हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 15: लिंग पूर्वाग्रह और सुधार की आवश्यकता

0
4091
Hindu Succession Act

यह लेख एमिटी लॉ स्कूल, एमिटी यूनिवर्सिटी, कोलकाता में बी. ए. एलएलबी (ऑनर्स) के छात्र  Ashutosh Singh ने लिखा है। यह लेख भारत में एक मृत हिंदू महिला के निर्वसीयत उत्तराधिकार (इंटेस्टेट सक्सेशंस) के संबंध में चल रही अस्पष्टता, और लिंग पूर्वाग्रह (जेंडर बायस) का विश्लेषण करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

परिचय

एक सभ्यता की योग्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके चल रहे दौर में महिलाओं की क्या स्थिति है। वैदिक काल से, भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को हमेशा समाज या परिवार के पुरुषों की तुलना में गौण (सेकेंडरी) माना गया है। पूरे इतिहास में हिंदू महिलाओं को उनकी विरासत qसे संबंधित अधिकारों के मामले में असमानता का सामना करना पड़ा है। न्यायमूर्ति सुजाता वी. मनोहर ने कहा है कि भारत में स्वतंत्रता के बाद से महिलाओं के अधिकारों के संबंध में कई कानूनी सुधार लागू किए गए हैं, जिसमें संपत्ति में बेटियों को एक बेटे के समान हिस्सा देना शामिल है, हालांकि, समान स्थिति अभी भी मायावी (एलुसिव) है।

भारत में, विरासत (इन्हेरेटेंस) का विषय व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) द्वारा शासित होता है, जो यह नियंत्रित करता है कि किसी व्यक्ति की संपत्ति विरासत में कैसे मिलती है। इसके अलावा, ऐसे राज्य कानून भी होते हैं, जो भूमि जैसी कुछ संपत्तियों की विरासत को नियंत्रित करते हैं। यह देखा जा सकता है कि कई सामाजिक मुद्दे लैंगिक असमानता के साथ- साथ व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों से भी विकसित होते हैं। विभिन्न धार्मिक कानूनों की इस उपस्थिति को तेजी से कानूनी बहुलवाद (प्लूरिज्म) के रूप में वर्णित किया जा रहा है। इस संदर्भ में, हिंदू, सिख, जैन और बौद्धों के बीच संपत्ति के उत्तराधिकार के मामले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (हिंदू सक्सैशन एक्ट), 1956 (एचएसए) द्वारा शासित होते हैं। धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की भ्रामक और अस्पष्ट स्थिति पारिवारिक कानून के मामलों में महिलाओं को समानता के निरंतर इनकार को वैध बनाने के लिए संचालित होती है क्योंकि यह उन नियमों या कानूनों को संचालित करने के लिए एक स्थान उत्पन्न करती है जो संवैधानिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होते हैं और फिर भी राज्य द्वारा लागू किए जाते हैं। धार्मिक व्यक्तिगत कानून अपनी अस्पष्ट स्थिति के साथ पारिवारिक कानून के मामलों में महिलाओं को लैंगिक समानता की स्थिति से निरंतर इनकार को वैध बनाने का काम करते हैं, जैसे की उत्तराधिकार के नियमों में भी किया गया है। यह लेख संपत्ति की विरासत के संबंध में हिंदू महिलाओं की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालेगा और क्या हिंदू महिलाओं को लैंगिक समानता प्रदान करने के लिए एचएसए, 1956 की धारा 15 में संशोधन करने की आवश्यकता है, यह भी बताएगा।

हिंदू उत्तराधिकार कानून

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संपत्ति के अधिकार और विरासत के प्रावधान दिए गए हैं। भारत में शास्त्रीय कानून की अवधि वर्ष 1860-1937 तक थी और इसने हिंदू अविभाजित परिवार (हिंदू अंडिवाइडेड फैमिली) (एचयूएफ) में महिलाओं के लिए कानूनों से संबंधित पहले महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक को सामने लाया था। हिंदू महिला के संपत्ति का अधिकार अधिनियम (हिंदू विमेंस राइट टू प्रॉपर्टी एक्ट), 1937 में, विधवाओं के संबंध में एक नया कानून पारित किया गया था जिसमें कहा गया था कि कोई भी विधवा विभाजन (पार्टीशन) के लिए नहीं कह सकती है, लेकिन विधवा मां को ऐसे विभाजन में एक हिस्सा तब मिल सकता है जब परिवार में भाइयों के बीच विभाजन हो रहा हो। एचयूएफ में विधवाओं के अधिकारों के संबंध में यह एक बहुत बड़ा विकास था और यह कहा गया था कि विभाजन का अधिकार विधवा माताओं को भी दिया जाएगा। इसने विधवाओं को मृतक सहदायिक (कोपार्सनर) के स्थान पर कदम रखने का अधिकार दिया, लेकिन यह अधिकार सीमित था और उन्हें जब भी वे चाहें तब उन्हें अलग होने का अधिकार नहीं दिया गया था।

आश्चर्यजनक रूप से, इस कदम को भारत की बहुसंख्यक (मेजोरिटी) आबादी ने स्वीकार नहीं किया, यहां तक ​​कि समुदाय के कुछ हिस्सों से इस कदम प्रतिक्रिया (बैकलैश) भी मिली। हालाँकि, संपत्ति के संबंध में महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त करने की दिशा में यह पहला कदम था। राज्य के कानूनों में, महिलाओं द्वारा कृषि भूमि की विरासत को भूमि के विखंडन (फ्रैगमेंटेशन) से बचाने की अनुमति नहीं है। इन सब के साथ ही इनकार का पहला अधिकार जैसे विकल्प भी मौजूद होता है, जिसका अर्थ है कि यदि कोई कानूनी उत्तराधिकारी अपनी जमीन का टुकड़ा बेचना चाहता है तो उसके खुद के भाई-बहनों को उस जमीन को बाजार मूल्य पर खरीदने का पहला अधिकार मिलता है।

