भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 का अवलोकन

0
3530
Indian Partnership Act

यह लेख बनस्थली विद्यापीठ की Richa Goel ने लिखा है। इस लेख में, उन्होंने भागीदारी अधिनियम, 1932 के दायरे, प्रकृति और प्रवेश, मृत्यु, एक भागीदार की सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) से संबंधित विभिन्न प्रावधानों पर चर्चा की है। 1932 में यह अधिनियम बनाया गया था और यह 1 अक्टूबर 1932 को लागू हुआ था। वर्तमान अधिनियम ने पहले के कानून का स्थान लिया, जो इससे पहले भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के अध्याय XI में निहित था। यह अधिनियम पूर्ण नहीं है और इसका उद्देश्य भागीदारी से संबंधित कानूनों को परिभाषित और संशोधित करना है। और इस का अनुवाद Ashutosh के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भागीदारी एक अनुबंध से उत्पन्न होती है और भागीदारी अधिनियम (पार्टनरशिप एक्ट) 1932 के द्वारा शासित होती है। जिन मामलों में भागीदारी अधिनियम चुप रहता है, उन मामलों में भागीदारी, भारतीय अनुबंध अधिनियम (इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट) के सामान्य प्रावधान द्वारा शासित होती है। यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि भारतीय अनुबंध अधिनियम का प्रावधान, जिसे अभी तक निरस्त (रिपिल) नहीं किया गया है, वो भागीदारी पर तब तक लागू रहेगा जब तक वो प्रावधान भागीदारी अधिनियम, 1932 के किसी प्रावधान के विपरीत न हो। अनुबंध, प्रस्ताव, स्वीकृति की क्षमता, आदि के संबंध में एक अनुबंध के नियम ही भागीदारी पर भी लागू होंगे। लेकिन नाबालिग की स्थिति के संबंध में नियम भागीदारी अधिनियम, 1932 द्वारा शासित होंगे क्योंकि अधिनियम की धारा 30 नाबालिग की स्थिति के बारे में बात करती है।

व्यवसाय की प्रकृति

यह एक व्यावसायिक संगठन है जहाँ दो या दो से अधिक व्यक्ति लाभ कमाने के उद्देश्य से व्यवसाय करने के लिए एक साथ जुड़ने के लिए सहमत होते हैं। यह एकल स्वामित्व (सोल प्रोपराइटरशिप) का विस्तार है। यह एकल स्वामित्व से बेहतर है क्योंकि एकल स्वामित्व में व्यवसाय सीमित पूंजी (कैपिटल) और सीमित कौशल वाले व्यक्ति द्वारा किया जाता है। एकल स्वामित्व को संभाल रहे एकल व्यक्ति के सीमित संसाधनों (लिमिटेड रिसोर्सेज) के कारण, एक बड़े व्यवसाय के बारे में या ऐसे किसी व्यवसाय के बारे में नहीं सोचा जा सकता है जिसके लिए एकमात्र मालिक के पास उपलब्ध संसाधनों और निवेश की तुलना में अधिक संसाधनों और निवेश की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर भागीदारी में, कई भागीदार अपनी पूंजी को साथ मिलाकर एक भागीदारी करते हैं और संयुक्त रूप से एक व्यवसाय करते हैं।

अर्थ

भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 4 के अनुसार

“भागीदारी उन व्यक्तियों के बीच का एक संबंध है जो सभी के लिए कार्य करने वाले या उनमें से किसी एक द्वारा किए गए व्यवसाय के लाभों को साझा (शेयर) करने के लिए सहमत हुए हैं”।

भागीदारी की आवश्यक आवश्यकताएं

  • भागीदारों के बीच एक समझौता होना चाहिए।
  • इसका मकसद भागीदारों के बीच लाभ और हिस्सेदारी अर्जित (अर्न) करना होना चाहिए।
  • अनुबंध संयुक्त रूप से या उनमें से किसी के द्वारा, सभी की ओर से कार्य करने के लिए या व्यापार करने के लिए होना चाहिए।

उदाहरण:

A और B 100 टन तेल खरीदते हैं जिसे वे अपने संयुक्त खाते के लिए बेचने के लिए सहमत होते हैं। यह इन दोनो पक्षों के बीच एक भागीदारी बनाता है और A और B को भागीदार माना जाता है।

A और B 100 टन तेल खरीदते हैं और इसे आपस में बांटने के लिए सहमत हो जाते हैं। यह भागीदारी नहीं बनाता है क्योंकि उनका साथ व्यवसाय करने का कोई इरादा नहीं था।

सदस्यों की संख्या

कोई भी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक भागीदारी बना सकते हैं। भागीदारी अधिनियम, 1932 के तहत भागीदारों की न्यूनतम (मिनिमम) और अधिकतम संख्या पर कोई सीमा नहीं लगाई गई है। लेकिन, कंपनी अधिनियम 2013 के अनुसार, भागीदारी के मामले में अधिकतम संख्या 100 से अधिक नहीं होनी चाहिए और न्यूनतम 2 भागीदार होने ही चाहिए।

यदि किसी भी मामले में, यह अधिकतम सीमा से अधिक है तो यह कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 464 के तहत अवैध संबंध के रूप में माना जाएगा। कंपनी अधिनियम की धारा 11 के अनुसार भागीदार की अधिकतम संख्या इन मामलों में सीमित की गई है:

  • बैंकिंग के उद्देश्य के लिए – 10 व्यक्ति
  • अन्य उद्देशों के लिए – 20 व्यक्ति

समझौता (एग्रीमेंट)

भागीदारी एक समझौता है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों ने साथ में व्यापार करने और लाभ और हानि को समान रूप से साझा करने का निर्णय लिया है। कानूनी संबंध (लीगल रिलेशनशिप) बनाने के लिए भागीदारी का समझौता करना आवश्यक होता है।

