आईपीसी की धारा 420 

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Indian Penal Code

यह लेख गुरु गोबिंद सिंह, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की छात्रा Akshita Rohatgi द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय दंड संहिता, 1960 की धारा 420 की व्याख्या करता है और इस धारा से संबंधित बारीकियों पर प्रकाश डालता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

कक्षाओं से लेकर बॉलीवुड फिल्मों तक, ‘चार सौ बीस’ या ‘420’ का इस्तेमाल किसी ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो धोखेबाज या पीछे से बार करने वाला है। लोगों को ‘420’ कहने की यह प्रथा धोखाधड़ी पर भारत के औपनिवेशिक (कोलोनियल) युग के कानून के कारण उत्पन्न हुई है।

धोखाधड़ी के अपराध और उसके घटकों (कॉन्स्टीट्यूएंट) को भारतीय दंड संहिता 1860 (आईपीसी) की धारा 415 के तहत परिभाषित किया गया है। संहिता की धारा 417 के तहत धोखाधड़ी की सजा निर्धारित की गई है। इस प्रावधान के बावजूद, धोखाधड़ी के गंभीर रूपों के लिए सजा की आवश्यकता थी। यह धारा 420 द्वारा निपटाया गया था, जो धोखाधड़ी के एक ऐसे मामले को दंडित करता है जिसमें अपराधी बेईमानी से संपत्ति के वितरण (डिलीवरी) के लिए प्रेरित करता है या मूल्यवान सुरक्षा के साथ हस्तक्षेप करता है।

धोखाधड़ी (आइपीसी की धारा 415)

धोखाधड़ी को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 415 के तहत परिभाषित किया गया है। यह एक ऐसे मामले की व्याख्या करता है जहां एक अपराधी किसी को संपत्ति देने के लिए धोखा देता है या जानबूझकर धोखा देने वाले व्यक्ति को ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है या ऐसा करने से चूक जाता है जिससे उस व्यक्ति के शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान होने की संभावना होती है। धारा 420 के तहत किसी कार्य को दंडित करने के लिए धोखाधड़ी स्थापित करना आवश्यक है।

तत्व

धारा 415 का पहला भाग ऐसी स्थिति से संबंधित है जहां-

  • आरोपी व्यक्ति द्वारा धोखा किया गया था,
  • धोखे से किसी का प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) हुआ,
  • इस प्रकार किया गया प्रलोभन कपटपूर्ण और/या बेईमान है,
  • प्रेरित व्यक्ति या तो कुछ संपत्ति वितरित करता है या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी संपत्ति के प्रतिधारण (रिटेंशन) के लिए सहमति देता है।

इस धारा के तहत धोखाधड़ी करने का दूसरा तरीका ऐसे मामले हैं जहां

  • आरोपी ने किसी को धोखा दिया है,
  • धोखे की वजह से किसी को प्रलोभन हुआ,
  • इस प्रकार किया गया प्रलोभन जानबूझकर था,
  • वह व्यक्ति कुछ ऐसा करने या न करने के लिए प्रेरित है जो वह अन्यथा नहीं करता,
  • कार्य या चूक के कारण या तो प्रेरित व्यक्ति के शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान होने की संभावना थी।

राम जस बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1970) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने धोखाधड़ी के अपराध को गठित करने में निम्नलिखित तत्वों को आवश्यक माना-

  1. धोखा देने वाले व्यक्ति द्वारा कपटपूर्ण या बेईमानी का प्रलोभन, और
  2. धोखा देने वाले व्यक्ति को; 
  • किसी व्यक्ति को संपत्ति देने के लिए प्रेरित करना चाहिए या सहमति लेनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति संपत्ति को अपने पास रखेगा; या
  • धोखा देने वाले व्यक्ति को जानबूझकर कुछ करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए या कुछ ऐसा करने से चूकना चाहिए जो उन्होंने नहीं किया होता अगर उन्हें धोखा नहीं दिया गया होता, और
  • ऊपर वाले के मामले में जानबूझकर प्रलोभन का कार्य या चूक एक ऐसी प्रकृति का होना चाहिए जो इस प्रकार प्रेरित व्यक्ति को नुकसान या हानि पहुंचाए। यह हानि उनके शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को हो सकती है।

