भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत विशेषाधिकार प्राप्त संचार

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Indian Evidence Act

यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज (वीआईपीएस) से Jasmine Madaan और सिंबायोसिस लॉ स्कूल नोएडा से Sushant Biswakarma द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत लेख है जो विभिन्न संरक्षित संबंधों (प्रोटेक्टेड रिलेशंस) के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार (प्रिविलेजड कम्युनिकेशन) पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

साक्ष्य एक परीक्षण का एक अनिवार्य हिस्सा है क्योंकि इसका उपयोग किसी भी प्रासंगिक तथ्य को स्थापित करने और किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किया जाता है। साक्ष्य कई रूपों में हो सकता है; एक गवाह द्वारा दी गई गवाही उनमें से एक है। एक गवाह किसी भी घटना के आधार पर गवाही दे सकता है जिसे उन्होंने देखा है या कोई संचार जो उन्होंने सुना है या ऐसा कुछ जिसका वह हिस्सा रहा है।

हालांकि, परीक्षण के दौरान आवश्यक होने पर भी, कुछ वार्तालापों को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसी बातचीत को विशेषाधिकार प्राप्त संचार के रूप में जाना जाता है। व्यक्तिगत या व्यावसायिक कारणों से इन संचारों का विशेषाधिकार प्राप्त किया जा सकता है।

शो ‘सूट’ ने मुझे विशेषाधिकार प्राप्त संचार की अवधारणा से परिचित कराया, हार्वी के प्रसिद्ध उत्तर को याद करें “मैं अटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार से बाध्य हूं,” जो संरक्षित संबंधों में से एक है। यहां तक कि अगर आपने सूट नहीं देखा है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह लेख विभिन्न संरक्षित संबंधों के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार, गोपनीयता (प्राइवेसी) के अधिकार की सीमा और विभिन्न देशों में विशेषाधिकार संचार की अवधारणा के बारे में एक ठोस सार प्रदान करेगा।

परिभाषा

विशेषाधिकार प्राप्त संचार दो पक्षों के बीच गोपनीय बातचीत को संदर्भित करता है, जो कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त संरक्षित संबंध में आते हैं। सूचना किसी तीसरे पक्ष को बताई नहीं जा सकती, यहां तक ​​कि न्यायालय में भी इसे पेश नहीं किया जा सकता है। कानून किसी व्यक्ति या निगम को विशेषाधिकार प्राप्त संचार की सामग्री का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।

चित्रण (इलस्ट्रेशन):

  • ‘A’, पति और ‘B’, पत्नी अपने वैवाहिक जीवन में एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं।
  • ‘A’ अपनी वसीयत के जरिए अपनी सारी संपत्ति C को हस्तांतरित (ट्रांसफर) करने का फैसला करता है और केवल उसके वकील को ही इस बारे में पता होता है। यदि B कभी भी A के वकील से इसका खुलासा करने के लिए कहता है, तो वकील यह बात नहीं बता सकता क्योंकि यह एक विशेषाधिकार प्राप्त संचार है।
  • वह केवल तभी बता सकता है जब A ऐसा करने के लिए खुद ही सहमति देता है या A खुद किसी तीसरे पक्ष को इस बात का खुलासा करता है।

एक वकील और एक मुवक्किल (क्लाइंट) के बीच व्यावसायिक संचार

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 के तहत एक वकील के लिए यह एक वैधानिक दायित्व (स्टेचुटरी ऑब्लिगेशन) है कि वह मुवक्किल की सहमति के बिना कोई खुलासा न करे-

  1. मुवक्किल द्वारा या मुवक्किल से किया गया संचार,
  2. किसी दस्तावेज़ की सामग्री या शर्तें, और
  3. मुवक्किल को दी गई सलाह,

जो किसी कार्य के क्रम में और ‘ऐसे रोजगार के उद्देश्य’ के लिए प्राप्त या दिया गया था। इस वाक्यांश का अर्थ है कि एक मित्र के रूप में परामर्श किए गए वकील के साथ किए गए संचार के लिए कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होता है। रोजगार समाप्त होने के बाद भी यह दायित्व जारी रहता है। यह “एक बार विशेषाधिकार प्राप्त, यानी हमेशा विशेषाधिकार प्राप्त” के नियम को समाहित (इनकैप्सूलेट) करता है।

धारा 126 के तहत संचार का विशेषाधिकार कुछ अपवादों के अधीन है अर्थात निम्नलिखित शर्तों के तहत संचार का खुलासा किया जा सकता है:

  1. जब संचार एक अवैध उद्देश्य को आगे बढ़ाने में किया गया था;
  2. जब एटोर्नी को पता चलता है कि रोजगार शुरू होने के बाद से कोई अपराध या धोखाधड़ी की गई है;
  3. जब मुवक्किल सहमति देता है;
  4. जब सूचना किसी तीसरे पक्ष के हाथ में आती है;
  5. जब एक वकील पेशेवर उद्देश्य के लिए मुवक्किल पर मुकदमा करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 127 में कहा गया है कि धारा 126 इन सब पर लागू होती है-

  • दुभाषियों (इंटरप्रेटर्स)
  • लिपिक (क्लर्क) या बैरिस्टर के सेवक
  • याचिकाकर्ता (प्लीडर्स)
  • एटोर्नी
  • वकील

न्यायालय बनाम राज्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सवाल का जवाब दिया कि क्या एक बाल पीड़ित को परामर्शदाता (कंसल्टेंट) के विशेषाधिकार को छोड़ने की अनुमति दी जानी चाहिए? न्यायालय ने माना कि यह किया जा सकता है अगर बच्चा जानबूझकर और स्वेच्छा से ऐसा कार्य करता है और छूट (वेवर) बच्चे के हित में है, बशर्ते छूट के कारणों को आदेश में लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।

करमजीत सिंह बनाम राज्य के मामले में, न्यायालय ने कहा कि कोई भी सूचना के अधिकार के तहत किसी भी पेशेवर संचार और एटॉर्नी और मुवक्किल के दस्तावेजों के प्रकटीकरण (डिस्क्लोजर) के लिए नहीं कह सकता है।

निदेशक मंडल, वाई.एम.सी.ए. और आर.एच. निबलेट के मामले में, न्यायालय ने देखा कि मानहानि के मामले में जहां विचाराधीन साक्ष्य विशेषाधिकार प्राप्त साबित होते हैं, तो न केवल सामान्य द्वेष (नॉर्मल मैलइस), लेकिन व्यक्त द्वेष (एक्सप्रेस मैलइस) को साबित करने का भार भी वादी पर होता है। न्यायालय ने कहा कि यदि अवसर विशेषाधिकार प्राप्त है तो किसी व्यक्ति द्वारा ‘तीसरे व्यक्तियों को विशेषाधिकार का प्रयोग’ करने वाला प्रकाशन, यदि यह उचित है और व्यापार के सामान्य क्रम में, जहां संचार संभव नहीं था, बिना रुचि वाले लोगों की उपस्थिति में, भी संरक्षित होता है। विशेषाधिकार को केवल इसलिए नष्ट नहीं किया जा सकता है क्योंकि तीसरे व्यक्ति (लिपिक, टाइपिस्ट या कॉपीिस्ट, आदि) की विषय वस्तु में वैध रुचि नहीं है।

स्वैच्छिक (वॉलंटरी) साक्ष्य द्वारा विशेषाधिकार को छूट नहीं दिया जा सकता है

धारा 128 में कहा गया है कि यदि मुवक्किल स्वयं विशेषाधिकार प्राप्त संचार के संबंध में कुछ सबूत प्रस्तुत करता है, तो यह विशेषाधिकार की छूट नहीं होती है। मुवक्किल द्वारा वकील को गवाह के रूप में बुलाना, खुलासा करने के लिए सहमति नहीं है, लेकिन जब मुवक्किल स्वयं गोपनीय संचार से संबंधित प्रश्न पूछता है, तो यह विशेषाधिकार की निहित छूट (इंप्लाइड वेवर) के बराबर है।

कानूनी सलाहकारों के साथ गोपनीय संचार

इस धारा में कहा गया है कि किसी को भी मुवक्किल और वकील के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। यदि कोई मुवक्किल गवाह बनने की पेशकश करता है तो न्यायालय उससे कोई भी संचार निकाल सकता है जैसा वह आवश्यक समझे। धारा 129 मुवक्किल को खुलासा करने से रोकती है, जो कि धारा 126 के विपरीत है, जो एक वकील को प्रतिबंधित करती है। यह धारा 126 के तहत लगाए गए प्रतिबंधों को आंशिक रूप से हटाता है, और यह साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 के समकक्ष (काउंटरपार्ट) के रूप में कार्य करता है।

