यह लेख चंदर प्रभु जैन कॉलेज ऑफ हायर स्टडीज एंड स्कूल ऑफ लॉ, जीजीएसआईपीयू के कानून के छात्र Gautam Chaudhary के द्वारा लिखा गया है। वर्तमान लेख भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत प्रदान किए गए बलात्कार के अपराध के लिए दंडात्मक सजा के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
बलात्कार को भारतीय दंड संहिता, 1860 के अध्याय XVI में धारा 375 के तहत परिभाषित किया गया है, जो “यौन अपराधों” के शीर्षक के तहत मानव शरीर को प्रभावित करने वाले अपराधों पर चर्चा करता है। इसके अलावा, बलात्कार करने की सजा को आईपीसी की धारा 376 के तहत परिभाषित किया गया है। हालांकि संहिता इस जघन्य (हिनियस) अपराध को मानव शरीर को प्रभावित करने वाले अपराधों में से एक के रूप में परिभाषित करती है, ऐसे बर्बर अपराध को पूरे समाज के खिलाफ अपराध कहा जाता है क्योंकि यह देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है। बलात्कार पीड़ित को सबसे दर्दनाक शारीरिक और मानसिक आघात (ट्रॉमा) पहुंचाता है, और भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत एक गरिमापूर्ण और मुक्त जीवन के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन करता है। यही कारण है कि विधायिका ने इसे सीधे तौर पर उच्चतम आपराधिक परीक्षण न्यायालय, यानी सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय (ट्राई) होने के लिए चुना है। भारत ने महिलाओं के खिलाफ कुछ भीषण और अत्याचारपूर्ण यौन अपराधों को देखा है, जैसे निर्भया सामूहिक बलात्कार मामला, हाथरस बलात्कार मामला, कठुआ बलात्कार मामला, शक्ति मिल्स मामला और डॉ. प्रियंका रेड्डी सामूहिक बलात्कार मामला, और इन घटनाओं के कारण, संसद ने इस नृशंस (एट्रोसियस) कार्य को कड़ी से कड़ी सजा देने के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 में संशोधन किया है।
वर्तमान लेख प्रासंगिक ऐतिहासिक निर्णयों के साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 के तहत प्रदान किए गए बलात्कार के अपराध के लिए वैधानिक दंड को भी स्पष्ट करता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत बलात्कार
बलात्कार को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के तहत परिभाषित किया गया है। यह धारा इसे ‘एक पुरुष और महिला के बीच उसकी इच्छा के विरुद्ध और उसकी सहमति के बिना एक अप्राकृतिक और जबरन संभोग (सेक्सुअल इंटरकोर्स)’ के रूप में परिभाषित करती है और आपराधिक कानून के दायरे के लिए, ये हैं:
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के अनुसार, एक व्यक्ति द्वारा बलात्कार किया गया तब कहा जाता है जब:
- एक पुरुष अपने लिंग (पेनिस) को किसी भी हद तक महिला की योनि (वजाईना), मुंह, मूत्रमार्ग (यूरेथरा) या गुदा (ऐनल) में प्रवेश करता है या जब वह उसे अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा ही करने को कहता है।
- एक पुरुष किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग, या गुदा में किसी भी हद तक कोई वस्तु या अपने शरीर के किसी हिस्से को डालता है या वह किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा ही करने को कहता है।
- पुरुष योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या उसके शरीर के किसी भी हिस्से में प्रवेश करने के लिए या जब वह उसे अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा ही करने को कहता है, तो उसके शरीर के किसी भी हिस्से में हेरफेर करता है।
- एक पुरुष अपना मुंह किसी महिला की योनि, गुदा या मूत्रमार्ग पर लगाता है या जब वह उसे अपने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा ही करने को कहता है।
यह धारा आगे उन उदाहरणों के लिए प्रदान करती है जिसके तहत उपर्युक्त कार्यों को बलात्कार माना जाएगा। ऐसी स्थिति के विवरण पर नीचे विस्तार से चर्चा की गई है।
वर्तमान धारा के अनुसार, उपरोक्त सभी गतिविधियों को बलात्कार माना जाएगा जब निम्नलिखित परिस्थितियाँ निम्नलिखित के अंतर्गत आती हैं:
- जब ऊपर बताए गए कार्य उसकी इच्छा के विरुद्ध या उसकी सहमति के बिना किए जाते हैं।
