यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के छात्र Adhila Muhammed Arif के द्वारा लिखा गया है। यह लेख जमानत, गैर- जमानती अपराधों की अवधारणा को समझाने का प्रयास करता है कि वे जमानती अपराधों से कैसे भिन्न हैं, और गैर- जमानती अपराधों से संबंधित प्रावधानों पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
जमानत, भारत सहित ही, दुनिया भर के अधिकांश देशों में आपराधिक न्याय प्रणाली (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) का एक अभिन्न अंग बन गया है। यह न केवल एक आपराधिक अपराध के आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता और गिरफ्तारी से मुक्ति को सुनिश्चित करता है, बल्कि उसके आरोपों के परीक्षण (ट्रायल) के लिए अदालत के समक्ष उसकी उपस्थिति को भी सुनिश्चित करता है। इस वजह से अब सशर्त रिहाई (कंडीशनल रिलीज) का अधिकार भी, बाबू सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (1978) के मामले में दिए गए निर्णय के अनुसार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में आता है। हालांकि, जमानत का यह अधिकार सभी परिस्थितियों में गारंटीकृत अधिकार नहीं होता है। जमानत कुछ अपराधों में, एक मामले के आरोपित व्यक्ति को, एक अधिकार के रूप में नहीं दी जाती है, जिन्हें ही गैर- जमानती अपराध के रूप में जाना जाता है। केवल असाधारण स्थितियों में ही ऐसे अपराधों के लिए जमानत दी जाती है। ऐसे अपराधों के लिए गिरफ्तारी होने से पहले ही जमानत लेना भी संभव होता है, लेकिन यह भी अब दिए गए कानून के अंदर अदालत के विवेक पर ही छोड़ दिया गया है।
इससे पहले कि हम गैर- जमानती अपराधों और ऐसे अपराधों के लिए जमानत के प्रावधानों को देखें, आइए पहले देखा जाए कि जमानत का क्या अर्थ होता है।
जमानत क्या है
शब्द ‘जमानत’ फ्रांसीसी शब्द ‘बेलर’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘देना’। जबकि ‘जमानत’ शब्द को दंड प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर), 1973 (अब से, सीआरपीसी के रूप में संदर्भित) में परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसे एक प्रकार के सुरक्षा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए दी जाती है, जिसे देने की वजह से उसे अस्थायी रूप से रिहा कर दिया जाता है। यह तब दिया जाता है जब कोई लंबित परीक्षण या जांच चल रही होती है। जब भी आवश्यक हो उसे अदालत में पेश होने के लिए कहा जा सकता है और जमानत ही इस उपस्थिति की गारंटी देती है। जमानत प्रदान करने के पीछे का उद्देश्य आरोपी को स्वतंत्रता प्रदान करना है क्योंकि जांच या मुकदमा लंबित होता है और वह अभी तक अपराधी साबित नहीं हुआ है। जमानत और बॉन्ड के प्रावधान धारा 436 से धारा 450 तक, सीआरपीसी के अध्याय XXXIII में निहित हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता ने अपराधों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है: संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर- संज्ञेय (नॉन– कॉग्निजेबल), जमानती और गैर- जमानती, और कंपाउंडेबल और गैर- कंपाउंडेबल।
अब, हम इस लेख के मूल विषय पर आते हैं, जो की गैर- जमानती अपराध है।
गैर- जमानती अपराध
गैर- जमानती अपराध वे अपराध होते हैं जिनके लिए जमानत नहीं दी जा सकती। इसलिए, यदि किसी व्यक्ति पर किसी गैर- जमानती अपराध के लिए मामला दर्ज किया गया है, तो वह अपने अधिकार के रूप में जमानत का दावा नहीं कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (a) में प्रावधान है कि गैर- जमानती अपराध वे अपराध हैं जो संहिता की पहली अनुसूची के अनुसार जमानती नहीं होते हैं।
अब, आइए उन सभी 30 अपराधों को देखा जाए जिन्हें गैर- जमानती अपराधों के रूप में दंड प्रक्रिया संहिता के अंदर सूचीबद्ध किया गया है।
गैर- जमानती अपराधों की सूची
क्रम संख्या | धारा | अपराध | अपराध की सजा |
