पुलिस क्रूरता के मामलों में संवैधानिक अदालतों की भूमिका

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Role of constitutional courts in cases of police brutality

यह लेख लीगल इंग्लिश कम्युनिकेशन- ओरेटरी, राइटिंग, लिसनिंग एंड एक्यूरेसी में डिप्लोमा कर रहे Koushik Chittella द्वारा लिखा गया है और लेख का संपादन Oishika Banerji (टीम लॉसिखो) द्वारा किया गया है। इस लेख में पुलिस क्रूरता के मामले में संवैधानिक अदालतों की भूमिका, पुलिस अधिकारी के अधिकारों और शक्तियों के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

वर्तमान लेख में पुलिस क्रूरता और इसके मुद्दों से बचने के लिए अदालतों द्वारा उठाए जा सकने वाले उपायों पर संक्षेप में चर्चा की गई है। संवैधानिक अदालतें भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में नागरिक के अधिकारों को बचाने की कुंजी हैं। इस लेख में पुलिस के अधिकारों, एक गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार, हिरासत में हिंसा, कानून के शासन, मानवाधिकारों और एनएचआरसी, पूर्व निर्णयों और पुलिस की क्रूरता को रोकने के उपायों को भी शामिल किया गया है, जिससे अंतिम प्रश्न का उत्तर मिल सके कि क्या संवैधानिक अदालतें वास्तव में पुलिस की क्रूरता के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं या नहीं कर रही है।

पुलिस की क्रूरता

पुलिस की क्रूरता को पुलिस अधिकारियों द्वारा किए गए क्रूर कार्यों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, उदाहरण के लिए अवैध हिरासत, गैरकानूनी हत्या, पिटाई, हिरासत में हिंसा, हिरासत में बलात्कार, अभियुक्त की स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) के लिया धमकाना, आदि। हाल के दिनों में, ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहाँ पुलिस की बर्बरता को जनसंचार (मास मीडिया) के माध्यम से देखा जा सकता है। पुलिस की बर्बरता में वृद्धि के पीछे मुख्य कारण भारत में अत्याचार विरोधी कानून (एक कानून जो स्पष्ट रूप से अत्याचार को प्रतिबंधित करता है) की अनुपस्थिति के कारण हो सकता है। द्वितीयक कारण यह हो सकता है कि नागरिकों को अपने अधिकारों के बारे में पता नहीं है जिसके कारण उन्हें पुलिस से डर लगता है। लेकिन जब उनके खिलाफ कार्रवाई करने और उन्हें सजा देने की बात आती है तो अदालतें कई कारणों से विफल हो जाती हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हो सकते हैं:

  • पुलिस अधिकारी संप्रभु प्रतिरक्षा (सोवरेन इम्यूनिटी) की वकालत करता है और बचाव के रूप में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 197 का उपयोग करता है।
  • भले ही पुलिस के कार्य अनुचित हैं, या सबूतों के साथ छेड़छाड़ की गई है, और उसके द्वारा किए गए कार्य की अन्यायपूर्ण प्रकृति को कानून की अदालत में साबित नहीं किया जा सकता है।
  • क्रूर कार्य के समय थाने में मौजूद पुलिस कर्मी अदालत में गवाह नहीं बनना चाहते हैं।
  • चूंकि कार्य के किए जाने के समय थाने में मौजूद कर्मी पुलिस की बर्बरता के अभियुक्त व्यक्ति के खिलाफ किए गए कार्यों की रक्षा करते हैं और पुष्टि नहीं करते हैं, इसलिए पुलिस की बर्बरता के मामले को साबित करना लगभग असंभव है जब तक कि इसे पुलिस की सहायता से दर्ज या प्रमाणित नहीं किया जाता है।
  • पीड़ितों को आमतौर पर अदालत में न जाने की धमकी दी जाती है, और यदि ऐसा किया जाता है, तो परिणामस्वरूप उन्हें अवैध रूप से गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
  • अधिकांश मामलों में जिनमें हिरासत में हिंसा और पुलिस की बर्बरता शामिल है, अभियुक्तों को मार दिया जाता है जिसके कारण मुकदमे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार साबित नहीं हो सकते।