न्यायालय ने पी आर रामकृष्णन बनाम सुब्बाराम्मा शास्त्रीगल के मामले में फैसला सुनाया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 129 के अनुसार मुवक्किल और वकील दोनों किसी तीसरे व्यक्ति को विशेषाधिकार संचार करने के लिए बाध्य नहीं हैं।

कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत विशेषाधिकार प्राप्त संचार

आमतौर पर, किसी कंपनी के नौकरी के समझौते और उपनियम (बाई लॉज), संचार को गोपनीय रखना अनिवार्य बनाते हैं। कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 251 (अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 227) में कहा गया है कि एक कानूनी सलाहकार, किसी भी कंपनी के बैंकर, एक कॉर्पोरेट निकाय को केंद्र सरकार, निरीक्षक (इंस्पेक्टर) या केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त रजिस्ट्रार, को किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त संचार का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। 

व्यावसायिक मानकों (प्रोफेशनल स्टैंडर्ड्स) पर नियम

बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के व्यावासाहिक मानकों पर कुछ नियम हैं जिनका पालन प्रत्येक अधिवक्ता (एडवोकेट) को करना होता है, इनका उल्लेख बीसीआई के अध्याय II, भाग VI में किया गया है। इन नियमों से अटॉर्नी-मुवक्किल विशेषाधिकार को और मजबूत किया जाता है। यह माना जाता है कि एक अधिवक्ता का न्यायालय, मुवक्किल, उनके विरोधी और अन्य अधिवक्ताओं के प्रति एक कर्तव्य होता है। इन नियमों को बनाने की शक्ति बीसीआई को अधिवक्ता अधिनियम (एडवोकेट्स एक्ट), 1961 की धारा 49(1)(c) के तहत विरासत में मिली है।

नियम 7 और 15

बार काउंसिल ऑफ इंडिया नियम (बीसीआईआर) के भाग VI, अध्याय II, खंड II में मुवक्किल के प्रति एक वकील के कर्तव्य पर नियमों का उल्लेख है।

इसके नियम 7 में प्रावधान है कि कोई भी अधिवक्ता साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 के तहत प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) रूप से दायित्वों का उल्लंघन नहीं करेगा। इस प्रकार, इसका उल्लंघन करना बीसीआई के नियमों का उल्लंघन होगा।

नियम 15 एक वकील को, मुवक्किल द्वारा किए गए उस पर विश्वास का दुरुपयोग करने या उसका फायदा उठाने से रोकता है।

उपरोक्त नियमों के उल्लंघन के मामले में एक वकील अनुशासनात्मक (डिसिप्लिनरी) कार्यवाही के अधीन होगा।

एक विवाहित जोड़े के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार

पति-पत्नी के बीच विश्वास ही उनके विवाह का आधार होता है। परिवारों की शांति बनाए रखने के लिए वैवाहिक संबंधों के दौरान पति-पत्नी के बीच गोपनीय संचार की निजता की रक्षा करना बहुत महत्वपूर्ण है। दोनों पति-पत्नी भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के तहत अपनी शादी के दौरान हुई किसी भी बातचीत का खुलासा नहीं करने के लिए बाध्य हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा पति और पत्नी के बीच सभी प्रकार के संचार पर लागू होती है।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के तहत पति और पत्नी के बीच संचार को विशेषाधिकार प्राप्त संचार का दर्जा दिया गया है। इसमें कहा गया है कि एक विवाहित व्यक्ति को:

  • उनके पति या पत्नी या पूर्व पति या पत्नी द्वारा विवाह के दौरान, उन्हें किए गए किसी भी संचार का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • उन्हें अपने पति या पत्नी या पूर्व पति या पत्नी की सहमति के बिना कुछ भी प्रकट करने की अनुमति नहीं है, भले ही वे इसके लिए तैयार हों।

एस.जे. चौधरी बनाम राज्य के मामले में, न्यायालय  ने माना कि पति-पत्नी को अपने निजी संचार का खुलासा करने के लिए मजबूर करना किसी भी तरह की जानकारी न मिलने से कहीं ज्यादा खराब है। इसलिए, इस तरह के संचार को विशेषाधिकार प्राप्त होना चाहिए।

इस विशेषाधिकार के पीछे का विचार यह है कि अगर पति-पत्नी के बीच निजी संचार से गवाही स्वीकार की जाती है, तो ऐसी गवाही में परिवारों के बीच घरेलू शांति को नष्ट करने और घरेलू विवाद पैदा करने की शक्ति होती है। यह पति-पत्नी के बीच आपसी विश्वास को बाधित करेगा और वैवाहिक बंधन को कमजोर करेगा।

कौन सा संचार गोपनीय है?

