आपातकाल के दौरान विधायी कार्यों का विनियमन

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Constitution of India

यह लेख मधुसूदन लॉ कॉलेज, ओडिशा की Upasana Dash द्वारा लिखा गया है। यह एक विशेष लेख है जो आपातकाल की घोषणा के संबंध में कई कानूनों और विनियमों (रेगुलेशंस) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

परिचय 

भारतीय संविधान प्रकृति में अर्ध-संघीय (क्वासी फेडरल) है, इसमें संघीय की तुलना में एकात्मक विशेषताएं अधिक हैं। लेकिन सिद्धांत अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हैं और एक दूसरे के अधीन नहीं हैं। केंद्र और राज्य सरकार की शक्तियाँ विभाजित हैं। अधिकारियों का समन्वय (कोऑर्डिनेशन) संघीय सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। संविधान का मसौदा तैयार करते समय डॉ. बी. आंबेडकर ने विभिन्न देशों से कई प्रावधान उधार लिए थे। आपातकाल (इमरजेंसी) का प्रावधान जर्मनी से लाया गया था। 

भारतीय संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि आपातकालीन स्थिति के दौरान संघीय सिद्धांत का पालन किया जा सकता है। यह उन परिस्थितियों की परिकल्पना करता है जब संघीय सुविधाओं के सख्त नियमों को हमारे संविधान की बुनियादी मान्यताओं से ऊपर ले जाने की आवश्यकता होती है। आपातकाल की घोषणा के दौरान केंद्र राज्य विधानमंडल (लेजिस्लेचर) की तुलना में अधिक शक्ति रखता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर सभी मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं। जब सरकार की मशीनरी विफल हो जाती है तो केंद्रीय प्राधिकरण (अथॉरिटी) वास्तविक घटना से पहले आपातकाल की घोषणा कर देता है। 

अब तक भारत ने तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद-352 के तहत) घोषित किया है, अनुच्छेद-356 के तहत सौ से अधिक मौकों पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया है, 1991 की  खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद भी भारत ने अभी तक वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद-360 के तहत) घोषित नहीं किया है। 

आपातकाल के दौरान विधायी कार्यों का क्या होता है

भारत के संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल बताए गए हैं:

  • राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद-352),
  • राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद-356),
  • वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद-360)।

राष्ट्रीय आपातकाल

यदि राष्ट्रपति इस परिस्थिति से संतुष्ट है कि युद्ध, बाहरी आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह (44वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1977 द्वारा जोड़ा गया) के आधार पर देश के लिए एक आसन्न (एमिनेंट) खतरा है, तो वह भारत या भारत का कोई भाग जो भारत के शासन के अधीन है उसके लिए आपातकाल की घोषणा कर सकता है। यहां “संतुष्टि” शब्द का तात्पर्य न तो व्यक्तिगत संतुष्टि से है, न ही प्रधानमंत्री की सलाह से है। राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल के साथ लिखित रूप से संवाद करने की आवश्यकता होती है जिसमें प्रधान मंत्री और अन्य नियुक्त मंत्री (अनुच्छेद -75 के तहत) भी शामिल होते हैं। 

आपातकाल की घोषणा का प्रस्ताव विशेष बहुमत (मेजोरिटी) से पारित होता है जो कि प्रत्येक सदन (हाउस) के कुल सदस्यों का बहुमत होता है और प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पारित होता है। संसद में प्रस्ताव (रेजोल्यूशन) स्वीकृत होने के बाद यह छह महीने के लिए होगा। आपातकालीन प्रस्ताव की अगली उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) के लिए अनुमोदन (अप्रूवल) को संसद के दोनों सदनों में पारित किया जाना आवश्यक है।

आपातकाल की उद्घोषणा को हटाने के लिए, यदि सदन का सत्र (सेशन) चल रहा हो तो सदन के अध्यक्ष को एक अस्वीकृत प्रस्ताव के लिए लोकसभा के कुल सदस्यों के दसवें हिस्से द्वारा हस्ताक्षरित एक लिखित नोटिस जारी करना होगा; और यदि सदन का सत्र नहीं चल रहा है तो ऐसा नोटिस राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। 14 दिनों के भीतर अध्यक्ष या राष्ट्रपति द्वारा एक विशेष बैठक आयोजित की जाएगी।

