यह लेख Sakshi Kuthari द्वारा लिखा गया है। इसमें उन सभी विवरणों पर चर्चा की गई है, जिनके बारे में किसी को 1968 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निशि कांत झा बनाम बिहार राज्य के ऐतिहासिक फैसले के बारे में पढ़ते समय सीखना चाहिए। इस फैसले में यह बताया गया है कि यदि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के साथ बयान या स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) का दोषमुक्त (एक्सकल्पेटरी) भाग विरोधाभासी है, तो इसकी अवहेलना की जाएगी और शेष अभियोगात्मक (इनक्रिमिनेटरी) बयान को अभियुक्त के अपराध को निर्धारित करने के उद्देश्य से स्वीकारोक्ति माना जाएगा। यह लेख Revati Magaonkar द्वारा अनुवादित किया गया है।
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परिचय
एक आपराधिक मुकदमे के समय, अभियोजन पक्ष अभियोगात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करके अभियुक्त के अपराध को स्थापित करने की पूरी कोशिश करता है, जिसका उद्देश्य उचित संदेह से परे दोषसिद्धि सुनिश्चित करना है। इस प्रकार का कोई भी साक्ष्य जो अभियुक्त के अपराध को प्रमाणित करता है, उसे “अभियोगात्मक साक्ष्य” के रूप में जाना जाता है। इसके विपरीत, बचाव पक्ष की भूमिका न्यायाधीश के मन में अभियुक्त के अपराध के संबंध में संदेह पैदा करना है। यह आपराधिक न्यायशास्त्र का एक मौलिक नियम है कि किसी अभियुक्त को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। इसलिए, बेगुनाही साबित करने का भार अभियुक्त पर नहीं, बल्कि उनके अपराध पर संदेह जताकर उनके पक्ष में संभावना की प्रबलता (प्रीपोंडरेंस ऑफ़ प्रोबैबिलिटी) का उदाहरण देने पर है।
चूँकि, एक आपराधिक मुकदमे का परिणाम अभियुक्त के अपराध को साबित करने पर निर्भर करता है, अभियोजन पक्ष अभियोगात्मक साक्ष्य पर जोर देता है। हालाँकि, आपराधिक मुकदमों के दायरे में, अभियुक्त को अपराध से मुक्त करने की संभावना के साथ एक अन्य प्रकार के साक्ष्य भी मौजूद हैं। यह साक्ष्य, जिसे ‘दोषमुक्ति साक्ष्य’ के रूप में जाना जाता है, यह न्यायालय के मन में संदेह पैदा करके या यहां तक कि अभियुक्त की बेगुनाही साबित करके बचाव में सहायता करता है, हालांकि बेगुनाही का ऐसा सबूत अनिवार्य नहीं है। निशिकांत झा बनाम बिहार राज्य (1968) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि यदि स्वीकारोक्ति या स्वीकृति (एडमिशन), जो दोषमुक्ति प्रकृति की है, वह उपलब्ध परिस्थितिजन्य साक्ष्य का खंडन करती है, ऐसे समय साक्ष्य के दोषमुक्ति भाग को ध्यान में नहीं रखा जाता है। साक्ष्य के शेष प्रारंभिक / अभियोगात्मक भाग को स्वीकारोक्ति माना जाएगा, जिससे अभियुक्त के अपराध की पुष्टि होगी।
इस लेख में, हम निशिकांत झा बनाम बिहार राज्य (1968) के ऐतिहासिक मामले पर चर्चा करेंगे, जो साक्ष्य के कानून के महत्वपूर्ण पहलुओं और आपराधिक कार्यवाही मे होने वाली आपराधिक प्रक्रियाओं से संबंधित अन्य प्रासंगिक मुद्दों से संबंधित है। इसके अतिरिक्त, लेख में निशिकांत झा मामले में शामिल कानूनों के बारे में विस्तार से बताया गया है।
मामले का विवरण
मामले का नाम:
निशिकांत झा बनाम बिहार राज्य
मामले का अनुक्रमांक:
1966 की आपराधिक अपील क्र. 190 (एन)
मामले का प्रकार:
आपराधिक मामला
न्यायालय का नाम:
सर्वोच्च न्यायालय
पीठ :
एम. हिदायतुल्ला (मुख्य न्यायाधीश), जी. के. मित्तर, जे. सी. शाह, वी. रामास्वामी, ए. एन. ग्रोवर
फैसले की तारीख:
02 दिसंबर 1968
समतुल्य उद्धरण:
1969 एआईआर 422, 1969 एससीआर (1) 1033
पक्षों का नाम:
निशिकांत झा (अपीलकर्ता) और बिहार राज्य (प्रतिवादी)
मामले में शामिल कानून:
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 201 और 302 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313
मामले के तथ्य
इस मामले में, अपीलकर्ता झाझा शहर का एक स्कूली छात्र था। उन पर उसी स्कूल में उनके साथ पढ़ने वाले अपने दोस्त की हत्या के लिए 12 अक्टूबर, 1961 को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 201 और 302 के तहत आरोप लगाया गया था। अभियुक्त और मृतक बरौनी सियालदह पैसेंजर ट्रेन में एक साथ यात्रा कर रहे थे। जब ट्रेन मधुपुर स्टेशन पहुंची तो मृतक का शव प्रथम श्रेणी डिब्बे के शौचालय से बरामद किया गया। शौचालय के फर्श पर बहुत सारा खून पड़ा हुआ था और शव की गर्दन पर गहरा घाव था और वह खून से सना हुआ मिला। जब यह घटना घटी थी उसी दिन सूर्यास्त से एक घंटे पहले राम किशोर पांडे नामक व्यक्ति ने अपीलकर्ता को साबुन से खून से सने कपड़े धोते हुए पाया। उन्होंने देखा कि अपीलकर्ता के बाएं हाथ पर चोट लगी थी। जब किशोर ने अपीलकर्ता से उसकी चोट के बारे में पूछा, तो उसने जवाब दिया और यह खबर पास के गांव में आग की तरह फैल गई कि बरौनी सियालदह पैसेंजर ट्रेन में एक हत्या हुई है और हत्यारा लापता है। अपीलकर्ता निशिकांत पर हत्या का संदेह था। पुलिस द्वारा उसका पीछा किया गया, और उसे गिरफ्तार किया गया और गाँव के मुखिया के सामने लाया गया। उन्होंने राम किशोर को जो जवाब दिया था, उसमें विरोधाभासी बयान दिया। उन्होंने बताया कि जब वह झाझा में बरौनी सियालदह पैसेंजर ट्रेन के प्रथम श्रेणी डिब्बे में चढ़े तो देखा कि एक अज्ञात व्यक्ति उसमें बैठा है। जब ट्रेन सिमुलतला के पास पहुंची थी तभी लाल मोहन शर्मा डिब्बे में चढ़ गये। जब ट्रेन जसीडीह स्टेशन पर रुकी और अपीलकर्ता इस स्टेशन पर उतरने वाला था, तो लाल मोहन शर्मा ने उसे जाने नहीं दिया। हालाँकि, जब ट्रेन आगे बढ़ने लगी, तो लाल मोहन शर्मा उस अज्ञात व्यक्ति को शौचालय में ले गए और उसकी पिटाई शुरू कर दी। अपीलकर्ता जब अज्ञात व्यक्ति के बचाव के लिए खड़ा हुआ, तो लाल मोहन शर्मा ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी बायीं तर्जनी (फोरफिंगर) को चाकू से घायल कर दिया। उन्होंने दावा किया कि लाल मोहन शर्मा ने उनसे खिड़की और दरवाजा नहीं खोलने को कहा, जिससे वह डर गये और चुपचाप उस डिब्बे में बैठ गये। इसी दौरान उसने अज्ञात व्यक्ति की हत्या कर दी। जब ट्रेन मथुरापुर पहुंचने वाली थी तो लाल मोहन शर्मा चलती ट्रेन से कूदकर भाग गये। मृतक की हत्या के आरोप में गिरफ्तारी की आशंका के कारण अपीलकर्ता भी मधुपुर के पास पतरो नदी के दूसरी ओर कूद गया और भाग गया। हालांकि, गौर करने वाली बात यह थी कि अभियुक्त के कपड़ों पर लगे खून के धब्बे मृतक के खून के नमूने से मेल खाते थे।
माननीय पटना उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ताओं के बयानों के केवल दोषसिद्धि यानी अभियोगात्मक वाले हिस्से को स्वीकार किया और दोषमुक्ती वाले बयानों को खारिज कर दिया। ये बयान उसने अपनी गिरफ्तारी से पहले गांव के मुखिया के सामने दिए थे और अन्य सबूतों के साथ उसे हत्या का दोषी पाया गया और इसी कारण उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इसके बाद अपीलकर्ता ने माननीय उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की।
मामले में उठाए गए मुद्दे
इस मामले में अपीलकर्ता द्वारा निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए थे:
- गिरफ्तारी से पहले अभियुक्त द्वारा दिया गया और गांव के मुखिया द्वारा लिया गया बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है या नहीं?
- क्या न्यायालय बयान के दोषमुक्ति वाले भाग को ख़ारिज कर सकती है और अभियुक्त को दोषी ठहराने के उद्देश्य से दोषसिद्धि यानी अभियोगात्मक वाले भाग पर विचार कर सकती है?
