यह लेख Mudit Gupta द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में मुंबई लॉ अकादमी विश्वविद्यालय से बीबीए.एलएल.बी (ऑनर्स) कर रहे हैं। यह लेख क्षतिपूर्ति के अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट ऑफ़ इंडेम्निटी) और क्षतिपूर्ति धारक (इंडेम्निटी होल्डर) के अधिकारों के बारे में सभी आवश्यक विवरणों पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
पहले, लोग अपनी प्रतिबद्धताओं (कमिटमेंट) के बारे में अधिक सुरक्षित थे। विश्वास की भावना देने के लिए एक व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्द ही काफी होते थे। लेकिन जैसे-जैसे विश्वास का स्तर कम होने लगा, लोगों ने सब कुछ लिखित में रखना पसंद किया। लोगों ने किसी चीज़ के बदले जोखिम के स्तर को कम करने की आवश्यकता भी महसूस की है। चूंकि इस अवधारणा को समाज में प्रमुखता मिली, इसलिए इसे कानून में भी जगह मिल गई थी। इसलिए अंग्रेजी कानून में क्षतिपूर्ति की अवधारणा पर चर्चा की गई और इस अवधारणा के संबंध में कानून बनाया गया था।
जब अंग्रेजों ने भारत में काम करना शुरू किया और हमारे देश पर शासन करना शुरू किया, तो उन्होंने विभिन्न कानून भी पेश किए थे। ऐसा ही एक कानून भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 था। चूंकि ये कानून ब्रिटिश सांसदों द्वारा बनाए गए थे, इसलिए ये कानून भारत की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार कुछ बदलावों के साथ अंग्रेजी कानूनों पर प्रमुख रूप से निर्भर रहते थे। 1872 में पारित किया गए इस कानून में, क्षतिपूर्ति की अवधारणा पर भी चर्चा की गई थी।
अब, भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 को कुछ परिवर्तनों के साथ प्रस्तुत किया गया था, लेकिन अंग्रेजी और भारतीय विधानों के बीच कुछ महत्वपूर्ण अंतर भी थे। अंग्रेजी कानून के तहत क्षतिपूर्ति का दायरा भारतीय कानून की तुलना में थोड़ा व्यापक है। अंग्रेजी कानून के अनुसार, क्षतिपूर्ति के एक अनुबंध को एक पक्ष द्वारा एक विशिष्ट घटना जिसे “ट्रिगर इवेंट” कहा जाता है, के परिणामस्वरूप हुए नुकसान की भरपाई के लिए एक वादे के रूप में परिभाषित किया गया है। क्षतिपूर्ति की इस परिभाषा का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उस घटना, जो देयता (लायबिलिटी) की परिपक्वता (मैच्योरिटी) के लिए उत्पन्न हुई थी, के घटित होने के पीछे कौन था। लेकिन, भारतीय कानून के तहत क्षतिपूर्ति की अवधारणा में केवल क्षतिपूर्ति कर्ता (इंडेमनीफायर) या किसी अन्य व्यक्ति के कार्यों के कारण हुए नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति शामिल है, और इसमें किसी प्राकृतिक आपदा के कारण हुई कोई हानि शामिल नहीं है, जबकि अंग्रेज़ी कानून के तहत इस अवधारणा में वे स्थितियां भी शामिल हैं, जहां तीनो उल्लिखित स्थितियों के कारण हुए नुकसान को शामिल करना वैध है।
इस लेख में, भारत में क्षतिपूर्ति के अनुबंध से संबंधित सभी जानकारी और, विशेष रूप से, क्षतिपूर्ति धारक से संबंधित जानकारी पर पूरी तरह से चर्चा की गई है।
क्षतिपूर्ति का अनुबंध क्या है
