सीआरपीसी के तहत समीक्षा प्रक्रियाएं

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Criminal Procedure Code

यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से बीएएलएलबी की द्वितीय वर्ष की छात्रा Shivangi Tiwari द्वारा लिखा गया है। यह सीआरपीसी के तहत समीक्षा प्रक्रियाओं से संबंधित एक विस्तृत लेख है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

आपराधिक न्याय प्रणाली में शामिल प्रक्रियाएं इसमें शामिल लोगों के जीवन पर भारी प्रभाव डाल सकती हैं, खासकर वे अधिकार जो भारत के संविधान के तहत लोगों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देते हैं। यह एक प्रसिद्ध कहावत है कि “गलती करना इंसान का स्वभाव है” और न्यायपालिका मनुष्यों द्वारा बनाई गई संस्थाओं में से एक है, इसलिए इसमें गलतियाँ होने की संभावना रहती ही है। इसलिए, न्याय के दुर्वहन (मिसकैरिज) को रोकने के लिए जो न्यायिक प्रणाली के मूल उद्देश्य को विफल करता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रणाली बनाने की आवश्यकता है कि न्याय निष्पक्ष रूप से दिया जाए और जहां न्याय का दुर्वहन होता है, वहां कुछ सुधार किया जाए, क्योंकि एक तंत्र क्रियान्वित (रेक्टिफाइंग) होना चाहिए। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए न्यायिक प्रणाली की त्रुटि (फैलिबिलिटी) को रोकने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में विभिन्न प्रावधान तैयार किए गए हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 से धारा 394 अपील से संबंधित प्रावधानों से संबंधित है।

हालाँकि, असाधारण मामलों में अपील करने का कोई अधिकार व्यक्ति के पास नहीं है। ऐसी स्थिति को रोकने के लिए जिसमें पीड़ित पक्ष उपचार से वंचित न रह जाए, विधायकों (लेजिस्लेचर) ने दंड प्रक्रिया संहिता के तहत समीक्षा (रिव्यू) की अवधारणा को शामिल किया है, जिसे “संशोधन (अमेंडमेंट)” कहा जाता है, जिसे संपूर्ण न्यायिक प्रणाली जो न्याय प्रदान करती है उसके अंतिम लक्ष्य को बनाए रखने के लिए संहिता के तहत प्रदान किया गया है। संहिता की धारा 397 से धारा 405 में उच्च न्यायालयों को दिए गए पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र (रिविजनरी ज्यूरिस्डिक्शन) के संबंध में प्रावधान और वह प्रक्रिया शामिल है जिसके द्वारा उच्च न्यायालय इस गारंटीकृत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हैं। उच्च न्यायालयों को दी गई शक्तियाँ प्रकृति में बहुत व्यापक (वाइड) हैं और पूरी तरह से विवेकाधीन (डिस्क्रेशनरी) हैं।

व्यावहारिक रूप से (प्रॅक्टिकली), अपील का प्रावधान पक्षों को दिया गया एक कानूनी अधिकार है, आपराधिक न्यायालयों को दी गई पुनरीक्षण शक्ति प्रकृति में पूरी तरह से विवेकाधीन (डेस्क्रेशनरी) है और इसलिए कोई भी पक्ष इसे अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता है। आपराधिक मामलों में, विधायिका द्वारा आरोपी को कम से कम एक अपील की अनुमति दी जाती है, जबकि पुनरीक्षण के मामलों में ऐसा कोई अधिकार नहीं है। न्यायालयों ने बार-बार अपील और पुनरीक्षण के बीच अंतर पर चर्चा की है।

हरि शंकर बनाम राव गिरधरी लाल चौधरी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अपील और पुनरीक्षण में अंतर है। अपील के अधिकार में दोबारा सुनवाई का अधिकार भी शामिल है, जब तक कि अपील का अधिकार प्रदान करने वाला क़ानून किसी तरह से दोबारा सुनवाई को सीमित न कर दे। पुनरीक्षण सुनने की शक्ति आम तौर पर एक वरिष्ठ न्यायालय को दी जाती है ताकि वह खुद को संतुष्ट कर सके कि किसी विशेष मामले का फैसला कानून के अनुसार किया गया है।

