डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी और फंडामेंटल राइट्स के बीच संबंध

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Constitution of India
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यह लेख बनस्थली विद्यापीठ, जयपुर की Shreya Tripathi द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत के संविधान के तहत विभिन्न प्रसिद्ध केस लॉज के साथ फंडामेंटल राइट्स और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी के बीच संबंध की व्याख्या (एक्सप्लेन) करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

भारत के संविधान को दुनिया के किसी भी संप्रभु (सोवरेन) राष्ट्र का सबसे लंबा लिखित संविधान माना जाता है। शुरुआत में इसमें 22 भाग में 395 आर्टिकल्स और 8 शेड्यूल्स थे और वर्तमान में इसकी एक पप्रिएंबल, 12 शेड्यूल्स के साथ 25 भाग, 5 एपेंडिसेस, 101 एमेंडमेंट और 448 आर्टिकल हैं। 26 जनवरी को हर साल गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। संविधान के महत्व को 67 साल बाद लागू किया गया और बाद में इसमें 101 बार अमेंडमेंट भी किए गए है।

फंडामेंटल राइट्स और डीपीएसपी क्या हैं?

फंडामेंटल राइट्स और डीपीएसपी भारत के संविधान में है, और इसमें एक व्यक्ति के मानवाधिकार (ह्यूमन राइट्स) शामिल हैं। संविधान फंडामेंटल राइट्स को एक विचार के रूप में व्यक्त (एक्सप्रेस) करता है जो 1928 में ही भारत में प्रकट हुआ था। 1928 की मोतीलाल कमिटी की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से व्यक्ति को दिए जाने वाले अमेरिकी संविधान में निहित (एनश्राइन) अधिकारों के बिल से प्राप्त अक्षम्य (इनेलिनेबल) अधिकारों को दर्शाती है। इन अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग III में संरक्षित (प्रिजर्व) किया गया था।

फंडामेंटल राइट्स को अन्तर्निहित (इन्हेरेंट) अधिकार भी कहा जाता है क्योंकि वे जन्म से प्रत्येक व्यक्ति में निहित होते हैं। ये वे अधिकार हैं जो किसी व्यक्ति को जीवित रहने के उद्देश्य से कुछ बुनियादी (बेसिक) अधिकार प्रदान करते हैं। धर्म, जाति, नस्ल (रेस) आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है और यदि किसी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि उसके फंडामेंटल राइट्स का हनन (इनफ्रिंज) हो रहा है तो वह निश्चित रूप से अपने अधिकारों के उल्लंघन के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है।

भारत के संविधान के तहत 6 फंडामेंटल राइट्स का उल्लेख किया गया है-

  • समानता का अधिकार

स्वतंत्रता कानून प्रकृति में सर्वोच्च (सुप्रीम) है और कानून के समक्ष सभी समान हैं और सभी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। नस्ल, जाति, पंथ (क्रीड) या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। रोजगार के क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर दिया जाना चाहिए। अस्पृश्यता (अनटचैबिलिटी) और उपाधियों (टाइटल्स) का एवोलिशन होना चाहिए।

  • स्वतंत्रता का अधिकार

प्रत्येक व्यक्ति को एक एसोसिएशन बनाने, शांति से इकट्ठा होने, यात्रा करने या स्वतंत्र रूप से किसी भी स्थान पर रहने और बसने (सेटल) और भारत के पूरे क्षेत्र में किसी भी पेशे (प्रोफेशन) में जाने या चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार है। शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा (डिग्निटी) का अधिकार भी इस अधिकार के अंदर आता है, गिरफ्तारी और नजरबंदी (डिटेंशन) के संबंध में सुरक्षा और अपराध की सजा भी इसमें शामिल है।

  • एक्सप्लॉयटेशन के खिलाफ अधिकार

बाल श्रम (लेबर) और मानव तस्करी (ट्रैफिकिंग) और जबरन श्रम (फोर्स्ड लेबर) का प्रोहिबिशन इसी अधिकार का परिणाम है।

  • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

यह अधिकार हमें बिना किसी प्रश्नचिह्न के किसी भी धर्म का पालन करने और किसी धार्मिक संस्थान (इंस्टीट्यूशन) या शिक्षा केंद्र में किसी भी धार्मिक समारोह (सेरेमनी) में भाग लेने और धर्म के प्रचार (प्रोमोशन) के लिए टैक्स का भुगतान करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को बाध्य नहीं कर सकता जो धार्मिक उद्देश्यों के लिए किसी भी प्रकार के टैक्स का भुगतान करने में रूचि नहीं रखता है।

  • सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (कल्चरल एंड एज्यूकेशनल राईट)

