प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002)

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यह लेख Kathakali Banerjee द्वारा लिखा गया है। यह लेख प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) के फैसले का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। लेख में मामले के तथ्यों, मुद्दों, पक्षों की दलीलों और मामले के महत्वपूर्ण विश्लेषण के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसका अनुवाद Pradyumn singh ने किया है। 

Table of Contents

परिचय

“मौलिक अधिकारों का उद्देश्य दोतरफा है। सबसे पहला, प्रत्येक नागरिक को उन अधिकारों का दावा करने की स्थिति में होना चाहिए। दूसरे,उन्हें प्रत्येक प्राधिकारी पर बाध्यकारी होना चाहिए।” – भारत की संविधान सभा में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर

भारतीय संविधान का भाग III सबसे महत्वपूर्ण खंडों में से एक है, जो मौलिक अधिकारों का वर्णन करता है। इस धारणा को ध्यान में रखते हुए कि बुनियादी मानवाधिकार किसी प्राणी की अंतर्निहित विशेषता है, संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों की अवधारणा को इस दृष्टिकोण के साथ पेश किया कि ये अधिकार (अनुच्छेद 12 से 35) बुनियादी नागरिक, अधिकार है, जो सभी भारतीय नागरिकों के साथ-साथ गैर-नागरिकों को भी प्रदान किए जाते हैं ताकि उन्हें बुनियादी स्वतंत्रता और अधिकारों का आनंद लेने में सक्षम बनाया जा सके और राज्य के मनमाने कार्यों से उनकी रक्षा की जा सके। चूंकि मौलिक अधिकार हमें अनावश्यक राज्य हस्तछेप से बचाते हैं, इसलिए हमारे लिए “राज्य” शब्द की अवधारणा को ठीक से समझना महत्वपूर्ण है। मौलिक अधिकारों का पहला अनुच्छेद, भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 12 है जो हमें एक ऐसे राज्य की परिभाषा देता है, जिसका कर्तव्य हमारे मूल अधिकारों की रक्षा करना है न कि उनका उल्लंघन करना। न्यायाधीशों द्वारा “राज्य” की व्याख्या करते हुए ढेर सारे न्यायिक उदाहरण पेश किए गए हैं। चूंकि अधिकांश मौलिक अधिकारों को राज्य और उसके विभिन्न उपकरणों के विरुद्ध लागू किया जा सकता है, इसलिए हमारे लिए उनके दायरे को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। 1950 के दशक से ही, विभिन्न न्यायिक निर्णयों के माध्यम से एक उचित संरचना देने और अनुच्छेद 12 के दायरे को समझने का प्रयास किया गया है। शीर्ष न्यायालय ने विभिन्न उदाहरणों पर विचार किया और अंततः प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) के सभी प्रकार के सन्देहों को दूर करते हुए एक निष्कर्ष पर पहुंचा। 

इस लेख में हम प्रदीप कुमार विश्वास मामले (2002) और कानून की नजर में इस ऐतिहासिक मामले का क्या महत्व है, की चर्चा करेंगे। इसके अलावा, हम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” की अवधारणा के विकास को भी समझेंगे।

मामले का विवरण

  1. मामले का नाम: प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान 
  2. उद्धरण: (2002) 5 एससीसी 111
  3. याचिकाकर्ता का नाम: प्रदीप कुमार विश्वास
  4. प्रतिवादी का नाम: भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान और अन्य।
  5. फैसले की तारीख: 16.04.2002
  6. न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  7. पीठ: भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस.पी. भरूचा, न्यायमूर्ति सैयद शाह मोहम्मद कादरी,न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी, न्यायमूर्ति एन. संतोष हेगड़े, न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू, न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत।
  8. शामिल कानून: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12, 14, 16, 32, 323A, 311, प्रशासनिक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) अधिनियम 1985 की धारा 14(2), सोसायटी पंजीकरण अधिनियम 1860। 

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) की पृष्ठभूमि

प्रदीप कुमार विश्वास मामले से पहले, शीर्ष अदालत ने सभाजीत तिवारी बनाम भारत संघ और अन्य (1975) मामले में फैसला सुनाया था कि वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) को “राज्य” के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। वर्ष 1972 में, सभाजीत तिवारी, जो वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के में नियुक्त एक जूनियर स्टेनोग्राफर थे, उन्होंने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उक्त संस्थान में नियुक्त नए स्टेनोग्राफर के साथ पारिश्रमिक की समानता का दावा किया गया। उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत समानता के अपने अधिकार का दावा किया। याचिकाकर्ता ने दावा किया कि सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत निकाय, सीएसआईआर, सरकार की एक एजेंसी के रूप में काम करेगा, जो संप्रभु कार्यों को निष्पादित करेगा। हालांकि, 5 न्यायधीशों की पीठ ने रिट याचिका खारिज कर दी और यह कहा कि निकाय की विशेषताएं इसे अनुच्छेद 12 के ‘अन्य प्राधिकारियों’ के तहत वर्गीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। न्यायालय ने माना कि रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं थी क्योंकि सीएसआईआर अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ के दायरे में नहीं आता है। 

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) के तथ्य

श्री प्रदीप कुमार विश्वास और कुछ अन्य की सेवाएं भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान द्वारा समाप्त कर दी गई, जो सीएसआईआर के तहत एक इकाई है, और केंद्र सरकार के नियंत्रण और कामकाज के तहत एक सरकारी एजेंसी है। उनके द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय की एकल पीठ के समक्ष मूल संगठन सीएसआईआर द्वारा उनकी सेवाओं की समाप्ति को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी। पीठ ने पूर्व उदाहरण सभाजीत तिवारी बनाम भारत संघ के आधार पर याचिका खारिज कर दी।  कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, याचिकाकर्ताओं द्वारा 5 अगस्त 1986 को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी। सभाजीत तिवारी मामला शुरू में एक खंडपीठ के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, जिसे बाद में सात सदस्यीय बड़ी संवैधानिक पीठ के पास समीक्षा एवं पुनर्विचार करने के लिए भेजा गया था।

उठाए गए मुद्दे 

  • क्या सीएसआईआर को उसके कार्यों के आधार पर अनुच्छेद 12 के दायरे में एक राज्य माना जाना चाहिए?
  • सभाजीत तिवारी मामले(1967) में दिये गये निर्णय को पलटना उचित होगा या नहीं, जो एक चौथाई सदी से भी अधिक समय से एक प्रमुख मिसाल के रूप में काम कर रहा है?