उद्देश्य और दायरा 

दंड प्रक्रिया संहिता का अध्याय XXX दो महत्वपूर्ण न्यायक्षेत्रों से संबंधित है, जो हैं:

  • पुनर्निरीक्षण;
  • संदर्भ।

धारा 395 के तहत संदर्भ अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) का उपयोग मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की किसी भी न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। संहिता यह आवश्यक बनाती है कि संदर्भ अधिकार क्षेत्र केवल कानून के प्रश्न पर ही किया जा सकता है जिसमें किसी अधिनियम, प्रावधान की वैधता (वैलिडिटी) शामिल हो सकती है जो किसी मामले की सुनवाई के दौरान उत्पन्न हो सकती है।

दूसरी ओर धारा 397 के तहत पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र को नीचे बताए गए न्यायालयों में लागू किया जा सकता है:

  • उच्च न्यायालय; या
  • सत्र न्यायाधीश।

पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र के तहत, कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) न्यायालय से मामले का अभिलेख (रिकॉर्ड) मांग सकता है। संहिता की धारा 398 के अनुसार, पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का उद्देश्य उन मामलों को आगे की जांच के लिए बुलाना है जहां न्यायालय को पता चलता है कि पक्षों को निष्पक्ष रूप से न्याय नहीं मिला है। धारा 401 के अनुसार, यदि उच्च न्यायालय द्वारा स्वयं या अन्यथा रिकॉर्ड की कोई कार्यवाही उसके संज्ञान (नॉलेज) में आती है, तो उच्च न्यायालय को अपने विवेक से प्रदत्त शक्तियां धारा 307 के तहत सत्र न्यायालय को या धारा 386, धारा 389, धारा 390 और धारा 391 के तहत अपीलीय न्यायालय के पास की किसी भी शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार है। 

भारत में अन्य आपराधिक न्यायालयों पर उच्च न्यायालयों को जो अधिकार प्राप्त है, उसकी गारंटी न केवल दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा बल्कि भारत के संविधान द्वारा भी दी जाती है। अपीलीय अधिकार क्षेत्र के अलावा, अन्य न्यायालयों पर उच्च न्यायालयों के पास मौजूद अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 द्वारा उच्च न्यायालयों को दी गई अधीक्षण (सुपरिटेंडेंस) शक्ति की गारंटी है।

धारा 395 की उपधारा 1 के अनुसार, संदर्भ अधिकार क्षेत्र केवल सत्र न्यायालय या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के पास है। एक न्यायिक मजिस्ट्रेट को केवल धारा 395 की उपधारा 2 के तहत संदर्भ बनाने का अधिकार है। 

उच्च न्यायालय का संदर्भ

शाब्दिक अर्थ में ‘संदर्भ’ शब्द का अर्थ है किसी व्यक्ति के समक्ष कोई बात रखना जिससे उसे भेजी गई बात पर उसकी राय प्राप्त की जा सके। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 395 अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों को मामलों को उच्च न्यायालय में भेजने का अधिकार प्रदान करती है। इस धारा में यह प्रावधान है कि अधीनस्थ न्यायालयें संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालय से संपर्क कर सकती हैं जहां वे स्थित हैं और उन मामलों में अपनी राय प्राप्त करने के लिए किसी मामले को उच्च न्यायालय में संदर्भित (रेफर) कर सकती हैं जहां अधीनस्थ न्यायालयें संतुष्ट हैं कि विशेष मामले की उच्च न्यायपालिका द्वारा एक न्यायिक व्याख्या की आवश्यकता है। अधीनस्थ न्यायालयों के अधिकार का प्रयोग दो स्थितियों में किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं:

  1. जब अधिनियम, अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) या किसी विनियमन (रेगुलेशन) की वैधता प्रश्न में हो और न्यायालय को लगता है कि ऐसे अधिनियम, अध्यादेश या किसी विनियमन की वैधता संदिग्ध (डाउटफुल) है;
  2. जब किसी भी मामले में यहां कानून का कोई प्रश्न शामिल हो तो न्यायालय को लगता है कि उच्च न्यायालय की व्याख्या की आवश्यकता है।

