भारतीय संविधान का 91वां संशोधन

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Constitution of India
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यह लेख वकील Astitva Kumar ने लिखा है। यह लेख 2003 के संविधान (91वे संशोधन) अधिनियम के व्यापक शोध (रिसर्च) और विश्लेषण का परिणाम है, जिसमें लेखक हमारे देश में दलबदल कानूनों (डिफेक्शन लॉ) को रेखांकित करने का भी प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

संविधान में 91वां संशोधन 7 जुलाई 2004 को लागू हुआ था। संशोधन के अनुसार, केंद्र और राज्यों में मंत्रिस्तरीय परिषदों (मिनिस्टीरियल काउंसिल) की संख्या लोकसभा या राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या के 15% से अधिक नहीं हो सकती है।

देश के दलबदल दिशानिर्देशों के लिए नेताओं की पूर्ण अवहेलना के कारण, हाल के वर्षों में दलबदल कानून चिंता का एक प्रमुख स्रोत बन गया है। देश की आजादी के बाद से भारत में दलबदल हमेशा एक विवादास्पद विषय रहा है।

मार्च 2020 में मध्य प्रदेश सरकार के संकट के उदाहरण पर विचार करें, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया और विधान सभा के 22 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था, जिससे कांग्रेस फ्लोर टेस्ट हार गई, और भाजपा, जिसके पास सबसे अधिक सीटें थीं, सत्ता में आई और शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया था।

संविधान (91वां संशोधन) अधिनियम, 2003 का विस्तृत विश्लेषण

संविधान (91वां संशोधन) विधेयक प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व वाली एक समिति द्वारा प्रस्तावित किया गया था, जिन्होंने नोट किया कि अनुसूची 10 के पैराग्राफ तीन में वर्णित विभाजन की अनुमति देकर दिए गए अपवाद का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप कई राजनीतिक दलों में कई विभाजन हुए है। इसके अलावा, समिति ने पाया कि व्यक्तिगत लाभ के वादे ने दलबदल को प्रभावित किया और इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक खरीद-फरोख्त (हॉर्स ट्रेडिंग) हुई है। लोकसभा ने 16 दिसंबर, 2003 को विधेयक पारित किया, और इसी तरह, राज्य सभा ने 18 दिसंबर, 2003 को विधेयक पारित किया। 1 जनवरी 2004 को इसे राष्ट्रपति की मंजूरी प्राप्त हुई और संविधान (91वां संशोधन) अधिनियम, 2003 को 2 जनवरी 2004 को भारतीय राजपत्र (गैजेट) में अधिसूचित (नोटिफाई) किया गया था।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 और अनुच्छेद 164 में दो अतिरिक्त खंड (क्लॉज) (1-A) और (1-B) शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था। नया खंड (1-A) केंद्र और राज्य मंत्रालयों की संख्या को सीमित करता है। नए खंड (1-A) के अनुसार, प्रधान मंत्री सहित केंद्रीय परिषद में कुल मंत्रियों की संख्या लोकसभा के कुल सदस्यों के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए।

अनुच्छेद 75 खंड (1-B) में प्रावधान है कि संसद के किसी भी सदन का सदस्य जो 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ के तहत दलबदल के कारण उस सदन में सदस्यता के लिए अयोग्य है, वह भी संविधान के अनुच्छेद 75 के खंड (1) और 164 के तहत मंत्री के रूप में नियुक्ति के लिए अयोग्य है, जब तक वह फिर से निर्वाचित नहीं हो जाता।

संशोधन ने 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 3 को हटा दिया, जिसमें यह प्रावधान था कि यदि एक तिहाई राजनीतिक दल, दलबदल करते हैं, तो वे दलबदल क़ानून के तहत अयोग्य नहीं होंगे।

