उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए धोखा देता है। इसके लिए इंडियन पीनल कोड, जुर्माना के साथ दस साल की कारावास की सजा का प्रावधान करती है। यह खंड काफी समय से सांसदों के बीच विवाद का विषय रहा है।

पति या पत्नी के जीवनकाल में दोबारा शादी करना (मैरिंग अगेन ड्यूरिंग द लाइफटाइम ऑफ़ हस्बैंड और वाइफ)

सेक्शन 494 में यह कहा गया है कि यदि कोई अपने पति या पत्नी के जीवनकाल में दोबारा शादी करता है तो वह कार्य, इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 50 और सी.आर.पी.सी. के सेक्शन 198(1)(C) (को साथ पढ़ने पर) बाइगेमी कहलाता है।

हालाँकि, आई.पी.सी का सेक्शन 494 अपवादों का प्रावधान करती है, जैसे:

  1. यदि पहली शादी को निम्नलिखित द्वारा अमान्य घोषित किया गया हो:
  • अदालत द्वारा,
  • कंपीटेंट ज्यूरिस्डिक्शन धारण करना
  1. यदि पहला पति या पहली पत्नी सात साल की अवधि के लिए लगातार अनुपस्थित हो और
  • जिंदा रहने के बारे में नहीं सुना
  • बशर्ते, कि इस बारे में खुलासा उस व्यक्ति को किया गया हो जिसके साथ दूसरी शादी हुई है।

उपरोक्त अपराध को बाइगेमी कहा जाता है। यह पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा एक-दूसरे के प्रति किया जा सकता है।

उपरोक्त प्रावधान की बेहतर समझ के लिए, हिंदू मैरिज एक्ट के सेक्शन 17 और इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 108 के साथ-साथ, श्रीमती सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य (1995) के ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का उल्लेख किया जाना चाहिए। इस मामले ने, इस्लाम में धर्मांतरण (कन्वर्जन) करके दूसरी शादी करने की प्रथा के खिलाफ, सिद्धांतों को निर्धारित किया था, जिसमें पहली शादी को खत्म नहीं किया गया था। यह फैसला बाइगेमी के मुद्दे पर चर्चा करता है, विवाह के मामलों पर मौजूद व्यक्तिगत कानूनों के बीच संघर्ष और इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 44 को लागू करता है। इसे एक ऐतिहासिक निर्णय माना जाता है, जिसने यूनिफार्म सिविल कोड की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

दुबारा शादी करने से पहले अपनी पूर्व शादी को छुपाना (कन्सिलिंग द  प्रीवियस मैरिज बिफोर सबसीकुएंटली गेटिंग वेड )

सेक्शन 495 उस व्यक्ति के लिए दस साल की कारावास की अवधि के बारे में बात करती है, जो किसी ऐसे व्यक्ति से जिससे वे शादी कर रहा हैं, उससे अपनी पूर्व शादी को छुपाता है। यह एक नॉन कॉग्निजेबल, बेलेबल अपराध है, जिसकी सुनवाई फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है।

वैध, वास्तविक विवाह के बिना कपटपूर्वक विवाह समारोह का संचालन (फ्रॉड्युलेंट कंडक्शन ऑफ़ वेडिंग सेरेमनी विदाउट ए लॉफुल, जेनुइन मैरिज)

सेक्शन 496 में जुर्माने के साथ-साथ सात साल तक की जेल की सजा का प्रावधान है उन व्यक्तियों के लिए जो बेईमानी से, धोखाधड़ी के इरादे से शादी करता है, यह जानते हुए भी कि यह कानूनी रूप से वैध विवाह नहीं हैं।

एडल्ट्री

पहले, सेक्शन 497 अपराधी को पांच साल तक की जेल की सजा का प्रावधान था, जो किसी व्यक्ति की सहमति के बिना किसी अन्य पुरुष की पत्नी के साथ यौन संबंध रखता था। यदि यह बलात्कार नहीं है, तो व्यक्ति एडल्ट्री के अपराध का दोषी होता है। ऐसे मामले में, पत्नी एक अबेटर के रूप में दंडनीय नहीं होगी।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस कानून को अब अपराध से मुक्त कर दिया गया है, लेकिन यह अब भी तलाक के लिए एक मजबूत आधार है।

एक विवाहित महिला को अवैध यौन संबंधों के लिए लुभाना (एन्टाइसिंग ए मैरिड वुमन फॉर इल्लिसिट सेक्शुअल रिलेशन्स)

आई.पी.सी. के सेक्शन 498 में दो साल की जेल की सजा का प्रावधान है, जो किसी भी महिला जिसे वह जनता हो या यह मानता हो कि वह किसी अन्य पुरुष की पत्नी है और उसे छुपाता हो, रोकता हो, या लुभाता हो, इस आशय से कि वह किसी व्यक्ति के साथ अवैध संबंध बना सकती है।