पुलिस की बर्बरता के उदाहरण

पूरे देश में पुलिस की बर्बरता के कई उदाहरण हैं। कुछ यहाँ नीचे दिए गए हैं:

  1. दो दुकानदार जयराज और बेनिक्स (पिता और पुत्र) अपनी दुकान पर मोबाइल बेच रहे थे। पुलिस ने उन्हें कोविड लॉकडाउन नियमों का पालन करने का आदेश दिया, जहां रात में दुकानें बंद होनी थीं। मना करने पर दोनों दुकानदारों को गिरफ्तार कर लिया। तीन दिनों के बाद, बेनिक्स को गंभीर चोटों के साथ अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसी दिन बेनिक्स की मृत्यु हो गई और अगली सुबह जयराज की भी मृत्यु हो गई।
  2. कस्तूरी अपने पति और बेटे के साथ तमिलनाडु में रह रही थी। 10 पुलिस कर्मियों ने उसके पति को बिना वारंट दिखाए जबरदस्ती उठा लिया। जब बेटे ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने बेटे को टक्कर मार दी और बेटा नीचे गिर गया। दो दिनों के बाद, उसे अंदर बुलाया गया और एक कोरे कागज पर हस्ताक्षर करने को कहा गया। बाद में, उसे अस्पताल ले जाया गया, कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि उसका पति बीमार पड़ गया था, लेकिन जब तक वह अस्पताल पहुंची तब तक उसका अंतिम संस्कार हो चुका था।
  3. विकास दुबे, एक गैंगस्टर को पुलिस की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जब उसे जेल ले जाया जा रहा था, जिस वाहन में उसे लाया जा रहा था, वह पलट गया और वह दुर्घटना का शिकार हो गया। पुलिस ने उल्लेख किया कि वाहन का टायर पंचर था और इसे ठीक करते समय दुबे ने बंदूक छीन ली और पुलिस पर गोली चलाने की कोशिश की। पुलिस को उसे गोली मारनी पड़ी क्योंकि उनके पास और कोई तरीका नहीं था। इस बात के संकेत मिले थे कि पूरी घटना पहले से ही सोची समझी थी और यह पुलिस की क्रूर हरकतों में से एक है।

पुलिस की बर्बरता को दर्शाने वाले आंकड़े

  1. अकेले उत्तर प्रदेश ने 2017 से 8,742 से अधिक एनकाउंटर देखे हैं।
  2. सीएनएन के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2005 से 2010 के बीच लगभग 600 हिरासत में हुई मौतों में से केवल 21 अधिकारियों को सजा का सामना करना पड़ा।
  3. गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक साल 2017 से 2022 के दौरान हिरासत में 669 लोगों की मौत हुई है।

पुलिस अधिकारियों के अधिकारों और शक्तियों से संबंधित महत्वपूर्ण प्रावधान

विभिन्न प्रावधान पुलिस के अधिकारों और शक्तियों के लिए प्रदान करते हैं, उनके अधिकार दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 और पुलिस अधिनियम, 1861 में प्रदान किए गए हैं।

सीआरपीसी, 1973

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 भारत में आपराधिक मुकदमों के नियमन (रेगुलेशन) की प्रक्रिया से संबंधित एक व्यापक प्रक्रियात्मक कानून है। सीआरपीसी के तहत, हमारे पास पुलिस के अधिकारों और शक्तियों से संबंधित विभिन्न प्रावधान हैं। वे निम्नलिखित हैं

