लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013)

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यह लेख Bheeni Goyal द्वारा लिखा गया है और इसे Sayeed Owais Khadri द्वारा आगे अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख लिली थॉमस बनाम भारत संघ के फैसले का एक व्यापक अध्ययन प्रदान करता है, जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) को रद्द कर दिया था। यह लेख विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत मामले को विभाजित करके इसका एक सरल अध्ययन प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।

परिचय

औपनिवेशिक सरकार के शासन के दौरान, भारत के प्रभुत्व (डोमिनियन) के लिए चुनावी प्रतिनिधित्व की एक प्रणाली तैयार करने के उद्देश्य से एक साउथबोरो समिति, 1932 की स्थापना की गई थी। समिति ने चुनावी प्रतिनिधित्व पर सलाह के लिए डॉ. अम्बेडकर को बुलाया। प्रस्तुतीकरण करते समय, डॉ. अम्बेडकर ने नागरिकता बनाने वाले दो महत्वपूर्ण मानदंड सूचीबद्ध किए थे। दो मानदंड प्रतिनिधित्व का अधिकार और राज्यों के अधीन पद धारण करने का अधिकार थे।

लेकिन हमारे संविधान के निर्माता द्वारा बताए गए विचार वर्तमान समय में प्रासंगिक नहीं हैं, क्योंकि कई राजनेताओं ने बार-बार उपरोक्त पहलू का दुरुपयोग किया है जैसा कि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने कहा था। वर्तमान समय में संसद के सदनों में चुने गए कई सांसदों और विधायकों के आपराधिक रिकॉर्ड हैं और इसलिए लिली थॉमस, एक वकील ने दोषी अपराधियों को उन कुछ लोगों का हिस्सा बनने से रोकने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया, जो विभिन्न अपराधों के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद भी सांसदों और विधायकों की सीटों पर टिके रहकर नागरिकों के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013) के मामले में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) की वैधता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई की, जो किसी भी राज्य के मौजूदा सांसदों और विधायकों को उपर्युक्त अधिनियम की धारा 8 के अन्य तीन खंडों के तहत प्रदान किए गए कुछ अपराधों के लिए दोषी ठहराए जाने की स्थिति में अयोग्यता से बचाता है। न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक और न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय की सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जुलाई 2013 में फैसला सुनाया, और विवादित धारा को संविधान के अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) घोषित कर दिया और यह माना गया कि धारा 8(4) किसी भी सांसद या विधायक को उपर्युक्त धारा की उपधारा (1), (2), और (3) में उल्लिखित किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने पर तत्काल प्रभाव से अयोग्यता से नहीं बचाएगी।

लिली थॉमस बनाम भारत संघ का विवरण

इस लेख में चर्चा किए गए मामले के कुछ महत्वपूर्ण विवरण निम्नलिखित हैं-

  • मामले का नाम – लिली थॉमस बनाम भारत संघ
  • मामले का नंबर – डब्ल्यू.पी. (सी) 490/2005, डब्ल्यू.पी. (सी) 231/2005, डब्ल्यू.पी. (सी) 694/2004
  • समतुल्य उद्धरण (इक्विवलेंट साइटेशन)- एआईआर 2013 एससी 2662, (2013) 7 एससीसी 653
  • न्यायालय – भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ- न्यायमूर्ति शुधांशु  जे. मुखोपाध्याय और ए.के.पटनायक
  • याचिकाकर्ता- लिली थॉमस, लोक प्रहरी, बसंत कुमार चौधरी
  • प्रतिवादी – भारत संघ
  • फैसले की तारीख – 10 जुलाई 2013