1. | धारा 121 | भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना या बढ़ावा देने या प्रयास करना या उकसाना। | आजीवन कारावास या 10 साल तक के जुर्माने के साथ। |
2. | धारा 124 A | देशद्रोह (सेडिशन) | कारावास के साथ-साथ जुर्माना या यह 3 साल की कैद के साथ-साथ जुर्माना या सिर्फ जुर्माना भी हो सकता है। |
3. | धारा 131 | विद्रोह (म्यूटिनी) को उकसाना या किसी सैनिक, नाविक या वायुसैनिक को बहकाने का प्रयास करना। | आजीवन कारावास या 10 साल के जुर्माने के साथ। |
4. | धारा 172 | सम्मन की तामील (सर्विस) से बचने के लिए फरार होना। | एक माह की कैद या एक हजार रुपये जुर्माने के साथ। |
5. | धारा 232 | भारतीय सिक्के का कुटकरण (काउंटरफीटिंग)। | उम्रकैद या 10 साल की कैद के साथ जुर्माना भी। |
6. | धारा 238 | कुटकृत (काउंटरफिटेड) भारतीय सिक्कों का आयात (इंपोर्ट) या निर्यात (एक्सपोर्ट)। | उम्रकैद या 10 साल की कैद के साथ जुर्माना भी। |
7. | धारा 246 | कपटपूर्वक या बैमानी से सिक्के का वजन कम करना या मिश्रण परिवर्तित करना। | जुर्माने के साथ 3 साल की कैद। |
8. | धारा 255 | सरकारी स्टाम्प का कुटकरण। | जुर्माने के साथ 3 साल की कैद। |
9. | धारा 274 | औषधियों का अपमिश्रण (एडल्ट्रेशन)। | छह माह की कैद के साथ एक हजार रुपये का जुर्माना। |
10. | धारा 295 A | एक जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण किए गया कार्य जो किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं का अपमान करके उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत (इंसल्ट) करने का इरादा रखता है। | जुर्माने के साथ 3 साल की कैद। |
11. | धारा 302 | हत्या के लिए दण्ड | आजीवन कारावास या मृत्युदंड। |
12. | धारा 304 | हत्या की कोटि में न आने वाले अपराधिक मानव वध के लिए दण्ड। | जुर्माने के साथ 10 साल की कैद। |
13. | धारा 304 B | दहेज मृत्यु | आजीवन कारावास तक 7 साल की कैद। |
14. | धारा 306 | आत्महत्या के लिए उकसाना। | जुर्माने के साथ 10 साल की कैद। |
15. | धारा 307 | हत्या करने का प्रयत्न। | जुर्माने के साथ 10 साल की कैद। |
16. | धारा 308 | गैर इरादतन हत्या करने का प्रयास जो हत्या की कोटि में नहीं आता। | जुर्माने के साथ 3 – 7 साल की कैद |
17. | धारा 369 | 10 साल से कम उम्र के बच्चे का अपहरण (एबडक्शन)। | 7 महीने की कैद या जुर्माने के साथ। |
18. | धारा 370 | व्यक्ति की तस्करी (ट्रैफिकिंग) | 7 से 10 साल की कैद या जुर्माने के साथ। |
19. | धारा 376 | बलात्कार (रेप) के लिए सजा | आजीवन कठोर कारावास या कम से कम 7 वर्ष का कारावास। |
20. | धारा 376 D | सामूहिक बलात्कार (गैंगरेप) | 20 साल की कैद, जिसे उम्र भर के लिए बढ़ाया जा सकता है। |
21. | धारा 377 | प्रकृति के विरुद्ध किया गया अपराध | 10 वर्ष की कैद, जिसे आजीवन बढ़ाया जा सकता है। |
22. | धारा 379 | चोरी के लिए सजा। | 3 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
23. | धारा 384 | जबरन वसूली के लिए सजा। | 4 साल की कैद। |
24. | धारा 392 | लूट के लिए सजा। | जुर्माने के साथ 3 साल की कैद। |
25. | धारा 395 | डकैती के लिए सजा। | 10 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
26. | धारा 406 | आपराधिक विश्वासघात (क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट) के लिए सजा। | 3 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
27. | धारा 411 | चोरी की संपत्ति बेईमानी से प्राप्त करना। | 3 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
28. | धारा 420 | धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति की सुपुर्दगी (डिलीवरी) के लिए प्रेरित करना। | 7 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
29. | धारा 489 A | करेंसी नोटों या बैंक नोटों का कुटकरण। | आजीवन कारावास और जुर्माने के साथ। |