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए तर्क

  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि, मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (एमओए) को पढ़ने से, सीएसआईआर को अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जाना चाहिए, क्योंकि इसकी स्थापना राष्ट्रीय हित उद्देश्यों के लिए की गई थी और इसका उद्देश्य भारत में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना था। उन्होंने तर्क दिया कि सीएसआईआर एक संप्रभु कार्य करता है, जो एक राज्य के रूप में इसकी मान्यता को सुनिश्चित करता है। 
  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सीएसआईआर को प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 की धारा 14(2) के दायरे में लाने वाली अधिसूचना दिनांक 31.10.1986 ने इस तथ्य का निष्कर्ष निकाला कि सीएसआईआर अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर एक राज्य था। तथ्य यह है कि अधिनियम की उक्त धारा के तहत कोई अधिसूचना केंद्र सरकार द्वारा तब तक जारी नहीं की जा सकती थी जब तक कि संस्थान के कर्मचारियों को संघ या राज्य या किसी स्थानीय के मामलों के रखरखाव के संबंध में सार्वजनिक सेवाओं और क्षेत्र में अन्य प्राधिकरण और सरकार के नियंत्रण में पदों पर नियुक्त नहीं किया गया हो।

प्रतिवादियों द्वारा उठाए गए तर्क

  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि शासी निकाय के अधिकांश सदस्य गैर-सरकारी सदस्य थे। निकाय के अध्यक्ष के पास पदेन (एक्स ऑफिशियो) सदस्यों को नामांकित करने के साथ-साथ उनकी सदस्यता समाप्त करने की भी शक्ति है। यहां तक ​​कि सोसायटी के पदेन अध्यक्ष होने के नाते, जो वास्तव में भारत के प्रधानमंत्री हैं, उनके द्वारा शक्ति का प्रयोग सोसायटी के अध्यक्ष के रूप में ही किया जा रहा था।
  • याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए विवाद के जवाब में, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि जारी अधिसूचना दिनांक 31.10.1986, इस तथ्य पर निर्णायक नहीं थी कि सीएसआईआर को अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर एक राज्य के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह सरकार के लिए खुला है भले ही कोई इकाई राज्य न हो वो अपने कर्मचारियों के लिए प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम के प्रावधानों का लाभ सुनिश्चित करने के लिए एक अधिसूचना जारी कर सकती है। 

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) में निर्णय

सुभाजीत तिवारी मामले में दिया गया फैसला संरचनावाद (स्ट्रक्चरलिज़म) को प्राथमिकता देता है और 5-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा पिछले फैसले को पलटते हुए 5:2 के अनुपात में दिया गया था। न्यायाधीशों ने स्थापित किया कि सीएसआईआर भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत परिभाषित “अन्य प्राधिकरणों” के दायरे में आता है। निकाय के गठन, निकाय का उद्देश्य और कार्य, निकाय का प्रबंधन और नियंत्रण और उसे प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता जैसे परीक्षण निकाय द्वारा की जाने वाली गतिविधियों की प्रकृति का आकलन करने के लिए शीर्ष न्यायालय द्वारा निर्धारित किए गए थे, जिससे कि उन्हें “राज्य” के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाए। 

न्यायमूर्ति एसपी बरूचा (तत्कालीन सीजेआई), न्यायमूर्ति सैयद शाह मोहम्मद कादरी, न्यायमूर्ति एन संतोष हेगड़े, न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत ने बहुमत से फैसला सुनाया और कहा कि सीएसआईआर संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के दायरे में आता है। उन्होंने अपनी राय के समर्थन में निम्नलिखित कारण बताये:

अनुच्छेद 12 और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध

भारतीय संविधान के भाग III का प्रारंभिक अनुच्छेद होने के नाते, अनुच्छेद 12 एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि यह उन संस्थाओं को परिभाषित करता है जिनके खिलाफ मौलिक अधिकारों को लागू किया जा सकता है। भाग III के तहत उल्लिखित अनुच्छेद, मौलिक अधिकारों से संबंधित है, जो प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किए जाते हैं, और इसलिए यह उनकी रक्षा करने के लिए “राज्य” पर दायित्व बनाता है। न्यायिक व्याख्या की प्रक्रिया के माध्यम से, अनुच्छेद 14, जो समानता की बात करता है, और अनुच्छेद 16, जो रोजगार के मामलों में समानता की बात करता है, उनका दायरा व्यापक हो गया है। यह अधिकार न केवल भेदभाव न किए जाने का अधिकार सुनिश्चित करता है बल्कि राज्य की मनमान या अतार्किक कार्रवाइयों से भी बचाता है। इसलिए, समानता के अधिकारों की व्यापक क्षमता के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” की व्याख्या का दायरा बढ़ाना पड़ा, ताकि जिन संस्थाओं के पास शक्ति है, उनके द्वारा शक्ति के मनमाने प्रयोग के खिलाफ व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत सोसायटी एक “राज्य” है

सर्वोच्च न्यायालय ने सुखदेव सिंह और अन्य बनाम भगतराम सरदार सिंह रघुवंशी और अन्य (1975), के मामले पर भरोसा करते हुए यह निर्णय दिया गया कि सार्वजनिक कार्य करने वाले सार्वजनिक प्राधिकरण राज्य की अवधारणा के अंतर्गत शामिल हैं। इस मामले में, न्यायमूर्ति मैथ्यू ने अपना सहमति पूर्ण निर्णय देते हुए छह सूचकांक प्रतिपादित किये:

  1. प्रबंधन में नियंत्रण की एक सामान्य डिग्री या निकाय पर राज्य की वित्तीय सहायता की खोज से किसी संचालन को राज्य कार्रवाई के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  2. राज्य सहायता और एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवा प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण संयोजन होने से किसी निकाय को राज्य की एक एजेंसी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  3. प्रदर्शन किया गया सार्वजनिक समारोह, चाहे उसका संचालन कुछ भी हो, महत्वपूर्ण है।
  4. क्या निगम जनता के लाभ के लिए अपना व्यवसाय करता है या नहीं।
  5. क्या निगम को एकाधिकार का दर्जा प्राप्त है जो राज्य-संरक्षित है?
  6. यदि सरकार का कोई विभाग किसी निगम को हस्तांतरित हो जाता है, तो निगम को राज्य की एक संस्था या एजेंसी माना जाएगा।

सुखदेव मामले में निर्धारित परीक्षणों को रमाना दयाराम शेट्टी बनाम भारतीय अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण और अन्य (1979) मामले में और अधिक विस्तृत किया गया। इन निर्णयों को आगे पुनः विस्तारित किया गया और उसी आधार पर अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब और अन्य (1980) में निर्णय दिया गया। 

सुखदेव सिंह बनाम भगतराम सिंह और रमण दयाराम शेट्टी बनाम भारतीय अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण  में निर्णय देने के पीछे का तर्क अजय हसिया मामले में “निर्णय के लिए तर्क (रेशीओ डीसीडेनडी) “ निर्धारित करना था। मामले की सुनवाई 5 न्यायधीशों की संवैधानिक पीठ ने किया। पीठ ने फैसला सुनाते समय, यह कहा था कि यदि कोई इकाई कार्यात्मक, संरचनात्मक और वित्तीय रूप से राज्य की एजेंसी या साधन के रूप में कार्य कर रही है, तो इसे संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार “अन्य प्राधिकरणों” के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है। कार्यात्मक परीक्षण इस कारक पर केंद्रित है कि इकाई कैसे संचालित होती है। क्या इसका कार्य मुख्य रूप से सरकार से प्रभावित है। संरचनात्मक परीक्षण में निकाय की संरचना को देखा गया ताकि यह जांचा जा सके कि इसमें सरकार के प्रभुत्व वाली नियुक्तियां हैं या नहीं। अंत में, वित्तीय परीक्षण में सरकार द्वारा निकाय को दिए गए वित्तीय योगदान को देखा गया। समाज की प्रगति के साथ, और कल्याणकारी राज्य के आगमन के साथ सरकारी कार्यों में वृद्धि होती है, जिससे नागरिक सेवा के ढांचे को उन्नत करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक निगम के रूप में एक नया प्रशासनिक उपकरण सरकार की दूसरी शाखा के रूप में अस्तित्व में आया। अंततः, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि “राज्य” अपने सार्वजनिक कार्यों को करने के लिए किस रूप में प्रच्छन्न (डिस्ग्यूज़्ड) है। इसलिए कोई भी चीज़ किसी निगम के “राज्य” के चरित्र को ख़त्म नहीं कर सकती, जिसे एक कानून के तहत शामिल किया गया है।  

अजय हसिया बनाम ख़ालिद मुजीब  के मामले में तैयार किए गये परीक्षण लचीले हैं, राज्य होने का दावा करने वाली संस्था पर वित्तीय, प्रशासनिक और कार्यात्मक रूप से सरकार का प्रभुत्व या नियंत्रण होना चाहिए। नियंत्रण व्यापक होना चाहिए न कि सरकार द्वारा केवल नियामक नियंत्रण। अनुच्छेद 12 के अंतर्गत केवल नियामक नियंत्रण स्थापित करना उस निकाय को राज्य नहीं बनाएगा।। 

सभाजीत तिवारी मामले के ओबिटर डिक्टा में कहा गया है कि ऐसे निकायों के कर्मचारी जो वैधानिक नहीं हैं और कंपनी अधिनियम 1956 या सोसायटी पंजीकरण अधिनियम 1860 के तहत पंजीकृत हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत सरकारी कर्मचारियों के अधिकारों का आनंद नहीं ले सकते हैं, जिसे इस मामले में पलट दिया गया है। अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि सीएसआईआर की स्थापना शैक्षिक और आर्थिक सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने के लिए की गई थी; यह उस निकाय द्वारा शासित होता है, जिसे सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है, साथ ही इसके सदस्य भी, सरकार द्वारा नियंत्रित होते हैं। उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर, अदालत ने प्रदीप कुमार विश्वास  के फैसले में सभाजीत तिवारी  मामले को यह कहते हुए पलट दिया कि भले ही कोई निगम कंपनी अधिनियम या सोसायटी पंजीकरण अधिनियम जैसे किसी कानून के तहत स्थापित किया गया हो, इसे अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जाएगा। यदि कोई निगम राज्य की एजेंसी या साधन के रूप में कार्य करता है, तो यह स्वचालित रूप से एक “राज्य” माना जाता है और मौलिक अधिकारों को उनके विरुद्ध भी लागू किया जा सकता है।

गहरा और व्यापक राज्य नियंत्रण

 