- जब कोई यौन कार्य उसकी सहमति से किया जाता है लेकिन उसकी सहमति उसे या किसी अन्य व्यक्ति को जिसमें वह रुचि रखती है, को मृत्यु या चोट के भय में डालकर प्राप्त की जाती है।
- जब उपरोक्त गतिविधियां एक पुरुष द्वारा की जाती हैं, जहां वह मानता है कि वह उसका पति नहीं है और जहां वह उसे इस विश्वास के साथ सहमति देती है कि वह उसका पति है जिससे वह कानूनी रूप से विवाहित है।
- जब ऊपर बताए गए कार्य उसकी सहमति से किए जाते हैं, लेकिन उसकी सहमति स्वैच्छिक नहीं थी, क्योंकि सहमति देने के समय वह मानसिक रूप से अस्वस्थ थी या उसके द्वारा एक अस्वास्थ्यकर पदार्थ देने के कारण नशे की हालत में थी, और नशा इस हद तक था कि वह उस गतिविधि की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ थी जिसके लिए उसने सहमति दी है।
- जब उपरोक्त गतिविधियां किसी नाबालिग यानी 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति के साथ की जाती हैं।
- जब उपर्युक्त कार्य तब होते हैं जब वह अपनी सहमति संप्रेषित (कम्युनिकेट) करने में असमर्थ होती है।
धारा का स्पष्टीकरण 2 संहिता की धारा 375 के संचालन के लिए सहमति की परिभाषा प्रदान करता है। स्पष्टीकरण के अनुसार, “सहमति” का अर्थ एक स्पष्ट स्वैच्छिक समझौता है जिसमें महिलाएं, शब्दों, इशारों, या मौखिक या गैर-मौखिक संचार (कम्यूनिकेशन) के किसी अन्य रूप से, एक निश्चित यौन कार्य में भाग लेने की इच्छा व्यक्त करती हैं।
इस प्रकार, ऊपर उल्लिखित प्रावधानों और धारा 375 द्वारा प्रदान किए गए प्रावधानों के अनुसार, यह माना जा सकता है कि बलात्कार के अपराध में निम्नलिखित आवश्यक तत्व शामिल हैं:
संभोग
अभियुक्त पर दंडात्मक दंड की धारा 375 के संचालन के लिए, यह आवश्यक है कि संभोग किया जाए, जो कि भाग 1 से 4 के तहत दिया गया है, अर्थात लिंग, किसी भी वस्तु या शरीर के अंग को योनि, मुंह, मूत्रमार्ग, या गुदा में किसी भी हद तक डालना। साथ ही, महिला के शरीर के किसी भी हिस्से में छेड़छाड़ की जानी चाहिए और उसके मुंह को महिला की योनि, गुदा और मूत्रमार्ग में लगाया जाना चाहिए।
उसकी इच्छा के विरुद्ध
दंड संहिता की धारा 375 के विवरण 1 में प्रावधान है कि महिला के साथ किया गया संभोग बलात्कार माना जाएगा यदि यह उसकी इच्छा के विरुद्ध किया जाता है। आपराधिक कानून में “इच्छा के विरुद्ध एक कार्य” शब्द का अर्थ है कि एक महिला को सक्रिय या स्पष्ट रूप से व्यक्त प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) या इसकी घटना से इनकार करने के बावजूद एक कार्य किया जाता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध और उसकी सहमति के बिना शब्दों को अक्सर परस्पर विनिमय (इंटरचेंजेबली) के रूप में उपयोग किया जाता है; हालाँकि, दो शब्द एक-दूसरे से पूरी तरह से अलग हैं, क्योंकि पूर्व कार्य होने के दौरान इनकार से संबंधित है, जबकि बाद वाला एक यौन कार्य के लिए पक्षों के बीच समझौते को संदर्भित करता है जो अभी तक नहीं हुआ है।
उसकी सहमति के बिना
जब किसी महिला के साथ उसकी सहमति के बिना यौन कार्य किया जाता है, तो इसे दंड संहिता प्रावधानों के अनुसार “बलात्कार” कहा जाएगा। “उसकी सहमति के बिना” शब्द की उचित समझ के लिए, “सहमति” शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। इस धारा के स्पष्टीकरण 2 के अनुसार, “सहमति” का अर्थ एक पुरुष और एक महिला के बीच बिना किसी संदेह के एक स्वैच्छिक समझौता है, जहां एक महिला, शब्दों, इशारों, या मौखिक या गैर-मौखिक संचार के किसी अन्य रूप से संचार करती है या एक निश्चित यौन गतिविधि के लिए सहमत होती है। नतीजतन, अगर कोई महिला ऐसी सहमति नहीं देती है, तो उसके इनकार के बावजूद ऐसे कार्य को “बलात्कार” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
उदय बनाम कर्नाटक राज्य (2003) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति का अर्थ दिया, जिसने इसे “तीन चीजें- कार्य करने की एक शारीरिक शक्ति, कार्य करने की एक मानसिक शक्ति, और उनका एक स्वतंत्र और गंभीर उपयोग” करार दिया था।
मौत या चोट के डर से एक यौन कार्य
