भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50

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Indian Constitution

यह लेख बंगलौर के आई.एस.बी.आर. लॉ कॉलेज से बी.बी.ए. एल.एल.बी. की पढ़ाई कर रही छात्रा Raksha Yadav के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50, जो सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) से अलग करने से संबंधित है, का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, और लोकतंत्र के तीन अंग होते हैं, जो की विधायी (लेजिस्लेटिव), कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। प्रत्येक अंग की अपनी अलग– अलग शक्तियाँ और कार्य होते हैं। विधायिका कानूनों और अध्यादेशों (ऑर्डिनेंस) का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करती है, कार्यपालिका उन कानूनों और अध्यादेशों को लागू करने का कार्य करती है, और न्यायपालिका कानूनों की रक्षा करती है और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करती है। राष्ट्रों के सुचारू (स्मूथ) और कुशल कामकाज के लिए, यह आवश्यक है कि प्रत्येक अंग अपने अधिकार के अनुसार ही कार्य करे। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत दिया गया प्रावधान, शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन ऑफ़ पावर) के बारे में बात करता है। इसके तहत कहा गया है कि राज्य को राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। यह अधिकारियों द्वारा उनकी शक्ति या पदों के अनुचित उपयोग को प्रतिबंधित करता है और साथ ही सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को बढ़ावा देता है। अनुच्छेद 50, संविधान के भाग IV के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डी.पी.एस.पी.) का एक हिस्सा है। इसमें कहा गया है कि कोई भी सरकारी अंग अन्य अंगों के कार्यों और मूल शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

भारतीय संविधान के तहत शक्तियों के पृथक्करण की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)

आजकल, ज्यादातर लोकतांत्रिक व्यवस्था, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित होती है। लेकिन पहले, राजा हुआ करते थे जो उनके राज्यों पर शासन करते थे और उनके पास ही सारी शक्तियाँ निहित होती थीं। शक्ति के पृथक्करण की अवधारणा पर अरस्तू (एरिस्टोटल) ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिक्स‘ में चर्चा की थी। इसके अनुसार, प्रत्येक संविधान में सरकार के तीन अंग शामिल होने चाहिए जो कीविचारशील (डेलीबेरेटिव), सार्वजनिक अधिकारी और न्यायिक विभाग है। रोमन गणराज्य सरकार ने भी देश में नियंत्रण और संतुलन (चेक एंड बैलेंस) के सिद्धांत को अपनाया था।

17 वीं शताब्दी में, अंग्रेजी संसद के आने के बाद, एक ब्रिटिश राजनेता, जॉन लॉक के द्वारा भी उनकी पुस्तक ‘टू ट्रीटीज ऑफ गवर्नमेंट‘ में अंगों के तीन रूपों को एक अलग दृष्टिकोण से बताया गया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में समझाया था कि तीनों अंगों में स्वतंत्र अधिकार या शक्ति नहीं होती है। उनके अनुसार, कानून के पास सर्वोच्च अधिकार होता है, और कार्यपालिका या संघीय (फैडरेटिव) कार्यों का प्रयोग एंपरर द्वारा ही किया जाता है। जॉन लॉक के द्वारा तीनों शाखाओं को समान नहीं माना गया था।

18 वीं शताब्दी में, बैरन डी मोंटेस्क्यू नाम के एक फ्रांसीसी वकील ने “ट्रायस पॉलिटिका” शब्द या शक्तियों के पृथक्करण के विचार को सावधानीपूर्वक सिद्ध किया था। उन्होंने अधिकांश दार्शनिकों (फिलोसॉफर्स) की तुलना में न्यायिक शाखा की स्वतंत्रता पर अधिक जोर दिया था। उन्होंने समझाया कि न्यायपालिका को दिखावटी होने के बजाय एक वास्तविक प्रकृति का होना चाहिए और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किसी एक अंग या व्यक्ति को हर दूसरे अंग के कार्यों को निष्पादित (एग्जीक्यूट) नहीं करना चाहिए।

इस बिंदु पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस सिद्धांत को पहली बार मोंटेस्क्यू के द्वारा 1747 की शुरुआत में उनकी पुस्तक ‘एस्प्रिट डेस लोइस’ (कानून की आत्मा) के माध्यम से प्रतिपादित (प्रोपाउंड) किया गया था। मोंटेस्क्यू ने देखा कि यदि सारी शक्ति किसी एक व्यक्ति या लोगों के समूह के हाथों में ही केंद्रित रहती है, तो इसका परिणाम सरकार के अत्याचारी रूप में होता है।