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की प्रस्तावना (प्रिएंबल) के अनुसार, इस अधिनियम को अनुबंध के कुछ हिस्सों में संशोधन और परिभाषित करने के लिए पारित किया गया था। इसका मतलब यह नहीं है कि यह अधिनियम एक अनुबंध के मामले में संदर्भित होने वाला प्राथमिक क़ानून है; यह केवल एक नहीं है। जैसा कि इरावदी फ्लोटिला कंपनी बनाम भगवानदास (1891) के फैसले में कहा गया था, भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 नामक क़ानून एक पूर्ण संहिता नहीं है। यह एक प्राथमिक है, जिसे भारत के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) के भीतर अनुबंधों से निपटने के लिए संदर्भित किया जाता है, लेकिन परिस्थितियों के अनुसार अन्य विशिष्ट विधियों को भी संदर्भित किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि अनुबंधों के लिए प्रदान किए गए क़ानून संपूर्ण नहीं है और यह इसमें अन्य अद्यतन (अपडेशन) किए जाने के लिए जगह देता है। जब जब जरूरत पड़ती है तब तब, स्थिति को प्रबंधित करने के लिए नए क़ानून लाए गए है। माल की बिक्री अधिनियम (सेल ऑफ गुड्स एक्ट), 1930 ; भारतीय भागीदारी (पार्टनरशिप) अधिनियम, 1932 आदि इन कानूनों के कुछ उदाहरण हैं। ये क़ानून पहले भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 का एक हिस्सा थे, लेकिन बाद में उन्हें इससे अलग कर दिया गया था और उसी पर नए क़ानून बनाए गए थे।
लेकिन कुछ विशेष प्रकार के अनुबंधों को अब तक क़ानून से अलग नहीं किया गया है। वे सभी क़ानून के दूसरे भाग के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें आमतौर पर विशिष्ट अनुबंधों के रूप में जाना जाता है। एक ऐसा प्रकार, जो बहुत महत्वपूर्ण और व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, वह क्षतिपूर्ति का अनुबंध होता है।
आइए पहले चर्चा करें कि क्षतिपूर्ति का अनुबंध वास्तव में क्या होता है।
क्षतिपूर्ति के अनुबंध को सबसे पहले एडमसन बनाम जार्विस (1827) के मामले में पेश किया गया था। इस मामले में, वादी, एक नीलामीकर्ता, ने प्रतिवादी के निर्देश पर मवेशियों (कैटल) को बेच दिया, और बाद में, मवेशियों को किसी अन्य व्यक्ति के स्वामित्व में पाया गया था। मालिक ने वादी पर मुकदमा दायर किया था। वादी ने बाद में प्रतिवादी, जिसने उसे मवेशियों को बेचने का निर्देश दिया था, पर मुकदमा दायर किया। इस मामले में वादी के पक्ष में फैसला सुनाया गया था। अदालत ने कहा कि जिस व्यक्ति ने नीलामीकर्ता को निर्देश दिया था, उसने एक तरह से नीलामीकर्ता की क्षतिपूर्ति की और इसलिए क्षतिपूर्ति कर्ता के रूप में उसकी देनदारी के तहत, उसे इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया था।
भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 124 के अनुसार-
क्षतिपूर्ति का अनुबंध एक ऐसा अनुबंध है जिसके तहत एक पक्ष दूसरे पक्ष को वचनदाता (प्रॉमिसर) या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से होने वाले नुकसान से बचाने का वादा करता है।
क्षतिपूर्ति का अनुबंध एक आकस्मिक (कंटिंजेंट) अनुबंध है क्योंकि यह किसी घटना के घटित होने पर निर्भर करता है जो की क्षतिपूर्ति कर्ता या अनुबंध को ट्रिगर करने वाले तीसरे पक्ष द्वारा होता है। घटित होने वाली घटना अनुबंध को ट्रिगर करती है और देयता की परिपक्वता की ओर ले जाती है।
क्षतिपूर्ति के वैध अनुबंध के लिए कुछ शर्तें निम्नलिखित हैं-
- अनुबंध के लिए प्रतिफल (कंसीडरेशन) वैध होना चाहिए।
- अनुबंध का उद्देश्य वैध होना चाहिए।
- क्षतिपूर्ति धारक को हानि पहुंचना, एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- यह किसी विशेष घटना पर निर्भर होता है।
- क्षतिपूर्ति को स्थिति के अनुसार व्यक्त या निहित किया जा सकता है।
- एक वैध अनुबंध के अन्य सभी आवश्यक तत्व होने चाहिए।
क्षतिपूर्ति के वैध अनुबंध के लिए इन शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता होती है।
