यह लेख गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से एफिलिएटेड फेयरफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी की बीबीए-एलएलबी की छात्रा Tarini Kalra द्वारा लिखा गया है। यह लेख सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 26 के तहत एक वाद को संस्थित (इंस्टीट्यूट) करने पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।
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परिचय
क्या आपने कभी सोचा है कि सिविल अदालत में सिविल वाद कैसे दायर किया जाता है? पहले हम इससे संबंधित कुछ मूल बातें स्पष्ट करते है। भारत में सिविल कार्यवाही का प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के तहत शासित होता है। सिविल शिकायत दर्ज करने से पहले, सीपीसी की धारा 9 के तहत अदालत के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) और धारा 18 के तहत वाद दायर करने की जगह का निर्धारण करना आवश्यक है। सिविल वाद की प्रक्रिया का प्रारंभिक चरण सीपीसी की धारा 26 के तहत वाद को संस्थित करना है। वर्तमान लेख सीपीसी की धारा 26 के तहत वाद को संस्थित करने के प्रावधानों का विस्तृत अध्ययन प्रदान करता है।
वाद क्या है
सीपीसी, 1908 के तहत ‘वाद’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। ब्लैक लॉज़ डिक्शनरी, का चौथा संस्करण (एडिशन) वाद को “एक सामान्य शब्द में, व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) अर्थ के रूप में परिभाषित करता है, और यह एक व्यक्ति द्वारा किसी अन्य के खिलाफ अदालत में हर एक कार्यवाही पर लागू होता है, जिसमें वादी ऐसी अदालत में, उस उपाय का अनुसरण (पर्स्यू) करता है जो कानून उसे किसी हानि के निवारण (रिड्रेस) या किसी अधिकार के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए प्रदान करता है, चाहे वह कानून में हो या इक्विटी में।” वाद एक सिविल प्रक्रिया है जो राज्य या किसी व्यक्ति के खिलाफ नागरिक या वास्तविक अधिकारों को लागू करने की मांग करने वाले वादपत्र (प्लेंट) दायर करके शुरू की जाती है। एक वाद का परिणाम एक डिक्री में होता है। वाद के बिना कोई डिक्री नहीं हो सकती है।
इथियोपियन एयरलाइंस बनाम गणेश नारायण साबू (2011), के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि ‘वाद’ शब्द एक सामान्य शब्द है जिसमें एक व्यक्ति द्वारा कानून द्वारा निहित कानूनी अधिकार को लागू करने के लिए किए जाने वाले सभी कार्यों को शामिल किया गया है।
हंसराज गुप्ता और अन्य बनाम देहरादून-मसूरी इलेक्ट्रिक ट्रामवे कंपनी लिमिटेड (1932), के ऐतिहासिक मामले में प्रिवी काउंसिल ने माना कि सिविल कार्यवाही एक वादपत्र (प्लेंट) की प्रस्तुति द्वारा स्थापित की जाती है।
परिसीमा (लिमिटेशन) अधिनियम, 1963 के तहत वाद
परिसीमा अधिनियम, 1963 में वाद और अन्य प्रक्रियाओं की सीमा को विनियमित (रेगुलेट) करने वाले कानूनों को नियंत्रित किया गया है। एक अपील या एक आवेदन को परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2(l) के तहत वाद नहीं माना जाता है। परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5, कुछ परिस्थितियों में निर्धारित समय सीमा के विस्तार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि सीमा अवधि बीत जाने के बाद भी किसी भी अपील या आवेदन की अनुमति दी जा सकती है यदि अपीलकर्ता अदालत में यह स्थापित करता है कि वे सीमा अवधि के दौरान अपील या आवेदन दायर नहीं कर सके। अगर अदालत संतुष्ट है, तो अपील या आवेदन जमा करने में देरी को माफ किया जा सकता है, भले ही पक्ष राज्य या निजी संस्था हो। परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 वाद पर लागू नहीं होती है।
