हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25

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Hindu Marriage Act, 1955
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यह लेख मराठवाड़ा मित्र मंडल के शंकरराव चव्हाण लॉ कॉलेज, पुणे के Ishan Arun Mudbidri द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में भरण-पोषण की अवधारणा के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

विवाह को एक ऐसा समारोह माना जाता है, जो दो लोगों को जीवन भर के लिए एक साथ लाता है। कई लोग कहते हैं कि शादी एक पूर्व-निर्धारित घटना है। लेकिन, व्यक्तिगत रंजिश या किसी रिश्ते में संतुष्टि की कमी, इसमें शामिल दो लोगों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन को भी मुश्किल बना सकती है। ऐसे में भगवान न करे तलाक हो जाए, तो पति या पत्नी में से किसी एक की आर्थिक मदद का सवाल उठता है। इस अवधारणा को भरण-पोषण के रूप में जाना जाता है।

भारत में भरण-पोषण की अवधारणा

कभी-कभी, एक शादी एक तरफा हो सकती है। ऐसे मामले में अंतिम उपाय तलाक है। तलाक के बाद पत्नी को अपना ख्याल रखना चाहिए और अगर वह माँ है तो उसके बच्चों का भी ख्याल रखना चाहिए। इसलिए, एकल माता या पिता के लिए जीवन की सभी बुनियादी आवश्यकताओं जैसे भोजन, आश्रय, कपड़े, शिक्षा आदि को प्रदान करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए, सामाजिक न्याय के सिद्धांत, संसाधनों और समानता के बारे में बात करते हैं, और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का कर्तव्य एक आदमी का हो जाता है। कानूनी अर्थों में इस अवधारणा को भरण-पोषण कहा जाता है।

भारत में, भरण-पोषण कानून कड़े हैं और सभी नागरिकों पर लागू होते हैं। भारत में भरण-पोषण कानून, उन माता-पिता, पत्नियों और बच्चों को सहायता प्रदान करते हैं, जो खुद को संभालने में असमर्थ हैं। भरण-पोषण की व्यवस्था करना मनुष्य का कर्तव्य है।

तो भरण-पोषण क्यों दिया जाता है? भारतीय न्यायपालिका ने विभिन्न निर्णयों में इस प्रश्न का उत्तर दिया है। बादशाह बनाम उर्मिला बादशाह गोडसे और अन्य (2013) के मामले में, सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि भरण-पोषण की अवधारणा के बारे में कानून स्थापित किए गए हैं, निराश्रितों (डेस्टीट्यूट) को सशक्त (एंपावर) बनाने, सामाजिक न्याय प्राप्त करने और व्यक्ति की गरिमा को बनाए रखने के लिए।

भारतीय संविधान ने अपने अनुच्छेद 15(3) में राज्यों को महिलाओं और बच्चों के अधिकारों और हितों की रक्षा करने वाले कानून बनाने की शक्ति दी है। इसलिए भारत में, अपने-अपने धर्म के लोगों के लिए अलग-अलग कानून और व्यक्तिगत कानून हैं, जो महिलाओं, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकारों की रक्षा करते हैं।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25 में हिंदू कानून के तहत भरण-पोषण के अधिकार के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान का उल्लेख किया गया है। इस प्रावधान का विश्लेषण करने से पहले, आइए पहले देखें कि यह क्या कहता है:

यह धारा स्थायी गुजारा भत्ता (एलिमनी) और भरण-पोषण के बारे में बताती है, कि:

  • कोई भी न्यायालय जिसका इस अधिनियम के तहत अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) है, पत्नी या पति द्वारा भरण-पोषण के अनुदान (ग्रांट) के लिए किए गए आवेदन पर, गैर-आवेदक को आवेदक के भरण-पोषण और समर्थन के लिए भुगतान करने का आदेश देगा, जो गैर-आवेदक की आय और संपत्ति के संबंध में वार्षिक या मासिक राशि हो सकती है, जो कि आवेदक के जीवन से अधिक की अवधि के लिए नहीं होगी, और इस तरह के किसी भी भुगतान को गैर-आवेदक की अचल (इम्मूवेबल) संपत्ति को चार्ज करके भी सुरक्षित किया जा सकता है।
  • यदि अदालत संतुष्ट है कि आदेश पास करने के बाद वर्तमान स्थिति में बदलाव आया है, तो अदालत किसी भी पार्टी के कहने पर आदेश को संशोधित या रद्द कर सकती है।
  • यदि अदालत इस बात से संतुष्ट है कि जिस पार्टी के नाम पर आदेश दिया गया है, उसने पुनर्विवाह कर लिया है, या यदि पत्नी पवित्र नहीं रही है, या यदि पति ने किसी अन्य महिला के साथ यौन संबंध बनाए हैं, तो अदालत उस पार्टी के कहने पर आदेश को संशोधित या रद्द कर सकती है।