44वें संशोधन से पहले, “आंतरिक अशांति” राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा का आधार थी। इस आधार को आपातकाल घोषित करने के लिए अस्पष्ट माना जाता था। राष्ट्रपति की “संतुष्टि”, यह शब्द न्यायालय में न्यायसंगत नहीं है क्योंकि वह यह घोषित करने का सर्वोच्च प्राधिकारी है कि आपातकाल घोषित करने की परिस्थिति मौजूद है या नहीं।

राष्ट्रपति शासन:

जब राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से नोटिस मिलता है या उन्हें पता चलता है कि राज्य की सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में पूरी तरह असमर्थ है, तो ऐसी स्थिति में वह आपातकाल का आदेश दे सकते हैं। इस आदेश से:

  1. राष्ट्रपति राज्य की एकमात्र शक्ति बन जाता है,
  2. राज्य विधानमंडल की सारी शक्तियाँ केंद्रीय संसद में निहित होंगी,
  3. राष्ट्रपति परिस्थितियों से अपनी संतुष्टि के लिए प्रावधान कर सकते हैं।

हालाँकि, राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी भी प्रावधान को निलंबित (सस्पेंड) नहीं कर सकते है। यदि उस समय तक लोकसभा भंग हो जाती है तो राज्य की संचित निधि (कंसोलिडेटेड फंड) का व्यय (एक्सपेंसेज) राष्ट्रपति के आदेश से आगे बढ़ सकता है।

राष्ट्रीय आपातकाल और राष्ट्रपति शासन के बीच अंतर 

राष्ट्रीय आपातकाल में सभी राज्य केंद्रीकृत (सेंट्रलाइज) हो जाते हैं लेकिन राष्ट्रपति शासन में केवल संबंधित राज्य की शक्तियाँ संघ पर निहित होती हैं। राष्ट्रीय आपातकाल में राज्य विधायिका और राज्य कार्यपालिका अप्रभावित रहती हैं। लेकिन राष्ट्रपति शासन की स्थिति में सारी विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ संघ के पास चली जाती हैं।

वित्तीय आपातकाल (फाइनेंशियल इमरजेंसी)

जब भारत की आर्थिक स्थिरता ख़राब हो जाती है, तो राष्ट्रपति अपनी संतुष्टि से अनुच्छेद-360 के तहत वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है। यहां, सभी धन विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने से पहले राष्ट्रपति के पास विचार के लिए जाएंगे।

आपातकालीन प्रबंधन कानून और नियम क्या हैं?

  1. केंद्र की कार्यकारी शक्ति (एग्जिक्यूटिव) बढ़ती है: 42वें संशोधन के अनुसार संघ की कार्यकारी शक्ति, अनुच्छेद-353 के तहत आपातकाल के दौरान कानून बनाने के लिए राज्य की निगरानी करती है।
  2. संसद के निर्देश द्वारा अधिकृत, राज्य की विधायी शक्ति: आपातकाल के दौरान, राज्य की कानून बनाने की शक्ति समाप्त नहीं होगी, बल्कि संसद की सहायता से अनुच्छेद-354 के तहत कानून लागू करती है।
  3. संघ और राज्य के बीच राजस्व (रेवेन्यू) का हस्तांतरण (कन्वेयंस) (अनुच्छेद-354) : संघ और राज्य के बीच की गई प्रत्येक वित्तीय व्यवस्था राष्ट्रपति के आदेश से अनुच्छेद-268 से 279 के तहत संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी।
  4. अनुच्छेद-83(2) के तहत आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति के कहने पर लोकसभा का कार्यकाल 6 महीने से अधिक नहीं बढ़ सकता है।
  5. मौलिक अधिकार निलंबित हो जाते हैं (अनुच्छेद-358) : अनुच्छेद-20 और 21 को छोड़कर, अनुच्छेद-19 द्वारा गारंटीकृत सभी मौलिक अधिकार अनुच्छेद-358 के तहत निलंबित हो जाते हैं।

आपातकालीन स्थिति में कार्य करने के नियम

सबसे महत्वपूर्ण कार्य सभी राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाना है। केंद्र को सभी राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यही कर्तव्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य संघीय देशों द्वारा भी अपनाया जाए। केंद्र सरकार को हर राज्य पर नजर रखनी है कि वे संविधान के प्रावधानों का पालन कर रहे हैं या नहीं। यह सिद्धांत अन्य संघों में लागू नहीं होता है। अनुच्छेद-19 के तहत किसी भी देश में जाने का अधिकार अनुच्छेद-359 के तहत लागू होने पर आपातकाल रद्द होने तक निलंबित रहता है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि हिरासत का आदेश दुर्भावना से दिया गया था, तो व्यक्ति बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) की रिट के लिए उपयुक्त न्यायालय में जा सकता है। संयम को संविधान का भाग-III उल्लंघन के आधार पर भी गिना जा सकता है। 

