सीआरपीसी की धारा 311

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Code of Criminal Procedure

यह लेख Ritika Sharma द्वारा लिखा गया है, जो यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज, पंजाब यूनिवर्सिटी से बीकॉम एलएलबी (ऑनर्स) कर रही हैं। इस लेख में सीआरपीसी की धारा 311 के अर्थ, दायरे, इसको लागू करने के लिए अनिवार्य और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर चर्चा की गई है। इनके अलावा, लेख कई न्यायिक घोषणाओं की मदद से इस प्रावधान के महत्व और दुरुपयोग का विस्तृत अध्ययन करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

मुकदमे का महत्व गवाहों की उपस्थिति और जिस व्यक्ति को सम्मन भेजा गया है, उसकी उपस्थिति में निहित है। हालांकि, क्या होगा यदि किसी व्यक्ति की पूछताछ या परीक्षण के चरण समाप्त हो जाते हैं और न्याय प्रदान करने के लिए किसी गवाह का परीक्षण आवश्यक होता है? ऐसे मामलों में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311 सामने आती है।

जेनिसन बनाम बेकर (1972) में, सैल्मन ने कहा, “कानून को खत्म नहीं होना चाहिए, इससे जो लोग इसका उल्लंघन करते हैं वे मुक्त हो जाते हैं और जो लोग इससे सुरक्षा चाहते हैं वे आशा खो देते हैं।

धारा 311 आपराधिक कानून की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है, जो अदालतों को उन मामलों में अपना कर्तव्य निभाने के लिए सशक्त बनाती है जहां अदालत की कार्यवाही के दौरान कुछ अनुत्तरित सवालों के जवाब देने के लिए किसी व्यक्ति को बुलाना या किसी गवाह को वापस बुलाना महत्वपूर्ण है।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1898 में, यह प्रावधान धारा 540 के तहत निर्दिष्ट किया गया था, जिसे अध्याय XLVI में ‘विविध (मिसलेनियस)’ शीर्षक के तहत शामिल किया गया था। धारा 311 जिसे 1973 की संहिता में ‘पूछताछ और विचारण (ट्रायल) के रूप में सामान्य प्रावधान’ शीर्षक के तहत रखा गया है, लगभग पुरानी संहिता की धारा 540 का शब्दशः पुनरुत्पादन (रिप्रोडक्शन) है।

धारा 311 और उसके दायरे को लेकर कई तरह के सवाल उठते हैं। इनमें से कुछ हैं:

  • किसी व्यक्ति को ऐसी जांच या परीक्षण के लिए कब बुलाया जा सकता है?
  • क्या अदालत के पास इस धारा के तहत स्वत: संज्ञान (सुओ मोटो) लेने की शक्ति है?
  • अदालत द्वारा वापस बुलाए जाने पर, किस पक्ष को गवाहों का परीक्षण या जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) करने की शक्ति है?
  • धारा 311 के तहत दायर आवेदन की अस्वीकृति के लिए आधार क्या हैं।

इस लेख का उद्देश्य इस धारा के अर्थ और दायरे को परिभाषित करके और इस प्रावधान के लागू होने वाले विभिन्न नियमों पर प्रकाश डालते हुए इन सभी सवालों के जवाब देना है। इसके अलावा, इस विवेकाधीन शक्ति के दुरुपयोग के आसपास की पहेली को न्यायिक घोषणाओं की मदद से उजागर किया जाता है। यह लेख न्यायिक शक्ति और उस दायरे की व्याख्या करता है जिसके भीतर धारा 311 का प्रयोग किया जा सकता है।

सीआरपीसी की धारा 311 का अवलोकन

सीआरपीसी की धारा 311 का अर्थ

यह प्रावधान अदालत को गवाहों को बुलाने और उनकी जांच करने का अधिकार देता है। यह इस प्रकार है कि “कोई भी न्यायालय, इस संहिता के तहत किसी भी जांच, विचारण, या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण में, किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में सम्मन कर सकता है, या उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति की जांच कर सकता है, या पहले से ही जांचे गए किसी भी व्यक्ति को सम्मन कर सकता है और उसकी पुन: जांच कर सकता है और न्यायालय उसे सम्मन करेगा और जांच करेगा या किसी ऐसे व्यक्ति को वापस बुला सकता है और फिर से जांच कर सकता है, यदि उसका साक्ष्य मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

इसे दो भागों में विभाजित किया गया है, जहां पहला भाग अदालत का विवेक है जैसा कि ‘मे’ शब्द के प्रयोग से परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) होता है और बाद वाला हिस्सा एक जनादेश (मैंडेट) है जिसके अनुसार अदालत को मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए गवाहों को बुलाना या वापस बुलाना चाहिए।

सीआरपीसी की धारा 311 का दायरा

शब्द ‘किसी भी न्यायालय, किसी भी स्तर पर’ इस प्रावधान के दायरे का विस्तार करता है। मोहनलाल शामजी सोनी बनाम भारत संघ (1991), में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ये शब्द धारा 311 के तहत न्यायालय के विवेक को दर्शाते हैं जो कि व्यापक है, और इसे संभव शर्तों में प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।

विजय कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2011), में धारा 311 के दायरे की जांच की गई थी और सर्वोच्च न्यायालय ने समझाया कि इस धारा के तहत न्यायालय को व्यापक विवेकाधीन शक्ति प्रदान की गई है; इसलिए, इसे आपराधिक कानून के सिद्धांतों के अनुसार प्रयोग किया जाना चाहिए। इसके अलावा, मंजू देवी बनाम राजस्थान राज्य (2019) के मामले में, यह माना गया कि इस प्रावधान का दायरा मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए सच्चाई का निर्धारण करना है।

सीआरपीसी की धारा 311 कब लागू की जा सकती है?

इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति को निम्नलिखित चरणों में सम्मन दिया जा सकता है:

  • जांच का चरण- ‘जांच’ शब्द को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (g) के तहत परिभाषित किया गया है, “जांच का मतलब है कि एक मजिस्ट्रेट या अदालत द्वारा इस संहिता के तहत किए गए मुकदमे के अलावा हर जांच”। मामले के लिए महत्वपूर्ण जानकारी निकालने के लिए एक जांच की जाती है।
  • विचारण का चरण- न्याय प्रणाली के लिए यह आवश्यक है कि न्यायालय में निष्पक्ष सुनवाई हो। इसके लिए आरोपी और अन्य व्यक्तियों जिनकी उपस्थिति मामले के लिए मूल्यवान है, को सम्मन जारी किया जाता है।
  • अन्य कार्यवाही- ‘अन्य कार्यवाही’ शब्द के प्रयोग से धारा 311 का दायरा बढ़ा दिया गया है।  यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत की जाने वाली किसी भी कार्यवाही पर लागू होता है। मोहनलाल शामजी सोनी बनाम भारत संघ (1991) के मामले में, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि भारत संघ द्वारा गवाहों के परीक्षण के संबंध में निर्णय गलत था क्योंकि मामला काफी समय से लंबित था और बचाव पक्ष के तर्क भी पूरे हो गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विचारण के चरण के संबंध में कोई सीमा नहीं है और इसलिए, साक्ष्य प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए जो किसी मामले में न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक है। इसलिए, न्याय सुनिश्चित करने के लिए, गवाहों के परीक्षण और पुन: परीक्षण की अनुमति दी गई थी।

गवाहों का परीक्षण

वह धारा जो ‘गवाहों के परीक्षण’ से संबंधित प्रावधान को निर्दिष्ट करती है, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 135 है। यह निर्धारित करता है कि गवाहों के प्रस्तुतीकरण (प्रोडक्शन) और परीक्षण से संबंधित प्रक्रिया को क़ानून के तहत बनाए गए नियमो द्वारा विनियमित (रेग्यूलेट) किया जाता है। पुलिस अधिकारियों द्वारा आरोप तय किए जाने के बाद, विचारण शुरू होता है। यह दोनों पक्षों को गवाहों का परीक्षण और जिरह करने का अवसर देता है। इसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 137 और धारा 138 के अनुसार तीन चरणों में आयोजित किया जाता है। सबसे पहले, एक मुख्य परीक्षण आयोजित किया जाता है, जिसके बाद जिरह होती है, जिसमें दूसरा पक्ष गवाह का परीक्षण करता है। इसके बाद, पहले पक्ष द्वारा फिर से गवाह का परीक्षण किया जा सकता है, जिसे पुन: परीक्षण कहा जाता है।

धारा 311 का उद्देश्य एक आपराधिक मामले में गवाहों के परीक्षण का दायरा बढ़ाना है।

न्यायालय की स्वत: संज्ञान शक्ति

1973 की संहिता की धारा 311 का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू गवाहों को बुलाने या वापस बुलाने की अदालत की स्वत: संज्ञान शक्ति है। अदालत कुछ मामलों से निपट सकती है जहां पक्षों ने गवाहों को बुलाने के लिए कोई इच्छा नहीं दिखाई है, और जिनके साक्ष्य न्यायपूर्ण निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उन मामलों में, अदालत इस शक्ति का प्रयोग कर सकती है। मंजू देवी बनाम राजस्थान राज्य (2019) के मामले में, यह देखा गया था कि न्यायपूर्ण निर्णय पर पहुंचने के लिए आवश्यक होने पर अदालत स्वतः संज्ञान शक्ति का प्रयोग करने के लिए सक्षम है।

हीरालाल उर्फ ​​निम्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1997) के मामले में विचारणीय न्यायाधीश का आदेश, जिसने गवाहों को सम्मन देने से इनकार कर दिया, सवालों के घेरे में था। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि विचारणीय न्यायाधीश द्वारा आदेश का लापरवाही से पालन किया गया था और इसलिए यह अपेक्षित (रिक्विजाइट) कानूनी मापदंडों (पैरामीटर) को पूरा नहीं करता है। धारा 311 के तहत अदालतों के स्वत: संज्ञान कार्यों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, अदालत ने सर्वोत्तम उपलब्ध साक्ष्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि “यदि अदालत को यह प्रतीत होता है कि किसी विशेष गवाह का साक्ष्य मामले के न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक है तो क़ानून उस व्यक्ति को सम्मन देने के लिए अदालत पर जनादेश देता है।

हालांकि, नयन राजन गुहागरकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) के मामले में, अदालत ने धारा 311 के तहत गवाहों का परीक्षण करने के लिए स्वत: संज्ञान से एक आदेश पारित किया, लेकिन बॉम्बे उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि इस प्रावधान का उपयोग अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) साक्ष्य में कमी को भरने के लिए नहीं किया जा सकता है।  

मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए क्या ‘आवश्यक’ माना जा सकता है?

धारा 311 स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करती है कि परीक्षण या पुन: परीक्षण के लिए एक गवाह को सम्मन देना आवश्यक है यदि न्याय के लिए उन्हें बुलाना या वापस बुलाना आवश्यक है। इस प्रावधान के दूसरे भाग में ‘करेगा (शेल)’ शब्द का प्रयोग अदालत के लिए गवाहों का परीक्षण अनिवार्य बनाता है यदि यह मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए आवश्यक है। हाल के मामले में पुलिस उपाधीक्षक (डिप्टी सुप्रिटेंडेंट) द्वारा राज्य का प्रतिनिधित्व बनाम  टी.आर. सेनिवासगन (2021), इस तथ्य पर जोर दिया गया था कि मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए किसी व्यक्ति, जिसे वापस बुलाया गया हो, के द्वारा दिए गए साक्ष्य आवश्यक होने चाहिए।