लिली थॉमस बनाम भारत संघ के तथ्य

2005 में, लिली थॉमस ने लखनऊ के वकील सत्य नारायण शुक्ला के साथ, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) को चुनौती देने के उद्देश्य से सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की। इस धारा में दोषी राजनेताओं को अपीलीय अदालतों में उनकी सजा के खिलाफ लंबित अपील के आधार पर चुनाव लड़ने से किसी भी प्रकार की अयोग्यता से बचाने की मांग की गई थी। हालाँकि याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर याचिका पहले ही खारिज कर दी गई थी, अंततः नौ साल बाद, लगातार प्रयास करने के बाद, बाद में जुलाई 2013 में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक और एस.जे. मुखोपाध्याय द ने फैसला सुनाया।

इस मामले में, यानी जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) को चुनौती देने के लिए प्रासंगिक तथ्य यह कि संविधान सभा ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के तहत क्रमशः सांसदों और विधायकों की अयोग्यता के लिए कुछ आधार निर्धारित किए हैं। दोनों अनुच्छेदों में खंड (e) संसद को उनके द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के तहत अयोग्यता के लिए अतिरिक्त आधार रखने का अधिकार देता है। इसलिए, संविधान द्वारा अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) में दी गई शक्तियों का उपयोग करके, संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 को अधिनियमित किया जो धारा 8 के तहत सूचीबद्ध कुछ अपराधों के लिए दोषी पाए जाने पर संसद सदस्यों (सांसदों) और विधान सभा सदस्यों (विधायकों) को अयोग्य ठहराने का प्रावधान करता है। उपर्युक्त धारा की उपधारा (4) किसी भी राज्य के मौजूदा सांसद या विधायक को उस धारा के तहत उल्लिखित किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने की स्थिति में तत्काल प्रभाव से अयोग्यता से बचाती है।

याचिकाकर्ता लिली थॉमस, जो एक वकील हैं, ने अन्य लोगों के साथ मिलकर 2005 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की है, जिसमें जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है और इसे संविधान के अधिकारातीत घोषित किया गया।

मुद्दे

  1. क्या संसद को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 की उपधारा 4 को अधिनियमित करने का अधिकार था?
  2. क्या धारा 8(4) भारत के संविधान के अधिकारातीत है?

लिली थॉमस बनाम भारत संघ में शामिल कानूनी बिंदु

भारत का संविधान

इस मामले में भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर चर्चा की गई। जिनके बारे में नीचे बताया गया है-

  • अनुच्छेद 101 – संसद के किसी भी सदन में सीटों की रिक्ति का प्रावधान करता है। खंड 3(a) में प्रावधान है कि एक सांसद की सीट खाली हो जाएगी यदि वह विशेष सांसद अनुच्छेद 102 में उल्लिखित अयोग्यता के अधीन है।
  • अनुच्छेद 102 – संसद की सदस्यता के लिए अयोग्यता का प्रावधान करता है। खंड 1(e) संसद को संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के तहत अयोग्यता के लिए अतिरिक्त आधार निर्धारित करने का अधिकार देता है।
  • अनुच्छेद 190 – राज्य विधानमंडल में सीटों की रिक्ति का प्रावधान करता है। खंड 3(a) में प्रावधान है कि एक विधायक की सीट खाली हो जाएगी यदि वह विशेष विधायक अनुच्छेद 191 में उल्लिखित अयोग्यता के अधीन है।
  • अनुच्छेद 191 – राज्य विधानमंडल की सदस्यता के लिए अयोग्यता का प्रावधान करता है। खंड 1(e) संसद को संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के तहत अयोग्यता के लिए अतिरिक्त आधार निर्धारित करने का अधिकार देता है।
  • अनुच्छेद 246 – विभिन्न विषय मामलों पर कानून बनाने के लिए संसद और राज्य विधानमंडलों की शक्ति प्रदान करता है। खंड 1 और 2 संसद को संविधान की सातवीं अनुसूची की संघ और समवर्ती सूचियों (सूची I और III) में उल्लिखित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार देते हैं।

अनुच्छेद 248 – कहता है कि अवशिष्ट शक्ति संसद के पास है। अवशिष्ट शक्ति का तात्पर्य संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची (सूची II) में उल्लिखित विषयों पर कानून बनाने की संसद की शक्ति से है। इसी तरह की शक्ति सातवीं अनुसूची की सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 97 के तहत संसद को दी गई है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951