आइपीसी की धारा 420

आईपीसी की धारा 415 में धोखाधड़ी को परिभाषित किया गया है। धारा 420 धोखाधड़ी के गंभीर रूपों के लिए सजा का प्रावधान करती है जहां अपराधी बेईमानी से किसी व्यक्ति को कोई संपत्ति देने या किसी मूल्यवान सुरक्षा में हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करता है।

दूसरे शब्दों में, धारा 420 विशेष रूप से धोखाधड़ी के गंभीर मामलों को दंडित करती है। धोखाधड़ी का कोई भी कार्य, चाहे कपटपूर्ण या बेईमानी से, धारा 417 के तहत दंडनीय है। इसके विपरीत, धारा 420 विशेष रूप से ऐसे मामले को दंडित करती है जहां धोखाधड़ी बेईमानी से की जाती है और इसकी विषय वस्तु संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा है।

इस धारा के तहत, धोखा देने वाले व्यक्ति को

  1. या तो किसी अन्य व्यक्ति को कोई संपत्ति देने के लिए प्रेरित किया गया है, या
  2. वह या तो बनाता, बदलता या नष्ट करता है
  • संपूर्ण मूल्यवान सुरक्षा या इसका कोई भाग, या
  • कुछ ऐसा जो हस्ताक्षरित, मुहरबंद (सील्ड) और एक मूल्यवान सुरक्षा में परिवर्तित होने में सक्षम है।

3. प्रलोभन या संपत्ति के वितरण के समय एक दोषी इरादा मौजूद होना चाहिए।

यहां यह साबित करना जरूरी है कि संपत्ति का बंटवारा आरोपी के बेईमान प्रलोभन के कारण हुआ है। इसके अलावा, वितरित संपत्ति का उस व्यक्ति जिसे धोखा दिया गया है के लिए कुछ मौद्रिक (मोनेट्री) मूल्य होना चाहिए।

धोखाधड़ी के आवश्यक तत्व 

धोखा 

धारा 420 के तहत एक सफल अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) के लिए धोखे को साबित करना अनिवार्य है। आम बोलचाल में, धोखे का मतलब जानबूझकर किसी को किसी ऐसी चीज पर विश्वास करने के लिए प्रेरित करना समझा जाता है जो सच या गलत नहीं है। यह जानबूझकर धोखा प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इंडायरेक्ट) और शब्दों या आचरण से हो सकता है। यह लेनदेन की प्रकृति में व्यक्त या निहित (इंप्लाइड) हो सकता है। हालाँकि, जो वास्तव में धोखे का गठन करता है वह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

धारा 420 के तहत अपराध के लिए, तथ्यों को छिपाने के लिए कपटपूर्ण या बेईमानी का इरादा वादा या प्रतिनिधित्व करते समय मौजूद होना चाहिए। अभियोजन पक्ष को यह साबित करने की आवश्यकता है कि अपराधी को पता था या पता होना चाहिए था कि उनके द्वारा किया गया प्रतिनिधित्व झूठा था। इसके अलावा, प्रतिनिधित्व विशेष रूप से किसी अन्य व्यक्ति को धोखा देने के इरादे से किया जाना चाहिए। धारा 415 के तहत स्पष्टीकरण के अनुसार, तथ्यों को बेईमानी से छिपाना धोखा है। यह छिपाव अपने आप में अवैध नहीं होना चाहिए और इसका अभ्यास तब भी किया जा सकता है जब बोलने के लिए कोई कानूनी बाध्यता न हो।