आइए अब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पर चले, जब हिंदू महिला के संपत्ति का अधिकार अधिनियम में संशोधन किया गया था। यह एक एचयूएफ में संपत्ति के महिला अधिकारों से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक था। वर्ष 1956 के संशोधित अधिनियम में, वर्ग 1 के वारिसों में, विधवा, माँ और बेटी को भी शामिल किया गया था, जिसका अर्थ यह था कियदि एक एचयूएफ में विभाजन होता है तो एक विधवा, बेटी और माँ भी अब मृत आदमी की संपत्ति पाने के लिए पहली पंक्ति में होंगे। संशोधन के बाद, 1956 के अधिनियम की धारा 14 का विधवाओं सहित महिलाओं पर पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव हुआ है। इस धारा में कहा गया है कि एक हिंदू महिला के स्वामित्व वाली कोई भी संपत्ति, चाहे वह 1956 के अधिनियम के शुरू होने से पहले या बाद में अर्जित (एक्वायर) की गई हो, उसके द्वारा पूर्ण मालिक के रूप में रखी जाएगी। इसका मतलब यह है कि एक महिला का स्वामित्व केवल सीमित क्षमता में नहीं था। यह एक विलक्षण (प्रोडिजियस) कदम था जिसने महिलाओं को भारत में संपत्ति के संबंध में समान अधिकार प्राप्त करने में सक्षम बनाया था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 2 कहती है कि यह अधिनियम किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है जो धर्म से हिंदू, जैन, बौद्ध या सिख है।

यह धारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 366 (25) के अर्थ के तहत आने वाली अनुसूचित जनजातियों (शेड्यूल्ड ट्राइब्स) पर लागू नहीं होती है। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 महिलाओं को समान अधिकार और दायित्व प्रदान करने के लिए और आगे बढ़ गया है, लेकिन फिर भी संशोधित अधिनियम, 2005 की प्रकृति के बारे में कई विवाद उत्पन्न हुए हैं। ऐसा भ्रम पैदा होता है कि क्या यह कानून प्रकृति में पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) है या यदि इसका कोई पूर्वव्यापी प्रभाव है भी या नहीं। दूसरी अस्पष्टता जो सामने आती है वह यह है कि क्या संशोधन के समय महिलाओं के पिता की जीवित स्थिति ने महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित किया है या नहीं। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 भारत के संविधान के अनुपालन में, पहले से मौजूद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संशोधन करने के उद्देश्य से भारत में पेश किया गया था।

भ्रम की स्थिति अभी भी बनी हुई है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों (बेंचेस) ने अलग- अलग मामलों में इन सवालों के बारे में परस्पर विरोधी (कनफ्लिक्टिंग) विचार दिए हैं। इस तरह के परस्पर विरोधी विचारों को ‘बाध्यकारी मिसाल (बाइंडिंग प्रेसिडेंट) मानकर उन पर भरोसा करना लैंगिक पूर्वाग्रह की समस्या का सही समाधान नहीं है। केंद्र सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 को भारत के संविधान के तहत अपने दायित्व की समझ के साथ- साथ विभिन्न अंतरराष्ट्रीय उपकरणों (इंटरनेशनल इंस्ट्रूमेंट्स) के साथ लाया गया था, जिनकी भारत ने पुष्टि (रेटिफाई) की है। संशोधित अधिनियम सहदायिक अधिकारों के संबंध में एक बेटी और एक बेटे के साथ समान व्यवहार करने का प्रावधान देता है। जिन धाराओं में संशोधन किया गया था, वे मुख्य रूप से एचएसए, 1956 की धारा 4, धारा 6, धारा 23 और धारा 24 थीं। उत्तरजीविता के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ सर्वाइवरशिप) को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था और महिलाओं को विरासत में मिली संपत्ति को उनकी इच्छा के अनुसार पूरी तरह से निपटाने का अधिकार भी दिया गया था और इसके लिए उन्हें अपने पति या पिता से अनुमति की आवश्यकता भी नहीं लेनी होगी।

1956 एचएसए के संशोधन के साथ ही, एचएसए में भी काफी प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) संशोधन हुए हैं जैसे:

  • संशोधित अधिनियम की धारा 6, बेटियों को जन्म से संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में सहदायिकी का अधिकार देती है, जिसकी वजह से वे अब पुत्र के समान ही अधिकार और दायित्व प्राप्त करती है। इसने बेटियों को संयुक्त हिंदू संपत्ति में अपने हिस्से के लिए विभाजन की मांग करने का अधिकार भी दिया है।
  • एचएसए, 1956 की धारा 23 को हटाना, जो एक महिला वारिस को एक आवास गृह (ड्वेलिंग हाउस) के विभाजन की मांग करने से वंचित करता है, जब तक कि उसके लिए ऐसा करने के लिए कोई पुरुष उत्तराधिकारी न हो।
  • एचएसए, 1956 की धारा 24 को संशोधन द्वारा रद्द कर दिया गया था, क्योंकि यह एक नैतिक रूप से बेतुकी और अहंकारी धारणा पर आधारित थी जिसने एक विधवा के पुनर्विवाह पर उसको उसके पति की संपत्ति के वारिस के अधिकारों से वंचित कर दिया था।

विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020)

इस मामले में, अगस्त 2020 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का अब पूर्वव्यापी प्रभाव होगा। 2005 के संशोधन अधिनियम ने अधिनियम की धारा 6 को भारतीय संविधान के साथ संरेखित (एलाइन) करने के लिए संशोधित किया, जिसमें लैंगिक समानता के प्रावधान भी जोड़े गए हैं।

तथ्य: दिए गए इस मामले में, 2005 के संशोधन अधिनियम के अस्तित्व में आने से पहले सहदायिक की मृत्यु हो गई थी, और इसलिए, यह माना गया कि बेटी (विनीता शर्मा) सहदायिक संपत्ति में हिस्से की हकदार नहीं थी क्योंकि वह एक जीवित सहदायिक की बेटी नहीं थी। यह संशोधन से पहले पिता के जीवित होने के बावजूद है।

मुद्दे: क्या 2005 के संशोधन अधिनियम ने बेटी को सहदायिक संपत्ति में बेटे के समान अधिकार का हकदार माना था? और क्या 2005 के अधिनियम की संशोधित धारा 6 पूर्वव्यापी, भावी (प्रोस्पेक्टिव) या  पूर्वप्रभावी (रिट्रोएक्टिव) है?

फैसला: 3 न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ ने इस अधिनयम की धारा 6 की सही व्याख्या की थी। पिछले निर्णयों और मामलों के आधार पर न्यायालय ने कहा कि संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति अबाधित विरासत (अनओबस्ट्रक्टिड हेरिटेज) है और उनके विभाजन का अधिकार पूर्ण है, जो किसी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर दिया जाता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि बाधित विरासत अधिकार जन्म से नहीं होते हैं। यह उस अलग संपत्ति के मूल मालिक की मृत्यु पर निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे, फुलावती बनाम प्रकाश (2015) के मामले में दिए गए अपने फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि सहदायिक अधिकार एक पिता से एक जीवित बेटी को हस्तांतरित किए जाते हैं। उन्हें एक जीवित सहदायिक से एक जीवित बेटी में स्थानांतरित (ट्रांसफर) नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने धारा 6 के प्रावधानों के प्रभावों के बारे में बात करते हुए कहा कि ये प्रावधान पूर्वप्रभावी प्रकृति के हैं। 

धारा 6 की प्रकृति पूर्वप्रभावी होने का मतलब है कि 9 नवंबर 2005 को और उसके बाद से, बेटी को बेटे के समान अधिकार देना, इसपर निर्भर नहीं करेगा की उनके पिता मर चुके है या जीवित है। ऐसा कह सकता है कि इस निर्णय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 की सही व्याख्या पर वर्षों की अनिश्चितता को समाप्त कर दिया है।

एचएसए, 1956 के तहत संपत्ति के प्रकार

एचएसए अधिनियम, 1956 के अनुसार संपत्ति दो प्रकार की होती है:

  • पैतृक (एंसेस्ट्रल) संपत्ति- इस प्रकार की संपत्ति को पुरुष वंश (लिनीएज) की चार पीढ़ियों से गुजरते समय अविभाजित (अनडिवाइड) होना चाहिए।
  • स्व-अर्जित (सेल्फ एक्वायर्ड) संपत्ति- इस प्रकार की संपत्ति एक व्यक्ति द्वारा अपनी खुद की कमाई से और परिवार के धन की किसी भी सहायता के बिना अर्जित की जाती है। संपत्ति जो एक ‘वसीयत’ के माध्यम से अर्जित की जाती है, वह भी एक स्व- अर्जित संपत्ति ही होती है।

विवाहित महिला की संपत्ति अधिनियम, 1874

विवाहित महिला की संपत्ति अधिनियम, 1874, एक ऐसा अधिनियम है जो स्पष्ट रूप से कहता है कि इस अधिनियम के पारित होने के बाद से, एक विवाहित महिला द्वारा अर्जित या प्राप्त की गई किसी भी मजदूरी और कमाई को उसकी अलग से प्राप्त की गई संपत्ति माना जाएगा, यदि इसे निम्न के माध्यम से प्राप्त किया जाता है:

  • रोज़गार
  • कुछ पेशा
  • व्यापार द्वारा
  • किसी कलात्मक (आर्टिस्टिक) या वैज्ञानिक कौशल (साइंटिफिक स्किल) के माध्यम से उसके द्वारा अर्जित धन या अन्य संपत्ति
  • उसकी सारी बचत भी उसकी अलग से प्राप्त की गई संपत्ति समझी जाएगी

हिंदू महिलाओं के संपत्ति के अधिकार, परिवार में उनकी स्थिति और उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर भिन्न होते हैं, चाहे वह एक बेटी हो जो विवाहित/ अविवाहित/ निर्जन (डिजर्टेड), पत्नी या विधवा, या मां हो। यह संपत्ति के प्रकार पर भी निर्भर करता है, चाहे संपत्ति वंशानुगत (हेरेडिटरी)/ पैतृक/ स्व-अर्जित, भूमि या आवास गृह, या वैवाहिक संपत्ति हो।

