भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण अनुच्छेदों की सूची

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Constitution of India
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यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की Arya Mittal के द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय संविधान के सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेदों की सूची प्रदान करने और उनका विश्लेषण (एनालिसिस) करने का प्रयास करता है। यह सूची लेखक के दृष्टिकोण (पर्सपेक्टिव) पर आधारित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान देश का मौलिक कानून है। दूसरे शब्दों में, भारत के संविधान को भारत का ‘लेक्स सुप्रीमा’ यानी की भारत का सर्वोच्च कानून माना जाता है। यह दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है। भारत का संविधान 2 साल 11 महीने और 18 दिनों में तैयार किया गया था और 26 जनवरी 1950 को भारत के नागरिकों द्वारा इसे अपनाया गया था।

संविधान भारत में लागू होने वाले हर कानून के लिए एक दिशानिर्देश के रूप में कार्य करता है। इसमें देश में शासन की बुनियादी संरचना (स्ट्रक्चर) शामिल है। प्रारंभ में, संविधान में 395 अनुच्छेद थे, जो 8 अनुसूचियों (शेड्यूल) और 22 भागों में विभाजित थे। वर्तमान में, भारत के संविधान में 470 अनुच्छेद हैं, जो 12 अनुसूचियों और 25 भागों में विभाजित हैं और इसे 104 बार संशोधित किया गया है।

मौलिक अधिकार

अनुच्छेद 12 – राज्य की परिभाषा

संविधान का अनुच्छेद 12 संविधान के भाग III की स्थापना का प्रतीक है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित है। मौलिक अधिकार अनुच्छेद 12 से लेकर अनुच्छेद 35 तक दिए गए हैं। संविधान के भाग III का उद्देश्य यह है कि राज्य किसी भी स्थिति में किसी भी नागरिक को इन अधिकारों से वंचित नहीं करेगा, सिवाय कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के। इस संदर्भ में, “राज्य” शब्द को निर्माताओं के द्वारा व्यापक अर्थ प्रदान किया गया है। यह प्रावधान प्रदान करता है कि भाग III के उद्देश्य के लिए, शब्द “राज्य” में भारत की सरकार और संसद, राज्यों की सरकार और उन के विधानमंडल, और भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार की नियंत्रण में सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण (अथॉरिटीज) भी शामिल है।

राज्यों की संसद और विधायिका को “राज्य” का एक हिस्सा माना जाता है क्योंकि उनके कार्यों को सरकार का कार्य माना जाता है। इसके अलावा, “स्थानीय और अन्य प्राधिकरण” अभिव्यक्ति को न्यायपालिका द्वारा एक बड़े दायरे के साथ प्रदान किया गया है। स्थानीय प्राधिकरणों में नगरपालिका (म्युनिसिपैलिटी), जिला बोर्ड, पंचायत आदि जैसे प्राधिकरण शामिल हैं। दूसरी ओर, अन्य प्राधिकरणों में निजी निकाय (प्राइवेट बॉडीज) भी शामिल हैं, लेकिन इसी शर्त से कि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन गंभीर हुआ हो और जनता की अंतरात्मा को प्रभावित करता हो। इस पहलू में सबसे प्रसिद्ध निर्णयों में से एक विशाखा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (1997) का मामला है, जिसके माध्यम से न्यायपालिका ने पी.ओ.एस.एच. दिशा निर्देशों की घोषणा की थी।

पर्यावरण क्षरण (एनवायरनमेंटल डिग्राडेशन) के मामलों में भी, निजी संस्थाओं के कार्यों को “अन्य प्राधिकरण” अभिव्यक्ति के तहत शामिल माना गया है, जैसा कि एम.सी. मेहता बनाम कमल नाथ (1996) के मामले में आयोजित किया गया था। यहां तक ​​कि मामलो में न्यायपालिका ने भी खुद को इस अभिव्यक्ति का हिस्सा माना है, जहां उसने स्पष्ट रूप से न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों के बीच अंतर किया है। यह रिजू प्रसाद शर्मा बनाम स्टेट ऑफ असम (2015) के मामले में आयोजित किया गया था।

इस प्रकार, “राज्य” शब्द को एक बहुत बड़ा दायरा प्रदान किया गया है ताकि बड़ी संख्या में लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

अनुच्छेद 13 – मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानून

नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सबसे महत्त्वपूर्ण बनाने वाला प्रावधान संविधान का अनुच्छेद 13 है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ असंगत है या उनका उल्लंघन करता है, तो उसे शून्य माना जाएगा। प्रावधान की प्रकृति और महत्व पर न्यायपालिका के द्वारा व्याख्या की जा सकती है। इस प्रावधान में कहा गया है कि पहले से मौजूद कोई भी कानून, साथ ही संसद या विधायिका (लेजिस्लेचर) द्वारा अधिनियमित किए जाने वाले संभावित कानून, भाग III के साथ उनकी असंगति की सीमा तक शून्य होंगे।

अनुच्छेद 13 की सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याओं में से एक यह थी कि क्या कोई कानून, जिसे संविधान के भाग III के साथ उल्लंघन में होने के कारण शून्य घोषित किया गया है, को एक बार या फिर हमेशा के के लिए निरस्त (एब्रोगेट) माना जाएगा, या क्या यह प्रासंगिक (रेलेवेंट) संशोधनों के साथ पुनर्जीवित (रिवाइव) हो सकता है ताकि इसे मौलिक अधिकारों के अनुरूप लाया जा सके। इस मुद्दे का विश्लेषण करते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भीकाजी नारायण धाकरा बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश (1955) के मामले में ” आच्छादन का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ एक्लिप्स)” विकसित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार, कोई भी कानून जो संविधान के लागू होने से पहले अस्तित्व में था, और मौलिक अधिकारों के साथ असंगत होने के कारण यदि उसे शून्य घोषित कर दिया गया था तो यह नही माना जाएगा की ऐसा कानून पूरी तरह से खत्म हो गया है, बल्कि प्रासंगिक संशोधन होने तक इसे “आच्छादित” किया जाएगा।

एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जिस पर न्यायपालिका के द्वारा व्याख्या की गई थी वह यह था कि क्या अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) या संशोधन को अनुच्छेद 13 के तहत ‘कानून’ माना जा सकता है। अनुच्छेद 13 (3) (a) में कहा गया है कि अभिव्यक्ति “कानून” में अध्यादेश, आदेश, उप-नियम (बाय लॉज), रीति-रिवाज और उपयोग, अधिसूचनाएं (नोटिफिकेशन) और विनियम (रेगुलेशन) शामिल होते हैं, जो भारत के क्षेत्र पर लागू होते हैं। न्यायपालिका और विधायिका के बीच एक विवाद था, जो की संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत “लागू कानून” अभिव्यक्ति के तहत संशोधनों को शामिल करने पर आधारित था। न्यायपालिका की राय थी कि संशोधनों को इस अभिव्यक्ति के तहत शामिल किया जाना चाहिए, जैसा कि आई.सी. गोलक नाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (1967) के मामले में आयोजित किया गया था। हालांकि, अनुच्छेद 13(4) को संविधान (24 वें संशोधन) अधिनियम, 1971 के माध्यम से पेश किया गया था, जिसने संशोधनों को पूरी तरह से इस अभिव्यक्ति से बाहर कर दिया था। केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल (1970) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संशोधन की वैधता को बरकरार रखा गया था।

अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार

अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि “राज्य, भारत के क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।” समानता के सिद्धांत को एक सुनहरे धागे के रूप में माना जाता है जो पूरे संविधान के साथ चलता है। इस धारणा का समर्थन इस तथ्य से होता है कि जब भी किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है, तो अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन होता है। अनुच्छेद 14 के तहत प्रदान किए गए अधिकार की प्रकृति यह है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में, बराबरी में वे लोग शामिल होते हैं जो काफी हद तक समान स्थितियों में होते हैं। अनुच्छेद 14 गारंटी देता है कि राज्य द्वारा किसी भी तरह से समान लोगो के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 14 “किसी भी व्यक्ति” पर लागू होता है और केवल नागरिकों तक ही सीमित नहीं है। इस अभिव्यक्ति की व्याख्या ने यह प्रदान किया है कि प्रावधान के तहत एक न्यायिक व्यक्ति भी संरक्षित हैं। इसे सुनिश्चित करने के लिए संविधान के तहत कानून के शासन के सिद्धांत को शामिल किया गया है। यह सिद्धांत कहता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से कानून से ऊपर नहीं होगा। माया देवी बनाम राज कुमारी बत्रा (2010) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “कानून के शासन द्वारा शासित प्रणाली में, पूर्ण या अनियंत्रित शक्ति जैसा कुछ भी नहीं है। निष्पक्षता और न्याय संगतता (इक्विटी) को बढ़ावा देने के लिए विवेक का प्रयोग, अच्छी तरह से मान्यता प्राप्त और सही न्यायिक सिद्धांतों के साथ किया जाना चाहिए।”

हालांकि, प्रावधान उन लोगों के बीच उचित वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) की अनुमति देता है जो विभिन्न वर्गों के अधीन हैं। इस प्रकार, ऐसे मामले में जहां राज्य लोगों के विभिन्न वर्गों को वर्गीकृत करता है और कानून बनाकर उनके साथ अलग व्यवहार करता है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करने के कारण रद्द नहीं किया जा सकता है। आर.के गर्ग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1982) के मामले में, विशेष वाहक बांड (प्रतिरक्षा और छूट) अधिनियम (स्पेशल बीयरर बॉन्ड (इम्यूनिटीज एंड एक्सेंपशंस) एक्ट), 1981 की संवैधानिक वैधता, काले धन के कब्जे के आधार पर लोगों के वर्गीकरण को चुनौती दी गई थी। हालांकि, वर्गीकरण रीजनेबल नेक्सस और इंटेलिजिबल डिफ्रेंशिया के अधीन होगा। के . थिम्मप्पा बनाम भारतीय स्टेट बैंक (2000) के मामले में, न्यायालय ने माना कि एक वैध वर्गीकरण बनाने के लिए, समूह से अलग किए गए और छूटे हुए लोगों के बीच एक इंटेलिजिबल डिफ्रेंशिया होना चाहिए; और यह कि इस तरह के इंटेलिजिबल डिफ्रेंशिया का एक रीजनेबल नेक्सस होना चाहिए, ताकि कानून के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके।

अनुच्छेद 15 – भेदभाव का प्रतिषेध (प्रोहिबिशन)

अनुच्छेद 15 केवल धर्म, मूलवंश (रेस), जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव को प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 15 को समानता के अधिकार का विशिष्ट अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) माना जाता है। यह अधिकार केवल भारत के नागरिकों को प्रदान किया जाता है, और यह अनुच्छेद 14 के विपरीत है, जो की प्रत्येक व्यक्ति को दिया जाता है।

काठी राणिंग रावत बनाम स्टेट ऑफ़ सौराष्ट्र (1952) के मामले में, न्यायालय ने अनुच्छेद 15 के खंड (क्लॉज) (1) और (2) की व्याख्या की थी। यह माना गया कि अनुच्छेद 15 में महत्वपूर्ण शब्द “भेदभाव” और “केवल” हैं। राज्य केवल उसमें उल्लिखित आधारों पर व्यक्तियों के बीच भेदभाव करने से प्रतिषेध करता है। अनुच्छेद 15 के तहत शब्दों की व्याख्या यह प्रदान करती है कि केवल उस अनुच्छेद में उल्लिखित आधारों पर कोई भी भेदभाव, किसी भी अधिनियम या कानून को असंवैधानिक बना देगा। हालांकि, यदि इन आधारों के साथ किसी अन्य आधार पर कोई वर्गीकरण किया जाता है, तो कानून को वैध माना जाएगा।

नैन सुख दास बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश (1953) के मामले में, एक स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए कानून को असंवैधानिक माना गया क्योंकि इसने एक ऐसा वर्गीकरण किया जो पूरी तरह से धार्मिक आधार पर आधारित था। इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन माना गया। इसी तरह, एम.आर. बालाजी बनाम स्टेट ऑफ़ मैसूर (1963) के मामले में, मैसूर राज्य के आदेश, जो जाति के आधार पर पिछड़े वर्गों को वर्गीकृत करते हैं और ब्राह्मणों को इस तरह के वर्गीकरण से बाहर रखते हैं, ताकि कॉलेजों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण प्रदान किया जा सके, उन्हे भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 15(1) के उल्लंघन के आधार पर रद्द कर दिया गया था।

यह ध्यान देने योग्य है कि इस प्रावधान का खंड (3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देता है। विजय लक्ष्मी बनाम पंजाब विश्वविद्यालय (2003) के मामले में, प्रधान अध्यापक के पद के लिए एक महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षण प्रदान करने वाले प्रावधान को अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन नहीं माना गया था।

अनुच्छेद 16 – सार्वजनिक रोजगार के अवसरों में समानता

संविधान के अनुच्छेद 16(1) में प्रावधान है कि प्रत्येक नागरिक के लिए सार्वजनिक रोजगार के तहत रोजगार के अवसर में समानता होगी। अनुच्छेद 16 का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक को प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न समूहों में वर्गीकृत किए बिना समान अवसर प्रदान करना है। यह नागरिकों को प्रदान किया गया एक सकारात्मक अधिकार है और समानता की धारणा को बढ़ावा देता है। हालांकि, खंड (1) किसी भी प्रकार के वर्गीकरण को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करता है। इसके विपरीत, अनुच्छेद 16 के तहत वर्गीकरण का दायरा, अनुच्छेद 14 के तहत व्यापक है। न्यायालयों ने विभिन्न अवसरों पर विभिन्न वर्गीकरणों को बरकरार रखा है। स्टेट ऑफ बिहार बनाम बिहार स्टेट (प्लस 2) लेक्चरर यूनियन (2008) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि एक प्रशिक्षित (ट्रेंड) शिक्षक और एक अप्रशिक्षित शिक्षक के बीच स्पष्ट अंतर है। इस प्रकार, अनुच्छेद 16 के उद्देश्य के लिए, इस तरह के एक भेद को वर्गीकृत किया जा सकता है और यह इंटेलिजिबल डिफरेंशिया होने के आधार पर मान्य होगा।

अनुच्छेद 16(2) में कहा गया है कि “राज्य के अधीन किसी रोजगार या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव (डिसेंट), जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उसके साथ भेदभाव किया जाएगा।” इस प्रकार, राज्य के कार्यालय में सार्वजनिक रोजगार का अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से किसी भी प्रकार के भेदभाव से बचने के लिए खंड (2) को शामिल किया गया है।

अनुच्छेद 16(3) संसद को रोजगार या नियुक्ति के उद्देश्य से निवास की आवश्यकता को निर्धारित करने के लिए विशेष कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।