इस धारा के तहत, यह अप्रासंगिक (इररेलीवेंट) है कि संचार संवेदनशील या गोपनीय प्रकृति का था या नहीं। पति और पत्नी के बीच कोई भी बातचीत या संचार को विशेषाधिकार प्राप्त है, चाहे संचार का साधन कोई भी हो। ऐसा ही एंपरर बनाम रामचंद्र के मामले में भी कहा गया था।

हालाँकि, इस नियम को भालचंद्र नामदेव शिंदे बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में खारिज कर दिया गया था, जिसमें न्यायालय ने यह निर्धारित किया था कि धारा 122 की कोई व्यापक व्याख्या नहीं होनी चाहिए जो इस धारा के दायरे का विस्तार करती हो।

यदि न्यायालय को इसकी व्याख्या करनी है, तो व्याख्या के शाब्दिक नियम का पालन किया जाना चाहिए और दायरे को सीमित रखा जाना चाहिए क्योंकि यह साक्ष्य की स्वीकार्यता के दायरे को कम करता है।

न्यायालय ने आगे कहा कि इस धारा के उद्देश्य के लिए संचार केवल मौखिक या लिखित शब्दों को संदर्भित करता है जो पति या पत्नी द्वारा कहा गया है, न कि उनके कार्यों को संदर्भित करता है।

इस मामले में पत्नी को अपने पति के खिलाफ गवाही देने के लिए बुलाया गया था, जिस पर कथित तौर पर हत्या करने का मुकदमा चल रहा था। उसे उसके आचरण और कार्यों के बारे में गवाही देने की अनुमति थी, लेकिन उनके बीच संचार की नहीं।

साथ ही, इस धारा के उद्देश्य के लिए, विवाह के दौरान केवल पति या पत्नी द्वारा ही संचार किया जाना चाहिए ताकि इसे विशेषाधिकार प्राप्त हो। विवाह से पहले या उसके विघटन (डिसोल्यूशन) के बाद किए गए किसी भी संचार को यह विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होगा।

राम भरोसा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि केवल पति या पत्नी की उपस्थिति में कोई कार्य करना उनके बीच संचार नहीं माना जा सकता है। ऐसा नहीं है कि किसी घरेलू कार्य को संचार माना जाएगा। संचार को किसी तरह से अवगत (अवेयर) कराया जाना चाहिए; वह मौखिक या अशाब्दिक भी हो सकता है।

इस मामले में पत्नी ने अपने पति को छत से नीचे उतरते और फिर बदले हुए कपड़े के साथ बाथरूम से बाहर आते देखा था। पत्नी ने उसी के बारे में गवाही दी और गवाही स्वीकार्य थी क्योंकि पति का कार्य संचार के रूप मे नहीं था।

क्या यह विशेषाधिकार निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) है?

धारा 122 के तहत प्रदान किया गया विशेषाधिकार पति-पत्नी के बीच साझा किए गए वैवाहिक बंधन के कल्याण और उनके परिवारों की सुरक्षा के लिए है।

हालांकि, यह विशेषाधिकार पूर्ण नहीं है और जानकारी का खुलासा किया जा सकता है यदि:

  • ऐसा संचार करने वाला व्यक्ति या उनका प्रतिनिधि स्वतंत्र सहमति देता है; या
  • एक विवाहित जोड़े के बीच एक वाद है; या
  • पति-पत्नी में से एक पर दूसरे के खिलाफ किए गए किसी भी अपराध के लिए मुकदमा चलाया गया है।

नवाब हाउलादार बनाम एंपरर के मामले में, एक विधवा गवाह के रूप में कार्य करना चाहती थी और अपने मृत पति द्वारा किए गए संचार का खुलासा करना चाहती थी।

न्यायालय ने कहा कि साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होने के लिए – प्रकटीकरण के लिए सहमति व्यक्त होनी चाहिए और यह निहित नहीं हो सकती। यदि हित में कोई प्रतिनिधि नहीं है, तो सहमति प्राप्त करना असंभव होगा और इसलिए ऐसा संचार पूरी तरह से अस्वीकार्य है।

विधवा अपने मृत पति के हित में प्रतिनिधि नहीं है, और इसलिए, अपनी सहमति नहीं दे सकती है।

