यह लेख गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की छात्रा Shivani Verma ने लिखा है। इस लेख में, उन्होंने फंडामेंटल ड्यूटीज़ से संबंधित विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Aseer Jamal द्वारा किया गया है।
Table of Contents
भारत की फंडामेंटल ड्यूटीज़
एक इंडियन नागरिक के रूप में, हमें कुछ अधिकार और ड्यूटी प्रदान किए गए हैं। प्रत्येक नागरिक की ड्यूटी कानूनों का पालन करना और अपने कानूनी दायित्वों (ओब्लिगेशंस) का पालन करना है। मनुष्य को अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए। इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन द्वारा 11 फंडामेंटल ड्यूटी निर्धारित किए गए हैं।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की उत्पत्ति और कार्यक्षेत्र (ओरिजिन एंड स्कोप ऑफ़ फंडामेंटल ड्यूटीज)
उत्पत्ति (ओरिजिन)
स्वर्ण सिंह कमिटी की सिफारिशों पर, हमारे इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में 42वें अमेंडमेंट, 1976 द्वारा फंडामेंटल ड्यूटीज़ को जोड़ा गया। फंडामेंटल ड्यूटीज, मूल रूप से संख्या में 10 थे लेकिन 2002 में, 86वें अमेंडमेंट ने इसकी संख्या बढ़ाकर 11 कर दी। 11वीं ड्यूटी ने प्रत्येक माता-पिता और अभिभावक (गार्जियन) के लिए अपने बच्चे को शैक्षिक अवसर प्रदान करना अनिवार्य कर दिया, जो 6 वर्ष से अधिक लेकिन 14 वर्ष से कम आयु के है। ये ड्यूटी जापान के कॉन्स्टीट्यूशन से ली गई हैं।
कार्यछेत्र (स्कोप)
इन ड्यूटीज़ के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए न तो कॉन्स्टीट्यूशन में कोई प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) प्रावधान (प्रोविज़न) है और न ही इन ड्यूटीज़ के उल्लंघन (वॉयलेशन) को रोकने के लिए कोई क़ानून है। ये ड्यूटी प्रकृति में अनिवार्य हैं। निम्नलिखित तथ्य फंडामेंटल ड्यूटीज़ के महत्व को प्रदान करते हैं:
- एक व्यक्ति को फंडामेंटल राइट्स और ड्यूटीज़ का समान रूप से सम्मान करना चाहिए क्योंकि किसी भी मामले में, यदि अदालत को यह पता चलता है कि जो व्यक्ति अपने अधिकारों को लागू करना चाहता है, वह अपने ड्यूटीज़ के प्रति लापरवाह है, तो अदालत उसके मामले के प्रति उदार (लीनिएंट) नहीं होगी।
- किसी भी अस्पष्ट (एम्बिगुयस) क़ानून की व्याख्या फंडामेंटल ड्यूटीज़ की सहायता से की जा सकती है।
- अदालत कानून को उचित मान सकती है यदि वह किसी फंडामेंटल ड्यूटी को प्रभावी (इफ़ेक्ट) करता है। इस तरह अदालत ऐसे कानून को अनकॉन्स्टीट्यूशनल घोषित होने से बचा सकती है।
फंडामेंटल ड्यूटी कहाँ से लिए गए?
फंडामेंटल ड्यूटीज़ को यू.एस.एस.आर. (रूस) कॉन्स्टीट्यूशन से लिया गया है। हमारे कॉन्स्टीट्यूशन में फंडामेंटल ड्यूटीज़ को शामिल करने से हमारा कॉन्स्टीट्यूशन, यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स के आर्टिकल 29(1) और अन्य देशों के आधुनिक (मॉडर्न) कॉन्स्टीट्यूशन के विभिन्न प्रावधानों के अनुरूप (एलाइन्ड) हो गया है।
11 फंडामेंटल ड्यूटीज़
इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के भाग- IV-A में केवल एक आर्टिकल है जो कि आर्टिकल -51A है जो फंडामेंटल ड्यूटीज़ से संबंधित है। इसे 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 द्वारा कॉन्स्टीट्यूशन में जोड़ा गया था। पहली बार, भारत के नागरिकों को 11 फंडामेंटल ड्यूटीज़ का एक कोड प्रदान किया गया था। आर्टिकल 51-A में कहा गया है कि यह भारत के प्रत्येक नागरिक की ड्यूटी है:
- कॉन्स्टीट्यूशन का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थानों, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे- आदर्श जैसे कि स्वतंत्रता, न्याय, समानता, बंधुत्व (फ्रटर्निटी) और संस्थाएं जैसे कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव), विधायिका (लेजिस्लेचर) और न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) का देश के सभी नागरिकों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को ऐसी कोई प्रथा नहीं अपनानी चाहिए जो कॉन्स्टीट्यूशन की भावना (स्पिरिट) का उल्लंघन करती हो और उसकी गरिमा (डिग्निटी) को बनाए रखना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान या राष्ट्रीय ध्वज का अनादर करता है तो वह एक आज़ाद (सॉवरेन) देश के नागरिक के रूप में विफल होगा।
- स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को ह्रदय में संजोए रखे और उनका पालन करे – प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता के संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान विचारों की प्रशंसा और सराहना करनी चाहिए। ये विचार एक न्यायपूर्ण समाज, स्वतंत्रता, समानता, अहिंसा, भाईचारे और विश्व शांति के साथ एक संयुक्त (युनाइटिड) राष्ट्र बनाने पर केंद्रित (फोकस्ड) हैं। एक नागरिक को इन विचारों के प्रति प्रतिबद्ध (कमिटेड) रहना चाहिए।
- भारत की संप्रभुता (सोवेर्निटी), एकता (यूनिटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी) की रक्षा और उसे बनाए रखना चाहिए – यह बुनियादी ड्यूटीज़ में से एक है जिसे भारत के प्रत्येक नागरिक को निभाना चाहिए। अगर देश की एकता खतरे में है तो एक संयुक्त राष्ट्र संभव नहीं है। संप्रभुता लोगों के पास है। इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 19(2) ने भारत के हितों और अखंडता की रक्षा के लिए अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध (रेस्ट्रिक्शन्स) लगाए।
- देश का सम्मान करना चाहिए और बुलाए जाने पर राष्ट्र सेवा करनी चाहिए- हर नागरिक को दुश्मनों से देश की रक्षा करनी चाहिए। सेना, नौसेना आदि के अलावा सभी नागरिकों को आवश्यकता पड़ने पर अपनी और राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