लैंगिक समानता सुनिश्चित करने वाले प्रासंगिक (रिलेवेंट) संवैधानिक प्रावधान

लैंगिक समानता का प्रस्ताव, भारत के संविधान में इसके मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपलस ऑफ स्टेट पॉलिसी) और प्रस्तावना (प्रिएंबल) में निहित किया गया है। संविधान महिलाओं को समान अधिकारों की गारंटी देता है, और यह महिलाओं के समर्थन में असमानता के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करने के लिए संघ (यूनियन) को भी अधिकृत करता है। हमारे देश के कानूनों, विभिन्न योजनाओं और पहलों (इनिशिएटिव्स) का उद्देश्य लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था के संदर्भ में विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं को लाभान्वित (बेनिफिट) करना है। महिलाओं के लिए समान सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने मानव अधिकारों पर कई अंतरराष्ट्रीय संधियों (इंटरनेशनल ट्रीटीज) और समझौतों को भी मान्यता दी है। हालांकि ये प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन ये हमारे देश में व्यक्तिगत कानूनों के सीधे विरोध में हैं। इसके उल्लंघन के मामले में सभी को अपने अधिकारों और उपायों को जानना चाहिए, खासकर उन महिलाओं को जिनका वर्षों से शोषण किया गया है। भारत के संविधान ने भारतीय महिलाओं को एक नए युग की ओर अग्रसर (स्टीयर) किया है। निः संदेह उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं, उन्हे पुरुषों के समान अवसर मिलते हैं और वे किसी भी तरह से उनसे कमतर नहीं हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 15 अनिवार्य शर्तों में प्रदान करता है कि लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है, और महिलाओं के पक्ष में विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं क्योंकि वे समाज का एक कमजोर वर्ग हैं। आधुनिक भारतीय कानून ने भी महिलाओं की स्थिति को स्थिर करने और उन्हें पुरुषों के समान आर्थिक स्वतंत्रता देने में मदद की है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 राज्य को किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता, या भारत देश के भीतर कानूनों की निष्पक्ष सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश देता है। ‘कानून के समक्ष समानता’ सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए है कि सभी लोग, देश में उनके जन्म स्थान, जातीयता (एथनिसिटी), लिंग / नस्ल (रेस) के महत्वहीन, कानून के समक्ष समान हैं। दूसरी ओर, ‘कानूनों का समान संरक्षण (प्रोटेक्शन)’ भारत के भीतर प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानूनों की निष्पक्ष सुरक्षा की गारंटी देता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 (1) राज्य को किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, जातीयता, नस्ल, जाति या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करने का आदेश देता है।

एचएसए, 1956 की धारा 15

महिला उत्तराधिकार के नियम, एचएसए, 1956 की धारा 15 और धारा 16 के तहत बताए गए हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 एक हिंदू महिला की संपत्ति के लिए वसीयत उत्तराधिकार (जब कोई वसीयत किए बिना मर जाता है) प्रदान करता है। उस हिस्से का पता लगाने से पहले जो किस कानूनी वारिस के पास जाएगा, संपत्ति की उत्पत्ति के बारे में जानना जरूरी होता है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए कौन से प्रावधान लागू होंगे। यदि हिंदू महिला की संपत्ति उत्तराधिकार में मिली हुई संपत्ति है और उसके बच्चे और पोते जीवित हैं, तो एचएसए, 1956 की धारा 15 (1) लागू होगी, लेकिन धारा 15 (2) उस स्थिति में लागू होती है जब कोई बच्चा या पोता जीवित नहीं होता है। यदि उक्त संपत्ति स्व- अर्जित, वसीयत, उपहार, स्त्रीधन आदि के माध्यम से की गई है तो धारा 15(1) लागू होगी।

एचएसए, 1956 की धारा 15 (1) के अनुसार, जब एक हिंदू महिला की वसीयत तैयार किए बिना मृत्यु हो जाती है, तो उसकी संपत्ति का हस्तांतरण (ट्रांसफर) धारा 16 में निर्धारित नियमों के अनुसार किया जाता है:

  • बेटों और बेटियों पर, जिसमें किसी भी पूर्व- मृत बेटे या बेटी के बच्चे और पति शामिल हैं।
  • उत्तराधिकारियों पर, जो पति के हैं।
  • महिला के माता पिता पर।
  • पिता के वारिसों पर भी।
  • स्त्री की माता के वारिसों पर।

यदि संपत्ति अपने पिता के परिवार से महिला द्वारा प्राप्त की गई होती है तो संपत्ति का हस्तांतरण पिता के उत्तराधिकारियों को किया जाता है। हालाँकि, यदि संपत्ति उसके पति के परिवार से विरासत में मिली है तो संपत्ति के वारिस उसके ससुर के वारिस हैं और यह तभी होता है जब पति पहले से मर चुका हो।

ओमप्रकाश और अन्य बनाम राधाचरण और अन्य (2009)

इस मामले में, श्रीमती नारायणी देवी को विवाह के 3 महीने बाद ही विधवा होने के बाद उनके ससुराल से निकाल दिया गया था। फिर वह अपने पैतृक घर में रहने के लिए लौट आई जहाँ उसने शिक्षा प्राप्त की और एक रोजगार भी पाया। वर्ष 1996 में, वह निर्वसीयत मर गई और अपने पीछे विभिन्न बैंक खातों और अपने भविष्य निधि (प्रॉविडेंट फंड) में बड़ी रकम छोड़ गई। उनकी मां रामकिशोरी ने उत्तराधिकार प्रमाणपत्र (सक्सेशन सर्टिफिकेट) के लिए आवेदन किया था। उत्तरदाताओं (नारायणी देवी के मृत पति की बहन के पुत्र) ने भी इसके लिए आवेदन किया था।