कोविड-19 महामारी के दौरान संचालन में समायोजन (एडजस्टमेंट)

सार्वजनिक स्वास्थ्य और जनसंख्या की भलाई को सुरक्षा प्रदान करने पर विचार करते हुए, दुनिया भर के देशों को कोविड-19 महामारी पर असाधारण उपाय करने की आवश्यकता है, वे कदम कानून की नजर में मान्य होने चाहिए। असाधारण कार्रवाई करने के लिए, आपातकालीन शक्ति का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून, नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि (आईसीसीपीआर) के दायरे में किया जाता है। औपचारिक रूप से आपातकाल की घोषणा किए बिना, राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य और रखरखाव की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा गारंटीकृत कुछ मानवाधिकारों को प्रतिबंधित कर सकता है जो राष्ट्र के जीवन को खतरे में डालते हैं, और उन प्रतिबंधों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे किसी भी कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं या प्रकृति में भेदभावपूर्ण नहीं हैं। 

कुछ अधिकारों के हनन के लिए नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करना आवश्यक है, इन्हें किसी भी स्थिति में निलंबित नहीं किया जा सकता है, कुछ बुनियादी अधिकार यानी भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, पानी, स्वच्छता, मानक जीवन स्थिति और शिक्षा का अधिकार, आपातकाल के दौरान प्रभावी रहने चाहिए। 

आपातकाल के दौरान विभिन्न देश अपने विधायी संचालन को कैसे नियंत्रित करते हैं

अन्य संघीय देशों में, उनकी आपातकालीन प्रबंधन योजना आम तौर पर निम्नलिखित दो मामलों पर आधारित होती है; नागरिक आबादी द्वारा किसी आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए, मानवीय कानून के अनुसार नागरिक आपातकाल से निपटने के लिए। आपातकाल के संबंध में उनके मूल सिद्धांत शमन (मीटी गेशन), तैयारी, पुनर्प्राप्ति और प्रतिक्रिया हैं। 

फायदे और नुकसान 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनकर नागरिक आपातकाल के दौरान अवांछित अराजकता (अनवांटेड क्योस), पैदा नहीं कर सकते। हालाँकि, किसी व्यक्ति को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखना मौलिक अधिकारों के उल्लंघन होता है। इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। आपातकाल की घोषणा के दौरान नागरिक देश में स्वतंत्र रूप से घूम नहीं सकते हैं, जो कुछ हद तक संविधान के भाग-III का उल्लंघन है। हालांकि, ये नियम और कानून हमारे नागरिकों को किसी भी खतरे से बचाने के लिए हैं। ऐसे में बाहरी लोग प्रवेश न कर सकें इसलिए सभी विदेशी दौरे रद्द रहते हैं। जब आपातकाल की घोषणा की जाती है, तो आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बहुत अधिक बढ़ जाती हैं और ऐसे उत्पादों की कालाबाजारी भी देखी गई है, ऐसे में आम लोगों को इसे लेकर कई वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

ऐतिहासिक फैसले

माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1964 एससी 381 में याचिकाकर्ताओं ने अपील की कि उनकी हिरासत अवैध थी क्योंकि रक्षा (डिफेंस) अधिनियम, 1962 की धारा-491 (1)(b) के तहत और आरोप लगाया कि यह अनुच्छेद-14, 21 और 22 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों के विपरीत था। अनुच्छेद-359 के तहत जारी राष्ट्रपति आदेश ने बाधा उत्पन्न की है। उन्होंने आगे सर्वोच्च न्यायालय में मामला दायर किया। वहां यह आयोजित किया गया था की जब तक आपातकाल की उद्घोषणा लागू रहती है, अनुच्छेद-19 निलंबित रहेगा। और नागरिकों को मनमानी हिरासत के मामले में रिट याचिका के लिए उचित न्यायालय में जाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। 