धारा 395 के तहत संदर्भ के लिए पूर्वापेक्षाएँ

मामला न्यायालय के समक्ष लंबित (पेंडिंग) रहना चाहिए

यह महत्वपूर्ण है कि जिस मामले में किसी कानून की वैधता पर सवाल हो, उस पर निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए और उसे किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित रहना चाहिए। प्रावधान के तहत कार्यवाही के किसी विशिष्ट चरण का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है और इसलिए एक सामान्य नियम के रूप में, विचारणीय न्यायालय जब भी उचित समझे कार्यवाही के किसी भी चरण में इसे उच्च न्यायालय को संदर्भित कर सकता है। हालाँकि, जहां विचारणीय न्यायालय ने पहले ही किसी मामले का फैसला कर दिया है, तो वह मामले को उच्च न्यायालय में नहीं भेज सकता है और केवल मुकदमे के पक्ष ही पुनरीक्षण के माध्यम से उच्च न्यायालयों में जा सकते हैं।

मामले में आवश्यक रूप से कानून का प्रश्न शामिल होना चाहिए 

आम तौर पर विचारणीय न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह होता है कि क्या मुकदमे में आरोपी उस अपराध का दोषी है जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है। हालाँकि, कार्यवाही के दौरान, किसी भी कानून की वैधता का सवाल न्यायालय के सामने उठ सकता है जिसे न्यायालय संदर्भ के लिए उच्च न्यायालय में ले जा सकती है। उदाहरण के लिए मोहम्मद अल्ताफ मोहंद और अन्य बनाम सीबीआई और अन्य में सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम, 1958 की वैधता को चुनौती दी गई थी, जिसने सैन्य अधिकारियों को तलाशी और जब्ती की शक्ति दी थी और वर्तमान मामले में आरोपी सैन्य अधिकारी थे, जिन पर बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया गया था और इस पर दलील दी गई थी। याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया कि उक्त अधिनियम सैन्य अधिकारियों को अनावश्यक शक्तियां देता है।

जो कानून विचाराधीन है वह अधिनियम, अध्यादेश या विनियमन के रूप में होना चाहिए

प्रावधान विशेष रूप से यह अनिवार्य नहीं करता है कि कानून अनिवार्य रूप से एक प्राथमिक कानून होना चाहिए और यह एक अध्यादेश या एक प्रत्यायोजित (प्राइमरी) कानून भी हो सकता है जिसे इसके संदर्भ के लिए उच्च न्यायालय भेजा जा सकता है। दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में, परक्राम्य लिखत (नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट) (संशोधन) अधिनियम, 2015 की वैधता प्रश्न में थी और न्यायालयों को अध्यादेश द्वारा प्रदान की गई वैधता को चुनौती दी गई थी।

न्यायालयों को यह मानना ​​चाहिए कि विचाराधीन कानून अमान्य है

जो न्यायालय मामले की सुनवाई कर रही है उसके पास यह विश्वास करने का पर्याप्त कारण होना चाहिए कि जिस कानून पर सवाल है वह किसी भी कारण से अमान्य है जो कि किसी भी प्रावधान का उल्लंघन हो सकता है। संविधान मनमाना है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

उच्च न्यायालय द्वारा संदर्भ एवं संदर्भ के बाद की प्रक्रिया

उच्च न्यायालय का संदर्भ

उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा किए जा सकने वाले संदर्भ के संबंध में प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 395 (1) के तहत निहित हैं और यह उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ न्यायालयों को अपने समक्ष लंबित किसी भी मामले को उच्च न्यायालयों में संदर्भित करने का अधिकार देता है, जिसमें अधिनियम, अध्यादेश, विनियमन या किसी प्रावधान की वैधता के संबंध में कानून का एक महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल है जो न्यायालय की राय में निष्क्रिय होना चाहिए। ‘विनियमन’ शब्द का प्रयोग उस अर्थ में किया जाता है जिसमें 1897 के अधिनियम का सामान्य खंड इसे परिभाषित करता है;