पक्षों की दलीलें
अपिलकर्ता
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि:
- अपीलकर्ता द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 के तहत दिए गए बयानों का खंडन किया गया था कि वह पीड़ित की हत्या के अपराध में शामिल था। उन्होंने दावा किया था कि एक अन्य स्थान पर एक चरवाहे के साथ लड़ाई के कारण उन्हें चोटें लगी थीं, जिसके परिणामस्वरूप उनके कपड़ों और किताबों पर खून के धब्बे लग गए थे।
- उसने स्वीकार किया कि उसे गांव के मुखिया के घर ले जाया गया, जहां उसने आरोप लगाया कि उसके साथ मारपीट और धमकी देकर जबरन कोरे कागज पर हस्ताक्षर कराया गया।
- उन्होंने यह भी तर्क दिया कि पुलिस को सौंपने से पहले गाँव के मुखिया द्वारा दर्ज किए गए बयान सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं थे; और यदि स्वीकार्य है, तो कथनों पर संपूर्णता में विचार किया जाना चाहिए, किसी एक भाग की चयनात्मक स्वीकृति और दूसरे भाग की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए ।
प्रतिवादी
प्रतिवादी ने कहा कि:
- सबूतों के दोषी हिस्से के आधार पर, अपीलकर्ता ने अपना बयान स्वीकार कर लिया कि लाल मोहन शर्मा ने उसे डिब्बे का दरवाजा या खिड़की खोलने की कोशिश करने पर जान से मारने की धमकी दी थी और उसने एक अज्ञात व्यक्ति के साथ यात्रा की थी, जिसकी बाद में पीड़ित के रूप में पहचान की गई। पीड़ित भी उसी डिब्बे में था, जहां अपीलकर्ता ने इसे अपने अपराध को साबित करने के लिए निर्णायक सबूत के रूप में उजागर किया है और लाल मोहन शर्मा द्वारा उसे मारने की धमकी के आगे के बयान को खारिज कर दिया जाना चाहिए ऐसा बताया गया है।
- अपीलकर्ता के ट्रेन से कूदने के बाद, वह उक्त मृत व्यक्ति की हत्या के लिए गिरफ्तार किए जाने को लेकर आशंकित हो गया। प्रतिवादी ने यह भी कहा कि घटना पतरो नदी के पास हुई थी और यह विचार करने योग्य बात है की, यदि लाल मोहन शर्मा का इरादा मृतक की हत्या करने का था, तो उसने निश्चित रूप से अपीलकर्ता को जसीडीह स्टेशन पर ट्रेन से उतरने से रोका होता क्योंकि अपीलकर्ता आगे जाके इस घटना का एक गवाह हो सकता था जो उसकी पहचान कर सकता था और अपराध में उसकी संलिप्तता की गवाही दे सकता था।
- झाझा में लाल मोहन शर्मा ट्रेन में मौजूद नहीं थे। उसके और मृतक के बीच किसी झगड़े के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी, जिससे वह मृतक पर हमला कर सके। लाल मोहन शर्मा का पीड़ित पर हमला करने का कोई मकसद नजर नहीं आया। साथ ही, यह विश्वास करना भी मुश्किल था कि लाल मोहन शर्मा ने अपीलकर्ता को नुकसान पहुंचाने का प्रयास भी नहीं किया होगा।
- रेलवे डिब्बे में उसकी बायीं तर्जनी पर चोट लगने के अपीलकर्ता के बयान को अविश्वसनीय माना गया। इसी तरह, एक चरवाहे के साथ टकराव के परिणामस्वरूप उसकी बायीं तर्जनी पर चोट लगने की उनकी कहानी में विश्वसनीयता की कमी थी। अपीलकर्ता के प्रति चरवाहे के मौखिक दुर्व्यवहार और उसके बाद उस पर हमले का कारण काल्पनिक प्रतीत होता है।
- अपीलकर्ता की बाईं तर्जनी पर लगी एकमात्र चोट सतही (सुपरफीशियल) थी, जिससे इस दावे पर संदेह पैदा हो गया कि चोट इतनी गंभीर थी कि उसके कपड़े नदी में धोने पड़े। इसके अलावा, यह चोट उसकी बेल्ट, जूते और किताबों जैसी अन्य वस्तुओं पर खून के धब्बों के होने का कारण नहीं बताती है, जिन्हें स्पष्ट रूप से धोकर हटाने का प्रयास किया गया था।
पटना उच्च न्यायालय का फैसला
माननीय पटना उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को हत्या के आरोप में दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। अपीलकर्ता के विरुद्ध निम्नलिखित उल्लिखित परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि की गई:
- हत्या के ठीक दो घंटे बाद, अपीलकर्ता को पात्रो नदी के किनारे अपने खून से लथपथ कपड़े धोते हुए पाया गया;
- राम किशोर और अन्य लोगों द्वारा पकड़े जाने की आशंका के दौरान, उनके पास खून से सनी किताबें मिलीं;
- उसके पास 9 इंच का चाकू था;
- चिकित्सीय चोटों से पता चलता है कि पीड़ित को लगी चोटें उस चाकू से लगी हो सकती हैं जो अपीलकर्ता के कब्जे में पाया गया था;
- अपीलकर्ता की तर्जनी पर चोट के अलावा, अपीलकर्ता के शरीर पर अन्य चोटें ट्रेन के डिब्बे के अंदर पीड़ित के साथ संघर्ष के अनुरूप थीं;
- अपीलकर्ता द्वारा खून से सने कपड़ों और अन्य वस्तुओं के साथ-साथ उसके शरीर पर चोटों के संबंध में दिए गए स्पष्टीकरण को अस्वीकार्य माना गया।
सर्वोच्च न्यायालय में की गई अपील में मुद्देवार निर्णय
- गिरफ्तारी से पहले अभियुक्त द्वारा दिया गया और गांव के मुखिया द्वारा लिया गया बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है या नहीं?