30. | धारा 498 A | एक महिला के पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उसके साथ क्रूरता करना। | 3 साल की कैद और जुर्माने के साथ। |
अब, आइए देखें कि गैर- जमानती अपराध, जमानती अपराधों से किस प्रकार भिन्न होते हैं।
जमानती अपराध और गैर जमानती अपराध में अंतर
क्रम संख्या | भेदभाव का आधार | जमानती अपराध | गैर जमानती अपराध |
1. | परिभाषा | धारा 2 (a) की परिभाषा के अनुसार, एक जमानती अपराध कोई भी ऐसा अपराध है जिसे पहली अनुसूची में जमानती के रूप में दिखाया गया है। | एक गैर- जमानती अपराध को धारा 2 (a) द्वारा एक जमानती के अलावा किसी भी अन्य अपराध के रूप में वर्णित किया गया है। |
2. | प्रकृति | जमानती अपराध अपेक्षाकृत (रिलेटिवली) कम गंभीर प्रकृति के होते हैं। | गैर- जमानती अपराध अपेक्षाकृत अधिक गंभीर प्रकृति के होते हैं। |
3. | सजा | अधिकांश जमानती अपराधों में कारावास की सजा का प्रावधान है, जो कि 3 साल या उससे कम का होता है। | गैर- जमानती अपराध के लिए, सजा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। |
4. | एक अधिकार के रूप में, जमानत | जमानती अपराधों में, जमानत का दावा एक अधिकार के रूप में किया जाता है न कि कोई लाभ या विशेषाधिकार के रूप में। संहिता की धारा 436 में कहा गया है कि जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति द्वारा कार्यवाही के किसी भी चरण में जमानत का दावा अधिकार के रूप में दिया जा सकता है। जब जमानती अपराधों के लिए जमानत का दावा किया जाता है, तो पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट के पास इसे अस्वीकार करने का कोई विवेक नहीं होता है। | दूसरी ओर, जब किसी व्यक्ति पर गैर- जमानती अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, तो वह व्यक्ति जमानत का दावा करने का अधिकार खो देता है। ऐसे अपराधों में जमानत देना मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी के विवेक का विषय बन जाता है। ऐसे अपराधों के लिए, केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जमानत दी जा सकती है। |
अब जब हम जानते हैं कि जमानत, गैर- जमानती अपराधों से संबंधित विवेक का मामला है, तो आइए हम उन कारकों (फैक्टर्स) को देखें जो यह निर्धारित करते हैं कि ऐसे अपराधों के लिए जमानत दी जानी चाहिए या नहीं।
गैर- जमानती अपराध के लिए जमानत कैसे दी जाती है
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 गैर- जमानती अपराधों के लिए एक आरोपित व्यक्ति को जमानत देने का प्रावधान करती है। गैर- जमानती अपराध में जमानत के प्रावधान निम्नलिखित होते हैं:
- गैर- जमानती अपराधों के लिए जमानत देना पूरी तरह से अदालत या संबंधित पुलिस अधिकारी के विवेक पर निर्भर करता है।
- जब एक गैर- जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार या हिरासत में लिया जाता है, तो उसे संबंधित पुलिस स्टेशन के प्रभारी पुलिस अधिकारी द्वारा जमानत दी जा सकती है। हालाँकि, इस शक्ति के लिए कुछ प्रतिबंध हैं। निम्नलिखित में से किसी भी परिस्थिति में, पुलिस अधिकारी ऐसे व्यक्ति को जमानत नहीं दे सकता है:
- यह मानने के लिए उचित आधार मौजूद हैं कि वह ऐसा अपराध करने का दोषी है जिसमें मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान दिया गया है।
- ऐसे मामले में किया गया अपराध संज्ञेय है और अपराधी को मृत्यु, आजीवन कारावास या कम से कम 7 साल के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए पहले सजा सुनाई जा चुकी है।
- यदि किसी संज्ञेय अपराध के लिए अपराधी को दो या अधिक दोष सिद्ध हुए हैं, तो 3 वर्ष से 7 वर्ष तक कारावास की सज़ा का प्रावधान है।
- एक बार जब एक पुलिस अधिकारी ने यह जमानत दे दी, तो उसे इसके पीछे के तर्क को दर्ज करना होगा और केस डायरी में भी इसका उल्लेख किया जाएगा।