उपरोक्त संशोधन ने संविधान के भाग XIX में एक नया अनुच्छेद 361-B भी जोड़ा जिसमें कहा गया था: “एक सदस्य जो 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 के तहत दलबदल के आधार पर सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित हुआ है, वह अपनी अयोग्यता के दौरान किसी भी पारिश्रमिक (रिम्यूनरेटिव) पद (निगमित निकायों (इनकॉरपोरेटेड बॉडी) के अध्यक्ष) को धारण करने के लिए अयोग्य घोषित होगा।

शब्द “पारिश्रमिक राजनीतिक पद” केंद्र या राज्य सरकार के तहत किसी भी स्थिति को संदर्भित करता है, जिसके लिए पारिश्रमिक का भुगतान भारत सरकार या किसी भी राज्य की सरकार के सार्वजनिक राजस्व (रिवेन्यू) से किया जाता है। इसमें कोई भी निकाय शामिल है, चाहे निगमित हो या नहीं, जो पूरी तरह से या काफी हद तक भारत सरकार या राज्य सरकार के स्वामित्व में है, जो ऐसे पद के लिए वेतन या पारिश्रमिक का भुगतान करता है।

91वें संशोधन अधिनियम के प्रमुख पहलू

मंत्रिपरिषद की संख्या को सीमित करने के लिए, दलबदलुओं को सार्वजनिक पद धारण करने से प्रतिबंधित करने और दलबदल विरोधी क़ानून को कड़ा करने के लिए, 91 वें संशोधन में निम्नलिखित प्रावधान शामिल थे:

  1. प्रधान मंत्री सहित केंद्रीय मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  2. संसद के किसी भी सदन का कोई भी सदस्य जो दलबदल के कारण मंत्री के रूप में सेवा करने से अयोग्य हो जाता है, उसे मंत्री के रूप में सेवा करने से रोक दिया जाता है।
  3. मुख्यमंत्री सहित राज्य परिषद में मंत्रियों की कुल संख्या विधान सभा की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं हो सकती है। मुख्यमंत्री सहित किसी राज्य के मंत्रियों की कुल संख्या 12 से कम नहीं होनी चाहिए।
  4. राज्य विधायिका के किसी भी सदन का सदस्य जो दलबदल के कारण मंत्री के रूप में सेवा करने से अयोग्य हो जाता है, उसे मंत्री के रूप में सेवा करने से मना किया जाता है।
  5. संसद के सदन या राज्य विधानमंडल के सदन के किसी भी सदस्य को किसी भी राजनीतिक दल से दलबदल के लिए अयोग्य घोषित किया जाता है, उसे किसी भी पारिश्रमिक राजनीतिक कार्यालय पर रहने से रोक दिया जाता है।
  • केंद्र सरकार या राज्य सरकार के अधीन कोई भी कार्यालय जहां ऐसे कार्यालय के लिए वेतन या पारिश्रमिक का भुगतान संबंधित सरकार के सार्वजनिक राजस्व से किया जाता है।

6. 10वीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी अधिनियम) में अयोग्यता खंड से छूट को समाप्त कर दिया गया है। इसका मतलब यह है कि विभाजन अब दलबदलुओं को ढाल नहीं देता हैं।

दलबदल विरोधी कानून का इतिहास

दलबदल को अंग्रेजी में डिफेक्शन कहा जाता है और इसे लैटिन शब्द “डिफेक्टियो” से लिया गया है। दलबदल को उस राजनीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी को छोड़ने या बदलने के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें वह पहले सदस्य था। निर्वाचित (इलेक्टेड) अधिकारियों का एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल में जाना दुनिया भर में लगभग सभी लोकतांत्रिक शासनों में प्रचलित है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र देश है, और यह दलबदल की समस्या से बचा हुआ नहीं है।

भारत में दलबदल का एक लंबा इतिहास रहा है, आजादी से पहले के समय में, जब राष्ट्रीय विधायिका के सदस्य श्याम लाल नेहरू ने कांग्रेस से ब्रिटिश भारत में निष्ठा स्थानांतरित (शिफ्ट) कर दी थी। एक और उल्लेखनीय उदाहरण वर्ष 1937 में आया जब उत्तर प्रदेश विधान सभा के एक सदस्य मुस्लिम लीग से अलग होकर कांग्रेस में शामिल हो गए थे।