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता द्वारा दिया गया यह तर्क कि बयान स्वेच्छा से नहीं दिया गया था और इसलिए इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, यह किसी भी आधार के सिवा किया गया बयान है। अपीलकर्ता के साथ मुखिया के पास आए किसी भी व्यक्ति पर यह आरोप नहीं लगाया गया था कि उसने उसके साथ मारपीट की थी, न ही यह निहित था कि अपीलकर्ता को बयान देने के लिए मजबूर किया गया था या धमकी दी गई थी। इसके अलावा, अपीलकर्ता का यह दावा कि उसे कागज के एक खाली टुकड़े पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था, उसके दावे को कमजोर करता है कि बयान दबाव या जबरदस्ती के तहत दिया गया था, क्योंकि उस परिदृश्य में उसके हस्ताक्षर प्राप्त करना पर्याप्त होता।
2. क्या न्यायालय बयान के दोषमुक्ति वाले भाग को ख़ारिज कर सकती है और अभियुक्त को दोषी ठहराने के उद्देश्य से अभियोगात्मक वाले भाग पर विचार कर सकती है?
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता द्वारा दिए गए दो विरोधाभासी बयान स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। एक बयान में, अपीलकर्ता ने दावा किया कि उसकी बायीं तर्जनी पर चोट उसके और चरवाहे के बीच हुई हाथापाई के कारण लगी थी। एक अन्य बयान में उन्होंने कहा कि ट्रेन के डिब्बे में मोहन लाल के हमले से खुद को बचाते समय यह चोट लगी। जब न्यायालय ने मामले के संदर्भ को पूरी तरह से समझ लिया, तो पीठ की राय थी कि गांव के मुखिया को दिए गए बयान का दोषमुक्ति वाला हिस्सा न केवल स्वाभाविक रूप से असंभव था, बल्कि अन्य सबूतों से भी अलग था। इसलिए, इसे उचित रूप से खारिज कर दिया गया, जबकि बयान के अभियोगात्मक वाले हिस्से को न्यायालय ने सही माना था।
इस मामले में उल्लिखित कानूनों पर चर्चा
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 न्यायालय को अभियुक्त से पूछताछ करने की शक्ति देती है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को पूरा करने के उद्देश्य से (ऑडी अल्टरम पार्टेम, यानी, किसी को भी अनसुना नहीं छोड़ा जाना चाहिए), इस प्रावधान का उपयोग न्यायालय द्वारा अभियुक्त से पूछताछ करने के लिए किया जाता है। इसमें यह शामिल है कि न्यायालय से अभियुक्त को दोषी ठहराने वाले बयानों या परिस्थितियों के संबंध में स्पष्टीकरण देने का अनुरोध किया जा सकता है, और अभियुक्त द्वारा दिए गए ऐसे स्पष्टीकरणों पर विधिवत विचार किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में जिनमें अभियुक्त के अपराध का निर्धारण करते समय परिस्थितिजन्य साक्ष्य की उपस्थिति शामिल होती है, यह निर्धारित करना आवश्यक है कि परिस्थितियों की श्रृंखला पूरी है या नहीं।
निशिकांत झा बनाम बिहार राज्य के वर्तमान मामले में, अपीलकर्ता ने माननीय पटना उच्च न्यायालय के समक्ष यह स्वीकार नहीं किया कि उसने गंगामारनी से गुजरते समय एक चरवाहे द्वारा हमला किए जाने और कांच से अपनी बायीं तर्जनी को घायल करने के बारे में किसी को बताया था। इसके बजाय, अपीलकर्ता ने कहा कि दिशाओं के बारे में पूछे जाने पर उसका एक चरवाहे के साथ टकराव हुआ था, जिसके दौरान चरवाहे ने उस पर तेज चाकू से हमला करने का प्रयास किया, जिससे वह घायल हो गया। लाल मोहन शर्मा द्वारा उन्हें ट्रेन के डिब्बे का दरवाज़ा या खिड़की खोलने और बाद में पीड़ित की हत्या करने की धमकी देने का उनका विवरण, साथ ही उन्हें चोट कैसे लगी, यह उनके पहले दिए गए बयान से भिन्न है। माननीय उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के इस स्पष्टीकरण को भी खारिज कर दिया कि वह अपनी बहन के गांव रोशन में रास्ता भटक गया था और उसे चोट लग गई, जैसा कि उसने अपने बयान में दावा किया था। उच्च न्यायालय द्वारा उल्लिखित गंभीर आपत्तिजनक परिस्थितियों के बावजूद, अपीलकर्ता के अपराध को स्थापित करने के लिए यह अपर्याप्त था जब तक कि लाल मोहन शर्मा के धमकी भरे बयान के एक हिस्से पर उनके साथ विचार नहीं किया गया। केवल इस बयान को स्वीकार किया गया कि वह बरौनी पैसेंजर ट्रेन के एक डिब्बे में यात्रा कर रहा था, जहाँ उसने एक हत्या देखी और उसके बाद मधुपुर पहुँचने से पहले पतरो नदी के पास कूद गया। लाल मोहन शर्मा के धमकी भरे बयान के अस्वीकार्य हिस्से को छोड़कर, संपूर्ण साक्ष्य अपीलकर्ता के अपराध के अपरिहार्य (अनअवॉयडेबल) निष्कर्ष की ओर ले जाता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 201