  • धारा 41: यह धारा सीआरपीसी के अध्याय V (किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी) के अंतर्गत आती है और यह धारा उन उदाहरणों के बारे में बताती है जहां एक पुलिस अधिकारी बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है। इस धारा के तहत, एक पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को विश्वसनीय जानकारी पर आगे अपराध करने से रोकने के लिए या जब कोई व्यक्ति उसकी उपस्थिति में संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध करता है, को गिरफ्तार कर सकता है।
  • धारा 41A-D: ये धारा किसी व्यक्ति को पेश होने की सूचना, किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की प्रक्रिया, नियंत्रण कक्ष और सूचना की रिकॉर्डिंग से संबंधित हैं और 18 महीने के लिए रिकॉर्ड की गई जानकारी के भंडारण, पूछताछ के दौरान न कि पूरे पाठ्यक्रम के दौरान अपनी पसंद के अधिवक्ता से मिलने के लिए एक गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार, का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख करती हैं।
  • धारा 129, 130: धारा 129 और 130 सीआरपीसी के अध्याय X के अंतर्गत आती हैं, ये एक सक्षम व्यक्ति के आदेश पर नागरिक बल के उपयोग द्वारा सभा के फैलाव और सभा को तितर-बितर करने के लिए सशस्त्र बलों के उपयोग से संबंधित हैं।
  • धारा 151: यह धारा एक संज्ञेय अपराध को रोकने के लिए एक पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तारी से संबंधित है और हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उसकी हिरासत के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए।
  • धारा 154: यह धारा संज्ञेय मामलों में सूचना से संबंधित है। इस धारा के तहत, किसी भी मौखिक शिकायत को लिखित रूप में किया जाना चाहिए और यदि अपराध आईपीसी की धारा 354, और 376 के तहत आता है, तो दर्ज की जाने वाली जानकारी एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की जानी चाहिए।
  • धारा 161: यह धारा पुलिस द्वारा गवाहों के परीक्षण से संबंधित है जहां गवाह को पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे गए सभी सवालों का जवाब देना चाहिए। यह धारा यह भी कहती है कि आईपीसी की धारा 354, 376 के तहत आने वाले अपराध को केवल एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए।

साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत

  • धारा 25: धारा 25 के तहत, किसी पुलिस अधिकारी को दी गई कोई भी स्वीकारोक्ति अप्रासंगिक मानी जाती है और यह सबूत के तौर पर अस्वीकार्य होगी। नारायण राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1957) में, अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट के पद के बराबर के पुलिस अधिकारी के सामने की गई स्वीकारोक्ति को भी अस्वीकार्य माना जाएगा।
  • धारा 26: यह धारा कहती है कि किसी अधिकारी के सामने की गई कोई भी स्वीकारोक्ति अदालत में स्वीकार्य नहीं होगी, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में न की गई हो।
  • धारा 27: यह धारा कहती है कि यदि कोई अभियुक्त किसी तथ्य को स्वीकृत करता है, जिससे नए तथ्यों का पता चलता है, तो स्वीकारोक्ति को कानून की अदालत में स्वीकार्य माना जाएगा। दामोदर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019) में, माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 25 के तहत अस्वीकार्य की गई स्वीकारोक्ति, यदि नए तथ्यों की खोज की ओर ले जाती है, तो वह इस धारा के तहत स्वीकार्य होगी।
  • धारा 28: यह धारा निर्धारित करती है कि यदि की गई स्वीकारोक्ति धमकी, प्रलोभन या वादे के माध्यम से प्राप्त की गई थी, तब एक बार इसे पूरी तरह से हटा दिए जाने के बाद, स्वीकारोक्ति को न्यायालय के लिए प्रासंगिक माना जाएगा। अब्दुल रजाक शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1987) में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अगर धमकी या प्रलोभन की छाप पूरी तरह से हटा दी जाती है, तो इसे एक वैध स्वीकारोक्ति कहा जाएगा।