भरण-पोषण के प्रकार

हिंदू विवाह अधिनियम, दो प्रकार के भरण-पोषण का उल्लेख करता है, जो इस प्रकार हैं:

  • अंतरिम (इंटरिम) भरण-पोषण

अधिनियम की धारा 24, अंतरिम भरण-पोषण या मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट के बारे में बात करती है। इसमें कहा गया है कि यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जहां पत्नी या पति के पास अपने दैनिक और आवश्यक खर्चों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त आय नहीं है, तो अदालत एक आवेदन पर गैर-आवेदक को, आवेदन को दोनों पार्टी की आय को ध्यान में रखते हुए, कार्यवाही के दौरान मासिक आवश्यक खर्चों का भुगतान करने का आदेश दे सकती है। ऐसे मामले में दी गई राशि तय नहीं होती है और पूरी तरह से अदालत पर निर्भर करती है। इस प्रकार, अदालती कार्यवाही के दौरान अंतरिम भरण-पोषण दिया जाता है।

  • स्थायी भरण-पोषण

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिनियम की धारा 25 के तहत स्थायी गुजारा भत्ता और भरण-पोषण दिया जाता है। इस प्रकार का भरण-पोषण तलाक का आदेश पास करते समय दिया जाता है।

क्या गुजारा भत्ता और भरण-पोषण में कोई अंतर है?

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 में गुजारा भत्ता और भरण-पोषण शब्दों का उल्लेख है। तो क्या वे समान हैं?

गुजारा भत्ता पति या पत्नी को दिया जाने वाला एकमुश्त (वन टाइम) भुगतान है, जबकि भरण-पोषण मासिक, वार्षिक या अदालत द्वारा तय की गई किश्तों में हो सकता है। इसके अलावा, गुजारा भत्ता को ज्यादातर तब संदर्भित किया जाता है, जब तलाक आपसी सहमति से किया जाता है। गुजारा भत्ता उन मामलों में दिया जाता है, जहां एक पार्टी ने तलाक के लिए अर्जी दी है और दूसरी पार्टी ने इसे अदालत में चुनौती दी है।

क्या तलाक लिए बिना पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती है?

उपरोक्त प्रावधानों को पढ़ने के बाद, आप सोच रहे होंगे कि क्या केवल एक तलाकशुदा पत्नी ही भरण-पोषण का दावा कर सकती है? ये बात नहीं है। तलाक से पहले भी, अगर पत्नी अपने पति से अलग हो गई है, तो वह भरण-पोषण का दावा कर सकती है। हालाँकि, एकमात्र मानदंड (क्राइटेरिया) जिसके लिए पत्नी भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है, वह इस प्रकार है:

  • यदि पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ रह रही है, तो वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 के तहत भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है।
  • यदि पत्नी और पति के बीच अलग रहने का कोई वास्तविक कारण नहीं है, तो भरण-पोषण का दावा नहीं किया जा सकता है।
  • जब पति-पत्नी आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हों, तो वे भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकते।

डॉ. कुलभूषण कुमार बनाम राज कुमारी और अन्य (1970) के मामले में, अदालत ने कहा कि पति के वर्तमान वेतन का 25% भरण-पोषण के लिए रखा जाना चाहिए।

मामले

उमरानी बनाम डी. विवेकानंदन, (2000) के मामले में, पार्टियों ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत तलाक के लिए दायर किया। याचिकाकर्ता ने अधिनियम की धारा 24 के तहत अंतरिम गुजारा भत्ता और अन्य खर्चों के लिए आवेदन किया था। उसने तर्क दिया कि उसके पति (प्रतिवादी) ने उसे और उसके बच्चे को छोड़ दिया, और वह उसके भरण-पोषण के लिए पर्याप्त भुगतान करने में सक्षम था। एक सवाल उठा कि क्या गुजारा भत्ता और भरण-पोषण का दावा करने के लिए धारा 25 के तहत लिखित आवेदन की जरूरत है। इसलिए, अदालत ने याचिकाकर्ता और उसके बच्चे को मासिक भरण-पोषण की अनुमति दी और कहा कि धारा 25 के तहत एक लिखित आवेदन आवश्यक नहीं है।