एफ. लियानसांगा बनाम भारत संघ (2022), के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत देरी से छूट देने का अधिकार वाद पर लागू नहीं होता है।
परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 9 समय के निरंतर संचालन को रेखांकित करती है। जब वाद-हेतुक (कॉज ऑफ एक्शन) बनता है, तो समय समाप्त हो जाता है। इसमें कहा गया है कि एक बार परिसीमा की अवधि शुरू हो जाने के बाद कोई भी अक्षमता इसे रोक नहीं सकती है। यह केवल वादों और आवेदनों पर लागू होता है और अपीलों पर तब तक लागू नहीं होता जब तक कि मामला अधिनियम में निर्धारित अपवादों में से किसी एक के अंतर्गत न आता हो। धारा 9 तब लागू होती है जब वाद-हेतुक या याचिका दायर करने का अधिकार आवेदन की तिथि पर मौजूद होता है।
वाद की अनिवार्यता
वाद के लिए पक्ष
कम से कम दो विरोधी पक्ष होने चाहिए: वादी जो राहत का दावा करने के लिए वाद दायर करता है और प्रतिवादी जिसके खिलाफ वादी दावा दायर करता है। दोनों तरफ संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। प्रत्येक वाद को एक वादपत्र की प्रस्तुति द्वारा संस्थित किया जाता है। वादपत्र को वादी, एक प्रतिनिधि, एक मान्यता प्राप्त एजेंट, या एक वकील द्वारा दायर किया जा सकता है।
सीपीसी का आदेश I का नियम 1, वाद में वादी को जोड़ने की रूपरेखा देता है। यदि एक ही कार्य या लेन-देन या कार्यों की एक श्रृंखला या लेनदेन की एक श्रृंखला से संयुक्त रूप से, अलग-अलग, या वैकल्पिक रूप से, या जहां कानून या तथ्य का कोई सामान्य प्रश्न है, जुड़ सकते है तो सभी व्यक्ति वादी के रूप में शामिल हो सकते हैं जिससे राहत का कोई दावा उत्पन्न होता है।
सीपीसी के आदेश I, नियम 3 में वाद में प्रतिवादियों को जोड़ने की रूपरेखा दी गई है। यदि प्रतिवादियों के खिलाफ अलग-अलग मामले शुरू किए गए थे, तो एक ही कार्य या लेन-देन या, कार्यों या लेनदेन की श्रृंखला से उत्पन्न होने वाले प्रतिवादियों के खिलाफ राहत का कोई दावा मौजूद है, या जब कानून या तथ्य का कोई सामान्य प्रश्न सामने आएगा तो एक वाद में प्रतिवादी के रूप में सभी लोग शामिल हो सकते हैं।
एक गलत जोड़ (मिस ज्वाइंडर) तब होता है जब वाद में किसी ऐसे पक्ष को जोड़ा जाता है जिसका विवाद से कोई लेना-देना नहीं है तो इसे गलत जोड़ कहा जाता है। लेकिन जब वाद में एक पक्ष को नहीं जोड़ा जाता है, तो यह एक गैर-जोड़ (नॉन ज्वाइंडर) होता है। सीपीसी के आदेश I, नियम 9 में कहा गया है कि पक्षों के गलत या गैर-जोड़ के आधार पर कोई भी वाद खारिज नहीं किया जाएगा। यह नियम गैर-जोड़ के रूप में व्याख्या किए गए आवश्यक पक्षों पर लागू नहीं होता है।
वाद-हेतुक
वाद-हेतुक उन कारणों का समूह है जिसके आधार पर अदालत में वाद दायर किया जाता है। यह तथ्यों या आरोपों का एक समूह है जो वाद दायर करने के लिए आधार बनाता है। इसमें अधिकारों और उनके उल्लंघन से संबंधित सभी तथ्य शामिल होते हैं। सीपीसी के आदेश II, नियम 2 में कहा गया है कि वाद-हेतुक आवश्यक है, और यदि किसी मामले को एक वाद के रूप में संस्थित किया जाना है तो एक वादपत्र में वाद-हेतुक का उल्लेख होना चाहिए।
राजस्थान उच्च न्यायालय अधिवक्ता संघ बनाम भारत संघ और अन्य (2000), में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “वाद-हेतुक” वाक्यांश का न्यायिक रूप से स्थापित (एस्टेब्लिश) अर्थ था। यह आचरण के अधिकार या प्रत्यक्ष कारण के उल्लंघन के आसपास की स्थितियों को संदर्भित करता है। व्यापक अर्थों में, यह वाद को बनाए रखने के लिए आवश्यक शर्तों को संदर्भित करता है, जिसमें न केवल अधिकार का उल्लंघन शामिल है, बल्कि अधिकार के साथ संयुक्त उल्लंघन भी शामिल है और उन सभी तथ्यों के लिए वाक्यांश का संक्षिप्त रूप जो वादी को इसलिए स्थापित करना होता है ताकि वह अदालत के फैसले तक अपने दावे को बनाए रखने में कायम रह सके। वाद-हेतुक में हर वह सच्चाई शामिल होती है जिसे साबित किया जाना चाहिए, हर सबूत के विपरीत हो जो प्रत्येक तथ्य को प्रमाणित (सबस्टेंसिएट) करने के लिए दिया जाना चाहिए।