सवाल यह उठता है कि ‘न्यायसंगत’ निर्णय के लिए ‘आवश्यक’ क्या माना जा सकता है।

मुक्ति कुमार घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1974) में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रावधान को लागू करने के लिए, न्यायालय को इस तरह के आदेश की आवश्यकता के बारे में एक वास्तविक राय बनानी होगी। आगे यह देखा गया कि धारा 311 के तहत आदेश की आवश्यकता के संबंध में निर्णय अलग-अलग मामलों में अलग-अलग होगा। मोहनलाल शामजी सोनी मामले (1991) में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि न्याय प्रदान करना न्यायालय का मौलिक कर्तव्य है।

स्वप्न कुमार चटर्जी बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (2019) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रावधान के तहत शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए यदि ऐसा करने के लिए एक मजबूत और वैध कारण है।

संक्षेप में, मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए क्या आवश्यक है, यह निर्धारित करने के लिए आवश्यक कारकों को कुछ निश्चित मापदंडों के भीतर सीमित नहीं किया जा सकता है और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। यह अत्यंत सावधानी के साथ पता लगाया जाना चाहिए।

सीआरपीसी की धारा 311 का महत्व

हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य (2008) में, यह उजागर किया गया था कि धारा 311 का उद्देश्य दोहरा है। सबसे पहले, यह आरोपियों और अभियोजन पक्ष को अपना मामला पेश करने और न्याय पाने का अवसर प्रदान करता है। दूसरा, एक व्यवस्थित समाज की दृष्टि से इसके महत्व की व्याख्या की जा सकती है। इस प्रावधान का उद्देश्य न्याय की विफलता के किसी भी दायरे को रोकना है।

  • एक निष्पक्ष परीक्षण सुनिश्चित करती है

एक निष्पक्ष सुनवाई उस तंत्र को संदर्भित करती है जहां गवाहों का परीक्षण आयोजित करने और साक्ष्य दर्ज करने के दौरान पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) की हर संभावना को हटा दिया जाता है। भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत इसकी गारंटी दी गई है। धारा 311, इस उद्देश्य को सटीक रूप से लक्षित करती है और यह सुनिश्चित करती है कि विचारण न्यायसंगत हो। ज़हीरा हबीबुल्लाह शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2006) के मामले में जोर देकर कहा कि धारा 311 का उद्देश्य विचारण में गलतियों या संदेह की संभावना को दूर करना है जिससे न्याय की विफलता हो सकती है।  इसके अलावा, राज्य (एनसीटी दिल्ली) बनाम शिव कुमार यादव और अन्य (2016), में यह देखा गया कि धारा 311 के तहत विवेक का प्रयोग ढंग से किया जाना चाहिए। गवाहों को कुछ ठोस कारणों की उपस्थिति के बिना वापस नहीं बुलाया जाना चाहिए।

  • ‘दोषी साबित होने तक निर्दोष’ नियम को बरकरार रखती है

धारा 311 ‘दोषी साबित होने तक निर्दोष’ नियम को बरकरार रखती है। मोहनलाल शामजी सोनी मामले (1991) में, यह देखा गया कि गवाहों को सम्मन भेजने की अदालत की शक्ति में नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय का नियम शामिल है। यह प्रावधान आरोपियों को मामले के लिए महत्वपूर्ण किसी भी नए सबूत की अनुमति देकर अपने मामले का खंडन करने का अवसर प्रदान करता है।

  • न्याय सुनिश्चित करती है

धारा 311 विचारण की प्रक्रिया में किसी भी संदेह की गुंजाइश को खत्म करके न्याय प्रदान करने की व्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाती है, जिससे न्याय सुनिश्चित होता है। कई आपराधिक मामलों में, पक्ष यह दावा करते हुए धारा 311 का लाभ लेने की कोशिश करते हैं कि अभियोजन साक्ष्य ने उनके पिछले बयानों को जबरदस्ती दिया है और इसलिए, उन्हें वापस बुला लिया जाना चाहिए। रतनलाल बनाम प्रह्लाद जाट (2017) के मामले में अभियोजन पक्ष की भी यही दलील थी। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि आरोपी और अभियोजन पक्ष को न्याय सुनिश्चित करने के अलावा, धारा 311 का उद्देश्य एक व्यवस्थित समाज के दृष्टिकोण से न्याय प्रदान करना है।

  • ‘ऑडी अल्टरम पार्टम’ के नियम का पालन करती है

‘ऑडी अल्टरम पार्टम’ का नियम नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों में से एक है, जिसका अर्थ है ‘दूसरे पक्ष को भी सुनना’। धारा 311 गवाहों को वापस बुलाने के लिए एक तंत्र प्रदान करके यह सुनिश्चित करती है कि आपराधिक प्रक्रिया में इस नियम का पालन किया जा रहा है। मोहनलाल शामजी सोनी (1991) के मामले में, यह देखा गया कि धारा 540 (नई संहिता की धारा 311) के तहत गवाहों के परीक्षण से इनकार करने से कहावत ‘ऑडी अल्टरम पार्टम’ का उल्लंघन होगा, जिससे महत्वपूर्ण नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत में से एक को निरस्त कर दिया जाएगा।

राजाराम प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य (2013) के तहत मार्गदर्शक सिद्धांत

धारा 311 तब लागू होती है जब पक्षों को न्याय सुनिश्चित करने के लिए साक्ष्य आवश्यक होते हैं।  राजाराम प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य (2013) में, प्रतिवादी द्वारा धारा 311 के तहत एक आवेदन दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि वह जान से मारने की धमकियों के कारण पहले ही शत्रुतापूर्ण (होस्टाइल) हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आवेदन को खारिज करते हुए कहा कि प्रतिवादी के पास पहले कई मौके थे, जिसमें वह अपने खिलाफ किसी भी जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव का संदर्भ दे सकता था। इसलिए वह तब अपना निर्णय नहीं बदल सके। अदालत ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 138 के साथ पठित धारा 311 को लागू करने को निर्देशित करने वाले विभिन्न सिद्धांतों को भी बताया। इसमे शामिल है:

  • न्यायालयों को नए सबूतों की आवश्यकता को देखना चाहिए और यह निर्धारित करना चाहिए कि क्या यह उचित निर्णय के लिए आवश्यक है।
  • अदालत का निर्णय “अस्पष्ट, अनिर्णायक (इंकंक्लूजिव) और तथ्यों की काल्पनिक प्रस्तुति” नहीं होना चाहिए।
  • इस शक्ति का प्रयोग केवल सत्य का निर्धारण करने या किसी तथ्य का उचित प्रमाण प्राप्त करने के लिए किया जाना चाहिए।
  • अदालत को इस तथ्य से पूरी तरह संतुष्ट होना चाहिए कि गवाहों के परीक्षण से पक्षों को न्याय सुनिश्चित होगा।
  • ऐसे मामलों में जहां उचित साक्ष्य या भौतिक रिकॉर्ड प्रस्तुत नहीं किए जाते हैं, अदालत को पक्षों को ऐसी त्रुटियों को सुधारने की अनुमति देने में उदार (लिबरल) होना चाहिए।
  • आरोपी को एक उचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिए, हालांकि, अदालत को भी इसका उपयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए ताकि इस तरह की विवेकाधीन शक्ति के किसी भी तरह के अनुचित प्रयोग से बचा जा सके।
  • इस प्रावधान के तहत आवेदन की अनुमति केवल मजबूत और वैध कारणों में ही दी जानी चाहिए।
  • न्यायपालिका को विवेकपूर्ण तरीके से काम करना चाहिए न कि मनमाने ढंग से।
  • धारा 311 का सहारा लेने का उद्देश्य मुकदमे में एक कमी को भरना नहीं बल्कि पक्षों के खिलाफ किसी भी तरह के गंभीर पूर्वाग्रह को रोकना होना चाहिए।
  • लागू इस आधार पर किया जाना चाहिए कि यह मामले के मुद्दों के अनुकूल है और विरोधी पक्ष को खंडन का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।

सीआरपीसी की धारा 311 के लागू करने के संबंध में सिद्धांत

कुछ ऐतिहासिक न्यायिक घोषणाओं के तहत धारा 311 के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) से संबंधित विविध नियम निर्धारित किए गए हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

गवाह को केवल इसलिए वापस नहीं बुलाया जा सकता है क्योंकि उसने किसी अन्य मामले में एक अलग बयान दिया है

इसे सऊद फैसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2022) के हाल ही के फैसले की मदद से समझाया जा सकता है। इस मामले में याचिकाकर्ता पर एक ही अपराध के लिए दो मुकदमे चल रहे थे। पहले मुकदमे में, अभियोजन पक्ष के गवाह ने एक हमलावर के रूप में याचिकाकर्ता की संलिप्तता (इन्वॉल्वमेंट) की पुष्टि की, जबकि दूसरे मुकदमे में उत्तर प्रदेश गैंगस्टर्स और असामाजिक गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1986 के तहत, उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता का चेहरा कपड़े से ढका होने के कारण वह हमलावरों में से एक के रूप में उसकी पहचान नहीं कर सका। इसके चलते विचारणीय अदालत के समक्ष धारा 311 के तहत याचिका दायर की गई, जहां आवेदन खारिज कर दिया गया था। एक अपील में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए अस्वीकृति के इस निर्णय की पुष्टि की कि आवेदन बिना किसी औचित्य (जस्टिफिकेशन) के 7 साल बाद किया गया था, और धारा 311 को इस आधार पर लागू नहीं किया जा सकता है कि अभियोजन पक्ष के गवाह ने एक अन्य मामले में एक अलग बयान दिया है।

सीआरपीसी की धारा 311 के तहत आवेदन दाखिल करने में देरी

आवेदन दाखिल करने में देरी से नए सबूतों की सत्यता पर काफी संदेह पैदा होता है। जब गवाहों को वापस बुलाने के मामलों में देरी की जाती है, तो आमतौर पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि गवाहों को खरीद लिया गया है, और इसलिए, उनका परीक्षण धारा 311 को लागू करने के उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती है। वहां आवेदन खारिज कर दिया जाता है जहां दाखिल करने में देरी होती है। आवेदन से संदेह पैदा होता है कि क्या किसी मामले में न्यायसंगत निर्णय लिया जा सकता है।  ऐसा ही कई मामलों में देखा गया है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भीम सिंह बनाम गृह सचिव के माध्यम से उत्तर प्रदेश राज्य, लखनऊ (यूपी) की सरकार (2022) में गवाहों को वापस बुलाने के आवेदनों को खारिज कर दिया था। मामला भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 307 के तहत हत्या के अपराध से संबंधित है। मुख्य परीक्षण के क्रमशः 4 और 1 साल बाद दो गवाहों को वापस बुलाने के लिए आवेदन दायर किए गए थे। अदालत ने निम्नलिखित कारणों से अभियोजन साक्ष्य के विवरण में गहराई से जाने से इनकार कर दिया:

  • आवेदनों को दाखिल करने में भारी देरी हुई है और इस तरह की देरी के कारण असंतोषजनक थे।
  • आवेदक इस मुद्दे के संबंध में मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य प्रदान कर सकता है।

सम्मन भेजने की शक्ति किसी विशेष वर्ग के व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है

हीराला उर्फ ​​निम्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1997) के मामले में, धारा 540 (आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311) के तहत एक याचिका आरोपी द्वारा दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि जिन गवाहों के नाम आरोप पत्र में उल्लिखित थे और एक निरीक्षक (इंस्पेक्टर) जो सच्चाई को उजागर करने के लिए एक आवश्यक गवाह था, की जांच नहीं की गई थी। विचारणीय अदालत ने इस आवेदन को यह घोषणा करते हुए खारिज कर दिया कि सभी महत्वपूर्ण गवाहों का परीक्षण किया गया था और अभियोजन पक्ष ने सबूत बंद कर दिए थे और किसी अन्य गवाह का परीक्षण करने का कोई इरादा नहीं था। इस निर्णय को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि न्यायालय के पास किसी भी व्यक्ति जो विवाद में मामले पर प्रकाश डाल सकता है, को बुलाने या वापस बुलाने का विवेक है।