पुलिस अधिनियम, 1861

  • धारा 29: यह धारा हिरासत में किसी व्यक्ति पर पुलिस अधिकारियों द्वारा हिंसा के बारे में बात करती है, और अधिकारी तीन महीने तक के कारावास या दंड के लिए उत्तरदायी होगा।
  • धारा 31: यह धारा सार्वजनिक सड़कों/स्थानों पर शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक पुलिस अधिकारी के कर्तव्य के बारे में बताती है। पुलिस अधिकारी के आदेश की अवहेलना करने पर ₹200 तक का जुर्माना लगेगा।
  • धारा 34: यह धारा एक पुलिस अधिकारी को किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट के हिरासत में लेने का अधिकार देती है यदि वह आठ खंडों में वर्णित किसी भी कार्य को करता है। इन अपराधों में मवेशियों (कैटल) का वध करना, यात्रियों को बाधित करना, अभद्र प्रदर्शन करना, नशे में पाया जाना और दंगा करना शामिल है।
  • धारा 43: यह धारा मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित वारंट के तहत किए गए कार्यों की सुरक्षा करती है।

ये कानून पुलिस की प्रमुख शक्तियों और उनके कर्तव्यों का पालन करते हुए उनके अधिकारों का प्रावधान करते हैं। जहां कुछ अधिकार पुलिस को स्पष्ट अनिश्चितकालीन सुरक्षा देते हैं, वहीं कुछ कानून द्वारा दी गई सुरक्षा को कम भी कर देते हैं। पुलिस की क्रूरता को समझने के लिए सजा से संबंधित व्यक्ति के अधिकारों पर चर्चा करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

भारतीय संविधान के तहत किसी व्यक्ति को दिए गए अधिकार

भारत के संविधान के तहत एक व्यक्ति को विभिन्न अधिकार दिए गए हैं। गिरफ्तार व्यक्ति के लिए ये अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संविधान के तीन अनुच्छेद, किसी व्यक्ति के दोषसिद्धि आदि से संरक्षण के बारे में बोलते हैं, वे निम्नलिखित हैं:

अनुच्छेद 20

भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद अपराधों की सजा के संबंध में किसी व्यक्ति की सुरक्षा के बारे में बताता है। यह तीन अधिकारों के लिए प्रदान करता है, अर्थात्, कार्योत्तर (एक्स पोस्ट फैक्टो) कानून (जहां एक कार्य, जब किया जाता है, तब एक अपराध नहीं होता, लेकिन बाद में एक अपराध बन जाता है, तो व्यक्ति दंडित होने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा), दोहरा दंड (कोई भी व्यक्ति एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं होगा), आत्म दोषारोपण (सेल्फ इनक्रिमिनेशन) के खिलाफ अधिकार (किसी व्यक्ति को खुद के खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा)।

अनुच्छेद 21

भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, और इसमें विभिन्न अधिकार शामिल हैं जैसे कि निजता का अधिकार, मुफ्त कानूनी सहायता का अधिकार, सार्वजनिक फांसी के खिलाफ अधिकार, हथकड़ी लगाने के खिलाफ अधिकार, देरी से निष्पादन (एक्जिक्यूशन) के खिलाफ अधिकार, आदि। संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 को “स्वर्ण त्रिभुज” कहा जाता है। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भारत के नागरिकों को दिया गया एक महत्वपूर्ण अधिकार है। कोई भी व्यक्ति न्यायालय में कार्यवाही शुरू कर सकता है यदि उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होता है और वह उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।

रघबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1980) के मामले में अदालत ने कहा कि पुलिस अत्याचार समाज के संरक्षक द्वारा किया गया एक शर्मनाक कार्य है, और यह न केवल एक गलत कार्य है बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मानवाधिकारों में भी बाधा डालता है।

