सीआरपीसी की धारा 151 

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यह लेख आईसीएफएआई विश्वविद्यालय, देहरादून से बीबीए एलएलबी कर रहे छात्र Vishwendra Prashant द्वारा लिखा गया है। यह लेख सीआरपीसी की धारा 151 के प्रावधानों, गिरफ्तारी की शर्तों और इस धारा की संवैधानिक वैधता पर चर्चा करता है। लेख पुलिस द्वारा निवारक गिरफ्तारी की अवधारणा पर भी प्रकाश डालता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता पुलिस को व्यापक अधिकार प्रदान करती है। पुलिस के पास जांच, गिरफ्तारी और तलाशी आदि की शक्तियां हैं।

संहिता अपराधों के लिए दंडात्मक और निवारक उपाय प्रदान करती है। हालाँकि, यह निवारक उपायों को दो शीर्षकों के अंतर्गत वर्गीकृत करती है।

  1. मजिस्ट्रियल कार्रवाइयाँ (संहिता के अध्याय VIII और X); और
  2. पुलिस कार्रवाई (अध्याय XI)।

मजिस्ट्रेट के पास अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) और अर्ध-कार्यकारी (क्वासी एग्जिक्यूटिव) शक्तियाँ हैं, जबकि पुलिस की शक्तियां विशुद्ध रूप से कार्यकारी है।

संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराधों (संहिता की धारा 149151) को रोकने के लिए पुलिस के पास व्यापक अधिकार हैं। वे ऐसे अपराधों के लिए बिना किसी वारंट के अपराधियों को गिरफ्तार कर सकते हैं। धारा 149 पुलिस को ऐसे अपराधों को रोकने में सक्षम बनाती है। यदि पुलिस को इस तरह के अपराध करने की योजना के बारे में जानकारी मिलती है, तो उन्हें ऐसी सूचना अपने वरिष्ठ (सुपीरियर) अधिकारियों या किसी अन्य अधिकारियों को देनी होती है (धारा 150)। उसके बाद, यदि वे अपराधों को रोक नहीं सकते हैं, तो वे उन अपराधियों को गिरफ्तार कर लेते हैं जो उनकी योजना बना रहे थे (धारा 151)। इस धारा के तहत हिरासत की अधिकतम अवधि केवल 24 घंटे है जब तक कि किसी अन्य धारा या कानून में हिरासत की आवश्यकता है या प्राधिकृत (ऑथराइज) नहीं किया जाता है।

सीआरपीसी की धारा 151 के तहत प्रावधान

धारा 151 संज्ञेय अपराधों के खिलाफ सुरक्षा है। धारा 151(1) के अनुसार, अगर पुलिस को पता चलता है कि कुछ व्यक्ति इस तरह के अपराध करने की योजना बना रहे हैं तो उन्हें वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है। यहां, ऐसे अपराधों की आशंका या ज्ञान अनिवार्य है।

इसके अलावा, धारा 151(2) में प्रावधान है कि पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखना चाहिए। यदि कोई प्रावधान/कानून या मजिस्ट्रेट का आदेश अधिकृत करता है तो यह अवधि बढ़ सकती है। पुलिस के पास ऐसे गिरफ्तार लोगों को जमानत पर छोड़ने का अधिकार नहीं है।

ऐसे गिरफ्तारियों को बिना वारंट के गिरफ्तारी की सभी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। यानी उन्हें 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होना होगा। पुलिस को उन्हें गिरफ्तारी के आधार के बारे में भी सूचित करना होगा।

चित्रण (इलस्ट्रेशन):