यह भारत में मौजूद विभिन्न भाषाओं और संस्कृति की वैराइटीज को सुरक्षा प्रदान करता है। यह अल्पसंख्यकों (माइनोरिटीज) के अधिकारों और संस्कृति की भी रक्षा करता है। 14 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक बच्चे के लिए शैक्षणिक संस्थान और प्राथमिक (प्राइमरी) शिक्षा की स्थापना (एस्टेब्लिश) इस शीर्ष (हेड) के अंदर आती है।

  • संवैधानिक उपचार प्राप्त करने का अधिकार (राइट्स टू सीक कांस्टीट्यूशनल रेमेडीज)

एक व्यक्ति को किसी भी कोर्ट में जाने का अधिकार है यदि उन्हें लगता है कि फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन किया जा रहा है। हमारे संविधान में 5 रिट शामिल हैं। यहाँ रिट का अर्थ है “कोर्ट का आदेश” है। यदि केवल फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन किया जाता है तो व्यक्ति सीधे भारत के सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है। रिट्स को नीचे समझाया गया है:

1. हैबियस कॉर्पस

इसका सीधा सा मतलब ‘शरीर प्रस्तुत करना (प्रोड्यूस द बॉडी)’ है। यह रिट एक ऐसे व्यक्ति को पेश करने के लिए जारी की जाती है जिसे हिरासत में लिया गया है और ऐसी हिरासत अवैध है तो उसे कोर्ट के सामने पेश करने के लिए जारी की जाती है। 

2. मैनडेमस

इसका अर्थ ‘हम आज्ञा देते हैं (वी कमांड)’ है। यह एक सार्वजनिक कर्तव्य (ड्यूटी) करने के लिए सुपीरियर कोर्ट द्वारा इंफिरियर कोर्ट को दिया गया आदेश है।

3. प्रोहिबिशन

इसे मूल रूप से स्टे ऑर्डर के रूप में जाना जाता है जो प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा कुछ कार्यों को करने से रोकता है जहां मामले से निपटने का कोई अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) नहीं है।

4. सर्टियोररी

इसका मतलब ‘प्रमाणित होना (टू बी सर्टिफाइड)’ है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस आदेश को रद्द करने के लिए जारी किया जा सकता है जो पहले से ही किसी भी इंफिरियर कोर्ट, ट्रिब्यूनल या प्राधिकरण द्वारा पास किया गया है।

5. क्यू-वारंटो

इसका मतलब ‘किस प्राधिकरण द्वारा (बाय व्हाट अथॉरिटी)?’ है। यह एक व्यक्ति को जिसका वह हकदार नहीं है वो सार्वजनिक पद धारण करने से रोकने के लिए जारी किया गया एक रिट है।

डीपीएसपी की अवधारणा आयरिश संविधान के आर्टिकल 45 से उभरी है। डीपीएसपी, स्टेट पर न केवल व्यक्ति के फंडामेंटल राइट  की रक्षा और स्वीकार करने के लिए बल्कि सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक कर्तव्य लगाता है। डीपीएसपी भारत के भारतीय संविधान के भाग IV में दिए गए हैं।

समाज की सुरक्षा के लिए उन पर काम करने के लिए राज्य प्राधिकरण के लिए कुछ दिशानिर्देश मौजूद हैं। यह ज्यादातर समाज के कल्याण (वेल्फेयर) और सुधार पर पूरी तरह से केंद्रित है। चूंकि फंडामेंटल राइट  कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य हैं, इसलिए डीपीएसपी को कोई नियम, पॉलिसी या दिशानिर्देश बनाने के लिए लागू नहीं किया जा सकता है।

डीपीएसपी के कुछ उदाहरण हैं:

  1. शिक्षा का अधिकार
  2. मातृत्व (मैटरनिटी) लाभ
  3. यूनिफॉर्म सिविल कोड
  4. उचित पोषण (न्यूट्रीशन) वाला भोजन उपलब्ध कराना
  5. आजीविका (लाइवलीहुड) के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना

हालांकि, फंडामेंटल राइट्स और डीपीएसपी के संबंध के बारे में संविधान में पहले से ही यह एक विवादास्पद (कॉन्ट्रोवर्शियल) विषय है, क्योंकि सूक्ष्म स्तर (माइक्रो लेवल) पर व्यक्ति के हित (इंटरेस्ट) में और मैक्रो स्तर पर समुदाय (कम्युनिटी) के लाभ में संघर्ष (कॉन्फ्लिक्ट) होगा।

इस विवाद का केंद्रीय भाग यह प्रश्न है कि भारत के संविधान के भाग III और IV के बीच संघर्ष के मामले में व्यक्ति की प्रधानता (प्राइमेसी) किस पर होनी चाहिए।