- जब कोई व्यक्ति जिस पर गैर- जमानती अपराध करने का आरोप लगाया गया हो, जब वह न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश होता है या उसके सामने लाया जाता है, तो न्यायिक मजिस्ट्रेट उसे जमानत देने में विवेक का प्रयोग कर सकता है। हालाँकि, मजिस्ट्रेट निम्नलिखित में से किसी भी परिस्थिति में इस शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता है :
- यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि वह ऐसा अपराध करने का दोषी है जिसमें मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है।
- अपराध संज्ञेय है और अपराधी को मृत्यु, आजीवन कारावास या कम से कम 7 साल के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए पहले सज़ा हो चुकी है।
- यदि किसी संज्ञेय अपराध के लिए अपराधी को दो या दो से अधिक दोष के लिए सिद्ध किया गया हैं, जिसमें 3 वर्ष से 7 वर्ष तक के कारावास की सजा का प्रावधान दिया गया है।
- यद्यपि ऊपर वर्णित इस विवेकाधीन शक्ति के लिए प्रतिबंध भी होते हैं, पुलिस अधिकारी या न्यायिक मजिस्ट्रेट आरोपी को जमानत दे सकता है यदि आरोपी एक महिला है, 16 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति है, या ऐसा कोई व्यक्ति है जो बीमार या कमजोर है। इसलिए, ऐसे मामलों में, ऊपर दिए गए 1, 2 और 3 बिंदु में ऐसे प्रतिबंध लागू नहीं होंगे।
- बिंदु 2 और 3 में उल्लिखित स्थितियों में, ऐसा करने का कोई विशेष कारण होने पर अधिकारी या मजिस्ट्रेट अभी भी जमानत दे सकते हैं।
- किसी व्यक्ति को जमानत पर रिहा करते समय, अधिकारी या मजिस्ट्रेट को ऐसा करने के कारणों या किसी विशेष कारण को लिखित रूप में दर्ज करना होता है।
- केवल इस तथ्य कि जांच प्रक्रिया के दौरान गवाहों द्वारा किसी आरोपी की पहचान की जानी है, उसे जमानत दिए जाने से अयोग्य (डिस्क्वालिफाई) नहीं ठहराया जा सकता है, यदि वह अन्यथा जमानत का हकदार है तो।
- यदि अपराध जो एक अपराधी द्वारा किया गया है, मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय है, तो ऐसे अपराधी को जमानत देने के लिए लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।
- यदि मामले के किसी भी चरण में, चाहे वह जांच, पूछताछ या विचारण के दौरान हो, पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट को यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि आरोपी ने गैर-जमानती अपराध किया है, तो आरोपी को ज़मानत दे दी जाएगी। ऐसा करने पर, कारण या विशेष कारण लिखे और दर्ज किए जाने चाहिए।
- इस तरह के अपराध की सुनवाई आदर्श रूप से पहली तारीख, जो सबूत लेने के लिए तय की गई थी, से 60 दिनों के भीतर समाप्त हो जानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो आरोपी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए यदि वह हिरासत में था तो। यदि उसे रिहा नहीं किया जाता है, तो अधिकारी या मजिस्ट्रेट को ऐसा करने के कारणों को भी दर्ज करना होगा।
- किसी आरोपी को दी गई जमानत को बाद में रद्द किया जा सकता है और आरोपी को निम्नलिखित में से किसी भी शर्त को पूरा करने पर फिर से गिरफ्तार किया जाएगा:
- आरोपी द्वारा फिर से उस ही अपराध का कमीशन होने पर।
- आरोपी द्वारा जांच प्रक्रिया में बाधा डालने पर।
- आरोपी द्वारा साक्ष्य से छेड़छाड़ करना, चाहे वह अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के गवाहों को डराने के माध्यम से हो या अपराध के कमीशन के साक्ष्य को नष्ट करने के द्वारा किया गया हो।
- जमानत देते समय न्यायालय द्वारा लगाई गई किसी भी शर्त का उल्लंघन करने पर।
अब जब हम एक गैर- जमानती अपराध के लिए जमानत पाने की प्रक्रिया को अच्छे से जानते और समझते हैं, तो आइए देखें कि गैर- जमानती अपराध के आरोप में गिरफ्तारी से डरने वाले व्यक्ति द्वारा जमानत कैसे मांगी जा सकती है।
नेथरा बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक (2022) के मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह माना था कि यदि आवेदक एक महिला है, तो उसे गैर- जमानती अपराध के लिए भी जमानत दी जा सकती है, भले ही वह आजीवन कारावास या मृत्युदंड से दंडनीय ही क्यो न हो।
