सीआरपीसी की धारा 162 

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Criminal Procedure Code

यह लेख कानूनी पेशेवर Anjali Sinha द्वारा लिखा गया है। यह लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 की एक विस्तृत चर्चा करता है। यह प्रावधान ऐतिहासिक निर्णयों द्वारा समर्थित है, जिसमें पुलिस जांच के दौरान गवाह और साथ ही गवाह के हस्ताक्षर की प्रामाणिकता (ऑथेंसिटी) से जुड़े सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक से संबंधित मामलों में अदालत के विचार भी शामिल हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय 

जिस व्यक्ति से दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा 161 के तहत पूछताछ की जाती है, उसे सभी सवालों का ईमानदारी से जवाब देना आवश्यक है, उन सवालों को छोड़कर जो खुद को दोषी ठहराने वाले हों। 

सा प्रक्रिया संहिता की धारा 161(2) और भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) दोनों सुरक्षा प्रदान करते हैं। 

सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज किए गए बयानों को आरोपी के पक्ष में या उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। ऐसे दावे अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के गवाहों की विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने के लिए पूरी तरह से मान्य हैं। पुलिस जांच के दौरान दिया गया बयान तब तक जिरह (एग्जामिनेशन) का विषय नहीं हो सकता जब तक कि व्यक्ति ने पहले ही अदालत में अभियोजन पक्ष के लिए गवाही नहीं दे दी हो और उसके बयान को उस गवाह का खंडन करने या उसके पहले के बयान में किसी त्रुटि को उजागर करने के लिए सबूत के रूप में पेश नहीं किया गया हो। 

सीआरपीसी की धारा 162 के अनुसार, “विधिवत साबित” होने के लिए, अभियोजन पक्ष के गवाह से पहले अदालत में जिरह की जानी चाहिए। धारा 161 के अनुसार दिए गए बयानों को सत्यापित (वेरिफाई) नहीं किया जा सकता है।

सीआरपीसी की धारा 162 क्या कहती है

सीआरपीसी की धारा 162 की भाषा स्पष्ट और विशिष्ट है और इसके अर्थ के बारे में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। सीआरपीसी की धारा 162 बयानों के सीमित उपयोग का प्रावधान करती है और अदालत को अदालत में दिए गए बयानों के समर्थन में उनका उपयोग करने से रोकती है। 

सत्यापन के उद्देश्य से जांच की प्रक्रिया जटिल है। बयान को सही ढंग से दर्ज करने के लिए पुलिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है और भ्रम के बीच इसे अक्सर अनिर्दिष्ट तरीके से हटा दिया जाता है। 

पुलिस के समक्ष साक्ष्य की स्वीकार्यता 

जांच के दौरान पुलिस द्वारा दर्ज किया गया कोई भी बयान शपथ के तहत नहीं दिया जाता है या जिरह द्वारा सत्यापित नहीं किया जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुसार बताई गई परिस्थितियाँ तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं मानी जातीं है। लेकिन अगर मुकदमे के दौरान गवाह को बुलाया जाता है, तो उसके पिछले बयानों का इस्तेमाल साक्ष्य के सामान्य नियमों के अनुसार अदालत में उसकी गवाही की पुष्टि करने के लिए किया जा सकता है या यह दिखाने के लिए किया जा सकता है कि कैसे उसकी पिछली गवाही का खंडन किया गया था। 

सीआरपीसी की धारा 162 जांच के दौरान पुलिस को दिए गए बयानों के इस्तेमाल पर रोक लगाती है। यह माना जाता है कि आप पुलिस द्वारा बयानों की सही रिकॉर्डिंग पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि पुलिस व्यक्तिगत लाभ के लिए बयान दर्ज कर सकती है। पुलिस को दिए गए बयानों का पूर्ण उपयोग अधिकारियों द्वारा निषिद्ध नहीं है।

किसी जांच के दौरान दर्ज किए गए गवाहों के बयानों पर हस्ताक्षर करने के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 162 में प्रतिबंध जांच अधिकारियों के बयानों की निष्ठा में ऐतिहासिक अविश्वास से उत्पन्न होता है। यह अभ्यास झूठ बोलने वाले पुलिस अधिकारियों को अपने बयानों को अपनी इच्छानुसार आकार देने में मदद करता है, कभी-कभी तो गवाह पूरी तरह से घबरा जाते हैं। यदि गवाह मुकदमे में परस्पर विरोधी साक्ष्य देता है तो इससे अभियोजन पक्ष को गवाह से जिरह करने में मदद मिलती है। और किसी सच्चे गवाह के मामले में भी, जिसे पुलिस और अदालत में एक ही बात कहनी हो, पुलिस के लिए विरोधाभासी बयान दर्ज करना असंभव नहीं है। यदि अदालत मामले को सावधानी से नहीं संभालती है तो केस डायरी में यह बयान अक्सर आरोपी को बरी करने में मदद करता है। हाल के कुछ अदालती फैसलों की समीक्षा से यह स्पष्ट होता है।

