आवश्यकता के सिद्धांत

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Indian Penal Code
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यह लेख उस्मानिया विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज ऑफ लॉ से बीए.एलएलबी कर रही R Sai Gayatri द्वारा लिखा गया है। यह लेख आवश्यकता के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ नेसेसिटी), इसकी परिभाषा, इतिहास, अपवाद, भारतीय आपराधिक कानून में इसकी स्थिति और इसके न्यायिक दृष्टिकोण से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

परिचय 

आवश्यकता कोई कानून नहीं जानता।” – ईसप।

“निमो इन प्रोप्रिया कॉसा जूडेक्स, एस्से डेबेट” एक लैटिन कहावत है जिसमें कहा गया है कि किसी को भी अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं बनाया जाना चाहिए। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों में से एक है। उपरोक्त कहावत यह भी कहती है कि यदि किसी व्यक्ति को निर्णय लेने का अधिकार और शक्ति प्रदान की जाती है तो उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह (प्रिजुडिस) के, निष्पक्ष तरीके से कार्य करना चाहिए।

उदाहरण के लिए, यदि जॉन ने रॉन का कीमती सामान चुरा लिया और बाद में जॉन को खुद यह तय करने के लिए अपने आप को न्यायाधीश बनाया गया कि उसने रॉन का कीमती सामान चुराया है या नहीं। जाहिर है जॉन मामले का फैसला अपने पक्ष में करेगा और खुद को बेगुनाह साबित करेगा। यह न्याय के उद्देश्य को ही विफल कर देता है, इसलिए, ऐसे गंभीर मामलों पर अंकुश लगाने के लिए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत मौजूद हैं। पूर्वाग्रह के खिलाफ नियम, इस धारणा पर आधारित है कि यह मानव मनोविज्ञान के खिलाफ है कि वह अपने हित के खिलाफ मामला तय करे।

पक्षपात या पूर्वाग्रह मूल रूप से किसी भी तत्व को संदर्भित करता है जो किसी व्यक्ति को मामले की स्थिति के बारे में अपनी खुद की आशंकाओं के पक्ष में या उनके खिलाफ निर्णय लेने के लिए प्रभावित करता है। इस प्रकार, वर्तमान मामले का निर्णय केवल साक्ष्य के आधार पर नहीं किया जाता है। इस प्रकार नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों में पूर्वाग्रह के विरुद्ध नियम शामिल है। उक्त नियम उन तत्वों को समाप्त करता है जो किसी विशेष मामले में निर्णय लेते समय न्यायाधीश को गलत तरीके से प्रभावित करते हैं। हालांकि, आवश्यकता के सिद्धांत को पूर्वाग्रह के खिलाफ नियम का अपवाद माना जाता है। आइए इस लेख के माध्यम से आवश्यकता के सिद्धांत के बारे में और अधिक समझें।

आवश्यकता के सिद्धांत को समझना

नैसर्गिक/प्राकृतिक न्याय (नेचरल जस्टिस) के सिद्धांत सबसे बुनियादी कानूनी मानदंड (पैरामीटर्स) हैं जिन पर जब भी किसी न्यायालय को निर्णय लेना होता है तो उन पर विचार किया जाता है। हालाँकि, जब प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों में से एक की बात आती है, यानी पूर्वाग्रह के खिलाफ नियम, तो यहां एक अपवाद मौजूद है और वह आवश्यकता का सिद्धांत है। आवश्यकता का सिद्धांत कानूनी अधिकारियों को निम्नलिखित तरीके से कार्य करने में सक्षम बनाता है – 

  • कुछ ऐसे कार्य करना जो एक विशेष क्षण में करना जरूरी बन जाता है, और जहा ऐसे कार्यों को सामान्य कानूनी स्थिति में कानून के दायरे से अलग नहीं माना जाएगा।
  • आवश्यकता के सिद्धांत को केवल ऐसी परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है  जहां किसी मामले के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक निर्धारण प्राधिकारी (डिटरमाइनिंग अथॉरिटी) की अनुपस्थिति है।

ऐसी स्थिति में जहां किसी व्यक्ति को किसी मामले के संबंध में पक्षपातपूर्ण तरीके से कार्य करने या मामले को स्वयं रद्द करने का विकल्प दिया जाता है, ऐसे समय उसे पक्षपातपूर्ण तरीके से कार्रवाई करने को वरीयता (प्रिफरेंस) दी जाएगी, भले ही इससे निर्णायक प्राधिकरण (अथॉरिटी) के पूर्वाग्रह का निर्णय प्रभावित हो सकता है। उपरोक्त स्थिति के समान मामलों में, पूर्वाग्रह के खिलाफ नियम आवश्यकता के नियम से पराजित होता है। यहां एकमात्र शर्त यह है कि इस तरह के निर्णय लेने वाले प्राधिकारी को मामले को अनिवार्य रूप से समाप्त करना चाहिए।