भागीदारी समझौता वह नींव या आधार बन जाता है जिस पर एक भागीदारी आधारित होती है। यह लिखित या मौखिक भी हो सकता है। लिखित समझौते को भागीदारी विलेख (डीड) के रूप में जाना जाता है। भागीदारी विलेख में मुख्य रूप से निम्नलिखित विवरण (डिटेल्स) होते हैं:

  • ऐसी प्रतिष्ठान और व्यवसाय का नाम और पता
  • अपने भागीदार का नाम और पता
  • प्रत्येक भागीदार द्वारा योगदान की गई पूंजी
  • लाभ और हानि साझाकरण अनुपात (शेयरिंग रेशियो)
  • पूंजी, ऋण, आहरण (ड्राइंग) आदि पर ब्याज का दर (रेट)
  • भागीदारों के अधिकार, कर्तव्य और दायित्व
  • प्रतिष्ठान के विघटन (डिसोल्यूशन) पर खातों का निपटान
  • भागीदारों को देय वेतन, कमीशन
  • एक भागीदार के प्रवेश, सेवानिवृत्ति और मृत्यु के मामले में पालन किए जाने वाले नियम
  • भागीदारों के बीच विवादों के निपटारे का तरीका
  • भागीदारों के अधिकारों को प्रभावित करने वाला कोई अन्य विवरण

व्यवसाय 

भागीदारी व्यवसाय को चलाने के उद्देश्य से बनाई जानी चाहिए जो प्रकृति में कानूनी है (धारा 12)। संपत्ति का सह-स्वामित्व (को ऑनरशिप) भागीदारी नहीं कहलाता है।

पारस्परिक माध्यम (म्युचुअल एजेंसी) 

व्यापार उन सभी द्वारा या सभी की ओर से उनमें से किसी एक के द्वारा किया जाना है (धारा 13)। यह दो धारणाएँ देता है

प्रत्येक भागीदार को व्यवसाय करने का अधिकार है। भागीदारों के बीच पारस्परिक माध्यम मौजूद है। प्रत्येक भागीदार अन्य भागीदारों के लिए एक प्रमुख होने के साथ-साथ एक एजेंट भी होता है। वह अन्य भागीदारों के कार्यों से बाध्य होता है और साथ ही अपने कार्य से दूसरों को भी बांध सकता है।

लाभ का बंटवारा

यह समझौता भागीदारों के बीच लाभ और हानि को साझा करने के लिए है। लाभ और हानि का बंटवारा योगदान की गई पूंजी के अनुपात के अनुसार या समान रूप से हो सकता है।

जब भागीदारी को नुकसान होता है, तो यह उस मामले में भागीदारों के बीच भार को वितरित करने में मदद करता है।

भागीदारी का दायित्व

प्रतिष्ठान के ऋणों का भुगतान करने के लिए सभी भागीदार संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते हैं। दायित्व असीमित है जिसका अर्थ है कि प्रतिष्ठान के ऋणों का भुगतान करने के उद्देश्य से, एक भागीदार की निजी संपत्ति का निपटान किया जा सकता है।

भागीदारी के प्रकार

विभिन्न प्रकार की भागीदारी दो अलग-अलग मानदंडों पर आधारित होती है।

भागीदारी की अवधि के संबंध में:

मर्जी (विल) पर भागीदारी

जब भागीदारी की समाप्ति के लिए कोई निश्चित अवधि निर्धारित नहीं की जाती है, तो यह मर्जी पर भागीदारी होती है। धारा 7 के अनुसार दो शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता है:

  • जब भागीदारी की निश्चित अवधि के निर्धारण के बारे में कोई समझौता नहीं
  • जब भागीदारी के निर्धारण के संबंध में कोई खंड नहीं।

एक निश्चित अवधि के लिए भागीदारी 

जब भागीदार भागीदारी प्रतिष्ठान की अवधि निर्धारित करते हैं तो निश्चित अवधि की समाप्ति के बाद भागीदारी समाप्त हो जाती है। जब भागीदारों ने निश्चित अवधि की समाप्ति के बाद भी भागीदारी को जारी रखने का फैसला किया तो यह इच्छा पर भागीदारी बन जाती है।

भागीदारी द्वारा किए जा रहे व्यवसाय की सीमा के आधार पर, नीचे दी गई भागीदारियां होती है:

विशेष भागीदारी 

जब किसी परियोजना (प्रोजेक्ट) या उपक्रम (अंडरटेकिंग) को पूरा करने के लिए भागीदारी बनाई जाती है, जब ऐसा उपक्रम या परियोजना पूरी हो जाती है तो भागीदारी भी समाप्त हो जाती है (धारा 8)। लेकिन, भागीदारों के पास उस प्रतिष्ठान (प्रतिष्ठान) के साथ जारी रखने का विकल्प है।

सामान्य भागीदारी 

इस प्रकार की भागीदारी, व्यवसाय को चलाने के उद्देश्य से बनाई जाती है और कोई विशेष कार्य नहीं है जिसे पूरा करना है। यह अपने कार्य प्रकृति में सामान्य है।

भागीदारी अधिनियम का दायरा 

भागीदारी अधिनयम के दायरे की चर्चा धारा 5 के तहत की गई है। भागीदारी अनुबंध से उत्पन्न होती है लेकिन स्थिति से नहीं। भागीदारों की मंशा भागीदारी का प्रश्न है। भागीदार समय पर अपनी किसी भी शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन अवैध, कपटपूर्ण (फ्रॉडुलेंट) या कदाचार (मिसकंडक्ट) के अनुसरण में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

यदि किसी भी भागीदार ने अन्य सभी भागीदारों की सहमति के बिना अनुबंध किया है तो ऐसे अनुबंध की वैधता के बारे में प्रश्न उठता है। यदि सभी भागीदारों ने अनुबंध को स्वीकार या अनुसमर्थित (रेटीफाइ) कर दिया है तो ऐसे अनुबंध की वैधता के बारे में कोई प्रश्न नहीं उठता है।