एक क्षतिपूर्ति कर्ता कौन है
जैसा कि हमने क्षतिपूर्ति की अवधारणा के बारे में बात की है, अब बात करते हैं कि क्षतिपूर्ति कर्ता कौन होता है। एक क्षतिपूर्ति कर्ता वह व्यक्ति होता है जो किसी निश्चित घटना के घटित होने पर क्षतिपूर्ति धारक को हुए नुकसान के लिए भुगतान करने की गारंटी देता है, चाहे वह नुकसान क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा स्वयं या किसी तीसरे पक्ष द्वारा किया गया हो। जैसे ही क्षतिपूर्ति धारक या किसी तीसरे पक्ष के कार्यों के कारण क्षतिपूर्ति धारक को नुकसान होता है, वैसे ही देयता की परिपक्वता उत्पन्न हो जाती है।
उदाहरण के लिए, A, B को एक क्षतिपूर्ति देता है कि यदि उसके घर को किसी भी प्रकार की क्षति होती है, जो की अगले 2 वर्षों के भीतर किसी भी मानव गतिविधि के कारण हुई है, तो A सभी नुकसान के लिए B को भुगतान करेगा। अगर इस मामले में, B के घर पर आग लग जाती है जो पड़ोस में आयोजित एक कार्यक्रम की गतिविधि के कारण हुआ है, तो इस मामले में A, ऐसे मामले में हुए सभी नुकसानों के लिए B को भुगतान करने के लिए बाध्य है। इस मामले में, A क्षतिपूर्ति कर्ता है क्योंकि उसने B द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई करने की जिम्मेदारी ली है और वह समझौते के अनुसार ऐसा करने के लिए बाध्य भी है।
क्षतिपूर्ति धारक कौन है
क्षतिपूर्ति के अनुबंध में लाभार्थी पक्ष क्षतिपूर्ति धारक होता है। एक क्षतिपूर्ति धारक एक पक्ष है जिसे किसी विशेष चीज़ के संबंध में भविष्य में होने वाली लागत और क्षति के संबंध में, क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा आश्वासन दिया जाता है। क्षति एक ऐसी घटना के घटित होने से होती है, जिसके लिए क्षतिपूर्ति कर्ता स्वयं या कोई अन्य तीसरा पक्ष उत्तरदायी होता है।
जैसा कि ऊपर चर्चा किए गए उदाहरण में बताया गया है, A क्षतिपूर्ति कर्ता है। B, जिसे सभी नुकसानों का आश्वासन दिया गया है, वह क्षतिपूर्ति धारक है क्योंकि वह उनके बीच किए गए समझौते में लाभार्थी पक्ष है।
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 125 के तहत एक क्षतिपूर्ति धारक को प्रदान किए गए अधिकार
क्षतिपूर्ति के अनुबंध में, क्षतिपूर्ति धारक लाभार्थी पक्ष होता है और इसलिए, अधिकांश अधिकार उसके पक्ष में होते हैं। एक क्षतिपूर्ति धारक को नुकसान की वसूली का अधिकार, साथ साथ मामले से संबंधित वाद के संबंध में उसके द्वारा किए गए खर्च, और सूट के समझौते के तहत भुगतान की गई राशि को वापस लेने का भी अधिकार होता है। ये अधिकार उन्हें भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 125 द्वारा प्रदान किए गए हैं।
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 125, क्षतिपूर्ति धारक को कुछ अधिकार प्रदान करती है और इन्हें क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा पूरा किया जाना है, और इन अधिकारों में शामिल हैं-
- हर्जाने की वसूली का अधिकार (धारा 125(1))
- खर्च की गई लागत की वसूली का अधिकार ( धारा 125(2))
- समझौते के दौरान भुगतान की गई राशि की वसूली का अधिकार (धारा 125(3))
इन सभी अधिकारों की विस्तृत चर्चा आगामी (कमिंग) उपशीर्षकों में की गई है।
हर्जाने की वसूली का अधिकार
जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, क्षतिपूर्ति के अनुबंध का मुख्य उद्देश्य क्षतिपूर्ति धारक को हुए नुकसान की वसूली करना है जो किसी घटना के होने के कारण हुआ था, और उस घटना का घटित होना या तो क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा स्वयं या किसी अन्य तीसरी घटना द्वारा ट्रिगर किया गया था। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के तहत दिए गए प्रावधानों के अनुसार, एक क्षतिपूर्ति कर्ता, क्षतिपूर्ति धारक को उन सभी नुकसानों का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हो जाता है, जिन पर क्षतिपूर्ति का अनुबंध लागू होता है।
उदाहरण के लिए, यदि दो लोग, अर्थात् A और B, क्षतिपूर्ति के एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हैं, जिसमें A संभावित नुकसान के लिए B की क्षतिपूर्ति करेगा, यदि एक जहाज, जिसका उपयोग माल ले जाने के लिए किया जाता है, किसी मानवीय त्रुटि से डूब जाता है। इस स्थिति में, यदि जहाज किसी मानवीय त्रुटि के कारण डूब जाता है, तो A उसके द्वारा क्षतिपूर्ति किए गए नुकसान का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है, और उसे उन नुकसानों की वसूली करने का B का अधिकार है।
खर्च की गई लागत वसूल करने का अधिकार
क्षतिपूर्ति धारक के पास क्षतिपूर्ति के वाद (सूट) में हुई सभी लागतों को क्षतिपूर्ति कर्ता से वसूल करने के सभी अधिकार हैं क्योंकि ऐसा करना उनका अधिकार है। क्षतिपूर्ति के अनुबंध का मुख्य सार क्षतिपूर्ति धारक द्वारा किए गए नुकसान को कम करना है, और यदि ऐसे मामले से संबंधित कुछ लागतें उत्पन्न होती हैं, तो उस वाद के संबंध में लागत क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा वहन की जानी है। हालांकि, इस तरह के एक मुकदमे को लाने या उसके बचाव में, उसे क्षतिपूर्ति कर्ता के निर्देशों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए और इस तरह से कार्य करना चाहिए जैसे उसने क्षतिपूर्ति के अभाव में कार्य किया हो। अन्यथा, वाद का बचाव करने या लाने की अनुमति वचनदाता द्वारा स्पष्ट रूप से दी जाती है।
जहां तक इन शर्तों का ध्यान रखा जाता है, इससे संबंधित किसी भी लागत को क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा वहन किया जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि दो लोग, A और B, एक दूसरे के साथ अनुबंध करते हैं, जिसमें A ने माल के एक विशेष शिपमेंट से हुए नुकसान के लिए B की क्षतिपूर्ति की थी। अब, यदि उस घटना के संबंध में कोई मुकदमा होता है जिससे शिपमेंट को नुकसान हुआ, जैसे की कोई दुर्घटना, तो इसका परिणाम मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। फिर, उस मामले में, भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 125 द्वारा उन्हें प्रदान किए गए वसूल करने के लिए क्षतिपूर्ति धारक के अधिकार के अनुसार वाद के संबंध में किए गए खर्च भी क्षतिपूर्ति कर्ता से वसूली योग्य हो जाएंगे। हालांकि, इस तरह का मुकदमा लाने में या इसका बचाव करते हुए, उसे क्षतिपूर्ति कर्ता के निर्देशों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए और इस तरह से कार्य करना चाहिए जैसे उसने क्षतिपूर्ति के अभाव में कार्य किया होता।
समझौते के तहत भुगतान की गई राशि की वसूली का अधिकार
क्षतिपूर्ति धारक किसी भी मुकदमे के समझौते के तहत भुगतान की गई सभी राशियों को वसूल करने का अधिकार रखता है यदि ऐसा समझौता क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा विशेष रूप से दिए गए किसी भी निर्देश के खिलाफ नहीं था। एक और शर्त यह है कि उसे इस तरह से कार्य करना चाहिए जैसे उसने वचनदाता द्वारा दिए गए मुकदमे से समझौता करने के लिए क्षतिपूर्ति या अनुमती के अभाव में कार्य किया हो।