मारा मनोहर बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश (2022) के मामले में, यह माना गया था कि एक बार मामले की जांच में काफी प्रगति होने के बाद, कुछ शर्तों के साथ जमानत दी जा सकती है।
गैर- जमानती अपराध के लिए अग्रिम जमानत
संहिता की धारा 438 गैर- जमानती अपराध के आरोप में गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को जमानत देने की प्रक्रिया को निर्धारित करती है। इस प्रकार की जमानत को ‘अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल)’ कहा जाता है। यह एक व्यक्ति को गैर- जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार होने से खुद को बचाने की अनुमति देता है, जब उसे उसी के आरोप में उचित आशंका होती है तब। जमानती अपराध के आरोपी होने की आशंका पर कोई अग्रिम जमानत नहीं मांग सकता है क्योंकि ऐसे अपराधों के संबंध में जमानत प्राप्त करना कहीं अधिक आसान होता है। धारा 438 के तहत निम्नलिखित प्रावधान दिए गए हैं:
- उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय (कोर्ट ऑफ सेशंस) द्वारा अग्रिम जमानत दी जा सकती है।
- यह पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी पर आरोपी को जमानत पर रिहा करने का निर्देश देता है।
- अग्रिम जमानत देते समय न्यायालय को जिन कारकों पर विचार करना चाहिए वे निम्नलिखित दिए गए हैं:
- आरोप की प्रकृति और गंभीरता।
- क्या आवेदक को पहले किसी संज्ञेय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है या कैद किया गया है।
- क्या आरोपी के न्याय का सामना करने से बचने की संभावना है।
- क्या आरोप आवेदक को घायल करने या गिरफ्तार करवाकर उसकी प्रतिष्ठा धूमिल (टार्निश) करने के उद्देश्य से लगाया गया है।
- अदालत या तो अग्रिम जमानत के लिए आवेदन को खारिज कर सकती है या इसे स्वीकार कर सकती है और इसे मंजूर करने के लिए अंतरिम आदेश भी जारी कर सकती है।
- यदि अंतरिम आदेश जारी नहीं किया जाता है, तो पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए आरोप के वारंट के बिना भी आवेदक को गिरफ्तार कर सकता है।
- एक बार अंतरिम आदेश दिए जाने के बाद, लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को आदेश की प्रति के साथ एक नोटिस भेजा जाएगा ताकि उन्हें सुनवाई के दौरान सुनवाई का उचित अवसर प्रदान किया जा सके। लोक अभियोजक भी आवेदक की उपस्थिति के लिए आवेदन कर सकता है, और यदि यह न्याय के हित के लिए आवश्यक समझा जाता है, तो उसकी उपस्थिति अनिवार्य कर दी जाएगी।
- निम्नलिखित कुछ शर्तें हैं जो अदालतों द्वारा अग्रिम जमानत देते समय लगाई जा सकती हैं:
- पुलिस द्वारा पूछताछ किए जाने के लिए आरोपी की उपलब्धता होनी चाहिए।
- मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को अदालत या पुलिस को ऐसे तथ्यों का खुलासा न करने के लिए मनाने या समझने के लिए कोई प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) धमकी, जो वादा या प्रलोभन नहीं होना चाहिए।
- अदालत की अनुमति लिए बिना आरोपी को भारत नहीं छोड़ना चाहिए।
- न्याय के हित में कोई अन्य शर्तें भी लगाई जा सकती है।
यह स्पष्ट है कि अग्रिम जमानत केवल असाधारण परिस्थितियों में दी जाती है, और सामान्य मामलों में इसकी कोई भूमिका नहीं होती है। अग्रिम जमानत देने का उद्देश्य किसी निर्दोष व्यक्ति को उसपर लगाए गए किसी आरोप के संदर्भ में की जाने वाली गिरफ्तारी के साथ आने वाली आशंका और शर्म से बचाना होता है।
एक बार गिरफ्तारी के पूरा हो जाने के बाद, अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने का अधिकार भी समाप्त हो जाता है। एफ आई आर दर्ज होने के बाद भी कोई ऐसी अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है, बशर्ते कि ऐसे मामले में आरोपी की गिरफ्तारी, ऐसे आवेदन के समय तक न की गई हो। अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने के लिए एफ़ आई आर दर्ज करना कोई शर्त नहीं है। हालांकि, संज्ञेय और गैर- जमानती अपराध के आरोप में गिरफ्तारी की उचित आशंका होनी चाहिए। अग्रिम जमानत देते समय, किसी व्यक्ति की स्थिति और वित्तीय (फाइनेंशियल) पृष्ठभूमि अप्रासंगिक (इररिलेवेंट) होती है। हालांकि, किए गए आरोपों को ऐसा संकेत देना चाहिए की यह सब झूठ के आधार पर किया गया है।