इसके अलावा, धारा के विवरण 3 के अनुसार, जहां एक महिला की यौन कार्य के लिए सहमति उसे या किसी अन्य व्यक्ति को मृत्यु या चोट के भय में डालकर ली जाती है, उक्त सहमति आपराधिक कानून में नहीं दी गई है क्योंकि यह एक डर का उत्पाद होता है जो एक पुरुष द्वारा एक महिला या किसी भी व्यक्ति पर लगाया जाता है जिसमें वह रुचि रखती है। इस धारा के उद्देश्य के लिए, कोई अन्य व्यक्ति उसका पति, बच्चा या माता-पिता हो सकता है।
वेष बदलने का कार्य
एक व्यक्ति को बलात्कार के लिए उत्तरदायी कहा जाता है यदि वह पीड़िता के पति का वेश लेता है। धारा के अनुसार, ऐसे मामले में अभियुक्त के साथ यौन कार्य के लिए एक महिला की सहमति अमान्य है क्योंकि यौन संबंध का समझौता अभियुक्त और पीड़िता के बीच नहीं हुआ है, बल्कि सहमति उस व्यक्ति के द्वारा दी गई है, जिससे वह खुद को विधिपूर्वक विवाह किया गया मानती है। इस धारा के तहत व्यक्ति को बलात्कार के लिए उत्तरदायी माना जाएगा यदि वह झूठा और जानबूझकर उसके पति का प्रतिरूपण करता है और ऐसा करने के बाद जानबूझकर उसके साथ संभोग करता है।
अस्वस्थ और नशे में
इसके अलावा, धारा एक और परिस्थिति प्रदान करती है जहां महिला द्वारा दी गई सहमति को वैध सहमति नहीं माना जाएगा और किए गए कार्य को बलात्कार के रूप में माना जाएगा। यह प्रदान करता है कि जब एक महिला किसी कार्य के लिए सहमति देती है, तो सहमति देते समय, वह मानसिक रूप से अस्वस्थ होती है या किसी नशे की लत के कारण नशे की स्थिति में होती है, और उसकी अस्वस्थता या नशे की वजह से, वह उस कार्य जिसके लिए वह अपनी सहमति दे रही है, की प्रकृति और परिणाम भी समझने में असमर्थ होती है।
नाबालिग की सहमति
विवरण 6 के अनुसार नाबालिग के साथ यौन संबंध बलात्कार है। यह धारा नाबालिग के साथ यौन संबंध बनाने को अवैध बनाती है, भले ही उसने यौन कार्य के समय अपनी सहमति दी हो या नहीं, क्योंकि ऐसे मामलों में सहमति का कोई महत्व नहीं है क्योंकि पीड़िता नाबालिग है और उसे इस कार्य और इसके परिणाम का कोई ज्ञान नहीं है।
सहमति संचार की अनुपलब्धता
बलात्कार तब होता है जब कोई महिला किसी भी कारण से यौन कार्य के लिए अपनी सहमति देने में असमर्थ होती है, लेकिन यह कार्य उसकी अक्षमता के बावजूद किया जाता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत बलात्कार के लिए सजा
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 में बलात्कार के अपराध के लिए वैधानिक दंड का प्रावधान है। वर्तमान धारा की उप-धारा 1 में प्रावधान है कि जो कोई भी बलात्कार का अपराध करता है, उसे कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, जो दस वर्ष से कम नहीं होगा और आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
इसके अलावा, उपधारा 2 विशिष्ट व्यक्तियों जो किसी महिला के साथ कुछ परिस्थितियों में बलात्कार करते हैं, के लिए बलात्कार की सजा का प्रावधान करती है। यह प्रावधान ऐसे है:
- एक पुलिस अधिकारी होने के नाते एक व्यक्ति को बलात्कार के अपराध के लिए दंडित किया जाएगा यदि वह किसी महिला के साथ जबरदस्ती संभोग करता है जो या तो उसकी हिरासत में है या उसके अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) की हिरासत में है, और उस पुलिस स्टेशन की सीमा के भीतर जिसमें वह नियुक्त है या किसी पुलिस स्टेशन हाउस परिसर में है।
- उप-धारा 2(b) एक लोक सेवक के लिए सजा का प्रावधान करती है जो किसी ऐसी महिला के साथ बलात्कार करता है जो उसकी हिरासत में है या उसकी अधीनस्थ की हिरासत में है।
- सशस्त्र बलों (आर्म्ड फोर्सेज) का सदस्य सजा के लिए उत्तरदाई होगा यदि वह उस क्षेत्र में बलात्कार करता है जहां वह केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार के प्राधिकरण (अथॉरिटी) के माध्यम से तैनात है। इस उपधारा के संचालन के लिए सशस्त्र बलों को स्पष्टीकरण (a) के तहत परिभाषित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि सशस्त्र बलों का मतलब नौसैनिक (नेवल), सैन्य (मिलिट्री) और वायु सेना और किसी अन्य कानून के तहत गठित किया गया कोई भी सेना है। साथ ही, इसमें अर्धसैनिक (पैरामिलिट्री) बल या केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार के नियंत्रण में कोई अन्य बल भी शामिल होंगे।