सभी भागीदारों की सहमति से, भागीदारी किसी अन्य प्रतिष्ठान का सदस्य भी बन सकती है।

भागीदार

भागीदारी के सदस्य को भागीदार कहा जाता है। यह अनिवार्य नहीं है कि सभी भागीदार समान हों या सभी भागीदार व्यवसाय के संचालन में भाग लें या लाभ या हानि को समान रूप से साझा करें। भागीदारों को कार्य की प्रकृति, दायित्व की सीमा आदि के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। मूल रूप से छह प्रकार के भागीदार होते हैं:

  • सक्रिय/ प्रबंध (एक्टिव/ मैनेजिंग) भागीदार : वह भागीदार जो प्रतिदिन व्यवसाय के संचालन में भाग लेता है। इस भागीदार को ओस्टेंसिबल भागीदार भी कहा जाता है।
  • नींद/सुप्त (स्लीपिंग/डोरमेंट): वह व्यवसाय के संचालन में भाग नहीं लेता है लेकिन वह सभी भागीदारों के आचरण से बंधा होता है।
  • नाममात्र (नॉमिनल) का भागीदार : वह केवल अपने नाम से प्रतिष्ठान का भागीदार होता है। वास्तव में, प्रतिष्ठान में उसकी कोई महत्वपूर्ण या वास्तविक रुचि नहीं होती है।
  • केवल लाभ में भागीदार: यह वह भागीदार जो लाभ साझा करने के लिए सहमत होता है लेकिन नुकसान नहीं उठाता है। तीसरे पक्ष के साथ व्यवहार करने के मामले में वह किसी भी देनदारी के लिए उत्तरदायी नहीं है।
  • नाबालिग भागीदार : भारतीय अनुबंध अधिनियम के अनुसार एक नाबालिग भागीदार नहीं हो सकता है, लेकिन उसे सभी भागीदारों का लाभ प्राप्त करने के लिए सहमति दी जा सकती है। वह लाभ को समान रूप से साझा करेगा लेकिन प्रतिष्ठान के नुकसान के मामले में उसकी देनदारियां सीमित होंगी।
  • पार्टनर बाय एस्टॉपेल: इसका मतलब है कि जब एक व्यक्ति भागीदार नहीं है, लेकिन उसने खुद के आचरण या शब्दों से किसी अन्य व्यक्ति के सामने खुद को भागीदार जैसा प्रस्तुत किया है, तो वह इससे बाद में इनकार नहीं कर सकता। भले ही वह भागीदार न हो लेकिन वह होल्डिंग आउट या एस्टॉपल से भागीदार बन जाता है।

भागीदार का आपस में संबंध

सभी भागीदारों को भागीदारी विलेख में व्यवसाय के मामलों के संबंध में अपने स्वयं के नियम और शर्तें बनाने का अधिकार है। भारतीय भागीदारी अधिनियम ने भागीदारों के संबंध को नियंत्रित करने के लिए प्रावधान निर्धारित किया है और यह प्रावधान उस स्थिति में लागू होता है जब कोई विलेख नहीं होता है। भागीदारों के विभिन्न अधिकारों की व्याख्या नीचे की गई है :

  • अनुबंध द्वारा संबंध निर्धारित करने का अधिकार 

भागीदारी विलेख भागीदारी के सामान्य प्रशासन को निर्धारित करती है, जैसे कि लाभ-साझाकरण अनुपात क्या होगा, कौन क्या काम करेगा आदि (धारा 11)। भागीदारी में भागीदारों के अधिकार और कर्तव्य शामिल हैं।

ऐसा विलेख या तो स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थ (इंप्लीकेशन) से किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक भागीदार प्रतिदिन बिक्री देखता है और अन्य भागीदार इस पर आपत्ति नहीं करते हैं, तो उसके आचरण को लिखित समझौते के अभाव में सभी भागीदारों के अधिकार के रूप में माना जाएगा। तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सभी भागीदार अपने लिए एक अधिकार बनाते हैं।

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 27

भागीदारी अनुबंध अधिनियम की धारा 27 के तहत व्यापार पर रोक लगाने वाला समझौता शून्य होता है।

वे सभी अनुबंध जो एक व्यक्ति को किसी भी वैध पेशे, व्यापार या व्यवसाय को करने से रोकते हैं, शून्य हैं।

लेकिन भागीदारी अधिनियम की धारा 11 में कहा गया है कि भागीदार एक-दूसरे को प्रतिष्ठान के अलावा कोई दूसरा व्यवसाय करने से रोक सकते हैं। लेकिन इस तरह का संयम (रिस्ट्रेंट) भागीदारी विलेख में होना चाहिए।

भागीदारों के अधिकार

  • व्यवसाय के संचालन में भाग लेने का अधिकार (धारा 12 (a)) :  प्रत्येक भागीदार को व्यवसाय के संचालन में भाग लेने का अधिकार होता है। व्यवसाय में भाग लेने के लिए एक भागीदार के अधिकार को केवल ऐसे मामले में कम किया जाता है, जहां उनमें से कुछ केवल प्रतिष्ठान के व्यावसायिक मामलों में भाग लेते हैं। इस अधिकार में तभी कटौती की जा सकती है जब भागीदारी विलेख ऐसा कहता हो।
  • पुस्तकों और खातों तक पहुँचने और निरीक्षण (इंस्पैक्ट) करने का अधिकार (धारा 12 (d)) : यह अधिकार सक्रिय और निष्क्रिय भागीदार को भी दिया जाता है। प्रत्येक भागीदार को प्रतिष्ठान के खाते की पुस्तक तक पहुँचने और निरीक्षण करने का अधिकार है। भागीदार की मृत्यु के मामले में, उसका कानूनी उत्तराधिकारी खातों की प्रतियों का निरीक्षण कर सकता है।
  • क्षतिपूर्ति (इंडेम्निटी) का अधिकार : भागीदारों को व्यवसाय के दौरान लिए गए निर्णय के लिए क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार है। लेकिन ऐसा निर्णय अत्यावश्यकता के मामले में लिया जाना है और इस तरह का होना चाहिए जो कि सामान्य रूप से एक विवेकपूर्ण व्यक्ति ले।
  • अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार (धारा 12 (c)) : प्रत्येक भागीदार को व्यावसायिक मामलों के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का भी अधिकार है।
  • पूंजी या अग्रिम पर ब्याज पाने का अधिकार : आम तौर पर, भागीदार उस पूंजी पर कोई ब्याज पाने के हकदार नहीं होते हैं जो वे निवेश करते हैं। लेकिन जब वे ब्याज देने के लिए सहमत होते हैं, तो ऐसे ब्याज का भुगतान पूंजी से किया जाएगा। वे प्रतिष्ठान के व्यवसाय के लिए किए गए अग्रिमों पर 6% ब्याज के भी हकदार हैं।
  • लाभ और हानि साझा करने का अधिकार : भागीदार किसी भी विलेख के अभाव में लाभ और हानि को समान रूप से साझा करते हैं। लेकिन जब लाभ और हानि के अनुपात को निर्धारित करते हुए एक भागीदारी विलेख होता है, तो इसे भागीदारी विलेख के अनुसार साझा किया जाएगा।