उदाहरण के लिए, यदि A और B एक दूसरे के साथ अनुबंध करते हैं, और A तीसरे पक्ष के द्वारा B को सौंपे गए कार्य को पूरा करने के संबंध में B की क्षतिपूर्ति करता है। अब, यदि कार्य पूरा नहीं होता है और जिस व्यक्ति ने B को कार्य सौंपा है, उसके संबंध में एक मुकदमा दायर करता है, और बाद में, दोनों पक्ष समझौता करते हैं और B को इस समझौते के तहत एक निश्चित राशि का भुगतान करने की आवश्यकता होती है, तो उस स्थिति में, किए गए समझौते के तहत भुगतान की गई रकम की वसूली के अधिकार के अनुसार A से भी वसूली योग्य है। हालांकि, इस तरह के एक मुकदमे को लाने या बचाव करने में, उसे A के निर्देशों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए और इस तरह से कार्य करना चाहिए जैसे कि उसने क्षतिपूर्ति के अभाव में कार्य किया होता।
क्या बीमा अनुबंध, क्षतिपूर्ति के अनुबंध हैं
जब बीमा अनुबंधों और क्षतिपूर्ति के अनुबंध के बीच सादृश्य (एनालॉजी) बनाना होता है, तो अंग्रेजी और भारतीय कानूनों द्वारा पेश किए गए विभिन्न दृष्टिकोणों पर चर्चा करनी होती है।
अंग्रेजी कानून के अनुसार, बीमा के अनुबंध क्षतिपूर्ति अनुबंध हैं, क्योंकि बीमा के अनुबंधों के तहत, एक पक्ष को नुकसान होता है और दूसरा पक्ष, किसी तरह से हुए नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति करने का वादा करता है। ट्रिगर घटना के होने के लिए जिम्मेदार स्रोत, इस मामले में चिंता का विषय नहीं होता है।
लेकिन भारतीय कानून के अनुसार, एक पक्ष को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधि का स्रोत बहुत महत्व रखता है। गैर-मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाली कोई भी हानि क्षतिपूर्ति के अनुबंध के दायरे से बाहर होती है। इसलिए, भारत में ज्यादातर बीमा अनुबंध क्षतिपूर्ति अनुबंध होते हैं, लेकिन भारतीय और अंग्रेजी कानून के बीच अंतर यह है कि भारतीय कानून की तुलना में अंग्रेजी कानून का दायरा बहुत व्यापक होता है।
जीवन बीमा अनुबंध, क्षतिपूर्ति के अनुबंध नहीं होते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि ज्यादातर मौतें अस्वाभाविक रूप से नहीं होती हैं। वे स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से होती हैं और किसी भी प्रकार की ट्रिगर गतिविधि से उनका कोई संबंध नहीं होता है। इसलिए, जैसा कि क्षतिपूर्ति कर्ता, यानी बीमा कर्ता या किसी अन्य तीसरे पक्ष की कोई भागीदारी नहीं है, और इसके विपरीत साबित नहीं हुआ है, तो मृत्यु को क्षतिपूर्ति कर्ता या किसी अन्य तीसरे पक्ष द्वारा ट्रिगर की गई किसी विशेष घटना के कारण नहीं कहा जा सकता है।
भारतीय न्यायपालिका के द्वारा अतीत में कई बार इस अवधारणा पर चर्चा की जा चुकी है।
न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम कुसुमांची कामेश्वर राव और अन्य (1996) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि क्षतिपूर्ति के अनुबंधों के संबंध में क़ानून उन मामलों से संबंधित नहीं है जहां घटनाओं का होना क्षतिपूर्ति कर्ता या किसी तीसरे पक्ष के किसी भी कार्य पर निर्भर करता है।
इसलिए, यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अधिकांश बीमा अनुबंध क्षतिपूर्ति के अनुबंधों के दायरे में नहीं आते हैं और अंग्रेजी कानूनों के मामले में इसका दायरा बहुत व्यापक होता है।
क्षतिपूर्ति कर्ता की देनदारी कब शुरू होती है