शीर्ष अदालत ने यहां माना कि पति के परिवार द्वारा मृतक को कोई समर्थन नहीं देने का तर्क सही था, लेकिन यह भी कहा कि सिर्फ इसलिए कि यह मामला कठिन है, इसलिए ऐसे में एक वैधानिक प्रावधान की एक अलग व्याख्या नहीं की जाएगी जो अन्यथा अनुमेय (इमपरमिसिबल) है। इस मामले में, नारायणी की मां की मृत्यु हो गई, और उनके भाई अपीलकर्ता बन गए। इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या मृतक की स्व- अर्जित संपत्ति का हस्तांतरण हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 की धारा 15 (1) और धारा 15 (2) की प्रयोज्यता (एप्लीकेशन) के अंतर्गत आता है। धारा 15(1) उत्तराधिकार के सामान्य नियम के बारे में बताता है। धारा 15 (2) (a) एक गैर- बाध्य खंड के लिए प्रदान करती है, जब संपत्ति मृतक को उसके माता- पिता की ओर से हस्तांतरित की जाती है, तो उसकी मृत्यु पर वह उसके माता- पिता के परिवार से ही संबंधित होगी। एक महिला की स्व- अर्जित संपत्ति के बारे में कानून चुप है। धारा 15 (1) स्व- अर्जित संपत्ति और महिला को विरासत में मिली संपत्ति के बीच अंतर नहीं करती है। एक महिला की स्व-अर्जित संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति होगी, न कि वह संपत्ति जो उसे अपने माता- पिता से विरासत में मिली थी।

न्यायालय ने एचएसआईडीसी बनाम हरिओम एंटरप्राइजेज (2008), सुभा बी. नायर बनाम केरल राज्य (2008), और गंगा देवी बनाम जिला न्यायाधीश, नैनीताल और अन्य (2008) के मामलों में दिए गए फैसले पर भरोसा किया ताकि कानून के सुस्थापित (वेल सेटल्ड) सिद्धांत को व्यक्त किया जा सके, कि सहानुभूति और भावनाएं ही पक्षों के अधिकारों का निर्धारण करने वाले एकमात्र कारक नहीं होंगे, जो स्पष्ट और असंदिग्ध हैं। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की उप-धारा 15 (1) लागू होगी न कि उसकी उप- धारा 15(2)। उप- धारा 15(1) केवल उस मामले में लागू होगी जहां एक हिंदू महिला की निर्वसीयत मृत्यु हो गई हो। ऐसी स्थिति में, उत्तराधिकार का सामान्य नियम, जैसा कि क़ानून द्वारा प्रदान किया गया है, प्रबल होना चाहिए। अदालत ने अपील में कोई दम नहीं पाया और इस तरह अपील खारिज कर दी गई थी।

यहां अदालत ने संपत्ति उन्हीं लोगों को दी, जिन्होंने मृतक के साथ क्रूरता का व्यवहार किया और जब उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तो उसके साथ रिश्ता भी नहीं रखा।

ताराबाई दगदू नितनवारे और अन्य बनाम नारायण केरु नितनवारे और अन्य (2018)

इस मामले में, याचिकाकर्ताओं ने उस आदेश को चुनौती दी थी जो सत्र न्यायालय ने यह तर्क देते हुए दी थी कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15 (2) (a) के प्रावधानों,  जो कहता है कि यदि किसी हिंदू महिला को अपने पिता/ माता से कोई संपत्ति विरासत में मिली है, और यदि उसकी कोई संतान नहीं है तो वह पिता के उत्तराधिकारी को हस्तांतरित कर दी जाएगी, के कारण प्रतिवादी का विवादित संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं हो सकता है। यहां पर मृतक के पति, जो प्रतिवादी है, ने मृतक की संपत्ति में घोषणा (डिक्लेरेशन), विभाजन और निषेधाज्ञा (इंजेक्शन) के लिए एक वाद दायर किया था। संपत्ति का यह वाद मृतका को उसके माता- पिता से प्राप्त हुआ था।

प्रतिवादी के बच्चे थे (मृतक से नहीं बल्कि प्रतिवादी की दूसरी पत्नी से) जो उक्त संपत्ति में हिस्से का दावा कर रहे थे। याचिकाकर्ताओं के अनुसार, मृतक सुंदराबाई की मृत्यु बिना किसी समस्या के हुई थी, और पति के बच्चों का जन्म मृतक से नहीं हुआ था, बल्कि प्रतिवादी की दूसरी पत्नी (जिसे उसने स्वयं स्वीकार किया था) से हुआ था। तो, इन बच्चों के पास वाद की संपत्तियों में कोई हिस्सा नहीं होगा। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(2) (a) यहां पर लागू होती है क्योंकि यह प्रावधान एक पति को उस संपत्ति को विरासत में लेने से रोकता है जो एक हिंदू महिला ने अपने माता- पिता से प्राप्त की थी, अगर उसके खुद के कोई बच्चे नहीं हैं या वह बिना वारिसों के मर गया है।