- भारत के नागरिकों के बीच सद्भाव (हारमनी) और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना चाहिए, धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय या अनुभागीय (सेक्शनल) विविधताओं (डाइवर्सिटीज़) से परे और उन प्रथाओं को त्यागना चाहिए जो महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक हैं। एक ध्वज और एकल (सिंगल) नागरिकता की उपस्थिति न केवल भाईचारे की भावना को दर्शाती है बल्कि नागरिकों को सभी मतभेदों (डिफरेंसेस) को पीछे छोड़ने और सभी क्षेत्रों में सामूहिक गतिविधि (कलेक्टिव एक्टिविटी) पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश देती है।
- हमें अपनी मिली-जुली संस्कृति की विरासत (हेरिटेज) को महत्व देना चाहिए और उसका संरक्षण करना चाहिए – भारत की संस्कृति पृथ्वी की सबसे समृद्ध (रिचेस्ट) विरासतों में से एक है। इसलिए, प्रत्येक नागरिक के लिए विरासत की रक्षा करना और उसे आने वाली पीढ़ियों को देना अनिवार्य है।
- वनों, झीलों, नदियों, वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना चाहिए और एक नागरिक को जीवित प्राणियों के प्रति दया करनी चाहिए- आर्टिकल 48A के तहत यह ड्यूटी एक कॉन्स्टीट्यूशनल प्रावधान के रूप में भी प्रदान किया गया है। प्राकृतिक पर्यावरण प्रत्येक देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान है। इसलिए प्रत्येक नागरिक को इसकी रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए।
- व्यक्ति को न केवल वैज्ञानिक स्वभाव (साइंटिफिक टेम्परामेंट) और मानवतावाद (ह्यूमनिज़्म) बल्कि जांच और सुधार की भावना भी विकसित करनी चाहिए – अपने स्वयं के विकास के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरों के अनुभवों से सीखे और इस तेजी से बदलते पर्यावरण में विकसित हो। इसलिए इन परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने के लिए हमेशा वैज्ञानिक स्वभाव रखने का प्रयास करना चाहिए।
- सार्वजनिक (पब्लिक) संपत्ति की हमेशा रक्षा करनी चाहिए और त्याग करना चाहिए – अहिंसा का उपदेश देने वाले देश में होने वाली हिंसा के अनावश्यक मामलों के कारण सार्वजनिक संपत्ति को पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है। इसलिए सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का ड्यूटी है।
- जीवन के सभी क्षेत्रों में और सामूहिक गतिविधि के लिए हमेशा उत्कृष्टता (एक्सीलेंस) की ओर प्रयास करना चाहिए ताकि राष्ट्र अपने प्रयास और उपलब्धियों के साथ जारी रहे – यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारा देश उपलब्धि के उच्च स्तर तक पहुंचे, प्रत्येक नागरिक का यह फंडामेंटल ड्यूटी है कि जो कार्य उसे दिया जाता है उसे वह उत्कृष्टता के साथ करें। यह निश्चित रूप से देश को उत्कृष्टता के उच्चतम संभव स्तर की ओर ले जाएगा।
- 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच के अपने बच्चे या वार्ड को हमेशा शिक्षा का अवसर प्रदान करना चाहिए – 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए और यह ऐसे बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह 86वें कॉन्स्टीट्यूशन अमेंडमेंट एक्ट, 2002 द्वारा प्रदान किया गया था।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की विशेषताएं (फीचर्स ऑफ़ फंडामेंटल ड्यूटीज)
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- नैतिक (मोरल) और नागरिक दोनों ड्यूटीज़ को फंडामेंटल ड्यूटीज़ के तहत निर्धारित किया गया है, जैसे, “इंडियन नागरिकों को न केवल उन महान विचारों को संजोना चाहिए जो स्वतंत्रता संग्राम (स्ट्रगल) की ओर ले जाते हैं बल्कि उन्हें कॉन्स्टीट्यूशन, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का भी सम्मान करना चाहिए”।
- फंडामेंटल अधिकार विदेशियों पर भी लागू हो सकते हैं लेकिन फंडामेंटल ड्यूटी केवल इंडियन नागरिकों तक ही सीमित हैं।
- फंडामेंटल ड्यूटी प्रकृति में प्रवर्तनीय (एंफॉरेसिएबल) नहीं हैं। उनके उल्लंघन के मामले में सरकार द्वारा कोई कानून लागू नहीं किया जा सकता है।
- ये ड्यूटी भी हिंदू परंपराओं (ट्रेडिशंस) या पौराणिक कथाओं (माइथोलॉजी) से संबंधित हैं जैसे देश का सम्मान करना या भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना।
फंडामेंटल ड्यूटी और इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन
कॉन्स्टीट्यूशन को 1949 में अपनाया गया था, लेकिन इसमें फंडामेंटल ड्यूटीज़ के प्रावधान नहीं थे। भारत की संसद ने न केवल इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में फंडामेंटल ड्यूटीज़ को सम्मिलित करने की आवश्यकता को महसूस किया बल्कि यह भी महसूस किया कि सभी को ऐसे ड्यूटीज़ का पालन करना चाहिए। एक नया भाग, जो कि भाग IVA है, को 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 द्वारा सम्मिलित किया गया था, जो भारत के नागरिकों द्वारा पालन किए जाने वाले कई फंडामेंटल ड्यूटीज़ का प्रावधान करता है।
इन ड्यूटीज़ को “निर्देशिका” (डायरेक्टरी) के रूप में माना जाता है क्योंकि इन ड्यूटीज़ को मैनडेमस की रिट के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि वे कोई सार्वजनिक ड्यूटी नहीं करते हैं। फंडामेंटल ड्यूटी हमारे राष्ट्रीय लक्ष्यों और राजनीतिक व्यवस्था के बुनियादी मानदंडों (नॉर्म्स) के मूल अनुस्मारक (रिमाइंडर) हैं। वे एक व्यक्ति को अपने आप में सामाजिक जिम्मेदारी की भावना पैदा करने के लिए प्रेरित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फंडामेंटल ड्यूटीज़ का इस्तेमाल किसी भी अनिश्चित क़ानून (स्टेट्यूट) की व्याख्या करने के लिए किया जा सकता है। ये ड्यूटी भारत के नागरिकों को शैक्षिक और मनोवैज्ञानिक मूल्य प्रदान करते हैं। ये ड्यूटी लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) और देशभक्ति की भावना को बनाए रखते हैं।