  • धारा 395 की उपधारा 2 में यह प्रावधान है कि किसी भी मामले में अधीनस्थ न्यायालय धारा 395 की उपधारा 1 के अंतर्गत नहीं आता है, तो अधीनस्थ न्यायालयें पहले उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों का उल्लेख करेंगी जहा न्यायालय धारा 395 की उपधारा 2 के तहत एक संदर्भ बनाती है;
  • धारा 395 की उपधारा 3 में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय जो धारा की उपधारा 1 और 2 के तहत संदर्भ देती है, इस बीच या तो आरोपी को जेल भेज देगी, उसे जमानत पर रिहा कर देगी और जब न्यायालय कार्यवाही कर रही हो तो उसे वापस बुला सकती है। महेश चंद बनाम राजस्थान राज्य के मामले में, उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय ने एक जमानत आवेदन (एप्लीकेशन) के बारे में उच्च न्यायालय को संदर्भ दिया था। जिस समय संदर्भ दिया गया था तब तक उसका निपटारा हो चुका था और इसलिए, उच्च न्यायालय ने उस पर विचार करने से इनकार कर दिया था, क्योंकी उस समय कोई भी संदर्भ का कोई मामला न्यायालय के समक्ष लंबित नहीं था और इसलिए, उस मामले के लिए कोई संदर्भ नहीं दिया जा सकता था जिसका निपटारा पहले ही किया जा चुका है।

संदर्भ के बाद की प्रक्रिया

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 396 संदर्भ के बाद की प्रक्रिया के बारे में बात करती है यानी, वह प्रक्रिया जिसका पालन अधीनस्थ न्यायालय को करना होता है जिसने किसी भी मामले को उच्च न्यायालय में भेजा है जिसमें अधिनियम, अध्यादेश, विनियमन की वैधता के संबंध में कानून का एक महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल है या कोई भी प्रावधान जो न्यायालय की राय में इस कारण से निष्क्रिय होना चाहिए कि वह कुछ कारणों से अमान्य है। धारा में यह प्रावधान है कि, जिस उच्च न्यायालय को कोई मामला भेजा गया था, जब वह उचित समझे तो निर्णय या आदेश पारित करता है, तो उच्च न्यायालय द्वारा पारित ऐसे निर्णय या आदेश की प्रत (कॉपी) उस न्यायालय को भेजी जानी चाहिए जिसने इसे संदर्भित किया है। उच्च न्यायालय एवं अधीनस्थ न्यायालय को निर्णय या जजमेंट की प्रत प्राप्त होने पर उसके अनुरूप मामले का निस्तारण करना चाहिए।

पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र

शब्दकोश में “संशोधन” का अर्थ है किसी चीज़ में मौजूद गलतियों का पता लगाना और उन्हें सुधारने के लिए उसे संशोधित या समीक्षा करना। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 399 और धारा 401 क्रमशः सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है। संहिता की धारा 399 में कहा गया है कि पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र धारा 401 के तहत उच्च न्यायालय के समान ही है। पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र उच्च न्यायालयों की निचली न्यायालयों से उन मामलों के अभिलेख मांगने की शक्ति है जिनका निर्णय निचली न्यायालयों द्वारा पहले ही कर दिया गया है। पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र के उद्देश्य इस प्रकार हैं:

  • उच्च न्यायालय इस बात की जाँच कर सकते हैं कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा कानूनी सिद्धांतों, प्रक्रियाओं और अधिकार क्षेत्र का विधिवत पालन किया जाता है या नहीं।
  • निचली न्यायालयों को उनके प्राधिकार (अथॉरिटी) की सीमा में रखना तथा उनसे कानून के अनुसार कार्य कराना।

पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिए आवश्यक बातें

पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए आवश्यक बातें इस प्रकार हैं:

मामले का अभिलेख मंगाना 

पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिए सबसे बुनियादी घटक यह है कि न्यायालय को उन मामलों के रिकॉर्ड मांगना चाहिए जो पहले से ही उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा तय किए गए हैं। किसी भी मामले के रिकॉर्ड में प्राथमिकी (एफआईआर), आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत गवाहों द्वारा दिए गए बयान, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत दर्ज कोई भी बयान, गवाह द्वारा न्यायालय के समक्ष दिया गया शपथ पत्र, अन्य दस्तावेज होता है जिसे अभिलेख में लाया जाता है, यह सब उसमे शामिल होता है जहा अंत में  न्यायालय के फैसले की प्रमाणित प्रत (सर्टिफाइड कॉपी) दी जाती है जिसके फैसले पर पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जाता है;