- जेल, रिमांड होम, या महिलाओं या बच्चों की संस्था जैसे किसी कानून के तहत स्थापित हिरासत स्थानों के कर्मचारियों या प्रबंधन के किसी सदस्य द्वारा किसी भी कैदी के साथ बलात्कार करना।
- अस्पताल के कर्मचारियों या प्रबंधन के किसी सदस्य द्वारा अस्पताल में एक महिला के साथ बलात्कार करना।
- एक महिला पर एक अभिभावक (गार्डियन), रिश्तेदार, शिक्षक, या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बलात्कार होना जो उसके प्रति विश्वास और अधिकार की स्थिति में है।
- साम्प्रदायिक (कम्यूनल) हिंसा के दौरान महिला के साथ बलात्कार करना।
- गर्भवती महिला के साथ बलात्कार करना।
- एक ऐसी महिला के साथ बलात्कार करना जो अपनी सहमति देने में असमर्थ है।
- किसी महिला पर नियंत्रण या प्रभुत्व (डॉमिनेंस) जमाकर उसके साथ बलात्कार करना।
- मानसिक या शारीरिक अक्षमता से पीड़ित महिला के साथ बलात्कार करना।
- गंभीर शारीरिक नुकसान पहुंचाते हुए या अपंग (डिसेबल) या विरूपित (डिस्फीगर) करते हुए या उसके जीवन को खतरे में डालते हुए महिला के साथ बलात्कार करना।
- एक ही महिला के साथ बार-बार बलात्कार करना।
भारतीय दंड संहिता की धारा 376 की उप-धारा 2 के तहत प्रदान किए गए उपरोक्त सभी उदाहरणों के लिए, अपराधी के लिए सजा कारावास होगी, जो दस वर्ष से कम नहीं होगी। इसे जुर्माने के साथ आजीवन कारावास तक भी बढ़ाया जा सकता है।
धारा 376 में सोलह वर्ष से कम उम्र की महिला से बलात्कार की सजा का भी प्रावधान है। इस मामले में, वैधानिक दंड सश्रम (रिगर्स) कारावास होगा, जो बीस वर्ष से कम नहीं होगा और इसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है; वह पीड़ित को जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
धारा 376 में प्रमुख संशोधन
1983 का आपराधिक कानून (दूसरा संशोधन) अधिनियम
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 में पहली बार वर्ष 1983 में प्रमुख रूप से संशोधन किया गया था। उपरोक्त संशोधन कुख्यात मथुरा मामले के कारण हुई वृद्धि का परिणाम या उत्पाद था, जिसने देश में एक राष्ट्रव्यापी हंगामा खड़ा कर दिया था क्योंकि मामले ने भारतीय आपराधिक कानून और व्यवस्था के मूल पर हमला किया था।
यह तुका राम और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (1978) का मामला था, जिसमें अभियुक्त व्यक्तियों, यानी दो पुलिसकर्मियों ने कथित तौर पर एक किशोर आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार किया, जब वह उनकी हिरासत में थी। जघन्य अपराध के आपराधिक मुकदमे ने हमारे आपराधिक कानून में बदलाव के लिए अचानक आग्रह को जन्म दिया क्योंकि निचली अदालत ने दो अभियुक्तों को यह देखते हुए बरी कर दिया कि पीड़िता को यौन संबंध बनाने की आदत थी और यौन कार्य उसकी ओर से स्वेच्छा से किया गया था, और अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष आरोप वापस लाने के मामले को साबित नहीं कर पाया था। अपनी अपील में, उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया और अभियोजिका के “निष्क्रिय निवेदन” के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराया, यह तर्क देते हुए कि पीड़िता की सहमति अभियुक्त के अधिकार द्वारा लगाए गए भय और दबाव का परिणाम थी, जिससे वह असहाय महसूस कर रही थी, और इस प्रकार कानून की नजर में कोई सहमति नहीं दी गई थी। इसके बाद, अभियुक्त सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां उच्च न्यायालय के फैसले को उलट दिया गया, जिससे अभियुक्त को आरोपों से बरी कर दिया गया, इस स्पष्टीकरण के साथ कि अभियोजिका के शरीर पर कोई निशान नहीं पाए गए थे और उसने कोई अलार्म या कोई चेतावनी नहीं दी थी।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने विभिन्न नारीवादी समूहों और जनता द्वारा व्यापक विरोध और आलोचनाओं के लिए अदालत के अवलोकन को खुला छोड़ दिया, जहां सभी लोगों और विभिन्न कानून के प्रोफेसरों ने “सहमति” शब्द के सही अर्थ पर सवाल उठाया।