इस मामले में चर्चा किए गए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधान नीचे उल्लिखित हैं-

  • धारा 7 – ‘उचित सरकार’ और ‘अयोग्य’ आदि शब्दों को परिभाषित करती है
  1. धारा 7(a) ‘उचित सरकार’ को परिभाषित करती है, कि उचित सरकार का अर्थ है संसद के किसी भी सदन के सदस्य के रूप में चुने जाने या होने के लिए किसी भी अयोग्यता के संबंध में, केंद्र सरकार, और किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद के सदस्य के रूप में चुने जाने या होने के लिए किसी अयोग्यता के संबंध में, राज्य सरकार।
  2. धारा 7(b) ‘अयोग्य’ को परिभाषित करती है – “अयोग्य” का अर्थ है इस अध्याय के प्रावधानों के तहत संसद के किसी भी सदन या किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद के सदस्य के रूप में चुने जाने और होने के लिए अयोग्य घोषित किया जाना और किसी अन्य आधार पर नहीं। 
  • धारा 8 – कुछ अपराधों के लिए दोषसिद्धि के आधार पर अयोग्यता का प्रावधान है। उपखंड (1), (2), और (3) विभिन्न अपराधों को सूचीबद्ध करते हैं, जिनमें दोषी पाए जाने पर उम्मीदवार को चुनाव लड़ने या सांसद या विधायक बनने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। उपधारा (4) मौजूदा सांसदों और विधायकों के लिए एक सुरक्षा प्रावधान के रूप में कार्य करती है, जो दोषसिद्धि पर तत्काल अयोग्यता को रोकती है। इसमें प्रावधान है कि मौजूदा सांसद या विधायक की दोषसिद्धि पर अयोग्यता तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक दोषसिद्धि की तारीख या दोषी सांसद या विधायक द्वारा दायर किसी अपील, यदि कोई हो, के निपटारे की तारीख से तीन महीने बीत नहीं जाते है।

लिली थॉमस बनाम भारत संघ में पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता

  • याचिकाकर्ताओं का प्राथमिक तर्क यह था कि किसी भी राज्य विधानमंडल के सांसद या विधायक के रूप में चुने जाने के लिए अयोग्यताएं और मौजूदा सांसद या विधायक होने के लिए अयोग्यताएं अलग-अलग नहीं हो सकती हैं। उन्होंने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 की शुरुआत में ही इसे स्पष्ट कर दिया गया था। उन्होंने आगे चुनाव आयोग बनाम साका वेंकट राव (1953) के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 191 किसी भी राज्य विधानमंडल के सदस्य के रूप में चुने जाने और बने रहने के लिए अयोग्यता का समान सेट निर्धारित करता है। इसलिए, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि विवादित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के खंड (1) का उल्लंघन है।
  • याचिकाकर्ताओं का अगला प्रमुख तर्क यह था कि संसद के पास लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) को अधिनियमित करने की शक्ति नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद 102 और 191 संसद को मौजूदा सांसदों और विधायकों को दोषसिद्धि के बाद तत्काल अयोग्यता से बचाने के लिए कोई प्रावधान लागू करने का अधिकार नहीं देते हैं। इसलिए, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चूंकि संसद के पास विवादित प्रावधान को लागू करने के लिए विधायी शक्ति का अभाव है, इसलिए इसे संविधान के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए।
  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि किसी सांसद या विधायक का निलंबन/अयोग्यता दोषसिद्धि की तरह ही लागू होनी चाहिए और सजा तब तक लागू रहती है जब तक कि उसे रद्द नहीं कर दिया जाता। उन्होंने बी.आर. कपूर बनाम तमिल नाडु. राज्य (2001) के मामले में शीर्ष अदालत की संविधान पीठ की टिप्पणी पर भरोसा किया, जहां अदालत ने माना था कि दोषसिद्धि और उस पर दी गई सजा तब तक लागू रहती है जब तक इसे अपील में रद्द नहीं कर दिया जाता और यही बात अयोग्यता पर भी लागू होती है।
  • याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि अयोग्य सांसदों और विधायकों के पास लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) के अभाव में भी एक उपाय होगा। उन्होंने तर्क दिया कि अपीलीय अदालत द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389(1) के तहत दोषसिद्धि के आदेश को निलंबित करके अयोग्यता पर रोक लगाई जा सकती है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य (2007) के मामले में शीर्ष अदालत ने इसे स्पष्ट कर दिया है। इसलिए, उन्होंने तर्क दिया कि अयोग्यता को स्थगित रखने के लिए विवादित प्रावधान जैसा व्यापक प्रावधान नहीं किया जा सकता है।
  • याचिकाकर्ताओं ने बताया कि के. प्रभाकरन बनाम पी. जयराजन (2005) के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा की गई टिप्पणियाँ या दिए गए कारण संसद द्वारा मौजूदा सांसदों और विधायकों को एक अलग श्रेणी में वर्गीकृत करने के संबंध में विवादित प्रावधान के माध्यम से उनकी रक्षा करना ओबिटर डिक्टा है और विवादित प्रावधान की वैधता के मुद्दे पर बाध्यकारी अनुपात नहीं है क्योंकि प्रावधान स्वयं उस मामले में चुनौती के अधीन नहीं था।
  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विवादित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह प्रकृति में मनमाना और भेदभावपूर्ण है। उन्होंने दावा किया कि जहां तक अयोग्यता का सवाल है, यह मौजूदा सांसदों और विधायकों तथा सांसद और विधायक के रूप में चुने जाने वाले लोगों के बीच भेदभाव करता है।