रमण दयाराम शेट्टी बनाम भारतीय अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण और सुखदेव सिंह बनाम भगतराम  में स्थापित किया गया कि किसी निगम या समाज को राज्य एजेंसी या साधन के रूप में वर्गीकृत करने के संकेतकों में से एक के रूप में “राज्य द्वारा गहरा और व्यापक नियंत्रण” था। सीएसआईआर पर गहरे और व्यापक सरकारी नियंत्रण की उपस्थिति सीएसआईआर को राज्य के एक साधन के रूप में मान्यता देने में एक महत्वपूर्ण कारक रही है। सीएसआईआर के शासी निकाय में भारत सरकार की प्रमुख भूमिका ने गहरा सरकारी प्रभाव दिखाया। पदेन सदस्यों को छोड़कर उपस्थित सभी सदस्यों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है, और प्रधान मंत्री वहां का पदेन अध्यक्ष होता है। किसी भी सदस्य का पद समाप्त करने की शक्ति भी राष्ट्रपति के हाथ में होती है। यहां तक ​​कि सीएसआईआर के नियमों को बनाने या संशोधित करने के लिए शासी निकाय की शक्ति के लिए भारत सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होती है। वित्तीय सहायता, संगठन के व्यय में सरकार का नियंत्रण और सरकार द्वारा दिए गए अनुदान की उपस्थिति दो महत्वपूर्ण कारक थे जिन्होंने सीएसआईआर और सरकार के बीच सकारात्मक संबंध स्थापित किए। भारत के बौद्धिक(इंटेलेक्चुअल) संपदा (प्रॉपर्टी) आंदोलन के अग्रणी होने और प्रौद्योगिकी के साथ-साथ विज्ञान के व्यापक स्पेक्ट्रम को कवर करने के कारण, सीएसआईआर के कार्य अत्यधिक सार्वजनिक महत्व के हैं। चूँकि की गई गतिविधियाँ व्यक्तियों के जीवन के लिए मौलिक हैं, इसलिए उन्हें सरकारी कार्यों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ माना जाता है।

केंद्र सरकार द्वारा सीएसआईआर का गठन

भारत में औद्योगिक विकास के उद्देश्य से, दो निकाय, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान बोर्ड और औद्योगिक अनुसंधान उपयोग समिति की स्थापना क्रमशः 27 अप्रैल 1940 और 1 फरवरी 1941 को वाणिज्य विभाग, भारत सरकार द्वारा की गई थी। इन दोनों निकायों पर प्रशासनिक नियंत्रण के उचित समन्वय(कॉर्डिनेशन) और अभ्यास के लिए, सीएसआईआर का गठन सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत 12 मार्च 1942 को विधिवत पंजीकृत किया गया था। इससे पता चलता है कि यह निकाय सरकार द्वारा स्वयं उन कार्यों को करने के लिए बनाया गया था जो केंद्र सरकार के वाणिज्य विभाग द्वारा किए जाते थे। 

प्रबंधन एवं नियंत्रण

सीएसआईआर के प्रबंधन और नियंत्रण में सरकार की उपस्थिति सर्वव्यापी (यूनिवर्सल) है। सीएसआईआर के नियमों और विनियमों के नियम 43 के अनुसार, शासी निकाय समाज की सभी शक्तियों का प्रयोग करेगा, लेकिन यह सरकार द्वारा प्रदान किए गए प्रतिबंधों के अधीन है। न्यायाधीशों ने “इस तथ्य को देखते हुए कि सीएसआईआर का अध्यक्ष प्रधान मंत्री है, इस नियम के तहत, केंद्र सरकार की इच्छा के लिए शासी निकाय की अधीनता पूरी हो गई है।”  इस पर  प्रकाश डाला। नियम 41 राष्ट्रपति को शासी निकाय द्वारा पारित किसी भी निर्णय में संशोधन और विनियमन करने का अधिकार देता है, और उसका आदेश निकाय पर बाध्यकारी माना जाता है। यह निकाय में सरकार द्वारा “गहरे और व्यापक नियंत्रण” की उपस्थिति को दर्शाता है।

वित्तीय सहायता

सीएसआईआर के लिए 70 प्रतिशत फंडिंग केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की गई थी। इसके अलावा, राज्य सरकार, संस्थानों और अन्य एजेंसियों द्वारा भी योगदान दिया जाता है। यहां तक ​​कि सोसायटी का बजट और व्यय भी भारत सरकार द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार सोसायटी के शासी निकाय द्वारा तैयार किया जाता है। सीएसआईआर के समापन की स्थिति में इसके सदस्यों के पास इसकी परिसंपत्तियों के वितरण के संबंध में अपनी राय प्रस्तुत करने की कोई शक्ति नहीं है। इस मामले में सरकार की भी प्रमुख भूमिका है. भले ही संपत्ति पर नाममात्र का स्वामित्व समाज के पास है, फिर भी उनका अंतिम विश्लेषण सरकार द्वारा किया जाता है। निकाय में सरकारी योगदान की तुलना में गैर-सरकारी योगदान बहुत कम या नगण्य है। यह सरकार द्वारा निकाय पर गहरे और व्यापक नियंत्रण की उपस्थिति को दर्शाता है। 

उपरोक्त टिप्पणियों पर विचार करते हुए, शीर्ष अदालत ने सभाजीत तिवारी के मामले  में स्थापित मिसाल को पलट दिया. इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय  ने आगे कहा कि :

“आम तौर पर, सभाजीत तिवारी जैसे मामले ,जो लंबे समय से चली आ रही है, उसको उलटा नहीं किया जाना चाहिए, भले ही तर्क कितना भी गलत क्यों न हो, अगर यह बाद के निर्णयों द्वारा सभी मान्यता से बाहर अपने तर्क को “अलग” किए बिना निर्विवाद रूप से खड़ा है, और यदि पहले के निर्णय में प्रतिपादित सिद्धांत लगातार कायम रह सकते हैं और इस न्यायालय या कुछ समान रूप से आधिकारिक(अथॉरिटेटिव) संस्था के बाद के निर्णयों के साथ मेल खा सकते हैं। हमारे विचार में, सभाजीत तिवारी दोनों शर्तों को पूरा करते हैं।’

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान(2002)  के मामले में असहमति पूर्ण राय

न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी और न्यायमूर्ति दोराई स्वामी राजू ने कहा कि सभाजीत तिवारी मामले मे दिया गया फैसला सही था और सीएसआईआर अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य नहीं है। उन्होंने बताया कि भले ही राज्य के रूप में वर्गीकृत होने के लिए सरकार द्वारा कुछ नियंत्रण था, लेकिन सीएसआईआर में सरकार द्वारा प्रभाव का गहरा और व्यापक कमी थी। उन्होंने आगे  उद्धृत किया: 