छल और कपटपूर्ण इरादा विवाह के समय मौजूद होना चाहिए।

सेक्शन 493 और 496 के आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं:

  1. आरोपी ने महिला को धोखा दिया हो,
  2. जिसके परिणामस्वरूप उसे विश्वास हो जाता है, कि उसने कानूनी रूप से उससे शादी की है, हालांकि वास्तव में, वह नहीं है।

इस प्रकार, मेंस रिया इन दोनों सेक्शंस का एक अनिवार्य भाग है। ‘छल’, ‘बेईमानी’ और ‘कपटपूर्ण आशय’ शब्दों का प्रयोग क्रमशः सेक्शन 493 और 496 में किया गया है। इसका मतलब यह है कि दोनों सेक्शंस में पुरुष इस बात से अवगत रहता है कि उनकी शादी नहीं हुई है, और उनके द्वारा उस महिला को धोखा दिया गया है कि वह सच में उसका पति है।

ऐतिहासिक निर्णय

सुभ्रांसु शेखर सामंत्रे बनाम द स्टेट (2002) के ऐतिहासिक मामले में, उड़ीसा हाई कोर्ट ने तर्क दिया कि अभियोक्ता (प्रोसिक्यूटर) का बयान, कि उसने आरोपी के साथ यौन संबंध स्थापित करने का विरोध किया था, लेकिन जब उसने उसके सिर पर सिंदूर लगाया और उसे अपनी पत्नी के रूप में घोषित किया, और यह कहा कि वह नौकरी पाने के बाद सार्वजनिक रूप से अपने जीवन में उसकी स्थिति को स्वीकार करेगा, तो उस महिला ने उसको स्वीकार कर लिया, इसलिए आई.पी.सी. के सेक्शन 493 के तहत अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त है।

कसूरी बनाम रामास्वामी (1978) में, अदालत ने कहा, “संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स) के सबूत को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों  के अनुसार अनुमान लगाया जाना चाहिए क्योंकि इस मामले में प्रत्यक्ष साक्ष्य (डायरेक्ट एविडेंस) शायद ही कभी साबित हो”।

जब सेक्शन 498 के बारे में सवाल उठता है, तो आलमगीर बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार (1958) का एक ऐतिहासिक निर्णय सामने आता है, जिसमें अदालत ने कहा था कि “यदि कोई पुरुष जानबूझकर दूसरे की पत्नी के साथ इस इरादे से वंचित (गोज़ अवे) हो जाता है की उसके पति का उस पर से नियंत्रण हैट जाये और वह व्यक्ति उसके साथ अवैध संबंध बना सके, तो यह सेक्शन 498 के तहत एक अपराध होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने मो. होशन बनाम स्टेट ऑफ ए.पी. (2002) में निष्कर्ष निकाला कि, क्रूरता का मुद्दा, अनिवार्य रूप से तथ्य का सवाल (क्वेश्चन ऑफ़ फैक्ट) है, और प्रकृति में काफी व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) है। किसी व्यक्ति पर शिकायतों, आरोपों या ताने का प्रभाव क्रूरता के रूप में पीड़ित के विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे: संवेदनशीलता (सेंस्टिविटी), सामाजिक-आर्थिक (सोशिओ-इकनोमिक) पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड), शिक्षा आदि।

अदालत ने आगे विस्तार से बताया कि मानसिक क्रूरता, एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होती है- इस पर निर्भर करता है:

  • संवेदनशीलता की तीव्रता,
  • साहस (करेज) की डिग्री, और,
  • इस प्रकार की क्रूरता का सामना करने के लिए सहनशक्ति, और यह की प्रत्येक मामले को तत्काल मामले के आधार पर निपटाया जाना चाहिए।

हालाँकि, इन सुधारों ने पिछले दो दशकों के दौरान कानून में अपनी जगह बना ली है, भारत में वैवाहिक अपराधों से संबंधित कानूनों के खिलाफ एक आम आलोचना (क्रिटिसिज्म) देखी गई है कि महिलाएं इन कानूनों का दुरुपयोग करती हैं। यह बात अक्सर पुलिस, राजनेताओं और यहां तक ​​कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों सहित विभिन्न क्षेत्रों द्वारा बताई गई है।

दुरुपयोग का आरोप खासकर सेक्शन 498A के खिलाफ और सेक्शन 304B में डाउरी डेथ के अपराध के खिलाफ भी लगाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक दशक से भी कम समय पहले, सुशील कुमार शर्मा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य (2005) के ऐतिहासिक मामले में कहा था कि प्रावधान का उद्देश्य दहेज के खतरे को रोकना है, लेकिन तब से कई ऐसे मामले सामने आए जहां शिकायतें गुड फेथ में नहीं हैं और गलत मकसद से दर्ज़ की गई हैं।