अनुच्छेद 22

भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद एक गिरफ्तार व्यक्ति या अभियुक्त जिसे निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) अधिनियम, 1950 के तहत गिरफ्तार किया गया था, के विभिन्न अधिकारों के बारे में बात करता है, अर्थात् गिरफ्तारी के आधार की सूचना देना, 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने का अधिकार, अपनी पसंद के वकील द्वारा बचाव का अधिकार, (उसे सक्षम न्यायालय की स्वीकृति के बिना 3 महीने से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जाएगा)।

पुलिस की बर्बरता और कानून का शासन 

कानून के शासन में कानून की सर्वोच्चता, कानून की समानता और कानून द्वारा समान सुरक्षा शामिल है। कानून का शासन कहता है कि कानून सर्वोच्च है, और कानून के उल्लंघन के अलावा किसी को भी दंडित नहीं किया जाएगा। उसे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार दंडित किया जाएगा, और एक पुलिस क्रूरता एक व्यक्ति के अधिकारों के खिलाफ एक कार्य है, और कानून का शासन किसी अभियुक्त पर आपराधिक बल के उपयोग की अनुमति नहीं देता है। पुलिस के क्रूर कार्य कानून द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया के अंतर्गत नहीं आते हैं।

किशोर सिंह रविंदर देव बनाम राजस्थान राज्य (1980) के मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के शब्दों में, “इस देश में कोई सर्वाधिकारी क्षेत्र नहीं है, यहाँ तक कि चारदीवारी वाली दुनिया जिसे हम जेल कहते हैं, के भीतर भी नहीं है। अनुच्छेद 14, 19 और 21 जेल के भीतर संचालित होते हैं। राज्य को पुलिसबल को उनकी क्रूरता भरी कलाओं को सही करने के लिए फिर से शिक्षित करना चाहिए और एक व्यक्ति के लिए एक सम्मान पैदा करना चाहिए, और यह प्रक्रिया एक प्रतिबोध (परसेप्ट) के बजाय उदाहरण से अधिक शुरू होनी चाहिए, यह मानवाधिकारों की परवाह किए बिना एक राज्य अधिकारी द्वारा क्रूरता से कार्य करने की तुलना में हमारी संवैधानिक संस्कृति पर गहरा घाव करता है।”

मानवाधिकार और पुलिस की बर्बरता

पुलिस को नागरिकों के आवश्यक रक्षक के रूप में जाना जाता है, लेकिन ऐसे हजारों मामले हैं जहां पुलिस अधिकारियों ने अपनी शक्ति का उल्लंघन किया और मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है। पुलिस को विभिन्न पक्षों द्वारा तत्काल लेकिन संतोषजनक परिणाम देने के लिए मजबूर किया जाता है जिसके कारण अधिकारी अपनी शक्ति से अधिक कार्य कर देते हैं और बदले में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। पुलिस की हिरासत में अभियुक्त पर एक पुलिस अधिकारी द्वारा क्रूर कार्य को बुराई माना जाता है क्योंकि पुलिस को मुख्य रूप से लोगों की रक्षा के लिए रखा जाता है। क्रूर कार्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किए गए जीवन के अधिकार के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

एक मामले में पुलिस की बर्बरता के अस्तित्व को साबित करना कठिन है, लेकिन यह देखा जा सकता है कि पुलिस की बर्बरता के पीड़ित ने अदालत में तर्क दिया कि उसके साथ बर्बरता की गई थी। तुका राम बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978), जिसे मथुरा बलात्कार कांड के रूप में भी जाना जाता है, के मामले में पुलिस बर्बरता (हिरासत में बलात्कार) का एक उदाहरण है, मामला साबित नहीं हो सका क्योंकि पीड़िता ने पुलिस कांस्टेबलों के यौन कार्यों का विरोध नहीं किया, और जब उसकी जांच की गई तो चोट के निशान नहीं मिले थे। अदालत ने कहा कि जब वह हिरासत में थी तब उसने यौन संबंध बनाए लेकिन यह आईपीसी, 1860  की धारा 376 के तहत बलात्कार के दायरे में नहीं आता है, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस कांस्टेबलों को बरी कर दिया। इस मामले ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण नियम को जन्म दिया कि महिलाओं को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले पुलिस थाने में नहीं बुलाया जा सकता है।