न्यायालय ने स्वीकार किया कि मृतक को वाद की संपत्ति उसके माता- पिता से प्राप्त हुई थी और चूंकि बच्चे उसके नहीं थे, यह इस तथ्य की ओर जाता है कि सुंदराबाई की मृत्यु बिना किसी वारिस के हुई थी और ऐसी स्थिति में जहां एक बेटा या बेटी अनुपस्थित होते है, उसका पति उसकी संपत्ति का वारिस नहीं हो सकता है, लेकिन संपत्ति उसके पिता के कानूनी उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित हो जाएगी। इसलिए, पति के पास सुंदराबाई की संपत्ति के विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने का कोई कारण नहीं था। अंत में, बॉम्बे के उच्च न्यायालय ने यह माना कि यदि एक हिंदू महिला निः संतान या बिना किसी वारिस के मर जाती है, तो उसके माता- पिता द्वारा उसे दी गई संपत्ति उसके माता- पिता को विरासत में मिलेगी और उसके पिता के कानूनी उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित होगी, न कि पति या उसके उत्तराधिकारियों को होगी।

लिंग पूर्वाग्रह और एचएसए, 1956 की धारा 15

आम तौर पर, भारत और दुनिया भर में, महिला शादी के बाद अपने पति के परिवार में जाती है, और कोई अन्य कारण से नहीं। एक महिला अपने जन्मजात पारिवारिक संबंधों को छोड़ देती है और वैवाहिक संबंधों के बाद अपने पति का नाम ही मानती है। इसलिए, हिंदुओं (महिलाओं) के लिए वसीयत उत्तराधिकार ने इस जमीनी हकीकत को ध्यान में रखा है।

असल व्यवहार में, वर्तमान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम पर विचार करते हुए, एक हिंदू महिला की संपत्ति कभी भी एक महिला के माता-पिता के पास होने की संभावना नहीं है, क्योंकि पति के उत्तराधिकारियों की सूची बहुत विस्तृत होती है। हालांकि, जब हिंदू पुरुष की संपत्ति के हस्तांतरण की बात आती है तो ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इसके अलावा, कोई भी संपत्ति जो एक महिला को उसके पति के माध्यम से हस्तांतरित की जाती है, उसके निधन पर पति के उत्तराधिकारियों को वापस कर दी जाएगी। हालांकि, उस संपत्ति पर समान विचार नहीं किया जाता है, जो एक महिला अपने कौशल के अभ्यास के माध्यम से प्राप्त करती है। यह इतना बेतुका है कि एक हिंदू महिला की मृत्यु पर, जो निर्वसीयत और निः संतान और बिना जीवित पति के थी, पति के परिवार के असंबंधित दूर के रिश्तेदारों का हिंदू महिला की संपत्ति पर उसके अपने जन्म के परिवार की तुलना में अधिक दावा होता है।

यह कहा जा सकता है कि धारा 15 अत्यंत भेदभावपूर्ण है क्योंकि महिला की संपत्ति, भले ही वह स्व- अर्जित क्यों न हो, उसके मूल वारिसों को विरासत में नहीं मिली है। इसके अलावा, एक हिंदू महिला, जो उत्तराधिकारी के रूप में किसी अन्य हिंदू महिला की संपत्ति में वारिस हो सकती है, उसे मृतक महिला के पति के दूर के रिश्तेदारों के बाद ही मौका मिलता है, जो उसे पता भी नहीं है। इसलिए, धारा 15 को संविधान की योजना से अधिकारहीन (अल्ट्रा वायर्स) माना जाना चाहिए और इसलिए इसे अमान्य कर देना चाहिए।

इसके विपरीत, यदि कोई हिंदू पुरुष बिना किसी जीवित पत्नी को छोड़कर निर्वसीयत और निः संतान मर जाता है, तो उसकी पत्नी के रिश्तेदार उसके पति की संपत्ति में कोई दावा नहीं कर सकते है। उत्तराधिकार में उनकी माता की सर्वोच्च प्राथमिकता उनके पिता और भाई- बहन, दूर के रिश्तेदार आदि हैं। हालाँकि, उनकी पत्नी के पैतृक परिवार का ऐसी संपत्ति पर कोई दावा नहीं होता है। यह अत्यधिक भेदभावपूर्ण है।

ममता दिनेश वकील बनाम बंसी एस. वाधवा (2012)

ममता दिनेश वकील बनाम बंसी एस. वाधवा, (2012) के मामले में यह तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 15 (1) में मौजूद असमानता केवल लिंग पर आधारित नहीं है, बल्कि पारिवारिक संबंधों पर भी आधारित है, और इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए, विधायिका ने महिला की संपत्ति में पति के उत्तराधिकारियों के लिए प्रदान किया है। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इस मामले में इस कारण को खारिज कर दिया और कहा कि इस धारा में भेदभाव केवल लिंग पर आधारित है, न कि पारिवारिक संबंधों पर। न्यायालय ने, तर्क की संभावना की जांच करने के लिए एचएसए, 1956 के तहत पुरुष निर्वासन की उत्तराधिकार योजना/ पैटर्न का विश्लेषण किया। यह देखा गया कि संपत्ति को परिवार के भीतर रखना मामले में नहीं लिया जा रहा था क्योंकि एक हिंदू पुरुष की संपत्ति तब उसकी बेटियों, बहन के बेटों और बेटियों को विरासत में नहीं मिलेगी। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि इस वर्गीकरण का एकमात्र आधार लिंग था।