1983 में देश में सभी अशांति और विरोध के कारण, आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1983 के पारित होने के साथ कानूनी सुधारों में एक संशोधन पेश किया गया। इस अधिनियम में विभिन्न नए दंडात्मक प्रावधान और धारा 376-B, 376-C, और 376-D भी लाए गए, जिन्हे हिरासत में बलात्कार से निपटने के लिए जोड़ा गया था। इस विशेष संशोधन ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 114A को भी सम्मिलित किया, जो इस धारणा के लिए प्रदान करती है कि अदालत पीड़िता के समर्थन में रखती है कि यौन गतिविधि के लिए कोई सहमति नहीं दी गई थी जब वह इससे इनकार करती है। ऐसे मामलों में, धारा के अनुसार, दोषमुक्ति प्राप्त करने के लिए इस धारणा का खंडन करने की जिम्मेदारी अभियुक्त की होती है। संशोधन ने आगे आईपीसी में धारा 228A को पेश किया, जिसमें पीड़ित की पहचान के प्रकटीकरण (डिस्क्लोजर) पर रोक लगाई गई थी।
निर्भया मामला और आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013
2012 में, देश ने सबसे दर्दनाक अपराध देखा जो कोई भी एक इंसान के खिलाफ कर सकता है। देश की राजधानी में एक युवती निर्भया के साथ इतने बर्बर तरीके से बलात्कार किया गया जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसके साथ दिल्ली में एक बस में छह लोगों द्वारा क्रूरता से सामूहिक बलात्कार किया गया था, जहां यौन कार्य के बाद, उसके आंतरिक अंगों और निजी अंगों को इस हद तक विकृत (म्यूटिलेट) कर दिया गया था कि उसके आंतरिक अंगों को खींच लिया गया था और उसके निजी अंगों को बहुत ही अमानवीय तरीके से विकृत कर दिया गया था, जिससे उसे गंभीर चोटें आईं और अंततः उसकी जान चली गई।
चार प्रतिवादियों को सितंबर 2013 में बलात्कार, अपहरण, हत्या और सबूतों को नष्ट करने का दोषी ठहराया गया था और उन्हे मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसे 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए बरकरार रखा था कि मामला स्पष्ट रूप से दुर्लभ से दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर) मामलों की श्रेणी में आता है।
न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट
मानव अंगभंग के भयानक मामले के बाद, जनता सड़कों पर उतर आई, और तत्कालीन वर्तमान आपराधिक कानून प्रावधानों के प्रति बड़े पैमाने पर आक्रोश प्रदर्शित किया। उसी के जवाब में, सरकार ने न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा की समिति को दंडात्मक प्रावधानों में सुधार के लिए संशोधनों का सुझाव देने के लिए निर्धारित किया। बाद में, समिति ने सभी प्रकार के यौन अपराधों पर सिफारिशें कीं।
बलात्कार के लिए दंड के संबंध में समिति का विचार था कि ऐसे अपराधों को श्रेणीबद्ध करने की आवश्यकता है। समिति की राय थी कि बलात्कार पीड़ित की आत्मा के लिए एक निवारक कार्य है, लेकिन यह एक महिला की नैतिक संरचना को नष्ट कर देता है। हालांकि, ऐसे मामलों में मौत की सजा की मांग करना उचित नहीं है।
आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013
न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति द्वारा संपादित सुझावों के आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013, 3 फरवरी, 2013 को अस्तित्व में आया। इसने भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में बाद के बदलावों की एक विस्तृत श्रृंखला पेश की।
विभिन्न क़ानूनों और प्रावधानों के साथ, धारा 376 के दायरे, यानी बलात्कार के लिए सजा, में कुछ आवश्यक बदलाव देखे गए। वर्तमान संशोधन ने उप-धारा (2) का एक नया खंड पेश किया जो अब ऐसे क्षेत्र में केंद्र या राज्य सरकार द्वारा तैनात सशस्त्र बलों के एक सदस्य द्वारा किए गए बलात्कार के लिए सजा प्रदान करता है।
इसके अलावा, धारा 376A को भी शामिल किया गया था, जिसमें एक अभियुक्त को कम से कम बीस साल के सश्रम कारावास का प्रावधान था, जो कि आजीवन कारावास या यहां तक कि मौत तक बढ़ सकता है यदि उसके द्वारा किए गए बलात्कार के कार्य से पीड़िता की मृत्यु या निष्क्रिय अवस्था हो जाती है।