अनुच्छेद 19 – स्वतंत्रता का अधिकार

संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को कुछ स्वतंत्रताएं प्रदान करता है, जो मानव अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं। अनुच्छेद 19(1) में प्रावधान है कि सभी नागरिकों को निम्नलिखित का अधिकार होगा:

  1. भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता;
  2. बिना किसी शस्त्र के शांतिपूर्ण सभा;
  3. संगम (एसोसिएशन) या संघ (यूनियन) बनाने का अधिकार;
  4. भारत के राज्यक्षेत्र में बिना किसी बाधा संचरण (मूवमेंट) का अधिकार;
  5. भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार;
  6. कोई वृत्ति (प्रोफेशन), उपजीविका (ऑक्यूपेशन), व्यापार या कारोबार करने का अधिकार।

1978 से पहले, अनुच्छेद 19 में खंड (f) के तहत संपत्ति के अधिग्रहण (एक्विजिशन) और निपटान का अधिकार शामिल था। हालांकि, इस अधिकार को, मौलिक अधिकारों के अध्याय अर्थात् भाग III से हटाकर, भाग XII के अध्याय IV में अनुच्छेद 300A के तहत स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया गया था, जिसकी चर्चा बाद के अध्यायों में की जाएगी।

अनुच्छेद 19 के तहत प्रदान किए गए अधिकार पूर्ण और अनियंत्रित नहीं हैं। बल्कि, राज्य व्यक्तियों के इन अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। इस तरह के उचित प्रतिबंध मौलिक अधिकारों और सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलन बनाते हैं। स्टेट ऑफ़ बॉम्बे बनाम एफ.एन. बलसारा (1951) के मामले में, न्यायालय ने देखा कि निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स) या मूल कर्तव्यों (फंडामेंटल ड्यूटीज) को प्राप्त करने के लिए लगाए गए प्रतिबंध उचित प्रतिबंध होने चाहिए।

अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किया गया जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है। अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि “किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।” अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपलब्ध है, जिसका अर्थ है कि यह भारत के क्षेत्र में रहने वाले विदेशियों पर भी लागू होता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार केवल राज्य के खिलाफ उपलब्ध है और किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता है। यह सबीहा फैकेज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2012) के मामले में आयोजित किया गया था।

अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार केवल पशु के समान अस्तित्व नहीं है। यह माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खड़क सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश (1962) के मामले में आयोजित किया गया था, जिसे मुन्न बनाम इलिनोइस (1876) के अमेरिकी मामले को देखते हुए लिया गया था। जस्टिस फील्ड के शब्दों में, जीवन शब्द से, जैसा कि यहाँ प्रयोग किया गया है, केवल पशु के समान अस्तित्व से कुछ अधिक है। इसके अभाव का निषेध इन सभी सीमाओं और संकायों (फैकल्टीज) तक फैला हुआ है जिसके द्वारा जीवन का आनंद लिया जाता है। यह प्रावधान समान रूप से शरीर के विच्छेदन (म्यूटिलिएशन) या हाथ या पैर के विच्छेदन या आंख को बाहर निकलने या शरीर के किसी ऐसे अन्य अंग को नष्ट करने पर रोक लगाता है, जिसके माध्यम से आत्मा बाहरी दुनिया के साथ संचार (कम्युनिकेट) करती है।

न्यायालय के उपरोक्त अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) को देखते हुए, जीवन के अधिकार में मानवीय गरिमा (ह्यूमन डिग्निटी) के साथ जीने का अधिकार शामिल है क्योंकि यह मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1978) के मामले में आयोजित किया गया था और न्यायालय द्वारा फ्रांसिस कोराली मुलिन बनाम प्रशासक, केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली (1981) के मामले में इसे सही ठहराया गया था। 

अंत में, इस सवाल का, कि क्या अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है, का उत्तर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज्ञान कौर बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब (1996) में दिया गया था, जिसमें यह देखा गया था कि जीवन के अधिकार में गरिमा के साथ मरने का अधिकार शामिल हैं। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति जानबूझकर अपने जीवन को अप्राकृतिक तरीके से समाप्त करे।

जीवन के अधिकार और सम्मान के साथ मरने के अधिकार के बारे में बहस में अक्सर भारत में इच्छामृत्यु की संवैधानिक वैधता शामिल होती है। अरुणा शानबाग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2011) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में निष्क्रिय (पैसिव) इच्छामृत्यु की अनुमति के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए थे। दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:

  1. जीवन रक्षक को बंद करने का निर्णय, माता-पिता या पति या पत्नी या अन्य करीबी रिश्तेदारों द्वारा या उनमें से किसी की अनुपस्थिति में ऐसा निर्णय एक व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा भी लिया जा सकता है जो उस व्यक्ति का मित्र है। इसे मरीज का इलाज करने वाले डॉक्टर भी दे सकते हैं। हालांकि, निर्णय वास्तविक रूप से रोगी के सर्वोत्तम हित में लिया जाना चाहिए।
  2. इसलिए, भले ही निकट संबंधियों या डॉक्टरों या मित्र के द्वारा जीवन रक्षक वापस लेने का निर्णय लिया गया हो, लेकिन इस तरह के निर्णय के लिए संबंधित उच्च न्यायालय से सहमति की आवश्यकता होती है।

कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) के सबसे प्रसिद्ध फैसले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान किए गए जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ मरने का अधिकार शामिल है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति देते हुए, न्यायालय का विचार था कि जहां एक मरीज अनिश्चित है कि उसकी मृत्यु कब होने वाली है, अगर उसे पीड़ा और दर्द की स्थिति में रहना है, तो गरिमा के साथ जीने का उसका अधिकार समाप्त हो जाएगा। हालांकि, राज्य को भारत के संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदान किए गए सबसे बुनियादी मौलिक अधिकार की रक्षा करनी चाहिए, और वह सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।

अनुच्छेद 21A– शिक्षा का अधिकार

शिक्षा का अधिकार भारत में न्यायिक रचनात्मकता (क्रिएटिविटी) का एक बड़ा उदाहरण है। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के विस्तारित अर्थ ने न्यायपालिका को अनुच्छेद 21 के तहत विभिन्न अनगिनत अधिकारों का विश्लेषण करने में सक्षम बनाया है। मोहिनी जैन बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक (1992) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा प्रतिव्यक्ति शुल्क (कैपिटेशन फी) की संवैधानिकता का था। एकल-न्यायाधीश पीठ ने प्रतिव्यक्ति शुल्क की संवैधानिक वैधता को खारिज कर दिया और नए मौलिक अधिकार, अर्थात शिक्षा के अधिकार को बनाने के लिए न्यायिक रचनात्मकता का प्रयोग किया। बाद में, उन्नी कृष्णन बनाम स्टेट ऑफ़ आंध्र प्रदेश (1993) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के समक्ष मोहिनी जैन के मामले की सत्यता पर सवाल उठाया गया था। निर्णय को आंशिक (पार्शियल) रूप से बरकरार रखा गया और यह माना गया था कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मुफ्त शिक्षा का अधिकार शामिल है। हालांकि, इस निर्णय को भी आंशिक रूप से खारिज कर दिया गया था और न्यायालय ने कहा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार केवल 14 वर्ष की आयु तक प्राप्त किया जा सकता है, जिसके बाद यह राज्य की आर्थिक क्षमता के अधीन होगा।

इन निर्णयों के माध्यम से, अनुच्छेद 21A ने संविधान (86वां संशोधन) अधिनियम, 2002 द्वारा संविधान में अपना मार्ग प्रशस्त किया था। इस अधिकार के प्रवर्तन (इनफोर्समेंट) को बेहतर तरीके से सुनिश्चित करने के लिए, संसद ने बच्चों के नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 अधिनियमित किया था। सोसाइटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल ऑफ राजस्थान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2012) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क़ानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था।