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 201 में अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के सबूतों को गायब करने के अपराध का प्रावधान है। यदि वह कार्य उस अपराध के घटित होने के किसी भी साक्ष्य को गायब करने के लिए किया जाता है, ताकि अभियुक्त को गलत काम के लिए कानून द्वारा प्रदान की गई सजा से बचाया जा सके, या उस इरादे से उस अपराध के संबंध में कोई जानकारी देता है जिसे वह जानता है या झूठ मानता है तो निम्नलिखित परिणाम होंगे:
- यदि अभियुक्त को पता है कि किए गए अपराध की सजा मौत है, तो उन्हें सात साल तक की कैद का सामना करना पड़ेगा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है;
- यदि अपराध में आजीवन कारावास, या दस साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है, तो अभियुक्त को तीन साल तक की कैद होगी और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- दस वर्ष से कम कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए, अभियुक्त को अपराध के लिए प्रदान की गई अधिकतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिए कारावास, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाता है।
इस मामले में, अपीलकर्ता पर इस धारा के तहत आरोप लगाया गया था क्योंकि जब घटना हुई थी उसी दिन सूर्यास्त से एक घंटे पहले राम किशोर पांडे ने अपीलकर्ता को साबुन से खून से सने कपड़े धोते हुए पाया था।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 हत्या के लिए सजा का प्रावधान करती है। यदि कोई व्यक्ति हत्या करता है तो उसे मौत की सजा या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और साथ ही जुर्माना भी देना होगा।
इस मामले में माननीय पटना उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को अधिनियम की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया क्योंकि न्यायालय में अभियुक्त के सभी साक्ष्य उसके खिलाफ निकले।
बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) मामले में, बचन सिंह पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें उनके द्वारा की गई हत्याओं के लिए दोषी ठहराया गया। सत्र न्यायाधीश ने उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत मौत की सजा सुनाई थी। इस मामले में धारा 302 के तहत हत्या के लिए मौत की सजा की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के पांच-पीठ के न्यायाधीश ने आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के लिए वैकल्पिक सजा के रूप में मौत की सजा की संवैधानिक वैधता को अनुचित नहीं माना और इसलिए, उसने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं किया यह माना गया। इस मामले में दुर्लभतम (रेअरेस्ट) मामलों का सिद्धांत स्थापित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सजा सुनाते वक़्त न केवल मामले की परिस्थितियों को बल्कि अभियुक्त की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। परीक्षण के समय विभिन्न मामलों में समान स्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ऐसे ही सभी मामलों का जिक्र करने के बाद ही फैसला सुनाया जाना है।
मामले से संबंधित निर्णय
एंपरर बनाम बालमुकुंद (1930)
सम्राट बनाम बालमुकुंद (1930) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की माननीय पूर्ण पीठ ने अभियुक्तों के अपराध और किए गए स्वीकारोक्ति का निर्धारण करते समय कहा, इसमें दो तत्व शामिल थे। पहला, इस बात को बताना चाहिए कि अभियुक्त ने महिलाओं की हत्या कैसे की और दूसरा, यह बताना चाहिए की अभियुक्त द्वारा ऐसा करने के कारण क्या थे। पूर्व तत्व दोषसिद्धि वाले यानी अभियोगात्मक हैं और बाद वाला तत्व दोषमुक्ति करनेवाले परिस्थिती मे है।