शक्तियों के पृथक्करण का अर्थ

शब्द ‘शक्तियों का पृथक्करण’ सरकार के उस रूप का वर्णन करता है जिसमें कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायी के पास शक्ति और अधिकार के अलग– अलग क्षेत्र होते हैं। प्रत्येक लोकतांत्रिक देश में शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का पालन किया जाता है। यह सरकार के तीन अंगों के बीच शक्तियों और कार्यों को वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) करता है। इस सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक अंग अन्य अंगों के हस्तक्षेप के बिना अपना कार्य करता है। यह नियंत्रण और संतुलन की एक प्रकार की प्रणाली है जिसका अर्थ है कि विधायी कानून बनाती है, कार्यपालिका कानून लागू करती है और न्यायपालिका कानून की समीक्षा (रिव्यू) करती है। इस प्रकार, विधायी कानूनों की समीक्षा नहीं कर सकता है, कार्यपालिका कानून नहीं बना सकती है, और न्यायपालिका कानूनों को लागू नहीं कर सकती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अपने क्षेत्र मे ही कार्य कर रहे है, शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को लागू किया गया है। हर देश इस सिद्धांत का सख्ती से पालन नहीं करता है, जैसे की यूनाइटेड किंगडम (यू.के.) की तरह। यू.के. के संविधान (जो की ज्यादातर अलिखित और असंहिताबद्ध (अनकोडिफाइड) दस्तावेज है) के तहत सरकार के तीन अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिए शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान शामिल किया गया है, लेकिन तब भी, सरकार की एक शाखा की ओर से, दूसरी के साथ अभी भी कुछ हस्तक्षेप करने वाले व्यवहार मौजूद है।

जिन देशों में संविधान लिखित में है, जैसे भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका (यू.एस.ए.), इस सिद्धांत को सख्त तरीके से लागू करने के बजाय कठोर तरीके से लागू किया जाता हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली (प्रेसिडेंशियल सिस्टम) है, और शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत अमेरिकी संविधान की नींव है।

शक्तियों के पृथक्करण की संवैधानिक स्थिति

भारत में, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को सख्ती से लागू नहीं किया जाता है। अनुच्छेद 50 के अलावा, अन्य प्रावधान जो शक्तियों के पृथक्करण को प्रमाणित (सब्सटेंशिएट) करते हैं, वे इस प्रकार हैं:

  1. संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत कहा गया है कि राष्ट्रपति कुछ शर्तों के तहत ही अपनी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग कर सकते है।
  2. संविधान के अनुच्छेद 121 और अनुच्छेद 211 में विधायी को न्यायपालिका से अलग करने का प्रावधान दिया गया है। इसके तहत कहा गया है कि कानून सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा नहीं कर सकता है।
  3. संविधान के अनुच्छेद 122 और अनुच्छेद 212 में कहा गया है कि अदालतें विधायिका की कार्यवाही के बारे में पूछताछ नहीं कर सकती हैं।
  4. संविधान का अनुच्छेद 361(4) न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करता है। इसके तहत कहा गया है कि कोई भी अदालत किसी भी राज्य के राष्ट्रपति या किसी राज्यपाल (गवर्नर) को अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन करने या प्रयोग करने के दौरान किए गए कार्यों या कदाचार (मिसकंडक्ट) के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती है।

शक्तियों के पृथक्करण का महत्व

शक्ति को एक हाथ में रखने से, जो की भाई भतीजावाद (नेपोटिज्म), कुप्रशासन (मैलएडमिनिट्रेशन) या भ्रष्टाचार पैदा कर सकता है, से बचाने के लिए शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत की आवश्यकता होती है। यह सिद्धांत विधायी, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मुख्य कार्यों और शक्तियों को विभाजित करने का तंत्र है। यह एक लोकतांत्रिक देश में बहुत आवश्यक है। शक्तियों के पृथक्करण के प्राथमिक उद्देश्य इस प्रकार हैं:

  1. यह किसी व्यक्ति या प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा शक्ति की अधिकता और दुरुपयोग से बचाता है।
  2. यह राज्य की मनमानी, अतार्किक (इललॉजिकल) और तानाशाही (डिक्टेटोरियल) शक्तियों से समाज की रक्षा करता है।
  3. इसके द्वारा सभी लोगों की स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है, और प्रत्येक कार्य उचित सरकारी एजेंसियों को अपने संबंधित कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से करने के लिए दिया जाता है।
  4. इसके तहत सरकार के प्रत्येक अंग के अपने कार्य और कर्तव्य होते हैं जो उन्हें भारतीय संविधान द्वारा दिए गए हैं, और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी सीमा के भीतर अपने कर्तव्यों का पालन करें।
  5. सरकार के अंगों के बीच शक्ति का पृथक्करण, किसी एक शाखा को अत्यधिक केंद्रीकृत (सेंट्रलाइज) होने और मनमाने निर्णय लेने के अधीन होने से रोकता है।
  6. यह सरकार के सभी अंगों के बीच संतुलन बनाए रखता है।
  7. इसका उद्देश्य सरकार की प्रभावशीलता को बढ़ाना है और उसे स्वतंत्र रूप से अपने मुख्य कार्यों को करने की अनुमति देना है।

शक्ति के पृथक्करण के तत्व

राष्ट्र के कार्यों को प्रभावी ढंग से करने के लिए आवश्यक सभी प्राधिकरणों और कार्यों को एक अंग में नहीं रखा जा सकता है। नतीजतन, प्रत्येक अंग को व्यवस्थित तरीके से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। विधायी, कार्यपालिका और न्यायपालिका अंगों में से प्रत्येक के अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का सेट होता है। नीचे प्रत्येक अंग का विस्तृत विवरण दिया गया है।

विधायी अंग

प्रत्येक देश को अपने आप को कुशलतापूर्वक रूप से संचालित करने के लिए कानूनों और विनियमों (रेगुलेशन) की आवश्यकता होती है। विधायीका सरकार का वह अंग है जो राष्ट्र या राज्य के लिए कानून या नीतियां बनाता है। इसे नियम बनाने वाले निकाय के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय संविधान के तहत, विधायी अंग में संसद और राज्य विधानसभा शामिल हैं। भारतीय संसद के दो सदन होते हैं: लोकसभा (निचला सदन) और राज्य सभा (उच्च सदन); जबकि, राज्य विधानसभा में विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल) (उच्च सदन) और विधानसभा (निचला सदन) होता है। जब तक विधायिका कानून नहीं बनाती है, तब तक कार्यपालिका और न्यायपालिका कानून को लागू करने और उसकी समीक्षा करने का कार्य नहीं कर सकते हैं। यह लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों (इलेक्टेड रिप्रेजेंटेटिव) से बना एक निकाय है, और यह पूरे देश में लोगों के शक्ति और उनकी राय का प्रतिनिधित्व करता है। इसके पास मौजूदा कानूनों और विनियमों में संशोधन या उनको निरस्त (रीपील) करने का भी अधिकार है। न्यायपालिका विधायी अंग के लिए एक सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करती है, इसलिए यह विधायी को नए कानूनों के निर्माण और मौजूदा कानूनों के संशोधन के बारे में सिफारिशें कर सकती है, लेकिन यह उन सिफारिशों को लागू नहीं कर सकती है। राष्ट्र के लिए नए कानून बनाने के अलावा, यह बजट, कार्यपालिका या मंत्रिपरिषद (काउंसिल ऑफ़ मिनिस्टर) को भी नियंत्रित करती है। विधायिका राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है और देश के राष्ट्रपति पर महाभियोग (इंपीचमेंट) भी चला सकती है। 

कार्यपालिका

सरकार का एक अन्य महत्वपूर्ण अंग कार्यपालिका निकाय है। सरकार की विधायी शाखा द्वारा कानून पारित किए जाने के बाद, राज्य और देश में उन कानूनों को लागू करने के लिए कार्यपालिका जिम्मेदार होती है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्य के राज्यपाल कार्यपालिका के अंग होते हैं। सरकार के संसदीय स्वरूप में नाममात्र (नॉमिनल) के कार्यपालक और वास्तविक कार्यपालक होते हैं। राष्ट्रपति नाममात्र के कार्यपालक होते है और उनके पास संविधान द्वारा प्रदान की गई कार्यपालिका शक्ति होती है। लेकिन राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से सलाह लेने के लिए बाध्य है, और इन शक्तियों का प्रयोग मंत्रियों द्वारा किया जाता है। इसलिए, वास्तविक कार्यकारी प्रधान मंत्री और मंत्रिपरिषद होते हैं। 