कार्रवाई से अभियोजन पक्ष को समान रूप से लाभ होना चाहिए 

धारा 311 मामले के किसी एक पक्ष के लिए विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि इससे दोनों पक्षों को लाभ होता है। ज़हीरा हबीबुल्लाह शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2006) के मामले में इस बात पर प्रकाश डाला कि “यह धारा केवल आरोपी के लाभ के लिए सीमित नहीं है, और धारा के तहत गवाह को सम्मन करने के लिए अदालत की शक्तियों का अनुचित प्रयोग केवल इसलिए नहीं होगा क्योंकि साक्ष्य अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन करता है न कि आरोपी के मामले का करता है। इसी तरह, जमातरई केवलजी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1967) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 311 के तहत ‘न्यायसंगत निर्णय’ शब्द आरोपी तक सीमित नहीं है, और अभियोजन पक्ष को इस प्रावधान से समान लाभ मिल सकता है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि धारा 311 के तहत बुलाए गए गवाहों का आरोपी और अभियोजन दोनों द्वारा परीक्षण किया जा सकता है। रेंगास्वामी नायकर बनाम मुरुगा नायकेन (1952) में, न्यायालय ने कहा कि इस प्रावधान को लागू करने से पहले दो नियमों को लागू किया जाना है। मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा बताए गए नियम निम्नलिखित हैं:

  • यह कि अभियोजन और आरोपी दोनों को एक अदालती गवाह से जिरह करने का समान अधिकार है, और
  • यह कि यदि किसी अदालती गवाह का साक्ष्य आरोपी के प्रतिकूल है, तो आरोपी को साक्ष्य का खंडन करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

मामले में न्याय के लिए सर्वोपरि विचार होना चाहिए 

कई मामलों में इस बात पर जोर दिया गया है कि इस प्रावधान का उद्देश्य मामले में न्यायसंगत निर्णय पर पहुंचना है। मंजू देवी बनाम राजस्थान राज्य (2019) के मामले में, यह माना गया था कि धारा 311 के तहत आवेदन स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं, यह निर्धारित करने में विचारण की लंबाई को एक प्रासंगिक कारक नहीं माना जा सकता है। यदि अनुरोध एक न्यायोचित निर्णय के लिए एक भौतिक गवाह की जांच या जिरह करने के लिए है, तो यह धारा लागू होती है। इसलिए, धारा को बहुत सावधानी से लागू किया जाता है। आरोपी व्यक्ति की बेगुनाही की पुष्टि और अपराधी के भागने की रोकथाम पर जोर दिया जाता है।

दस्तावेजी साक्ष्य देने के लिए बुलाने का अधिकार नहीं है

धारा 311 गवाहों को बुलाने और वापस बुलाने से संबंधित है और इसके आवेदन का व्यापक दायरा है। हालांकि, इसमें दस्तावेजी साक्ष्य देने का प्रावधान शामिल नहीं है। टॉमसो ब्रूनो और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2012) के मामले में भी यही उजागर किया गया था। आरोपी ने तर्क दिया कि सबसे अच्छा सबूत सी.सी.टी.वी. फुटेज था जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा छुपाया गया था और धारा 311 पर भरोसा करते हुए कहा गया था कि अदालत का कर्तव्य है कि वह उक्त कैमरा फुटेज को मगाए। हालांकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस तर्क से असहमति जताई और कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के गठन के पीछे विधायी मंशा गवाहों को कार्यवाही के किसी भी चरण में बुलाना है। जिस दस्तावेज़ पर आरोपी को भरोसा करना पड़ता है, उसे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 233(3) के तहत दिया जाता है।

यदि गवाह का परीक्षण, जिरह या पुन: परीक्षण समाप्त नहीं हुआ है तो यह धारा लागू नहीं होगी

मुक्ति कुमार घोष मामले (1974) में, यह माना गया था कि अभियोजन साक्ष्य बंद होने से पहले गवाहों को वापस नहीं बुलाया जा सकता था। इस प्रावधान को अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जब गवाहों को बरी कर दिया जाता है और साक्ष्य का चरण समाप्त हो जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 का सहारा उन मामलों में लिया जा सकता है जहां न्यायाधीश सबूत प्राप्त करना चाहते हैं और साक्ष्य चरण के बीच में गवाहों से प्रश्न पूछना चाहते हैं। धारा 165 अदालत को ‘प्रश्न पूछने या पेश करने का आदेश’ देने का अधिकार देती है।

क्या इस धारा को फैसले की घोषणा तक लागू किया जा सकता है?

अदालत धारा 311 के तहत शक्ति का प्रयोग तब तक कर सकती है जब तक कि अदालत का सत्र चल रहा हो (अर्थात विचारण की कार्यवाही के दौरान)। एल्टेमेश रीन बनाम महाराष्ट्र राज्य (1980) में, यह तर्क दिया गया था कि एक बार फैसले की तारीख तय हो जाने के बाद, विचारण समाप्त हो जाता है और धारा 311 के तहत किसी भी आवेदन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हालांकि, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि एक बार फैसला सुनाए जाने के बाद आपराधिक मामले की सुनवाई समाप्त हो जाती है, और इसलिए, धारा 311 के तहत एक आदेश उससे पहले किसी भी स्तर पर पारित किया जा सकता है।

जब अदालत बुलाती है, तो गवाह मुकदमे का पक्ष नहीं बनता है

यह सिद्धांत मुक्ति कुमार घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1954) के मामले में निर्धारित किया गया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि जब गवाहों को धारा 540 (आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311) के तहत बुलाया या वापस बुलाया जाता है, तो अदालत को यह तय करना होता है कि किस पक्ष को उनकी जांच करने की अनुमति है। गवाह, केवल इस प्रावधान के तहत बुलाए जाने से, मुकदमे के पक्ष नहीं बनते हैं।