इसके अलावा, न्यायालय  ने स्पष्ट किया कि पति-पत्नी के बीच संचार केवल तभी गोपनीय होना चाहिए जब यह शादी के दौरान हुआ हो, न कि शादी से पहले या शादी के विघटन के बाद।

इस खंड के अपवाद

  • संचार के अलावा कार्यों या आचरणों का खुलासा किया जा सकता है।

राम भरोसे बनाम यूपी राज्य के मामले में, पति पर आभूषण की चोरी का आरोप लगाया गया था जो उसने अपनी पत्नी को उपहार में दिया था। उसने अपनी पत्नी से कहा कि उसे यह उसके पिछले घर से मिला है। अदालत में पत्नी ने आरोपी के आचरण का खुलासा किया कि उसने अपने पति को छत से नीचे आते देखा था और स्नान करने के बाद उसने उसे यह उपहार में दिया था। न्यायालय ने माना कि पत्नी आचरण के बारे में गवाही दे सकती है लेकिन बातचीत के बारे में नहीं।

  • यदि संचार करने वाला पक्ष इसके प्रकटीकरण के लिए सहमति देता है अर्थात विशेषाधिकार को छोड़ देता है, तो विशेषाधिकार प्राप्त संचार का प्रमाण दिया जा सकता है।
  • पति-पत्नी के बीच वाद या आपराधिक कार्यवाही में।
  • शादी से पहले या शादी के विघटन के बाद किए गए संचार।

नागराज उर्फ ​​कुमार बनाम कर्नाटक राज्य के ऐतिहासिक फैसले में, न्यायालय ने कहा कि भले ही साक्ष्य अधिनियम की धारा 120 एक पति या पत्नी को पति-पत्नी के बीच वाद या आपराधिक कार्यवाही को छोड़कर दूसरे पति या पत्नी के खिलाफ सबूत पेश करने की अनुमति देती है। धारा 122 यह स्पष्ट करती है कि विशेषाधिकार सभी संचारों तक फैला हुआ है, और उक्त संचार को गोपनीय रखने की आवश्यकता नहीं है। संचार करने वाले केवल पति-पत्नी ही इसे छोड़ सकते हैं और गवाह नहीं क्योंकि विशेषाधिकार उन तक विस्तारित (एक्सटेंड) नहीं होता है। यहां तक ​​कि अदालत गवाह को खुलासा करने की अनुमति नहीं दे सकती, भले ही वह यह साझा करने के लिए तैयार हो। साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के तहत जिसके खिलाफ सबूत दिया जा रहा है, उस पक्ष की सहमति मांगना अनिवार्य है।

एक अन्य ऐतिहासिक मामले में एम.सी. वर्गीज बनाम टी.जे. पूनन और अन्य, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि केवल विवाह के दौरान होने वाले संचार साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 में उल्लिखित विशेषाधिकार के तहत संरक्षित हैं। विवाह के विघटन या पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु के बाद भी यह सुरक्षा जारी रहती है। विवाह से पहले या विवाह के विघटन के बाद संचार धारा 122 के दायरे में नहीं आता है।

डॉक्टर और रोगी के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार

भारत में, भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम (द इंडियन मेडिकल काउंसिल (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट्स एंड एथिक्स) रेगुलेशंस), 2002 चिकित्सा पेशेवरों के आचरण को विनियमित (रेगुलेट) करते हैं।

इन विनियमों के नियम 7.14 में प्रावधान है कि रोगी के उन रहस्यों को उजागर नहीं किया जा सकता है जो पंजीकृत चिकित्सक (रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर) ने अपने पेशे के अभ्यास के दौरान सीखे हैं। इस नियम के कुछ अपवाद हैं:

  1. जब एक अदालत में बैठ रहे न्यायाधीश विशेषाधिकार प्राप्त संचार का खुलासा करने का आदेश देते है;
  2. जब किसी विशिष्ट व्यक्ति और/या समुदाय के लिए गंभीर जोखिम मौजूद हो;
  3. एक उल्लेखनीय बीमारी के मामले में संबंधित सार्वजनिक अधिकारियों को तुरंत सूचित किया जाना चाहिए।

नियम 7.17 में कहा गया है कि “एक पंजीकृत चिकित्सक अपने रोगियों की तस्वीरों या केस रिपोर्ट को उनकी अनुमति के बिना किसी भी मेडिकल या अन्य पत्रिका में इस तरह से प्रकाशित नहीं करेगा जिससे उनकी पहचान की जा सके।” यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि पहचान का खुलासा नहीं किया जाना है, तो किसी सहमति की आवश्यकता नहीं है।