तीसरे पक्ष और भागीदारों के संबंध

अधिनियम की धारा 18 से 22 भागीदारों से तीसरे पक्ष के संबंध के बारे में बात करती है

धारा 18 यह निर्धारित करती है कि भागीदार व्यवसाय के मामलों के संचालन के उद्देश्य से प्रतिष्ठान के एजेंट होते हैं। भागीदार प्रिंसिपल और एजेंट के रूप में भी कार्य करते हैं। जब वह अपने हित में कार्य करता है तो वह प्रमुख होता है और जब वह किसी अन्य भागीदार के हित में करता है तो वह एक एजेंट होता है। वह स्वयं भागीदारों के बीच लेन-देन का एजेंट नहीं है।

धारा 19 में कहा गया है कि कोई भी कार्य जो भागीदारों द्वारा अपने व्यवसाय के सामान्य क्रम में किया जाता है, वह प्रतिष्ठान को बाध्य करता है। प्रतिष्ठान को बाध्य करने का अधिकार निहित अधिकार है

धारा 20 में कहा गया है कि भागीदार खुद के निहित अधिकार को प्रतिबंधित या विस्तारित करने के लिए एक अनुबंध कर सकते हैं।

धारा 21 में कहा गया है कि यदि किसी आपात स्थिति में किसी भागीदार द्वारा कोई कार्य किया जाता है जो एक विवेकपूर्ण व्यक्ति करता, तो ऐसे कृत्यों को प्रतिष्ठान को बाध्य करने की आवश्यकता है।

धारा 22 निर्दिष्ट करती है कि यदि कोई कार्य किसी भागीदार द्वारा किया जाता है तो वह प्रतिष्ठान के नाम पर या ऐसे तरीके से किया जाना चाहिए जो प्रतिष्ठान को उससे बांधे।

भागीदारों के कर्तव्य

अधिकार और कर्तव्य आपस में जुड़े हुए हैं। जब भागीदारों को अधिकार दिए जाते हैं तो उनमें से कुछ ऐसे भी होने चाहिए जो भागीदारों को निभाने चाहिए। भागीदारों के विभिन्न कर्तव्य इस प्रकार हैं:

  • लगन से कार्य करने का कर्तव्य (धारा 12 (b)) : भागीदारों का यह कर्तव्य है कि वे उचित सावधानी और परिश्रम के साथ कार्य करें क्योंकि उनके कार्यों का अन्य सभी भागीदारों पर प्रभाव पड़ेगा। यदि उसके जानबूझकर किए गए कार्य से अन्य भागीदारों को नुकसान या चोट लगती है तो वह प्रभावित भागीदारों को मुआवजे का भुगतान करने का हकदार है।
  • धोखाधड़ी की क्षतिपूर्ति करने का कर्तव्य (धारा 10) : जब भी भागीदारों द्वारा कोई धोखाधड़ी की जाती है तो प्रत्येक भागीदार प्रतिष्ठान को नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति करने के लिए उत्तरदायी होता है क्योंकि प्रतिष्ठान भागीदारों के गलत कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। यदि धोखाधड़ी से अन्य भागीदारों को नुकसान होता है तो वह हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति करने का हकदार भी है।
  • व्यवसाय के उद्देश्य के लिए प्रतिष्ठान की संपत्ति का विशेष रूप से उपयोग करने का कर्तव्य (धारा 15) : भागीदार प्रतिष्ठान की संपत्ति का उपयोग व्यवसाय के उद्देश्य के लिए कर सकते हैं, लेकिन अपने व्यक्तिगत उद्देश्य के लिए नहीं। भागीदार को संपत्ति का वैध तरीके से उपयोग करना चाहिए। उन्हें ऐसी संपत्ति से किसी व्यक्ति को लाभ नहीं अर्जित करना चाहिए।
  • व्यक्तिगत लाभ सौंपने का कर्तव्य (धारा 16) : सभी भागीदारों को समान लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में कार्य करना चाहिए। उन्हें अन्य पेशे (प्रोफेशन) में संलग्न नहीं होना चाहिए या किसी प्रतिस्पर्धी (कम्पेटटिव) व्यावसायिक उद्यम (एंटरप्राइज) में संलग्न नहीं होना चाहिए। यदि वे व्यवसाय के संचालन से कोई व्यक्तिगत लाभ अर्जित करते हैं तो उन्हें सभी भागीदारों को सौंप देना चाहिए।
  • सामान्य कर्तव्य (धारा 9) : सभी भागीदारों का कर्तव्य है कि वे एक सामान्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सभी प्रयास करें, एक सच्चा खाता प्रस्तुत करें और भागीदारों, या उसके प्रतिनिधि को एक प्रतिष्ठान को प्रभावित करने वाली सभी जानकारी प्रदान करें।

अधिकार और कर्तव्य कब बदलते हैं?