प्रणाली को प्रभावी बनाने के अलावा, इस सिद्धांत का उद्देश्य उन गवाहों की कठिनाइयों को कम करना है जिन्हें बार-बार अदालत में बुलाया जा रहा है।

लागत का भुगतान पक्ष को करना होता है

ऐसे मामलों में जहां धारा 311 की शक्तियों का गलत उपयोग किया गया है, अदालत आरोपी को गवाहों को मुआवजे के रूप में लागत का भुगतान करने का आदेश दे सकती है। यह नियम अशोक कुमार बनाम राजस्थान राज्य और अन्य (1994) के मामले में उभरा था, जिसमें राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस दायरे में धारा 311 का प्रयोग किया जा सकता है, उसमें आरोपी द्वारा गवाहों को मुआवजा देना शामिल है।

सीआरपीसी की धारा 311 और 391 के बीच अंतर

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 को अक्सर धारा 391 के साथ भ्रमित किया जाता है।  दोनों धाराएं आपराधिक मामलों में अतिरिक्त साक्ष्य का प्रावधान करती हैं।

धारा 391 केवल यह प्रदान करती है कि अपीलीय अदालत आगे सबूत ले सकती है या इसे मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय द्वारा लेने का निर्देश दे सकती है। अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति तब दी जाती है जब न्यायालय निम्नलिखित तीन मापदंडों में से किसी एक से संतुष्ट हो:

  • सबूत नहीं होने से पहले होना चाहिए था,
  • कुछ सबूत छूट गए,
  • सबूत गलत तरीके से लिए गए थे।

ज़हीरा हबीबुल्ला एच शेख और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2004), के मामले में अपीलीय अदालत के समक्ष धारा 391 के तहत साक्ष्य की अनुमति दी गई थी क्योंकि अदालत संतुष्ट थी कि गवाह ने विचारणीय अदालत के सामने सच नहीं बोला था, लेकिन अपीलीय अदालत के समक्ष सच बोलने के लिए तैयार था। सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 391 के आवेदन के संबंध में कहा कि अदालत को इस प्रावधान के तहत किसी भी गवाही की अनुमति देने से पहले कारणों को दर्ज करना होगा।

दूसरी ओर, धारा 311 विचारणीय अदालत में परीक्षण के उद्देश्य से गवाहों को बुलाने या वापस बुलाने की अनुमति देती है। इसके पीछे का उद्देश्य उन महत्वपूर्ण सबूतों को शामिल करना है जो किसी मामले के न्यायसंगत निर्णय की ओर ले जा सकते हैं, जबकि धारा 391 अपीलीय अदालत को और सबूत लेने की अनुमति देती है।

इस अंतर को हरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2009) के मामले में बताया गया था। इस मामले में धोखाधड़ी में आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया था लेकिन उन्हें बरी कर दिया गया था। याचिकाकर्ता ने फैसले के खिलाफ अपील की और फैसले की फोटोकॉपी पेश करने की अनुमति के लिए अपीलीय अदालत के समक्ष धारा 311 के तहत एक याचिका दायर की, जिसका उन्होंने तर्क दिया कि यह इस मामले में भौतिक सबूत है। सवाल यह था कि क्या अपीलीय अदालत के समक्ष अतिरिक्त साक्ष्य स्वीकार्य है जबकि विचारणीय अदालत के समक्ष ऐसा कोई अनुरोध नहीं किया गया था। इस आवेदन को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे आरोपी व्यक्ति को गंभीर नुकसान होगा। अदालत ने आगे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 और 391 के बीच के अंतरों पर प्रकाश डाला था। 

  • सबसे पहले, धारा 311 परीक्षण के चरण में अतिरिक्त साक्ष्य की जांच से संबंधित है, लेकिन धारा 391 अपीलीय अदालत को अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति देने का अधिकार देती है।
  • दूसरा, धारा 311 अदालत के लिए यह अनिवार्य करती है कि जब मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए यह आवश्यक हो तो गवाहों को परीक्षण के लिए बुलाने या फिर से बुलाने के आवेदन को स्वीकार किया जाए। हालांकि, धारा 391 के शब्दों के भीतर ऐसा कोई जनादेश व्यक्त नहीं किया गया है।

सीआरपीसी की धारा 311 और धारा 391 के बीच अंतर

निम्न टेबल में दोनों के बीच के अंतर को बताया गया हैं जैसा कि हरजीत सिंह मामले में देखा गया था।

आधार  धारा 311 धारा 391
दायरा  धारा 311 का दायरा बहुत व्यापक है।  यह सभी चरणों में लागू होती है जैसे कि पूछताछ, विचारण या अन्य कार्यवाही के चरण। धारा 391 का दायरा कम है और विचारण समाप्त होने के बाद अपीलीय स्तर पर लागू होती है।
उद्देश्य  इस प्रावधान का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना और मामले में न्यायसंगत निर्णय तक पहुंचना है। अदालत को अभियोजन साक्ष्य में कमी को भरने के लिए एक आवेदन स्वीकार करने का अधिकार नहीं है। धारा 391 का उद्देश्य उन सबूतों को अनुमति देना है जिन्हें छोड़ दिया गया है या पहले गलती से लिया गया था।
जनादेश  हालांकि अदालत के पास विवेकाधीन शक्तियां हैं, यह धारा मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए आवश्यक होने पर साक्ष्य की अनुमति देना अनिवार्य बनाती है धारा 391 ऐसा कोई जनादेश नहीं देती है।
अदालत  धारा 311 विचारणीय अदालत को साक्ष्य के लिए गवाहों को सम्मन भेजने का अधिकार देती है। यह प्रावधान अपीलीय अदालत को अतिरिक्त सबूतों पर विचार करने का अधिकार देती है।
प्रायोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) यह विचारण समाप्त होने और विचारणीय न्यायाधीश द्वारा निर्णय देने से पहले किसी भी स्तर पर लागू होती है। यह विचारणीय न्यायाधीश द्वारा निर्णय पारित होने के बाद अपील के दौरान लागू होती है।
कारणों को रिकॉर्ड करना इस धारा के तहत आवेदन की अनुमति देते समय कारणों को रिकॉर्ड करना आवश्यक नहीं है। धारा 391 स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करती है कि अपीलीय अदालत द्वारा अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति होने पर कारणों को रिकॉर्ड करना आवश्यक है।

