राज्य विधानमंडल: भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 168 से 212 तक

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Constitution of India
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यह लेख बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लॉ स्कूल के छात्र Aniket Tiwari द्वारा लिखा गया है। यह लेख राज्य विधानमंडल (स्टेट लेजिस्लेचर) के बारे में है और इसमें इससे संबंधित सभी आर्टिकल शामिल हैं जिनका उल्लेख भारत के संविधान में किया गया है। इस लेख का अनुवाद Sakshi kumari ने किया हैl

Table of Contents

परिचय

भारत के संविधान को पूरी दुनिया में सबसे लंबे लिखित संविधानों में से एक माना जाता है। हमारा संविधान हमें एक संघीय (फेडरल) ढांचा देता है जहां केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच शक्तियां विभाजित हैं। हम में से अधिकांश लोग केंद्रीय विधायिका (सेंट्रल लेजिस्लेचर) के कामकाज और केंद्रीय विधायिका से संबंधित शक्तियों के बारे में जानते हैं। संविधान का भाग VI राज्य विधानमंडल से संबंधित है। इस लेख में हम भारतीय संविधान के इस भाग पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यहां हम एक सदनीय (यूनिकेमरल) और द्विसदनीय (बाईकेमरल) विधायिका की चर्चा करेंगे। राज्य विधानमंडल के इन सदनों के निर्माण और उन्मूलन (एबोलिशन) पर चर्चा करेंगे।  राज्य विधानमंडल का सदस्य होने के लिए किसी व्यक्ति की योग्यता का चर्चा कराने। अंत में हम भारतीय संविधान के अनुच्छेद (आर्टिकल) 168 से 212 पर चर्चा करेंगे। राज्य विधानमंडल में काम करने की प्रक्रिया और कार्यविधि (प्रोसीजर) को समझना काफी जटिल है लेकिन भारत के संविधान को पढ़ने के बाद इसे समझना आसान हो जाता है।

द्विसदनीय और एक सदनीय विधानमंडल

द्विसदनीय और एकसदनीय विधायिका क्या है, इस पर चर्चा करने से पहले, आइए पहले चर्चा करें कि विधायिका क्या है। विधायिका राज्य की कानून बनाने वाली संस्था है। यह राज्य के तीन अंगों में प्रथम है। यह कानून बनाने के साथ-साथ सरकार का प्रशासन (एडमिनिस्टर) भी कर सकता है। जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 में उल्लेख किया गया है, एक राज्य में एक सदनीय विधायिका (यह विधान सभा होनी चाहिए) और साथ ही एक द्विसदनीय विधायिका [विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल) और विधान सभा (लेजिस्लेटिव असेंबली)] हो सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, प्रत्येक राज्य में विधायिका होगी और इसमें एक राज्यपाल (गर्वनर) होगा।

  • एक सदनीय विधानमंडल

एक सदनीय विधायिका से तात्पर्य केवल एक विधायी कक्ष से है जो कानून बनाने, बजट पारित करने और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मामलों पर चर्चा करने जैसे सभी कार्य करता है। यह दुनिया में प्रमुख है क्योंकि अधिकांश देशों में एक सदनीय विधायिका है। यह विधायिका का एक प्रभावी रूप है क्योंकि कानून बनाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है और कानून बनाने की प्रक्रिया में बाधा की संभावना कम हो जाती है। एक अन्य लाभ यह है कि विधायिका के एकल कक्ष (सिंगल चैंबर) को बनाए रखना आर्थिक रूप से व्यवहार्य (फिजिबल) है। यह भारत में सबसे प्रचलित प्रणाली (सिस्टम) है क्योंकि भारत के अधिकांश राज्यों में एक सदनीय विधायिका है। एक सदनीय विधायिका (विधान सभा) के सदस्य राज्य के नागरिकों द्वारा सीधे चुने जाते हैं।

  • द्विसदनीय विधानमंडल

द्विसदनीय विधायिका से, हम राज्य को बजट पारित करने और कानून बनाने जैसे कार्यों को करने के लिए दो अलग-अलग कानून बनाने वाले सदनों का उल्लेख करते हैं। भारत में केंद्र स्तर पर द्विसदनीय विधायिका है जबकि राज्य द्विसदनीय विधायिका बना सकता है। भारत में, केवल 7 राज्यों में द्विसदनीय विधायिका है। यह देखा जा सकता है कि एक द्विसदनीय विधायिका एक सदनीय विधायिका की तरह प्रभावी नहीं हो सकती है। हालांकि, यह कुछ मामलों में एक अवरोध के रूप में काम करता है क्योंकि यह किसी भी तरह कानून बनाने की प्रक्रिया को और कुछ ज्यादा ही मुस्किल बना देता है।