प्रतिष्ठानाे के गठन में परिवर्तन होने पर भागीदारों के बीच मौजूदा संबंध समाप्त हो जाते हैं। प्रतिष्ठान के गठन में ऐसे परिवर्तन निम्नलिखित कारणों से हो सकते हैं (धारा 17)

  • प्रतिष्ठान की अवधि की समाप्ति।
  • सहमति के अलावा अतिरिक्त व्यवसाय करना।
  • प्रवेश, सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) या किसी भागीदार की मृत्यु के कारण सदस्यों की संरचना में परिवर्तन।

भागीदारों के कर्तव्य और अधिकार तब तक समान रहते हैं जब तक कि समझौते में कोई बदलाव नहीं होता है लेकिन ऐसे अधिकार और कर्तव्य एक नया समझौता बनाकर बदल या संशोधित हो सकते हैं।

नाबालिग की स्थिति

धारा 30 नाबालिग से संबंधित कानूनी प्रावधान बताती है। भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872 की धारा 18 के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति अनुबंध में प्रवेश नहीं कर सकता है, जिसका अर्थ है कि कोई भी नाबालिग अनुबंध में प्रवेश नहीं कर सकता है। लेकिन धारा 30 में कहा गया है कि नाबालिग एक भागीदारी प्रतिष्ठान में भागीदार नहीं हो सकता है लेकिन उसे भागीदारी प्रतिष्ठान से लाभ के लिए भर्ती किया जा सकता है। नाबालिग भागीदारी से केवल लाभ प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी होगा लेकिन किसी भी हानि या दायित्व के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। नाबालिग को सभी भागीदारों की सहमति से ही भागीदारी में प्रवेश दिया जा सकता है।

नाबालिग को विभिन्न अधिकार दिए जाते हैं।

विभिन्न अधिकार इस प्रकार हैं:

  • लेखा पुस्तकों का निरीक्षण करने का अधिकार
  • प्रतिष्ठान से लाभ साझा करने का अधिकार
  • लाभ के हिस्से के लिए किसी भी भागीदार या सभी पर मुकदमा करने का अधिकार
  • उसकी एक सीमित देनदारियां है, जिसका अर्थ है कि प्रतिष्ठान के ऋणों का भुगतान करने के लिए उसकी व्यक्तिगत संपत्ति का निपटान नहीं किया जा सकता है
  • नाबालिग को 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर भागीदार बनने का अधिकार है।

नाबालिग की देनदारियां

  • एक नाबालिग की सीमित देनदारियां है। यदि नाबालिग को दिवालिया (इंसोल्वेंट) घोषित किया जाता है तो उसका हिस्सा आधिकारिक परिसमापक (लिक्विडेटर) के पास रखा जाएगा।
  • यदि 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद उसने भागीदार बनने का फैसला किया तो उसे बालिग होने के 6 महीने के भीतर सार्वजनिक नोटिस देना होगा। यदि नोटिस नहीं दिया गया तो नोटिस दिए जाने तक नाबालिग दूसरों के सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा।
  • जब एक नाबालिग भागीदार प्रमुख हो जाता है तो वह तीसरे पक्ष के सभी भागीदारों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा।
  • अगर उसने पूर्णकालिक (फुल टाईम) भागीदार बनने का फैसला किया तो उसे एक सामान्य भागीदार माना जाएगा और वह व्यवसाय के संचालन में भाग लेगा।

देनदारियां 

  • प्रतिष्ठान के कार्यों के लिए भागीदारों का दायित्व (धारा 25) : सभी भागीदार प्रतिष्ठानों के कृत्यों के लिए संयुक्त रूप से और अलग-अलग उत्तरदायी हैं। वह केवल उन्हीं कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है जो उस समय किए जाते हैं जब वह भागीदार होता है।
  • भागीदार के गलत कार्य के लिए एक प्रतिष्ठान का दायित्व (धारा 26) : जब कोई गलत कार्य या चूक उसके किसी भागीदार द्वारा उसके व्यवसाय के सामान्य क्रम में या अन्य भागीदारों की सहमति से की जाती है, तो प्रतिष्ठान एक भागीदार के रूप में और उसी की हद तक उत्तरदायी होती है।
  • भागीदार द्वारा गलत प्रयोग के लिए प्रतिष्ठान का दायित्व (धारा 27) : जब एजेंट के रूप में कार्य करने वाला कोई भागीदार तीसरे पक्ष से धन प्राप्त करता है और उसका दुरूपयोग करता है या प्रतिष्ठान को धन प्राप्त होता है और उसके किसी भागीदार द्वारा धन का दुरुपयोग किया जाता है तो प्रतिष्ठान हुए नुकसान की भरपाई के लिए उत्तरदायी है।

पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) कैसे किया जाता है ?

धारा 58 भागीदारी प्रतिष्ठान के पंजीकरण की प्रक्रिया की व्याख्या करती है।

  • रजिस्ट्रार को आवेदन करना : इसका कोई भी भागीदार निर्धारित शुल्क और भागीदारी विलेख की प्रति के साथ उस क्षेत्र के रजिस्ट्रार को आवेदन भेज सकता है, जिसमें व्यवसाय का कोई स्थान प्रस्तावित है या स्थित है। इस तरह के एक बयान पर उसके सभी भागीदारों द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे। इस तरह के एक बयान ये सब शामिल होना चाहिए
  • प्रतिष्ठान का नाम
  • व्यापार का मुख्य केंद्र
  • कोई अन्य स्थान जहां व्यापार किया जाता है
  • भागीदारी प्रतिष्ठान की अवधि
  • प्रतिष्ठान के सभी भागीदारों का नाम और पता
  • जिस तारीख को प्रत्येक भागीदार प्रतिष्ठान में शामिल हुआ था
  • सत्यापन (वेरिफिकेशन): बयानों पर हस्ताक्षर करने वाले प्रत्येक भागीदार को सत्यापित करने की आवश्यकता है।
  • प्रतिष्ठान के नाम में क्राउन, सम्राट, राजा, शाही, सम्राटों के नाम से मिलता-जुलता कोई नाम या सरकार की मंजूरी को व्यक्त करने वाले अन्य शब्द शामिल नहीं होंगे।