सीआरपीसी की धारा 311 के तहत आवेदन खारिज करने का आधार

धारा 311 न्यायालयों को बहुत व्यापक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करती है। हालाँकि, आवेदन की स्वीकृति और अस्वीकृति के बीच निर्णय विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए न कि मनमाने ढंग से। निम्नलिखित बिंदु हैं जो उन आधारों को उजागर करते हैं जिन पर अदालतों ने कुछ मामलों में गवाहों को बुलाने या वापस बुलाने के अनुरोधों को खारिज कर दिया जाता है:

  • वकील का बदलना- धारा 311 के तहत याचिका को केवल इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि किसी एक पक्ष ने किसी भी कारण से वकील को बदल दिया है। यह ए.जी बनाम शिव कुमार यादव और अन्य (2015) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गवाहों से सिर्फ इसलिए असुविधाओं का सामना करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि पक्ष ने अपने वकील को बदल दिया है और बचाव की रणनीति से अनजान है। यदि इसकी अनुमति दी जाती है, तो न्याय की उन्नति का उद्देश्य प्राप्त नहीं होगा।  पुन: परीक्षण से न्याय प्रदान करने में देरी होती है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे मामलों में याचिका खारिज कर दी जाए।
  • कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग- यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के तहत की गई याचिका को खारिज करने के कारणों में से एक है। संजीव सिंह बनाम झारखंड राज्य (2022) के हाल ही के मामले में, इस प्रावधान के तहत अभियोजन पक्ष के दो गवाहों को वापस बुलाने के लिए एक याचिका दायर की गई थी क्योंकि अभियोजन पक्ष एसएफएसएल (राज्य फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला) और सीडीआर (कॉल डेटा रिकॉर्ड) के रूप में नए सबूत लाए थे। हालाँकि, झारखंड उच्च न्यायालय ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि सीडीआर के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है और यह पहले से ही प्रामाणिक जानकारी प्रदान करता है। इसमें कॉल से जुड़ी सारी जानकारी रखी की जाती है। इसके अलावा, अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि गवाहों को वापस नहीं बुलाया जा सकता है जब अदालत का विचार है कि गवाहों से सभी जानकारी पहले ही ली जा चुकी है, और इसलिए, ऐसे आवेदनों को खारिज करके कानून की प्रक्रिया के किसी भी दुरुपयोग से बचा जाना चाहिए। इसी तरह, उमर मोहम्मद बनाम राजस्थान राज्य (2007) में, जब अभियोजन पक्ष के गवाह के बयान के नौ महीने बाद धारा 311 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था, तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे यह देखते हुए खारिज कर दिया कि आवेदन की संभावना नहीं है ओर अभियोजन पक्ष के गवाह ने अपनी मर्जी से दायर किया था।

इसी तरह, स्वपन कुमार चेटर्जी बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो, (2019) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धारा 311 के तहत आवेदन प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए दायर किया गया था और कहा गया था कि जहां अभियोजन साक्ष्य को बहुत पहले बंद कर दिया गया है और पहले गवाह का परीक्षण न होने के कारण संतोषजनक नहीं है, गवाह को देर से बुलाने से आरोपी को बहुत नुकसान होगा और इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

  • अभियोजन साक्ष्य में अंतराल को भरने के लिए- इस प्रावधान का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना है। हालाँकि, किसी भी मामले में संशोधन करने के लिए धारा 311 लागू नहीं की जा सकती है। उदाहरण के लिए, नयन राजन गुहागरगर बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) के मामले में, शिकायतकर्ता को आवश्यक सबूत (इस मामले में मेमोरी कार्ड) साबित करने के लिए वापस बुलाने के आदेश को चुनौती दी गई थी। यह तर्क दिया गया था कि, चूंकि साक्ष्य और तर्कों की रिकॉर्डिंग के चरण समाप्त हो गए थे, तो अदालत धारा 311 का सहारा नहीं ले सकती थी। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 311 के तहत आवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता है जहां इसे अभियोजन साक्ष्य में कमियों को भरने के लिए दायर किया जाता है। इसी तरह का अवलोकन पुलिस उपाधीक्षक द्वारा राज्य का प्रतिनिधित्व बनाम टी.आर सेनिवासगन (2021) द्वारा किए गए राज्य के मामले मे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 311 के तहत आवेदन को विरोधी पक्ष को अनुचित लाभ पहुंचाने की दिशा में एक कदम को प्रोत्साहित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

सीआरपीसी की धारा 311 का दुरुपयोग

इस प्रावधान के व्यापक दायरे में न्यायपालिका की विवेकाधीन शक्ति के साथ-साथ धारा 311 का दुरुपयोग होता है। पक्ष कैसे भी करके मामले को जीतने की दिशा में प्रयास करते हैं, और यह प्रावधान खामियों का उपयोग करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है।  

कई बार न्यायपालिका पूरी सावधानी के साथ कार्य करती है और इस प्रावधान के दुरुपयोग को रोकती है। उदाहरण के लिए, संजीव सिंह मामले (2022) में चूंकि सभी सबूत पहले ही ले लिए गए थे और झारखंड उच्च न्यायालय ने और गवाहों को बुलाने का कोई मतलब नहीं देखा, धारा 311 के तहत किए गए आवेदन को खारिज कर दिया गया, और अदालत ने कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग की गुंजाइश को टाल दिया था।  