सीआरपीसी की धारा 162 का महत्व

साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 145 के अनुसार, धारा 161 के अनुपालन में दिए गए बयानों का उपयोग केवल विपरीत बयान को साबित करने के लिए किया जा सकता है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि धारा 162 के तहत रोक स्वाभाविक रूप से आरोपी को दिया गया अधिकार है और इसका ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए क्योंकि अपवाद सामान्य मानदंड (नॉर्म) से अधिक नहीं हो सकते।

धारा में निम्नलिखित तीन शर्तें शामिल हैं:

  1. बयान को लिखित रूप में देना होगा।
  2. अभियोजन पक्ष के लिए गवाहों को बुलाना आवश्यक है। 
  3. पाठ्य कथन को उचित रूप से सिद्ध करने की आवश्यकता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 और 32 के अनुसार दिए गए बयानों के अपवाद के साथ, जांच के दौरान एक पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया मृत्युपूर्व बयान, धारा 162(2) के तहत प्रदान की गई छूट के मद्देनजर साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के तहत प्रासंगिक हो जाता है। साथ ही, विधायिका ने हस्तक्षेप किया और “या उस अधिनियम की धारा 27 के प्रावधानों को प्रभावित करने के लिए” शब्द जोड़े, इस प्रकार जहां तक “खोजे गए तथ्यों” का संबंध है, धारा 27 को धारा 162(1) में प्रतिबंध को खत्म करने की अनुमति दी गई।

गवाह द्वारा दिए गए बयानों में स्पष्ट और अंतर्निहित (इंप्लीसिट) दोनों तरह की घोषणाएं शामिल हैं। 

पुखराज पन्नालाल शाह एवं अन्य बनाम केके गांगुली और अन्य (1967), के निर्णय के अनुसार रेलवे अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) के अनुसार सीमा शुल्क अधिकारी और रेलवे सुरक्षा बल के सदस्य पुलिस अधिकारी नहीं हैं। 

न्यायिक घोषणाएँ 

तहसीलदार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959)

चूक और विरोधाभास की दृष्टि से तहसीलदार सिंह का निर्णय सबसे उल्लेखनीय है। नीचे चर्चा किए गए सभी निर्णय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस मामले पर आधारित हैं। अदालत ने फैसला सुनाया कि जांच के तहत गवाहों की गवाही लिखित रूप में होनी चाहिए। इसके अलावा, ऐसे बयानों का इस्तेमाल गवाह के रुख पर उसका खंडन करने के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने सीआरपीसी की धारा 162 के साथ-साथ 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 पर भी जोर दिया। पुलिस के सामने आपकी गवाही और अदालत में आपकी गवाही के बीच किसी भी विसंगति को विसंगति माना जाएगा। इसमें तीन विशिष्ट स्थितियाँ दिखाई गईं जिनमें चूक को विरोधाभास माना जाता है। 

  • यदि कथन का पाठ आवश्यक रूप से निहित है – X ने पुलिस जांच के दौरान कहा कि उसने A को एक घर को लूटते हुए देखा, लेकिन अदालत में कहा कि A और B दोनों ने एक घर को लूट था। यदि उसने अपने पिछले बयान में कहा है की उसने खुद देखा है इसका तात्पर्य यह था कि A एकमात्र डाकू था। 
  • एक बयान में सकारात्मक विचार का नकारात्मक पहलू – पुलिस अधिकारी के सामने X कहता है कि चोर एक छोटा बच्चा था, लेकिन अदालत में, वह पुलिस वाला कहता है कि X ने कहा कि चोर एक बड़ा आदमी था और चोर कोई छोटा बच्चा नहीं था। 
  • यदि पुलिस और अदालत को दिए गए बयान एक साथ सत्य नहीं थे, तो X ने पुलिस अधिकारी को बताया कि A बाईं ओर भागा था और अदालत में कहा गया कि A दाईं ओर भागा था। दोनों कथन एक साथ सत्य नहीं हो सकते। 

इसलिए, यदि तीन शर्तों में से कोई भी पूरा हो तो एक चूक को विरोधाभास के रूप में माना जा सकता है।

बालेश्वर राय बनाम बिहार राज्य (1962)