विषय वस्तु
चल या अचल संपत्ति के बारे में तथ्यों या विवरणों का समूह जो उपचार का दावा करने के लिए एक सिविल विवाद को जन्म देता है उसे विषय वस्तु के रूप में संदर्भित किया जाता है।
वादी द्वारा दावा की गई राहत
प्रतिवादी द्वारा कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के लिए वादी को उपलब्ध राहत एक कानूनी उपाय है। अदालत द्वारा कोई उपाय तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि शिकायत के पक्ष अनुरोध न करें। राहत दो प्रकार की होती है: विशिष्ट (स्पेसिफिक) और वैकल्पिक (अल्टरनेटिव)। विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत विशिष्ट राहत शासित होती है।
सीपीसी की धारा 26 के तहत वाद को संस्थित करना
सिविल वाद का प्राथमिक चरण एक वाद को संस्थित करना है। वाद को संस्थित करने की प्रक्रिया सीपीसी की धारा 26 के तहत शासित होती है, जिसे आदेश IV के साथ पढ़ा जाता है।
सीपीसी की धारा 26 के अनुसार:
- हर वाद की शुरुआत एक वादपत्र दायर करके या कानून द्वारा निर्धारित किसी अन्य तरीके से की जानी चाहिए।
- हर शिकायत में तथ्यों को साबित करने के लिए एक हलफनामे (ऐफिडेविट) का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। हलफनामे को आदेश VI, नियम 15A के तहत उल्लिखित विनिर्देशों (स्पेसिफिकेशंस) का पालन करना चाहिए।
सीपीसी के आदेश IV में वादपत्र द्वारा वाद के प्रारंभ की रूपरेखा दी गई है। यह प्रकट करता है कि:
- प्रत्येक वाद को न्यायालय या उसकी ओर से नामित (डेजिग्नेटेड) किसी अधिकारी के समक्ष वादपत्र प्रस्तुत करके संस्थित किया जाना चाहिए।
- प्रत्येक वादपत्र को आदेश VI और VII में उल्लिखित नियमों का पालन करना चाहिए।
- किसी वादपत्र को तब तक विधिवत रूप से स्थापित नहीं माना जाता जब तक कि वह उप-नियम (1) और (2) के तहत बताए गए मानदंडों (क्राइटेरिया) का अनुपालन नहीं करता है।
धारा में प्रदान किए गए कानून के विस्तार में आदेश IV, नियम 1, को सीपीसी की धारा 26 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इस विनियम (रेगुलेशन) के अनुसार, एक वाद को पर्याप्त रूप से तभी संस्थित माना जा सकता है जब वह सीधे अदालत में या इस क्षमता में नामित एक उचित अधिकारी को एक वादपत्र या दो प्रतियों के साथ दिया जाता है। आदेश VI और VII में उल्लिखित आवश्यकताओं को वादपत्र में पालन किया जाना चाहिए।
सीपीसी की धारा 80 में यह आवश्यक है कि यदि वाद में प्रतिवादी सरकार या सार्वजनिक अधिकारी है तो वाद दायर करने से पहले एक कानूनी नोटिस दिया जाए। हालाँकि, केवल कुछ सिविल वादों के लिए कानूनी नोटिस देने की आवश्यकता होती है। कुछ परिदृश्यों (सीनेरिओस) में, अधिवक्ता प्रतिवादी को सूचित करने के लिए सिविल मामले दायर करने से पहले कानूनी नोटिस देते हैं कि नोटिस भेजने वाला विवाद को सुलझाने का अंतिम प्रयास कर रहा है। यह मुख्य रूप से एक एहतियाती उपाय के रूप में प्रयोग किया जाता है।
वाद को संस्थित करने के प्रक्रियात्मक पहलू में निम्नलिखित शामिल हैं:
- वादपत्र की तैयारी,
- मुकदमा करने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन,
- वादपत्र की प्रस्तुति।
एक वाद को संस्थित करने के लिए एक आवश्यक उपकरण – वादपत्र
वादपत्र एक कानूनी दस्तावेज है जिसमें एक वादी प्रतिवादी द्वारा की गई किसी भी कानूनी हानि के लिए क्षतिपूर्ति (रेस्टिट्यूशन) के लिए अदालत से अनुरोध करता है। वादपत्र का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करने के लिए कोई सख्त प्रारूप (फॉर्मेट) नहीं है। सीपीसी का आदेश VII, नियम 1, वादपत्र में शामिल किए जाने वाले विवरणों के बारे में नियमों को निर्दिष्ट करता है। एक वादपत्र में निम्नलिखित शामिल होना चाहिए:
- अदालत का नाम जहां वाद दायर किया गया है;
- वादी का नाम, विवरण और पता;
- प्रतिवादी का नाम, विवरण और पता, जैसा कि पता लगाया जा सकता है;
- इस आशय का एक बयान तब आवश्यक होता है जब या तो वादी या प्रतिवादी नाबालिग हो या विकृत (अनसाउंड) दिमाग का व्यक्ति हो;
- वाद-हेतुक का गठन करने वाले तथ्य और जब यह उत्पन्न हुआ;
- न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को साबित करने वाले तथ्य;
- राहत जिस पर वादी दावा करने का अनुरोध करता है;
- यदि वादी ने सेट-ऑफ को मंजूरी दे दी है या अपने दावे के एक हिस्से को माफ कर दिया है, तो अनुमत या माफ की गई राशि; तथा
- मामले के अनुसार अनुमत सीमा तक अधिकार क्षेत्र और अदालती लागत (कॉस्ट) के उद्देश्य के लिए वाद की विषय वस्तु के मूल्य का विवरण।
वादपत्र की अस्वीकृति
आदेश VII नियम 11 वादपत्र की अस्वीकृति के लिए विशिष्ट आधारों की रूपरेखा तैयार करता है। वादपत्र को अस्वीकार करने के निम्न आधार हैं:
- वाद-हेतुक का खुलासा नहीं किया गया है;
- जब मांगे गए उपाय का कम मूल्यांकन (वैल्यूएशन) किया जाता है और वादी एक निर्धारित अवधि के भीतर ऐसा करने के लिए अदालत द्वारा आदेश दिए जाने के बाद मूल्यांकन को अद्यतन (अपडेट) करने में विफल रहता है;
- जब मांगे गए उपाय का सही मूल्यांकन किया जाता है, लेकिन वादपत्र पर अपर्याप्त रूप से मुहर लगी होती है और वादी से न्यायालय द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर आवश्यक स्टांप पेपर उपलब्ध कराने का अनुरोध किया जाता है, लेकिन ऐसा करने में विफल रहता है;
- जहां वादपत्र में दिए गए कथन से पता चलता है कि वाद किसी भी कानून द्वारा निषिद्ध है;
- यदि इसे दो प्रतियों में दर्ज नहीं किया गया है;
- जब वादी नियम 9 के प्रावधानों का पालन नहीं करता है।
कविता तुषीर बनाम पुष्पराज दलाल (2022), के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक वादी के आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वादपत्र की कोई खंडश: (पीसमील) अस्वीकृति नहीं हो सकती है। एक वादपत्र के “खंडश: (पीसमील) अस्वीकृति” का अर्थ है कि एक वादपत्र को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाना चाहिए, आंशिक रूप से नहीं।
वाद दायर करने का उपयुक्त स्थान
सीपीसी की धारा 15 से धारा 20 तक वाद दायर करने की जगह से संबंधित है।
धारा 15 के अनुसार, वादी को निम्नतम (लॉवेस्ट) योग्यता स्तर वाले न्यायालय में वाद दायर करना चाहिए।
धारा 16 में कहा गया है कि उस स्थानीय आधिकार क्षेत्र के भीतर मुकदमा दायर किया जाना चाहिए जहां संपत्ति स्थित है:
- किराए या मुनाफे के साथ या बिना अचल संपत्ति की वसूली;
- अचल संपत्ति का विभाजन;
- अचल संपत्ति पर बंधक (मॉर्टगेज) या प्रभार (चार्ज) का फौजदारी (फोरक्लोजर), बिक्री या मोचन (रिडेम्पशन),
- अचल संपत्ति में किसी अन्य अधिकार या हित का निर्धारण;
- अचल संपत्ति को नुकसान के लिए मुआवजा;
- रोक या कुर्की (अटैचमेंट) के तहत चल संपत्ति की वसूली
जब एक प्रतिवादी या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अचल संपत्ति के गलत कार्य के लिए राहत या मुआवजे के लिए वाद दायर किया जाता है और उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति के माध्यम से राहत प्राप्त की जा सकती है, तो वाद स्थानीय अधिकार क्षेत्र के भीतर एक अदालत में दायर किया जा सकता है जहां :
- संपत्ति स्थित है; या
- प्रतिवादी रहता है, व्यवसाय करता है या व्यक्तिगत लाभ के लिए कार्य करता है।
यह अवधारणा कानूनी कहावत “इक्विटी एक्ट्स इन पर्सोनम” पर आधारित है, जिसका अर्थ है “इक्विटी एक संपत्ति के बजाय एक व्यक्ति पर लागू होती है।