उपर्युक्त सभी धाराओं के बाद, धारा 376 B, धारा 376 C, धारा 376 D, और धारा 376 E को भी भारतीय दंड संहिता में सम्मिलित किया गया था, जो पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ संभोग, सत्ता में बैठे व्यक्ति द्वारा बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, और बार-बार अपराध करने वालों को सजा से संबंधित विभिन्न नए यौन अपराधों को प्रदान करती है।
कठुआ बलात्कार मामला और आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018
2018 में, राष्ट्र ने एक बार फिर देश के आपराधिक कानूनों के खिलाफ आक्रोश फैलाया, जब एक आठ वर्षीय लड़की को मारने से पहले एक सप्ताह के लिए छह आरोपियों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया था। नाबालिग लड़की के साथ हुई इस कथित घटना के बाद सुधार किया गया। 2018 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम ने 12 से 16 वर्ष की उम्र की नाबालिग लड़कियों को लक्षित करने वाले व्यक्तियों के लिए बलात्कार के लिए कठोर दंडात्मक दंड की शुरुआत की। इस अधिनियम में जुर्माने के साथ कम से कम बीस साल के सश्रम कारावास की शुरुआत की गई। 12 वर्ष से कम उम्र की नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में इसे आजीवन कारावास या मृत्यु तक बढ़ाया जा सकता है, और सामूहिक बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है, जो मृत्यु तक भी बढ़ सकती है।
यदि पीड़िता की आयु 16 वर्ष से कम है तो किए गए यौन अपराध के लिए सजा 20 वर्ष के लिए कारावास होगी जो आजीवन कारावास तक बढ़ सकती है।
भारत में बलात्कार और मृत्युदंड
मृत्युदंड, या मौत की सजा, समाज में न्याय देने के लिए किसी अभियुक्त व्यक्ति पर अदालत द्वारा लगाई गई अंतिम सजा है। मृत्युदंड का अर्थ है किसी व्यक्ति के जीवन को न्यायिक रूप से या न्यायिक आदेश के माध्यम से खत्म करना। देश के दंड कानून में मृत्युदंड की अवधारणा के संबंध में नैतिकतावादियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और न्यायपालिका के बीच इस बात पर लगातार बहस होती रहती है कि इस तरह की सजा को लागू किया जाना चाहिए या नहीं और इसका प्रयोग कब किया जाना चाहिए।
मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सामने आई थी। इस संबंध में परस्पर विरोधी निर्णयों के कारण यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष न्यायनिर्णयन (एडजुडिकेशन) के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा था। जगमोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1973) के मामले में, यह देखा गया कि मृत्युदंड का प्रावधान संवैधानिक रूप से मान्य है, जबकि राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1979) के मामले ने पूरी तरह से विपरीत और परस्पर विरोधी विचार दिए है। राजेंद्र प्रसाद के मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर और डी.डी. देसाई ने फैसला सुनाया कि जब निचली अदालत अभियुक्तों को दोषी ठहराने वाले मामले का निष्कर्ष निकालती है, तो यह अदालत का कर्तव्य है कि वह अभियोजन पक्ष से पूछे कि उच्चतम सजा की आवश्यकता है या नहीं। और अगर अभियोजन पक्ष इस तरह के दंड की मांग करता है, तो उसे उन महत्वपूर्ण परिस्थितियों को बताना या प्रदान करना चाहिए जिनके आधार पर सजा की आवश्यकता है। इस प्रकार, इस विशेष मामले में, खंडपीठ ने आरोपण के लिए विशेष कारणों और परिस्थितियों का आवश्यक तत्व प्रदान किया।
“बलात्कारियों को फांसी देने” के विचार की आम जनता ने व्यापक रूप से निंदा की है। निर्भया कांड, और कठुआ बलात्कार कांड जैसे सबसे भयानक मामलों के बाद, समाज में आम तौर पर लोग गुस्से से भर जाते हैं और पीड़िता और उनके परिवारों को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उतर आते हैं। बलात्कार के लिए मृत्युदंड की अवधारणा की हमेशा जनता द्वारा मांग की जाती है। हालाँकि, न्यायपालिका के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि कानून की अदालतें समाज की भावनाओं और क्रोध का पालन नहीं करती हैं, बल्कि मृत्युदंड के संबंध में भारत में सुस्थापित कानून है।