जैसा कि देश में हिरासत में हिंसा, बलात्कार और अन्य क्रूर कार्यों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना 12 अक्टूबर 1993 को मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत की गई थी। आयोग केवल एक सिफारिश और सलाहकार निकाय है जो याचिका दायर होने या स्वतः संज्ञान लेने के बाद किसी मुद्दे की जांच कर सकता है। अधिकारियों द्वारा किसी भी अवैध गतिविधि के मामले में एनएचआरसी अदालत का रुख कर सकता है। यदि मामले में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है तो यह न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप कर सकता है। समिति पुलिस पर निगरानी रखने वाली संस्था के रूप में कार्य करती है और पालन किए जाने वाले दिशानिर्देश जारी करती है।

एनएचआरसी की सिफारिशें

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पुलिस सुधारों पर विभिन्न सिफारिशें दी है। वे निम्नलिखित हैं

  • निष्पक्ष प्रशासन को सुरक्षित करने के लिए राजनीतिक दबावों से पुलिस अधिकारियों को अलग करना।
  • पुलिस की गुणवत्ता में सुधार सुनिश्चित करने के लिए राज्य स्तर पर पुलिस सुरक्षा और सत्यनिष्ठा (इंटीग्रिटी) आयोग (पीएसआईसी) नामक एक निकाय की स्थापना करना और उन मामलों का निपटान करना जहां अधिकारियों को वरिष्ठों द्वारा अवैध आदेशों के अधीन किया जाता है।
  • पुलिस अधिकारियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से संबंधित जनता की शिकायतों से निपटने के लिए “जिला पुलिस शिकायत प्राधिकरण (अथॉरिटी)” नामक एक नए गैर-सांविधिक निकाय का गठन करना।

क्या संवैधानिक अदालतें वास्तव में पुलिस की बर्बरता के बारे में कुछ नहीं कर सकतीं है

संवैधानिक अदालतें पुलिस की बर्बरता के बारे में बहुत कुछ कर सकती हैं। यहां कुछ उपाय दिए गए हैं जो न्यायालयों द्वारा पुलिस बर्बरता के मामलों को कम करने के लिए किए जा सकते हैं:

  • पुलिस थानों में कैमरे लगाना और कर्मियों की गुणवत्ता और शिकायतकर्ताओं के प्रति उनके व्यवहार की समीक्षा (रिव्यू) करने के लिए एक सक्षम प्राधिकारी को फुटेज पेश करना।
  • अदालतों के आदेश विफल होने पर, पुलिस अधिकारियों को या तो कारावास या ऐसे दंडित किया जाना चाहिए जो आदेश का पालन करने के लिए एक कर्तव्य पैदा करे।
  • कर्मियों को पुलिस थाने की एक डायरी रखनी चाहिए और डायरी की कॉपी हर 2 महीने में एक बार जिला शिकायत प्राधिकरण को प्रस्तुत की जानी चाहिए, ताकि उत्पादित फुटेज और उत्पादित डायरी की जांच की जा सके।
  • पुलिस की बर्बरता से समाज को बचाने के लिए शिकायतकर्ताओं से उनके प्रति पुलिस अधिकारी के कार्यों के बारे में पूछताछ की जानी चाहिए।
  • एक पुलिस अधिकारी के साथ व्यवहार करने वाले व्यक्ति के अधिकारों के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए एक सख्त प्रावधान होना चाहिए।
  • पुलिस को एक बॉडी कैम रखना चाहिए जिसे किसी अभियुक्त को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय बंद नहीं किया जा सकता है और बॉडी कैम के फुटेज को तब तक संरक्षित रखा जाना चाहिए जब तक कि अदालत द्वारा निर्णय नहीं लिया जाता है।