ऐसा मामला जहां आरोपी वादा करता है कि उनका वादा पूरा करने का कोई इरादा नहीं है, तो वह धोखाधड़ी के दायरे में आएगा। इरादे की यह कमी उस समय साबित होनी चाहिए जब प्रतिनिधित्व किया गया था या जब किसी आरोपी द्वारा प्रलोभन की पेशकश की गई थी। अगर किसी का वादा निभाने का इरादा है लेकिन बाद में वह विफल हो जाता है, तो धारा 420 के तहत अभियोजन विफल हो जाएगा। मामला सिविल दायित्व पैदा कर सकता है लेकिन आपराधिक नहीं।

बेईमानी से (आईपीसी की धारा 24)

आईपीसी की धारा 24 के तहत ‘बेईमानी’ शब्द को परिभाषित किया गया है। यह किसी भी कार्य को शामिल करती है जो गलत तरीके से लाभ या संपत्ति के गलत नुकसान का कारण बनने के इरादे से किया जाता है। धारा 24 के तहत प्रतिष्ठा को नुकसान शामिल नहीं किया गया है।

इस धारा के दायरे में होने के लिए, कार्य को गैरकानूनी तरीकों से लाभ या हानि का कारण होना चाहिए। इस तरह के एक कार्य का परिणाम संपत्ति से उस व्यक्ति जो कानूनी रूप से हकदार नहीं है, को लाभ होना चाहिए या दूसरे व्यक्ति जो कानूनी रूप से इसका हकदार है, को संपत्ति का नुकसान होना चाहिए।

कपटपूर्ण (आईपीसी की धारा 25)

कपटपूर्ण को आईपीसी की धारा 25 के तहत परिभाषित किया गया है। आईपीसी के तहत किसी कार्य को कपटपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक एकमात्र तत्व यह है कि इसे धोखाधड़ी और वास्तविक या संभावित चोट के इरादे से किया जाए।

डॉ विमला बनाम दिल्ली प्रशासन (1962) के मामले में धोखे के परीक्षण को निर्धारित किया गया था। अपराधी जानबूझकर कुछ असत्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके अलावा, उन्हें उस कार्य से कुछ लाभ प्राप्त करना चाहिए जो तब संभव नहीं होता जब सच्चाई का पता चल जाता।

जानबूझकर प्रलोभन

इस तत्व के अंतर्गत आने वाले किसी कार्य के लिए, किसी भी व्यक्ति के लिए कोई भी गतिविधि करने के लिए जानबूझकर प्रलोभन होना चाहिए जो उनके लिए हानिकारक है। यदि प्रेरित किए जाने वाले व्यक्ति को धोखा नहीं दिया गया था तो प्रेरित करने वाले के लाभ के लिए कार्य संभव नहीं हो सकता है। यह प्रलोभन वास्तव में उस व्यक्ति को शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति में नुकसान पहुंचा सकता है।

जानबूझकर प्रतिनिधित्व

धोखा देने के अपराध के लिए मेन्स रीआ जरूरी है। धोखा देने के इरादे से जानबूझकर प्रतिनिधित्व करना धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है। इस प्रकार, प्रतिनिधित्व का निर्माण करने वाले व्यक्ति को पता होना चाहिए कि उनका प्रतिनिधित्व झूठा है।

प्रलोभन

धोखाधड़ी के अपराध के लिए, एक कपटपूर्ण या बेईमान कार्य के लिए धोखा देने वाले व्यक्ति को संपत्ति देने या मूल्यवान सुरक्षा में हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

श्री भगवान समरधा श्रीपधा वल्लभ वेंकट विश्वानंद महाराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 1999 के मामले में, एक साधु का पैसे के लिए यह दावा कि उसके स्पर्श से एक छोटी लड़की की विकलांगता ठीक हो सकती है को एक प्रलोभन माना गया था। अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल प्रार्थना करने से प्रलोभन नहीं होगा। हालाँकि, यह प्रतिनिधित्व किया गया था कि उस व्यक्ति के पास दैवीय शक्तियाँ थीं और परिणामस्वरूप, उसे धन दिया गया था। इस प्रकार, यह धारा 420 के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा।