नियमों के अध्याय 8 में कहा गया है कि यदि कोई चिकित्सक, चिकित्सक-रोगी विशेषाधिकार का उल्लंघन करता है तो भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) एक बार दोषी पाए जाने के बाद, पंजीकृत चिकित्सक के खिलाफ कोई भी कार्रवाई कर सकती है, जैसा कि वह उचित समझे। एमसीआई “पूरी तरह से या एक निर्दिष्ट अवधि के लिए उसे हटाने का निर्देश” भी दे सकता है।

इन नियमों को बनाने की शक्ति भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम की धारा 20A के तहत एमसीआई में निहित है।

मिस्टर एक्स बनाम अस्पताल जेड के ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि गोपनीयता के नियम में कुछ अपवाद हैं, जिनमें से एक डॉक्टर और रोगी के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार का प्रकटीकरण है यदि यह गैर-प्रकटीकरण के मामले में किसी व्यक्ति के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है। सार्वजनिक हित गोपनीयता के अधिकार को खत्म कर सकता है। उदाहरण के लिए, दिए गए मामले में पत्नी को यह बताना आवश्यक था कि पति को एचआईवी-एड्स है।

राज्य विशेषाधिकार

राज्य के मामले

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी राज्य के मामलों के किसी भी अप्रकाशित रिकॉर्ड से प्राप्त कोई भी सबूत देने की अनुमति नहीं है।

जब तक संबंधित विभाग के प्रभारी अधिकारी या प्रधान अधिकारी की अनुमति न हो, ऐसा करने की अनुमति नहीं है। ऐसा अधिकारी उसी के संबंध में अनुमति दे सकता है या रोक सकता है जैसा वह ठीक समझे।

डंकन बनाम कैमेल लैयर्ड एंड कंपनी लिमिटेड के मामले में, यह माना गया था कि ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर, न्यायालय बिना किसी प्रश्न के लोक-अधिकारी के निर्णय को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाता है।

इसके अलावा, ऐसे दस्तावेजों को खारिज करने का निर्णय पूरी तरह से न्यायाधीश का निर्णय होता है। यह न्यायालय ही है जो एक परीक्षण का प्रभारी है न कि कार्यपालिका (एक्जीक्यूटिव)।

वाक्यांश “राज्य के मामले” इस धारा या इस अधिनियम के किसी अन्य प्रावधान में वर्णित नहीं है। इसलिए, न्यायपालिका के लिए वाक्यांश की एक ही परिभाषा के साथ आना बहुत व्यावहारिक नहीं है।

इसलिए, न्यायालय को यह निर्धारित करना चाहिए कि क्या प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर कोई दस्तावेज इस श्रेणी के अंतर्गत आता है या नहीं। हालांकि, यह स्पष्ट है कि केवल न्यायालय के पास यह तय करने की शक्ति है कि क्या किसी दस्तावेज़ को ‘राज्य मामलों के अप्रकाशित दस्तावेज़’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

आधिकारिक (ऑफिशियल) संचार

साक्ष्य अधिनियम की धारा 124 आधिकारिक संचार के बारे में बात करती है। इसमें कहा गया है कि एक सार्वजनिक अधिकारी को आधिकारिक विश्वास में उसके साथ किए गए किसी भी संचार का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है अगर उसे लगता है कि इस तरह के प्रकटीकरण से सार्वजनिक हितों को नुकसान हो सकता है।

जबकि धारा 123 राज्य के मामलों से संबंधित अप्रकाशित दस्तावेजों के बारे में बात करती है, धारा 124 आधिकारिक क्षमता में किए गए सभी संचारों के प्रकटीकरण को रोकती है, चाहे वह लिखित रूप में हो या नहीं और यह महत्वहीन है कि वे राज्य के मामलों से संबंधित हैं या नहीं।

मंटूभाई मेहता के मामले के अनुसार, यह माना गया कि यह न्यायालय पर है कि वह यह निर्धारित करे कि क्या कोई दस्तावेज आधिकारिक विश्वास में एक सार्वजनिक अधिकारी को किया गया संचार है और यदि दस्तावेज़ राज्य के किसी भी मामले से संबंधित नहीं है, तो इसे सबूत के रूप में लिया जा सकता है।