क्षतिपूर्ति कर्ता की ओर से देयता के प्रारंभ के बारे में बात करते हुए, ट्रिगर घटना होते ही देयता शुरू हो जाती है। घटना का घटित होना, या तो स्वयं क्षतिपूर्ति कर्ता द्वारा या किसी तीसरे पक्ष द्वारा, क्षतिपूर्ति कर्ता की ओर से एक अंतर्निहित (अंडरलाइंग) सिद्धांत के साथ दायित्व की शुरुआत को चिह्नित करता है, कि नुकसान क्षतिपूर्ति धारक को हुआ होगा और उसे ठीक उसी तरह कार्य करना चाहिए था जैसे उसने तब की होती जब उसके पास नुकसान को बचाने के लिए क्षतिपूर्ति नहीं होती।
एक उदाहरण की मदद से स्पष्ट करते हुए, यदि A अपने कार्यालय को नुकसान के लिए B की क्षतिपूर्ति करता है, तो जैसे ही कोई ट्रिगर घटना होती है, वैसे ही दायित्व उत्पन्न होता है, जिससे कार्यालय को क्षति होती है और B को नुकसान होता है।
क्षतिपूर्ति के मामले में देयता की सीमा, जहां बैंक गारंटी के रूप में एक क्षतिपूर्ति बॉड है
कारगिल इंटरनेशनल एस.ए. बनाम बांग्लादेश शुगर एंड फूड इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन, (1996) के मामले में, यह माना गया था कि जहां कोई व्यक्ति बैंक गारंटी के रूप में एक क्षतिपूर्ति बॉड को निष्पादित करता है, तब देयता की सीमा केवल बॉड के मूल्य तक सीमित होती है और उससे आगे नहीं होती है।
क्षतिपूर्ति में दूरस्थ (रिमोट) नुकसान
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 का मूल सिद्धांत कहता है कि तत्काल नुकसान का भुगतान किया जाना चाहिए और दूरस्थ नुकसान को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। दूरस्थ क्षति पर विचार नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्षतिपूर्ति के अनुबंधों के मामले में, क्षतिपूर्ति कर्ता के लिए दूरस्थ क्षति को भी कम किया जा सकता है। क्षतिपूर्ति के मामले में नुकसान की गणना करते समय जिन नुकसानों का सामान्य रूप से पूर्वाभास नहीं किया जा सकता है, उनका भी हिसाब लगाया जा सकता है।
महत्वपूर्ण मामले
गजानन मोरेश्वर परेलकर बनाम मोरेश्वर मदन मंत्री (1942)
इस मामले में वादी को बॉम्बे नगर निगम से 999 साल की लंबी अवधि के लिए पट्टे (लीज) पर जमीन का एक टुकड़ा मिला था। उन्होंने एम. मदन को एक सीमित अवधि के लिए पट्टा स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया। एम. मदन ने जमीन पर निर्माण शुरू किया और के.डी. मोहन दास से अपनी आपूर्ति (सप्लाई) प्राप्त की। जब आपूर्ति के भुगतान के लिए कहा गया, तो एम. मदन उनके लिए भुगतान नहीं कर सके। उन्होंने आगे वादी को के.डी. मोहन दास के पक्ष में एक बंधक विलेख (मॉर्टगेज डीड) तैयार करने के लिए कहा। जी. मोरेश्वर ने अपनी संपत्ति पर एक चार्ज लगाया और वे ब्याज दर पर भी सहमत हुए। उन्होंने एम. मदन द्वारा मूल राशि और ब्याज की वापसी के लिए एक तारीख भी तय की।
उन्होंने ब्याज सहित मूल राशि चुकाने और एक विशेष तिथि से पहले बंधक विलेख जारी करने का निर्णय लिया था। लेकिन एम. मदन ने के.डी. मोहन दास को कुछ भी नहीं दिया और जी. मोरेश्वर को इस मामले में कुछ ब्याज देना पड़ा। जब कई अनुरोधों और सूचनाओं के बाद, एम. मदन ने बंधक विलेख जारी नहीं किया, तो जी मोरेश्वर ने एम. मदन पर क्षतिपूर्ति के लिए मुकदमा दायर किया।
इस मामले में, अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि क्षतिपूर्ति-धारक ने एक दायित्व वहन किया है और उसका दायित्व पूर्ण है, तो वह क्षतिपूर्ति कर्ता से इसका ध्यान रखने के लिए कह सकता है। इसलिए, प्रतिवादी द्वारा बंधक और विलेख के तहत उन सभी देनदारियों के लिए प्रतिवादी द्वारा क्षतिपूर्ति की गई थी।
राज्य सचिव (सेक्रेटरी) बनाम बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड (1938)