नुकसान 

धारा 420 के तहत अपराध के लिए, यह साबित करना आवश्यक है कि पीड़ित को कुछ नुकसान हुआ है या होने की संभावना है।

आकस्मिक (कैजुअल) संबंध

धारा 415 के तहत धोखाधड़ी की परिभाषा में प्रलोभन के सभी प्रत्यक्ष, निकटवर्ती (प्रोक्सीमेट) प्राकृतिक और संभावित परिणाम शामिल हैं। हालांकि, बेईमान प्रलोभन और नुकसान के बीच एक आकस्मिक संबंध मौजूद होना चाहिए। इस प्रकार हुआ नुकसान दूरस्थ (रिमोट), अस्पष्ट या संयोगवश (बाई चांस) नहीं होना चाहिए।

कोई नुकसान नहीं हुआ है

ऐसी स्थिति जहां आरोपी को कोई लाभ नहीं मिलता है लेकिन छल से दूसरे को नुकसान होता है, उसे धोखाधड़ी के अपराध के तहत शामिल किया जाता है।

हरि साओ बनाम बिहार राज्य, (1969) में, एक रेलवे स्टेशन मास्टर ने एक झूठे प्रतिनिधित्व के अनुसार रसीद पर एक पृष्ठांकन (एंडोर्समेंट) किया। इस कार्य से रेलवे या मास्टर को कोई नुकसान नहीं हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 420 के तहत नुकसान या इसके होने की संभावना आवश्यक है। इसके बिना धोखाधड़ी का कोई अपराध गठित नहीं किया जाएगा। ऐसे में आरोपी को बरी कर दिया गया था।

राज्य बनाम रामदास नायडू (1976), में मद्रास उच्च न्यायालय को एक अजीबोगरीब मामले का सामना करना पड़ा। झूठा प्रतिनिधित्व कर आरोपी ने कर्ज लिया था। हालांकि बैंक को कोई नुकसान नहीं हुआ था। नुकसान होने की भी कोई संभावना नहीं थी, क्योंकि ऋण पूरी तरह से आरोपियों द्वारा दी गई प्रतिभूतियों (सिक्योरिटी) से ले लिया गया था। हालांकि, आरोपी को गलत तरीके से लाभ हुआ था। इस प्रकार उन्हें धोखाधड़ी के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था।

आईपीसी की धारा 420 के लिए सजा

धारा 420 के तहत किसी अपराध के लिए अनिवार्य जुर्माने के साथ सात साल तक की सजा का प्रावधान है। अदालत के विवेक के आधार पर यह कारावास सरल या कठोर हो सकती है।

साक्ष्य 

धारा 420 के तहत एक मामले के लिए, यह सलाह दी जाती है कि किसी भी चीज को बरकरार रखा जाए जिसका इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया जा सकता है कि जब आरोपी ने प्रतिनिधित्व किया था तब से ही धोखा देने का इरादा था। इसके बाद आरोपी के सभी कार्यों और चूकों से धोखे को साबित करने में मदद मिलेगी यदि अपराधी द्वारा अपना वादा निभाने का कोई प्रयास नहीं किया गया था। इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी दस्तावेज़, बातचीत की रिकॉर्डिंग (संदेश सहित), गवाह आदि का उपयोग किया जा सकता है।

अपराध की प्रकृति

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (‘सीआरपीसी’) की अनुसूची 1 के तहत, धारा 420 के तहत अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-जमानती है। यह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट से कम किसी भी अदालत द्वारा विचारणीय (ट्रायबल) नहीं है। सीआरपीसी की धारा 320 अदालत की अनुमति से धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति द्वारा धोखाधड़ी को कंपाउंड या निपटाने की अनुमति देती है।