प्रतिवादी

  • प्रतिवादियो ने प्रस्तुत किया कि शीर्ष न्यायालय ने के. प्रभाकरन बनाम पी. जयराजन (2013) मामले में विवादित प्रावधान की वैधता को बरकरार रखा था। उन्होंने प्रस्तुत किया कि उपरोक्त मामले में न्यायालय ने मौजूदा सांसदों या विधायकों को एक अलग श्रेणी में वर्गीकृत करने के लिए दो मुख्य कारण प्रदान किए हैं जो कि विवादित प्रावधान द्वारा संरक्षित हैं। उन्होंने तर्क दिया कि इन्हीं कारणों से संसद ने विवादित प्रावधान लागू किया है। दिए गए दो कारण इस प्रकार हैं:
  1. मौजूदा सांसदों या विधायकों को तत्काल अयोग्य ठहराए जाने से सदन के साथ-साथ राजनीतिक दल की ताकत भी कम हो जाएगी। ऐसे मामलों में जहां सत्ता में रहने वाले दल आवश्यक निशान पर खडे होते है और सरकार बनाते है, वह अयोग्यता से प्रभावित हो सकते है, क्योंकि ऐसे मामले में प्रत्येक सदस्य की गिनती होती है। ऐसे में अयोग्य ठहराए जाने से सरकार के कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। 
  2. एक उप-चुनाव आयोजित करना होगा, जो अयोग्य सदस्य को अपीलीय अदालत द्वारा बरी किए जाने की स्थिति में निरर्थक हो सकता है।
  • प्रतिवादियो ने तर्क दिया कि संसद को अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) से विवादित प्रावधान को लागू करने की विधायी शक्ति प्राप्त होती है, और यदि नहीं, तो संविधान की अनुसूची VII, सूची I, प्रविष्टि 97 के साथ पठित अनुच्छेद 246(1) और अनुच्छेद 248 से, जो संसद को संविधान की अनुसूची VII की सूची II और III में शामिल नहीं किए गए विषयों पर कानून बनाने की अवशिष्ट शक्ति प्रदान करता है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि उपरोक्त अनुच्छेदों के तहत, अयोग्यता के लिए अतिरिक्त आधार निर्धारित करने की शक्ति के साथ, संसद के पास यह निर्धारित करने की भी शक्ति है कि मौजूदा सांसदों या विधायकों की सजा के मामले में अयोग्यता वास्तव में कब प्रभावी होगी।
  • प्रतिवादियो ने तर्क दिया कि विवादित प्रावधान वर्तमान सांसदों और विधायकों और जिन्हें सांसद या विधायक के रूप में चुना जाना है, उनके लिए अयोग्यता का कोई अलग सेट प्रदान नहीं करता है। उन्होंने कहा कि इसमें केवल इतना कहा गया है कि मौजूदा सांसदों या विधायकों की दोषसिद्धि के मामले में वही अयोग्यताएं एक निश्चित अवधि के बाद प्रभावी होंगी।
  • प्रतिवादियो ने याचिकाकर्ताओं को यह दलील दी कि अयोग्य सदस्यों के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 के तहत अयोग्यता या निलंबन पर रोक लगाने के लिए अदालत में जाने का उपाय होगा, जो सही नहीं है, चूँकि उपरोक्त प्रावधान किसी अपीलीय अदालत को अयोग्यता पर रोक लगाने की शक्ति नहीं देता है जो दोषसिद्धि की तारीख से प्रभावी होगी और इसलिए विवादित प्रावधान के तहत एक सुरक्षा अधिनियम बनाने की आवश्यकता और तर्क है।