रामलीला मैदान घटना के मामले में, अदालत ने माना कि “फंडामेंटल” शब्द का प्रयोग हमारे इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में दो अलग-अलग अर्थों में किया गया है। जब इस शब्द का प्रयोग अधिकारों के लिए किया जाता है तो इसका मतलब है कि ये अधिकार बहुत आवश्यक हैं और कोई भी कानून जो फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन करेगा उसे रद्द कर दिया जाएगा। लेकिन जब इस शब्द का प्रयोग ड्यूटीज़ के लिए किया जाता है तो इसका प्रयोग मानक (नोर्मेटिव) अर्थ में किया जाता है क्योंकि यह स्टेट के सामने कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है जिसे स्टेट को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
42वां अमेंडमेंट 1976
42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 को आपातकाल (एमर्जेन्सी) की अवधि के दौरान अनुमोदित (अप्प्रूव) किया गया था। उस समय इंदिरा गांधी की अध्यक्षता (हेडिड) वाली इंडियन राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस अमेंडमेंट को मंजूरी दी थी। इस अमेंडमेंट को सबसे विवादस्पद अमेंडमेंट माना गया। इस अमेंडमेंट एक्ट द्वारा प्रदान किए गए प्रावधान अलग-अलग तिथियों पर लागू हुए। अधिकांश प्रावधान 3 जनवरी को लागू हुए जबकि अन्य 1 अप्रैल 1977 से लागू हुए। इस अमेंडमेंट को “मिनी-कॉन्स्टीट्यूशन” या “इंदिरा का कॉन्स्टीट्यूशन” के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि कॉन्स्टीट्यूशन में व्यापक (वाइड) परिवर्तन लाए गए थे। 42वें अमेंडमेंट द्वारा 11 फंडामेंटल ड्यूटी निर्धारित किए गए।
86वां अमेंडमेंट 2002
दुनिया में कुछ ही कॉन्स्टीट्यूशन नागरिकों के दायित्वों और ड्यूटीज़ को बताते हुए दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) प्रदान करते हैं। अपने नागरिकों के अधिकारों और ड्यूटीज़ को नियंत्रित करने के लिए, कनाडा और ब्रिटेन कॉमन लॉ और उसके न्यायिक निर्णय पर महत्व रखते हैं। कहा जाता है कि छोटी अवस्था में ही फंडामेंटल ड्यूटीज़ का पालन करना सिखाया जाना चाहिए क्योंकि यदि ऐसा होगा तो कॉन्स्टीट्यूशन में ड्यूटीज़ को सूचीबद्ध (लिस्ट) करना महत्वपूर्ण नहीं होगा क्योंकि यह इसके इम्प्लीमेंटेशन को प्रभावित नहीं करेगा।
उन्नीकृष्णन निर्णय ने कहा कि 14 वर्ष से कम आयु के सभी नागरिकों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। शिक्षा की बढ़ती सार्वजनिक मांग के कारण, सरकार ने शिक्षा को फंडामेंटल अधिकार बनाने की दिशा में काम किया। 2002 में, आर्टिकल 51A में एक अमेंडमेंट डाला गया था। आर्टिकल 51(k) को आर्टिकल 51(j) के बाद जोड़ा गया था जिसमें कहा गया था कि प्रत्येक नागरिक की यह फंडामेंटल ड्यूटीज है कि वह 6 साल से 14 साल के उम्र के बीच के बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अवसर प्रदान करे।
एम सी मेहता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बातें कहीं:
- प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण और सुधार पर सभी शिक्षण संस्थानों के लिए सप्ताह में कम से कम एक घंटे का शिक्षण पाठ आयोजित करना अनिवार्य है।
- आर्टिकल 51-A(g) के तहत केंद्र सरकार का यह ड्यूटी है कि वह इस पाठ को सभी शिक्षण संस्थानों में लागू करे।
- केंद्र सरकार को भी सभी संस्थानों में एक ही विषय पर पुस्तकों का नि:शुल्क वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) करना चाहिए।
- स्वच्छ पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए सरकार को वर्ष में कम से कम एक बार ‘शहर को स्वच्छ रखें’ सप्ताह का आयोजन करना चाहिए।
फंडामेंटल ड्यूटीज कमिटीज़
स्वर्ण सिंह कमिटी
इस कमिटी के अध्यक्ष सरदार स्वर्ण सिंह थे जिन्हें राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन का अध्ययन करने की जिम्मेदारी दी गई थी। आपातकाल की घोषणा के बाद इंदिरा गांधी ने कॉन्स्टीट्यूशन का अध्ययन करने और पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए इसमें अमेंडमेंट करने की जिम्मेदारी इस कमिटी पर डाल दी। कमिटी की सिफारिशों के आधार पर सरकार द्वारा कॉन्स्टीट्यूशन में कई बदलाव शामिल किए गए।
आपातकाल के दौरान फंडामेंटल ड्यूटीज़ की आवश्यकता महसूस की गई। इसलिए 1976 में एक कमिटी का गठन किया गया जिसने इसके लिए सिफारिश की। फंडामेंटल ड्यूटीज़ के शीर्षक के तहत इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में एक अलग अध्याय को शामिल करने की सिफारिश की गई थी। नागरिक अपने फंडामेंटल राइट्स का आनंद लेते हुए अपने ड्यूटीज़ के प्रति जागरूक होंगे। इस सुझाव को सरकार ने स्वीकार कर लिया और इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में एक नया आर्टिकल 51A शामिल किया गया जिसमें पहले 10 फंडामेंटल ड्यूटी थे। सरकार ने यह भी कहा कि इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के मूल निर्माताओं द्वारा उस समय फंडामेंटल ड्यूटीज़ को शामिल न करने की गलती की गई थी। कमिटीने 8 फंडामेंटल ड्यूटीज़ का सुझाव दिया लेकिन 42वें अमेंडमेंट में 10 ड्यूटी थी। सभी अनुशंसाओं (रेकमेंडेशन्स) में से प्रत्येक अनुशंसा को स्वीकार नहीं किया गया।
कुछ सिफारिशें जिन्हें स्वीकार नहीं किया गया, वे हैं:
- फंडामेंटल ड्यूटीज़ का पालन न करने की स्थिति में संसद दंड लगा सकती है।
- कानून की अदालत में, ऐसी सजा या कानून पर सवाल नहीं उठाया जाएगा।
- फंडामेंटल ड्यूटीज़ में टैक्स का भुगतान करने का शुल्क भी शामिल है जिसे अस्वीकार कर दिया गया था।
जस्टिस वर्मा कमिटी