अनुच्छेद 22 :- गिरफ्तारी और निरोध (डिटेंशन) से संरक्षण

संविधान का अनुच्छेद 22 गिरफ्तारी और निरोध से सुरक्षा प्रदान करता है। यह न्यूनतम प्रक्रियात्मक आवश्यकताएं प्रदान करता है जिनका पालन, किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के दौरान किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 22(1) में प्रावधान है कि जिस व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है, उसे गिरफ्तार होते ही इस तरह की गिरफ्तारी के कारण के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। यह भी प्रदान किया गया है कि व्यक्ति को अपनी पसंद के विधि व्यवसायी (लीगल प्रैक्टिशनर) से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार है। इस प्रावधान के खंड (2) में प्रावधान है कि गिरफ्तार किए गए प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा। हालांकि, प्रावधान को नागरिकों के द्वारा पूर्ण अधिकार नहीं माना जाएगा। खंड (3) इस अधिकार के अपवाद को प्रदान करता है। यह बताता है की “खंड (1) और खंड (2) की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जो-

  1. तत्समय शत्रु अन्यदेशीय (एलियन एनिमी) है या
  2. निवारक निरोध (प्रीवेंटिव डिटेंशन) का उपबंध करने वाले किसी कानून के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध (डिटेन) किया गया है।” 

यहां तक ​​कि किसी भी कानून के तहत किया गया निवारक निरोध तीन महीने की अवधि से अधिक नहीं होगा, जब तक कि उन व्यक्तियों के सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के लिए योग्य हैं या रहे हैं। इस प्रावधान में यह भी प्रदान किया गया है कि संसद उपयुक्त कानून बनाकर किसी व्यक्ति की निवारक निरोध की अधिकतम अवधि निर्धारित करेगी।

अनुच्छेद 23 :- मानव दुर्व्यापार और जबरन श्रम का प्रतिषेध (प्रोहिबीशन ऑफ़ ह्यूमन ट्रैफिकिंग एंड फोर्सड लेबर)

संविधान के अनुच्छेद 23 में मानव दुर्व्यापार, भिक्षावृत्ति (बेगरी) और अन्य प्रकार के जबरन श्रम पर रोक लगाने का प्रावधान है। इस अधिकार का एक अपवाद, अनुच्छेद 23 (2) के तहत प्रदान किया गया है, जिसमें कहा गया है कि राज्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अनिवार्य सेवा लागू करने का हकदार है यदि ऐसा करना आवश्यक है। इस प्रावधान के पीछे का उद्देश्य मनुष्यों की गरिमा को बढ़ाना और उनके साथ संपत्ति के रूप में व्यवहार किए जाने से रोकना है। अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम (इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट), 1956 को संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुरूप बनाया गया है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1982) के प्रसिद्ध फैसले में कहा कि जबरन श्रम विभिन्न तरीकों से उत्पन्न हो सकता है- यह शारीरिक बल, रहने की खराब स्थिति, भूख, गरीबी हो सकती है।  

अनुच्छेद 32 – मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के उपचार

अनुच्छेद 32 को भारतीय संविधान का हृदय और आत्मा कहा गया है। यह डॉ. बी.आर.अंबेडकर थे जिन्होंने अनुच्छेद 32 को संविधान के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान के रूप में उल्लेख किया था। संवैधानिक बहसों में से एक के दौरान, डॉ. बी.आर.अम्बेडकर ने कहा, “अगर मुझे इस संविधान में किसी विशेष अनुच्छेद को सबसे महत्वपूर्ण नाम देने के लिए कहा जाए – एक अनुच्छेद जिसके बिना यह संविधान शून्य होगा – मैं किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता सिवाय इसके क्योंकि यह संविधान की आत्मा है और इसका हृदय है।” इस प्रावधान के प्रमुख महत्व का कारण यह है कि यह रिट के माध्यम से संवैधानिक उपचार के अधिकार की गारंटी देता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पास रिट प्रदान करने का अधिकार है ताकि प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा प्रदान की जा सके।

संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत पांच प्रकार के रिट प्रदान किए जाते हैं – बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), परमादेश (मैंडेमस), प्रतिषेध (प्रोहिबीशन), उत्प्रेषण (सर्शियोरारी) और अधिकार पृच्छा (क्यो वारंटो)। नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इनमें से किसी भी रिट को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। संविधान द्वारा प्रदान किए गए कर्तव्यों का पालन करते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय को क्वी विव माना जाता है, जो एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ सतर्क रहना है।

प्रवासी भलाई संगठन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2014) के मामले में अभद्र भाषा का मुद्दा उठाया गया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय से कुछ निर्देश प्राप्त करने की मांग की थी। हालांकि, न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 32 के तहत शक्ति न्यायालय की विधायी शक्तियों के बराबर नहीं है। इन शक्तियों का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है जहां किसी मामले पर कोई कानून मौजूद नहीं है। अभद्र भाषा के इस्तेमाल पर रोक लगाने के संबंध में पर्याप्त क़ानून मोजूद हैं।

सुभाष पोपटलाल दवे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2013) के मामले में, यह माना गया था कि अनुच्छेद 32 के तहत एक अधिकार को लागू करने के लिए, पीड़ित व्यक्ति को पहले कानून के उचित संचालन और कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) की अनुमति देनी चाहिए और उपलब्ध उपायों को समाप्त करना चाहिए। अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 को अंतिम उपाय के रूप में माना जाना चाहिए क्योंकि इन अधिकारों का कम से कम उपयोग किया जाना चाहिए और उन परिस्थितियों में किया जाना चाहिए जहां कोई अन्य प्रभावकारी उपाय उपलब्ध नहीं है।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत 

अनुच्छेद 38 :- सामाजिक व्यवस्था और कल्याण को बढ़ावा देना

अनुच्छेद 38 में प्रावधान है कि “राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को प्रभावी ढंग से सुरक्षित और संरक्षित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा जिसमें न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित (इनफॉर्म) करेगा”। 44 वें संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 38 के दायरे को बढ़ा दिया। इसमें खंड (2) को शामिल किया गया, जो यह प्रदान करता है कि राज्य आय में असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा, और स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को खत्म करने का प्रयास करेगा। इन असमानताओं को न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले या विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों के बीच समाप्त किया जाना है।

हालांकि यह प्रावधान कानून की अदालत में लागू करने योग्य नहीं है, फिर भी यह देश के शासन में बहुत महत्व रखता है। एयर इंडिया स्टेच्यूटररी कॉर्पोरेशन बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन (1997) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सामाजिक न्याय की अवधारणा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इसमें प्रत्येक नागरिक के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक विविध सिद्धांत शामिल हैं। अनुच्छेद 38 राज्य को कानूनों के माध्यम से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और इसे देश के शासन में शामिल करने का कर्तव्य प्रदान करता है।

अनुच्छेद 41 – काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता का अधिकार

