प्रसादपर्यंत का सिद्धांत

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Constitution of India

यह लेख इंदौर इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ के छात्र Aadarsh Singh Thakur द्वारा लिखा गया है। उन्होंने इस लेख में प्रसादपर्यंत (प्लेजर) के सिद्धांत और भारत में इसमें किए गए संशोधनों पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है। 

परिचय

ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में सिविल सेवाओं की शुरुआत की गई थी, इसलिए देश की जरूरतों के अनुसार उनके कानून और नियम भारत में भी लागू किए गए थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद, सिविल सेवाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

इंग्लैंड के कानूनों का अभी भी भारतीय कानूनों पर बहुत प्रभाव है। प्रसादपर्यंत का सिद्धांत इन्हीं अवधारणाओं में से एक है जो ब्रिटिश शासन से भारत में शुरू किया गया है। इस सिद्धांत के तहत, सिविल सेवकों को क्राउन के सेवकों के रूप में माना जाता था और ये सिविल सेवक उनकी प्रसादपर्यंत में सेवा करते थे।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अर्थ क्या है

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, इस सिद्धांत की उत्पत्ति इंग्लैंड में हुई थी। इंग्लैंड में, क्राउन को कार्यकारी प्रमुख माना जाता है और सिविल सेवाएं कार्यकारी का हिस्सा हैं। प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अर्थ है कि क्राउन के पास किसी भी समय एक सिविल सेवक की सेवाओं को समाप्त करने की शक्ति है, जब वे ऐसा बिना कोई नोटिस दिए करना चाहते हैं। इस प्रकार सिविल सेवक क्राउन की प्रसादपर्यंत में काम करते हैं जो उन्हें किसी भी समय हटा सकते हैं। जब सिविल सेवकों को उनकी सेवा से हटा दिया जाता है, तो उनके पास गलत तरीके से बर्खास्तगी के लिए क्राउन पर मुकदमा करने का अधिकार नहीं होता है और वे गलत तरीके से बर्खास्तगी के कारण हुए नुकसान की मांग भी नहीं कर सकते हैं। यह सिद्धांत सार्वजनिक नीति की अवधारणा पर आधारित है और जब भी क्राउन को लगता है कि एक सिविल सेवक को उसके कार्यालय से हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि उसे रखना सार्वजनिक नीति के विरुद्ध होगा, क्राउन ऐसे सेवक को हटा सकता है।

भारत में प्रसादपर्यंत के सिद्धांत की स्थिति क्या है

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का पालन भारत में भी किया जाता है। चूँकि भारत का राष्ट्रपति संघ का कार्यकारी प्रमुख होता है और वह इंग्लैंड में क्राउन के समान पद का आनंद लेता है, राष्ट्रपति को इस सिद्धांत के तहत किसी भी समय एक सिविल सेवक को हटाने की शक्ति निहित है।

जबकि इस सिद्धांत को भारत में अपनाया गया है, इसे उसी तरह से अंधाधुंध तरीके से कॉपी नहीं किया गया है जैसा कि इंग्लैंड में किया जाता है और कुछ संशोधन हैं जो भारत के इंग्लैंड से इस सिद्धांत को अपनाने में मौजूद हैं। भारत में, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 310 इस सिद्धांत के प्रावधान का प्रतीक है। 

अनुच्छेद 310 के अनुसार, संविधान द्वारा प्रदान किए गए प्रावधानों को छोड़कर, संघ का एक सिविल सेवक राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पर काम करता है और एक राज्य के तहत एक सिविल सेवक उस राज्य के राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पर काम करता है। इसका तात्पर्य है कि प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संचालन को संवैधानिक प्रावधानों द्वारा सीमित किया जा सकता है। संविधान के तहत, इस सिद्धांत के संचालन से निम्नलिखित को बाहर रखा गया है:

  1. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश;
  2. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश;
  3. मुख्य चुनाव आयुक्त; और
  4. भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल)।

इस प्रकार, यह सिद्धांत पूर्ण नहीं है और संवैधानिक प्रावधानों के अधीन है। सिविल सेवकों को भी इस सिद्धांत के संचालन से बाहर रखा जा सकता है क्योंकि उन्हें अनुच्छेद 311 के तहत कुछ सुरक्षा प्रदान की गई है और इस प्रकार इस सिद्धांत का प्रयोग सिविल सेवकों तक ही सीमित हो सकता है।