विधान परिषदों का उन्मूलन या निर्माण (एबोलिशन एंड क्रिएशन ऑफ लेजिस्लेटिव काउंसिल)

हमारे देश में, विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल के रूप में भी जाना जाता है) एक द्विसदनीय विधायिका का उच्च सदन (अपर हाउस) है। जिसका निर्माण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 169 में दिया गया है और इसे संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार समाप्त भी किया जा सकता है।

अनुच्छेद 168 में हमारे देश के कुछ राज्यों में विधान परिषद का उल्लेख है। भारत के राज्य में द्विसदनीय विधायिका होने का कोई नियम नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं को पता था कि हर राज्य के लिए द्विसदनीय विधायिका (वित्तीय या किसी अन्य कारण से) होना संभव नहीं होगा।

अनुच्छेद 169 विधान परिषद के निर्माण या समाप्ति की बात करता है। विधान परिषद के निर्माण या उन्मूलन के लिए, विधान सभा को एक प्रस्ताव पारित करना होगा जिसे विधानसभा की कुल संख्या के 50% से अधिक का समर्थन करना होगा। इसे मतदान में उपस्थित कुल सदस्यों के 2/3 से अधिक का समर्थन प्राप्त होना चाहिए। इसलिए यह पूर्ण और विशेष बहुमत की बात करता है। विधान परिषद बनाने या समाप्त करने के प्रस्ताव को भी राष्ट्रपति की सहमति की आवश्यकता होती है।

सदनों की संरचना (कंपोजिशन ऑफ हाउसेस)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 170 विधान सभाओं के विन्यास (कंफीग्रेशन) के बारे में बात करता है। यह अनुच्छेद केवल इस बात पर जोर देता है कि राज्य में विधान सभाओं की संरचना क्या होगी। दूसरी ओर, विधान परिषद का विन्यास भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171 में दिया गया है।

  • विधान सभा (लेजिस्लेटिव असेंबली)

अनुच्छेद 170 के अनुसार भारत के प्रत्येक राज्य में एक विधान सभा होनी चाहिए। हालांकि, ये विधानसभाएँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 333 के प्रावधानों (प्रोविजन) के अनुसार होनी चाहिए। राज्य की विधान सभा में अधिकतम 500 निर्वाचन क्षेत्र (कांस्टीट्यूएनसीज) और कम से कम 60 निर्वाचन क्षेत्र हो सकते हैं। इन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व उन सदस्यों द्वारा किया जाएगा जिनका चयन प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) चुनाव की प्रक्रिया के माध्यम से किया जाएगा। हालांकि, क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन इस तरह से निर्धारित किया जाएगा कि यह उस निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या पर निर्भर हो जाए। यहाँ “जनसंख्या” शब्द से हमारा तात्पर्य उस जनसंख्या से है जो पूर्ववर्ती जनगणना (प्रेसिडेंट सेंसस) में प्रकाशित हो चुकी है। किसी भी राज्य में विधान सभा की संरचना (स्ट्रक्चर) उस राज्य की जनसंख्या में परिवर्तन के अनुसार बदल सकती है। यह जनसंख्या की जनगणना द्वारा निर्धारित किया जाता है। हालांकि, विधान सभा की संरचना के कई अपवाद (एक्सेप्शन) हैं। आइए मिजोरम, सिक्किम और गोवा का उदाहरण लें, जिसमें 60 से कम निर्वाचन क्षेत्र हैं।

विधान सभा के कार्यकाल (टेन्योर) या अवधि का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 172 में किया गया है। विधान सभा को 5 साल की अवधि के लिए काम करना चाहिए। इसका कार्यकाल इसकी पहली बैठक के दिन से शुरू होता है। हालांकि, इसे कानून द्वारा स्थापित विशेष प्रक्रिया द्वारा पहले भंग (डिसॉल्व) किया जा सकता है। हालांकि, विधान सभा के कार्यकाल में विस्तार हो सकता है। यह राष्ट्रीय आपातकाल (नेशनल इमरजेंसी) के दौरान किया जा सकता है। राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि के दौरान, संसद विधान सभा के कार्यकाल को अधिकतम 1 वर्ष की अवधि के लिए बढ़ा सकती है। साथ ही, उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) के बंद होने के बाद यह विस्तार 6 महीने से अधिक नहीं होना चाहिए।

  • विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल)

विधान परिषद की संरचना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171 में दी गई है। विधान परिषद में कुल सदस्य राज्य विधान सभा के कुल सदस्यों के एक तिहाई से अधिक नहीं होने चाहिए। विधान परिषद के गठन के लिए एक और मानदंड (क्राइटेरिया) है। विधान परिषद में सदस्य किसी भी स्थिति में 40 से कम नहीं होने चाहिए। विधान परिषद की संरचना में एक अपवाद है। अन्य विधान परिषद के विपरीत, जम्मू और कश्मीर की विधान परिषद में विधान परिषद में केवल 36 सदस्य हैं।

विधान परिषद की संरचना को आगे निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है:

  • विधान परिषद के सदस्यों में से एक तिहाई सदस्य जिला बोर्डों, नगर पालिकाओं और अन्य स्थानीय प्राधिकरणों से चुने जाने चाहिए जो संसद द्वारा कानून के अनुसार निर्दिष्ट किए जाते हैं।
  • इसके सदस्यों का बारहवां हिस्सा उस व्यक्ति से चुना जाएगा जो कम से कम 3 साल की अवधि के लिए एक ही राज्य में रह रहा हो और उस विश्वविद्यालय से स्नातक (ग्रेजुएट) हो जो भारत के क्षेत्र में है।
  • इसके कुल सदस्य का बारहवां हिस्सा उस व्यक्ति से चुना जाना चाहिए जो राज्य के ही शैक्षणिक संस्थान में कम से कम 3 साल के लिए शिक्षण पेशे में लगा हो।
  • एक तिहाई विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित किया जाना चाहिए और उनमें से कोई भी विधान सभा का सदस्य नहीं होना चाहिए।
  • शेष सदस्यों को स्थापित कानून के अनुसार राज्यपाल द्वारा मनोनीत (नॉमिनेटेड) किया जाना चाहिए।

सदस्यता की योग्यता (क्वालिफिकेशन ऑफ मेंबर्स)

विधानों के दोनों सदनों की इतनी जानकारी के बाद, हम अगले विषय पर आगे बढ़ सकते हैं। यहां हम चर्चा करेंगे कि विधान सभा/परिषद का सदस्य होने के लिए किन योग्यताओं की आवश्यकता होती है।

सदस्यता की योग्यता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 173 में दी गई है। सदस्यता के लिए या राज्य की विधायिका में एक सीट भरने के लिए, एक व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए। किसी व्यक्ति को सदस्यता नहीं दी जाएगी यदि वह उस देश का नागरिक नहीं है। साथ ही, सदस्यता की योग्यता कुछ हद तक केंद्र विधायिका की सदस्यता की योग्यता के समान है। विधान सभा के सदस्य की आयु 25 वर्ष से अधिक होनी चाहिए। विधान परिषद का सदस्य होने के लिए आयु 30 वर्ष से अधिक होनी चाहिए। साथ ही, विधायिका का सदस्य होने के लिए एक आवश्यक शर्त में यह भी शामिल है कि वह राज्य के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से मतदाता होना चाहिए।

सदस्यता की अयोग्यता (डिस्क्वालिफिकेसन ऑफ मेंबर्स)

विधायिका के सदस्य के रूप में निर्वाचित/नामित होने के बाद, कोई भी विधायिका का स्थायी सदस्य नहीं हो सकता है। संविधान में कुछ ऐसे कारण बताए गए हैं जिनके द्वारा किसी व्यक्ति को विधानमंडल की सदस्यता से अयोग्य ठहराया जा सकता है। अनुच्छेद 191 विधानमंडल के सदस्यों की अयोग्यता की बात करता है।

विधायक/एमएलसी की अयोग्यता निम्नलिखित आधारों पर की जा सकती है:

  1. यदि कोई राज्य या केंद्र सरकार के अधीन लाभ का पद (ऑफिस ऑफ प्रॉफिट) धारण करता है।
  2. यदि कोई विकृत (अनसाउंड) दिमाग का है और सक्षम न्यायालय द्वारा ऐसा घोषित किया गया है।
  3. यदि कोई अनुन्मोचित दिवालिया (अनडिस्चार्ज इंसोल्वेंट)  है।
  4. यदि अब कोई देश का नागरिक नहीं है या जब उसने स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता ली है।
  5. यदि कोई व्यक्ति संसद के कानून द्वारा अयोग्य घोषित किया जाता है। उदाहरण- दलबदल विरोधी कानून।

अयोग्यता पर निर्णय

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 192 राज्य विधानमंडल के सदस्य की अयोग्यता पर निर्णय के बारे में बात करता है। यदि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 191 में वर्णित किसी भी आधार पर विधानमंडल के सदन के सदस्य की अयोग्यता के बारे में कोई प्रश्न उठता है, तो अनुच्छेद 192 चलन में आता है। अनुच्छेद 192 में उल्लेख है कि ऐसे मामलों में अयोग्यता के बारे में निर्णय उस राज्य के राज्यपाल द्वारा निर्धारित किया जाएगा और उनका निर्णय अंतिम होगा। हालांकि, राज्यपाल को इसके लिए चुनाव आयोग से परामर्श करने की आवश्यकता होती है और उसे उसके अनुसार कार्य करने की आवश्यकता होती है। यहां, अयोग्यता के आधार वही होंगे जो अनुच्छेद 191 में उल्लिखित हैं।

राज्य विधानमंडल के सत्र (सेशन ऑफ स्टेट लेजिस्लेचर)

अगले विषय पर आगे बढ़ते हुए हम इन राज्य विधानमंडलों के सत्रों पर चर्चा करेंगे। इसके सत्रावसान (प्रोरोगेशन) और विघटन (डिसोल्यूशन) के समय पर भी हम यहां चर्चा करेंगे। साथ ही, राज्य विधानमंडल के विश्लेषण के बाद एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि विधान सभा किसी तरह लोक सभा के समान है जबकि विधान परिषद राज्य परिषद (राज्य सभा) के समान है। उनके सत्र भी काफी समान हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 174 राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के इन सदनों को बुलाने की शक्ति देता है। वह इन निकायों (बॉडीज) को उन स्थानों पर और ऐसे समय पर मिलने के लिए बुला सकता है जो वह उचित या उपयुक्त समझे। लेकिन एक आवश्यक शर्त यह ध्यान में रखनी चाहिए कि इन सदनों के दो सत्रों के बीच की अवधि 6 महीने से अधिक नहीं होनी चाहिए। साथ ही जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 174 में उल्लेख किया गया है, राज्यपाल के पास किसी भी सदन का सत्रावसान करने और विधान सभा को भंग करने की शक्ति है।

अध्यक्ष और उपाध्यक्ष (स्पीकर एंड डेप्युटी स्पीकर)

प्रत्येक विधायी भाग के प्रमुख या प्रभारी की आवश्यकता होती है। विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष विधान सभा में समान उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 178 उसी के बारे में बात करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार विधानसभा में से एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव होना चाहिए। इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि यदि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त हो जाता है तो विधान सभा का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह क्रमश: नए अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव करे।

अध्यक्ष की शक्तियां और कार्य 

अनुच्छेद 178 अध्यक्ष को राज्य की विधान सभा के सत्रों की अध्यक्षता करने की शक्ति देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 93 में उल्लिखित समान शक्तियां लोकसभा के अध्यक्ष को दी गई हैं। एक भारतीय अध्यक्ष की शक्ति और स्थिति काफी हद तक इंग्लैंड में हाउस ऑफ कॉमन्स के अध्यक्ष के समान होती है।

अध्यक्ष का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विधानसभा के सत्रों की अध्यक्षता करना और विधानसभा में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखना है। विधानसभा के भीतर, अध्यक्ष मास्टर होता है। उसके पास यह तय करने की शक्ति है कि विधेयक (बिल) धन विधेयक (मनी बिल) है या नहीं। साथ ही अध्यक्ष के फैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। धन विधेयकों को अध्यक्ष के अनुमोदन से विधान परिषद् को भेजा जाता है। अध्यक्ष का वेतन राज्य की संचित निधि (कंसोलिडेटेड फंड) से दिया जाता है।

अध्यक्ष के अन्य कार्य/शक्तियाँ इस प्रकार हैं:

  • वह विधानसभा की बहस में भाग नहीं लेता है।
  • केवल तभी वोट करें जब टाईब्रेक की स्थिति हो।
  • वह देखता/देखती है कि क्या आवश्यक क्वोरम है।
  • उसके पास आवश्यक गणपूर्ति (क्वोरम) न होने पर विधानसभा की बैठक को स्थगित या निलंबित करने और सदन का अनुशासन बनाए रखने की शक्ति है।
  • उसके पास उसके अनियंत्रित व्यवहार के लिए सदस्य को निलंबित या निष्कासित करने की शक्ति है।

विधान परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष: अनुच्छेद 182,183,184,185

विधान परिषद का कार्य काफी जटिल है। सदस्यता की प्रक्रिया, उसके प्रमुख की नियुक्ति और विधान परिषद की शक्ति को भी समझना काफी कठिन है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 182 के अनुसार, विधान परिषद को अपने दो सदस्यों को अध्यक्ष और उपसभापति (डेप्युटी चेयरमैन) के रूप में चुनना होगा। इसमें यह भी उल्लेख है कि विधान परिषद को अपने पद के रिक्त होते ही विधान परिषद के अध्यक्ष और उपसभापति का चयन करना चाहिए।

अध्यक्ष और उपसभापति के पद बहुत बार खाली हो जाते हैं। हालांकि, उन्हें हटाने/इस्तीफा देने का कारण संविधान के अनुच्छेद 183 में उल्लिखित है। कारण इस प्रकार हैं:

  1. यदि वे विधान परिषद के सदस्य नहीं हैं तो उन्हें अपने पद पर नहीं रहना चाहिए।
  2. एक दूसरे को लिखित त्याग पत्र भेजकर।
  3. उन्हें परिषद में एक प्रस्ताव पारित करके हटाया जा सकता है। हालांकि, इस प्रस्ताव के समर्थन में सदस्यों का बहुमत होना चाहिए। संकल्प पारित करते समय याद रखने योग्य एक महत्वपूर्ण बात यह है कि संकल्प के आशय की सूचना 14 दिन के पूर्व दी जानी चाहिए।

अब कल्पना कीजिए कि विधान परिषद के सभापति का पद रिक्त है। फिर, जो प्रश्न हमारे सामने होगा वह विधान परिषद में उनके स्थान के प्रतिस्थापन (रिप्लेसमेंट) से संबंधित होगा या विधान परिषद के कामकाज की देखभाल कौन करेगा। प्रश्न के दूसरे भाग का उत्तर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 184 में दिया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार, उपसभापति के पास कर्तव्यों का पालन करने और विधान परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की शक्ति है। अनुच्छेद 184 के अनुसार यदि अध्यक्ष का पद रिक्त होता है तो अध्यक्ष के सभी कर्तव्यों का पालन उपसभापति द्वारा किया जाएगा और यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालन राज्यपाल द्वारा नियुक्त व्यक्ति द्वारा किया जाएगा। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 185 के बारे में बात करते हुए, यह अध्यक्ष या उपाध्यक्ष पर कुछ प्रतिबंध लगाता है जब उनका महाभियोग (इंपीचमेंट) प्रस्ताव विचाराधीन (अंडर कंसीडरेशन) होता है। यह केवल यह बताता है कि एक अध्यक्ष या उपाध्यक्ष परिषद की अध्यक्षता नहीं कर सकता जब उनके महाभियोग का प्रस्ताव विचाराधीन हो। यहां इस स्थिति में अनुच्छेद 184 लागू होगा। साथ ही, अनुच्छेद 185 में यह दिया गया है कि जब ऐसा संकल्प विचाराधीन हो तो अध्यक्ष को विधान परिषद की कार्यवाही में उपस्थित होने का पूरा अधिकार होता है और उसे ऐसी कार्यवाही के दौरान बोलने का पूरा अधिकार होगा। यहां, सभापति को कार्यवाही के पहले चरण में वोट देने का अधिकार है, लेकिन वह वोटों की समानता की स्थिति में वोट नहीं दे पाएगा।