अन्य अपराधों से तुलना

आईपीसी की धारा 417

आईपीसी की धारा 417 धोखाधड़ी के एक साधारण मामले को सजा देती है। धोखा दिया गया व्यक्ति संपत्ति को नुकसान या मूल्यवान सुरक्षा में हस्तक्षेप के अलावा अन्य कारणों से घायल होता है।

यह धारा, धारा 415 के दूसरे भाग से संबंधित है जिसमें पहले भाग की तुलना में नरमी से दण्ड दिया जाता है। इसमें अधिकतम एक साल की कैद, जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। धारा 420 में अनिवार्य होने के विपरीत 417 में जुर्माना अनिवार्य नहीं है।

हरि सिंह गौर के अनुसार, दोनों के बीच एक और महत्वपूर्ण अंतर है। यदि किसी संपत्ति का वितरण धोखाधड़ी के कारण हुआ है, तो धारा 417 लागू होगी। यदि इसका वितरण बेईमानी से हुआ है तो 420 लागू होगी। उदाहरण के लिए, A, B को पैसे देने के लिए प्रेरित करने के लिए किसी चीज़ का झूठा प्रतिनिधित्व करता है। A को पता है कि B को नुकसान हो सकता है लेकिन वह गलत नुकसान करने का इरादा नहीं रखता है। यह कपटपूर्ण ढंग से किया गया कार्य है और यह कार्य धारा 417 के तहत दंडनीय है। हालांकि, यदि वे गलत तरीके से नुकसान का कारण बनना चाहते हैं, तो यह बेईमानी है और इसे धारा 420 द्वारा शामिल किया गया है।

आईपीसी की धारा 416 और 419

आइपीसी की धारा 416 और 419 में व्यक्ति द्वारा धोखाधड़ी करने का मामला है। धारा 416 व्यक्ति द्वारा धोखाधड़ी को ऐसी परिस्थितियों के रूप में समझाती है जहां एक व्यक्ति दूसरे वास्तविक या काल्पनिक व्यक्ति होने का ढोंग करता है; जानबूझकर एक को दूसरे के लिए स्थानापन्न (सब्सटीट्यूट) करता है, या यह दर्शाता है कि वह कोई अन्य व्यक्ति है। धारा 419, 416 के तहत वर्णित मामले में तीन साल तक की सजा, जुर्माना या दोनों की अनुमति देती है।

आईपीसी की धारा 418

धारा 418 धोखाधड़ी के अपराध को इस ज्ञान के साथ परिभाषित और दंडित करती है कि अपराधी से किसी ऐसे व्यक्ति को गलत नुकसान होने की संभावना है जिसके हितों की उन्हें रक्षा करनी चाहिए है। धोखाधड़ी एक लेन-देन से संबंधित होनी चाहिए जिसमें अपराधी कानूनी रूप से अपने द्वारा धोखा देने वाले की रक्षा करने के लिए बाध्य है। इसमें एक प्रिंसिपल और एजेंट, बैंकर और ग्राहक और वकील और उनके मुवक्किल (क्लाइंट) जैसे प्रत्ययी (फिडूशियरी) और वित्तीय संबंध शामिल हैं। इस अपराध के लिए सजा तीन साल की कारावास या जुर्माना या दोनो हो सकती है।

दुर्विनियोजन (मिसएप्रोप्रिएशन)

शंकरलाल विश्वकर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1990) के मामले में, याचिकाकर्ता ने उसे पैसे देने के लिए दूसरे को धोखा दिया था। इस राशि का दुर्विनियोजन किया गया था। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धोखाधड़ी आपराधिक दुर्विनियोजन से अलग है, क्योंकि धोखाधड़ी में अपराधी का शुरू से ही बेईमान इरादा होता है। दुर्विनियोजन के मामले में, बाद में एक बेईमान इरादा बनाया जाता है।

विविध (मिसलेनियस)