यह निर्धारित करते समय कि संचार आधिकारिक विश्वास में किया गया था या नहीं, केवल प्राथमिक साक्ष्य का उपयोग किया जाना चाहिए और इसे माध्यमिक साक्ष्य द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता है, जैसा कि शिवशंकरम पिल्लई बनाम अगली नारायण राव में मद्रास के उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया था।

गुप्त मुखबिर (सीक्रेट इनफॉरमेंटस)

साक्ष्य अधिनियम की धारा 125 में कहा गया है कि एक मजिस्ट्रेट या एक पुलिस अधिकारी को यह बताने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है कि उन्हें किसी अपराध के बारे में कोई जानकारी कैसे मिली थी।

इस धारा में आगे कहा गया है कि एक राजस्व (रेवेन्यू) अधिकारी को यह बताने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है कि उसे सार्वजनिक राजस्व के खिलाफ किसी भी अपराध के बारे में कोई जानकारी कैसे मिली थी।

गोपनीयता का अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त संचार 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है, “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा”, लेकिन इसकी एक विश्वकोशीय (इनसाइकिलोपेडिक) सीमा है। इसमें जीवन के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है, जिनमें से एक गोपनीयता भी है। गोपनीयता का अधिकार भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है, लेकिन समय के साथ न्यायिक कार्यवाही से यह पता चला है कि यह अनुच्छेद 21 के दायरे में आता है।

कानून विशेषाधिकार प्राप्त संचार के प्रकटीकरण की रक्षा करके गोपनीयता के अधिकार की रक्षा करता है। यह गोपनीय संचार के स्पष्ट मूल्य को छीन लेता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 विवाहित जोड़ों को विवाह के दौरान होने वाले किसी भी गोपनीय संचार का खुलासा करने से रोकती है। इसी तरह, साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 से 129 अटॉर्नी-मुवक्किल विशेषाधिकार से संबंधित है। विशेषाधिकार प्राप्त संचार की अवधारणा गोपनीयता के मौलिक अधिकार को मजबूत करती है।

इसके अलावा, वकीलों के लिए व्यावसायिक मानकों पर बीसीआई नियमों के नियम 7 और 15 और चिकित्सा चिकित्सकों के लिए भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002 के नियम 4.14 और 4.17 जैसे कानून विशेषाधिकार प्राप्त संचार के प्रकटीकरण को रोकते हैं। इनमें से किसी भी कानून का उल्लंघन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गोपनीयता के अधिकार का स्वत: उल्लंघन है।

विशाल कौशिक बनाम परिवार का न्यायालय  के मामले में, न्यायालय ने कहा कि अगर पति-पत्नी के बीच की बातचीत, एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे पति या पत्नी की जानकारी के बिना रिकॉर्ड की जाती है, तो वह सबूत न्यायालय में स्वीकार्य नहीं होगा। वास्तव में, यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता का उल्लंघन होगा और रिकॉर्ड करने वाले पति या पत्नी को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।

अन्य देशों में विशेषाधिकार प्राप्त संचार

संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन दोनों देशों में, विशेषाधिकार एक मौलिक अधिकार है जिसका उपयोग व्यक्तियों और निगमों द्वारा किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त संचार को प्रकट करने से सुरक्षा उपकरण के रूप में किया जाता है।

यूनाइटेड किंगडम (यूके)

ब्रिटेन में वकील और मुवक्किल के बीच संचार को सुरक्षित रखने के लिए दो प्रकार के विशेषाधिकार हैं:

  1. कानूनी सलाह विशेषाधिकार- इसमें वकील और मुवक्किल के बीच केवल लिखित या मौखिक गोपनीय संचार शामिल होते हैं जो कानूनी सलाह प्रदान करते हैं, मांगते हैं या प्राप्त करते हैं। यहां वकील शब्द में कर सलाहकार (टैक्स एडवाइजर) या लेखाकार (अकाउंटेंट्स) शामिल नहीं हैं, लेकिन इसमें इन-हाउस वकील शामिल हैं।
  2. मुकदमेबाजी का विशेषाधिकार- इसमें एक वकील और एक मुवक्किल या उनमें से किसी एक और तीसरे पक्ष के बीच लिखित या मौखिक गोपनीय संचार शामिल है जो किसी मामले की कार्यवाही के संबंध में कानूनी सलाह प्रदान करता है, मांगता है या प्राप्त करता है।

एक वकील मुवक्किल की सहमति के बिना विशेषाधिकार का त्याग नहीं कर सकता।

निम्नलिखित मामलों में कानूनी पेशेवर विशेषाधिकार को छूट दी जा सकती है-

  • यदि दस्तावेज़ अपनी गोपनीयता खो देता है
  • दस्तावेज़ एक आपराधिक या कपटपूर्ण योजना के लिए अस्तित्व में आया है।