सिविल सेवकों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय क्या हैं

सिविल सेवकों को न केवल अनुच्छेद 308 के तहत संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है बल्कि उन्हें अनुच्छेद 311 के तहत कुछ सुरक्षा भी प्रदान की गई है। सिविल सेवकों को इन सुरक्षाओं के साथ प्रदान करके, सिविल सेवाओं में जनता का विश्वास बनाए रखा जाता है और सिविल सेवकों को यह आश्वासन भी प्रदान किया जाता है कि वे अपने कार्यालय से अन्यायपूर्ण या गैरकानूनी निष्कासन के डर के बिना ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत एक सिविल सेवक को निम्नलिखित सुरक्षा उपलब्ध हैं:

1. अधीनस्थ प्राधिकारी (सबोर्डिनेट अथॉरिटी) द्वारा बर्खास्तगी नहीं होगी 

अनुच्छेद 311 के खंड 1 के तहत, एक सिविल सेवक को केवल उस प्राधिकारी द्वारा उसकी सेवाओं से हटाया जा सकता है जिसने उसे या किसी अन्य व्यक्ति को नियुक्त किया था, या जिसके पास नियुक्ति प्राधिकारी के समान अधिकार या पद है। इसलिए, कोई भी व्यक्ति जो नियुक्ति प्राधिकारी के अधिकार में अधीनस्थ है, एक सिविल सेवक को हटा नहीं सकता है और यदि वह उसे हटा देता है, तो ऐसा निष्कासन मान्य नहीं होगा।

उदाहरण: A, एक सिविल सेवक है जिसे C द्वारा नियुक्त किया गया था। B जो C का अधीनस्थ है, A को उसके कार्यालय से हटा देता है। यहां इस तरह का निष्कासन मान्य नहीं होगा क्योंकि B के पास C (नियुक्ति प्राधिकारी) के समान अधिकार या पद नहीं था। लेकिन अगर D, जिसके पास C के समान अधिकार है, A को हटा देता है तो ऐसा निष्कासन अनुच्छेद 311 के खंड 1 के तहत मान्य होगा।

2. सुनवाई का उचित अवसर

अनुच्छेद 311 के खंड 2 के तहत, सिविल सेवकों को सुनवाई का अधिकार प्रदान किया जाता है। यह अधिकार सिविल सेवक को अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका देकर नैसर्गिक (नैचुरल) न्याय के सिद्धांत का प्रतीक बनता है।

इस खंड के अनुसार, एक सिविल सेवक को उसके पद से हटाने के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन किया जाना चाहिए:

  1. सिविल सेवक के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच करना चाहिए। इस जांच को विभागीय जांच के रूप में जाना जाता है।
  2. अभियुक्त सिविल सेवक को यह जानकारी प्रदान करना कि उसके खिलाफ क्या आरोप लगाए गए हैं।
  3. ऐसे सिविल सेवक को मामले में सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करना।

यह सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस अनुच्छेद के तहत सिविल सेवक को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान किया जाता है। जबकि खंड ‘उचित अवसर’ का उल्लेख करता है, यह इसका अर्थ परिभाषित नहीं करता है। जब उचित अवसर के अर्थ के लिए कोई स्पष्टीकरण प्रदान नहीं किया जाता है, तो यह अस्पष्ट सुरक्षा प्रतीत होती है क्योंकि यह निर्धारित करने की कोई विधि नहीं है कि एक सिविल सेवक को उचित अवसर प्रदान किया गया था या नहीं। इस प्रकार, उचित अवसर का अर्थ उसी अर्थ में लिया गया है जिसमे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों को समझा जाता है। इस प्रकार, एक उचित अवसर का अर्थ है कि अभियुक्त को उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों को खारिज करने के लिए मामले में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का मौका दिया जाता है और उसके पास यह भी मौका होना चाहिए:

  1. जाँच करने वाली संस्था के सामने अपनी दलीलें पेश करें;
  2. साक्षी के रूप में अपना बयान देना;
  3. उसके खिलाफ गवाहों के बयान सुनें;
  4. गवाहों से जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) करें।

जब किसी सिविल सेवक को ऐसा अवसर प्रदान किया जाता है, तो उसे दिए जाने वाले उचित अवसर की आवश्यकता पूरी हो जाएगी।

उदाहरण: A एक सिविल सेवक है और उसके विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। इस मामले को देखने और यह पता लगाने के लिए एक विभागीय जांच की जाती है कि A दोषी है या नहीं। लेकिन A को किसी भी आरोप के बारे में सूचित नहीं किया गया है जो उसके खिलाफ लगाया गया है और उसे इन आरोपों के खिलाफ बहस करने और सबूत पेश करने का एक भी मौका नहीं दिया गया है। जांच का निष्कर्ष है कि A दोषी है और परिणामस्वरूप A को उसके पद से हटा दिया जाता है। इस तरह के निष्कासन को A द्वारा न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और यह माना जाएगा कि विभागीय जांच वैध नहीं थी और A को हटाने को वैध नहीं माना जा सकता क्योंकि इसने अनुच्छेद 311 खंड 2 के प्रावधानों का उल्लंघन किया है।