आया राम गया राम (राम आ गया है, राम चला गया है) एक लोकप्रिय भारतीय राजनीतिक शब्द है जो राजनीतिक खरीद-फरोख्त को संदर्भित करता है।  हरियाणा के पटौदी विधानसभा क्षेत्र से विधान सभा के सदस्य गया लाल ने 1967 में इस शब्द को प्रयोग किया था। वह एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडे और जीते, फिर एक दिन में तीन बार अपनी राजनीतिक निष्ठा बदलते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) में शामिल हो गए। इस घटना के बाद भी, गया लाल, एक नियमित फ्लोर-क्रॉसर, ने पार्टी को बदल दिया और 1972 में अखिल भारतीय आर्य सभा, 1974 में चौधरी चरण सिंह के तहत भारतीय लोक दल सहित कई बैनरों के तहत कार्यालय के लिए खड़े हुए, और नाम, आया राम गया राम के लिए प्रेरणा बन गए। राजीव गांधी ने दल-बदल विरोधी विधेयक का प्रस्ताव रखा, जिसे दोनों सदनों ने भारी बहुमत से पारित किया और राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद 18 मार्च 1985 को लागू हुआ था।

1985 में संविधान में 52वें संशोधन द्वारा, दल-बदल विरोधी खंड को 10वीं अनुसूची के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था। कानून के प्रमुख लक्ष्य राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुकाबला करना था, जिसे देश में अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार का मुकाबला करने में एक महत्वपूर्ण पहला कदम माना जाता था।

पूर्व केंद्रीय सतर्कता (विजिलेंस) आयुक्त यू.सी. अग्रवाल के अनुसार, राजनीतिक क्षेत्र भ्रष्टाचार मुक्त होना चाहिए ताकि निचले स्तर के अन्य लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जा सके, राजनीति में स्थिरता लाकर लोकतंत्र को मजबूत किया जा सके, यह सुनिश्चित करे कि सरकार के विधायी कार्यक्रम एक दलबदल सांसद द्वारा खतरे में नहीं हैं, और संसद सदस्यों को उन पार्टियों के प्रति अधिक जिम्मेदार और वफादार बनाए जिनके साथ उन्होंने चुनाव के समय गठबंधन किया गया था। बहुत से लोगों को लगता है कि उनकी चुनावी सफलता के लिए उनकी पार्टी की संबद्धता (एफिलिएशन) महत्वपूर्ण है। इसके अधिनियमन के बाद, कुछ राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने कानून की खामियों का फायदा उठाया। इस बात के सबूत थे कि कानून राजनीतिक दलबदल को रोकने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहा और, वास्तव में, गतिविधियों को छूट देकर व्यापक दलबदल को वैध बना दिया, जिसे इसके निषेधों से “विभाजन” का लेबल दिया गया था। लोकसभा अध्यक्ष ने जनता दल से अलग हुए दलबदलू सदस्यों को स्थिति स्पष्ट करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। क़ानून का एक अन्य घटक जिसकी आलोचना की गई है, वह राजनीतिक दलबदल से जुड़े मामलों को देखते हुए अध्यक्ष की भागीदारी है। जब राजनीतिक दलों के विभिन्न गुटों को आधिकारिक दर्जा देने की बात आई, तो कई सदनों के अध्यक्षों से उनकी निष्पक्षता के बारे में सवाल किया गया। जिस पार्टी से उन्हें अध्यक्ष चुना गया था, उसके साथ उनके राजनीतिक अतीत के कारण, अध्यक्ष के गैर-पक्षपाती कर्तव्य पर सवाल उठाए गए हैं। जनता दल (एस) पर 1991 में कैबिनेट पदों पर दलबदल सदस्यों को बनाए रखने के लिए दलबदल विरोधी कानून की भावना को कम करने का आरोप लगाया गया था। बाद में, संसद के सभी विपक्षी सदस्यों ने भारत के राष्ट्रपति को एक हलफनामा प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने मंत्रियों को बर्खास्त करने का अनुरोध किया। अंत में, अध्यक्ष और सदन की गरिमा को बहाल करने के प्रयासों के जवाब में, प्रधान मंत्री ने दलबदलू सदस्यों को उनके मंत्री पद से मुक्त कर दिया। इसके तुरंत बाद, चव्हन समिति ने प्रस्ताव दिया कि एक सदस्य जो मौद्रिक लाभ या अन्य प्रकार के लालच के लिए पार्टियों को बदलता है, जैसे कि कार्यकारी पद का वादा, संसद से बर्खास्त कर दिया जाता है और उसे एक निश्चित अवधि के लिए चुनाव लड़ने से रोका जाता है। संसद के सदस्य और विधान सभा सदस्य अनुच्छेद 102(2) और 191 के तहत अयोग्य हैं। यदि विधायकों को 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित किया जाता है, तो उन्हें संविधान के इन प्रावधानों के तहत अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