भारत के विपरीत जहां अवैध प्रकृति के एक अधिनियम का खुलासा किया जा सकता है, यूके में यह अधिनियम आपराधिक प्रकृति का होना चाहिए, न कि केवल अवैध प्रकृति का।

युनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका (यूएसए)

कानून के तीन क्षेत्र हैं जो कानूनी पेशेवर विशेषाधिकार के अंतर्गत आते हैं-

  1. गोपनीयता का नियम- मुवक्किल या अन्य लागू अपवादों की सहमति के बिना, एक वकील उसके और मुवक्किल या मुवक्किल के प्रतिनिधि के बीच हुई गोपनीय संचार का खुलासा नहीं कर सकता है।
  2. एटॉर्नी-क्लाइंट विशेषाधिकार- यह नियम कानूनी सेवाओं विशेष रूप से न्यायिक कार्यवाही प्राप्त करने के लिए किए गए गोपनीय संचार के प्रकटीकरण को रोकता है।
  3. कार्य उत्पाद सिद्धांत- यह मुकदमेबाजी की प्रत्याशा (एंटीसिपेशन) में तैयार की गई सामग्री के विरोधी वकील द्वारा प्रकटीकरण की रक्षा करता है।

विशेषाधिकार को विभिन्न परिस्थितियों में छूट दिया जा सकता है, और इसकी कोई विशिष्ट शर्तें नहीं हैं। उदाहरण- जानबूझकर या अनजाने में विशेषाधिकार से छूट का मामला।

सिंगापुर

कानूनी विशेषाधिकार दो प्रकार के होते हैं-

  1. कानूनी सलाह विशेषाधिकार- इसमें वकील और मुवक्किल या वकील और मुवक्किल के एजेंट के बीच केवल गोपनीय संचार शामिल है जो कानूनी सलाह प्रदान करते हैं, मांगते हैं या प्राप्त करते हैं। इसमें एक वकील और तीसरे पक्ष के बीच संचार शामिल नहीं है जब तक कि तीसरा पक्ष मुवक्किल के एजेंट के रूप में कार्य नहीं कर रहा हो।
  2. मुकदमेबाजी का विशेषाधिकार- इसमें एक वकील और मुवक्किल और एक वकील और एक तीसरे पक्ष के बीच के गोपनीय संचार शामिल है, भले ही तीसरा पक्ष मुवक्किल के एजेंट के रूप में कार्य नहीं कर रहा हो, लेकिन जो कानूनी सलाह प्रदान करता है, मांगता है या प्राप्त करता है जहां कानूनी कारवाई होने की संभावना है।

इसमें इन-हाउस काउंसल के साथ संचार भी शामिल है।

ऑस्ट्रेलिया

कानूनी पेशेवर विशेषाधिकार कानून और सामान्य कानून से प्राप्त होते हैं। अदालत की कार्यवाही के संबंध में कानूनी सलाह या पेशेवर कानूनी सेवाएं प्रदान करने के उद्देश्य से एक वकील या वकीलों और मुवक्किल के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संचार का खुलासा नहीं किया जा सकता है। इसमें दस्तावेज भी शामिल होते हैं।

यदि मुवक्किल गोपनीयता के साथ असंगत तरीके से कार्य करता है, तो यह विशेषाधिकार को एक निहित छूट की ओर ले जाता है।

वैश्विक (ग्लोबल) विशेषाधिकार के मामले में, जटिलता बढ़ जाती है क्योंकि एक अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) में इसे विशेषाधिकार संरक्षण दिया जा सकता है जबकि दूसरे अधिकार क्षेत्र में इसे विशेषाधिकार नहीं दिया जा सकता है।

निष्कर्ष

विभिन्न विधान एक संरक्षित संबंध (वकील-मुवक्किल, डॉक्टर-रोगी, पति-पत्नी) के पक्षकारों को विशेषाधिकार प्राप्त संचार के नियम का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं। इसका आधार इस विश्वास की रक्षा करना है कि एक मुवक्किल एक वकील में, रोगी एक डॉक्टर में और जीवनसाथी एक दूसरे में हमेशा अच्छे संबंध रखे। हालांकि, विशेषाधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है, यह कुछ अपवादों के अधीन है। कानून इसका उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान करता है।

 

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