विधायी प्रक्रिया (लेजिस्लेटिव प्रोसिजर): अनुच्छेद 196

विधायिका का मुख्य उद्देश्य कानून बनाना, विधेयक पारित करना आदि है। विधायिका या विधायी प्रक्रिया के कामकाज को समझने के लिए आइए पहले “विधयक” शब्द पर चर्चा करें। विधेयक से हमारा तात्पर्य विधायी प्रस्ताव से है। विधानमंडल के दोनों सदनों से स्वीकृति मिलने के बाद यह विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बाद अधिनियम बन जाता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 196 हमें विधेयक को पेश करने और पारित करने के प्रावधानों के बारे में बताता है। धन विधेयक और वित्तीय विधेयक को छोड़कर (इन विधेयकों को पारित करने की प्रक्रिया अनुच्छेद 198 और 207 में दी गई है), अन्य विधेयक विधायिका के किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं। किसी भी विधेयक को तभी पारित कहा जाता है जब उसे विधायिका के दोनों सदनों से सहमति मिल जाती है। यहां दोनों सदनों को विधेयक में किए गए संशोधन पर सहमत होना चाहिए। जब कोई विधेयक सदन में लंबित हो और उस सदन का सत्रावसान हो तो वह व्यपगत (लैप्स) नहीं होगा। किसी भी राज्य की विधान परिषद में लंबित कोई विधेयक जो विधान सभा द्वारा पारित नहीं किया गया है, वह विधान सभा के भंग होने पर भी व्यपगत नहीं होगा। साथ ही, अनुच्छेद 196 में एक शर्त का उल्लेख किया गया है जिसमें कहा गया है कि यदि विधानसभा में कोई विधेयक लंबित है और उस समय विधानसभा भंग हो जाती है, तो विधेयक भी अंत में समाप्त हो जाएगा। यदि विधेयक विधानसभा द्वारा पारित हो जाता है और परिषद द्वारा लंबित है तो विधेयक भी समाप्त हो जाएगा।

  • साधारण विधेयक (ऑर्डिनेरी बिल)

साधारण विधेयक से संबंधित प्रावधान या प्रक्रिया पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 196 में चर्चा की गई है। राज्य विधानमंडल का मुख्य उद्देश्य कानून बनाना है जैसा कि इस अनुच्छेद में पहले ही चर्चा की जा चुकी है। विधायिका राज्य सूची के साथ-साथ समवर्ती सूची (कंकर्रेंट लिस्ट) पर भी कानून बना सकती है। साधारण विधेयक किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। अनुच्छेद 196 में दी गई प्रक्रिया यहां लागू होती है और राज्यपाल से हस्ताक्षर मिलते ही यह कानून बन जाता है। जब किसी कानून की आवश्यकता होती है और विधायिका सत्र में नहीं होती है तो राज्यपाल के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति होती है।

  • धन विधेयक (मनी बिल)

धन विधेयक एक ऐसा विधेयक है जो सरकारी खर्च या कराधान (टैक्सेशन) से संबंधित है। धन विधेयक को पारित करने की प्रक्रिया साधारण विधेयक से काफी भिन्न होती है। इसकी प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 198 में दी गई है। भारत के संविधान के इस अनुच्छेद के अनुसार, धन विधेयक केवल निचले सदन यानी विधान सभा में ही पेश किया जा सकता है। धन विधेयक के विधान सभा और उस राज्य में पारित होने के बाद तो यह विधेयक विधान परिषद को इसकी सिफारिश (रिकमेंडेशन) के लिए भेजा जाएगा। वही विधेयक प्राप्त होने की तारीख से 14 दिनों के भीतर विधानसभा को वापस कर दिया जाना चाहिए। विधानसभा या तो सिफारिश को स्वीकार कर सकती है या विधानसभा के विवेक के अनुसार किसी भी सिफारिश को अस्वीकार कर सकती है। फिर वही विधेयक दोबारा परिषद को भेजा जाता है और परिषद के पास विधेयक को पारित करने के लिए 14 दिनों की समयावधि होती है। यदि विधान परिषद ऐसा करने में विफल रहती है, तो इसे दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है।

विधेयकों को स्वीकृति (एसेंट टू बिल): अनुच्छेद 200

अब तक हमने देखा है कि किसी विधेयक को राज्य विधानमंडल के सदनों से किस प्रकार स्वीकृति मिलती है। इसके बाद, अनुच्छेद 200 चलन में आता है। जैसा कि अनुच्छेद 200 में उल्लेख किया गया है, विधेयक दोनों सदनों की सहमति प्राप्त करने के बाद और फिर राज्यपाल को भेजा जाता है। यह तब राज्यपाल के विवेक के अधीन आता है कि वह अपनी सहमति दे या रोक दे। वह राष्ट्रपति के विचार के लिए सहमति भी सुरक्षित रख सकता है।