अनुच्छेद 41 में प्रावधान है कि, “राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अक्षमता तथा अन्य अर्नह (अनडिजर्व्ड) अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।” यह प्रदान करता है कि राज्य काम के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और लोक सहायता के अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। हालांकि, ये सभी अधिकार राज्य की आर्थिक बाधाओं के अधीन होंगे, और इसलिए, कोई न्यायालय राज्य को इस बारे में अनिवार्य प्रावधान करने का निर्देश नहीं दे सकता है। एम.सी. मेहता बनाम स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु (1996) के मामले में न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 41 की व्याख्या इस तरह से की जाएगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रत्येक बच्चे को स्वस्थ वातावरण में विकसित होने का अवसर मिले। उन्नी कृष्णन बनाम स्टेट ऑफ़ आंध्र प्रदेश (1993) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, लेकिन काम करने का अधिकार राज्य की आर्थिक सीमाओं के अधीन होगा। राज्य काम की न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियों को सुनिश्चित करेगा।

अनुच्छेद 42 – काम की दशा और मातृत्व (मेटरनिटी) लाभ

संविधान के अनुच्छेद 42 में कहा गया है कि राज्य काम की न्यायसंगत और मानवीय स्थिति सुनिश्चित करेगा और मातृत्व लाभ के लिए योजनाएं प्रदान करेगा। मातृत्व लाभ के लिए अक्सर न्यायालय के समक्ष सवाल उठाया जाता है कि क्या अस्थायी कर्मचारियों को मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के साथ-साथ भारत के संविधान के अनुच्छेद 42 के तहत मातृत्व लाभ मिलेगा। इस पहलू पर सबसे प्रसिद्ध निर्णय दिल्ली नगर निगम बनाम महिला श्रमिक (मस्टर रोल) (2000) है ।

इस मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की राय थी कि राज्य प्रत्येक नियोजित महिला के मातृत्व लाभों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, क्योंकि अधिकांश महिलाएं गरीबी के कारण काम करने के लिए मजबूर हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि राज्य को एक नियमित कर्मचारी और एक अस्थायी कर्मचारी के बीच अंतर करना चाहिए, क्योंकि अस्थायी कर्मचारियों के लाभों से इनकार करना प्रतिकूल होगा जो उनकी गर्भावस्था के दौरान उनकी मदद करेगा। न्यायमूर्ति एस. सगीर अहमद के शब्दों में, “दैनिक वेतन के आधार पर नियोजित श्रमिकों या अस्थायी श्रमिकों को इस अधिनियम के लाभ से वंचित करने का कोई औचित्य नहीं है।”

अनुच्छेद 46 – आरक्षित वर्गों के हितों की अभिवृद्धि (प्रमोशन)

अनुच्छेद 46 में प्रावधान है कि राज्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाने के लिए उनके शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा। इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पिछड़े वर्गों जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को दूसरों के साथ सामना करने के लिए पर्याप्त अवसर मिले और उन्हें बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर प्राप्त हों। अनुच्छेद 46 को अक्सर अनुच्छेद 16 के साथ पढ़ा जाता है जबकि संसद सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार से संबंधित कानून बनाती है, और समाज के कमजोर वर्ग को आरक्षण प्रदान किया जाता है।

शांतिस्टार बिल्डर्स बनाम नारायण खिमालाल तोतेम (1990) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को “समाज के कमजोर वर्ग” की अभिव्यक्ति को परिभाषित करने के लिए उपयुक्त दिशानिर्देश निर्धारित करने का निर्देश दिया था। विश्वास अन्ना सावंत बनाम ग्रेटर बॉम्बे नगर निगम (1994) के मामले में, पिछड़े वर्ग से संबंधित एक कर्मचारी को अनुच्छेद 16 के साथ अनुच्छेद 46 के तहत पदोन्नति प्राप्त करने का मौलिक अधिकार था। अभिवृद्धि से वंचित होने पर, कर्मचारी, जो एक पिछड़े वर्ग से संबंधित था ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। यह माना गया कि समान पद पर कार्य कर रहे किसी कर्मचारी को अभिवृद्धि से वंचित नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 47 – पोषण स्तर आदि को बढ़ाने का राज्य का कर्तव्य

संविधान के अनुच्छेद 47 में प्रावधान है कि राज्य को पोषण के स्तर, जीवन स्तर को बढ़ाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने की आवश्यकता है। यह भी प्रावधान करता है कि राज्य चिकित्सा उपयोग को छोड़कर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दवाओं और पेय पदार्थों के उपयोग और खपत को प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा। डाबर इंडिया लिमिटेड बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश (1988) के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य के पास आबकारी (एक्साइज) अधिनियम के तहत उच्च प्रतिशत एल्कोहल युक्त औषधीय के कब्जे या खपत को विनियमित करने की शक्ति है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 47 यह संकेत नहीं देता है कि एल्कोहल युक्त औषधीय तैयारी को निषेध के प्रवर्तन से बाहर रखा जाना चाहिए, भले ही इसमें अल्कोहल का प्रतिशत अधिक हो। इस अभिव्यक्ति को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के आलोक में नशीला पेय और नशीली दवाओं के निषेध के बारे में बताया जाना चाहिए जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।

स्टेट ऑफ बॉम्बे बनाम एफएन बलसारा (1951) के मामले में, बॉम्बे निषेध अधिनियम, 1949 की वैधता को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। अधिनियम ने बॉम्बे राज्य में शराब के निषेध के लिए प्रावधान प्रदान किए थे। न्यायालय ने माना कि राज्य विधान सभा इस तरह के कानून को लागू करने के लिए सक्षम थी क्योंकि यह संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि (एंट्री) 6 और 8 के तहत प्रदान की गई है, जिसे अनुच्छेद 47 के साथ पढ़ा गया है।

कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव)

अनुच्छेद 52 और 53 – भारत के राष्ट्रपति

संविधान के अनुच्छेद 52 में कहा गया है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 वह प्रावधान है जो भारत के राष्ट्रपति को शक्तियां प्रदान करता है। अनुच्छेद 53(1) में प्रावधान है कि “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और इस संविधान के अनुसार इन शक्तियों का प्रयोग उनके द्वारा या तो सीधे या उनके अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) अधिकारियों के माध्यम से किया जाएगा”। शब्द “कार्यपालिका शक्ति” को संविधान के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। “कार्यपालिका शक्तियां क्या हैं?” के प्रश्न का उत्तर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम जवाया कपूर बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब (1955) में प्रदान किया गया था, जहां यह माना गया था कि यह (कार्यपालिका शक्तियां) विधायिका और न्यायपालिका के बाद सरकारी कार्यों के अवशेष (रेसिड्यू) को दर्शाता है। इसमें नीतियों का निर्धारण और निष्पादन शामिल है। कानून और व्यवस्था बनाए रखना, सामाजिक और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देना कार्यकारी शक्तियों का एक हिस्सा है।

अनुच्छेद 72 :- क्षमा देने की राष्ट्रपति की शक्ति

अनुच्छेद 72 भारत के राष्ट्रपति को सबसे महत्वपूर्ण शक्तियों में से एक प्रदान करता है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति के पास निम्नलिखित में दोषी व्यक्तियों को क्षमा देने की शक्ति होगी:

  1. उन सब मामलो मे जहा दंड सेना न्यायालय द्वारा दिया गया है;
  2. किसी भी कानून के तहत जिसमें कार्यकारी शक्ति का विस्तार होता है; और 
  3. उन सभी मामलों में जहा दंड, मृत्युदंड है।

देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर बनाम स्टेट (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2013) के मामले में , माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा, अनुच्छेद 72 के तहत भारत के राष्ट्रपति के अधीन निहित और अनुच्छेद 161 के तहत किसी राज्य के राज्यपाल के अधीन निहित क्षमा देने की शक्ति की प्रकृति और दायरे की व्याख्या करना था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शक्ति अनुग्रह (ग्रेस) या विशेषाधिकार का मामला नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रपति और राज्यपाल को व्यापक जनहित और लोगों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए प्रदान किया गया एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है।