न्यायालय के फैसले पर पक्षों का असंतोष 

अपील की तरह, फैसले में संशोधन मुकदमे के उन पक्षों में से किसी एक द्वारा लाया जा सकता है जो न्यायालय के फैसले और निष्कर्षों से असंतुष्ट होता हैं। हालाँकि, पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाला न्यायालय निर्णय को उसकी योग्यता के आधार पर संशोधित नहीं कर सकता है और केवल निर्णय के प्रक्रियात्मक पहलू को संशोधित कर सकता है।

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को दिया गया बयान

आम तौर पर, न्यायालय में दिए गए बयान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 और 162 के तहत दर्ज किए जाते हैं। धारा 161 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (संक्षेप में ‘सीआरपीसी’ के लिए) जिसका शीर्षक है “पुलिस द्वारा गवाहों की जांच” किसी भी जांच अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति की मौखिक परीक्षा का प्रावधान करती है, जब ऐसे व्यक्ति को तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित होना चाहिए। मामले का सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज किए गए पुलिस बयान का उद्देश्य और तरीका किसी भी मुकदमे में इस्तेमाल किया जा सकता है, यह सीआरपीसी की धारा 162 में दर्शाया गया है। अभियुक्तों (एक्यूज्ड) और गवाहों के बयान संहिता की धारा 164 के तहत दर्ज किए जाते हैं। संहिता की धारा 164 की उपधारा 1 में कहा गया है कि एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट जांच के दौरान आरोपी या गवाह द्वारा उसके सामने दिए गए कबूलनामे (कन्फेशन) और बयानों को अभिलिखित कर सकता है। इसमें यह भी प्रावधान है कि यह आवश्यक नहीं है कि कबूलनामे और बयान दर्ज करने वाले मजिस्ट्रेट के पास मामले में अधिकार क्षेत्र हो। न्यायिक मजिस्ट्रेट को ऐसे बयान देने वाले व्यक्ति को शपथ दिलाने का भी अधिकार है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164(5) के तहत कबूलनामे के अलावा अन्य बयान भी दर्ज किया जा सकता है जो उसकी राय में मामले की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हो।

दंड प्रक्रिया संहिता में ‘बयान’ शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन संहिता के तहत ‘बयान’ शब्द का अर्थ उन बयानों से है जो गवाह द्वारा स्वयं लिखे गए हैं या गवाह द्वारा दिए गए बयान हैं जो गवाह के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखे गए हैं। संहिता की धारा 164 के तहत दर्ज किया गया शब्द ‘बयान’ गवाह द्वारा दिए गए पिछले बयान या अभियुक्त के बयानों को संदर्भित करता है जो कि स्वीकारोक्ति नहीं है। धारा 164 के तहत बयान दर्ज करने के प्रावधान को शामिल करने का उद्देश्य दो गुना है, जो इस प्रकार हैं:

  • गवाहों को बाद में अपने बयान बदलने से रोकने के लिए;
  • संहिता की धारा 162 के तहत गवाहों द्वारा दी गई जानकारी के संबंध में अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) से छूट को दूर करने के लिए।

जांच का आदेश देने की शक्ति

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को स्वयं जांच करने का निर्देश देने या अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को धारा 203 के तहत खारिज की गई किसी भी शिकायत की आगे की जांच करने का निर्देश देने का अधिकार देती है (यदि शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ पर दिए गए बयानों पर विचार करने के बाद मजिस्ट्रेट की राय है कि सीआरपीसी की धारा 202 के तहत की गई जांच से पता चलता है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, वह कार्यवाही को खारिज कर सकता है) या धारा 204(4) (जब किसी कानून के तहत किसी लागू प्रक्रिया-शुल्क के भुगतान का प्रावधान है तो ऐसे शुल्क का भुगतान करने में विफलता के परिणामस्वरूप मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत खारिज कर दी जा सकती है) या कोई भी मामला जिसमें किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को आरोपमुक्त कर दिया गया हो या बरी कर दिया गया हो। इस धारा में आगे प्रावधान है कि संहिता की धारा 397 के तहत न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का प्रयोग न्यायालयें धारा के तहत उल्लिखित किसी भी व्यक्ति को उस व्यक्ति के किसी भी मामले की जांच करने का निर्देश देने के लिए नहीं कर सकती है, जहां मामले को बरी कर दिया गया है, जब तक कि उस व्यक्ति को यह साबित करने का अवसर प्रदान किया गया न हो कि मामले को ख़ारिज क्यों नहीं किया जाना चाहिए। 