ऐसी सुरक्षा का अधिकार किसके पास है

जबकि ये सुरक्षा सरकार के लिए काम करने वाले लोगों को प्रदान की जाती है, सभी सरकारी कर्मचारी इन सुरक्षा का लाभ नहीं उठा सकते हैं। इस प्रकार, केवल कुछ लोगों को ही अनुच्छेद 311 के प्रावधानों के तहत सुरक्षा का अधिकार है।

निम्नलिखित लोगों को अनुच्छेद 311 के प्रावधानों के तहत सुरक्षित होने का अधिकार है:

  1. संघ की सिविल सेवा के सदस्य;
  2. अखिल भारतीय सेवा के सदस्य; और
  3. किसी भी राज्य की सिविल सेवा के सदस्य।
  4. जो लोग संघ या किसी राज्य के तहत एक नागरिक पद धारण करते हैं।

सिविल सेवाओं के शब्दों से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सशस्त्र बलों के सदस्य उन सेवकों का हिस्सा नहीं हैं जो सिविल सेवकों से संबंधित संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत आते हैं। पुरुषोत्तम लाल ढींगरा बनाम भारत संघ, में यह माना गया था कि सिविल सेवकों को अनुच्छेद 311 के तहत प्रदान की जाने वाली सुरक्षा में स्थायी रूप से नियोजित (इंप्लॉयड) सिविल सेवकों के साथ-साथ अस्थायी रूप से नियोजित सिविल सेवक शामिल हैं।

सुरक्षा के अपवाद क्या हैं

जबकि उनके हितों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत सुरक्षा प्रदान की गई है, ये सुरक्षा भी कुछ अपवादों के अधीन हैं। जब किसी मामले में ये अपवाद उत्पन्न होते हैं, तो संबंधित सिविल सेवक द्वारा सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता है। इसके निम्नलिखित अपवाद हैं:

  • यदि सिविल सेवक को एक आपराधिक अपराध का दोषी पाया गया है, तो ऐसे मामलों में उसके लिए अनुच्छेद 311 के तहत सुरक्षा का लाभ नहीं उठाया जा सकता है और ऐसे मामलों में उसे सुनवाई का मौका मिले बिना कदाचार (मिसकंडक्ट) के लिए हटाया जा सकता है।

उदाहरण: A एक सिविल सेवक है जिसे आईपीसी के तहत एक अपराध के लिए अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है। ऐसे मामले में जब उसके खिलाफ आरोपों की जांच की जाती है, तो उसे सुनवाई का मौका नहीं दिया जा सकता है और उसे हटाया जा सकता है और इस तरह के निष्कासन को अनुच्छेद 311 का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। साथ ही, उसे बिना किसी पूछताछ के भी हटाया जा सकता है और यह एक वैध निष्कासन भी होगा। 

  • ऐसे मामलों में जहां सिविल सेवक के खिलाफ लगाए गए आरोपों को देखने के कार्य के साथ अनुशासनिक को लगता है कि उसके लिए जांच करना व्यावहारिक (प्रैक्टिकेबल) नहीं है, उसके पास ऐसी जांच न करने की शक्ति भी है। भारत संघ और अन्य बनाम तुलसीराम पटेल और अन्य के मामले में 11 जुलाई, 1998 को इस अपवाद के दायरे की व्याख्या की गई थी। न्यायालय ने कहा कि जांच कराने की अव्यावहारिकता का निर्धारण करने के लिए एक उचित व्यक्ति के दृष्टिकोण का उपयोग किया जाना चाहिए। यदि कोई उचित व्यक्ति जो इस स्थिति में है, यह सोचता है कि ऐसी जांच करना व्यावहारिक नहीं है, तो ऐसी जांच न करना अनुच्छेद 311 का उल्लंघन नहीं होगा।
  • अनुच्छेद 311 के तहत सुरक्षा का अंतिम अपवाद राज्य की सुरक्षा के कारण हैं। यह अधिकार राष्ट्रपति और राज्यपाल को, जैसा भी मामला हो, दिया जाता है और जब भी राष्ट्रपति या राज्यपाल संतुष्ट हो जाते हैं कि जांच करना राज्य की सुरक्षा के हित में नहीं है, तो ऐसी जांच को होने से रोका जा सकता है। यहां, सुरक्षा के लिए वास्तविक खतरा इस अपवाद का फोकस नहीं है, बल्कि सुरक्षा के लिए खतरे के जोखिम के बारे में केवल राष्ट्रपति या राज्यपाल की संतुष्टि ही इस अपवाद को लागू करने के लिए पर्याप्त है। यह अपवाद सिविल सेवकों की सुरक्षा के खिलाफ एक बचाव का रास्ता प्रतीत होता है क्योंकि संतुष्टि एक व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) अवधारणा है और इसलिए एक व्यक्ति जिसे खतरा मान सकता है वह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा समान नहीं माना जा सकता है।