हमारे उद्देश्य के लिए, यह कहना पर्याप्त होगा कि प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985 की धारा 14 और संविधान के अनुच्छेद 323 A, जिससे अधिनियम की उत्पत्ति हुई है, स्पष्ट रूप से किसी समाज को केंद्र सरकार की एक अधिसूचना, अधिनियम के दायरे में लाने पर विचार नहीं करते हैं। हालांकि हम इस मुद्दे पर कोई भी राय व्यक्त करने से बचते हैं, लेकिन वर्तमान चर्चा उस अभ्यास में शामिल होने का अवसर नहीं हो सकती है। इसके अलावा, उपलब्ध सामग्री के आधार पर, हमने एक सकारात्मक निष्कर्ष दर्ज किया है कि सीएसआईआर “सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण वाली” सोसायटी नहीं है। हम केवल अधिसूचना की सामग्री पर भरोसा करके उस निष्कर्ष को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं, जिसमें हम पाते हैं कि प्रासंगिक अभिव्यक्ति के उपयोगकर्ता को यंत्रवत् कॉपी किया गया है लेकिन तथ्यात्मक रूप से असमर्थित(अनसपोर्टेड) है।  

उन्होंने जोर देते हुए कहा कि सीएसआईआर को इस तथ्य के आधार पर राज्य की श्रेणी में आने वाली संस्था नहीं माना जा सकता है कि इसकी कोई वैधानिक उत्पत्ति नहीं है, न ही कोई कानून है जो इसे शक्तियां प्रदान करता है। किसी कानूनी इकाई को राज्य के साधन या एजेंसी के रूप में रखने से अनुच्छेद 12 के तहत स्वचालित रूप से इसे “अन्य प्राधिकारी” के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। सीएसआईआर में संविधान या किसी कानून द्वारा प्रदत्त वैधानिक तत्व और लोगों के मौलिक अधिकार को नुकसान के लिए कार्य करने की क्षमता का अभाव है। न्यायाधीशों ने असंतोष व्यक्त किया, क्योंकि उनके अनुसार, अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य के रूप में वर्गीकृत करने के लिए “सरकार द्वारा गहरे और व्यापक नियंत्रण” की उपस्थिति स्थापित करने के लिए अदालत के समक्ष पर्याप्त सबूत पेश नहीं किए गए थे।  

सीएसआईआर “राज्य” नहीं है

सीएसआईआर की विशेषताओं की जांच करते हुए, न्यायाधीशों ने तर्क दिया कि इसमें अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य के रूप में वर्गीकृत होने के लिए “वैधानिक तत्व ” का अभाव है। तर्क पर इस प्रकार चर्चा की जा सकती है:

  • उन्होंने जो पहला तर्क दिया वह यह है कि सरकार निकाय की संपूर्ण शेयर पूंजी की मालिक नहीं है। यह उन पांच श्रेणियों में से केवल एक है जिसका उपयोग निकाय अपने धन प्राप्त करने के लिए करता है।
  • दूसरे, शासी निकाय पूरी तरह से सरकार द्वारा प्रस्तुत नामांकित व्यक्तियों से नहीं बना है और इसमें निजी व्यक्ति शामिल हैं। 
  • तीसरा, निकाय द्वारा प्रदान किए गए कार्य अनिवार्य रूप से लोगों के जीवन के लिए मौलिक नहीं हैं, और सीएसआईआर को सौंपे गए कार्य किसी निजी संगठन द्वारा भी किए जा सकते हैं। 
  • चौथा, यह बताया गया कि यह निकाय सरकार का एक विभाग नहीं था, बल्कि वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान बोर्ड और औद्योगिक अनुसंधान उपयोग समिति के कार्यों के समन्वय और प्रशासन के लिए सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत स्थापित एक सोसायटी थी। 
  • पांचवें, सदस्यता संबंधी मुद्दों का समाधान प्रधान मंत्री (समाज के अध्यक्ष) द्वारा किया जाता है, न कि भारत सरकार द्वारा। इसके अलावा, शासी निकाय का नेतृत्व सीएसआईआर के महानिदेशक करते हैं, न कि राष्ट्रपति। निकाय के व्यय को विनियमित करते समय सरकारी हस्तक्षेप होता है, क्योंकि वित्तीय सहायता भी सरकार द्वारा दी जाती है। 
  • छठा, न्यायाधीशों ने कहा कि सीएसआईआर के मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (एमओए) के प्रावधान सामान्य हैं और सभी समाजों पर लागू होते हैं।
  • सातवें, जैसा कि अटॉर्नी जनरल ने अधिसूचना दिनांक 31.10.1986 के संबंध में, बताया था, वह व्यक्तिगत, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय द्वारा जारी किया गया था । 

उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 की धारा 14 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 323A, जिससे इस अधिनियम की उत्पत्ति हुई है, “केंद्र सरकार की अधिसूचना द्वारा किसी समाज को अधिनियम के दायरे में लाने पर स्पष्ट रूप से विचार न करें। इसलिए, न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी और न्यायमूर्ति दोराई स्वामी राजू ने राय दी कि सरकारी उपस्थिति तो है, लेकिन इतनी गहरी नहीं है कि अनुच्छेद 12 के तहत इसे “राज्य” के रूप में वर्गीकृत किया जा सके। 

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान(2002) का आलोचनात्मक विश्लेषण

यह मामला अनुच्छेद 12 की व्याख्या को आकार देने में महत्वपूर्ण रहा है। इस मामले में उल्लिखित कुछ प्रमुख कानूनी पहलू इस प्रकार हैं:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 की व्याख्या।

यह मामला विशेष रूप से अनुच्छेद 12 की दायरे में अन्य प्राधिकरणों, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को शामिल करने से संबंधित,व्याख्या में उतर गया है। इस मामले में सरकार द्वारा वस्तु, कार्य, नियंत्रण और प्रबंधन जैसे कारकों का पता लगाया गया। अनुच्छेद 12 के तहत संस्थाओं को “राज्यों” के रूप में वर्गीकृत करने के मानदंडों पर स्पष्टता प्रदान करके, इसने सार्वजनिक संस्थाओं की स्थिति की व्याख्या के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की है।

व्यापक सरकारी नियंत्रण का विश्लेषण.