दलबदल विरोधी कानून का महत्व

  1. यह विधायकों को दल बदलने से रोककर संसद और राज्य विधानसभाओं की स्थिरता में सुधार करता है।
  2. यह राजनीतिक भ्रष्टाचार को कम करता है, जो देश के अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार का मुकाबला करने में एक महत्वपूर्ण पहला कदम है।
  3. यह राजनीतिक स्थिरता स्थापित करके लोकतंत्र को मजबूत करता है और यह गारंटी देता है कि सरकार के विधायी कार्यक्रमों को एक दलबदल सदस्य द्वारा नुकसान नहीं पहुंचाया जाता है।
  4. यह संसद के सदस्यों को उन पार्टियों के प्रति अधिक जवाबदेह और वफादार बनाता है जिनके साथ वे अपने चुनाव के समय गठबंधन करते है, क्योंकि यह एक धारणा है कि कई लोग मानते हैं कि पार्टी की निष्ठा उनकी चुनावी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

दलबदल विरोधी कानून को लेकर चिंता

  1. दल-बदल विरोधी क़ानून अतीत में दलबदल को रोकने में विफल रहा है। यह इस तथ्य के कारण है कि यह असहमति और दलबदल के बीच अंतर नहीं करता है। पार्टी की वफादारी के लिए, यह विधायक के असहमति के अधिकार और अंतःकरण (कनसाइंस) की स्वतंत्रता को सीमित करता है।
  2. व्यक्तिगत और सामूहिक दलबदल के बीच का अंतर पूरी तरह से तर्कहीन (इरेशनल) है। यहां तक ​​कि यह स्वतंत्र और नामित सदस्यों के बीच जो भेद पैदा करता है वह भी अतार्किक (इलॉजिकल) है। यदि पूर्व राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, जबकि बाद वाले को ऐसा करने की अनुमति होती है।
  3. यह विधायकों के खरीद-फरोख्त को बढ़ावा देता है, जो स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों के विपरीत है।

भविष्य में उठाए जाने वाले कदम

  1. राजनीतिक दबाव को खत्म करने और राजनीतिक व्यवस्था के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए दलबदल के मामलों को तय करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय की आवश्यकता है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्ताव दिया है कि संसद को एक पूर्व निर्धारित समय सीमा के भीतर दलबदल के मामलों को जल्दी और निष्पक्ष रूप से तय करने के लिए उच्च न्यायपालिका के एक सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) न्यायाधीश के नेतृत्व में एक स्वतंत्र पैनल का गठन करना चाहिए।
  3. चूंकि अधिकांश दलबदल राजनीतिक दल के सदस्यों के असंतोष के कारण होते हैं, इसलिए आंतरिक पार्टी लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए कार्रवाई की जानी चाहिए।
  4. राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने, इंट्रा-पार्टी लोकतंत्र में सुधारों की आवश्यकता है।
  5. सदन के अध्यक्ष, दलबदल के मामलों में अंतिम प्राधिकारी (अथॉरिटी) के रूप में, शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) के सिद्धांत पर प्रभाव डालते हैं। नतीजतन, इस अधिकार को उच्च न्यायपालिका या चुनाव आयोग को सौंपने से दलबदल की संभावना कम हो सकती है।

भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत दलबदल विरोधी कानून

संविधान में 52वें संशोधन के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में इस अनुसूची को जोड़ने के कारणों को इस प्रकार रेखांकित किया गया है, “राजनीतिक दलबदल की बुराई राष्ट्रीय चिंता का विषय रही है। यदि इसका मुकाबला नहीं किया जाता है, तो हमारे लोकतंत्र की नींव और इसे बनाए रखने वाले सिद्धांतों को कमजोर करने की संभावना है। इस उद्देश्य के साथ, राष्ट्रपति द्वारा संसद के अभिभाषण (स्पीच) में एक आश्वासन दिया गया था कि सरकार का इरादा संसद के वर्तमान सत्र में दलबदल विरोधी विधेयक पेश करना है। यह विधेयक दलबदल को गैरकानूनी घोषित करने और उपरोक्त आश्वासन को पूरा करने के लिए है।”

(52वां संशोधन) अधिनियम 1985 ने संविधान में 10वीं अनुसूची को जोड़ा, और संशोधन के पीछे के कारण, पद के लालच या अन्य समान विचारों से प्रेरित राजनीतिक दलबदल को रोकने के लिए थे जो संभावित रूप से हमारे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रस्तावित समाधान किसी भी संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य को रोकना था, जो सदन में सेवा जारी रखने से दोषपूर्ण साबित हुआ था। अयोग्यता के आधार 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 के तहत निर्दिष्ट हैं।

10वीं अनुसूची का अवलोकन

इस छोटे से कानून में आठ पैराग्राफ हैं:

  • पहला परिभाषा देता है,
  • दूसरा अयोग्यता बताता है,
  • तीसरा (अब संविधान में 2003 के संशोधन द्वारा हटा दिया गया) पार्टी के भीतर विभाजन को बताता है,
  • चौथा अयोग्यता बताता है जो विलय (मर्जर) के मामले में लागू नहीं होती है,
  • पाँचवाँ कुछ छूट देता है,
  • छठा और सातवाँ व्यक्ति विवादों को सुलझाता है, और 
  • आठवाँ उस व्यक्ति के बारे में बताता है जो विवादों का फैसला करेगा और अदालतों को सुनवाई से रोक देगा।

इनमें से लगभग सभी प्रावधान न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) और व्याख्या के लिए देश की अदालतों के समक्ष लाए गए हैं। पैराग्राफ 2, जो किसी सदस्य की अयोग्यता को निर्धारित करता है, शायद एक पैराग्राफ है जिसका न्यायालयों द्वारा सबसे अधिक विश्लेषण किया गया है। भारतीय राजनीति की अनिश्चितता को ध्यान में रखते हुए, अदालतों ने दलबदल के कार्यों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है।

दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष को समीक्षा (रिव्यू) की शक्ति

सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ काशीनाथ जी जालमी और अन्य बनाम अध्यक्ष और अन्य (1993) में निर्णय दिया कि अध्यक्ष को 10वीं अनुसूची के तहत समीक्षा का कोई अधिकार नहीं है और अध्यक्ष का आदेश अंततः न्यायिक समीक्षा के अधीन है, जैसा कि किहोतो होलोहन के मामले में कहा गया है।