आवश्यकता के सिद्धांत का इतिहास

आवश्यकता के सिद्धांत की जड़ें मध्यकालीन न्यायविद हेनरी डी ब्रेक्टन के लेखन में हैं। उन्होंने कहा कि “जो अन्यथा वैध नहीं है उसे आवश्यकता से वैध बना दिया जाता है”। बाद में फेडरेशन ऑफ पाकिस्तान बनाम मौलवी तमीजुद्दीन खान (1955) का विवादास्पद मामला पाकिस्तान की न्यायपालिका के सामने आया था।

इस मामले में, पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश यानी मुहम्मद मुनीर ने गवर्नर-जनरल, गुलाम मोहम्मद द्वारा आपातकालीन शक्तियों के अतिरिक्त-संवैधानिक उपयोग को कानूनी रूप से मान्य किया था। इसके अलावा, पाकिस्तान के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने हेनरी डी ब्रैक्टन की ऊपर बताई गई उक्ति (मैक्सिम) का उल्लेख किया और इस प्रकार आवश्यकता के सिद्धांत को लागू किया। फेडरेशन ऑफ पाकिस्तान बनाम मौलवी तमीजुद्दीन खान (1955) के मामले ने विभिन्न अन्य राष्ट्रमंडल देशों द्वारा आवश्यकता के सिद्धांत के उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन, इस सिद्धांत को लागू करने में शर्त यह है कि पूर्वाग्रह के प्रयोग से भी न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि ऐसा प्रतीत होना चाहिए कि न्याय किया गया है। इसलिए, आवश्यकता का सिद्धांत नेमो जुडेक्स इन कोसा सुआ के सिद्धांत का अपवाद है।

जब भारत के मामले की बात आती है, तो गुल्लापल्ली नागेश्वर राव बनाम एपीआरटीसी (1958) का ऐतिहासिक मामला, आवश्यकता के सिद्धांत को लागू करने के लिए जाना जाता है। उक्त सिद्धांत को बाद में भारत के चुनाव आयोग बनाम डॉ सुब्रमण्यम स्वामी (1996) के मामले के माध्यम से पूर्ण आवश्यकता के सिद्धांत में संशोधित किया गया था, जिसमें अदालत ने यह माना था कि आवश्यकता के सिद्धांत को केवल पूर्ण आवश्यकता के मामलों में ही लागू किया जाएगा। 

आवश्यकता के सिद्धांत के अपवाद

आवश्यकता का सिद्धांत निर्णायकों (एडज्यूडिकेटर) को पूर्वाग्रह से बचाता है। हालांकि, उक्त सिद्धांत हर मामले को तय करने में पूर्वाग्रह के बहाने, इस्तेमाल करने का लाइसेंस नहीं देता है। इसका अर्थ यह है कि आवश्यकता का सिद्धांत ऐसे निर्णायकों को अयोग्य ठहराता है जो निर्णय लेते समय पूर्वाग्रह का सहारा लेते हैं। लेकिन, कुछ अपवाद हैं जिनमें न्याय निर्णायक द्वारा दिए गए ऐसे पक्षपातपूर्ण निर्णय मान्य किए जाते हैं। अपवाद इस प्रकार हैं-

  • जब मध्यस्थता के लिए किसी अन्य सक्षम व्यक्ति की उपलब्धता नहीं है। 
  • जहा एक निर्णायक के अभाव में कोरम का गठन नहीं किया जा सकता है।
  • जहा एक और सक्षम न्यायाधिकरण स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है।

यदि प्रत्येक कानूनी मामले में आवश्यकता के सिद्धांत को लागू किया जाता है तो इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि यह चूक करने वाले पक्ष के पक्ष में होगा। इसके साथ ही, यदि आवश्यकता के सिद्धांत को पूरी तरह से त्याग दिया जाता है तो यह निर्णय को समाप्त कर देगा जिससे किसी भी पक्ष को कोई न्याय नहीं मिलेगा।

आवश्यकता के सिद्धांत को लागू करने से पहले किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए यह गंभीर रूप से विश्लेषण करना उचित है कि क्या उक्त सिद्धांत को वास्तव में लागू करने की आवश्यकता है या नहीं। यह निर्णय लेने की शक्ति को मजबूत और बेहतर बनाता है। आवश्यकता का सिद्धांत पक्षों को अदालत में प्रशासनिक कार्यों को चुनौती देने और सवाल करने में सक्षम बनाता है। लेकिन एक प्रशासनिक कार्रवाई की वैधता तय करते समय यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जब तक पूर्व निर्धारित अवधारणाएं उनके दिमाग में न्यायाधीश के पूर्वाग्रह को प्रभावित करने में सक्षम नहीं हैं, तब तक ऐसी प्रशासनिक कार्रवाई को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत आवश्यकता का सिद्धांत