हर प्रकार के शिक्षण संस्थान में फंडामेंटल ड्यूटीज़ को लागू करने के लिए और हर स्कूल में इन ड्यूटीज़ को सिखाने के लिए दुनिया भर में शुरू किए गए एक कार्यक्रम को तैयार करने के लिए रणनीति (स्ट्रेटेजी) और कार्यप्रणाली (मेथोडोलॉजी) की योजना बनाने के लिए, 1998 में जस्टिस वर्मा कमिटी की स्थापना की गई थी। कमिटीने ऐसा क़दम लिया क्योंकि यह फंडामेंटल ड्यूटीज़ के गैर-संचालन के बारे में जानता था। कमिटीने पाया कि गैर-परिचालन (नॉन-ओप्रेशनलाइज़ेशन)का कारण चिंता की कमी के बजाय इसके कार्यान्वयन के लिए रणनीति की कमी के कारण था।
कमिटी ने प्रावधान प्रदान किए जैसे:
- प्रिवेंशन ऑफ़ इंसल्ट टू नेशनल ऑनर एक्ट, 1971 के तहत कोई भी व्यक्ति राष्ट्रीय ध्वज, भारत के कॉन्स्टीट्यूशन और राष्ट्रगान का अनादर नहीं कर सकता है।
- विभिन्न आपराधिक कानून बनाए गए हैं जो जाति, धर्म, भाषा आदि के आधार पर लोगों के बीच शत्रुता को प्रोत्साहित करने वाले लोगों को दंड प्रदान करते हैं।
- प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स एक्ट (1955), जाति और धर्म से संबंधित किसी भी अपराध के मामले में दंड का प्रावधान करता है।
- इंडियन पीनल कोड, 1860 की विभिन्न धाराओं के तहत राष्ट्र की अखंडता और एकता के लिए हानिकारक आरोप और दावे दंडनीय अपराध माने जाते हैं।
- एक कम्युनल ओर्गनइजेशन को एक गैरकानूनी संघ के रूप में घोषित करने से रोकने के लिए, अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट, 1967 की स्थापना की गई थी।
- यदि संसद या स्टेट विधायिका के सदस्य धर्म के नाम पर वोट मांगने जैसे किसी भ्रष्ट आचरण (कंडक्ट) में लिप्त होते हैं तो उन्हें रिप्रजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट, 1951 के तहत उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
- वाइल्डलाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1972 दुर्लभ (रेयर) और लुप्तप्राय (एंडेंजर्ड) जानवरों के मामले में व्यापार की रक्षा और निषेध करता है।
- फारेस्ट (कंज़र्वेशन) एक्ट, 1980 को यह सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया था कि आर्टिकल 51A(g) को ठीक से लागू किया गया था।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की आवश्यकता
अधिकार और ड्यूटी परस्पर संबंधित हैं। फंडामेंटल ड्यूटीज प्रत्येक नागरिक के लिए एक निरंतर अनुस्मारक (रिमाइंडर) के रूप में कार्य करते हैं जबकि कॉन्स्टीट्यूशन ने विशेष रूप से उन्हें कुछ फंडामेंटल अधिकार प्रदान किए हैं। नागरिकों द्वारा लोकतांत्रिक आचरण और लोकतांत्रिक व्यवहार के कुछ बुनियादी मानदंडों (नॉर्म्स) का पालन किया जाना चाहिए। उस समय की सत्ताधारी दल कांग्रेस ने दावा किया था कि कॉन्स्टीट्यूशन निर्माता जो करने में विफल रहे, वह अब किया जा रहा है। राष्ट्र के प्रति नागरिकों के ड्यूटीज़ पर एक अध्याय शुरू करके इस चूक को सुधारा गया। भारत में, लोग अधिकारों पर अधिक जोर देते हैं न कि ड्यूटी पर।
यह नजरिया गलत था। इस देश में अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों (प्रिविलेजेस) की आंशिक (पार्शियल) अवहेलना (डिसरिगार्ड) कर अपने ड्यूटीज़ के पालन करने की परंपरा रही है। प्राचीन काल से व्यक्ति के ड्यूटी पर जोर दिया गया था जो समाज, उसके देश और उसके माता-पिता के प्रति अपने ड्यूटीज़ का प्रदर्शन है। गीता और रामायण यह भी प्रदान करते हैं कि लोगों को अपने अधिकारों की परवाह किए बिना अपने ड्यूटीज़ का पालन करना चाहिए।
पारंपरिक ड्यूटीज़ को कॉन्स्टीट्यूशनल मंजूरी दी गई है। यदि कोई कॉन्स्टीट्यूशन में स्पष्ट रूप से देखता है तो वह न केवल अपने अधिकारों बल्कि ड्यूटीज़ की भी खोजता है। कॉन्स्टीट्यूशन को ध्यान से देखने से निश्चित रूप से उन लोगों के प्रश्न का समाधान हो जाएगा जो यह दावा करते हैं कि कॉन्स्टीट्यूशन केवल नागरिकों को अधिकार प्रदान करता है, न कि समाज के प्रति व्यक्तियों के ड्यूटीज़ की बात करता है। सभी नागरिकों को प्रदान किए गए फंडामेंटल राइट्स, इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के प्रीएम्ब्ल में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, और पूजा की स्वतंत्रता मौजूद हैं। ये पूर्ण अधिकार नहीं हैं क्योंकि स्टेट समाज के हित में उन पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। शेष प्रीएम्ब्ल में न्याय, सामाजिक, आर्थिक (इकोनोमिक) और राजनीतिक जैसे ड्यूटीज़ पर जोर दिया गया है।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ का महत्व
एक मजबूत राष्ट्रीय चरित्र के साथ एक मजबूत नींव बनाने के लिए सरकार ने फंडामेंटल ड्यूटीज़ को कॉन्स्टीट्यूशन में डाला। यह न केवल मानवीय गरिमा पर जोर देता है बल्कि समुदाय में सद्भाव की भावना भी पैदा करता है। हमारे समाज का सुधार तभी हो सकता है जब प्रत्येक नागरिक समाज के प्रति अपने ड्यूटीज़ का पालन करते हुए समाज में पैदा हुए मदभेदों को ख़त्म करने पर ध्यान केंद्रित करे। न्यायिक सुधार समय-समय पर ऐसे ड्यूटीज़ को लागू करने में मदद करते हैं क्योंकि इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में उनके प्रवर्तन के लिए कोई प्रावधान नहीं है। यदि प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास फंडामेंटल राइट्स हो तो सभी को अपने ड्यूटीज़ का निर्वाह (फुलफिल) करना चाहिए।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ का महत्व इस प्रकार है:
- फंडामेंटल ड्यूटी एक निरंतर अनुस्मारक के रूप में कार्य करते हैं कि नागरिकों को अपने फंडामेंटल राइट्स का आनंद लेते हुए राष्ट्र के प्रति अपने ड्यूटीज़ के बारे में नहीं भूलना चाहिए।
- ये ड्यूटी किसी भी प्रकार की असामाजिक गतिविधियों के खिलाफ लोगों के लिए एक चेतावनी संकेत के रूप में कार्य करते हैं।