इस मामले में यह माना गया कि “दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 केवल जांच के दौरान दिए गए बयानों के सबूत पर रोक लगाती है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 जांच के दौरान किसी भी बयान को प्रमाणित होने से नहीं रोकती है। धारा 162 के दायरे में आने वाला बयान न केवल जांच की अवधि के दौरान बल्कि जांच के दौरान भी दिया जाना चाहिए। दो चीजें, अर्थात्, “जांच की अवधि” और “जांच की कार्यवाही,” पर्यायवाची नहीं हैं। धारा 162 का उद्देश्य किसी अपराध की जांच के दौरान पुलिस के सामने बयान दर्ज करना है। ये धारा 162 में स्पष्ट परिचयात्मक (इंट्रोडक्टरी) शब्द हैं। जांच के दौरान केवल पुलिस को दिए गए बयानों पर चर्चा की जाती है। इसका मतलब यह है कि बयान को न देने का इरादा था, और इसे सबूत जांच अधिकारी द्वारा की गई जांच के लिए प्रासंगिक होना चाहिए था।

हरकीरत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1997)

हरकीरत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1997) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में एक ऐसे मामले का प्रावधान है जहां अदालत आरोपी को अपना बयान दर्ज न करने के कारण बरी कर सकती है। 

इस मामले में केवल आरोपी हरकीरत सिंह के खिलाफ पिस्तौल से लैस होकर खैराती राम पर जानलेवा गोली चलाने की प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। यह बताया गया कि दूसरे आरोपी के पास बंदूक नहीं थी। मुखबिर वलैती राम, जो घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे और उन्होंने प्राथमिकी दर्ज कराई थी, जिला अदालत द्वारा उनसे पूछताछ करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। केवल अभियोजन पक्ष के गवाहों (पीडब्लू) 4 और 5 ने अदालत में अभियोजन पक्ष के बयान का समर्थन किया, जिसमें कहा गया था कि आरोपी हरकीरत सिंह ही वह है जिसने गोली मारी और पीड़ित की मौत का कारण बना। लेकिन केस डायरी से पता चला कि दोनों गवाहों ने पुलिस को बताया कि हरकीरत सिंह पिस्तौल से लैस था और दूसरे आरोपी रघबीर सिंह के पास पिस्तौल थी और उसने मृतक को गोली मार दी थी। जिला अदालत ने चारों आरोपियों को बरी कर दिया लेकिन हरकीरत सिंह को दोषी ठहराया। 

उच्च न्यायालय ने हरकीरत सिंह की सजा को बरकरार रखते हुए केस डायरी में इन गवाहों के विरोधाभासी बयानों को खारिज कर दिया और कहा: 

“अभियोजन गवाह 4 खरैती लाल ने जांच कार्यवाही में अपना बयान दिया है, और इसके अवलोकन से पता चलता है कि उन्होंने अपने बयान में उल्लेख किया है कि हरकीरत सिंह ने पिस्तौल से गोली चलाई थी। प्राथमिकी में ही स्पष्ट उल्लेख है कि हरकीरत सिंह ने गोली चलाई।” 

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अनुसार प्रारंभिक जांच रिपोर्ट का बयान उसी दिन, यानी 29 नवंबर, 1986 को दर्ज किया गया था। इन दोनों दस्तावेजों के बीच विसंगति से पता चलता है कि इस मामले की जांच निष्पक्षता से नहीं की गई थी। ऐसा लगता है कि हरकीरत सिंह को फायदा पहुंचाने की कोशिश की गई।

हरकीरत सिंह की अपील को स्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार टिप्पणी की: 

“हमारी राय में, धारा 162 के तहत लगाए गए प्रतिबंध के कारण प्रारंभिक कार्यवाही में खरैती लाल के कथित बयान को साक्ष्य के रूप में मानना अपील की अदालत के लिए उचित नहीं था। दर्ज की गई प्राथमिकी पर अपील की अदालत की निर्भरता भी उतनी ही अनुचित थी। वलैती राम का पूर्व-परीक्षण, जैसा कि पहले कहा गया था, कार्यवाही के दौरान यह देखने के लिए नहीं सौंपा गया था कि बाद में उनकी मृत्यु कैसे हुई। यदि वलैत राम की जांच की जानी है तो प्राथमिकी की सामग्री का उपयोग इसकी पुष्टि या खंडन करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन किसी भी मामले में भौतिक साक्ष्य के रूप में नहीं।”