आवश्यकता का सिद्धांत भारतीय आपराधिक कानून में पाया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 के अध्याय IV में धारा 76 से 106 के तहत ‘सामान्य अपवाद’ के प्रावधान शामिल हैं। यदि कोई व्यक्ति अध्याय-IV में बताए गए अपवादों या परिस्थितियों में से कोई भी अपराध करता है, तो ऐसे व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से छूट दी गई है। ऐसे में व्यक्ति को किसी सजा का सामना नहीं करना पड़ेगा। आवश्यकता के सिद्धांत को भी आईपीसी की धारा 81 के तहत ऐसे सामान्य अपवादों में शामिल किया गया है।

आईपीसी की धारा 81 ऐसे कृत्यों के बारे में बात करती है जिनसे नुकसान होने की संभावना है लेकिन जहां ऐसे कार्य, किसी आपराधिक इरादे के बिना, नुकसान पहुंचाने के लिए किए जाते हैं। किसी व्यक्ति या किसी संपत्ति को किसी भी प्रकार के और नुकसान से बचने या रोकने के लिए इस तरह का कार्य भी सद्भावपूर्वक किया जाना चाहिए। हालांकि, ऐसा कार्य करने के जोखिम को प्रत्येक स्थिति की प्रकृति और आवश्यकता के विरुद्ध तोला जाएगा।

एक हानिकारक स्थिति को रोकने के मामले में, एक व्यक्ति को दो विकल्प दिए जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप किसी न किसी तरह से नुकसान होता है। ऐसी स्थिति में, अधिक से अधिक नुकसान से बचने या रोकने के लिए, एक व्यक्ति अत्यधिक आवश्यकता के कारण एक ऐसा कार्य करने के लिए मजबूर होता है जिसे अन्यथा अपराध माना जाएगा। सरल शब्दों में, व्यक्ति को दो बुराइयों के बीच चयन करने की आवश्यकता होती है और आवश्यकता के सिद्धांत को लागू करने के लिए उन्हें कम बुरे विकल्प का चयन करना चाहिए।

आवश्यकता के सिद्धांत के प्रति न्यायिक दृष्टिकोण

रेजिना बनाम डुडले और स्टीफेंस (1884)

इस मामले में थॉमस डुडले और एडविन स्टीफेंस प्रतिवादी थे। उक्त प्रतिवादी और रिचर्ड पार्कर नाम के एक केबिन बॉय को जहाज़ की तबाही के कारण बिना भोजन और पानी के एक नाव में डाल दिया गया था। बाद में, अठारहवें दिन, जब वे तीनों सात दिनों तक बिना भोजन के रहे और पांच दिनों तक बिना पानी के रहे, डुडले ने स्टीफन को प्रस्ताव दिया कि बाकी को बचाने के लिए एक को मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए। तदनुसार, उन्होंने फैसला किया कि पार्कर को मारना बेहतर होगा ताकि वे अपनी जान बचा सकें। बीसवें दिन, डूडले और स्टीफेंस दोनों ने पार्कर को मार डाला और चार दिनों तक उसका मांस खाया। बाद में, एक जहाज ने उन्हें बचाया और उन पर रिचर्ड पार्कर की हत्या करने का आरोप लगाया गया।

अदालत ने कहा कि अपनी जान बचाने के लिए एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या करना, हत्या को उचित नहीं ठहराता, भले ही यह भूख की अत्यधिक आवश्यकता के तहत किया गया हो। इसके बाद, प्रतिवादियों को मौत की सजा सुनाई गई थी, हालांकि, बाद में इसे छह महीने के कारावास में घटा दिया गया था।

संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम होम्स (1842)

इस मामले में, ‘विलियम ब्राउन’ नाम का एक अमेरिकी जहाज, जिसमें 65 यात्री और चालक दल के 17 सदस्य थे, एक हिमखंड (आइसबर्ग) से टकराया और तेजी से डूब गया। नतीजतन, लंबी नाव तूफानी समुद्र में बह गई। नाव को डूबने से बचाने के लिए चालक दल के सदस्यों ने कुछ यात्रियों को पानी में फेंक दिया। बाद में, जब चालक दल के सदस्यों में से एक के मुकदमे के लिए मामला सामने आया, तो अदालत ने माना कि आवश्यकता की ऐसी स्थितियों को आपराधिक हत्या के आरोप के खिलाफ बचाव माना जा सकता है। हालांकि, अदालत ने कहा कि जिन लोगों की बलि दी जाती है, उन्हें उपस्थित लोगों के समूह के आधार पर उचित रूप से चुना जाना चाहिए।