पटेल धर्मशी प्रेमजी बनाम भाई साकार कांजी (1950) के मामले में, दोनों पार्टी ने एक-दूसरे से शादी की थी और उनका एक बेटा था। जल्द ही, वे अलग हो गए, और प्रतिवादी (भाई साकार कांजी) अपने पिता के साथ रहने के लिए चली गई। मुद्दा यह था कि क्या तलाक का आदेश पास करने के बाद दोनों में से कोई भी पार्टी भरण-पोषण के लिए आवेदन कर सकती है। अदालत ने अपील की अनुमति दी और कहा कि पति या पत्नी, अधिनियम की धारा 25 के तहत तलाक का आदेश पास होने के बाद स्थायी गुजारा भत्ता के लिए अपील दर्ज कर सकते हैं। अदालत ने निचली अपीलीय अदालत के आदेश को भी बदल दिया और अपीलकर्ता द्वारा बेटे को दिए जाने वाले भरण-पोषण की राशि में वृद्धि की।

सुधारों की आवश्यकता

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 का एकमात्र उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि तलाक के बाद भी पति और पत्नी दोनों की देखभाल की जाए। इसलिए, उक्त धारा का खंड 1, इस उद्देश्य की पूर्ति करता है, और जरूरतमंदों को भरण-पोषण अनुदान देता है, चाहे वह पति हो या पत्नी। हालांकि, खंड 2 और 3 उचित लग सकते हैं, लेकिन उन्हें ठीक से देखने की आवश्यकता है।

क्या धारा 25(2) बिल्कुल उचित है?

धारा 25 का खंड 2 न्यायालय को भरण-पोषण के आदेश को बदलने या रद्द करने का विशेषाधिकार देता है यदि दोनों पार्टी में से किसी ने अपनी स्थिति बदल दी है। अब, यह खंड, जहाँ तक यह लगता है, एक धारणा पर आधारित है। यह मानते हुए कि पार्टी अपनी परिस्थितियों में होंगे, न्यायालय किसी भी पार्टी के पक्ष में आदेश को संशोधित या रद्द करेगा। मान लीजिए यदि, माता-पिता दोनों के पास एक नाबालिग बच्चा है, जो वर्तमान में माँ की हिरासत में है, और निकट भविष्य में अदालत द्वारा यह माना जाता है कि पति अपनी पत्नी और बच्चे दोनों को साहयता प्रदान करने में सक्षम होगा। ऐसे में यदि पत्नी भरण-पोषण के लिए प्रारंभिक आदेश में संशोधन चाहती है, और बच्चे की शिक्षा, या व्यक्तिगत जरूरतों के कारण राशि में वृद्धि चाहती है, तो ऐसे आदेश को सत्यापित (वेरिफाई) या स्वीकार किया जा सकता है। हालांकि, कई बार ऐसा हो सकता है कि निहित स्वार्थों के कारण आदेश को संशोधित या रद्द करने के लिए कहा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसे मामले में अदालत सबूत मांगेगी और केवल परिस्थिति में एक वैध बदलाव को स्वीकार करेगी। लेकिन इस प्रक्रिया में, इतना समय नष्ट हो जाएगा और जो पार्टी भरण-पोषण प्रदान कर रही है, उसे अदालती कार्यवाही की लागत खर्च करने में बहुत अधिक धन की हानि होगी। इसके अलावा, यदि भरण-पोषण देने का आदेश खंड 1 के तहत पहले ही पास किया जा चुका है, तो क्या इस तथ्य को जानने के बाद भी कि पार्टियां कई मौकों पर परिस्थितियों में बदलाव के लिए दर्ज कर सकती हैं, इस पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है? यह पार्टियों के लिए एक दूसरे को परेशान करने का कानूनी हथियार बन सकता है। इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि निहित कारणों से आदेश को संशोधित नहीं किया जा रहा है, इस खंड को सख्त प्रावधानों की आवश्यकता है।

धारा 25(3) का संवैधानिक कारक

धारा 25(3) पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। इस खंड में कहा गया है कि अदालत तीन शर्तों पर भरण-पोषण देने के आदेश को बदल या रद्द कर सकती है:

  • यदि पत्नी पवित्र न रही हो,
  • यदि पति ने दूसरी स्त्री के साथ संभोग किया हो,
  • अगर किसी भी पार्टी ने दोबारा शादी की हो।