- ये ड्यूटी लोगों को मूकदर्शक (स्पेक्टेटर) होने के बजाय समाज में सक्रिय (एक्टिव) भागीदारी का मौका देते हैं।
- ये ड्यूटी समाज के प्रति अनुशासन और प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) की भावना को बढ़ावा देते हैं।
- कानून की कॉन्स्टीट्यूशनलता का निर्धारण करने के लिए अदालतें फंडामेंटल ड्यूटीज़ का उपयोग कर सकती हैं। यदि किसी कानून को उसकी कॉन्स्टीट्यूशनल वैधता के लिए अदालत में चुनौती दी जाती है और यदि वह कानून किसी फंडामेंटल ड्यूटीज़ को लागु कर रहा है तो उस कानून को उचित माना जाएगा।
- यदि फंडामेंटल राइट्स को कानून द्वारा लागू किया जाता है तो इसके उल्लंघन के मामले में संसद उसके लिए दंड लगा सकती है।
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्र ध्वज को चित्रित करते हुए सिनेमाघरों को राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया। फंडामेंटल ड्यूटीज़ को महत्व देते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाया गया यह एक उल्लेखनीय कदम था।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की आलोचना (क्रिटिसिज़्म ऑफ़ फंडामेंटल ड्यूटीज़)
फंडामेंटल ड्यूटीज़ के लिए आलोचना के विभिन्न आधार थे। इसमें शामिल है:
- आलोचक (क्रिटिक्स) फंडामेंटल ड्यूटीज़ की सूची को संपूर्ण नहीं मानते हैं। उन्हें लगता है कि स्वर्ण सिंह कमिटी द्वारा सुझाए गए करों का भुगतान, वोट डालने जैसे कई और महत्वपूर्ण ड्यूटीज़ को इस सूची में शामिल नहीं किया गया था।
- एक आम आदमी मिश्रित संस्कृति (कम्पोजिट कल्चर) जैसे जटिल शब्दों को नहीं समझ सकता जो फंडामेंटल ड्यूटीज़ में मौजूद हैं। समझ की कमी के कारण, सही अर्थ स्थापित नहीं किया जा सकता है। उसके लिए ऐसे शब्दों को समझना मुश्किल है। इसके अलावा कुछ ड्यूटी प्रकृति में अस्पष्ट हैं।
- इन ड्यूटीज़ को अदालत द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है, इसलिए आलोचकों का मानना है कि इन ड्यूटीज़ को कॉन्स्टीट्यूशन में शामिल करने का कोई फायदा नहीं है।
- कुछ ड्यूटी इस प्रकार के होते हैं कि वे प्रत्येक मामले में नागरिक द्वारा निभाए जाते हैं जैसे राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना। इसलिए इन ड्यूटीज़ को कॉन्स्टीट्यूशन में शामिल करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
- इन ड्यूटीज़ को इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के भाग IV-A में रखा गया है जो डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पॉलिसी के बाद है, इसलिए इन्हें अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। आलोचकों के अनुसार इसे फंडामेंटल राइट्स के बाद भाग III में रखा जाना चाहिए।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ के क़ानूनी मामले
बिजोए एम्मानुएल बनाम स्टेट ऑफ़ केरला का मामला, जो लोकप्रिय राष्ट्रीय गान के मामले के नाम से भी जाना जाता है, स्कूल में राष्ट्रीय गान गाने के लिए मना करने पर, जेहोवा के गवाह के तीन बच्चों को स्कूल से निष्कासित (एक्सपेलड) कर दिया गया। केरल के डायरेक्टर ऑफ़ इंस्ट्रक्शंस द्वारा एक सर्कुलर जारी किया गया था जिसमें स्कूली छात्रों के लिए राष्ट्रगान गाना अनिवार्य कर दिया गया था। ये तीनों बच्चे राष्ट्रगान के गायन में शामिल नहीं हुए लेकिन सम्मान के साथ खड़े हो गए। उन्होंने राष्ट्रगान नहीं गाया क्योंकि उनकी धार्मिक आस्था इसकी अनुमति नहीं देती थी और यह उनकी धार्मिक आस्था के खिलाफ था। उन्हें इस आधार पर निष्कासित (एक्पेल्ड) कर दिया गया था कि उन्होंने अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ का उल्लंघन किया और प्रिवेंशन ऑफ़ इंसल्ट टू नेशनल होनोर्स एक्ट, 1971 के तहत अपराध किया। अदालत ने हाई कोर्ट के इस फैसले को उलट दिया क्योंकि उन्होंने प्रिवेंशन ऑफ़ इंसल्ट टू नेशनल होनोर्स एक्ट, 1971 के तहत कोई अपराध नहीं किया था। ये स्पष्ट है की उन्होंने राष्ट्रगान नहीं गाया, लेकिन वे उसके सम्मान में खड़े थे।
एम सी मेहता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी शैक्षिक संस्थान के लिए सप्ताह में कम से कम एक घंटे के लिए संरक्षण (प्रोटेक्शन) और प्राकृतिक पर्यावरण के सुधार पर एक शिक्षण सबक आयोजन करना अनिवार्य है आर्टिकल 51A(g) के तहत केंद्र सरकार का यह ड्यूटी है कि वह इसे सभी शैक्षणिक (एड्युकेश्नल) संस्थानों में लागू करे। केंद्र सरकार को भी सभी संस्थानों में इस विषय पर मुफ्त किताबें बांटनी चाहिए और स्वच्छ पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता भी पैदा करनी चाहिए। सरकार को वर्ष में कम से कम एक बार ‘शहर को स्वच्छ रखें’ सप्ताह का आयोजन करना चाहिए।
एम्स स्टूडेंट यूनियन बनाम, एम्स के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फंडामेंटल ड्यूटीज , फंडामेंटल अधिकार की तरह समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और कोर्ट ने एम्स में 33% की संस्थागत (इंस्टीटूशनल) आरक्षण (रिजर्वेशन) के साथ साथ अनुशासन के आधार पर दिया जाने वाला 50% आरक्षण को रद्द कर दिया क्योंकि वह इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 14 का उल्लंघन था। अदालत ने यह भी कहा कि सिर्फ इसलिए कि वे ड्यूटी हैं, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उनका वही महत्व है जो फंडामेंटल राइट्स का है।
अरुणा रॉय बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया], में अदालत स्कूल शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या (करिकुलम) की रूपरेखा की वैधता को बरकरार रखा जिसको इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह आर्टिकल 28 का उल्लंघन है और यह धर्मनिरपेक्ष विरोधी है क्योंकि यह सभी धर्मों की मूल बातों से संबंधित वैल्यू डेवलपमेन्ट एड्युकेश्न की बात करता है। अदालत ने कहा कि एन.सी.एफ.एस.एफ. धार्मिक शिक्षा देने से संबंधित किसी भी बात का उल्लेख नहीं करता है जो आर्टिकल 28 के तहत वर्जित है और शिक्षा न तो आर्टिकल 28 का उल्लंघन करती है और न ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का उल्लंघन करती है ।