प्रदीप कुमार विश्वास मामला में एक महत्वपूर्ण पहलू की जांच की गई। सीएसआईआर जैसी संस्थाओं पर सरकारी नियंत्रण की सीमा थी। इसमे स्थापित किया कि सरकार द्वारा वित्तीय, प्रशासनिक और कार्यात्मक नियंत्रण जैसे कारक किसी इकाई को अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” समझे जाने के लिए आवश्यक विचार हैं। इस निर्णय ने गहन और व्यापक राज्य नियंत्रण के परीक्षण को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिससे संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के रूप में मानी जाने वाली संस्थाओं के दायरे का विस्तार हुआ। 

सार्वजनिक उद्यमों की न्यायिक जांच

वैश्वीकरण के संदर्भ में, मामले ने सार्वजनिक संस्थाओं के संबंध में अनुच्छेद 12 की व्याख्या विकसित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। इसने यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर न्यायिक जांच की आवश्यकता पर प्रकाश डाला कि ऐसी संस्थाएं संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करती हैं और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। संवैधानिक व्याख्या की उभरती प्रकृति पर जोर देकर, मामले ने समकालीन सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को अपनाने में न्यायपालिका की भूमिका पर जोर दिया।

सात-न्यायाधीशों की पीठ ने अनुच्छेद 12 के तहत “अन्य प्राधिकरणों” की व्याख्या के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) के क्षेत्र में। निजीकरण नीतियों द्वारा स्थापित सार्वजनिक उपक्रमों के लिए इस निर्णय के दूरगामी प्रभाव है। यह स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है कि सीएसआईआर जैसी संस्थाएं, जो प्रशासनिक, कार्यात्मक और वित्तीय रूप से सरकार द्वारा नियंत्रित और प्रभुत्व रखती हैं, उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा के भीतर माना जाएगा। 

इस निर्णय को सुनाने के पीछे के तर्क की कुछ विशिष्ट आधारों पर आलोचना भी की जा सकती है। “राज्य के गहरे और व्यापक नियंत्रण” पर अदालत की निर्भरता प्रकृति में अत्यधिक औपचारिक(फॉर्मल) है। कुछ परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा निर्धारित गहन और व्यापक नियंत्रण परीक्षण शासन की उभरती प्रकृति और सार्वजनिक कार्यों को करने के प्रति समर्पित गैर-सरकारी निकायों की बढ़ती भागीदारी की अनदेखी करता है। ऐसे युग में जहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों को विभाजित करने वाली रेखा काफी धुंधली है,उसमे प्रदान किए गए तर्क के नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए हानिकारक परिणाम होंगे, क्योंकि इस वर्तमान निर्णय में प्रदान किए गए तर्क चुनौती देने के लिए कदम उठाने की व्यक्तियों की क्षमता को सीमित कर सकते हैं। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य

अनुच्छेद 12 भाग III का प्रारंभिक अनुच्छेद है, जो उन निकायों को परिभाषित करता है जिन्हें “राज्य” के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार, ‘राज्य’ शब्द में शामिल हैं:

  • भारत की सरकार और संसद;
  • प्रत्येक राज्य की सरकार और विधानमंडल;
  • भारत के क्षेत्र के भीतर स्थित स्थानीय प्राधिकारी
  • अन्य प्राधिकरण, चाहे वे भारत के क्षेत्र के भीतर स्थित हों या भारत सरकार द्वारा नियंत्रित हों और भारत के बाहर किसी अन्य स्थान पर स्थित हों।

यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राज्य शब्द में संघ और राज्यों के कार्यकारी और विधायी दोनों अंग शामिल हैं। संप्रभु या सरकारी कार्य करने वाले किसी भी प्राधिकारी को राज्य के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। 

स्थानीय अधिकारियों की न्यायिक व्याख्या

स्थानीय प्राधिकार को सामान्य खण्ड अधिनियम, 1897 की  धारा 3(31) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। परिभाषा के अनुसार, इसमें एक नगरपालिका समिति, बंदरगाह आयुक्तों का निकाय और अन्य स्थानीय स्वशासी निकाय जैसे नगर पालिकाएं, जिला बोर्ड, सुधार ट्रस्ट, खनन निपटान बोर्ड आदि शामिल हैं। शीर्ष न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले भारत संघ बनाम आर.सी. जैन (1981), में कुछ परीक्षण निर्धारित किए गए हैं जो हमें यह निर्धारित करने में मदद करेंगे कि कोई निकाय स्थानीय प्राधिकरण की श्रेणी में आता है या नहीं। अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि किसी निकाय का एक अलग कानूनी अस्तित्व(इग्ज़िस्टेन्स) है,जो एक विशेष रूप से परिभाषित क्षेत्र में कार्य करता है, स्व-शासन का आनंद लेता है, और क़ानून द्वारा उसे ऐसे कार्य सौंपे जाते हैं जो आम तौर पर नगर पालिकाओं को सौंपे जाते हैं, तो ऐसे निकाय “स्थानीय अधिकारियों” के अंतर्गत आएंगे, और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य माना जाएगा। 

“अन्य प्राधिकारियों” की न्यायिक व्याख्या

वेबस्टर डिक्शनरी, के अनुसार प्राधिकरण वे निकाय हैं जो आदेश देने की शक्ति का प्रयोग करते हैं। हम विभिन्न वैधानिक प्रावधानों से स्थानीय प्राधिकरण शब्द की उचित व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन “अन्य प्राधिकरण” शब्द को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे इसे न्यायपालिका द्वारा व्याख्या के लिए खुला छोड़ दिया गया है। “अन्य प्राधिकरणों” को खुला रखा गया है ताकि “राज्य” की परिभाषा समावेशी हो और इसमें भारत सरकार की देखरेख में काम करने वाली संस्थाओं की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल हो। यह शब्द अत्यधिक अस्पष्ट है और अलग-अलग मामलों में इसकी अलग-अलग व्याख्या की गई है। कुछ महत्वपूर्ण मामले जिन्हें शब्द की व्याख्या में मिसाल माना गया है, नीचे चर्चा की गई है।