लिली थॉमस बनाम भारत संघ में निर्णय

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मौजूदा सांसदों और विधायकों की सुरक्षा के लिए प्रावधान लागू करना संसद की शक्तियों से परे है। न्यायालय ने कहा कि मौजूदा सांसदों और विधायकों के लिए अयोग्यताएं उन लोगों के समान होनी चाहिए जिन्हें सांसद या विधायक के रूप में चुना जाना है। न्यायालय ने आगे कहा कि संसद सदन की सीट खाली होने से नहीं रोक सकती, जो अनुच्छेद 101(3)(a) और 190(3)(a) के तहत अयोग्यता पर होता है, उस तारीख को स्थगित करके जिस तारीख से अयोग्यता प्रभावी होगी, मौजूदा सांसदों और विधायकों को दोषसिद्धि के कारण अयोग्यता से बचाने का प्रावधान लागू किया जाएगा।

न्यायालय ने कहा कि संसद के पास अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) के तहत किसी व्यक्ति को सांसद या विधायक के रूप में चुने जाने और मौजूदा सांसदों और विधायकों के लिए अयोग्यता निर्धारित करने के लिए कानून बनाने की शक्ति है लेकिन साथ ही, अनुच्छेद 101(3)(a) और 190(3)(a) के अनुसार, संसद को अयोग्यता प्रभावी होने की तारीख को स्थगित करने के लिए कोई भी कानून निर्धारित करने से प्रतिबंधित किया गया है। न्यायालय ने माना कि संसद ने विवादित प्रावधान को लागू करके संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों से परे काम किया और इसलिए विवादित प्रावधान संविधान के दायरे से बाहर है।

मामले का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में फैसला सुनाया है कि जैसे ही अदालत द्वारा आदेशित राजनेता को दोषी ठहराया जाएगा, उन्हें चुनाव लड़ने या संसद के सदस्य के रूप में बने रहने से तुरंत अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।

माननीय अदालत ने प्रतिवादी की दोनों दलीलों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रविष्टि 97 तब लागू होगी जब संविधान इस बात पर चुप है कि दिए गए विषय पर ऐसा कानून बनाने की योग्यता किसके पास है। हालाँकि, संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संसद को सभी सांसदों और विधायकों की अयोग्यता के विषय पर कानून बनाने की शक्ति है।