सत्र न्यायाधीश की पुनरीक्षण की शक्तियाँ

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 399 सत्र न्यायाधीश को पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है। यह धारा उच्च न्यायालय के पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र को सत्र न्यायालय के पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र के साथ व्यापक बनाती है। 

  • धारा 399 की उपधारा 1 में कहा गया है कि जिन मामलों में सत्र न्यायाधीश द्वारा कार्यवाही का अभिलेख मांगा गया है, सत्र न्यायाधीश के पास उच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली समान शक्तियां हैं जो उसे संहिता की धारा 401 द्वारा प्रदान की जाती हैं;
  • धारा 399 की उपधारा 2 में कहा गया है कि धारा 401 की उपधारा 2, 3, 4 और 5 के प्रावधान उन मामलों में लागू होंगे जहां सत्र न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण कार्यवाही शुरू हो गई है और उपधारा के तहत जो संदर्भ उच्च न्यायालय को दिए गए हैं उन्हें सत्र न्यायाधीश को दिए गए संदर्भ के रूप में समझा जाएगा;
  • धारा 399 की उपधारा 3 किसी पीड़ित पक्ष को पुनरीक्षण याचिका दायर करने के लिए न्यायालयों में जाने के अवसर को यह प्रदान करके सीमित करती है कि जहां पुनरीक्षण कार्यवाही सत्र न्यायाधीश के समक्ष चल रही थी और उनके द्वारा निर्णय सुनाया गया है, तब न्यायाधीश द्वारा दिया गया निर्णय अंतिम होगा और पुनरीक्षण याचिका दायर करने वाला व्यक्ति उच्च न्यायालय या देश की किसी अन्य न्यायालय के समक्ष इसी तरह की याचिका दायर करने का अधिकार खो देगा।

अतिरिक्त (एडिशनल) सत्र न्यायाधीश की पुनरीक्षण की शक्तियाँ

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 400 में प्रावधान है कि एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के पास सत्र न्यायाधीश के समान पुनरीक्षण शक्तियां होती हैं, जिनका उल्लेख उन मामलों में संहिता के तहत किया जाता है, जिन्हें सत्र न्यायाधीश द्वारा किसी सामान्य या विशेष आदेश के तहत उन्हें हस्तांतरित किया जा सकता है। 

मेट्रोपॉलिटन जज का बयान

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 के अनुसार, जब उच्च न्यायालय द्वारा मेट्रोपॉलिटन जज से किसी मामले का अभिलेख मांगा जाता है, तो मेट्रोपॉलिटन जज को अभिलेख के साथ एक बयान प्रस्तुत करना चाहिए जिसमें उन आधारों को बताया जाए जिन पर आक्षेपित (ऑब्जेक्शन) आदेश या निर्णय दिया या लिया गया है। उच्च न्यायालय निर्णय को रद्द करने या खारिज करने का निर्णय सुनाते समय मेट्रोपॉलिटन न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत बयान द्वारा प्रदान किए गए निर्णय के कारण को ध्यान में रखेगा। 

उच्च न्यायालयों को पुनरीक्षण की शक्तियाँ

दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार अपील करने का अधिकार केवल उन विशिष्ट मामलों तक ही सीमित है जिनका उल्लेख संहिता के तहत किया गया है। उन निर्दिष्ट मामलों में भी, संहिता द्वारा केवल एक अपील की अनुमति है और अपीलीय न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की समीक्षा सामान्य परिस्थितियों में उच्च न्यायालय में आगे अपील के अधीन नहीं की जा सकती है। न्याय के विफलता को रोकने के लिए संहिता ने संशोधन की प्रक्रिया तैयार की है। उच्च न्यायालयों के पास समीक्षा की शक्ति को विनियमित करने की प्रक्रिया से संबंधित प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 से धारा 405 के तहत निहित हैं। उच्च न्यायपालिका के पास पुनरीक्षण की शक्ति बहुत व्यापक है और पूरी तरह से विवेकाधीन है। इसलिए कोई भी पक्ष पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय के समक्ष सुनवाई के अधिकार के मामले के रूप में इसका दावा नहीं कर सकता है।