दलबदल मशीनरी में कमी

एक पार्टी के सदस्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता (राइवलरी) कई कारणों से हो सकती है, जिसमें वरिष्ठ नेताओं के विश्वासों के खिलाफ आंतरिक असहमति या प्रभुत्व (डोमिनेंस) की लड़ाई शामिल है, और परिणामस्वरूप, निर्वाचित सदस्य और अन्य निर्वाचित सदस्य इन पार्टियों को विपक्ष में शामिल होने के लिए छोड़ देते हैं। इसमें हमारे देश के लोकतांत्रिक चरित्र को कमजोर करने की क्षमता है क्योंकि लोकतंत्र के लिए एक स्थिर प्रशासन की आवश्यकता होती है। बार-बार आने वाले राजनीतिक संकट जनता के बीच अविश्वास पैदा कर सकते हैं और खतरा पैदा कर सकते हैं।

भारत में दलबदल तंत्र में कई कमियां हैं, खासकर मध्य प्रदेश सरकार के संकट के हाल ही के उदाहरण के साथ, जिसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया और 22 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी, जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई, और अन्य उदाहरण 2019 का केरल विधानसभा का मामला है।

संसदीय लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए, भारतीय संविधान में दल-बदल विरोधी नियमों को निर्वाचित अधिकारियों के पालन के लिए दिशानिर्देशों के एक समूह के रूप में स्थापित किया गया था। जब किसी व्यक्ति को किसी राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में नामित किया जाता है और वह उस पार्टी के चिन्ह का उपयोग करके कार्यालय के लिए खड़ा होता है, तो वह उस पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा का ऋणी होता है। हालांकि, कई नेता विपक्ष में शामिल होने के लिए अपनी पार्टियों को छोड़ रहे हैं, जिससे उस राज्य में सरकार गिर सकती है, जिससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है। नतीजतन, सांसदों को व्हिप और पार्टी के मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।

91वें संशोधन से पहले सुझाए गए सुधार

चुनावी सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति (1990)

  • इस समिति ने अयोग्यता के वर्तमान प्रावधानों का प्रस्ताव रखा था।
  • राष्ट्रपति/राज्यपाल को निर्धारक प्राधिकारी (निर्वाचन आयुक्त की राय पर कार्य करना) के रूप में सुझाया गया था।

हलीम समिति (1998)

  • इसने “स्वेच्छा से राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ना” और “राजनीतिक दल” शब्दों के पूर्ण स्पष्टीकरण का अनुरोध किया।
  • निष्कासित सदस्यों को कुछ सीमाओं का सामना करना पड़ेगा, जैसे कि भविष्य में सरकारी पदों पर प्रतिबंध।

170वीं विधि आयोग की रिपोर्ट (1999)

  • यह सुझाव दिया गया था कि चुनाव पूर्व चुनावी मोर्चों को दलबदल विरोधी क़ानून के तहत राजनीतिक दलों के रूप में माना जाना चाहिए।
  • व्हिप का उपयोग उन स्थितियों तक सीमित होना चाहिए जहां सरकार को खतरा हो।
  • इसने यह भी सुझाव दिया कि विभाजन और विलय को अयोग्यता से छूट देने वाले नियम को हटा दिया जाए।

संविधान समीक्षा आयोग (2002)

  • इसने आग्रह किया कि दलबदलुओं को अपने शेष जनादेश (मैंडेट) के लिए सार्वजनिक कार्यालय या किसी अन्य राजनीतिक स्थिति में प्रवेश करने से रोक दिया जाए।
  • एक दलबदलू द्वारा सरकार को खत्म करने के लिए दिया गया वोट शून्य माना जाएगा।

दलबदल विरोधी कानून से संबंधित न्यायिक घोषणाएं

रवि एस नाइक बनाम भारत संघ (1994)

इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने “सदस्यता से अपनी इच्छा से इस्तीफा देकर” को व्यापक अर्थ दिया था। न्यायालय ने कहा कि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी राजनीतिक दल को छोड़ सकता है, भले ही उसने औपचारिक (फॉर्मल) रूप से ऐसी पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया हो।  सदस्यता से औपचारिक इस्तीफे की अनुपस्थिति में भी, किसी सदस्य के कार्यों से यह निष्कर्ष निकालना संभव है कि उसने अपनी इच्छा से उस राजनीतिक दल से इस्तीफा दे दिया है जिससे वह संबंधित है।

जी विश्वनाथन और अन्य बनाम माननीय अध्यक्ष तमिलनाडु विधान सभा और अन्य (1996)

इस मामले में यह सुझाव दिया गया था कि किसी राजनीतिक दल से स्वेच्छा से इस्तीफा देने के कार्य का अनुमान लगाया जा सकता है। जब एक व्यक्ति जिसे उस राजनीतिक दल से निकाल दिया गया है या निष्कासित (एक्सपेल) कर दिया गया है, जिसने उसे उम्मीदवार के रूप में नामित किया और उसे चुना, वह किसी अन्य (नई) पार्टी में शामिल हो गया, तो वह स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल में अपनी सदस्यता छोड़ रहा है जिसने उसे ऐसे सदस्य के रूप में चुनाव के लिए नामित किया था।

राजेंद्र सिंह राणा और अन्य बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य और अन्य (2007)

इस मामले में अध्यक्ष विभाजन पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे थे और सदस्यों द्वारा किए गए दावे के आधार पर इसे स्वीकार कर लिया था। अदालत ने कहा कि अयोग्यता के लिए एक याचिका की अवहेलना करना संवैधानिक जिम्मेदारियों का उल्लंघन है, न कि केवल एक अनियमितता है।

श्री राजीव रंजन सिंह (ललन) बनाम डॉ पी.पी. कोया जेडी (यू) (2009)

इस मामले में डॉ. कोया ने एक पार्टी व्हिप की अवहेलना की जिसने उन्हें विश्वास प्रस्ताव (मोशन ऑफ कॉन्फिडेंस) के खिलाफ मतदान करने का आदेश दिया था। उन्होंने मतदान नहीं किया क्योंकि वे अनुपस्थित थे, और उनकी अनुपस्थिति को उचित ठहराने के लिए उनकी बीमारी के प्रमाण को पर्याप्त नहीं मन गया था। जब कोई सदस्य व्हिप से बंधा होता है, तो सदन से उसकी अनुपस्थिति के संबंध में अध्यक्ष को संतुष्ट करने के लिए एक वैध स्पष्टीकरण होना चाहिए।

श्रीमंत बालासाहिब पाटिल बनाम कर्नाटक विधान सभा के माननीय अध्यक्ष (2019)

इस मामले में जनता दल सेक्युलर के 15 विधायकों और सदस्यों ने विधायिका में अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था। जिसके परिणामस्वरूप सरकार भंग कर दी गई, और विधानसभा की समाप्ति तक अध्यक्ष ने विधायकों को कुछ समय के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था।

किहोतो होलोहन बनाम जचिल्लू और अन्य (1992)

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अध्यक्ष के निर्णय लेने से पहले न्यायिक समीक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती। अध्यक्ष की अध्यक्षता में कार्यवाही के अंतःक्रियात्मक (इंटरलोक्यूटरी) चरण के दौरान भी हस्तक्षेप निषिद्ध होगा। इस मामले से पहले, अध्यक्ष के निर्णय को अंतिम माना जाता था और वह न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं था। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यह खंड गैरकानूनी था।

निष्कर्ष

संक्षेप में, 91वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 भारतीय संविधान में लागू किया गया था ताकि मंत्रिमंडलों के परिणामस्वरूप राज्यों द्वारा किए गए बड़े बजट को सीमित किया जा सके। इस तथ्य के बावजूद कि कानून को कुछ सफलता मिली है, लेकिन इसकी कुछ खामियों के कारण, यह सर्वोत्तम संभव परिणाम प्राप्त करने में सक्षम नहीं है।

संदर्भ

 

 

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