  1. मान लीजिए कि A, B और C,a X के घर पर चोरी का अपराध करने की योजना बना रहे हैं। Z, एक पुलिस अधिकारी, को इस योजना के बारे में पता चलता है। वह अपने अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) Y को अपराध रोकने के लिए सूचित करता है। Y ने निष्कर्ष निकाला कि वह केवल अपराधियों को गिरफ्तार करके ही चोरी होने से रोक सकता है। Y उपरोक्त अपराधियों को गिरफ्तार करता है।
  2. तीन दोस्त X, Y और Z, कमरे में बैठे थे और आपस में बात कर रहे थे। M एक पुलिस अधिकारी उनके घर में प्रवेश करता है और उन्हें गिरफ्तार करता है। वे मजिस्ट्रेट के सामने पेश होते हैं और वह पाते हैं कि M ने उन्हें अपराध की योजना की जानकारी के बिना गिरफ्तार कर लिया। ऐसी गिरफ्तारियां अवैध हैं।

धारा 151 के तहत गिरफ्तारी की शर्तें

धारा के तहत गिरफ्तारी की निम्नलिखित शर्तें है:-

  1. संज्ञेय अपराध करने की कोई योजना होनी चाहिए;
  2. पुलिस को इसके बारे में पता होना चाहिए।
  3. गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्तियों को योजना में अवश्य शामिल होना चाहिए; और
  4. पुलिस को यह विश्वास होना चाहिए कि वे व्यक्तियों को गिरफ्तार करके ही ऐसे अपराधों को रोक सकते हैं।

धारा 151 की वैधता

निवारक उपायों की अवधारणा विवाद का विषय है क्योंकि निवारक उपायों की आड़ में पुलिस द्वारा अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने की घटनाएं अक्सर रिपोर्ट की जाती हैं।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग का सुझाव है कि लगभग 60% गिरफ्तारियां अनुचित हैं। ऐसी गिरफ्तारियां अपराध की रोकथाम से संबंधित नहीं हैं। इसने गिरफ्तारियों पर कुल खर्च का 43.2% खर्च किया है।

धारा 151 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कई याचिकाएँ दायर की जाती हैं।

जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1994 में, न्यायालय ने माना कि बिना किसी उचित कारण के व्यक्तियों को गिरफ्तार करना उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

अहमद नूरमोहम्मद भट्टी बनाम गुजरात राज्य और अन्य 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ दिशा-निर्देश निर्धारित किए कि यह धारा मनमाना, अनुचित, या संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली नहीं है।

मेधा पाटकर बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2007), में पीड़ित लोग विरोध कर रहे थे और एक बांध परियोजना के कारण पुनर्वास उपायों की मांग कर रहे थे। उनका संज्ञेय अपराध करने का कोई इरादा या योजना नहीं थी। बावजूद इसके पुलिस ने उन्हें सीआरपीसी की धारा 151 के तहत गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने उन लोगों को जेल भेज दिया। न्यायालय ने माना कि यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। पीड़ित लोगों को मुआवजा मिला।

राजेंद्र सिंह पठानिया और अन्य बनाम दिल्ली राज्य और अन्य (2011), में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह धारा ऐसी शर्तें प्रदान करती है जिन पर पुलिस को गिरफ्तारी से पहले विचार करना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि पुलिस तभी गिरफ्तार कर सकती है जब उसे संज्ञेय अपराध करने की योजना की जानकारी हो। अन्यथा, वे उपर्युक्त अनुच्छेद के उल्लंघन के लिए उत्तरदायी होंगे।

हालांकि, अनुचित गिरफ्तारी के शिकार ये राहत मांग सकते हैं:

  1. संवैधानिक उपचार;
  2. मुआवजा;
  3. पुलिस के खिलाफ जुर्माना।

सीआरपीसी की धारा 151 से संबंधित न्यायिक घोषणाएँ

जगदीश चंदर भाटिया बनाम राज्य, 1983 सीआरएलजे एनओसी 235 (डेल)

इस मामले में अदालत ने माना कि धारा 151 के तहत गिरफ्तारी के लिए संज्ञेय अपराध करने की योजना अनिवार्य है।

श्रीमती नीलाबती बेहरा उर्फ ​​ललित बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य (1993)