संहिता द्वारा प्रदत्त पुनरीक्षण शक्तियाँ पर्याप्त व्यापक हैं लेकिन असाधारण परिस्थितियों में उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। असाधारण परिस्थितियाँ इस प्रकार हैं:

  • ऐसे मामलों में जहां अपील हो सकती है लेकिन पक्ष द्वारा कोई अपील नहीं की गई है। उस व्यक्ति की ओर से कोई पुनरीक्षण कार्यवाही पर विचार नहीं किया जाएगा जो अपील के लिए याचिका ला सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया;
  • जब किसी अपील, पूछताछ या मुकदमे में अंतरिम आदेश पारित किए जाते हैं;
  • जो न्यायालय अपने पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर रही है, उसके पास बरी करने के निर्णय को दोषसिद्धि के निर्णय में बदलने की शक्ति नहीं है;
  • एक व्यक्ति किसी भी सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण के लिए केवल एक आवेदन दायर करने का हकदार है और एक बार जब कोई व्यक्ति पुनरीक्षण के लिए आवेदन दायर कर देता है तो वह किसी भी न्यायालय में कोई अन्य आवेदन दायर नहीं कर सकता है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 से धारा 401 तक उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है।

उच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग की गई शक्ति

धारा 401 भारत के क्षेत्र में उच्च न्यायालयों को पुनरीक्षण शक्तियाँ प्रदान करती है। पुनरीक्षण शक्ति न्यायालयों द्वारा न्याय प्रदान करने में की गई त्रुटियों को सुधारने के लिए प्रक्रियात्मक तंत्र (प्रोसीजरल सिस्टम) है। उच्च न्यायालयों की पुनरीक्षण शक्ति बहुत व्यापक है और इसका प्रयोग असाधारण मामलों में किया जा सकता है जहां न्याय पूर्ण रूप से विफल हो जाता है।

अपील की याचिका के रूप में पुनरीक्षण के आवेदन का उपचार

संहिता की धारा 401 उच्च न्यायालयों को अपीलीय न्यायालय की शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार देती है। असाधारण परिस्थितियों में न्याय की गड़बड़ी को रोकने के लिए उच्च न्यायालयों के अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग केवल असाधारण मामलों में ही किया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 उच्च न्यायालयों को अपीलीय शक्ति की गारंटी देती है। सीआरपीसी की धारा 386 के तहत अपीलीय शक्ति का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय के पास बरी करने के आदेश को पलटने की पूरी शक्ति है और यदि आरोपी दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें कानून के अनुसार सजा सुनाई जा सकती है। संहिता की धारा 386 यह स्पष्ट करती है कि पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का उद्देश्य उस व्यक्ति को संतुष्ट करना है कि उसे उस न्यायालय द्वारा दिए गए निष्कर्षों, सजा, आदेश या निर्णय की वैधता, शुद्धता और औचित्य के अनुसार न्याय मिला है जिसके खिलाफ वह उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका दायर करता है। 

पुनरीक्षण मामलों को वापस लेने या स्थानांतरित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति

संयुक्त मुकदमे के मामले में, यदि एक आरोपी उच्च न्यायालय में जाता है, जबकि दूसरा आरोपी पुनरीक्षण याचिका दायर करने के लिए सत्र न्यायालय में जाता है, तो उच्च न्यायालय के पास यह निर्णय लेने का अधिकार होगा कि किस न्यायालय को मामले पर विचार करना चाहिए। न्यायालय यह निर्णय पक्षकारों की सामान्य सुविधा और न्यायालय में आने वाले मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए लेती है। यदि उच्च न्यायालय सत्र न्यायाधीश को मामले का फैसला करने देने का फैसला करता है और सत्र न्यायाधीश मामले का निपटारा कर देता है तो जो पक्ष पुनरीक्षण याचिका के साथ न्यायालय में गया, वह संहिता की धारा 397(3) के प्रावधानों के अनुसार किसी अन्य न्यायालय में मामले के पुनरीक्षण के लिए याचिका दायर करने के लिए किसी अन्य न्यायालय में जाने का अधिकार खो देगा।