धारा 17 विभिन्न अदालतों के अधिकार क्षेत्र में स्थित अचल संपत्ति के लिए वादों के अधिकार क्षेत्र पर चर्चा करती है। जब अचल संपत्तियां अलग-अलग अदालतों में स्थित होती हैं, तो स्थानीय अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी अदालत में वाद दायर किया जा सकता है जहां संपत्ति का कोई हिस्सा स्थित है, बशर्ते कि दोनों संपत्तियों के लिए कार्रवाई का कारण समान हो।
शिवनारायण बनाम मानिकलाल (2019), में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सीपीसी की धारा 17 के तहत, ‘संपत्ति’ शब्द एक से अधिक संपत्ति को संदर्भित कर सकता है। विभिन्न संपत्तियों के लिए लाए गए वादों को किसी भी न्यायालय में अधिकार क्षेत्र के साथ लाया जा सकता है यदि कार्रवाई का कारण एक ही है।
धारा 18 वाद को संस्थित करने के स्थान की रूपरेखा देती है जहां अदालतों का अधिकार क्षेत्र अनिश्चित है। यदि दो या दो से अधिक अदालतों के बीच अचल संपत्ति के वाद को संस्थित करने के अधिकार क्षेत्र के बारे में अनिश्चितता है, तो किसी भी अदालत द्वारा इस आशय का एक बयान दर्ज किया जाना चाहिए, अगर अदालत अनिश्चितता से संतुष्ट है और विचारण (एंटरटेन) या निपटान के लिए आगे बढ़ती है तो उस संपत्ति से संबंधित किसी भी वाद का, और वाद में उसकी डिक्री का वही प्रभाव होगा जैसे कि संपत्ति उसके अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित थी, बशर्ते कि वाद को संस्थित करने की प्रकृति और मूल्यांकन के संबंध में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए वाद एक सक्षम अदालत में हो।
जब धारा 18(1) के अनुसार एक बयान दर्ज नहीं किया जाता है और एक अपीलीय या पुनरीक्षण (रिविजनल) अदालत के समक्ष एक आपत्ति लाई जाती है कि ऐसी संपत्ति से संबंधित वाद में एक डिक्री या आदेश जिसमे संपत्ति जहां स्थित है, वहां अदालत की अधिकारिता न होने के बाद भी आदेश उस अदालत द्वारा दिया गया था, वे तब तक आपत्ति की अनुमति नहीं देंगे जब तक कि वे यह न मान लें कि वाद के संस्थित होने के समय अदालत के अधिकार क्षेत्र में अनिश्चितता के लिए कोई उचित आधार नहीं था और परिणामस्वरूप न्याय की विफलता हुई है।
धारा 19 चल संपत्ति के लिए किसी व्यक्ति को गलत गतिविधि के मुआवजे के लिए वादों से संबंधित है। जब एक वाद किसी व्यक्ति या चल संपत्ति के साथ किए गए गलत काम के मुआवजे के लिए होता है, तो वादी के पास यह विकल्प होता है कि वह उस अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर मुकदमा चलाए जहां प्रतिवादी निवास करता है, व्यवसाय करता है, या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिए काम करता है, या उस अधिकार क्षेत्र के भीतर जहां संपत्ति स्थित है।
धारा 20 वाद दायर करने की जगह का एक अवशिष्ट (रेसीड्यूअरी) प्रावधान है। यह वाद को संस्थित करने से संबंधित है जहां प्रतिवादी रहता है, व्यवसाय करता है, व्यक्तिगत लाभ के लिए काम करता है, या जहां वाद हेतुक पूरी तरह या आंशिक रूप से अदालत के स्थानीय अधिकार क्षेत्र के भीतर उत्पन्न होता है। जब वाद शुरू होने के समय एक से अधिक प्रतिवादी हों, तो वाद को संस्थित किया जा सकता है जहां प्रतिवादी निवास करता है, व्यवसाय करता है, या व्यक्तिगत लाभ के लिए काम करता है, बशर्ते कि वादी अदालत से अनुमति प्राप्त करता है, यदि प्रतिवादी वाद के संस्थित होने के स्थान पर सहमति देते हैं, तो अदालत से अनुमति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
वादपत्र की प्रस्तुति