ऑनरेबल श्री रंगनाथ मिश्रा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, के मामले में याचिकाकर्ता ने फंडामेंटल राइट्स और ड्यूटीज़ के बीच सही संतुलन बनाने के लिए राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा ताकि वह स्टेट को निर्देश दे सकें की फंडामेंटल ड्यूटीज़ से संबंधित मामले में नागरिकों को शिक्षित किया जाये। इस पत्र को अदालत ने रिट याचिका के रूप में माना था। लेकिन जब इस मामले की सुनवाई हुई, तब तक नेशनल कमीशन द्वारा भारत सरकार को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जो उस समय कॉन्स्टीट्यूशन की समीक्षा (रिव्यु) कर रही थी। कमीशन द्वारा अदालत में निम्नलिखित सुझाव दिए गए:
- लोगों को जागरूक करने और फंडामेंटल ड्यूटीज़ के बारे में सामान्य जागरूकता पैदा करने के लिए, स्टेट और केंद्र सरकार को उस तर्ज पर उचित कदम उठाने चाहिए जिसकी सिफारिश न्यायमूर्ति वर्मा कमिटीने की थी।
- फंडामेंटल ड्यूटीज़ से संबंधित नागरिकों की जागरूकता और चेतना (कॉन्शियसनेस) पैदा करने के लिए, तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है।
अदालत ने राष्ट्रीय आयोग द्वारा की गई सिफारिशों को ध्यान में रखा और सरकार को आवश्यक कदम उठाने का भी निर्देश दिया। इस प्रकार रिट का निपटारा किया गया।
गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया बनाम जॉर्ज फिलिप, में सेवा से अनिवार्य रिटायरमेंट को रेस्पोंडेंट द्वारा चुनौती दी गई थी। उन्हें विभाग द्वारा एडवांस्ड रिसर्च ट्रेनिंग के लिए दो वर्ष की छुट्टी प्रदान की गई थी। बार-बार याद दिलाने के बाद भी रेस्पोंडेंट विदेश में रहा, इसलिए उसके खिलाफ जांच शुरू की गई और आरोप साबित हो गया। उच्च अदालत ने आदेश दिया कि उन्हें फिर से सेवा में शामिल किया जाये बशर्ते उन्हें कोई पिछली मजदूरी प्रदान नहीं की जाएगी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 51A(j) के अनुसार व्यक्ति को जीवन के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की ओर हमेशा प्रयास करना चाहिए और सामूहिक गतिविधि के लिए भी प्रयास करना चाहिए ताकि राष्ट्र लगातार उच्च स्तर के प्रयासों, उपलब्धियों और उत्कृष्टता की ओर बढ़ सके और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कर्मचारियों द्वारा अनुशासन को बनाए नहीं रखा जाता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अदालतों द्वारा कोई भी आदेश पारित नहीं किया जाना चाहिए जो आर्टिकल 51A के सार को नष्ट करता है और हाई कोर्ट द्वारा पारित आदेश इस मामले में आर्टिकल के सार को नष्ट कर रहा है।
डॉ. दशरथी बनाम स्टेट ऑफ़ आंध्र प्रदेश के मामले में अदालत ने कहा कि आर्टिकल 51(j) के तहत प्रत्येक नागरिक को जीवन के सभी क्षेत्रों में और सामूहिक गतिविधि के लिए हमेशा उत्कृष्टता की दिशा में प्रयास करने के अपने ड्यूटी का पालन करना चाहिए। ताकि राष्ट्र लगातार उच्च स्तर के प्रयास और उपलब्धियों की ओर बढ़े। इसके लिए, स्टेट हमारे इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन द्वारा मंज़ूर विधियों (मेथड्स) के अनुसार उत्कृष्टता प्राप्त करने के तरीके प्रदान कर सकता है।
चारु खुराना बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्टेट को अवसर प्रदान करना चाहिए, उनकी कटौती नहीं की जानी चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि नागरिक के ड्यूटी को भी स्टेट के सामूहिक ड्यूटी के बराबर रखा गया है।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ का प्रवर्तन (एनफोर्समेंट ऑफ़ फंडामेंटल राइट्स)
फंडामेंटल ड्यूटीज न केवल नागरिक का मार्गदर्शन करते हैं बल्कि निर्वाचित (एलेक्टेड) या गैर-निर्वाचित संस्थानों, संगठनों और नगर निकायों (म्युनिसिपल बॉडी) के विधायी और कार्यकारी कार्यों का भी मार्गदर्शन करते हैं। नागरिकों द्वारा ड्यूटीज़ का पालन तभी किया जाता है जब या तो इसे कानून द्वारा अनिवार्य बना दिया जाता है या रोल मॉडल आदि के प्रभाव में होता है। इसलिए जब भी नागरिकों के लिए ड्यूटीज़ का पालन करना महत्वपूर्ण होता है, तो उपयुक्त कानून बनाना आवश्यक हो जाता है। इन ड्यूटीज़ का संचालन (ऑपरेशन) तभी किया जाना चाहिए जब विधायिका और न्यायपालिका द्वारा निर्देश प्रदान किए गए हों और फिर भी फंडामेंटल ड्यूटीज़ का उल्लंघन हो। लेकिन अगर मौजूदा कानून अपर्याप्त (इनेडिक्वेट) हैं और वे आवश्यक अनुशासन लागू नहीं कर सकते हैं तो विधायी कमियों को ठीक करने की जरूरत है।
फंडामेंटल ड्यूटीज़ और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स की कानूनी उपयोगिता (यूटिलिटी) समान है। फंडामेंटल ड्यूटीज़ को नागरिकों को संबोधित किया जाता है जबकि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स स्टेट को संबोधित करते हैं और उनके उल्लंघन पर कोई कानून नही है। यदि कोई व्यक्ति अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ की परवाह नहीं करता है तो वह फंडामेंटल राइट्स का हकदार नहीं है। ये ड्यूटी कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं लेकिन यदि किसी नागरिक द्वारा फंडामेंटल ड्यूटीज़ का उल्लंघन करने वाला कोई कार्य किया जाता है तो इसे प्रासंगिक (रिलेवेंट) फंडामेंटल राइट्स पर उचित प्रतिबंध माना जाएगा।