हालाँकि, भारत में, दोषसिद्धि की दर अदालत द्वारा सज़ा देने की प्रक्रिया पर निर्भर करती है, जिसमें बहुत लंबा समय लगता है। 2019 में लोकतांत्रिक सुधारों के लिए संघ ने पाया कि 2019 के लोकसभा चुनावों में लगभग 45% निर्वाचित सांसद ऐसे थे जिनके खिलाफ आपराधिक मामले थे या लंबित आपराधिक मामले थे। आश्चर्यजनक रूप से यह आंकड़ा कम नहीं हुआ है, बल्कि संसद में पिछले आपराधिक रिकॉर्ड वाले चुनाव जीतने वाले राजनेताओं की संख्या तुलनात्मक रूप से बढ़ी है। संघ द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, 2009 के चुनावों में, पिछले आपराधिक रिकॉर्ड वाले लगभग तीस प्रतिशत राजनेताओं को संसद में नियुक्त किया गया था और 2014 में, पिछले आपराधिक रिकॉर्ड वाले लगभग 34% सांसदों को संसद में नियुक्त किया गया था।

इसलिए, दोषी अपराधियों को चुनाव लड़ने या संसद में बैठने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जैसा कि विधि आयोग ने सुझाव दिया है, कि अपराध के अभियुक्त या उसके खिलाफ कोई भी आरोप तय किए गए किसी भी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाना चाहिए। हालाँकि, सवाल यह उठता है कि उन शिकायतों का क्या जो तुच्छ हैं और राजनेताओं को बदनाम करने के उद्देश्य से उनके खिलाफ दायर की जाती हैं।

अदालत उनके खिलाफ दायर सभी तुच्छ और परेशान करने वाली शिकायतों से निपटने के लिए बीच का रास्ता अपना सकती है। आरोप तय करने से पहले अदालत को उक्त मुद्दे पर गहन विचार करना जरूरी है। विचार-विमर्श के बाद ही उम्मीदवार पर आरोप तय किए जाएं। अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उम्मीदवार के खिलाफ आरोपों का कानूनी आधार हो और उनके खिलाफ आरोपों का इस्तेमाल राजनीतिक उपकरण के रूप में नहीं किया जा सके।

हालाँकि, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित फाउंडेशन बनाम भारत संघ (2018) में फैसला सुनाया कि जो उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, उन्हें उनके खिलाफ दायर आरोप पत्र के आधार पर चुनाव लड़ने से नहीं रोका जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को आदेश दिया है कि जब भी वे लोकसभा चुनाव लड़ें तो अपनी पूरी आपराधिक पृष्ठभूमि वेबसाइटों पर साझा करें। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे निर्देश दिया कि उनके आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी स्थानीय और राष्ट्रीय समाचार पत्रों में भी साझा की जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को इस तरह की कार्रवाइयों के परिणामों का एहसास नहीं है, क्योंकि इससे राजनेताओं को माननीय अदालत द्वारा की गई टिप्पणी का दुरुपयोग करने और स्थानीय समाचार पत्रों में फर्जी आरोप पत्र फैलाकर चुनाव जीतने का मौका मिल सकता है।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि देश के मतदाताओं को राजनीतिक दलों के बारे में सारी जानकारी उपलब्ध करायी जाये। लेकिन भारत में, जहां साक्षरता दर कम है और लोग ज्यादातर राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले चुनाव अभियान के आधार पर वोट देते हैं। इसलिए, यह जरूरी नहीं है कि हमारे देश में औसत मतदाता द्वारा जो वोट डाले गए हैं, वे वेबसाइटों पर उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड के विधिवत अध्ययन के आधार पर होंगे।

राजनीतिक दलों के बारे में पूछताछ करने के बजाय उनके उम्मीदवारों के चयन पर ध्यान देना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका की कमी को पूरा करने पर अधिक जोर देना चाहिए, जो संसद निश्चित रूप से नहीं करने जा रही है। इस समय, जो वांछनीय है वह एक संशोधन है जिसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में लाया जाना आवश्यक है ताकि उम्मीदवारों को ऐसे मामलों में चुनाव लड़ने से रोका जा सके:

  1. उनके द्वारा गंभीर/जघन्य अपराध किए गए हैं या उनके खिलाफ अदालत में ऐसे मामले लंबित हैं, जहां निर्दिष्ट सजा दो या चार साल की कैद है;
  2. चुनाव की तारीखों की घोषणा से कम से कम छह महीने पहले मामले सूचीबद्ध किए जाने चाहिए; और
  3. कानून की अदालत द्वारा आरोप तय किए गए हैं, चुनाव लड़ने से लेकर अदालत द्वारा आरोपों को और अधिक मंजूरी दिए जाने तक।

निष्कर्ष

संसद में अपराधियों को चुनने की समस्या पर अंकुश लगाना वास्तव में महत्वपूर्ण है। हमारा देश मुट्ठी भर अपराधियों द्वारा नहीं चलाया जा सकता। ऐसी समस्या पर अंकुश लगाने के लिए, भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को शक्तियां देना वास्तव में महत्वपूर्ण है ताकि वे दलों की निगरानी के अपने कार्य को प्रभावी ढंग से कर सकें।

हमारे देश के चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों को मान्यता देने से रोकने की शक्ति प्रदान की गई है, हालाँकि, ईसीआई को राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की अधिक शक्ति दी जानी चाहिए। यदि आयोग को स्वचालित पंजीकरण रद्द करने की शक्ति मिल जाती है, तो इसका राजनीतिक दलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा,और ईसीआई उन उम्मीदवारों को टिकट नहीं देगा जिन पर आपराधिक आरोप है या उनके खिलाफ आपराधिक आरोपों के लिए कोई आरोप पत्र दायर किया गया है।

हालाँकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में अपने फैसले के माध्यम से नई आवश्यकताओं [चुनाव लड़ने से पहले आपराधिक रिकॉर्ड और लंबित मामलों को सार्वजनिक रूप से साझा करना] को मंजूरी दे दी है [जनहित फाउंडेशन बनाम भारत संघ (2018))]। यह समझना वास्तव में महत्वपूर्ण है कि हमारे देश में ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले अधिकांश मतदाता इतने साक्षर नहीं हैं कि चुनाव लड़ने वाले किसी भी उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को समझ सकें और उसका विश्लेषण कर सकें। इसलिए, कुछ लोगों का सुझाव है कि चुनाव आयोग को उन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने की शक्ति दी जानी चाहिए जिन्होंने जघन्य अपराध किए हैं या जिनके खिलाफ जघन्य अपराध करने के लिए आरोप पत्र तय किया गया है, क्योंकि न्यायपालिका ने उम्मीदवारों के खिलाफ इस तरह के आरोप लगाने से पहले अपने न्यायिक दिमाग का इस्तेमाल किया होगा। हालाँकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अभियुक्तों पर चुनाव सामग्री पर पूर्ण प्रतिबंध अनुचित होगा क्योंकि दर्ज किए गए मामले झूठे और दुर्भावनापूर्ण हो सकते हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या यह मामला किसी भी तरह से लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (बिगैमी केस) से संबंधित है?

नहीं, लिली थॉमस बनाम भारत संघ (द्विविवाह मामला) इस लेख में चर्चा किए गए मामले से अलग है। द्विविवाह मामले का फैसला अप्रैल 2000 में दिया गया था, जबकि इस लेख में चर्चा किया गया मामला 2013 का है और यह लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) की संवैधानिक वैधता से संबंधित है। इसके अलावा, जैसा कि उल्लेख किया गया है, 2000 के लिली थॉमस मामले ने सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (2000) के ऐतिहासिक मामले की समीक्षा की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरला मुद्गल मामले की पुष्टि की और माना कि केवल द्विविवाह करने के लिए इस्लामी धर्म में रूपांतरण पर रोक अनुच्छेद 25 में निहित धर्म के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है।

भारत में द्विविवाह के बारे में अधिक जानने के लिए यहां दबाये

संदर्भ

 

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