शादी का वादा

वेंकटेश बनाम कर्नाटक राज्य (2022) के मामले में, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि प्रतिवादी ने उससे शादी करने का वादा किया था। बाद में वह अपने वादे को पूरा करने में विफल रहा और उसने किसी और से शादी कर ली। अदालत ने माना कि शादी करने के वादे का उल्लंघन अपने आप में धारा 420 के तहत धोखाधड़ी नहीं माना जाएगा। यह साबित करने की आवश्यकता है कि वादा करते समय शादी करने का कोई इरादा नहीं था और परिणामस्वरूप संपत्ति का नुकसान हुआ या मूल्यवान सुरक्षा में हस्तक्षेप हुआ। इसे साबित करने में विफल रहने की स्थिति में अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) सफल नहीं होगा।

धारा 138 और धारा 420 के तहत जुड़े हुए आरोप 

संगीताबेन महेंद्रभाई पटेल बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2012) में, प्रतिवादी ने शिकायत की कि अपीलकर्ता ने 20 लाख रुपये का दृष्टिबंधक (हाइपोथेकेशन) ऋण लिया था और उसे चुकाया नहीं था। उक्त दायित्व को पूरा करने के लिए अपीलकर्ता ने एक चेक जारी किया जो प्रस्तुत करने पर अनादरित (डिसऑनर) हो गया। चेक का अनादर परक्राम्य लिखत (नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट) अधिनियम की धारा 138 के तहत शामिल किया जाता है। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि उन पर धारा 138 के साथ-साथ धारा 420 के तहत एक ही अपराध के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है क्योंकि यह दोहरे खतरे (डबल जियोपार्डी) के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जो कहता है कि किसी पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और दंडित नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 420 और धारा 138 के तहत अपराधों की सामग्री पूरी तरह से अलग हैं। इस प्रकार, किसी व्यक्ति पर दोनों प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है।

निष्कर्ष

धारा 420 में विभिन्न सुधारों का प्रस्ताव किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण में से 5वें विधि आयोग की आईपीसी में धारा 420A और 420B को सम्मिलित करने की सिफारिश है। 14वें विधि आयोग ने इसका समर्थन किया था।

भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक (बिल), 1978 ने इन दोनों सुधारों को स्वीकार कर लिया था। हालाँकि, विधेयक को कभी भी संसदीय स्वीकृति नहीं मिली। ऐसे में यह प्रभावित नहीं रहा। प्रस्तावित परिवर्तन नीचे दिए गए हैं:

  • माल की आपूर्ति (सप्लाई), कार्यों को निष्पादित (एग्जिक्यूट) करने और वाणिज्यिक (कमर्शियल) भ्रष्टाचार से निपटने में बेईमान ठेकेदारों के माध्यम से सार्वजनिक प्राधिकरणों (अथॉरिटी) द्वारा धोखाधड़ी से निपटने के लिए धारा 420A को शामिल करना; तथा
  • झूठे विज्ञापनों के प्रकाशन से निपटने के लिए धारा 420B को शामिल करना।
  • भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक 1978 ने कंपनी की संपत्ति से संबंधित कपटपूर्ण कार्यों से संबंधित धारा 420C को शामिल करने को भी प्रोत्साहित किया।

एक और पांचवें विधि आयोग का उल्लेखनीय सुझाव है कि धारा 415 में ‘उस व्यक्ति को नुकसान’ से ‘उस’ शब्द को हटा दिया जाए। उसका मानना था कि धोखा देने वाले के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को नुकसान हो सकता है। उन दावों को भी शामिल करने के लिए इस धारा को विस्तृत किया जाना चाहिए।

जबकि सुधारों और परिवर्तनों की आवश्यकता है, धारा 420 धोखाधड़ी के मामलों को रोकने और दंडित करने के लिए प्रशंसनीय रही है। आईपीसी की स्थापना से लेकर साइबर धोखाधड़ी और 21वीं सदी की धोखाधड़ी के नए तरीकों की लोकप्रियता हासिल करने वाले वाक्यांश ‘चार सौ बीस’ तक, धारा 420 ने समय की कसौटी पर खरा उतरने के लिए खुद को साबित किया है।

संदर्भ

 

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