अद्री धरम बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल (2005) के मामले में, यह माना गया कि जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार हो जाता है, और यदि उसके पास अपने अग्रिम जमानत का आदेश पहले से ही है, तो उसे तुरंत रिहा कर दिया जाएगा।
नारायण घोष उर्फ नंटू बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा (2009) के मामले में आवेदक पर आपराधिक साजिश का आरोप लगाया गया था और उसके अग्रिम जमानत के लिए आवेदन किया गया था। वह आर्थिक और राजनीतिक रूप से बहुत प्रभावशाली था और गवाहों को प्रभावित करने की क्षमता रखता था। आशंका जताई जा रही थी कि आरोपी भाग सकते हैं। इन कारकों के कारण अदालत ने आरोपी की जमानत को खारिज कर दिया था।
गोपीनाथ बनाम स्टेट ऑफ केरल (1986) के मामले में, यह माना गया था कि अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है, भले ही वह पहले उसी आधार पर सत्र न्यायालय के समक्ष पेश किया गया हो और खारिज भी कर दिया गया हो। इसलिए, उच्च न्यायालय के समक्ष एक नया आवेदन किया जा सकता है, भले ही इसे सत्र न्यायालय ने खारिज कर दिया हो।
भोलाई मिस्त्री और अन्य बनाम स्टेट (1976) के मामले में यह कहा गया था की एक बार उच्च न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत दे दिए जाने के बाद, केवल उच्च न्यायालय ही उस जमानत को रद्द कर सकता है, और सत्र न्यायालय के पास इसे रद्द करने का अधिकार नहीं होगा।
निष्कर्ष
संक्षेप में, जमानत गैर- जमानती अपराधों के लिए एक अधिकार नहीं होता है। संहिता के प्रावधान दिए गए हैं, अर्थात् धारा 437 और धारा 438, जो केवल वे आधार प्रदान करते हैं जिनके तहत अदालत या पुलिस “जमानत” दे सकती है। यह सुनिश्चित करके कि तुलनात्मक रूप से कम गंभीर अपराधों के लिए, जमानत एक अधिकार के रूप में दी जाती है और अधिक गंभीर अपराधों के लिए, जमानत विवेक का विषय है, आपराधिक प्रक्रिया संहिता सुरक्षा की सुरक्षा और जनता और व्यक्ति के हितों और अपराधों के आरोपी व्यक्तियों की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाती रहती है। गैर- जमानती अपराधों के लिए जमानत देते समय, अदालत यह सुनिश्चित करने के लिए कई कारकों पर गौर करती है कि इस तरह की जमानत देने से न्याय सेवा प्रभावित नहीं होगी। इसके अलावा, संहिता जमानत के साथ शर्तों की कुर्की (अटैचमेंट) की भी अनुमति देती है, और ऐसी किसी भी शर्त के उल्लंघन पर, जमानत रद्द कर दी जाती है।
अधिकतर पूछे जाने वाले सवाल (एफ ए क्यू)
एक अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया क्या है?
सबसे पहले, आरोपी को कोड की पहली अनुसूची में निहित फॉर्म नंबर 45 को भरना होगा। फिर, एक हलफनामा (एफिडेविट) और एफ आई आर जैसे अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों के साथ फॉर्म को इसके साथ संलग्न किया जाता है। ऐसे आवेदन को सत्र न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है। फिर, आवेदन को सुना जाता है और या तो स्वीकार कर लिया जाता है, जिससे अंतरिम आदेश जारी होता है, या फिर इसे खारिज कर दिया जाता है।
क्या गैर- जमानती अपराधों में जमानत एक अधिकार होता है?
नहीं, जमानत एक गैर- जमानती अपराध के मामले में अदालत या पुलिस के विवेक का मामला होता है, न की पाए गए आरोपी के अधिकार का।
सशर्त जमानत क्या है?
सशर्त जमानत एक ऐसी जमानत है जो शर्तों के साथ होती है जिसके उल्लंघन पर जमानत रद्द हो जाती है, और जो पुलिस को आवेदक को फिर से गिरफ्तार करने की अनुमति भी दे देती है।
संदर्भ