एक बलात्कारी को मृत्युदंड देने के लिए, अदालत के लिए यह सुनिश्चित करना और निर्णय लेने के अपने कौशल के माध्यम से पता लगाना आवश्यक है कि क्या मामला “दुर्लभ से दुर्लभतम” की श्रेणी में आता है। यह सिद्धांत मुख्य रूप से उन मामलों पर लागू होता है जहां कार्रवाई इतनी बर्बर और अमानवीय प्रकृति की होती है, जैसे निर्भया बलात्कार मामले में, जो केवल अभियुक्तों की न्यायिक फांसी के माध्यम से न्याय करने का सहारा लेती है। बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय में केवल “दुर्लभ से दुर्लभतम” मामलों में मृत्युदंड की आवश्यकता लगी थी, जहां अपने स्वभाव से किया गया अपराध आजीवन कारावास की गुंजाइश को समाप्त कर देता है और सजा को केवल मृत्यु की ओर ले जाता है।
इसके अलावा, कानून की अदालत, बलात्कार के मामलों से निपटते समय, पीड़ित व्यक्ति पर अभियुक्त व्यक्ति के प्रभाव को ध्यान से देखती है। ये प्रभाव बलपूर्वक संभोग के परिणामस्वरूप अभियोजिका की मृत्यु या मानसिक आघात का उल्लेख करेंगे। अदालत उन मामलों में मौत की सजा देती है जहां पीड़िता के निजी अंगों को इस हद तक तोड़ा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है। इसलिए, बलात्कार के अपराध के लिए भारत में मृत्युदंड देने के लिए, मामले को अपने तथ्यों और परिस्थितियों के माध्यम से यह दिखाना आवश्यक है कि यह “दुर्लभ से दुर्लभतम” श्रेणी के अंतर्गत आता है, लेकिन यह दुर्लभता क्या है, यह एक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से ही पता चल सकता है।
न्यायपालिका और बलात्कार की सजा
भारतीय लोकतंत्र में इसका एक स्तंभ अर्थात न्यायपालिका राष्ट्र की कानून व्यवस्था पर नियंत्रण रखती है। यह बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करने वाले सभी मामलों पर एक प्राधिकरण के रूप में कार्य करती है। बलात्कार सबसे बड़ी सामाजिक बुराइयों में से एक है जो समाज को प्रभावित करती है क्योंकि यह आम जनता को डराती और यह फैलाती है कि समाज में महिलाएं इस तरह के जघन्य अपराध से कैसे सुरक्षित रहेंगी।
अनादिकाल से भारत की अदालतों ने अपनी पशु वासना के नशे में बलात्कार के बर्बर अपराध को अंजाम देने वाले अपराधियों पर कार्रवाई की, न्याय किया और उन्हें दंडित किया है। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1860 के भारतीय दंड संहिता में, धारा 376 के तहत प्रदान की गई बलात्कार की सजा कम से कम दस साल के सश्रम कारावास के साथ जुर्माना है जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ सकता है और, उस मामले में जहां महिला की आयु 16 वर्ष से कम है, न्यूनतम 20 वर्ष तक हो सकती है।
धारा को सीधे तौर पर पढ़ने से, यह नहीं कहा जा सकता है कि संहिता बलात्कार के अपराध के लिए मृत्युदंड का प्रावधान करती है क्योंकि यह केवल कारावास की बात करती है। लेकिन, कुछ मामलों में एक महिला के बलात्कार से निपटने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपराधी को मृत्युदंड से दंडित किया है। अदालत जिसका पालन करती है वह “दुर्लभ मामलों में दुर्लभतम” का सिद्धांत है।
माछी सिंह बनाम पंजाब राज्य (1983) का मामला कई तत्वों को प्रदान करता है जिन्हें अभियुक्तों पर मौत की सजा देने के लिए देखा जाना चाहिए। 3-न्यायाधीशों की खंडपीठ के अनुसार, किया गया अपराध सबसे जघन्य प्रकृति का होना चाहिए जिसकी कल्पना कोई भी नही कर सकता है ताकि उच्चतम सजा लागू की जा सके। यह आगे निम्नलिखित कारक प्रदान करता है।
- अपराध करने का तरीका;
- अपराध करने का मकसद;
- पूरे समाज पर अपराध का प्रभाव;
- अपराध के लिए अग्रणी (लीडिंग) तथ्य और परिस्थितियाँ;
- अपराधी के हाथों समाज के सदस्यों की भेद्यता (वलनेरेबिलिटी);
- अपराध की भयावहता (मैग्नीट्यूड);
- अपराध के शिकार व्यक्ति का व्यक्तित्व (पर्सनेलिटी)।
बलात्कार की सजा पर ऐतिहासिक फैसले
मुकेश और अन्य बनाम दिल्ली एनसीटी और अन्य, (2017) (निर्भया मामला)