कभी-कभी प्रतिकूल (अनफेवर्ड), अवांछित (अनवांटेड) मीडिया कवरेज दुख को बढ़ा देती है। हालांकि, 243वें लॉ कमीशन की रिपोर्ट, जो अगस्त 2012 में सामने आई थी, ने कहा कि कानून का दुरुपयोग, प्रावधान को इसकी एफ्फिकेसी से हटाने का आधार नहीं है क्योंकि इसमें एक बड़ा सामाजिक हित शामिल है।

इसलिए, प्रश्न यह है कि इस तरह के अच्छे इरादे वाले कानून को दुरुपयोग से बचने के लिए कौन-कौन से उपचारात्मक (रेमेडियल) उपाय किए जाने चाहिए। कानून की संवैधानिकता और इंट्रा वायर्स प्रकृति, निश्चित रूप से लोगों के लिए व्यक्तिगत प्रतिशोध (वेंगियन्स) के लिए दूसरों को परेशान करने के लिए नहीं है। इस प्रकार सांसदों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे इस बात का पता लगाएं कि कैसे तुच्छ शिकायतों या आरोपों से उचित तरीके से निपटा जा सकता है।

अर्नेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार और अन्य (2014) के मामले में एक दशक से भी कम समय में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 498A के विशेष संदर्भ में घोषित किया कि अभियुक्तों द्वारा कथित रूप से किए गए अपराधों में तुरंत कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए और यह अपराध कॉग्निजेबल और नॉन बेलेबल है, और झूठी शिकायतों की संख्या में वृद्धि के कारण सेक्शन के तहत की गई गिरफ्तारी से संबंधित, पुलिस अधिकारियों के लिए सख्त दिशा-निर्देशों का पालन करना जारी रखा।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

वैवाहिक अपराध प्रकृति में बहु-कारण (मल्टी कॉजल) और बहु-आयामी (मल्टी डाइमेंशनल) होते हैं। उन्हें स्ट्रेट जैकेट पद्धति से संबोधित (एड्रेस) करना असंभव है। यह संस्कृति, और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से परे है। हालांकि, निश्चित रूप से इसके अंदर सामान्य कारक (फैक्टर्स) हैं। महिलाओं के खिलाफ वैवाहिक अपराधों के बढ़ते मामलों की जड़ें इंडिफरेन्स और लापरवाही में गहराई से निहित हैं, जो मुख्य रूप से महिलाओं पर पुरुषों की श्रेष्ठता की सामान्य स्वीकृति (एक्सेप्टेन्स) का परिणाम है, जो इन अपराधों की प्रकृति की लिंग विशिष्टता (स्पेसिफिसिटी) से स्पष्ट है।

आज के समय में,  महिलाओं के खिलाफ विभिन्न प्रकार के प्रचलित अपराधों में वैवाहिक अपराध शामिल हैं जिनमें बाइगेमी, एडल्ट्री, आपराधिक पलायन आदि शामिल हैं और जो शायद सबसे आम अपराध है, वह क्रूरता है। समय के साथ, अदालतों ने विभिन्न उदाहरणों को शामिल करने के लिए परिभाषा के दायरे का विस्तार (ब्रॉडन) किया है। वैवाहिक अपराधों से निपटने के प्रावधानों को इस तरह से तैयार किया गया है कि, अगर कुछ न्यूनतम (मिनिमम) आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है, तो आरोपी के खिलाफ एक अनुमान लगाया जा सकता है।

फिर भी, ऐसे कानूनों को पूरे और अच्छी तरह से उपयोग के लिए अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। इन कानूनों में अभी भी स्पष्टता की गुंजाइश है, विवाद के विषयों को खत्म किया जाना है। इन समस्याओं से निपटने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। चूंकि इन अपराधों की प्रकृति में हितों (इंटरेस्ट) का एक बड़ा संघर्ष (कनफ्लिक्ट) शामिल है, इसलिए उनसे इस तरह से निपटने की आवश्यकता है कि, परिवारों और उसके सहयोगी कारकों, जैसे: बच्चों, को कम से कम नुकसान पहुंचे। महिलाओं के लिए इस तरह के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का समय आ गया है। आर्टिकल 51A (e) के तहत कॉन्स्टीट्यूशन यह मांग करता है कि भारत का प्रत्येक नागरिक उन प्रथाओं का त्याग करे जो महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक हैं। पति द्वारा हिंसा के खिलाफ पत्नी की भूमिका में एक महिला की शारीरिक और व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा के लिए कानून में सामान्य सुधार की भी आवश्यकता है।

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