यह सम्मानपूर्वक प्रस्तुत किया जाता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के विश्लेषण को गलत समझा है। सर्वोच्च न्यायालय ने परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह बेहद असंभावित और आम चलन के विपरीत है कि जिन गवाहों ने प्राथमिकी के अनुसार विचारण (ट्रायल) से पहले की कार्यवाही में गवाही दी थी कि हरकीरत सिंह ने मृतक को गोली मारी थी, वे उसी दिन धारा 161 के तहत बयान दर्ज कर सकते थे। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने केस डायरी के हेरफेर किए गए विरोधाभासी बयान को सही ढंग से खारिज कर दिया और इन गवाहों की गवाही को विश्वसनीयता परीक्षण पास करने की अनुमति दी। प्राथमिकी, बयान और जांच रिपोर्ट का विज्ञापन केवल यह पता लगाने के लिए किया गया था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत दिया गया बाद का बयान विश्वसनीय था या नहीं, ताकि मुकदमे में गवाह की गवाही की विश्वसनीयता प्रभावित हो सके।

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम हरबान सहाय (1998)

हरबन सहाय मामले में हत्या के आरोप में चार लोगों को बरी करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के लिए एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी। उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कारणों में से एक यह था कि परीक्षक द्वारा लिए गए खून के धब्बे के नमूनों को परीक्षण के लिए प्रयोगशाला (लेबोरेटरी) में नहीं भेजा गया था, इस प्रकार परीक्षण विकृत हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि इस तरह की तुच्छ चूक को जांच को विकृत करने वाला नहीं माना जाता है। फिर से, अदालत ने यह कहकर अपनी स्थिति स्पष्ट की कि चूक इतनी महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि विश्वसनीयता प्रभावित हो, जो यहां मामला नहीं था।

शशिधर पुरंधर हेगड़े बनाम कर्नाटक राज्य (2004)

इस मामले में आवेदक पर नाबालिग का व्यपहरण (किडनैपिंग) कर परिजनों से फिरौती मांगने का आरोप था। न्यायाधीश ने अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही को असंगत पाया, क्योंकि कुछ गवाहों की गवाही में मामूली अंतर थे। ये मतभेद महत्वहीन थे और गवाहों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं करते थे। 

अपील न्यायालय ने मजिस्ट्रेट के निर्णय को गलत माना और माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी पुष्टि की। 

अदालत ने पाया कि मामूली मतभेदों को असंगत नहीं माना जा सकता यदि वे गवाह की गवाही की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं करते हैं। वर्तमान मामले में, लापरवाही को मामूली प्रकृति का माना गया, इसलिए शिकायत खारिज कर दी गई। अदालत ने अपने पहले के फैसले को दोहराया कि किस चूक से संघर्ष होता है, यह तथ्य का प्रश्न है और इसकी प्रासंगिकता का आकलन अदालत को करना चाहिए।

निष्कर्ष

मुकदमा शुरू होने से पहले, आपराधिक न्याय प्रणाली के महत्वपूर्ण गवाह परीक्षण चरण के हिस्से के रूप में पुलिस द्वारा गवाहों से पूछताछ की जाती है, जो कई कानूनी नियमों द्वारा शासित होता है। 

इन दिनों गवाह के रूप में पूछताछ के लिए कोई भी आगे नहीं आता है इसका सीधा सा कारण पुलिस की बर्बरता और उत्पीड़न है जो गवाहों से पूछताछ के दौरान होता है। पहले यह स्पष्ट था कि इच्छुक गवाह थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। 

यह कहानी का केवल एक पक्ष है क्योंकि सभी पुलिस गवाहों की जांच एक ही तरीके से नहीं करती है; कई लोग इसे चतुराई और शालीनता के साथ करते हैं, जिसके कारण अब कुछ लोग ऐसा करने पर पुलिस पर भी विश्वास करने लगे हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

सीआरपीसी की धारा 161 और 162 को एक दूसरे से क्या अलग करता है?

कोई भी व्यक्ति जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित माना जाता है, उसकी जांच धारा 161 के तहत एक पुलिस अधिकारी द्वारा मौखिक रूप से की जा सकती है। अगला खंड धारा 162 है, जिसमें कहा गया है कि किसी पुलिस अधिकारी को दिया गया कोई भी बयान गलत नहीं होना चाहिए। यदि इसे लिखित रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो इसे वक्ता द्वारा हस्ताक्षरित किया जाता है।

क्या पुलिस बिना सबूत के मामला ला सकती है?

एक पुलिस शिकायत जिसे “शून्य प्राथमिकी” के रूप में जाना जाता है, वह होती है जिसमें किसी भी सहायक दस्तावेज का अभाव होता है या कानूनी रूप से कार्रवाई योग्य अपराध होता है। इसका उपयोग तब किया जाता है जब अधिकारियों के पास जांच शुरू करने और किसी के खिलाफ आरोप दायर करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं होते हैं। पुलिस कई अलग-अलग कारणों से ज़ीरो प्राथमिकी दर्ज करना चुन सकती है।

संदर्भ 

 

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