फंडामेंटल राइट्स और डीपीएसपी के बीच संबंध

भारत का संविधान एक महान मानदंड (ग्रंडनॉर्म) है, जो भी कानून बनाए जाते हैं, उन्हें भारत के संविधान के अनुरूप (कॉन्फॉर्म) होना चाहिए।

डीपीएसपी और फंडामेंटल राइट के बीच अंतर हैं:

फंडामेंटल राइट  डीपीएसपी
फंडामेंटल राइट्स का दायरा सीमित है। डीपीएसपी का दायरा असीम (लिमिटलेस) है।
व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करते है और सूक्ष्म स्तर पर काम करते है। एक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करते है और मैक्रो स्तर पर काम करते है।
अगर किसी को लगता है कि उसके अधिकारों का हनन हो रहा है तो वह कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। डीपीएसपी कानून द्वारा लागू नहीं होते हैं।

डीपीएसपी और फंडामेंटल राइट्स के बीच संघर्ष के बारे में बेहतर समझ के लिए कुछ महत्वपूर्ण केस लॉज का अध्ययन करते है और फिर हम तय कर सकते हैं कि जब दोनों के बीच संघर्ष होता है तो क्या होता है।

पहला केस जो हम अध्ययन करने जा रहे हैं वह गोलक नाथ बनाम पंजाब स्टेट, ए.आई.आर.  1976 एससीआर (2) 762 का है। सबसे पहले, हम देखेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है और फिर हम चर्चा करेंगे कि संसदीय (पार्लियामेंट्री) कार्रवाई क्या हुई थी। इस केस में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फंडामेंटल राइट्स को डाइल्यूट, संक्षिप्त (एब्रिज), कम, समाप्त या दूर नहीं किया जा सकता है और फिर इसके जवाब में संविधान का अमेंडमेंट एक्ट लाया गया था और भाग III में आर्टिकल 31(C) को सम्मिलित (इंसर्ट) किया गया था, अब आर्टिकल 31(C) कहता है कि:

आर्टिकल 31(B) के तहत एक कानून बनाकर जो समुदाय के भौतिक संसाधनों (मैटेरियल रिसोर्सेज) के बारे में बात करता है और आर्टिकल 31(C) एक आर्थिक प्रणाली (सिस्टम) के संचालन (ऑपरेशन) पर चर्चा करता है। उनका कहना है कि यदि कोई कानून डीपीएसपी के प्रभाव में बनता है और यदि वह आर्टिकल 14, 19 और 21 का उल्लंघन करता है तो कानून को केवल इस आधार पर अमान्य घोषित नहीं करना चाहिए।

चंपक दोरैराजन बनाम मद्रास स्टेट में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि डीपीएसपी भारत के संविधान के भाग III के प्रावधानों यानी फंडामेंटल राइट्स को ओवरराइड नहीं कर सकती है। अब डीपीएसपी को फंडामेंटल राइट्स के सहायक (सब्सिड्यूरी) रेहना है और उनकी पुष्टि (कन्फर्म) करनी है और यह बहुत महत्वपूर्ण निर्णय था जिसे संसद ने डीपीएसपी के विरोध में आने वाले विभिन्न फंडामेंटल राइट्स में अमेंडमेंट करके प्रतिक्रिया दी थी।

इसलिए, अब हम अपने अगले केस केरल एज्यूकेशन बिल की ओर बढ़ेंगे जहां सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत (डॉक्ट्राइन ऑफ हार्मोनियस कंस्ट्रक्शन) पेश किया गया था।

सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत क्या है? इसमें कहा गया है कि आपको संविधान के प्रावधान को इस तरह से गठित (कांस्टीट्यूट) करने की आवश्यकता है कि फंडामेंटल राइट और डीपीएसपी साथ-साथ चले, डीपीएसपी और फंडामेंटल राइट्स को लागू करते समय संघर्ष की स्थिति से बचने के लिए ऐसा किया गया था। इसलिए आपको यह समझना चाहिए कि संविधान के प्रत्येक प्रावधान इस तरह से हो कि वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करें।

अब इस सिद्धांत के अनुसार कोर्ट ने माना कि यदि कोई अंतर्निहित शक्ति मौजूद नहीं है तो कोई संघर्ष नहीं होगा, लेकिन अगर कोई संघर्ष सिर्फ इसलिए लागू होता है की कोर्ट किसी विशेष कानून की व्याख्या करने की कोशिश कर रही है, इसलिए उन्हें दोनों को प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिए।