मो. में. याकूब बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य, एआईआर 1968 एससी 765, अनुच्छेद-359(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा दिया गया आदेश, अनुच्छेद-13 के दायरे में कानून नहीं था। इसलिए इसे मौलिक अधिकारों के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। किसी भी आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती यदि वह आदेश किसी भी तरह से अनुच्छेद-14 के विरुद्ध भेदभाव करता हो। क्योंकि आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार ही निलंबित रहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने गुलाम सरवर बनाम भारत संघ, एआईआर 1968 एससी 1335 में अपने ही फैसले को रद्द कर दिया यानी कोई भी अनुच्छेद-359 के तहत जारी राष्ट्रपति द्वारा आदेश के माध्यम से भेदभाव के आधार पर चुनौती दे सकता है। 

एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला, एआईआर 1976 एससी 1207, यह बंदी प्रत्यक्षीकरण का एक प्रसिद्ध मामला है जिसमें प्रतिवादी ने अनुच्छेद -352 के तहत आपातकाल की उद्घोषणा की वैधता और मनमानी हिरासत के आधार पर दलील दी थी।  आंतरिक सुरक्षा अनुरक्षण अधिनियम, 1971 की धारा-3 के अंतर्गत उच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-19, 21और 22 के तहत सभी अधिकारों की सख्ती से जांच की जानी चाहिए। यदि एमआईएसए के तहत हिरासत संतोषजनक नहीं है या दुर्भावनापूर्ण है तो इसकी जांच की जानी चाहिए। याचिका आगे सर्वोच्च न्यायालय तक चली गई। तथ्य का प्रश्न यह था कि क्या रिट याचिका अनुच्छेद-32 के अंतर्गत उच्च न्यायालय के तहत की जा सकती है, जबकि अनुच्छेद-352 के तहत राष्ट्रपति का आदेश लागू है; दूसरा, क्या याचिका एमआईएसए के अनुच्छेद-22 और धारा-16 के दायरे में वैध थी। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से माना कि राष्ट्रपति का आदेश लागू होने पर किसी भी व्यक्ति को किसी भी रिट याचिका के लिए  अनुच्छेद-226 के तहत उच्च न्यायालय में जाने का अधिकार नहीं है।

सर्बानंद सोनोवाल बनाम भारत संघ, एआईआर 2005 एससी 2920, इस मामले में, पहली बार “आक्रामकता” शब्द को अनुच्छेद -352 में जोड़ा गया है। याचिकाकर्ता ने अवैध प्रवासियों की संवैधानिक वैधता के आधार पर मामला दायर किया यानी अवैध प्रवासी (माइग्रेंट्स) निर्धारण अधिनियम, 1983 में यह केवल असम और बांग्लादेश के निर्वासन (एक्साइल) के लिए लागू था। कुछ बांग्लादेशी अवैध रूप से भारत की सीमा में प्रवेश कर गए थे। न्यायालय ने कहा कि “आक्रामकता” को केवल युद्ध नहीं कहा जा सकता, इसके अन्य पहलू भी हैं। युद्ध दो राज्यों के बीच की प्रतिस्पर्धा है। 

एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ, एआईआर 1994 एससीसी 1, इस मामले में, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया, संवैधानिक मशीनरी की विफलता के आधार पर राज्य विधानसभाएं भी भंग कर दी गईं। मुख्य मुद्दा यह था कि उन राज्यों के मुख्यमंत्री किसी गैरकानूनी संगठन से जुड़े थे और उन्होंने कार सेवकों को अयोध्या जाने के लिए प्रभावित किया था। तीनों राज्यपालों ने केंद्रीय प्राधिकरण को रिपोर्ट सौंपी थी और केंद्र के पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि ये राज्य केंद्र सरकार के आदेशों का पालन नहीं कर रहे हैं। यह माना गया कि हिरासत पूरी तरह से दुर्भावनापूर्ण थी, जो अनुच्छेद-356 का स्पष्ट दुरुपयोग था। न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति शासन के आदेश से किसी भी राज्य विधानसभा को तब तक भंग नहीं किया जा सकता जब तक कि राष्ट्रपति  मंजूरी की पुष्टि न कर दें।

निष्कर्ष 

आपातकाल की उद्घोषणा के दौरान केंद्र सरकार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सभी राज्यों को केंद्र के साथ सहयोग करने की जरूरत है। केंद्र को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कोई भी राज्य आपातकाल के प्रावधान का दुरुपयोग न कर सके। आपातकालीन प्रावधानों को मनमाने ढंग से घोषित नहीं किया जाना चाहिए। सभी नियम-कायदों के साथ-साथ किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

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