आदेश VII नियम 9 एक वादपत्र को स्वीकार करने की प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता है। इसमें कहा गया है कि अदालत आदेश देती है कि आदेश V, नियम 9 के अनुसार प्रतिवादियों पर समन तामील (सर्वड) किया जाएगा, और वादी को समन की तामील के लिए निर्धारित शुल्क के साथ-साथ आदेश की तारीख से सात दिनों के भीतर वादपत्र की उतनी ही प्रतियां जमा करनी होंगी जीतने कि प्रतिवादी हैं। वादी अदालत द्वारा निर्धारित समय के भीतर प्रतिवादियों पर समन की तामील के लिए अपेक्षित शुल्क का भुगतान करेगा। जब एक वादी एक प्रतिवादी पर वाद दायर करता है, तो वादी को यह घोषित करना चाहिए कि प्रतिनिधि क्षमता में कार्य करने के लिए किस क्षमता में प्रतिवादी पर वाद चलाया जा रहा है। इन बयानों को वादपत्र के अनुरूप बनाने के लिए, वादी अदालत से अनुमति मांग सकता है। अदालत का मुख्य मंत्रिस्तरीय (चीफ मिनिस्टीरियल) अधिकारी यदि जाँच करने पर उन्हें सही मानता है तो वह ऐसी सूचियों, प्रतियों, या कथनों पर हस्ताक्षर करेगा ।
सिविल प्रकृति के वादों के संबंध में न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र
अधिकार क्षेत्र मुख्य रूप से निम्नलिखित कारकों द्वारा निर्धारित किया जाता है:
- वाद का मूल्यांकन;
- न्यायालय की प्रादेशिक (टेरिटोरियल) सीमाएं;
- न्यायालय का विषय।
अधिकार क्षेत्र के प्रकारों का उल्लेख इस प्रकार है:
आर्थिक अधिकार क्षेत्र
‘आर्थिक’ शब्द का अर्थ धन से है। यह अदालतों को मौद्रिक (मॉनेटरी) विषय के मामलों को निर्धारित करने का अधिकार देता है। एक अदालत का उन वादों पर अधिकार क्षेत्र होता है जहां वाद का मूल्य आर्थिक अधिकार क्षेत्र से अधिक नहीं होता है। वर्तमान में, जिला न्यायालय का आर्थिक अधिकार क्षेत्र 2 करोड़ रुपये तक है।
प्रादेशिक अधिकार क्षेत्र
प्रत्येक अदालत की भौगोलिक सीमाएँ होती हैं जिसके बाहर वह कार्य नहीं कर सकता और अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। सरकार इन प्रतिबंधों को बदल देती है। जिला न्यायाधीश को जिले के भीतर अधिकार का प्रयोग करना चाहिए। उच्च न्यायालय का केवल उस राज्य पर अधिकार क्षेत्र है जहां वह स्थित है।
विषय वस्तु आधिकार क्षेत्र
किसी विशिष्ट विषय से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए अदालत को दी गई शक्ति विषय वस्तु अधिकार क्षेत्र है। अदालतें उन मामलों की सुनवाई नहीं कर सकती हैं जिनकी विषय वस्तु उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
समवर्ती (कंकर्रेंट) अधिकार क्षेत्र
समवर्ती अधिकार क्षेत्र तब मौजूद होता है जब विभिन्न कानूनी प्रणालियों के दो या दो से अधिक अदालतों का एक ही मामले पर अधिकार क्षेत्र होता है।
अनन्य (एक्सक्लूसिव) अधिकार क्षेत्र
एक अदालत या न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के समक्ष किसी मामले की सुनवाई करने की शक्ति को अनन्य अधिकार क्षेत्र कहा जाता है। कोई अन्य अदालत या प्राधिकरण (अथॉरिटी) निर्णय नहीं दे सकती है या मामले या मामलों की श्रेणी तय नहीं कर सकती है।
अपीलीय आधिकार क्षेत्र
अपीलीय अधिकार क्षेत्र अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) अदालतों से मामलों की सुनवाई करने की अदालत की क्षमता को संदर्भित करता है। अपने अपीलीय आधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए, श्रेष्ठ अदालत निचली अदालत के फैसले को रद्द कर सकती है, निचली अदालत को मामले की फिर से सुनवाई करने का आदेश दे सकती है, निचली अदालत को अतिरिक्त साक्ष्य लेने का आदेश दे सकती है, और कोई अन्य आदेश दे सकती है जो उसे उचित लगे।
मूल अधिकार क्षेत्र
प्रथम दृष्टया (इंस्टेंस) किसी मामले की सुनवाई करने की अदालत की शक्ति को मूल अधिकार क्षेत्र कहा जाता है। मूल अधिकार क्षेत्र के लिए आवश्यक है कि एक विशेष प्रकार का मामला शुरू किया जाए और यदि आवश्यक हो तो उस पदानुक्रम (हाइरार्की) में अगले न्यायालय में आगे बढ़ने से पहले पदानुक्रम में सबसे निचली अदालत में दायर किया जाए। कानून द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के तहत, मूल अधिकार क्षेत्र वाली अदालत मामले की सुनवाई कर सकती है, विभिन्न निष्कर्षों तक पहुँच सकती है, और आदेश जारी कर सकती है।