ऐतिहासिक मामले

रुदुल शाह बनाम बिहार राज्य (1983)

इस मामले में, अदालत द्वारा बरी किए जाने के बाद याचिकाकर्ता को 14 साल से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया था। याचिकाकर्ता ने अपने अवैध हिरासत के लिए मुआवजे की मांग की। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हिरासत पूरी तरह से अनुचित थी और बिहार सरकार को ₹30,000 और ₹5,000 की राशि का भुगतान करने का आदेश दिया।

जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1994)

इस मामले में तथ्य यह था कि याचिकाकर्ता, एक वकील, को पुलिस अधिकारियों द्वारा पूछताछ के लिए बुलाए जाने के बाद अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था। जब याचिकाकर्ता के परिवार के सदस्यों ने उसके ठिकाने के बारे में पूछताछ की, तो पुलिस ने उसके ठिकाने के बारे में झूठ बोला। अदालत ने माना कि हिरासत अवैध थी।

डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996)

डी.के. बसु, के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिरासत में हिंसा और पुलिस की बर्बरता को पहचाना। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “हिरासत में हिंसा एक व्यक्ति की गरिमा पर हमला है”। इस मामले में अदालत ने एक व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय पुलिस द्वारा पालन किए जाने वाले कई दिशा-निर्देश दिए।

  1. पुलिस कर्मियों को गिरफ्तारी या पूछताछ करते समय पदनाम के साथ नाम का टैग लगाना होता है।
  2. एक गिरफ्तारी मेमो तैयार किया जाना चाहिए और इसकी एक प्रति परिवार के किसी सदस्य या इलाके में किसी सम्मानित व्यक्ति द्वारा सत्यापित की जानी चाहिए। मेमो में गिरफ्तारी की तारीख और समय शामिल होना चाहिए और उस पर गिरफ्तार व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहिए।
  3. जहां, गिरफ्तारी के समय परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं है, तो वह गिरफ्तारी और हिरासत के स्थान के बारे में अपने मित्र, रिश्तेदार, या उसके हित में रुचि रखने वाले किसी अन्य व्यक्ति को सूचित करना चाहिए।
  4. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के बारे में किसी को सूचित करने के उसके अधिकार से अवगत कराया जाएगा।
  5. संबंधित पुलिस थाने की डायरी में एक प्रविष्टि (एंट्री) की जानी चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी की तारीख और समय, उसकी गिरफ्तारी की सूचना देने वाले व्यक्ति और गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में रखने वाले पुलिस अधिकारियों की सूची शामिल है।
  6. गिरफ्तारी के समय गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की सभी चोटों को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए और उस पर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति और पुलिस अधिकारी के हस्ताक्षर होने चाहिए।
  7. हिरासत के दौरान हर 48 घंटे में डॉक्टर द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की चिकित्सा जांच की जानी चाहिए।
  8. सभी दस्तावेजों की प्रतियां मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए।
  9. गिरफ्तारी की सूचना संबंधित जिले के पुलिस कंट्रोल रूम को 12 घंटे के अंदर दी जानी चाहिए।

प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ और अन्य (2006)

मौजूदा मामले में, याचिकाकर्ता प्रकाश सिंह, जिन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य में पुलिस महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) के रूप में सेवा की, ने अपनी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के बाद पुलिस सुधारों की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश द्वारा पालन किए जाने वाले अनिवार्य प्रावधान दिए हैं। वे निम्नलिखित हैं

  1. डीजीपी (पुलिस महानिदेशक), आईजी (पुलिस महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जनरल)) के पद के लिए एक निश्चित कार्यकाल।
  2. पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से बचाने के लिए अदालत ने पुलिस स्थापना बोर्ड (पीईबी) की स्थापना का निर्देश दिया, इस निकाय के पास पुलिस की पोस्टिंग और स्थानांतरण (ट्रांसफर) करने की शक्ति होगी।
  3. एक राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण (एसपीसीए) की स्थापना, जहां आम लोग पुलिस की सेवाओं के बारे में शिकायत कर सकते हैं, मंच से संपर्क कर सकते हैं।