रेक्स बनाम बॉर्न (1938)

इस मामले में पांच जवानों द्वारा, बलात्कार (रेप) के बाद 14 साल की एक बच्ची गर्भवती हो गई। प्रतिवादी स्त्री रोग विशेषज्ञ था। उसने लड़की के माता-पिता की सहमति से गर्भपात कर दिया क्योंकि उसका मानना ​​था कि अगर बलात्कार पीड़िता को जन्म देने की अनुमति दी गई तो उसकी मृत्यु हो सकती है। मामले के तथ्यों को सुनने के बाद, अदालत ने प्रतिवादी को अवैध रूप से गर्भपात कराने के अपराध का दोषी नहीं ठहराया। प्रतिवादी को दोषी नहीं पाया गया क्योंकि उसने स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए नेकनीयती से काम किया था।

टाटा सेल्युलर बनाम भारत संघ (1994)

इस मामले में, भारत सरकार ने सभी मोबाइल ऑपरेटरों को चार मेट्रो शहरों यानी चेन्नई, बॉम्बे, कलकत्ता और दिल्ली में अपने नेटवर्क स्थापित करने के लिए निमंत्रण जारी किया। मूल्यांकन (ईवैल्यूएशन) समिति को भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के तहत निविदाओं का अवलोकन (परस्यू) और मूल्यांकन करना था, जिसमें दूरसंचार महानिदेशक था। मूल्यांकन प्रक्रिया के अंत में महानिदेशक (डायरेक्टर) के बेटे की निविदा (टेंडर) का चयन किया गया था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘निमो जूडेक्स इन कॉसा सुआ’ के उल्लंघन को मंजूरी नहीं दी और कहा की संचार महानिदेशक के बिना किसी भी निविदा का चयन नहीं किया जा सकता है और निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। प्रतिस्थापन (सबस्टिट्यूशन) का कोई विकल्प नहीं था और इस प्रकार निर्णय को रद्द करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय उत्तरदायी नहीं था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आवश्यकता के सिद्धांत को उदारतापूर्वक (लिबरली) लागू किया।

भारत निर्वाचन आयोग बनाम डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी (1996)

इस मामले में, यह माना गया था कि यदि मुख्य चुनाव आयोग पूर्वाग्रह की संभावना पर जोर देता है तो उनकी भागीदारी अनिवार्य नहीं है और इसी तरह आवश्यकता का सिद्धांत लागू नहीं होगा। हालाँकि, उनके लिए एक उचित पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया था जिसमें वे एक बैठक बुला सकते थे और बैठक से हट सकते थे जिससे निर्णय लेने के लिए आयोग के अन्य सदस्यों को छोड़ दिया गया था। आवश्यकता के सिद्धांत को केवल उन मामलों में लागू किया जाएगा जहां उनके बीच संघर्ष है। इसलिए, इस मामले में, आवश्यकता के सिद्धांत को पूर्ण आवश्यकता के सिद्धांत में बदल दिया गया था, जिसने बदले में यह स्थापित किया कि उक्त सिद्धांत केवल पूर्ण आवश्यकता के मामलों में ही लागू किया जा सकता है।

निष्कर्ष

आवश्यकता का सिद्धांत ‘निमो जूडेक्स इन कॉसा सुआ’ के सिद्धांत का अपवाद है। उक्त सिद्धांत के अनुसार, पूर्वाग्रह के आधार पर, एक प्राधिकारी अयोग्य होने के लिए उत्तरदायी है। जब आवश्यकता के सिद्धांत को लागू किया जाता है, तो यह एक बचाव के रूप में कार्य करता है, भले ही निर्णय को निष्पक्ष और वैध बनाते हुए कानून का उल्लंघन हो। हालाँकि, उक्त सिद्धांत को केवल कुछ स्थितियों में लागू किया जा सकता है, जिसमें यदि सिद्धांत को लागू नहीं किया जाता है, तो यह मामले को पूरी तरह से समाप्त कर देगा जिससे अधिक नुकसान होगा। इसके अलावा, उक्त सिद्धांत को हर मामले में लागू नहीं किया जा सकता है, अर्थात, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि उक्त सिद्धांत केवल पूर्ण आवश्यकता के मामले में ही लागू किया जा सकता है।

संदर्भ

 

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