इस मामले में पुलिस ने नीलाबती बेहरा के बेटे को चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया है। उन्होंने उसे हिरासत में लिया, और बाद में उसकी माँ ने रेलवे पटरियों पर उसका शव पाया। उसके शरीर पर कई चोटें थीं, क्योंकि मौत हिरासत में हुई थी। पुलिस ने दलील दी कि सुमन रात में हिरासत से फरार हो गई। उन्होंने आगे तर्क दिया कि ट्रेन दुर्घटना के कारण सुमन की मृत्यु हो गई।

अदालत को ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे पता चले कि पुलिस सुमन का पता लगाने की कोशिश कर रही थी। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने नीलाबती को मुआवजा दिया और कहा कि सुमन की मौत के लिए पुलिस जिम्मेदार है।

साथी सुंदरेश पुत्र सोमैया सुंदरेश बनाम मूडीगेरे तालुक का राज्य पी.एस.आई. (2007)

इस मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि बिना सुनवाई के 6 दिनों के लिए व्यक्तियों को न्यायिक हिरासत (धारा 151 के अनुसार गिरफ्तार) में रखना अवैध है।

एस नंबी नारायणन बनाम सिबी मैथ्यूज और अन्य आदि (2018)

सर्वोच्च न्यायालय ने उन लोगों के लिए उपलब्ध उपायों को परिभाषित किया है जो अवैध गिरफ्तारी के शिकार हैं। न्यायालय ने माना कि ऐसे पीड़ित इन उपचारों की तलाश कर सकते हैं:

  1. मुआवजा;
  2. गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई।

अल्दानिश रेन बनाम दिल्ली राज्य और अन्य (2018)

इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने संहिता की धारा 151 के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किए। न्यायालय द्वारा निर्धारित कुछ दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:

  1. दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण विभिन्न क्षेत्रों के एसीपी और विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेटों के लिए प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) आयोजित करेगा। प्रशिक्षण उन्हें धारा के तहत शक्तियों का प्रयोग करने में मदद करेगा।
  2. आरोपी को जमानत पर रिहा करने से पहले एसएचओ जमानती बॉन्ड का सत्यापन (वेरिफाई) करेंगे।
  3. विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट को गिरफ़्तार किए गए लोगों से पूछना चाहिए कि क्या पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तारी के आधार के बारे में सूचित किया है।

शिव कुमार वर्मा और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य (2020)

इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि लोक सेवकों को नागरिकों को परेशान करके अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। अदालत ने निर्देश दिया कि राज्य सरकार को नागरिकों को अवैध हिरासत में रखने के लिए मुआवजा देना होगा।

निष्कर्ष 

धारा 151 निवारक गिरफ्तारी से संबंधित है। यदि पुलिस का मानना ​​है कि वे संज्ञेय अपराधों को रोक सकते हैं, तो उन्हें व्यक्तियों को गिरफ्तार करने से पहले उन्हें रोकने का प्रयास करना चाहिए। यदि व्यक्ति अपराध करने में सफल हो जाते हैं, तो पुलिस उन्हें धारा 151 के बजाय संहिता की धारा 41 के तहत गिरफ्तार करेगी।

शांति भंग की मात्र आशंका इस धारा का विषय नहीं है। सड़कों पर लोगों द्वारा विरोध करने का मतलब यह नहीं है कि वे संज्ञेय अपराध करने की योजना बना रहे हैं। धारा के तहत शांति भंग के आधार पर उन्हें गिरफ्तार करना अवैध है।

अगर पुलिस को अपराध करने की योजना के बारे में कुछ भी पता नहीं है, तो इस धारा के तहत गिरफ्तारियां अवैध हैं। इसलिए पुलिस को सही जानकारी होने पर ही गिरफ्तारी करनी चाहिए।

हालाँकि, अवैध गिरफ्तारी और हिरासत से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को नुकसान पहुँचता है। इसलिए जब तक जरूरी न हो पुलिस को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

धारा 151 के उद्देश्य क्या हैं?

ये इस धारा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

  1. संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए; और
  2. सार्वजनिक शांति और नैतिकता बनाए रखने के लिए।

वे कौन से असाधारण मामले हैं जिनके तहत धारा 151 लागू नहीं होती है?