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों का किसी भी राज्य द्वारा पूरी तरह से पालन नहीं किया गया था, लेकिन 18 राज्यों ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों की ओर बढ़ने के लिए अपने पुलिस कानूनों में संशोधन पारित किए है।

परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह और अन्य (2020)

इस मामले में, याचिकाकर्ताओं ने पुलिस थानों में क्लोज्ड सर्किट कैमरे लगाने के संबंध में जांच करने और निर्देश जारी करने के लिए अदालत से विशेष अनुमति याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को डी.के. बसु मामले और शफी मोहम्मद मामले में निगरानी के लिए कैमरे लगाने का निर्देश दिया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे आवश्यक नहीं बनाया गया था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कई नियमों और दिशानिर्देशों से युक्त आदेश दिए:

  1. जिला व राज्य स्तर पर निगरानी समिति गठित की जानी चाहिए।
  2. हर राज्य में राज्य मानवाधिकार आयोग की स्थापना की जाएगी। रिक्तियां उत्पन्न होने पर पदों को भरा जाना चाहिए।
  3. हर थाने में नाइट विजन और ऑडियो रिकॉर्डिंग क्षमता वाले निगरानी कैमरे होने चाहिए।
  4. सीसी कैमरों के स्थानों में सभी प्रवेश, निकास, मार्ग, लॉक-अप और अन्य सभी क्षेत्र शामिल होने चाहिए ताकि कोई भी क्षेत्र रह ना जाए।
  5. फुटेज को 18 महीने तक उपलब्ध रखा जाना चाहिए।
  6. इलाके के लोगो को थाने में सीसीटीवी की उपस्थिति के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, और पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जब वे पुलिस थाने में हों तो सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में होने का उल्लेख करने वाले पोस्टर होने चाहिए।
  7. आदेशों का पालन सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों के वित्तीय विभागों द्वारा उचित और पर्याप्त धनराशि का आवंटन किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

पुलिस की बर्बरता अधिकारियों द्वारा जघन्य (हिनियस) अपराधों में से एक है। संवैधानिक अदालतें पुलिस की बर्बरता के बारे में बहुत कुछ कर सकती हैं। न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्देशों का पुलिस द्वारा अनिवार्य रूप से पालन किया जाना चाहिए और ऐसा न करने पर, न्यायालयों को कठोर दंड और बर्खास्तगी लागू करनी चाहिए। क्रूर कार्यों को रोकने के लिए विधायिका को एक कानून पारित करना चाहिए, और केंद्र को एक अत्याचार विरोधी कानून पारित करना चाहिए। पुलिस की बर्बरता के मामले हर दिन बढ़ रहे हैं, और अत्याचार की कोई सीमा नहीं है जहां यह पिटाई से लेकर बलात्कार और मौत तक अवैध हिरासत तक बढ़ चुके है। विधायिका को इन अवैध घटनाओं को रोकने के लिए उपाय और निर्देश लाने चाहिए, और प्रत्येक पुलिस थाने को सीसीटीवी स्थापित करना चाहिए और एक पुलिस थाने में किए गए कानून को सत्यापित करने के लिए सभी रिकॉर्डिंग एक सक्षम प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए। एक प्राधिकरण होना चाहिए जो एक थाने के प्रभारी को उसके थाने में किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाता है। मौजूदा कानूनों की स्पष्ट समीक्षा होनी चाहिए, और भारत में कानून के शासन की रक्षा के लिए और नागरिकों को पुलिस की बर्बरता से बचाने के लिए एक गहरी जांच महत्वपूर्ण है।

संदर्भ

 

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