अन्य भारतीय उत्तराधिकार कानूनों के भीतर लैंगिक समानता

भारतीय कानून योजना में दिए गए दो उदाहरण, एचएसए, 1956 की धारा 8 और धारा 15 की तुलना में अधिक लिंग- समानता हैं। पहला गोवा उत्तराधिकार, विशेष नोटरी और सूची कार्यवाही अधिनियम (गोवा सक्सेशन, स्पेशल नोटरीज एंड इन्वेंटरी प्रोसीडिंग एक्ट), 2012 (जीएसएसएनआईपी) है और दूसरा है भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (इंडियन सक्सेशन एक्ट), 1925 (आईएसए)। वर्ष 1961 में एचएसए लागू होने के बाद गोवा भारत संघ का हिस्सा बन गया था। गोवा राज्य पहले व्यक्तिगत कानून से संबंधित मामलों में पुर्तगाली सिविल संहिता द्वारा शासित किया जाता था और भारत संघ में शामिल होने के बाद भी वहां यही क़ानून लागू रहा है। गोवा की सिविल संहिता पुर्तगाली सिविल संहिता पर आधारित है, जिसमें हस्तांतरण की लिंग- समानता योजना शामिल है। आईएसए सभी धर्मों के नागरिकों के लिए वसीयतनामा उत्तराधिकार को भी नियंत्रित करता है। यह क़ानून हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन और सिखों के अलावा सभी धर्मों के लिए निर्वसीयत उत्तराधिकार को भी नियंत्रित करता है। ममता दिनेश वकील बनाम बंसी एस. वाधवा (2012) के ऐतिहासिक फैसले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि आईएसए के तहत हस्तांतरण योजना, एचएसए, 1956 की धारा 8 और धारा 15 द्वारा निर्धारित की तुलना में अधिक उचित है, और यह आईएसए के पुराने होने के बावजूद है। यहां, कानून के दो टुकड़े हैं और उनकी तुलना एचएसए की धारा 8 और धारा 15 से की जाती है, और इस अभ्यास का दो गुना उद्देश्य है। पहली तुलना है, जो एचएसए में सुधार कैसे कर सकता है, इस पर बहुत उपयोगी अंतर्दृष्टि उत्पन्न कर सकता है। दूसरा, यह है कि यह एचएसए लिंग- तटस्थ (न्यूट्रल) में हस्तांतरण की योजनाओं को बनाने के लिए एक प्रदर्शन के रूप में कार्य करता है, जो एक नया विचार नहीं होगा। इस प्रकार के सुधारों के उदाहरण भारत में पहले से मौजूद हैं।

एचएसए, 1956 की धारा 15 की संवैधानिक वैधता

भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(1) कहता है कि किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता क्योंकि यह संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है। लेकिन वह नहीं जो सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन जैसे कुछ अन्य मानदंडों के साथ उल्लिखित आधारों पर आधारित है। अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून हैं लेकिन अलग-अलग लिंगों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हो सकते हैं।

वर्ष 1937 में जब हिंदू महिला की संपत्ति अधिकार अधिनियम को बनाया गया था, तब महिलाओं की सामाजिक- आर्थिक स्थिति अलग थी। लेकिन आज महिलाओं के पास निजी संपत्ति का एक अच्छा हिस्सा है, जो कई बार उनके द्वारा स्वयं अर्जित की जाती है और उनके ससुराल वालों के साथ उनके परिवार के संबंध एकल परिवारों की विकासशील अवधारणा के कारण उनके अपने परिवार के समान ही होती हैं। एक सदी पुराने कानून को आधुनिक समय में अपनाने और आज महिलाओं पर इसके लागू होने का कोई मतलब नहीं है और यह भेदभावपूर्ण और अस्पष्ट होने की संभावना को प्रस्तुत करता है।

संपत्ति शब्द को विशेष रूप से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियमों द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन 1956 के अधिनियम की धारा 15 के उद्देश्य के लिए, इसका अर्थ अधिनियम के तहत मृत हिंदू महिला की संपत्ति है। यहां की संपत्ति में एक हिंदू महिला के स्वामित्व और अधिग्रहित (एक्वायर्ड) चल और / या अचल संपत्ति दोनों शामिल हैं। यह विरासत से, विभाजन पर, उपहार द्वारा, या खरीद के द्वारा हो सकता है।

यह धारा एक हिंदू महिला को विरासत में मिली संपत्ति और एक हिंदू महिला की स्व- अर्जित संपत्ति के बीच अंतर करने में असमर्थ है। यह केवल इस बात की वकालत करता है कि यदि संपत्ति महिला के पति या ससुर से उसे विरासत में मिली है, तो यह उसके पति के उत्तराधिकारियों के पास ही जाएगी। इस स्थिति में, यदि संपत्ति उसको उसके पिता या माता से विरासत में मिली है, तो उसके बच्चों की अनुपस्थिति में, संपत्ति उसके पिता के वारिसों के पास जानी चाहिए न कि उसके पति या उसके उत्तराधिकारियों के पास।

एक हिंदू महिला के ससुराल वालों के साथ उसके रक्त संबंधों को लेकर विधायी पक्षपात है। पतियों के वारिसों को उनके पैतृक और मातृ वारिसों की तुलना में एक निर्वासित हिंदू विधवा के संबंध में अधिक निकट माना जाता है और उनकी संपत्ति के उत्तराधिकार के क्रम में वरीयता (प्रिफरेंस) दी जाती है। एक हिंदू महिला की संपत्ति के अधिग्रहण का स्रोत उत्तराधिकारियों में एक निर्णायक कारक है, लेकिन हिंदू पुरुष के मामले में ऐसा नहीं होता है। यहां, घोर भेदभाव देखा जा सकता है जब एक विवाहित हिंदू पुरुष की मृत्यु हो जाती है, उसकी मां को उसकी विधवा और बच्चों के साथ संपत्ति में समान हिस्सा मिलता है, जबकि एक हिंदू महिला की मृत्यु के मामले में, पति के वारिस को उसकी मां से भी पहले रखा जाता है।