कार्यपालिका में राजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका (गैर राजनीतिक कार्यपालिका) शामिल होती है। राजनीतिक कार्यपालिका या मंत्री राज्य और कार्यकारी विभागों के प्रमुख होते हैं। मंत्रियों को देश के लोगों द्वारा पांच साल के कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जाता है और वह जनता के प्रति उनके कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं। ये राजनीतिक अधिकारी अस्थायी होते हैं क्योंकि इन्हें एक निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किया जाता है। इसे हर चुनाव में बदला जाता है। मंत्रियों को एक कार्यकाल पूरा करने के बाद फिर से निर्वाचन के लिए खड़ा होना चाहिए। जब उनकी पार्टी बहुमत दल के रूप में शक्ति में वापस आती है, तभी वे एक बार फिर से मंत्री के रूप में काम कर पाते हैं। 

स्थायी कार्यपालक (गैर-राजनीतिक कार्यपालक) सिविल सेवक होते हैं, जो किसी राजनीतिक कार्यपालिका से संबंधित नहीं होते हैं। वे सरकारी विभागों के लिए काम करते हैं और सरकार की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों और राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं। ये अधिकारी अपनी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) की आयु तक अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। वे पदानुक्रम (हाईरार्की) में उच्च और निम्न संबंधों में व्यवस्थित होते हैं और साथ ही निश्चित वेतन प्राप्त करते हैं। 

कार्यपालिका राज्य में कानूनों या नीतियों को लागू करने का कार्य करती है और राष्ट्रपति के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है। कार्यपालिका देश की अखंडता (इंटीग्रिटी) और एकता की रक्षा और संरक्षण के लिए भी जिम्मेदार होता हैं।

न्यायपालिका

न्यायपालिका, सरकार की वह शाखा है जो विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा करती है। यह देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करती है, न्याय का प्रशासन करती है और साथ ही विवादों का निपटारा भी करती है। न्यायपालिका में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय और अन्य सभी निचली और अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) अदालतें शामिल होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा लिए गए निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। न्यायपालिका केवल मौजूदा कानूनों की व्याख्या करती है और उन्हे लागू करने का कार्य करती है, और यह नए कानून नहीं बनाती है।

न्यायपालिका एकमात्र निकाय है जिसके पास केंद्र और राज्य के बीच, राज्य और उसके नागरिकों के बीच, या अलग अलग राज्यों के बीच विवाद के मामलों में हस्तक्षेप करने और उन पर निर्णय लेने की शक्ति है। सभी सरकारी और निजी निकाय न्यायपालिका द्वारा पारित निर्णयों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं। भारतीय न्यायपालिका, संविधान की रक्षा करती है, मानवाधिकारों की रक्षा करती है और एकता और शांति को बढ़ावा देती है। यह सरकार के विधायी और कार्यपालिका अंगों पर एक नियंत्रण और संतुलन के रूप में कार्य करती है।

न्यायपालिका के मुख्य कार्य कानूनों की समीक्षा और प्रशासन करना, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन और संविधान के उल्लंघन से रक्षा करना है, और उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पारित निर्णयों की निगरानी करते है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय एक सलाहकार निकाय के रूप में भी कार्य करता है। संवैधानिक मुद्दों पर, सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 143 के प्रावधान के अनुसार अपनी विशेषज्ञ (एक्सपर्ट) सलाह दे सकता है। कुछ मामलों में जब विवादों के लिए कोई विशिष्ट कानून या पूर्ववर्ती निर्णय (प्रिसिडेंट) नहीं होता है, तो न्यायाधीश अपने अनुभव और सामान्य ज्ञान के आधार पर निर्णय लेते हैं, जिन्हें न्यायाधीश द्वारा बनाया गया कानून कहा जाता है। इसे ‘स्टेयर डेसाईसिस’ के सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है ‘अपने निर्णय के साथ खड़े रहना’। यह न्यायालय को, वर्तमान मुद्दे को तय करने के लिए, पहले से निपटाए गए मामलों मे दिए गए निर्णय का पालन करने के लिए कहता है।

सरकार के अंगों के बीच संबंध

सरकार चलाने के लिए सरकार के अंगों की अपनी कार्य और शक्तियां होती हैं, और किसी भी अंग को दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होती है। लेकिन इन अंगों के आपस में संबंध होते हैं, जिनकी चर्चा नीचे की गई है:

विधायिका और न्यायपालिका के बीच संबंध

सरकार के संसदीय स्वरूप (पार्लियामेंट्री फॉर्म) में, विधायिका राष्ट्रों के लिए कानून बनाती है और उन्हे अधिनियमित (इनैक्ट) करती है, और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है और राष्ट्रों के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है। न्यायपालिका को किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार है। विधायिका न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) का विरोध कर सकता है और कुछ निर्णयों को रद्द करने के लिए कानून भी तैयार कर सकता है।