“अन्य प्राधिकारी” शब्द की व्याख्या पहली बार मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांताबाई (1953) के मामले में की गई थी। इस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने इस शब्द की व्याख्या करते समय एक ही तरह का  सिद्धांत को लागू करने का निर्देश दिया।”एक ही तरह का” का अर्थ है “समान प्रकार का”, जिसका अर्थ है कि ‘अन्य प्राधिकारियों’ के अधीन माने जाने वाले किसी भी प्राधिकारी को सरकारी या संप्रभु कार्यों को निष्पादित करना होगा। इसलिए, सरकारी निकायों के समान प्रकृति के अधिकारियों को अनुच्छेद 12 के तहत राज्य माना जाएगा। इस मामले में, यह स्थापित किया गया था कि किसी प्राधिकरण को राज्य के रूप में माने जाने के लिए, संप्रभु कार्य एक अंतर्निहित विशेषता होनी चाहिए।

हालांकि, मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांताबाई मामले में दिया गया निर्णय उत्तर प्रदेश राज्य बनाम उज्जमबाई (1962) मामले में चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यहां, ‘एक ही तरह का’ (एजूसड़ेम जेनेरिस) के अनुप्रयोग को खारिज कर दिया गया था, क्योंकि इसे “अन्य प्राधिकरणों” की व्याख्या को अत्यधिक सीमित करने वाला माना जाता था। अनुच्छेद 12 के तहत उल्लिखित राज्य के अन्य तत्वों के बीच एक समान धागा न होने के कारण ‘एक ही तरह का’ का दृष्टिकोण अनुपयुक्त(इनएप्रोप्रीऐट) था।

राजस्थान विद्युत बोर्ड बनाम मोहनलाल (1967) के मामले में अन्य अधिकारियों की व्याख्या के लिए एक नई पद्धति तैयार की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित किया कि कानून द्वारा या संविधान के तहत बनाए गए निकायों के पास मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त शक्तियां होंगी। ऐसे निकायों को अनुच्छेद 12 के दायरे में ‘राज्य’ माना जाएगा। इसके अलावा, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जिन निकायों में नियम और विनियम बनाने की शक्ति है, लेकिन वे राज्य की संप्रभु शक्ति को साझा नहीं करते हैं, उन्हें शामिल नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 12 के अर्थ में “राज्य” के अंतर्गत, सरकारी या संप्रभु कार्य करना एक अंतर्निहित गुण नहीं है जो अन्य अधिकारियों के दायरे में आता है। इस प्रकार इस निर्णय ने अन्य प्राधिकरणों का दायरा बढ़ा दिया, जिसमें पारंपरिक रूप से संप्रभु कार्यों से जुड़े संस्थानों जैसे विश्वविद्यालयों से परे संस्थाएँ शामिल थीं।

सुखदेव बनाम भगतराम(1975) के मामले में इस प्रश्न को संबोधित किया कि क्या क़ानून के तहत स्थापित लेकिन मुख्य रूप से वाणिज्यिक कार्यों में लगे निकायों को एक राज्य माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विशेष कानून के तहत स्थापित तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) और जीवन बीमा निगम (एलआईसी) जैसे निकायों को वास्तव में अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जाएगा। राजस्थान विद्युत बोर्ड मामला निर्णय में निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन किया गया। 

आर.डी. शेट्टी बनाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण (1979) में अनुच्छेद 12 पर एक ऐतिहासिक निर्णय न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती द्वारा दिया गया था। इस मामले में, हवाईअड्डा प्राधिकरण को एक राज्य माना गया। न्यायालय ने स्थापित किया कि निकाय पर कुछ हद तक सरकारी नियंत्रण या सरकार से महत्वपूर्ण वित्तीय सहायता एक निजी संस्था को भी राज्य की एक संस्था या एजेंसी के रूप में योग्य बनाएगी। इस मामले ने एक राज्य के रूप में इकाई के वर्गीकरण को निर्धारित करने में सरकारी नियंत्रण या वित्तीय समर्थन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्षमता बनाम साधन परीक्षण की शुरुआत की। 

सोम प्रकाश बनाम भारत संघ और अन्य (1981), मे यह माना गया कि भारत पेट्रोलियम राज्य का एक साधन है। सर्वोच्च न्यायालय के इस संवैधानिक फैसले में माना गया कि भारत सरकार के स्वामित्व वाले निगम संविधान के अनुच्छेद 12 के अधीन थे। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 12, के साथ पढ़ें अनुच्छेद 298, जो व्यापार करने के लिए सरकार के अधिकार से संबंधित है, स्पष्ट रूप से पंजीकृत समाजों, वैधानिक निगमों, सरकारी संस्थाओं और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई अन्य समान संस्थाओं को शामिल करता है। 

अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब सेहरा वर्दी (1980),में अन्य प्राधिकारियों की व्याख्या के लिए एक और महत्वपूर्ण मामला, न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने घोषित किया कि एक सोसायटी के जो सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860, के तहत पंजीकृत है वह एक राज्य है। यह मामला पिछले मामलों में स्थापित उपकरण परीक्षण पर आगे विकसित और विस्तृत हुआ। यह माना गया कि यदि कोई नीचे उल्लिखित मानदंडों में से किसी एक को पूरा करता है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जाएगा:

  1. यदि उक्त निकाय पूरी तरह से राज्य द्वारा वित्त पोषित है,
  2. यदि उक्त निकाय को आंशिक रूप से वित्त पोषित किया जाता है, जिसमें प्रमुख धन राज्य से आता है, या
  3. यदि उक्त निकाय राज्य द्वारा वित्त पोषित नहीं है, लेकिन राज्य ने संबंधित निकाय को स्वायत्तता प्रदान की है,
  4. यदि निकाय पर राज्य का पूर्ण प्रशासनिक नियंत्रण हो।

ज़ी टेलीफिल्म्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (2005) में प्रदीप कुमार विश्वास मामला  मे निर्धारित प्रमुख कारकों पर विचार किया गया यह संबोधित करते हुए कि क्या भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की श्रेणी में आता है। इस मामले ने इस शब्द की व्यापक व्याख्या प्रदान की, जिसमें बीसीसीआई की वित्तीय स्वतंत्रता, सरकारी हिस्सेदारी की अनुपस्थिति और प्रमुख कारकों के रूप में प्रभुत्व पर जोर दिया गया। और माना कि बीसीसीआई को संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य नहीं माना जा सकता है।