अधिनियम की धारा 15 अनुचित है क्योंकि यह एक मृत हुई हिंदू महिला की स्वयं अर्जित संपत्ति के भाग्य की समानता पर विचार करने में विफल रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि महिलाएं हमेशा वशीभूत (सब्जुगेटेड) होंगी और कभी भी पैसा कमाने के लिए उद्यम नहीं करेंगी क्योंकि कानून बनाते समय विधायकों ने यह कल्पना नहीं की थी कि हिंदू महिलाओं के पास स्व- अर्जित संपत्ति भी होगी।

सोनूबाई यशवंत जाधव बनाम बाला गोविंदा यादव (1983)

इस मामले में एचएसए, 1956 की धारा 15 की संवैधानिक वैधता को न्यायपालिका के समक्ष लाया गया था। यह माना गया कि कानून का उद्देश्य विवाह पर संयुक्त परिवार के भीतर संपत्ति को बनाए रखना था जो पुरुषों और महिलाओं को एक साथ लाता है, जिससे एक संस्था बनती है। इसलिए, यह स्पष्ट है कि उस स्थिति की मान्यता में जब पत्नी का उत्तराधिकार खुला रह, तो पति के उत्तराधिकारियों को विरासत लेने की अनुमति दी गई। यह विवाह पर पति के परिवार में पत्नी की एकता के परिणामस्वरूप था।

उत्तराधिकार कानून उन लोगों के बारे में नहीं हैं जो केवल संपत्ति के हकदार हैं, बल्कि उन लोगों के बारे में भी हैं जिन्हें इससे वंचित किया जाना चाहिए। हिंदू कानून के सिद्धांतों (मुल्ला) के 21वें संस्करण (एडिशन) में यह भी कहा गया है कि धारा 15(2) की स्थापना इस आधार पर की गई है कि संपत्ति उस व्यक्ति को नहीं दी जानी चाहिए जिसे न्याय पारित करने की आवश्यकता नहीं होगी।

यह विडंबना (इरॉनिक) ही है कि जब हिंदू समाज लैंगिक समानता की ओर बढ़ रहा है, तब भी हमारे देश में उत्तराधिकार कानूनों में भेदभाव जारी है, और ऐसे केवल लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले कानून पर सवाल उठाया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

राज्य, भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में उल्लिखित भेदों के आधार पर लोगों के साथ अलग व्यवहार करने वाले कानून नहीं बना सकता है। एचएसए पुरुषों और महिलाओं द्वारा आयोजित संपत्ति के हस्तांतरण के लिए विभिन्न नियमों की वकालत करके हिंदू महिलाओं के साथ भेदभाव करता है। ये प्रावधान अत्यधिक और गलत तरीके से महिला के अपने परिवार की तुलना में हस्तांतरण की संरचना में पति के परिवार का चयन करते हैं, भले ही संपत्ति महिला की हो या उसके द्वारा स्वयं अर्जित की गई हो। यह कानून उस युग का परिणाम है जब भारतीय महिलाओं के लिए संपत्ति का स्वामित्व और अधिग्रहण करना असंभव था। हालाँकि, ये पूर्वाग्रह आज भी भारत में हिंदू महिलाओं पर किए जाते हैं।

अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में विरासत के कानून लिंग- तटस्थ भाषा में लिखे गए हैं। वे बेटे- बेटी जैसे शब्दों का प्रयोग ही नहीं करते है, बल्कि माता- पिता, बच्चों और जीवनसाथी जैसे लिंग- तटस्थ शब्दों का प्रयोग करते हैं। लिंग- तटस्थ शब्दों का प्रयोग एक कानूनी व्यवस्था बना सकता है जहां एक व्यक्ति अपने लिंग के बावजूद विरासत का हकदार हो सकता है। इस तरह यह लिंग- विशिष्ट नहीं हो सकते है और महिलाओं के प्रति मौजूदा पूर्वाग्रहों में संशोधन किया जा सकता है। भारत में एक समान दृष्टिकोण लिया जा सकता है और विरासत कानूनों में लिंग संदर्भों को क़ानून से बाहर रखा जा सकता है और लिंग- तटस्थ भाषा के साथ इसे प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया जा सकता है। इन परिवर्तनों के साथ, देश के सभी लोगों के लिए उनके लिंग की परवाह किए बिना एक समान और निष्पक्ष कानूनी प्रणाली बनाई जा सकती है।

भारतीय महिलाओं की ओर से असमान संपत्ति अधिकारों के अधीन होने के कारण मौन और आत्म- इनकार अन्याय को मजबूत करता है और इसे आगे बढ़ाता है। कानूनी साक्षरता (लिटरेसी) अभियानों और सामाजिक जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से हिंदू महिलाओं को उनके संपत्ति अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। यह एक आवश्यक कदम है ताकि वे अपने हक के लिए लड़ सकें। लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए मानवता पर आधारित समान अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए लोगों की मानसिकता और दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिए सरकार, गैर-सरकारी संगठनों, जनता और स्वयं महिलाओं की ओर से सहयोगात्मक (कोलेबोरेटिव) प्रयास किए जाने चाहिए।

संदर्भ

  • MULLA-HINDU LAW UPDATED 21ST ED 2013 HB 21st Edition (English, Hardcover, Mulla D F)

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here