विशेष अधिकार क्षेत्र
अदालतों को एक विशिष्ट प्रकृति के मामलों को सुनने का अधिकार दिया जाता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हर्षद एस मेहता और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2001) में निर्णय दिया कि विशेष न्यायालय के पास किसी मामले का न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेट) करने का अनन्य अधिकार क्षेत्र है, जो विशेष न्यायालय को उस अधिनियम या क़ानून द्वारा दिया जाता है जिसने अदालत की स्थापना की है।
कानूनी अधिकार क्षेत्र
कानूनी अधिकार क्षेत्र में, सभी अदालतों को देश के कानून द्वारा प्रशासित (एडमिनिस्टर्ड) किया जाता है, जिसमें क़ानून, उदाहरण, रीति-रिवाज, इक्विटी, न्याय और अच्छे विवेक शामिल हैं।
धारा 26 का दायरा और प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी)
एक सिविल वाद में, सबूत का भार वादी पर होता है। वादी को यह स्थापित करना चाहिए कि प्रतिवादी के खिलाफ आरोप सही हैं और प्रतिवादी क्मुआवजे के लिए उत्तरदायी है। एक वादपत्र में सभी आवश्यक जानकारी और सहायक दस्तावेज शामिल होने चाहिए। इसके अतिरिक्त, आवश्यक अदालती खर्चों को वाद पत्र के साथ शामिल किया जाना चाहिए। कुल दावे या वाद के मूल्य का एक छोटा सा अंश अदालती लागत के रूप में उपयोग किया जाता है। न्यायालय शुल्क अधिनियम, 1870, और स्टाम्प अधिनियम, 1899 वाद के प्रकार के आधार पर न्यायालय शुल्क और स्टाम्प शुल्क की आवश्यक राशि निर्दिष्ट करते हैं।
सीपीसी की धारा 9 उन वादों को छोड़कर, जिनमें संज्ञान (कॉग्निजेंस) स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित नहीं है, सिविल प्रकृति के हर वाद की सुनवाई के लिए अदालतों के अधिकार क्षेत्र से संबंधित है।
स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित वाद
स्पष्ट रूप से वर्जित वाद
किसी क़ानून द्वारा प्रभावी रूप से वर्जित वाद स्पष्ट रूप से वर्जित वाद है। एक सक्षम विधायिका एक निश्चित प्रकार के सिविल वाद को सुनने के लिए सिविल अदालत की क्षमता को सीमित कर सकती है, बशर्ते कि वह बिना किसी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किए बिना ऐसा करती है और दिए गए विधायी अधिकार के दायरे में रहती है। नतीजतन, जब कोई वाद वर्तमान में प्रभावी कानून द्वारा विशेष रूप से बाहर रखा जाता है, तो इसे दायर नहीं किया जा सकता है।
निहित रूप से वर्जित वाद
सामान्य कानूनी सिद्धांतों द्वारा निषिद्ध होने पर एक वाद को निहित रूप से वर्जित कहा जाता है। सार्वजनिक नीति के आधार पर, सिविल वादों को भी इसी तरह सिविल अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है। एक व्यक्ति जिसे क़ानून द्वारा प्रदान की गई चीज़ों की तुलना में एक अलग रूप में एक उपाय की आवश्यकता होती है, इसलिए जब क़ानून द्वारा एक विशिष्ट उपाय प्रदान किया जाता है, तो उसे अस्वीकार कर दिया जाता है।
एक वाद को संस्थित करने के बाद की औपचारिकताएं (फॉर्मेलिटी)
किसी न्यायालय या इस संबंध में नियुक्त ऐसे अधिकारी के समक्ष वाद की शुरुआत और संस्थित करने की प्रक्रिया आदेश IV नियम 1 और 2 में उल्लिखित है।
प्रतिवादी को समन देना धारा 27 के अंतर्गत आता है। प्रतिवादी को पेश होने और दावे का जवाब देने के लिए एक समन उस दिन भेजा जाता है, जो वाद शुरू होने के तीस दिनों से अधिक नहीं होता है, और इसे निर्दिष्ट तरीके से तामील किया जाता है।
धारा 28 अन्य राज्यों के निवासी प्रतिवादियों को समन जारी करने से संबंधित है। उस राज्य में लागू नियमों के अनुपालन में दूसरे राज्य की अदालत में एक समन भेजा जाना चाहिए। जिस न्यायालय को इस तरह का समन भेजा जाता है, उसे इस तरह कार्य करना चाहिए जैसे कि उसने स्वयं समन जारी किया हो। अदालत को समन जारी करने वाली अदालत को अपनी कार्यवाही के रिकॉर्ड के साथ समन वापस करना होगा।