उमर मोहम्मद बनाम राजस्थान राज्य (2007) के मामले में, अभियोजन पक्ष के गवाह द्वारा एक आवेदन दायर किया गया था जिसमें कहा गया था कि पांच दोषी व्यक्ति निर्दोष हैं। इस आवेदन पर धारा 311 के तहत विचार किया जाना था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया क्योंकि आवेदन की सत्यता के संबंध में संदेह था। अदालत ने माना कि बयान के पूरा होने के 9 महीने बाद याचिका दायर की गई थी, जो इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि अभियोजन पक्ष के गवाह को खरीद लिया गया था।

पुलिस उपाधीक्षक द्वारा राज्य का प्रतिनिधित्व बनाम टी.आर. सेनिवासगन (2021), के हाल के मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने उन कारणों को बताया जिन पर धारा 311 के तहत आवेदन को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष ने कहा था कि नए सबूतों को दोबारा सुनवाई के लिए छिपाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, और पूर्व शर्त यह है कि आवेदन में स्वीकार किए जाने के लिए प्रार्थना किए गए साक्ष्य उस मुद्दे से संबंधित है जिससे संबंधित मामला होता है।

इस प्रावधान का दुरुपयोग न्याय प्रदान करने में देरी का कारण बनता है क्योंकि पक्ष इस प्रावधान का उपयोग अनुचित साधनों को अपनाकर न्याय वितरण तंत्र को विचलित करने के लिए करता हैं। राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) बनाम शिव कुमार यादव और अन्य, (2016) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने संक्षेप में कहा कि धारा 311 के तहत याचिका वास्तविक होनी चाहिए। साक्ष्य की अनिवार्यता गवाहों को कठिनाई या न्याय प्रदान करने में देरी जैसे कारकों के खिलाफ संतुलित होना है।

निष्कर्ष

धारा 311 अदालतों को उनके विवेक के अनुसार और बिना किसी सीमा के गवाहों को बुलाने या वापस बुलाने का अधिकार देकर उन्हें एक कार्टे ब्लैंच (यानी पूर्ण अधिकार) देती है। इस प्रावधान को लागू करने के लिए कोई कठोर नियम नहीं हैं। हालाँकि, न्यायिक घोषणाओं ने इस धारा के दायरे और प्रतिबंधों को परिभाषित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निस्संदेह, न्यायालय का कर्तव्य है कि वह ऐसे निर्णय पर पहुंचे जिससे न्याय प्राप्त हो। चूंकि यह प्रावधान न्यायालय को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, इसलिए इसे बहुत सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए। हाल के वर्षा गर्ग बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2022) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बयान में धारा 311 के आवेदन के लिए बुनियादी मापदंडों को व्यक्त किया, जो इस प्रकार है कि जिस व्यक्ति की जांच की जानी है, उसके साक्ष्य की अनिवार्यता के साथ-साथ मामले के न्यायसंगत निर्णय की आवश्यकता कसौटी का गठन करना चाहिए जो अदालत के निर्णय का मार्गदर्शन करेगा।

न्यायाधीश इस धारा को अपने प्रस्ताव पर लागू कर सकते हैं। इसलिए, उनका यह कर्तव्य है कि वे इसका मनमाने ढंग से उपयोग न करें। रेंगास्वामी नायकर बनाम मुरुगा नायकर (1952) के मामले में, न्यायमूर्ति रामास्वामी ने कहा कि “एक न्यायाधीश को केवल पक्षों के निष्क्रिय साधन के रूप में उच्च पद पर नहीं रखा जाता है। उनका अपना कर्तव्य है, जो उनसे स्वतंत्र है और वह कर्तव्य सत्य की जांच करना है”।

धारा 311 न केवल निष्पक्ष सुनवाई का तंत्र प्रदान करने और पक्षों को न्याय सुनिश्चित करने के संवैधानिक लक्ष्यों को पूरा करती है बल्कि यह आरोपी को निष्पक्ष प्रणाली से न्यायपूर्ण निर्णय लेने के मानव अधिकार की गारंटी भी देती है। हालांकि, इस प्रावधान के दुरुपयोग जिससे मामले के समापन में देरी होती है, से बचने के लिए कुछ सुधारों को पेश किया जाना चाहिए।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के आवश्यक तत्व क्या हैं?

धारा 311 के तहत एक आवेदन पूछताछ, विचारण या अन्य कार्यवाही के चरण में दायर किया जा सकता है। यदि मामले के न्यायोचित निर्णय के लिए गवाहों को सम्मन देना और परीक्षण करना आवश्यक है तो इसे लागू किया जा सकता है। यदि यह आवश्यकता पूरी हो जाती है, तो अदालत को धारा 311 के तहत आवेदन को स्वीकार करना होगा।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311 का दुरूपयोग कैसे किया जाता है?

धारा 311 के तहत प्रदान किया गया जनादेश पक्षों को न्याय सुनिश्चित करना है। यह प्रावधान अदालतों के लिए आदेश पारित करने के लिए एक आदेश के रूप में कार्य करता है यदि ‘किसी मामले के न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक’ शर्त पूरी हो जाती है। हालाँकि, समय-समय पर, इसका उपयोग कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए किया जाता है जिससे न्याय देने में देरी होती है। इससे तब बचा जा सकता है जब न्यायाधीश इस विवेकाधीन शक्ति का सावधानी से उपयोग करते हैं।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 311A क्या है?

धारा 311A को वर्ष 2005 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में जोड़ा गया था। यह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेखन देने का आदेश देने का अधिकार देती है। इसे धारा 311 का विस्तार माना जाता है। रघुनंदन बनाम भारत संघ (2017) ने धारा 311 और धारा 311A के बीच संबंधों को समझाते हुए कहा कि इस तथ्य पर विचार करते हुए कि दोनों धाराएं एक ही अध्याय यानी संहिता के अध्याय XXIV में निर्धारित हैं, और ये सह-संबंधित प्रावधान हैं।

सन्दर्भ

  • Kelkar, R.V. (2018) Criminal Procedure, Eastern Book Company, Lucknow.

 

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