धारा 59 में कहा गया है कि जब रजिस्ट्रार संतुष्ट हो जाता है कि धारा 58 की शर्तों का पालन किया गया है तो वह प्रतिष्ठानों के नामक एक रजिस्टर में बयान की प्रविष्टि दर्ज करेगा, और बयान दर्ज करेगा।

भागीदारी प्रतिष्ठान का पंजीकरण न होना

भारत में भागीदारी को पंजीकृत करना अनिवार्य नहीं है और पंजीकरण न करने पर कोई जुर्माना नहीं लगाया जा रहा है लेकिन अगर हम अंग्रेजी कानून के बारे में बात करते हैं तो भागीदारी प्रतिष्ठान को पंजीकृत करना अनिवार्य है और यदि यह पंजीकृत नहीं होता है तो जुर्माना लगाया जाता है। गैर-पंजीकरण अधिनियम की धारा 69 के अनुसार यह एक निश्चित विकलांगता (डिसएबिलिटी) की ओर ले जाता है।

गैर पंजीकरण का प्रभाव (धारा 69)

  • तीसरे पक्ष के खिलाफ प्रतिष्ठान या अन्य सह-भागीदारों द्वारा दीवानी न्यायालय में कोई मुकदमा शुरू नहीं किया जा सकता है
  • तीसरे पक्ष द्वारा अनुबंध के उल्लंघन के मामले में; वाद को किसी दीवानी वाद में नहीं लाया जा सकता। मुकदमा उसी व्यक्ति द्वारा दायर किया जाना चाहिए जिसका नाम प्रतिष्ठान के एक रजिस्टर में भागीदार के रूप में पंजीकृत है।
  • कोई भी भागीदार समायोजित (सेट ऑफ) की राहत का दावा नहीं कर सकता है।
  • कोई भी कार्रवाई जो तीसरे पक्ष द्वारा 100 रुपये के मूल्य से ज्यादा के लिए प्रतिष्ठान के खिलाफ की जाती है, उसे प्रतिष्ठान या उसके किसी भी भागीदार द्वारा बंद नहीं किया जा सकता है।
  • एक पीड़ित व्यक्ति प्रतिष्ठानों या अन्य भागीदारों के खिलाफ मुकदमा नहीं कर सकता

आम तौर पर, प्रतिष्ठान या भागीदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है, लेकिन इसका एक अपवाद है। ऐसे मामले में जब प्रतिष्ठान भंग हो जाती है तो वह प्रतिष्ठान की संपत्ति में अपने हिस्से की वसूली के लिए एक मुकदमा दर्ज कर सकती है ।

गैर-पंजीकरण निम्नलिखित अधिकारों को प्रभावित नहीं करते हैं

  • कोई तीसरा पक्ष प्रतिष्ठान के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर सकता है।
  • 100 रुपये से अधिक मूल्य के दावे को समायोजित करने की राहत का दावा करने के लिए भागीदारों या प्रतिष्ठान का अधिकार होता है।
  • दिवालिया भागीदारों की संपत्ति को मुक्त करने और कानूनी कार्रवाई करने के लिए आधिकारिक परिसमापक, आधिकारिक समनुदेशितियों की शक्ति होती है।
  • प्रतिष्ठान के विघटन (डिसोल्यूशन) की स्थिति में भागीदार को अपने हिस्से की वसूली के लिए दावा करने का अधिकार होता है।

भागीदार का परिचय या प्रवेश 

धारा 31 के अनुसार, एक नए भागीदार को सभी भागीदारों की सहमति से ही भागीदारी प्रतिष्ठान में प्रवेश दिया जा सकता है। स्वीकार किया गया एक नया भागीदार अपने प्रवेश से पहले अन्य भागीदारों या प्रतिष्ठानों के किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

एक नए भागीदार के अधिकार और दायित्व क्या हैं ?

नए भागीदार की देनदारियां उस तारीख से शुरू होती हैं जब उसे एक भागीदारी प्रतिष्ठान में भागीदार के रूप में भर्ती किया जाता है।

एक नए भागीदार के प्रवेश के बाद, नई प्रतिष्ठान पुरानी प्रतिष्ठान के ऋणों के लिए उत्तरदायी होती है और लेनदार को पुरानी प्रतिष्ठान का निर्वहन करना पड़ता है और एक नई प्रतिष्ठान को अपने देनदार के रूप में स्वीकार करना होता है। इसे नवनिर्माण (नोवेशन) कहा जा सकता है। यह तभी किया जा सकता है जब लेनदार इसकी सहमति देता है।

भागीदार की सेवानिवृत्ति (धारा 32)

अधिनियम की धारा 32 भागीदारों की सेवानिवृत्ति के बारे में बात करती है। जब भागीदार भागीदारी को भंग करके उससे पीछे हट जाता है तो यह सेवानिवृत्ति नहीं विघटन (डिसोल्युशन) होता है।

कोई भी भागीदार सेवानिवृत्त हो सकता है:

  • जब इच्छा पर भागीदारी होती है, तो सभी मौजूदा भागीदारों को नोटिस देकर
  • जब भागीदारों के बीच एक स्पष्ट समझौता होता है
  • जब सभी भागीदारों की सहमति दी जाती है

सेवानिवृत्त भागीदार की देनदारियां

एक सेवानिवृत्त भागीदार प्रतिष्ठानों और अन्य भागीदारों के कार्यों के लिए तब तक उत्तरदायी रहता है जब तक कि वह या कोई अन्य भागीदार अपनी सेवानिवृत्ति के बारे में सार्वजनिक सूचना नहीं देता। जब तीसरा पक्ष यह नहीं जानता कि वह एक भागीदार था और प्रतिष्ठान के साथ कोई व्यवहार करता है; तो ऐसे मामले में एक सेवानिवृत्त भागीदार उत्तरदायी नहीं है। यदि यह विलेख में भागीदारी है तो उनकी सेवानिवृत्ति के बारे में सार्वजनिक सूचना देने की कोई आवश्यकता नहीं है।