इसलिए, क्या यह वित्तीय (फाइनेंसियल) अस्तित्व और यौन अंतरंगता (इंटिमेसी) के बीच अंतर करने जैसा नहीं लगता है? क्या एक महिला को अपनी मर्जी के बिना यौन स्वायत्तता (ऑटोनोमी) के बिना रहना चाहिए? यदि ऐसा है, तो इससे दूसरी पार्टी (पति) को महिला और भरण-पोषण की कार्यवाही पर नियंत्रण प्राप्त हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसा होगा, लेकिन हो सकता है। यह धारा लिंग-तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) है, क्योंकि कोई भी पार्टी, पति या पत्नी, तलाक के बाद यौन संबंधों में प्रवेश नहीं करेगा, जिसके परिणामस्वरूप वे अपना भरण-पोषण खो सकते हैं। हालांकि, भारत में ज्यादातर महिलाओं के पास वित्तीय स्वायत्तता नहीं है, जिससे उनके लिए खुद को संभालना मुश्किल हो जाता है। सचिंद्र नाथ विश्वास बनाम श्रीमती बनमाला बिस्वास और अन्य (1960) के मामले में अदालत ने कहा कि किसी महिला या पुरुष द्वारा अपने पति या पत्नी के अलावा अन्य लोगों के साथ यौन संबंध बनाना नैतिकता (मॉरलिटी) का पाप है। अब, ऐसा लग सकता है कि यह खंड भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन नहीं करता है, जो बिना किसी भेदभाव के समानता की बात करते हैं, क्योंकि वे लिंग-तटस्थ हैं। हालांकि, इस पर मेरी उपरोक्त व्याख्या एक अलग कहानी बुन सकती है।

इसके अलावा, संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बारे में बात करता है। इसलिए, क्या अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाना व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है? एक तलाकशुदा महिला जो पहले से ही कई चुनौतियों का सामना कर रही है, उसे केवल इसलिए भरण-पोषण नहीं देने का बोझ नहीं डाला जा सकता है क्योंकि उसने अपने पति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन संबंध बनाए थे। जिस तरह संविधान ने व्यभिचार (एडल्टरी) की प्रथा को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, इस आधार पर कि यह जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2018) के मामले में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन कर रहा है, क्या इस धारा को फिर से देखने की आवश्यकता नहीं है?

भरण-पोषण के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही के दिशानिर्देश

रजनेश बनाम नेहा (2020) के मामले में, एक फैमिली अदालत ने रजनेश (अपीलकर्ता) को नेहा (प्रतिवादी) को अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इसके बाद अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि वह भरण-पोषण के लिए भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए वैवाहिक मामलों में भरण-पोषण भुगतान को विनियमित (रेगुलेट) करने के लिए कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किए। आइए उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत करें:

  • भारत में भरण-पोषण के अधिकार को नियंत्रित करने वाले विभिन्न कानून हैं। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि प्रत्येक भरण-पोषण कार्यवाही को अलग से पढ़ा जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप कार्यवाही की बहुलता होगी। भरण-पोषण का अनुरोध करने वाला व्यक्ति यह उल्लेख करेगा कि क्या उसे किसी अन्य कार्यवाही में पहले भरण-पोषण दिया गया है।
  • इसके अलावा, भरण-पोषण आवेदन, दायर करने की तारीख से दिया जाएगा।
  • इसके बाद, अदालत ने भुगतान की मात्रा के संबंध में अपनी टिप्पणियां दीं। इसमें कहा गया है कि पार्टियों के विवरण जैसे, स्थिति, आय, जरूरतों और चाहतों, देनदारियों, नौकरी, उम्र आदि पर विचार किया जाना चाहिए।
  • अदालत ने यह भी कहा कि शादी की अवधि पर विचार किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

भारत में सभी भरण-पोषण कानूनों के अलग-अलग प्रावधान हैं। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 25 ऐसा ही एक प्रावधान है। भारत तेजी से बढ़ता हुआ देश है। लोग भी विकसित हो रहे हैं और 50 और 60 के दशक की मानसिकता से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं। आज की दुनिया में, पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान कानूनी दर्जा प्राप्त है। हालांकि, अभी भी कुछ कानूनी प्रावधान हैं जिन पर किसी का ध्यान नहीं गया होगा, और उन्हें फिर से बदलने की आवश्यकता है। इनमें हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 25 के खंड 2 और 3 शामिल हैं।

संदर्भ

 

 

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