42वें अमेंडमेंट, ने कॉन्स्टीट्यूशन में ड्यूटीज़ को शामिल किया जो कि वैधानिक ड्यूटी हैं और इनको कानून द्वारा लागु किया जा सकेगा। यदि उन ड्यूटीज़ और दायित्वों को पूरा करने में विफलता होगी तो संसद कानून द्वारा दंड लगा सकती है। इस प्रावधान की सफलता पूरी तरह से उस तरीके और व्यक्ति पर निर्भर करेगी जिसके खिलाफ इन ड्यूटीज़ को लागू किया जाएगा। यदि ड्यूटीज़ को सभी नहीं जानते हैं, तो इन ड्यूटीज़ का उचित प्रवर्तन नहीं होगा। लोगों की निरक्षरता (इल्लीट्रेसी) के कारण, वे राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं हैं कि वे समाज और देश के प्रति क्या कर्तव्य रखते हैं। गृहों, विश्वविद्यालयों या किसी अन्य स्थान को लोगों के ड्यूटीज़ के निर्वहन के लिए केंद्र बनाया जा सकता है।
फंडामेंटल ड्यूटीज, फंडामेंटल राइट्स के पूरक हैं (फंडामेंटल ड्यूटीज कॉम्प्लीमेंट फंडामेंटल राइट्स)
भारत का कॉन्स्टीट्यूशन न केवल फंडामेंटल अधिकार प्रदान करता है बल्कि फंडामेंटल ड्यूटीज भी प्रदान करता है। हालांकि फंडामेंटल राइट्स को फंडामेंटल ड्यूटीज़ से बहुत पहले कॉन्स्टीट्यूशन में पेश किया गया था और अदालत द्वारा लागू भी किया जा सकता है। 42वें अमेंडमेंट, 1976 ने फंडामेंटल ड्यूटीज़ की शुरुआत की। लेकिन ये ड्यूटी प्रवर्तनीय नहीं हैं। ये एक जिम्मेदार नागरिक के नैतिक ड्यूटी हैं। फंडामेंटल ड्यूटीज, फंडामेंटल राइट्स के पूरक होने चाहिए।
इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन का आर्टिकल 21 शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है और आर्टिकल 51A (k) में यह प्रावधान है कि सभी माता-पिता और अभिभावकों को अपने बच्चों को 6-14 वर्ष की आयु में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। इससे पता चलता है कि फंडामेंटल अधिकार और ड्यूटीज़ एक दूसरे के पूरक हैं।
लेकिन आज के समय में लोग केवल अपना अधिकार चाहते हैं और अपनी ड्यूटीज़ का पालन नहीं करना चाहते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि लोग अपने फंडामेंटल राइट्स का उपयोग करते हुए अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ से बचते हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हुआ उसका ताजा उदाहरण लिया जा सकता है। लोगों ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने फंडामेंटल अधिकार का प्रयोग करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में भारत विरोधी नारे लगाए। इस अधिकार का प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने फंडामेंटल ड्यूटीज का उल्लंघन किया जो कि आर्टिकल 51 A (c) में निर्धारित है, जो कहता है कि “देश की शक्ति, एकता, अखंडता को उसके नागरिकों द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए”।
कई राजनीतिक नेता अक्सर धर्म के नाम पर वोट आकर्षित करते हैं। ऐसा करते समय वे अपने फंडामेंटल ड्यूटीज का उल्लंघन करते हैं जो कि आर्टिकल 51 A(c) में प्रदान किया गया है जो कहता है कि “देश की शक्ति, एकता, अखंडता” को उसके नागरिकों द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए। वे समाज को विभिन्न धर्मों और जातियों में बांटते हैं।
लोकतंत्र समाज में अपनी गहरी जड़ें तब तक स्थापित नहीं कर सकता जब तक कि नागरिक अपने फंडामेंटल राइट्स को अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ के साथ पूरा नहीं करते। अपने फंडामेंटल राइट्स को लागू करते हुए उन्हें अपने फंडामेंटल ड्यूटीज़ का पालन करना चाहिए।
फंडामेंटल राइट्स, डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स और फंडामेंटल ड्यूटीज़ के बीच संबंध
फंडामेंटल राइट्स, डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स और फंडामेंटल ड्यूटीज़ के बीच संबंध इस प्रकार हैं:
ऐसे मामलों में जहां फंडामेंटल राइट्स के साथ कानून की कॉन्स्टीट्यूशनल वैधता के बीच टकराव था, तो ऐसे कानून की कॉन्स्टीट्यूशनल वैधता को बनाए रखने के लिए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी का उपयोग किया गया है। 1971 में 25वें अमेंडमेंट में आर्टिकल 31C जोड़ा गया जिसमें कहा गया है कि लागू किया गया कोई भी कानून जो आर्टिकल 39(b)-(c) में प्रदान किए गए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स को प्रभावी बनाने के लिए था, इस आधार पर अमान्य नहीं होगा कि वे इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 14 , 19 और 31 में मौजूद फंडामेंटल अधिकार के खिलाफ हैं। 42वें अमेंडमेंट में प्रस्ताव है कि आर्टिकल 31C को सभी डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स पर लागू किया जाना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सुझाव को खारिज कर दिया क्योंकि यह इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) का उल्लंघन करता है। समाज कल्याण से संबंधित कानून का आधार बनाने के लिए फंडामेंटल राइट्स और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स का एक साथ उपयोग किया गया है।
केशवानंद भारती मामले के बाद भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक दृष्टिकोण (व्यू) अपनाया कि फंडामेंटल अधिकार और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स न केवल एक दूसरे के पूरक हैं, बल्कि वे दोनों एक दूसरे को सामाजिक क्रांति के ज़रिये कल्याणकारी स्टेट की स्थापना के लिए कुछ लक्ष्य प्रदान करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न क़ानूनों की कॉन्स्टीट्यूशनल वैधता को भी बरकरार रखा है जो फंडामेंटल ड्यूटीज़ में निर्धारित मूल्यों को बढ़ावा देते हैं। ये ड्यूटी सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य नहीं हैं लेकिन विधायिका विभिन्न कानून बनाकर उन्हें लागू कर सकती है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्टेट को इन ड्यूटीज़ के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दे चुका है।