इस मामले में, एक पैरामेडिकल छात्रा को छह पुरुषों के एक समूह द्वारा प्रताड़ित और बलात्कार किया गया था, जिन्होंने उसकी योनि और उसकी आंतों, पेट और जननांगों में लोहे की छड़ डाल दी थी। इससे उसके प्राइवेट पार्ट पूरी तरह से खराब हो गए थे। किए गए अपराध के लिए, अभियुक्तों में से एक, जो किशोर था, को तीन साल के लिए सुधार सुविधा के लिए भेजा गया था। एक अभियुक्त ने जेल में आत्महत्या कर ली थी और बाकी को मौत की सजा दी गई थी। सुनवाई के दौरान, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन मामलों में सजा देना विवेक का मामला है, जिसका प्रयोग उन परिस्थितियों को तौलते समय किया जाना चाहिए जो बढ़ रही हैं या कम कर रही हैं। इसके अलावा, जो देखा जाना चाहिए वह समग्र रूप से समाज की सुरक्षा है, अपराधियों के अधिकारों और समग्र रूप से समाज के अधिकारों की अवधारणाओं और भावना को संतुलित करना चाहिए।
रमेशभाई चंदूभाई राठौड़ बनाम गुजरात राज्य (2011)
इस मामले में अभियुक्त ने पीड़िता के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि समाज की सामाजिक संरचना पर इसके प्रभाव पर विचार किए बिना अभियुक्त को सजा देना संभावित रूप से अप्रभावी है। अदालत ने, सजा से निपटने के दौरान, कई बार “अपराध परीक्षण” या “दुर्लभतम परीक्षण” को यह पता लगाने के लिए लागू किया है कि क्या किए गए अपराध ने आम लोगों की अंतरात्मा को हिला दिया है और क्या इसने जनता में अत्यधिक रोष पैदा किया है। इसकी आलोचना के संबंध में अदालतों ने यह भी फैसला सुनाया है कि जब अभियोजक असहाय महिलाएं, बच्चे या बुजुर्ग लोग हैं और अभियुक्त एक क्रूर पशु मानसिकता का प्रदर्शन करता है, अपराध को अत्याचारपूर्ण तरीके से करता है, तो ऐसे व्यक्ति के लिए कोई दया नहीं है और उसे मौत की सजा दी जानी चाहिए।
धनंजय चटर्जी उर्फ धाना बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1994)
इस मामले में अभियुक्त ने, जो पेशे से सुरक्षा गार्ड था, पीड़िता की शिकायत पर अपने तबादले का बदला लेने के लिए नाबालिग स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में अभियुक्त व्यक्ति को मौत की सजा दी, यह देखते हुए कि एक आपराधिक मुकदमे में सजा का उपाय या नियम पीड़ित पर अभियुक्त व्यक्ति द्वारा किए गए अत्याचार और अमानवीय कार्यों, उसका आचरण और पीड़ित की लाचारी पर निर्भर होना चाहिए।
बंटू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2008)
इस मामले में, पीड़िता, एक पांच वर्षीय लड़की, का बलात्कार किया गया और अभियुक्त व्यक्ति द्वारा सबसे भयानक तरीके से उसकी हत्या कर दी गई, जिसने उसके साथ संभोग किया और फिर उसे मारने के इरादे से लकड़ी का डंडा इस उद्देश्य से डाला की वह उसे बाद में किसी को भी सूचित न करे। सर्वोच्च न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी पाया और मृत्युदंड दिया, यह देखते हुए कि उचित सजा देने के मुद्दे पर, अदालत को एक ऐसे समाज में सामाजिक व्यवस्था और आपराधिक प्रतिरोध को संतुलित करने का प्रयास करना चाहिए जहां उसे उच्चतम दंडात्मक दंड देना है। इसने आगे कहा कि एक आपराधिक मुकदमे में हर कदम पर, वर्तमान शमन करने वाले और उत्तेजित करने वाले कारकों को बारीकी से देखा जाना चाहिए।
निष्कर्ष
उन्नीसवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान तक, भारतीय दंड कानून में संशोधनों के माध्यम से कई महत्वपूर्ण और बदलते सुधार हुए हैं, जिन्होंने बदलती सामाजिक धारणाओं के अनुसार आपराधिक कानून को आकार दिया है। हालाँकि न्याय देने के लिए बलात्कार कानून मौजूद हैं, लेकिन उनमें सख्त अधिकार की कमी है। बलात्कार जैसे अपराध से सख्ती से निपटा जाना चाहिए क्योंकि यह न केवल पीड़ित के शरीर को नष्ट करता है; यह बहुत लोगों की आत्मा को भी डरा देता है। सश्रम आजीवन कारावास जैसी कड़ी सजा ही अभियुक्त व्यक्ति को दी जाने वाली एकमात्र सजा होनी चाहिए क्योंकि “दुर्लभ से दुर्लभतम” सिद्धांत के कारण भारत में मृत्युदंड का दायरा बहुत सीमित है। इन सबसे ऊपर, न्यायपालिका को जिस चीज पर ध्यान देना है, वह है उत्तेजित करने वाले और कम करने वाले कारकों की जांच करके सजा का कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन), या किए गए अपराध के लिए कड़ी सजा की आवश्यकता है या नहीं।
संदर्भ
- P.S.A Pillai’s Criminal Law, 14th Edition LexisNexis, 2019
aapke pass dhara 376 ke high court ke latest judgement hai?