पूर्ण पीठ को संदर्भित प्रश्न यह था कि बयान का दोषसिद्धि वाले यानी अभियोगात्मक हिस्सा स्वयं की सराहना करता है, और बयान का दोषमुक्त भाग स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय है, तो पहले वाले हिस्से पर कार्रवाई करें और बाद वाले पर कार्रवाई करने से इनकार करें इस पर न्यायालय की राय क्या है? जिसका जवाब माननीय न्यायालय ने यह दिया कि जहां यह साबित करने के लिए कोई अन्य सबूत नहीं है कि स्वीकारोक्ति में दोषमुक्ति कथन का कोई भी भाग झूठा है, तो ऐसे विधान को देखते हुए न्यायालय को संपूर्ण स्वीकारोक्ति को स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए और वह केवल दोषसिद्धि वाले यानी अभियोगात्मक हिस्से को ही स्वीकार नहीं कर सकते है। बयान को स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय बताते हुए दोषमुक्ति वाले बयान को खारिज कर दिया गया।
हनुमंत गोविंद नरगुंडकर और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1952)
हनुमंत गोविंद नरगुंडकर और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1952) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह बताया गया कि जिन परिस्थितियों से अपराध का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, उन परिस्थितियों को पूरी तरह से स्थापित किया जाना चाहिए यानी की ठीक से बताया जाना चाहिए। और स्थापित किए जाने वाले सभी तथ्य केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिए। यह आवश्यक है कि परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति की हो और ऐसी हो जिससे प्रत्येक परिकल्पना को खारिज कर दिया जा सके लेकिन जो परिकल्पना अपराध को सिद्ध कर सकती हो उसे खारिज नहीं किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि हमेशा सबूतों की एक पूरी श्रृंखला होनी चाहिए ताकि अभियुक्त की बेगुनाही के अनुरूप निष्कर्ष के लिए कोई उचित आधार न छूटे और यह ऐसा होना चाहिए जिससे यह पता चले कि अभियुक्त द्वारा ही किया गया कार्य या हत्त्या सभी मानवीय संभावनाओं के भीतर किया कार्य अवश्य कार्य होगा।
पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (1952)
पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (1952) में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि स्वीकारोक्ति और अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के बारे मे तथ्य की स्वीकृति या तो पूरी तरह से स्वीकार की जानी चाहिए या अस्वीकार कर दी जानी चाहिए और न्यायालय किसी भी तरह से केवल दोषसिद्धि वाले भाग को स्वीकार कर दोषमुक्ति वाले भाग को स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय के रूप से अस्वीकार नहीं कर सकता है। स्वीकारोक्ति में या तो अपराध को स्वीकार किया जाना चाहिए या, सभी तथ्य ऐसे होने चाहिए जिससे अपराध घटित होने के बारे मे जानकारी होनी चाहिए। गंभीर रूप से दोषारोपण करने वाले तथ्य को स्वीकार करना, यहाँ तक कि निर्णायक रूप से दोषारोपण करने वाले तथ्य को स्वीकार करना भी अपने आप में एक स्वीकारोक्ति नहीं है। अभियुक्त के जिस कथन में स्व-दोषी (सेल्फ-एक्सपल्टेरी) या अन्य मामला शामिल है, उसे स्वीकारोक्ति नहीं माना जा सकता है, जब दोषमुक्ति कथन उन्हीं तथ्यों पर आधारित है, जो सत्य होने पर, स्वीकृत किए गए अपराध को नकार सकते है। वह बयान जो समग्र रूप से पढ़ने पर दोषमुक्ति संबंधी होता है और जिसमें कैदी अपने अपराध से इनकार करता है, वह स्वीकारोक्ति नहीं है, और अपराध को साबित करने के लिए साक्ष्य में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है।
भगवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1976)
भगवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1976) में, अपीलकर्ता के बयान के दोषसिद्धि वाले यानी अभियोगात्मक भाग को भौतिक रूप मे उपलब्ध अन्य संतोषजनक साक्ष्य के साथ जोड़कर पुष्टि की गई थी। नतीजतन, न्यायालय ने बयान के दोषसिद्धि वाले हिस्से को स्वीकार कर लिया और दोषमुक्ति वाले हिस्से को खारिज कर दिया। यह मामला इस नियम का अपवाद है कि स्वीकारोक्ति को समग्र रूप से लिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