अनुच्छेद 74 और 75 – मंत्रि परिषद (काउंसिल ऑफ मिनिस्टर) और संबंधित प्रावधान

संविधान के अनुच्छेद 74 में यह प्रावधान है कि भारत के राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी, जिसे भारत के प्रधान मंत्री की सलाह पर स्वयं राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 75 के तहत नियुक्त किया जाएगा। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद द्वारा उन्हें दी गई सलाह का पालन करने के लिए बाध्य होंगे। संविधान (40वां संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा जोड़े गए अनुच्छेद 74(1) के परंतुक (प्रोविसो) में यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति, परिषद को उनकी सलाह पर पुनर्विचार (रीकंसीडर) करने को कह सकते है, और पुनर्विचार के बाद वह सलाह को मानने के लिए बाध्य होंगे। इसके अलावा, परंतुक के खंड (2) में यह प्रावधान है कि परिषद द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह से संबंधित प्रश्नों की किसी भी अदालत में पूछताछ नहीं की जाएगी।

अनुच्छेद 75(1A) में प्रावधान है कि प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद की संख्या लोकसभा के कुल सदस्यों के 15% से अधिक नहीं होगी। लोकसभा में चुने जाने वाले सदस्यों की कुल संख्या 550 है। इस प्रकार, मंत्रिपरिषद की संख्या, प्रधान मंत्री सहित 72 सदस्यों से अधिक नहीं होगी।

यह प्रधान मंत्री और मंत्रिपरिषद हैं जो वास्तव में सत्ता में हैं, क्योंकि भारत के राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह को अस्वीकार नहीं कर सकते, जैसा कि ऊपर कहा गया है। यहां तक ​​कि अदालतों को भी इस तरह की सलाह पर सवाल उठाने की कोई शक्ति नहीं है और इसलिए भारत का शासन संसद के माध्यम से काम करने वाला एक मंत्री स्वरूप का है।

न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी)

अनुच्छेद 124 :- सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना

संविधान के अनुच्छेद 124 में यह प्रावधान है कि भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा जिसमें 33 अन्य न्यायाधीशों के साथ भारत के एक मुख्य न्यायाधीश शामिल होगें। प्रारंभ में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या 7 थी। हालांकि, 2019 में इसे बढ़ाकर 33 कर दिया गया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश का चयन न्यायाधीशों की वरिष्ठता (सिनियोरिट) के आधार पर किया जाता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और महाभियोग (इंपीचमेंट) की प्रक्रिया के बिना उन्हें हटाया नहीं जा सकता है। 

अनुच्छेद 136 :- विशेष अनुमति याचिका

ऐसे मामलों में जिनमें सामान्य सार्वजनिक महत्व का प्रश्न शामिल है, जो बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित कर सकता है, माननीय सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 136 के अनुसार अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिकशन) के तहत ऐसे मामलों पर विचार कर सकता है। इन अपीलों को विशेष अनुमति याचिका (स्पेशल लीव पिटीशन) कहा जाता है। किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा पारित किसी भी निर्णय, डिक्री, आदेश या सजा के खिलाफ विशेष अनुमति के लिए याचिका दायर की जा सकती है।

रीना सुरेश अलहत बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र (2017) के मामले में, यह माना गया था कि सर्वोच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति को महत्वपूर्ण और जरूरी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, और जहां पक्षों के लिए कोई वैकल्पिक उपाय उपलब्ध है, ऐसे मामलों से न्यायालय पर बोझ बढ़ जाता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका दायर करने से पहले मामलों की बढ़ती लंबितता (पेंडेंसी) और अपेक्षाकृत (रिलेटिवली) मामूली कानूनी नुकसानो के साथ वैकल्पिक उपचार की उपलब्धता को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

अनुच्छेद 142 :- सर्वोच्च न्यायालय की डिक्री और आदेशों का प्रवर्तन

अनुच्छेद 142(1) में यह प्रावधान है कि, “सर्वोच्च न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद‌ द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा।” यह सर्वोच्च न्यायालय को उन मामलों में निर्देश जारी करने का अधिकार देता है जहां ऐसे निर्देश आवश्यक है। जब तक विधायिका रिक्त स्थान भरने के लिए कदम नहीं उठाती है या कार्यपालिका अपनी भूमिकाओं का निर्वहन नहीं करती है, तब तक इसको भरने के लिए आवश्यक निर्देश जारी करके इस शक्ति को मान्यता दी जाती है और इसका प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार, अनुच्छेद 142 के साथ अनुच्छेद 32 को पढ़ने पर, इसका उपयोग माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन मामलों में किया जाता है जहां यह लगता है कि हस्तक्षेप करना आवश्यक है। ये मामले पर्यावरण, इतिहास और धर्म से जुड़े जटिल और महत्वपूर्ण मामले हैं और मौजूदा कानून मौजूदा परिदृश्य (सिनेरियो) के लिए अपर्याप्त थे।

भोपाल गैस ट्रेजेडी मामले (1989) में अनुच्छेद 142 लागू किया गया था, जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भोपाल गैस ट्रेजेडी की काली रात के दौरान प्रभावित हजारों लोगों को राहत प्रदान की थी। उक्त फैसले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ितों को 470 मिलियन डॉलर का मुआवजा देते हुए कहा कि “पूर्ण न्याय” करने के लिए, यह संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को भी उलट सकता है। स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु बनाम के बालू (2017) के मामले में , न्यायालय ने राज्य के साथ-साथ राष्ट्रीय राजमार्गों से 500 मीटर के क्षेत्र में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे।

अनुच्छेद 225 :- उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र

अनुच्छेद 225 उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र प्रदान करता है, जो संविधान के अनुच्छेद 214 के तहत स्थापित हैं। संविधान के प्रारंभ के समय प्रत्येक उच्च न्यायालय अपने स्वयं के नियमों द्वारा एकल-न्यायाधीश या खंडपीठ के आधार पर मूल और अपीलीय दोनों प्रकार के अपने अधिकार क्षेत्र के लिए प्रावधान कर सकता था। पीठ को तय करने की शक्ति प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास है।

आर. रथिनम बनाम स्टेट (2000) में, विभिन्न उच्च न्यायालयों में अभ्यास करने वाले 75 अधिवक्ताओं के एक संघ ने कुछ व्यक्तियों को दी गई विभिन्न जमानतों को रद्द करने के लिए मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को संबोधित किया और उसी के संबंध में दो याचिकाएं दायर कीं। मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाओं को एक खंडपीठ को निर्देशित किया, जिसमें कहा गया था कि याचिकाएं संविधान के अनुच्छेद 225 के तहत लागू करने योग्य नहीं थीं। अपील पर, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाओं को कानून के तहत बनाए रखने योग्य न होने का कारण बताकर उनकी जांच करने से इनकार करना अनुचित है। आगे यह माना गया था कि सभी संबंधितों को कानूनी सिद्धांतों की याद दिलाना आवश्यक है कि मामलों की सुनवाई के लिए पीठ गठित करने का विशेषाधिकार मुख्य न्यायाधीश के पास है।

अनुच्छेद 226 :- उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति

अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को रिट याचिकाएं जारी करने की शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्तियाँ अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में अधिक हैं, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी कर सकता है है, जबकि उच्च न्यायालय किसी भी कानून से संबंधित किसी भी मामले में रिट जारी कर सकता है। 

ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) के ऐतिहासिक फैसले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय से यह सवाल उठाया गया था कि क्या कोई व्यक्ति आपातकाल की स्थिति में अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है, जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारो को निलंबित कर दिया जाता है। यह माना गया था कि आपातकाल की स्थिति में किसी नागरिक का कोई अधिकार नहीं है और इसलिए अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय से संपर्क नहीं किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय के समान, रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति एक विवेकाधीन शक्ति है और जब तक कोई वैकल्पिक उपाय उपलब्ध न हो, तब तक इसे जारी नहीं किया जा सकता है। फर्म हर प्रसाद श्योदत्त राय बनाम एस.टी.ओ. (1958) में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक रिट जारी करने से इनकार कर दिया जहां याचिकाकर्ता के पास अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के तहत राज्य कर अधिकारी के खिलाफ एक वैकल्पिक उपचार था।

आपातकाल से संबंधित प्रावधान

अनुच्छेद 352 – राष्ट्रीय आपातकाल

संविधान का अनुच्छेद 352, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करने की शर्तों से संबंधित है। भारत के राष्ट्रपति को ऐसी स्थिति में आपातकाल की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) करने का अधिकार है जिसमें राष्ट्र या उसके किसी हिस्से की सुरक्षा युद्ध, बाहरी आक्रमण (एग्रेशन) या सशस्त्र विद्रोह (आर्म्ड रिबेलियन) से खतरे में है। इस तरह के खतरे के तहत पूरे भारत या उसके किसी भी क्षेत्र में इस तरह की उद्घोषणा की जा सकती है। हालांकि, राष्ट्रपति तब तक आपातकाल की उद्घोषणा नहीं करेंगे जब तक कि उन्हें भारत के प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल (कैबिनेट) द्वारा लिखित संचार प्राप्त न हो, जैसा कि अनुच्छेद 352 (3) के तहत प्रदान किया गया है। इसके अलावा, प्रावधान का खंड (4) एक महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) आपातकाल को रद्द करने वाली उद्घोषणा के अलावा किसी भी उद्घोषणा को अनिवार्य करता है। यदि संसद के दोनों सदन इस उद्घोषणा का अनुमोदन नहीं करते हैं, तो यह समाप्त हो जाएगी।

आपातकालीन प्रावधानों में तीन बार संशोधन किया गया है। संविधान (38वां संशोधन) अधिनियम, 1975 द्वारा, भारत के राष्ट्रपति को पहले से मौजूद किसी भी पूर्व उद्घोषणा के बावजूद, प्रावधान के तहत प्रदान किए गए प्रत्येक शीर्ष के तहत आपातकाल की घोषणा करने की शक्ति प्रदान की गई थी। इसके अतिरिक्त, संशोधन ने न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के दायरे से आपातकाल की घोषणा करने के राष्ट्रपति के निर्णय को बाहर कर दिया, जिसे बाद में संविधान (44 वें संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा हटा दिया गया था।

44वें संशोधन के माध्यम से किए गए अन्य परिवर्तन निम्नानुसार सूचीबद्ध हैं:

  • संघ परिषद द्वारा लिखित संचार प्राप्त करने के बाद ही राष्ट्रपति द्वारा उद्घोषणा की जा सकती है;
  • संसद के सदनों द्वारा अनिवार्य अनुमोदन;
  • दोनों सदनों द्वारा ऐसा अनुमोदन एक विशेष संकल्प (रेजोल्यूशन) के माध्यम से होगा;
  • उद्घोषणा को छह महीने के बाद समाप्त किया जाता है जब तक कि उसे दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है;
  • शब्द “आंतरिक अशांति” को “सशस्त्र विद्रोह” द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया गया था;
  • आपातकाल की उद्घोषणा के दौरान अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है;
  • अनुच्छेद 19 को केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण आपातकाल की उद्घोषणा की स्थितियों में निलंबित किया जाएगा और सशस्त्र विद्रोह के कारण अगर उद्घोषणा हुई है तो यह अप्रभावित रहेगा।

सर्वानंद सोनोवाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2005) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय को पहली बार “आक्रमण” शब्द की व्याख्या करने का अवसर मिला। इस मामले में, अवैध प्रवासियों (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम, 1983 की संवैधानिक वैधता पर अनुच्छेद 14 के उल्लंघन के आधार पर सवाल उठाया गया था। यह अधिनियम केवल असम राज्य पर लागू था। अधिनियम का उद्देश्य बांग्लादेश के अप्रवासियों को निर्धारित करना और उन्हें हिरासत में लेना था। न्यायालय ने अधिनियम की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि “आक्रमण” शब्द का इस्तेमाल संविधान निर्माताओं द्वारा जानबूझकर किया गया था क्योंकि इसका मतलब सिर्फ एक युद्ध से ज्यादा था। असम राज्य में अवैध अप्रवासी भारत की सुरक्षा के लिए खतरा थे और इसलिए यह आक्रमण था।

भारत में अब तक तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल उद्घोषित किया जा चुका है। अनुच्छेद 352 के तहत पहला राष्ट्रीय आपातकाल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान घोषित किया गया था। दूसरा राष्ट्रीय आपातकाल 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के इर्द-गिर्द घूम रहे भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण घोषित किया गया था। तीसरा राष्ट्रीय आपातकाल 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा “आंतरिक अशांति” के कारण घोषित किया गया था। इसे अभी भी भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे काला चरण माना जाता है।

अनुच्छेद 356 – राज्य आपातकाल

संविधान का अनुच्छेद 356 किसी राज्य में आपातकाल की व्यवस्था का प्रावधान करता है। राष्ट्रपति भारत के किसी भी राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं यदि वह संतुष्ट नहीं है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार काम कर रही है। ऐसी राय राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद ही बनाई जाएगी। एक बार राष्ट्रपति द्वारा ऐसी उद्घोषणा किए जाने के बाद, राज्य सरकार के कार्यों को भारत के राष्ट्रपति को स्थानांतरित कर दिया जाएगा। इसके अलावा, विधान सभा के कार्यों को भारत की संसद द्वारा ले लिया जाएगा। इसलिए, किसी राज्य में आपातकाल की घोषणा को अक्सर राष्ट्रपति शासन के रूप में जाना जाता है।

यह ध्यान रखना उचित है कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना अंतिम उपाय होगा। उन स्थितियों में जहां किसी राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं है, केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत प्रदान किए गए प्रावधान के अनुसार शांति और सद्भाव सुनिश्चित करने के साथ-साथ यह जांच कर सकती है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य कर रही है या नहीं। 

अनुच्छेद 360 – वित्तीय आपातकाल

संविधान के अनुच्छेद 360 में यह प्रावधान है कि जहां राष्ट्रपति भारत या उसके किसी हिस्से की वित्तीय स्थिति या क्रेडिट से असंतुष्ट है, वह वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा करेंगे। पूर्व में प्रावधान था कि राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा और किसी भी न्यायालय में इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। हालांकि, इस प्रावधान में 44वें संशोधन द्वारा संशोधन किया गया था और इसे न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाया गया था। राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा के समान, एक वित्तीय आपातकाल संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा और दोनों सदनों में एक विशेष बहुमत (स्पेशल मेजॉरिटी) द्वारा इसे अनुमोदित किया जाना चाहिए।