यहां राज्यपाल को सिफारिश के संदेश के साथ इस विधेयक को जल्द से जल्द राज्य विधानमंडल को वापस करना है। यहां फिर से, इन सिफारिशों को विधायिका द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है और एक बार फिर यह विधेयक राज्यपाल को उनकी पुष्टि के लिए भेजा जाता है। अब उसके पास केवल दो विकल्प बचते हैं, वह या तो इस विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है।

राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित विधेयक: अनुच्छेद 201

राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयक में आरक्षित होने के लिए उचित आधार होना चाहिए। कोई भी विधेयक राज्यपाल द्वारा सुरक्षित रखा जा सकता है जो उसे लगता है कि कानून के खिलाफ है। इस विधेयक की आगे की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 201 में दी गई है। जो विधेयक राष्ट्रपति के पास उनके विचार के लिए आरक्षित है, उन्हें या तो उनके द्वारा सहमति दी जानी चाहिए। राष्ट्रपति अपनी सहमति भी रोक सकते हैं। राष्ट्रपति तब राज्यपाल को एक संदेश के साथ सदन/विधायिका के सदनों को विधेयक वापस करने का निर्देश देता है (संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार) जो पहले राज्यपाल द्वारा भेजा गया था। इस विधेयक पर 6 महीने की अवधि के भीतर राज्य विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए। और फिर से यदि विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाता है, तो इसे फिर से राष्ट्रपति के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत किया जाता है।

इस अनुच्छेद के विरोधाभास का एक उदाहरण के.पी. कोचानुजन थिरुमुलपाद बनाम केरल राज्य के मामले में, जहां एक याचिका दायर की गई थी और एक विधेयक की वैधता पर एक प्रश्न पूछा गया था जो कि पुनर्विचार की अवधि के दौरान राष्ट्रपति से कोई निर्देश आने से पहले पारित किया गया था। यहां याचिका को खारिज कर दिया गया और यह माना गया कि कुछ प्रतिबंध/आधार हैं जिन पर अनुच्छेद 201 लागू नहीं होता है।

विधान में प्रयोग की जाने वाली भाषा: अनुच्छेद 210

राज्य विधानमंडल में सभी कार्यवाही जैसे कानून बनाने की प्रक्रिया राजभाषा में या राज्य की भाषा में या हिंदी या अंग्रेजी में होनी चाहिए। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 210 में दिया गया है। यहां, विशेष परिस्थितियों में सभापति या उपसभापति सदस्य को अन्य भाषाओं का उपयोग करने की अनुमति दे सकते हैं (जो इस अनुच्छेद में ऊपर वर्णित किसी भी भाषा में स्वयं को व्यक्त नहीं कर सकते हैं)। यहां, कानून में इस्तेमाल होने वाली भाषा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि, एक प्रावधान है जो यह निर्धारित करता है कि यदि राज्य विधानमंडल 15 वर्षों के बाद भी अंग्रेजी भाषा के उपयोग के लिए कोई कानून नहीं बनाता है, तो अनुच्छेद 210 से अंग्रेजी शब्द अपने आप समाप्त हो जाएगा।

वित्तीय मामलों में प्रक्रिया: अनुच्छेद 202 से 207

प्रत्येक राज्य का राज्य विधानमंडल वित्त से संबंधित मामलों में एक विशेष प्रक्रिया का पालन करता है। ये प्रक्रियाएं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 202 से अनुच्छेद 207 में दी गई हैं। इन अनुच्छेदों में उल्लिखित प्रक्रिया इस प्रकार है:

  1. अनुच्छेद 202 (वार्षिक वित्तीय विवरण): राज्यपाल का यह कर्तव्य है कि वह उस वर्ष के लिए राज्य की अनुमानित प्राप्तियों और व्यय (एक्सपेंडिचर) को निर्धारित करे। इसे वार्षिक वित्तीय विवरण के रूप में जाना जाता है।
  2. अनुच्छेद 203 (अनुमानों से संबंधित विधायिका में प्रक्रिया): किसी राज्य की संचित निधि से व्यय से संबंधित अनुमानों को विधान सभा के मत के लिए प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन यहां उल्लिखित किसी भी चीज का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह उन अनुमानों से संबंधित विधानमंडलों की चर्चा को रोकता है। अनुदान की मांग राज्यपाल की सिफारिश पर ही की जा सकती है।
  3. अनुच्छेद 204 (विनियोग (अप्रोप्रिएशन) विधेयक): अनुच्छेद 203 के तहत अनुदान देने के बाद, विधानसभा एक विधेयक पेश करेगी जो राज्य की संचित निधि से विधानसभा द्वारा दिए गए धन से संबंधित मामलों के लिए विनियोग का प्रावधान करेगा।
  4. अनुच्छेद 205 (पूरक (सप्लीमेंट), अतिरिक्त (एडिशनल) या अधिक अनुदान (एक्सेस ग्रांट)): इस अनुच्छेद में, राज्यपाल पूरक अनुदान की अनुमति दे सकता है (जब व्यय अनुमान से अधिक है) और उसके पास किसी विशेष सेवा के लिए दी गई धनराशि का विस्तार करने की शक्ति है।
  5. अनुच्छेद 206 (लेखों पर वोट, क्रेडिट के वोट या असाधारण क्रेडिट): यह अनुच्छेद दी गई स्थिति में विधान सभा की शक्ति या अधिकार के बारे में बात करता है।
  • अनुच्छेद 203 में दी गई प्रक्रिया के पूरा होने तक किसी वित्तीय वर्ष के एक भाग के लिए अनुमानित व्यय के संबंध में अग्रिम (एडवांस)।
  • राज्य के संसाधनों पर अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) मांग को पूरा करने के लिए अनुदान देना।
  • असाधारण अनुदान देना जो चालू वित्तीय वर्ष का हिस्सा नहीं है।
  1. अनुच्छेद 207 (वित्तीय विधेयकों से संबंधित विशेष प्रावधान): वित्तीय विधेयक को विधान परिषद में और राज्यपाल की सिफारिश के बिना पेश नहीं किया जाना चाहिए।

प्रक्रिया के सामान्य नियम (जनरल रूल्स ऑफ प्रोसिजर)

राज्य के प्रत्येक अंग के समुचित कार्य के लिए कुछ नियम और कानून बनाना महत्वपूर्ण है। इसी तरह, राज्य विधानमंडल के सुचारू कामकाज के लिए कुछ सामान्य प्रक्रिया नियम बनाए गए हैं। ये भारतीय संविधान के अनुच्छेद 208अनुच्छेद 212 से दिए गए हैं। इन अनुच्छेदों के अंतर्गत सभी प्रावधानों की व्याख्या नीचे की गई है:-

  • अनुच्छेद 208- राज्य विधानमंडल के सदनों को अपने आचरण, इसकी प्रक्रिया और अपने कार्य के संचालन के लिए नियम और विनियम (रेगुलेशन) बनाने की शक्ति है।
  • अनुच्छेद 209– वित्तीय व्यवसाय के संबंध में राज्य के विधानमंडल में प्रक्रिया के कानून द्वारा विनियमन।
  • अनुच्छेद 210– यह उस भाषा के बारे में बात करता है जिसका प्रयोग विधानमंडल में किया जाना है।
  • अनुच्छेद 211– यह उस विषय के प्रतिबन्ध के बारे में है जिस पर विधायिका में कोई चर्चा नहीं होगी।
  • अनुच्छेद 212- यह अनुच्छेद बताता है कि न्यायालय विधायिका की कार्यवाही की जांच नहीं कर सकते हैं।

निष्कर्ष

इस लेख में, हमने राज्य विधानमंडल के सभी पहलुओं पर चर्चा की है। कुछ कमियों में से एक यह है कि राज्यों के लिए परिषद का होना अनिवार्य नहीं है और यह विभिन्न राज्यों के राज्य विधानमंडल में एकरूपता को भंग करता है। मुझे लगता है कि राज्य विधानमंडल प्रणाली में एकरूपता होनी चाहिए। लेकिन इसे कभी-कभी भारतीय संविधान की सुंदरता के रूप में माना जा सकता है क्योंकि यह राज्य विधानसभा को उसी मुद्दे पर निर्णय लेने का मौका देता है। हमारे संविधान के भाग VI ने राज्य विधानमंडल को दिए गए कार्यों के तरीके और विभिन्न शक्तियों के बारे में बहुत स्पष्ट कर दिया है।

संदर्भ

  • DD Basu -An introduction to the Constitution of India

 

 

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