इस मामले में, एक दलाल (ब्रोकर) द्वारा एक झूठे समर्थन के साथ एक वचन पत्र (प्रोमिसरी नोट) जारी किया गया था, और बैंक ने आवेदन किया और इसे सार्वजनिक ऋण कार्यालय द्वारा नवीनीकृत (रिन्यू) किया गया। इस बीच, राज्य सचिव पर रूपांतरण (कन्वर्जन) के लिए वचन पत्र के असली मालिक द्वारा मुकदमा दायर किया गया था, और राज्य सचिव ने बदले में, निहित क्षतिपूर्ति के आधार पर बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड पर मुकदमा दायर किया था।
इस मामले में, निर्णय डगडेल बनाम लवरिंग (1875) के मामले पर आधारित था, जहां यह माना गया था कि यह कानून का एक सामान्य सिद्धांत है कि, जब किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे के अनुरोध पर कार्य किया गया है, तो वह कार्य ऐसा करने वाले व्यक्ति के ज्ञान के लिए अपने आप में स्पष्ट रूप से कपटपूर्ण नहीं होती है, और यदि वह कार्य तीसरे व्यक्ति के लिए हानिकारक हो जाता है, तो ऐसा करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति द्वारा क्षतिपूर्ति का हकदार है जो अनुरोध करता है कि कार्य किया जाए।
हाल ही के उदाहरण
हाल ही में, संदीप माहेश्वरी द्वारा अपने यू ट्यूब चैनल पर जारी एक वीडियो में, उनके और श्वेताभ गंगवार के बीच बातचीत हुई थी, जिसमें संदीप माहेश्वरी ने कानूनी मुकदमे में एक व्यक्ति द्वारा मांगे गए मुआवजे के संबंध में श्वेताब को मौखिक रूप से क्षतिपूर्ति दी थी। उन्होंने कहा कि “चूंकि श्वेताभ आर्थिक तंगी से गुजर रहा है, अगर वह कानूनी लड़ाई हार जाता है, तो दूसरे पक्ष द्वारा मांगे गए मुआवजे का भुगतान संदीप माहेश्वरी द्वारा किया जाएगा।” हालांकि यह लिखित रूप में प्रदान की गई कोई चीज नहीं है, लेकिन इसका महत्व है और क्षतिपूर्ति के अनुबंध को समझने के लिए यह एक बहुत ही उपयुक्त उदाहरण है।
निष्कर्ष
एक अनुबंध में क्षतिपूर्ति का अनुबंध या क्षतिपूर्ति का खंड अधिकांश वाणिज्यिक (कमर्शियल) अनुबंध संबंधों और अन्य संविदात्मक समझौतों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। भारतीय कानून में क्षतिपूर्ति का दायरा केवल उन घटनाओं तक सीमित है जो क्षतिपूर्ति कर्ता या किसी अन्य पक्ष के कार्यों के कारण हुई हैं। क़ानून में प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित कोई प्रावधान नहीं है। हम सभी जिस समय में रह रहे हैं, उस समय यह एक मुद्दा बनता जा रहा है। आशा है कि हमारे देश के कानून निर्माता इस बिंदु के महत्व को समझते हैं और क़ानून में संशोधन करते हैं ताकि अनुबंध स्पष्ट और प्रकृति में अधिक विस्तृत हों। क्षतिपूर्ति धारक के नुकसान को व्यापक रूप से शामिल करने के लिए प्रावधानों के दायरे को विस्तृत करने की आवश्यकता है। तो आइए आशा करते हैं कि नए परिवर्तन किए जाए और क़ानून प्रकृति में अधिक विस्तृत हो जाए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)
असीमित क्षतिपूर्ति क्या है?
वह क्षतिपूर्ति जिसमें प्रवर्तन के लिए समय की कोई सीमा नहीं होती है, असीमित क्षतिपूर्ति कहलाती है।
क्या क्षतिपूर्ति का अनुबंध निहित किया जा सकता है?
हां, अनुबंध की शर्तों और/ या मामले की परिस्थितियों के आधार पर क्षतिपूर्ति का अनुबंध व्यक्त या निहित किया जा सकता है।
क्या क्षतिपूर्ति के अनुबंध मौखिक हो सकते हैं?
हां, भारत में, क्षतिपूर्ति के अनुबंध लिखित या मौखिक हो सकते हैं, लेकिन अदालतों में मौखिक क्षतिपूर्ति अनुबंधों को साबित करना बहुत मुश्किल हो सकता है।
संदर्भ