फंडामेंटल ड्यूटीज, अदालतों के माध्यम से प्रवर्तनीय नहीं हैं लेकिन फंडामेंटल अधिकार कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से लागू करने योग्य हैं और हाई कोर्ट के पास आर्टिकल 226 के तहत फंडामेंटल राइट्स के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने की शक्ति है। फंडामेंटल ड्यूटीज़ और इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के भाग IV में दिए गए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पॉलिसी को फंडामेंटल राइट्स या ऐसे अधिकारों पर लगाए गए किसी भी प्रतिबंध की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) करते समय अदालत द्वारा ध्यान में रखा जाता है।
जावेद बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा के मामले में अदालत ने माना कि फंडामेंटल राइट्स को इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 51 A में दिए गए फंडामेंटल ड्यूटीज़ और भाग IV में दिए गए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी के साथ पढ़ा जाना चाहिए। उन्हें अलग-थलग करके नहीं पढ़ा जा सकता है।
स्टेट ऑफ़ गुजरात बनाम मिर्जापुर में सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 48, 48-A और आर्टिकल 51(g) पर विचार करते हुए कहा कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी और आर्टिकल 51-A में दिए गए फंडामेंटल ड्यूटी इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के किसी भी क़ानूनी प्रावधान या कार्यकारी (एग्जीक्यूटिव) कार्य की कॉन्स्टीट्यूशनल वैधता का परीक्षण करते समय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि कानून द्वारा फंडामेंटल राइट्स पर नियमन (रेगुलेशन), नियंत्रण या निषेध (प्रोहिबिशन) के रूप में लगाए गए किसी भी प्रतिबंध की तर्कसंगतता (रिज़नेबलनेस) को फंडामेंटल ड्यूटीज़ और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी को ध्यान में रखकर परखा जा सकता है।
रामलीला मैदान घटना में अदालत ने कहा कि एक तरफ फंडामेंटल राइट्स और प्रतिबंधों और दूसरी तरफ फंडामेंटल राइट्स और फंडामेंटल ड्यूटीज़ के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। यदि केवल फंडामेंटल राइट्स या फंडामेंटल ड्यूटीज़ को महत्व दिया जाए तो असंतुलन होगा। ड्यूटी को अधिकार का सच्चा स्रोत माना जाता है। अदालतें विभिन्न स्वतंत्रताओं पर विधायी प्रतिबंध की तर्कसंगतता की जांच करते हुए आर्टिकल 51A में मौजूद फंडामेंटल ड्यूटीज़ पर विचार करती हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना, सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षा प्रदान करना आदि जैसे ड्यूटी महत्वहीन नहीं हैं।
एनके बाजपेयी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में यह देखा गया कि इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन के भाग III, IV और भाग IV-A के बीच एक कॉमन थ्रेड है। पहला भाग हमें फंडामेंटल राइट्स प्रदान करता है जबकि दूसरा भाग हमें डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी प्रदान करता है और तीसरा भाग भारत के नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटीज़ को प्रदान करता है। अदालत को किसी भी प्रावधान की व्याख्या करते समय फंडामेंटल राइट्स, फंडामेंटल ड्यूटीज़ और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पालिसी के सभी कॉन्स्टीट्यूशनल पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)
फंडामेंटल ड्यूटीज़ की गैर-प्रवर्तनीयता इसके महत्व को प्रभावित नहीं करेगी। फंडामेंटल ड्यूटी एक लोकतांत्रिक स्टेट का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं क्योंकि यह न केवल लोगों को उनके अधिकारों का आनंद लेने की अनुमति देता है बल्कि उन्हें राष्ट्र के प्रति अपने ड्यूटीज़ का पालन करने की याद दिलाता है। ‘फंडामेंटल’ शब्द जो ड्यूटीज़ से जुड़ा हुआ है, उन्हें अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है और इस प्रकार यह आवश्यक है कि उनका पालन किया जाए। कई ड्यूटीज़ को एक अलग कानून के रूप में भी स्थापित किया गया है और कानून द्वारा लागू करने योग्य बनाया गया है लेकिन यह अनुच्छेद 51 A में प्रदान किए गए अन्य ड्यूटीज़ के मूल्य को कम नहीं करता है। कॉन्स्टीट्यूशन में सब कुछ प्रदान करना सरकार का ड्यूटी ही नहीं है, बल्कि लोगों को भी समाज में अपनी भूमिका के प्रति जागरूक होना चाहिए। यहां तक कि करों का भुगतान, वोट का अधिकार जैसे ड्यूटीज़ का पालन राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक द्वारा किया जाना चाहिए। ये ड्यूटी सभी में सामाजिक जिम्मेदारी की भावना पैदा करते हैं। फंडामेंटल राइट्स की व्याख्या करते समय इन फंडामेंटल ड्यूटीज़ को हमेशा ध्यान में रखा जाता है।
संदर्भ (रेफरेन्सेस)
- Ramlila Maidan Incident, In re, (2012) 5 SCC 123
- Unnikrishnan Judgement, 1993 AIR 2178, 1993 SCR (1) 594
- Bijoe Emmanuel vs. State of Kerala, 1987 AIR 748, 1986 SCR (3) 518
- AIIMS Students Union vs, AIIMS, (2002) 1 SCC 428
- Aruna Roy vs. Union of India, 12 September, 2002
- Hon’ble Shri Rangnath Mishra vs. Union of India, 31 July, 2003
- Government of India vs. George Philip, 16 November, 2006
- Dr. Dasarathi vs. State of Andhra Pradesh, 13 July, 1984
- Charu Khurana vs. Union of India, (2015) 1 SCC 192
- Kesavananda Bharati Case, (1973) 4 SCC 225: AIR 1973 SC 1461
- Javed vs. State of Haryana, (2003) 8 SCC 369
- State of Gujarat vs. Mirzapur, (2005) 8 SCC 534
- Ramlila Maidan Incident, In re, (2012) 5 SCC 123
- N.K. Bajpai vs. Union of India, (2012) 4 SCC 653