जब किसी अन्य राज्य में तामील के लिए भेजा गया समन रिकॉर्ड की भाषा के अलावा किसी अन्य भाषा में होता है, तो रिकॉर्ड के अनुवाद की आपूर्ति की जानी चाहिए:
- यदि न्यायालय उस भाषा में समन जारी करता है तो अनुवाद हिंदी में उपलब्ध कराया जाना चाहिए;
- जहां रिकॉर्ड हिंदी या अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में है, वहां अनुवाद हिंदी या अंग्रेजी में दिया जाना चाहिए और रिकॉर्ड के साथ दिया जाना चाहिए।
धारा 29 विदेशी समन की तामील करने से संबंधित है। समन और अन्य कानूनी दस्तावेजों को इनके द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिए:
- भारत में स्थापित कोई भी सिविल या राजस्व (रेवेन्यू) न्यायालय, चाहे सीपीसी कहीं भी लागू न हो;
- भारत के बाहर केंद्र सरकार द्वारा स्थापित या अनुरक्षित कोई सिविल या राजस्व न्यायालय, या
- भारत के बाहर कोई भी अन्य सिविल या राजस्व न्यायालय, जिसके लिए केंद्र सरकार ने आधिकारिक राजपत्र (गैजेट) में अधिसूचना द्वारा लागू करने के लिए इस धारा के प्रावधानों की घोषणा की है, इस संहिता द्वारा शामिल किए गए क्षेत्रों में न्यायालयों को दिया जा सकता है और उन अदालतों द्वारा इस तरह से कार्य किया जा सकता है जैसे कि ये समन उनके द्वारा जारी किए गए हों।
धारा 31 गवाह समन को संबोधित करती है। धारा 27, 28, और 29 के प्रावधान दस्तावेज़ या अन्य भौतिक (मेटेरियल) वस्तुएँ पेश करने या गवाही प्रदान करने के लिए किसी भी समन पर लागू होंगे।
निष्कर्ष
हर अधिकार का एक उपाय है, या “यूबी जस, ईबी रिमिडियम”, जो कि कानूनी प्रणाली के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। एक वादी प्रतिवादी को हुए नुकसान के लिए मुआवजा प्राप्त करने के लिए एक सिविल वाद दायर कर सकता है। एक वादपत्र में सभी प्रासंगिक जानकारी शामिल होनी चाहिए और सिविल वाद को संस्थित करने की दस्तावेजी प्रक्रिया में पहले चरण के रूप में कार्य करता है। हालाँकि, सबूत की जिम्मेदारी वादी पर होती है क्योंकि वादी वाद दायर करता है और तथ्यों और कानूनी आधारों को बताता है। वादी को अदालत को आश्वस्त करना चाहिए और प्रतिवादी के खिलाफ लगाए गए हर आरोप का समर्थन करने के लिए वाद को संस्थित के लिए सही तथ्य और उचित आधार पेश करना चाहिए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या बिना किसी वाद हेतुक के वाद दायर किया जा सकता है?
नहीं, वाद हेतुक के बिना कोई वाद उत्पन्न नहीं हो सकता।
वादपत्र कब खारिज की जा सकती है?
एक अदालत स्वप्रेरणा (सुओ मोटो) से खारिज कर सकती है। वाद के किसी भी स्तर पर एक वादपत्र को खारिज किया जा सकता है लेकिन फैसला सुनाए जाने से पहले।
क्या एक वादपत्र को आंशिक रूप से खारिज किया जा सकता है?
एक वादपत्र को आंशिक रूप से खारिज नहीं किया जा सकता है। हालाँकि, डॉ. संजीव बंसल बनाम डॉ मनीष बंसल (2022), के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि सीपीसी, 1908 के आदेश VII, नियम 11 (d), निर्दिष्ट करता है कि जहां वादपत्र के बयान से वाद किसी भी कानून द्वारा वर्जित प्रतीत होता है वहां एक वादपत्र खारिज कर दिया जाएगा और सीपीसी का आदेश VI, नियम 16, अदालत को कार्यवाही के किसी भी बिंदु पर याचिका के किसी भी हिस्से को हटाने की अनुमति देता है जो अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है या अनुचित (इनअप्रोप्रीएट), निंदनीय (स्कैंडलस), अनुचित (अनरीजनेबल), आक्रामक (ऑफेंसिव) या हानिकारक (हार्मफुल) है।
वादपत्र की अस्वीकृति के लिए क्या उपाय उपलब्ध है?
आदेश VII, नियम 13 के तहत वादी द्वारा एक नया वाद दायर किया जा सकता है।
संदर्भ