विधायिका और कार्यपालिका के बीच संबंध

संसदीय प्रणाली के तहत, विधायिका कार्यपालिका के कार्यों की निगरानी करती है, और कार्यपालिका राज्य की वह शाखा है जो कानून के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार होती है। यदि कार्यपालिका विधायिका का विश्वास खो देती है, तो उसका कार्यकाल समाप्त होने से पहले उसे बर्खास्त (डिमिस) कर दिया जाता है। विधायिका कानून बनाती है और कार्यपालिका उन कानूनों को राष्ट्रों में लागू करती है। सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली में, कार्यपालिका, विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होती है।

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध

न्यायपालिका एक लोकतांत्रिक सरकार में एक स्वतंत्र निकाय है। कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है, और कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) संबंध होता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास सजा को माफ करने और स्थगित (रिप्राइव) करने की शक्ति होती है। न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा कर सकती है और शून्य (वॉयड) होने पर उन्हें असंवैधानिक भी घोषित कर सकती है।

न्यायिक अतिरेक (ज्यूडिशियल ओवररीच)

‘न्यायिक अतिरेक’ शब्द का अर्थ सरकार के अन्य अंगों के क्षेत्र में न्यायपालिका का हस्तक्षेप है। विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों और शक्तियों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ है, और यह संविधान द्वारा दी गई शक्ति का दुरुपयोग करने की प्रथा होती है। यह सरकार के अंगों के बीच विवाद उत्पन्न करता है।

शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रभाव

शक्तियों के पृथक्करण का मुख्य उद्देश्य सरकार के तीनों अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन प्रणाली को बनाए रखना है। इतिहास दर्शाता है कि कैसे एक केंद्रीय शक्ति द्वारा राजशाही (मोनर्की) की स्थापना की जा सकती है जबकि शासक या नेता, लोगों को नियंत्रित करते हैं। इसलिए, शक्ति को केंद्रीकृत करने के बजाय अधिकारियों के बीच शक्तियों को उनके जिम्मेदारी के क्षेत्रों में विभाजित करना बेहतर होता है। लॉर्ड एक्शन के अनुसार, “शक्ति भ्रष्ट करती है, और पूर्ण शक्ति पूरी तरह से भ्रष्ट कर देती है।”

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत राजशाही या अत्याचार को समाप्त करता है और सरकार को उसके कार्यों के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह ठहराता है। यह न्याय की गारंटी देता है और मानवाधिकारों की रक्षा करता है। प्रत्येक सरकारी संस्था के संचालन की निगरानी, एक दूसरे से अलग रहते हुए, दूसरों द्वारा ही की जाती है।

शक्ति के पृथक्करण से संबंधित ऐतिहासिक मामले

1. राय साहिब राम जवाया कपूर और अन्य बनाम पंजाब राज्य (1955)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह माना गया था कि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कठोर तरीके से लागू करना आवश्यक नहीं है क्योंकि तीनों अंगों के कार्य पर्याप्त रूप से अलग- अलग होते हैं।

2. गुरदयाल सिंह, पुत्र– जगत सिंह बनाम राज्य (1956)

इस मामले में, यह देखा गया था कि अनुच्छेद 50 ऐसा प्रावधान प्रदान करता है कि राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएगा कि कार्यकारी और न्यायिक निकायों को राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में अलग रखा जाए।

3. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य और अन्य (1973)

इस मामले मे, यह माना गया था कि संसद, संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में संशोधन नहीं कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इस मामले में कहा गया था कि भारतीय संविधान अपनी कठोरता में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को शामिल नहीं करता है, जैसा कि उसे संयुक्त राष्ट्र के संविधान में किया गया है, लेकिन यह कुछ हद तक भारत में इस तरह के पृथक्करण का अनुमान लगाया जा सकता है। उन तत्वों में से एक जिस पर नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली टिकी हुई है, वह संविधान के अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 32 के तहत स्पष्ट रूप से दी गई न्यायिक समीक्षा है।

4. इंदिरा नेहरू गांधी बनाम श्री राज नारायण और अन्य (1975)

इस मामले में, यह कहा गया था कि संविधान का मूल ढांचा या मूल तत्व शक्तियों का पृथक्करण है और न्यायपालिका को कानूनी अधिकारों के निर्णय से संबंधित किसी भी विवाद का फैसला करना चाहिए।