बाहर जाने वाला भागीदार एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर समान व्यवसाय या गतिविधियों को नहीं करने के लिए एक समझौता कर सकता है।

भागीदार का निष्कासन (एक्सपल्शन) 

धारा 33 के तहत, एक भागीदार को केवल तभी निष्कासित किया जा सकता है जब नीचे दी गई तीन शर्तें पूरी हों:

  • भागीदारी के हित के लिए भागीदार का निष्कासन आवश्यक है
  • निष्कासित भागीदार को नोटिस दिया जाता है
  • निष्कासित भागीदार को सुनवाई का अवसर दिया जाता है

यदि उपरोक्त तीन शर्तों को पूरा नहीं किया जाता है, तो ऐसे निष्कासन को शून्य माना जाएगा।

एक भागीदार का दिवाला (इनसोलवेंसी) 

धारा 34 के अनुसार, जब किसी भागीदार को न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित किया जाता है, तो इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं:

  • वह निर्णय की तारीख से एक भागीदारी प्रतिष्ठान का भागीदार नहीं रह जाता है
  • उसकी संपत्ति जो आधिकारिक परिसमापक के कब्जे में है, प्रतिष्ठान के किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होगी चाहे भागीदारी बाद में भंग हो या नहीं
  • दिवाला भागीदार के किसी भी कार्य के लिए भागीदारी उत्तरदायी नहीं रहेगी

मृत व्यक्ति की संपत्ति का दायित्व 

आमतौर पर, भागीदार की मौत पर भागिदारी खत्म हो जाती है, लेकिन अगर भागीदार की मौत पर भागीदारी को जारी रखने के लिए भागीदारों के बीच अनुबंध होता है, तो जीवित भागीदार, मृत भागीदार को प्रतिष्ठान के भविष्य के कार्य से उत्पन्न होने वाली किसी भी देनदारी से अलग करने के बाद, अपना काम को पहले की ही तरह जारी रख सकते है। (धारा 35)

बहिर्गामी (आउटगोइंग) भागीदार का दायित्व 

धारा 36 के अनुसार, बहिर्गामी भागीदार इस तरह के कार्य करने के लिए प्रतिबंधित होता है:

  • प्रतिष्ठान के नाम का उपयोग करना
  • स्वयं को भागीदार के रूप में प्रस्तुत करना
  • उस प्रतिष्ठान का ग्राहक बनना, जिसमें वह भागीदार था।

बहिर्गामी भागीदार एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर समान व्यवसाय या गतिविधियों को नहीं करने के लिए एक समझौता कर सकता है। निर्दिष्ट अवधि के बाद, बहिर्गामी भागीदार को एक समान व्यवसाय करने या उसका विज्ञापन करने की अनुमति है।

बाद के मुनाफे के लिए बहिर्गामी भागीदार की देनदारियां 

जब कोई भी भागीदार, भागीदार होना बंद कर देता है या मर जाता है और शेष भागीदार खातों का निपटान किए बिना व्यवसाय के साथ जारी रहते है, तो बहिर्गामी भागीदार प्रतिष्ठान द्वारा अर्जित लाभ से एक हिस्सा प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी होता है, जिस तारीख से वह भागीदार नहीं रहता है। (धारा 37)

यह हिस्सा उसकी संपत्ति के हिस्से के उपयोग के कारण हो सकता है या उसकी संपत्ति में हिस्से की राशि पर 6% वार्षिक ब्याज हो सकता है।

जीवित भागीदार के पास मृत भागीदार का हिस्सा खरीदने का विकल्प होता है और यदि वे इसे खरीदते हैं तो मृत भागीदार को ऐसी संपत्ति से प्राप्त लाभ प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं होता है।

एक प्रतिष्ठान का विघटन

धारा 39 से 44 एक प्रतिष्ठान के विघटन से संबंधित है।

कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जब प्रतिष्ठान का विघटन जाता है। कभी-कभी एक प्रतिष्ठान को स्वेच्छा (वॉलंटरी) से या न्यायालय के आदेश से भंग कर दिया जाता है। एक भागीदारी प्रतिष्ठान के विघटन के लिए धारा 39 से 44 के तहत निर्धारित विभिन्न तरीके हैं। यहां तक ​​कि जब भागीदारी भंग हो जाती है तब भी यह भागीदारों को कुछ अधिकार और दायित्व देता है।

आइए नीचे दिए गए पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से विघटन की अवधारणा को विस्तार से  समझते हैं ।

एक फर्म का विघटन (धारा 39 से धारा 44)

विभिन्न स्थितियों में भागीदारों की देनदारियां

भागीदारी प्रतिष्ठान के विघटन के बाद भागीदारों के दायित्व 

जब तक सार्वजनिक नोटिस नहीं दिया जाता है, तब तक भागीदार तीसरे पक्ष के लिए प्रतिष्ठान द्वारा किया जाए कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं। एक भागीदार जिसे दिवालिया घोषित किया गया है, या जो सेवानिवृत्त हो गया है, लेकिन उस व्यक्ति की संपत्ति जो मर जाता है, या जो तीसरे पक्ष से निपटने के समय भागीदार के रूप में नहीं जाना जाता था, कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। (धारा 45)

विघटन के बाद व्यापार बंद करना 

जब प्रतिष्ठान भंग हो जाती है तो प्रत्येक भागीदार को ऋण और देनदारियों के भुगतान में प्रतिष्ठान की संपत्ति के लिए आवेदन करने का अधिकार होता है। यदि कोई अधिशेष (सरप्लस) है तो उसे भागीदारों के बीच वितरित करने की आवश्यकता है। (धारा 46)