आपराधिक न्यायशास्त्र की शुरुआत से ही, अभियुक्त के अपराध को साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर रहा है। दोषी साबित होने तक अभियुक्त को हमेशा निर्दोष माना जाता है। यहाँ उच्च मानक के सबूत की आवश्यकता होती है जो उचित संदेह से परे अभियुक्त के अपराध को प्रदर्शित कर सके। लेकिन, इससे अभियोजन पक्ष को नुकसान होता है, जिससे अक्सर दोषसिद्ध करने वाले साक्ष्यों पर जोर देना पड़ता है जबकि ऐसा करते हुए दोषमुक्ति संबंधी साक्ष्यों की उपेक्षा हो जाती है। दोषमुक्ति साक्ष्य प्राप्त करना और उसे प्रमाणित करना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इससे अभियुक्त पर सबूत का बोझ बढ़ जाता है और साक्ष्य की त्रुटिहीन गुणवत्ता की आवश्यकता होती है। फिर भी, इन सिद्धांतों को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि दोषमुक्ती करानेवाले साक्ष्य को दबाने से न्याय की विफलता हो सकती है, और जब प्रस्तुत किया जाता है, तो यह अभियुक्त के लिए सबसे दुर्जेय (फॉर्मिडेबल) साक्ष्य के रूप में कार्य करता है।
इस मामले से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ने बयान के एक हिस्से पर भरोसा करने और बाकी को खारिज करने में कोई गलती नहीं की है। न्यायालय का इरादा पलविंदर, हनुमंत या बालमुकुंद के फैसले को खारिज करने का नहीं था, बल्कि वर्तमान मामले को उनसे अलग करने का था। यहां दोनों न्यायालयों के पास अपीलकर्ता के बयान के दोषमुक्ति वाले हिस्से को खारिज करने के लिए पर्याप्त सबूत थे। यह पूरी तरह से न्यायालय का विवेक है कि वह दोषमुक्ति वाले बयान को छोड़ दे और अभियुक्त के अपराध को निर्धारित करने के उद्देश्य से केवल दोषसिद्धि यानी की अभियोगात्मक बयान पर विचार करे। हालाँकि, न्यायालय को हमेशा अभियुक्त की सजा पर निर्णय लेने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत दोषसिद्धि और दोषमुक्ति बयानों के दोनों पहलुओं को तौलना चाहिए, जैसा कि इस मामले में किया गया था।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
“स्वीकारोक्ति” शब्द से आपका क्या तात्पर्य है?
शब्द “स्वीकारोक्ति” को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023) में परिभाषित नहीं किया गया है। जेम्स स्टीफन ने ‘स्वीकारोक्ति’ को परिभाषित करने का प्रयास किया है जिसके संदर्भ में ‘स्वीकारोक्ति’ को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 17 (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 15 ) में परिभाषित किया गया है, इसमें कहा गया है कि “स्वीकारोक्ति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति द्वारा किसी भी समय की गई एक स्वीकृति है जो यह बताती है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है।”
इस प्रकार, स्टीफ़न की परिभाषा के अनुसार, अपराध की स्वीकृति देना एक स्वीकारोक्ति के बराबर है, यदि अभियुक्त:
- कहता है कि उसके द्वारा कोई अपराध किया गया है; या
- ऐसा बयान देता है जिससे वह स्पष्ट रूप से अपराध स्वीकार नहीं करता है, फिर भी बयान से कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने अपराध किया होगा।
अभियोगात्मक और दोषमुक्ति कथन से आप क्या समझते हैं?
स्वीकारोक्ति से संबंधित प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 24-30 (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 22-24 ) से प्रदान किए गए हैं। न्यायालय में बयानों और स्वीकारोक्ति की स्वीकार्यता को नियंत्रित करने वाले विशिष्ट दिशानिर्देश भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में उल्लिखित हैं।
किसी व्यक्ति द्वारा अपराध करने की बात स्वीकार करने पर दिया गया बयान ‘अभियोगात्मक कथन’ के रूप में जाना जाता है। आपराधिक कार्यवाही में, अभियुक्त के अपराध को निर्धारित करने में अभियोगात्मक बयान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अभियुक्त द्वारा दिए गए बयान इस प्रकार के हैं कि अभियुक्त को किए गए अपराध के लिए दंडित करने के लिए स्पष्ट साक्ष्य मौजूद हैं। साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत दिए गए ऐसे बयानों की स्वीकार्यता के नियमों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अभियोगात्मक बयान दर्ज करने के समय, अभियुक्त उकसावे, दबाव या प्रलोभन के अधीन नहीं होना चाहिए। ऐसे बयान स्वेच्छा से दिये जाने चाहिए। जब प्रतिवादी गलत काम स्वीकृत करता है, तो अभियोगात्मक बयान अपराध के मजबूत सबूत के रूप में कार्य करते हैं। आपराधिक कार्यवाही से दृढ़तापूर्वक बच निकलने की क्षमता होने के बावजूद, साक्ष्य अधिनियम, 1872 उनकी स्वीकार्यता पर कड़ी सीमाएं लगाता है।