बिना किसी प्रकार की अमेंडमेंट किए उन्हें आपस में जोड़ना है। सब कुछ संतुलित (बैलेंस) दिखाने के तमाम प्रयासों के बाद भी यदि कोई व्याख्या की जाती है तो कोर्ट को डीपीएसपी पर फंडामेंटल राइट्स को लागू करना होगा।

केशवानंद भारती, 1973 के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में अमेंडमेंट कर सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रकचर) को नष्ट किए बिना। अब, आर्टिकल 31(C) का दूसरा क्लॉज, जैसा कि हम पहले पढ़ चुके हैं, को असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) और अमान्य घोषित कर दिया गया क्योंकि यह मूल संरचना के खिलाफ था। हालांकि, आर्टिकल 31(C) के पहले क्लॉज को वैध बताया गया था। जवाब में, संसद ने 42वे अमेंडमेंट एक्ट, 1976 को लाया और आर्टिकल 31(C) के ऊपर दिए गए प्रावधानों का दायरा बढ़ाया था।

अब पथुम्मा बनाम केरल स्टेट, 1978 के केस में, सुप्रीम कोर्ट ने डीपीएसपी के उद्देश्य पर जोर दिया जो कि कुछ सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को निर्धारित करना है। संविधान का उद्देश्य डीपीएसपी और फंडामेंटल राइट्स के बीच एक संयोजन (कॉम्बिनेशन) लाना है जो कई अन्य केसेस में भी परिलक्षित (रिफ्लेक्टेड) होता है।

मिनर्वा मिल्स केस में, कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 31(C) के तहत कानून की रक्षा तभी की जाएगी जब इसे आर्टिकल 39(b) और (c) में डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स लागू करने के लिए बनाया गया हो, न कि किसी अन्य डीपीएसपी में। पहले सभी डीपीएसपी को सुरक्षा दी गई थी लेकिन इस केस के बाद, यह प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) बन गया और घोषित किया गया कि यदि सभी डीपीएसपी को सुरक्षा दी जाती है तो इसे अमान्य और असंवैधानिक प्रकृति के रूप में घोषित कर दिया जायेगा।

केरल स्टेट बनाम एन.एम.थॉमस, 1976 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फंडामेंटल राइट और डीपीएसपी एक दूसरे के साथ इस तरह से बनाए जाने चाहिए  और  उनके बीच विवाद को सुलझाने के लिए कोर्ट द्वारा हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।

ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, 1985 में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तुत (सब्मिट) किया है कि डीपीएसपी देश के शासन (गवर्नेंस) में मौलिक हैं इसलिए फंडामेंटल राइट्स के अर्थ और अवधारणा (कंसेप्ट) को समान महत्व दिया जाना चाहिए।

डालमिया सीमेंट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फंडामेंटल राइट और डीपीएसपी एक दूसरे के पूरक (सप्लीमेंट्री/कॉम्प्लीमेंट्री) हैं और संविधान का प्रिएंबल जो एक परिचय, फंडामेंटल राइट, डीपीएसपी देता है, संविधान की अंतरात्मा (कॉन्साइंस) है।

अशोक कुमार ठाकुर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 2008, में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिकारों के 2 सेटों के बीच कोई अंतर नहीं किया जा सकता है। फंडामेंटल राइट  नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित हैं जबकि डीपीएसपी सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से संबंधित है। डीपीएसपी कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य नहीं है इसका मतलब यह नहीं है कि यह अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) है।

तो मूल रूप से, इन सभी केसेस में, जो समझाने की कोशिश की हैं वह यह है कि फंडामेंटल राइट और डीपीएसपी एक साथ चलते हैं। उनमें से कोई भी एक दूसरे के लिए सर्वोच्च नहीं है।

सरकार ने कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के उद्देश्य से कई कार्य किए हैं जैसे 73वें अमेंडमेंट द्वारा पंचायत, आर्टिकल 41 के तहत नगर पालिका की स्थापना, 14 वर्ष से कम उम्र के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य शिक्षा और इसे राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों (मॉन्यूमेंट्स) की रक्षा के लिए फंडामेंटल राइट बना दिया गया था। इस अधिकार को एक ऐसे कानून में बदल दिया गया जो एंसिएंट एंड हिस्टोरिकल मॉन्यूमेंट्स एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेंस (डिक्लेरेशन ऑफ नेशनल इंपोर्टेंस) एक्ट, 1951 है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यह कहकर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संविधान की मूल विशेषता फंडामेंटल राइट्स और डीपीएसपी के बीच सामंजस्य बनाए रखना है। वे एक दूसरे के पूरक हैं।  फंडामेंटल राइट्स का विषय डीपीएसपी के प्रकाश में लाया जाना चाहिए।

सन्दर्भ (रेफरेंसेस)

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