उच्च न्यायालय के आदेश को निचली न्यायालय में प्रमाणित कराया जाएगा

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 405 के अनुसार, जब कोई उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश किसी पुनरीक्षण याचिका पर निर्णय देता है, फिर उसे मामले के तहत दिए गए फैसले या आदेश को संहिता की धारा 388 के तहत उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार उस न्यायालय को प्रमाणित करना होगा जिसने वह फैसला सुनाया था और जिसके खिलाफ अपील की गई थी।

संदर्भ और पुनरीक्षण के बीच अंतर

नीचे दी गई तालिका (टेबल) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत उल्लिखित संदर्भ और संशोधन के अंतर और विभिन्न बारीकियों को संक्षेप में समझाने का प्रयास करती है:

संदर्भ पुनरीक्षण 
संदर्भ दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XXX की धारा 395 और धारा 396 के अंतर्गत आता है। पुनरीक्षण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 से धारा 402 के अंतर्गत आता है।
संदर्भ उच्च न्यायालयों में कानून के प्रश्न पर हो सकता है। जिन मामलों पर न्यायालयें पहले ही फैसला कर चुकी हैं, उन पर निचली या ऊंची न्यायालयों में संशोधन हो सकता है।
मामले का संदर्भ तभी दिया जा सकता है जब मामला अभी भी लंबित हो या न्यायालय में विचाराधीन हो। न्यायालय द्वारा अंतिम निर्णय, आदेश या डिक्री पारित होने के बाद ही संशोधन किया जा सकता है। 
संदर्भ देने का उद्देश्य उन कानूनों, विनियमों या अध्यादेशों पर उच्च न्यायपालिका से परामर्श (कंसल्ट) करना है, जिन्हें न्यायालय किसी भी उचित आधार पर अमान्य मानता है। पुनरीक्षण का उद्देश्य निचली न्यायालयों द्वारा की गई किसी भी त्रुटि की समीक्षा, परिवर्तन और संशोधन करना है। 
निचली न्यायालयों द्वारा उच्च न्यायालयों में संदर्भ शुरू किया जाता है। पुनरीक्षण या तो विचारणीय न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय द्वारा शुरू किया जा सकता है।

निष्कर्ष

अपील की प्रक्रिया किसी व्यक्ति को न्याय पाने के लिए न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने और किसी भी तथ्यात्मक या कानूनी त्रुटि को न्यायालय से प्रमाणित कराने का अधिकार देती है। हालाँकि, किसी भी आपराधिक न्यायालय द्वारा पारित केवल उन निर्णयों, आदेशों या निर्णय के खिलाफ अपील न्यायालय के समक्ष लाई जा सकती है जिनका विशेष रूप से क़ानून के तहत उल्लेख किया गया है। इस प्रकार, अपील करने का अधिकार केवल आपराधिक प्रक्रिया संहिता या लागू किसी अन्य कानून की सीमा के भीतर ही प्रयोग किया जा सकता है और इसलिए, यह उस न्यायालय पर विवेकाधीन है जिसके पास अपील किया गया है और यहां अधिकार के मामले के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है। कुछ मामलों में किसी भी अपील की अनुमति नहीं है, इसलिए वास्तव में, आपराधिक न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय, या आदेश, या सजा अंतिम हो जाएगी।

उच्च न्यायालयों को गारंटीकृत पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र काफी व्यापक है और उच्च न्यायालयों को इस संबंध में व्यापक शक्तियाँ दी गई हैं। यह कहना अतिशयोक्ति (सुपरलेटिव) नहीं होगी कि इस शक्ति के माध्यम से किसी भी प्रकार का न्यायिक अन्याय व्याप्त (परमिट) नहीं हो सकता। विभिन्न निर्णयों में यह माना गया है कि उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण के मामलों से निपटने के दौरान अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति है। ये अंतर्निहित शक्तियाँ वास्तविक और प्रक्रियात्मक दोनों मामलों पर लागू होती हैं। हालाँकि, यह केवल कानून के प्रश्न से निपट सकता है और किसी भी सबूत की दोबारा जांच नहीं कर सकता है।

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