‘दोषमुक्ति कथन’ वे कथन हैं जिनमें एक अभियुक्त व्यक्ति अपने ऊपर लगे आरोपों के प्रति अपनी बेगुनाही का दावा करता है। आपराधिक मुकदमे के समय, इस प्रकार के बयानों से बचाव पक्ष को मामला पेश करने में मदद मिलती है। ये बयान साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत स्वीकार्यता के सिद्धांतों के अधीन हैं। जो भी बयान अभियुक्त द्वारा दिए गए हैं और अभियुक्त को बचाव प्रदान करते हैं, उनका उपयोग न्यायालय में किया जा सकता है। ऐसे बयान स्वेच्छा से, व्यापक रूप से और स्व-व्याख्यात्मक रूप से दिए जाने चाहिए ताकि अभियुक्त के मुकदमे के समय स्वीकार किए जा सकें। दबाव, उकसावे या धमकी के तहत प्राप्त अपराधों की स्वीकारोक्ति न्यायालय में अस्वीकार्य है।
ये दो प्रकार के बयान स्पष्ट रूप से अपराध या निर्दोषता की स्पष्ट स्वीकृति प्रदान नहीं करते हैं, दोषमुक्ति से संबंधित स्वीकारोक्ति को निर्दोषता का अप्रत्यक्ष प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि, एक आपराधिक मुकदमे में, ऐसे बयान अत्यधिक ठोस सबूत हो सकते हैं क्योंकि वे बचाव पक्ष के रुख को मजबूत कर सकते हैं या दूसरे सबूत को सही प्रमाणित कर सकते हैं।
क्या इस नियम का कोई अपवाद है कि स्वीकारोक्ति को हमेशा समग्र रूप में लिया जाना चाहिए?
वर्तमान में सामान्य नियम के दो अपवाद हैं कि स्वीकारोक्ति को हमेशा समग्र रूप में लिया जाना चाहिए। वे इस प्रकार हैं:
- भगवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1976) में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि स्वीकारोक्ति बयान के एक हिस्से पर विश्वास करना स्वीकार्य है जो कि एक अभियोगात्मक बयान है और यदि इसकी शुद्धता साबित करने के लिए साथ ही कोई अन्य सबूत है; और
- निशिकांत झा बनाम बिहार राज्य (1968) के वर्तमान मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि यदि कथन का दोषमुक्ति भाग स्वाभाविक रूप से असंभव और अविश्वसनीय है तो इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया जा सकता है और दोषसिद्धि भाग को संपूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया जा सकता है और ऐसे समय अभियुक्त के अपराध को साबित करने के लिए बयान को स्वीकार किया जा सकता है।
दोषसिद्धि संबंधी बयानों से निपटने के लिए एक बचाव पक्ष के वकील द्वारा कौन सी आवश्यक रणनीतियों का उपयोग किया जा सकता है?’
अभियुक्तों के विरुद्ध दिए गए दोषसिद्धि यानी अभियोगात्मक बयानों से निपटने के लिए बचाव पक्ष के वकील द्वारा एक रणनीतिक और पद्धतिगत (स्ट्रटेजीक) दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। वकीलों द्वारा विभिन्न युक्तियों का उपयोग किया जाना चाहिए ताकि अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों की विश्वसनीयता, अखंडता या समझ पर सवाल उठाया जा सके। कुछ युक्तियाँ जिन्हें लागू किया जा सकता है वे इस प्रकार हैं:
- जिरह (क्रॉस एक्जामिनेशन) : मुकदमे की शुरुआत से लेकर मुकदमे के अंत तक, बचाव पक्ष के वकील उन गवाहों की जांच कर सकते हैं जो मतभेदों या संभावित पूर्वाग्रहों को खत्म करने वाले दोषी बयान या साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
- विशेषज्ञ की गवाही: मामले की सुनवाई के समय विशेषज्ञ गवाहों को शामिल करने से फोरेंसिक विश्लेषण या डीएनए परीक्षण जैसे दोषी साक्ष्य की वैज्ञानिक वैधता या व्याख्या पर विवाद करने में मदद मिल सकती है।
- दमन प्रस्ताव (सप्रेशन मोशन): यदि बचाव पक्ष के वकील की राय है और संदेह है कि अभियुक्त के खिलाफ पेश किए गए दोषारोपण साक्ष्य गैरकानूनी तरीके से प्राप्त किए गए हैं या अभियुक्त के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, तो वकील आपराधिक मुकदमे से सबूत के उस हिस्से को खारिज करने के लिए दमन प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकता है।
- वैकल्पिक स्पष्टीकरण: बचाव पक्ष का वकील वैकल्पिक परिकल्पना या आख्यान (नैरेटिव) पेश कर सकता है जो अभियोगात्मक साक्ष्य की समझ या महत्व पर संदेह पैदा करता है।
संदर्भ