एक वित्तीय आपातकाल का प्रभाव किसी भी राज्य में प्रभावी होने वाले किसी भी आदेश को पारित करने के लिए यूनियन ऑफ इंडिया के कार्यपालिका कार्यों का विस्तार करेगा। इस तरह के आदेशों में किसी राज्य या संघ की सेवा करने वाले व्यक्तियों के वेतन में कमी के साथ-साथ संसद के सदनों द्वारा अनुमोदित होने के बाद राष्ट्रपति को सभी धन विधेयकों (मनी बिल) पर विचार करने के प्रावधान शामिल हो सकते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि भारत में कभी भी वित्तीय आपातकाल की घोषणा नहीं की गई है।

अन्य महत्वपूर्ण अनुच्छेद

अनुच्छेद 51A – मूल कर्तव्य

मौलिक कर्तव्य 1976 तक संविधान का हिस्सा नहीं थे। संविधान के भाग IVA और अनुच्छेद 51A के तहत नागरिकों के मूल कर्तव्यों के प्रावधान को संविधान (42 वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से शामिल किया गया था। संशोधन स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के तहत लाया गया था। समिति की मूल रिपोर्ट में किसी भी मूल कर्तव्य का उल्लेख नहीं था। हालांकि, जब रिपोर्ट अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (ए.आई.सी.सी.) के सामने पेश की गई, तो यह डॉ. कर्ण सिंह ही थे जिन्होंने नागरिकों के कुछ मूल कर्तव्यों को बताया। ए.आई.सी.सी. ने तब रिपोर्ट में संशोधन का सुझाव दिया और मूल कर्तव्यों ने संविधान का मार्ग प्रशस्त किया।

भारत के नागरिकों के मूल कर्तव्य इस प्रकार हैं:

  • संविधान का पालन करना और राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना;
  • स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों को संजोना और उनका पालन करना;
  • भारत की संप्रभुता (सोवेरेंटी), एकता और अखंडता (इंटीग्रिटी) को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना;
  • देश की रक्षा करना और ऐसा करने के लिए बुलाए जाने पर राष्ट्रीय सेवा प्रदान करना;
  • भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना, और महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करना;
  • हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व दना और संरक्षित करना;
  • वनों, झीलों, नदियों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना, और जीवित प्राणियों के प्रति दया करना;
  • वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद (ह्यूमनिज्म) और जांच और सुधार की भावना का विकास करना;
  • सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा से दूर रहना;
  • राष्ट्र की उपलब्धि के लिए प्रयास करना;
  • अपने बच्चे या, जैसा भी मामला हो, छह और चौदह वर्ष की आयु के बीच के बच्चो को शिक्षा के अवसर प्रदान करना।

भारत के संविधान के तहत मूल कर्तव्यों का उद्देश्य राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करना है। मूल कर्तव्यों को शामिल करने से पहले भी, न्यायालयों की राय थी कि संविधान मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के साथ विभिन्न कर्तव्यों को प्रदान करता है। चंद्र भवन बोर्डिंग एंड लॉजिंग बनाम स्टेट ऑफ़ मैसूर (1969) में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के भाग III और IV प्रकृति में मौलिक हैं, इसलिए यह सोचना भयावह होगा कि यह नागरिकों को कुछ कर्तव्यों के साथ उपकृत (ओब्लाइज) नहीं करता है। भाग IV विधायकों को नागरिकों पर कुछ कर्तव्य लागू करने में सक्षम बनाता है। श्याम नारायण चौकसे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2017) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान के प्रति किसी भी प्रकार के अनादर से बचने के निर्देश जारी किए थे।

अनुच्छेद 300A – संपत्ति का अधिकार

संपत्ति का अधिकार संविधान के अध्याय III के तहत मौलिक अधिकारों के शीर्ष के तहत अनुच्छेद 19 (1) (f) के तहत प्रदान किया गया था। इसने संपत्ति के अधिग्रहण, धारण और निपटान का अधिकार प्रदान किया था। इसे संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 के माध्यम से निरस्त कर दिया गया और इसे अनुच्छेद 300A में स्थानांतरित कर दिया गया था। बदले गए प्रावधान में कहा गया है कि “कानून के अधिकार के बिना किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा”। इसका मतलब है कि राज्य द्वारा उचित प्रक्रिया और कानूनों के माध्यम से अधिकार छीना जा सकता है।

अनुच्छेद 368 – संविधान का संशोधन

संविधान का अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की प्रक्रिया प्रदान करता है। प्रावधान का महत्व कई गुना है। एक युग में दुनिया के सबसे बड़े संविधान का निर्माण और दूसरे युग में बिना किसी बदलाव के इसका कार्यान्वयन बिलकुल असंभव है। इस तथ्य को प्रगतिशील संविधान सभा ने महसूस किया था। प्रक्रिया, संविधान में संशोधन की श्रेणियां प्रदान करती है। श्रेणियों में साधारण बहुमत द्वारा संशोधन, विशेष बहुमत द्वारा संशोधन और अनुसमर्थन (रेटिफिकेशन) के साथ विशेष बहुमत द्वारा संशोधन शामिल हैं।

संविधान के जिन प्रावधानों के लिए साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है उनमें अनुच्छेद 4, अनुच्छेद 169(3) और अनुच्छेद 239-A जैसे प्रावधान शामिल हैं। ये प्रावधान अनुच्छेद 368 के तहत स्थापित प्रक्रिया में शामिल नहीं हैं। अनुच्छेद 368 के तहत प्रदान किए गए प्रावधानों को केवल आधे से अधिक राज्यों द्वारा अनुसमर्थन के साथ विशेष बहुमत के माध्यम से संशोधित किया जाता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

कोई भी प्रावधान जो उपर्युक्त प्रावधान में शामिल नहीं हैं और जिनके लिए साधारण बहुमत की आवश्यकता नहीं होती है, उन्हें केवल विशेष बहुमत के माध्यम से संशोधित किया जाता है। यह ध्यान रखना उचित है कि अनुच्छेद 13 संविधान के अनुच्छेद 368 (3) के तहत प्रदान किए गए संशोधन के दायरे से बाहर है।

केशवानंद भारती के मामले में, मूल संरचना सिद्धांत (बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन) को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि संविधान की मूल संरचना अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन के दायरे से बाहर होगी। भारतीय संविधान की मूल संरचना में निम्नलिखित शामिल हैं :

  • संविधान की सर्वोच्चता।
  • सरकार के गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक रूप।
  • संविधान का धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) चरित्र।
  • शक्ति का विभाजन।
  • संविधान का संघीय (फेडरल) चरित्र।
  • राष्ट्र की एकता और अखंडता।
  • संप्रभुता।
  • हमारी राजनीति का लोकतांत्रिक चरित्र। 
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आवश्यक विशेषताएं जो नागरिकों के लिए सुरक्षित हैं।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान भारत में सर्वोच्च कानून है और उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि यह सर्वोच्च कानून भारत में कानून का शासन कैसे स्थापित करता है। यह व्यक्तियों को अधिकार प्रदान करता है और उन्हें कुछ कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य भी करता है। रिट न्यायालय में कुछ अधिकार मौलिक और लागू करने योग्य होते हैं। अंत में, यह लेख लेखक की दृष्टि में संविधान के कुछ सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेदों को उजागर करने का एक प्रयास करता है; हालांकि, संविधान में हर प्रावधान का अपना महत्व है।

संदर्भ

  • Mahendra Pal Singh, V.N. Shukla’s Constitution of India (EBC, 13th ed. 2017)
  • Constitution of India (EBC, 47th ed. 2021)
  • M.P. Jain, Indian Constitutional Law (LexisNexis, 8th ed. 2017)
  • Mamta Rao, Constitutional Law (EBC, 2nd ed. 2021)

 

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