इस प्रकार, इस समस्या को दूर करने के लिए, सरकार को सिविल सेवक की गतिविधि की प्रकृति के बारे में न्यायालय को सूचित करना आवश्यक है जो राष्ट्रपति या राज्यपाल की संतुष्टि का आधार है। यदि न्यायालय को कारण प्रासंगिक लगता है, तो अपवाद की अनुमति दी जाएगी लेकिन यदि कारण संतोषजनक नहीं है या सरकार अदालत को यह जानकारी प्रकट करने में विफल रहती है, सिविल सेवक को हटाने की वैधता को अदालत द्वारा बरकरार नहीं रखा जाएगा और ऐसे मामले में यह अपवाद लागू नहीं होगा।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत पर भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है

न्यायपालिका कानूनों के व्याख्याकार (इंटरप्रेटर) के रूप में अपना कार्य करके भारत में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रसादपर्यंत के सिद्धांत को जहां अंग्रेजी कानून से अपनाया गया है, वहीं न्यायपालिका ने विभिन्न मामलों के माध्यम से भारत में इस सिद्धांत की प्रयोज्यता के संबंध में अपने निर्णय प्रदान किए हैं।

बिहार राज्य बनाम अब्दुल मजीद के मामले में, वेतन के बकाया के संबंध में सिविल सेवक द्वारा दावे को लागू करने के संबंध में नियम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया था। इंग्लैंड में, यह नियम था कि कोई नौकर क्राउन पर बकाया वेतन के लिए मुकदमा नहीं कर सकता था। इस मामले में भी यही दलील दी गई थी। एक सब-इंस्पेक्टर को कायरता के आधार पर उसकी सेवा से हटा दिया गया था और बाद में उसे फिर से काम पर रखा गया था। उन्होंने अपने बकाया वेतन की वसूली के लिए एक मुकदमा दायर किया, लेकिन सरकार ने तर्क दिया कि प्रसादपर्यंत के सिद्धांत में पालन किए गए नियम के तहत वह ऐसा नहीं कर सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह नियम भारत में लागू नहीं होगा और इस प्रकार सब-इंस्पेक्टर को अपने बकाया वेतन का दावा करने का अधिकार था।

इसी तरह, अदालत ने प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के एक अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान के संबंध में भी फैसला सुनाया। भारत संघ बनाम बलबीर सिंह, के मामले में यह माना गया था कि न्यायालय के पास राष्ट्रपति या राज्यपाल की संतुष्टि की जांच करने की शक्ति है, जैसा भी मामला हो। यदि न्यायालय को पता चलता है कि संतुष्टि ऐसे आधारों पर आधारित है जिनका राज्य की सुरक्षा से कोई संबंध नहीं है, तो न्यायालय ऐसी संतुष्टि को अप्रासंगिक और बाहरी आधारों पर आधारित मान सकता है और एक सिविल सेवक की बर्खास्तगी को अवैध ठहराया जा सकता है। 

निष्कर्ष

जबकि प्रसादपर्यंत के सिद्धांत को ब्रिटिश कानूनी प्रणाली से अपनाया गया है, इसे भारत में प्रचलित सामाजिक संरचना के अनुसार भारतीय संदर्भ के अनुरूप संशोधित किया गया है। न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति द्वारा इस सिद्धांत के मनमाने पहलुओं को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जबकि इंग्लैंड में कार्यकारी प्रमुख के रूप में एक सम्राट है, भारत चुनावों के माध्यम से अपने कार्यकारी प्रमुख का चुनाव करता है। इसलिए, ‘राजा गलत नहीं कर सकता’ का सिद्धांत भारतीय परिदृश्य के लिए उपयुक्त नहीं है। न्यायिक हस्तक्षेप के बावजूद, संरक्षण के अपवादों का अभी भी दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए मनमानी के प्रत्येक उदाहरण की समीक्षा (रिव्यू) करने के बजाय, यह बेहतर होगा कि कुछ दिशानिर्देश प्रदान किए जाएं जिनका इन अपवादों का लाभ उठाते समय पालन किया जाना है। यदि इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता है तो बर्खास्तगी को अमान्य ठहराया जा सकता है जो पीड़ित पक्ष को त्वरित निवारण भी प्रदान करेगा।

 

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