ये असाधारण मामले निम्नलिखित हैं जिनके तहत धारा लागू नहीं होती है:

  1. यदि व्यक्ति संज्ञेय अपराध करते हैं; या
  2. अगर पुलिस को शक है कि कुछ लोग अपराध करने वाले हैं; या
  3. यदि पुलिस को अपराध करने की योजना के बारे में उचित जानकारी नहीं है।

वे कौन से आधार हैं जिन पर व्यक्ति इस धारा के तहत गिरफ्तारी को चुनौती दे सकते हैं?

ये वे आधार हैं जिन पर व्यक्ति इस धारा के तहत गिरफ्तारी को चुनौती दे सकते हैं:

  1. अगर गिरफ्तारियां या हिरासत गैरकानूनी हैं;
  2. यदि व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है;
  3. यदि पुलिस व्यक्तियों को 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रखती है।

धारा 151 के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को किस न्यायालय में उपस्थित होना होता है ?

गिरफ्तार किए गए लोगों को मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश होना होगा।

धारा में मजिस्ट्रेट की क्या भूमिका है?

मजिस्ट्रेट तय करते हैं कि उन्हें गिरफ्तार किए गए लोगों को न्यायिक या पुलिस हिरासत में रखना चाहिए या नहीं।

क्या धारा के तहत ऐसे गिरफ्तार लोगों की जमानत के लिए कोई प्रावधान है?

नहीं, धारा 151 में गिरफ्तार लोगों की जमानत की बात नहीं है। यह मजिस्ट्रेट के विवेक पर है कि क्या उन्हें सीआरपीसी के अन्य प्रावधानों के अनुसार गिरफ्तारियों को जमानत बॉन्ड पर रिहा करना चाहिए।

पुलिस धारा का दुरुपयोग कैसे करती है?

पुलिस निम्नलिखित तरीकों से धारा का दुरुपयोग कर सकती है:

  1. वे गिरफ्तार व्यक्तियों के परिवार के सदस्यों से मौद्रिक लाभ और अन्य मूल्यवान संपत्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों को गिरफ्तार करते हैं। गिरफ्तार किए गए लोग पुलिस की मांगों को पूरा नहीं करते हैं, तो वे अदालत को फर्जी रिपोर्ट देते हैं।
  2. पुलिस अपने विरोधी पक्षों के अनुरोध पर गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ झूठे दावे करती है।
  3. पुलिस जानबूझकर राजनीतिक कारणों से व्यक्तियों के खिलाफ झूठे मामले बनाती है।
  4. वे जानबूझकर अन्य जांचों के लिए प्रासंगिक जानकारी निकालने के लिए व्यक्तियों के खिलाफ फर्जी रिपोर्ट बनाते हैं। इसके अलावा, पुलिस उन रिपोर्टों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर सकती है।

अवैध गिरफ़्तारी और हिरासत के पीड़ितों के लिए क्या उपाय उपलब्ध हैं?

ऐसे पीड़ितों के लिए निम्नलिखित उपाय है:

  1. पीड़ित आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 397 के तहत पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका दायर करके ऐसी गिरफ्तारी और हिरासत को चुनौती दे सकते हैं।
  2. इसके अलावा, वे उन पुलिस के खिलाफ मामले दर्ज कर सकते हैं जिन्होंने उन्हें गलत तरीके से गिरफ्तार किया है। यहां भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 166 लागू होती है।
  3. अगर पुलिस व्यक्तियों को नुकसान पहुंचाने के इरादे से फर्जी दस्तावेज तैयार करती है, तो वे आईपीसी की धारा 167 की मदद ले सकते हैं।
  4. यदि पुलिस व्यक्तियों के खिलाफ फर्जी रिपोर्ट तैयार करती है और उन्हें न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करती है। पुलिस आईपीसी की धारा 219 के तहत उत्तरदायी होगी।

संदर्भ

  • Dr. Dewakar Goel, Police Investigation (A Roadmap to arrest criminals for trial), 1st Edition, 2022

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