एसएस राणा बनाम रजिस्ट्रार कॉर्प सोसायटीज़ (2006)।), मे यह मुद्दा उठा कि क्या सहकारी समितियाँ अन्य प्राधिकरणों के दायरे में आती हैं। शीर्ष अदालत ने माना कि रजिस्ट्रार द्वारा सोसायटी के मामलों पर नियंत्रण मात्र से सोसायटी स्वचालित रूप से “राज्य” नहीं बन जाती जब तक कि प्रदीप कुमार विश्वास और अन्य पिछले मामलों में गिनाए गए अन्य कारक पूरे नहीं हो जाते। इस निर्णय ने केवल सरकारी नियंत्रण से परे कारकों के महत्व पर प्रकाश डाला।

निष्कर्ष 

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) मामला सुभाजीत तिवारी की मिसाल को पलटते हुए, विशेष रूप से एक गलत फैसले को पलट दिया। सीएसआईआर का गठन किस उद्देश्य से किया गया था यह इसके संकल्प पत्र को पढ़कर समझा जा सकता है। अपने संकल्प में, सीएसआईआर ने वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान के प्रचार, मार्गदर्शन और समन्वय जैसे अन्य कार्यों का विवरण दिया। इससे यह जाहिर होता है कि सीएसआईआर का गठन राष्ट्रहित में किया गया था।

सुखदेव सिंह बनाम भगतराम सरदार सिंह रघुवंशी (1975), अजय हसिया बनाम ख़ालिद मुजीब सेहरावर्दी (1981), और मैसूर पेपर मिल्स लिमिटेड बनाम मैसूर पेपर मिल्स ऑफिसर्स एसोसिएशन (2002) में एक पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) विश्लेषण यह सुझाव देता है कि वित्तीय, कार्यात्मक और प्रशासनिक रूप से सरकार द्वारा नियंत्रित और प्रभुत्व वाली संस्थाएं एक राज्य का गठन करती हैं, और कोई भी नियामक संस्था पर्याप्त नहीं होगी। यह निर्णय यह पहचानने के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में स्थापित किया गया है कि सार्वजनिक संस्थाएँ राज्य के दायरे में आती हैं या नहीं। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में अनुच्छेद 12 की व्याख्या में भारी बदलाव आया है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

अनुच्छेद 12 का दायरा क्या है?

अनुच्छेद 12 के दायरे को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे हमें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि मौलिक अधिकार किस पर लागू होते हैं। अनुच्छेद 12 के दायरे के प्रमुख घटकों में मुख्य रूप से शामिल हैं:

  1. सरकार: इसमें भारत की सरकार और संसद, राज्य सरकारें और उनके संबंधित विधानमंडल शामिल हैं।
  2. स्थानीय और अन्य प्राधिकारी: इसमें केंद्र या राज्य सरकारों के अलावा अन्य संस्थाएं शामिल हैं जो भारत के क्षेत्र में स्थित है। 

पिछले कुछ वर्षों में, अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ शब्द की व्याख्या का विस्तार हुआ है। चार अलग-अलग उपकरणों में से, ‘अन्य प्राधिकरण’ शब्द अनुच्छेद 12 में सबसे खुला और व्यापक रूप से व्याख्या किया गया शब्द है। उपरोक्त विभिन्न निर्णयों की चर्चा से, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ‘अन्य प्राधिकरण’ में शामिल निकायों में कुछ आवश्यक कारक होने चाहिए। अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य के रूप में माने जाने के लिए सरकारी नियंत्रण, कार्यशील सार्वजनिक सेवाएं और सरकार के साथ वित्तीय संबंध आवश्यक है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के संबंध में मामले का महत्व क्या है?

प्रदीप कुमार विश्वास बनाम भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान (2002) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 की व्याख्या और अनुप्रयोग में इसका अत्यधिक महत्व है। संविधान के भाग III के तहत उल्लिखित मौलिक अधिकार व्यक्तियों को राज्य की मनमानी कार्रवाइयों के खिलाफ सुरक्षा के अधिकार की गारंटी देते हैं। अब, इसलिए “राज्य” कार्यों को परिभाषित करना बहुत महत्वपूर्ण है, और अनुच्छेद 12 के तहत दी गई परिभाषा भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस मामले में अदालत द्वारा दिए गए तर्क का इस संवैधानिक प्रावधान के दायरे और प्रयोज्यता पर दूरगामी प्रभाव था। अदालत ने “राज्य की साधनात्मकता या एजेंसी” की अवधारणा का विश्लेषण किया, जिसे पिछले न्यायिक उदाहरणों में उल्लिखित किया गया था। इसने निर्धारण के लिए कुछ शर्तें भी जोड़ीं, जैसे निकाय पर सरकारी नियंत्रण की डिग्री, इसके वित्त पोषण स्रोत और इसके द्वारा किए गए कार्यों की प्रकृति। मामले ने अनुच्छेद 12 के दायरे को पारंपरिक सरकारी एजेंसियों से बढ़ाकर सार्वजनिक कार्यों को निष्पादित करने वाली संस्थाओं की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल कर दिया।

संदर्भ

  • भारतीय संविधान की ऑक्सफोर्ड हैंडबुक-सुजीत चौधरी, माधव खोसला और प्रताप भानु मेहता द्वारा संपादित, 2016
  • एमपी जैन, भारतीय संवैधानिक कानून, 8वां संस्करण, 2019
  • वीडी महाजन, भारत का संवैधानिक कानून, 8वां संस्करण, 2023
  • डॉ. जे.एन. पांडे का भारत का संवैधानिक कानून, 58वां संस्करण, 2021
  • https://constitution.org/1-Constitution/cmt/cardozo/jud_proc.htm
  • https://www.barandbench.com/columns/justice-kk-mathew-unsung-hero-

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