5. भारत संघ बनाम संकल्प चंद हिम्मतलाल शेठ (1977)

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इस मामले में कहा गया था कि अनुच्छेद 50 राज्य की नीति का निर्देशक सिद्धांत है और राज्य को लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखना है। इसलिए, इसने न्यायपालिका को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने की आवश्यकता पर बल दिया था।

6. सुप्रीम एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (1993)

इस मामले में, यह देखा गया था कि अनुच्छेद 50 देश के प्रमुख शासी सिद्धांतों में से एक है और संविधान में निहित है। सरकार कानूनी रूप से न्यायिक चयनों में हस्तक्षेप करने से बचने और केवल औपचारिक (फॉर्मल) या अनुष्‍ठान (सेरेमोनियल) संबंधी कार्यों में अपनी भागीदारी को सीमित करने के लिए बाध्य है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि न्यायिक परिवार की इच्छाएं और प्राथमिकताएं हमेशा प्रबल रहेंगी।

7. पी. कन्नड़सन आदि बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य आदि (1996)

इस मामले में, यह माना गया था कि जब विधायिका कोई कानून बनाती है और वह इस आधार पर अमान्य हो जाता है कि विधायिका के पास कोई सक्षम अधिकार नहीं है, तो अदालत का निर्णय उसे रद्द या निरस्त नहीं कर सकता है। विधायिका निर्णय के अनुसार कानून को बदलने के लिए स्वतंत्र है। नया कानून अदालत के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता है। यह एक सरकारी प्रणाली में एक जांच और संतुलन प्रणाली है, जिसमें शक्तियों के पृथक्करण को शामिल किया जाता है।

निष्कर्ष

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के प्रत्येक अंग को स्वतंत्रता देता है। यह किसी व्यक्ति के मनमाने नियम से मुक्त होने के अधिकार की रक्षा करता है और सरकार के अंगों को अन्य अंगों के आवश्यक कार्यों पर हावी होने से रोकता है। सरकार के तीन अंग विधायी, कार्यकारी और न्यायिक अंग हैं, और सरकार के कुशल संचालन के लिए तीनों अंगों के बीच सहयोग या समन्वय (को ऑर्डिनेशन) बहुत महत्वपूर्ण है। डी.पी.एस.पी. (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत) में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50 शामिल है। यह राज्य पर आवश्यकताओं को लागू करता है कि न्यायपालिका और कार्यकारी अंगों का राज्य की सार्वजनिक सेवाओं पर स्वतंत्र अधिकार है। शक्तियों का पृथक्करण शक्ति के केंद्रीकरण को प्रतिबंधित करता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)

भारतीय संविधान के कौन से प्रावधान न्यायिक समीक्षा की बात करते हैं?

भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 32, अनुच्छेद 131 से अनुच्छेद 136, अनुच्छेद 143 , अनुच्छेद 226, अनुच्छेद 227, अनुच्छेद 245, अनुच्छेद 246, अनुच्छेद 250, अनुच्छेद 254 और अनुच्छेद 372 न्यायिक समीक्षा के बारे में प्रदान करते हैं।

संविधान का मूल ढांचा क्या है?

संविधान का मूल ढांचा संविधान की रीढ़ है अर्थात् संविधान का एक अहम हिस्सा है। संविधान के तहत ‘मूल ढांचे’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। इसमें कहा गया है कि संसद संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती है। केशवानंद भारती बनाम भारत संघ (1973) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा कहा गया था कि संविधान के मूल ढांचा में संशोधन नहीं किया जा सकता है। शक्तियों के पृथक्करण को भी भारतीय संविधान का एक बुनियादी ढांचा माना गया है।

नियंत्रण और संतुलन का क्या मतलब है?

यह एक ऐसी प्रणाली है जो किसी भी सरकारी निकाय को अपने अधिकार का दुरुपयोग करने से रोकती है। नियंत्रण और संतुलन का सिद्धांत एक अंग को अत्यधिक शक्ति प्राप्त करने से रोकता हैं।

न्यायपालिका और कार्यपालिका में क्या अंतर है?

सरकार की कार्यपालिका निकाय नीतियों और कानूनों को बनाने और उन्हे लागू करने के लिए जिम्मेदार है, जबकि न्यायपालिका को इन नीतियों और कानूनों की समीक्षा करने का अधिकार दिया गया है।

संदर्भ

  • J.N. Pandey, Constitutional Law of India, Central Law Agency, 56th Edition, 2019

 

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