प्रतिष्ठान के मामलों के समाप्त होने तक भागीदारों के पास पारस्परिक दायित्व और अधिकार होते हैं।

भागीदारी खाते का निपटान 

जब भागीदारी भंग हो जाती है तो भागीदारों के खातों को व्यवसाय के सामान्य क्रम के तहत निपटाने की आवश्यकता होती है। खातों के निपटान के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। (धारा 48)

यदि पूंजी में कमी है या लाभ से भुगतान करने पर हानि होती है या यदि लाभ पर्याप्त नहीं है या कोई लाभ अर्जित नहीं होता है तो इसका भुगतान पूंजी द्वारा और यदि आवश्यक हो तो भागीदारों द्वारा किया जाता है। भागीदार लाभ बंटवारे के अनुपात में योगदान करते हैं।

प्रतिष्ठान की संपत्ति और पूंजी में कमी को पूरा करने के लिए भागीदारों द्वारा योगदान की गई पूंजी को निम्नलिखित क्रम में लागू किया जाता है:

  • तीसरे पक्ष को चुकौती (रिपेयमेंट)
  • वह राशि जो उसे पूंजी से देय (ड्यू) है
  • वह राशि जो पूंजी के कारण उसे देय है
  • और अगर कोई राशि बची है तो उसे सभी भागीदारों के बीच उनके लाभ विभाजन अनुपात में वितरित किया जाता है।

प्रतिष्ठान के ऋण और अलग ऋण का भुगतान 

ऐसे मामले में जब प्रतिष्ठान से संयुक्त ऋण होते हैं और भागीदार से अलग ऋण भी होते हैं तो प्रतिष्ठान के संयुक्त ऋण को प्राथमिकता दी जाती है और यदि कोई अधिशेष रह जाता है, तो भागीदार से लिए गए अलग ऋण का भुगतान किया जाता है। (धारा 49)

व्यक्तिगत भागीदारों की संपत्ति का उपयोग सबसे पहले अलग-अलग ऋणों के भुगतान के लिए किया जाता है।

प्रतिष्ठान के विघटन के बाद अर्जित व्यक्तिगत लाभ 

जब भागीदार की मृत्यु से प्रतिष्ठान भंग हो जाती है और व्यवसाय मौजूदा भागीदारों या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों द्वारा किया जाता है तो उन्हें भागीदारी को समाप्त करने से पहले अर्जित व्यक्तिगत लाभ का हिसाब देना होता है। (धारा 50 और धारा 53)

धारा 53 में कहा गया है कि यदि कोई अनुबंध नहीं है तो भागीदार अन्य भागीदारों को समान गतिविधियों को करने से रोक सकता है, या प्रतिष्ठान के नाम या प्रतिष्ठान की संपत्ति का उपयोग अपने फायदे के लिए तब तक कर सकता है जब तक कि समापन प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।

प्रतिष्ठान के समयपूर्व विघटन पर किस्त (प्रीमियम) की वापसी 

जब एक निश्चित अवधि की समाप्ति से पहले प्रतिष्ठान को भंग कर दिया जाता है, तो किस्त का भुगतान करने वाला भागीदार उसके उचित हिस्से की वापसी प्राप्त कर सकता है (धारा 51)। ऐसे नियम उस मामले में लागू नहीं होते हैं जब भागीदारी को तब भंग कर दिया जाता है जब:

किस्त का भुगतान करने वाले भागीदार का दुराचार 

एक समझौता होने के बाद, जिसमें किस्त की वापसी के लिए कोई खंड नहीं है। (धारा 52)

धोखाधड़ी या गलत बयानी के लिए अनुबंध का रद्द होना

जब अनुबंध से उत्पन्न होने वाली भागीदारी को धोखाधड़ी और गलत बयानी के कारण रद्द कर दिया जाता है, तो जिस पक्ष ने अनुबंध को रद्द कर दिया है, वह इस प्रकार उत्तरदायी होगा:

प्रतिष्ठान के ऋण को पूरी तरह से चुका देने के बाद शेष संपत्तियों पर ग्रहणाधिकार (लीयन) का भुगतान किया जाता है। प्रतिष्ठानों के द्वारा किए गए किसी भी ऋण के भुगतान के लिए उसे एक लेनदार के रूप में माना जाएगा।

प्रतिष्ठानों के सभी ऋणों के खिलाफ गलत बयानी या धोखाधड़ी के दोषी भागीदारों से एक क्षतिपूर्ति।

प्रतिष्ठान के विघटन के बाद ख्याति (गुडविल) की बिक्री 

ख्याति को कुछ मामलों के लिए एक संपत्ति के रूप में माना जाता है (धारा 55)। प्रतिष्ठान के विघटन के बाद खाते का निपटान करते समय ख्याति को संपत्ति में शामिल किया जाता है। ख्याति को अलग से या अन्य परिसंपत्तियों के साथ ही बेचा जा सकता है। एक बार जब प्रतिष्ठान भंग हो जाती है और सद्भावना बेची जाती है तो कोई भी भागीदार समान व्यवसाय कर सकता है या सद्भावना के खरीदारों के साथ प्रतिस्पर्धा करने वाले व्यवसाय का विज्ञापन कर सकता है। भागीदारों को निम्नलिखित कार्य करने से प्रतिबंधित किया गया है:

  • प्रतिष्ठान के नाम का उपयोग करने से
  • व्यवसाय चलाने के रूप में खुद का प्रतिनिधित्व करने से
  • विघटन से पहले काम करने वाली प्रतिष्ठान के ग्राहकों की याचना करने से

निष्कर्ष

भागीदारी एक बहुत ही सामान्य प्रकार का व्यवसाय है जो देश में प्रचलित है। कंपनी के लिए इसके कई फायदे हैं। यह अधिनियम एक पूर्ण अधिनियम है क्योंकि इसमें भागीदारी से संबंधित सभी पहलुओं को शामिल किया गया है।

संदर्भ

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here