अग्रिम जमानत पर कानून: ‘सिब्बिया’ से ‘चिदंबरम’ तक (द लॉ ऑन एंटीसिपेटरी बेल: फ्रॉम सिब्बिया टू चिदंबरम)

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यह लेख Anjali Dixit द्वारा लिखा गया है।इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है। यह लेख न्यायिक व्याख्याओं के संदर्भ से अपनी स्थापना के बाद से आज तक अग्रिम जमानत पर कानून की यात्रा के बारे में बताता है।

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परिचय (इंट्रोडक्शन)

जमानत अनिवार्य रूप से एक अभियुक्त (एक्यूज्ड) की आजादी पर रोक से मुक्ति है। यह एक अस्थाई (टेंपरेरी) रिहाई है, जो किसी व्यक्ति की कुछ सुरक्षा पर उपस्थिति कराती हैं।आपराधिक न्यायशास्त्र (क्रिमिनल ज्यूरिस्प्रूडएन्स) का एक मौलिक सिद्धांत है, कि कोई भी व्यक्ति बेगुन्हा होता हैं जब तक उसका दोष साबित नही हो जाता है। आपराधिक प्रक्रिया सहिता 1973 आपराधिक प्रक्रिया सहिता 1973  (सीआरपीसी) में जमानत के प्रावधान इस सिद्धांत का सार प्रदान कराते हैं ,एक आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (पर्सनल लिबर्टी) और समाज के हित के बीच संतुलन बनाकर। सीआरपीसी की धारा 436 के तहत जमानती अपराधों (बेलेबल ऑफेंस) में जमानत एक अधिकार है और सीआरपीसी की धारा 437 और 439 के तहत गैर-जमानती अपराधो (नॉन बेलेबल ऑफेंस) में जमानत एक न्यायिक विवेक (ज्यूडिशियल डिस्क्रेशन) है। जहां धारा 436, 437और 439 के तहत जमानत गिरफ्तारी के बाद ही दी जा सकती है, वहीं धारा 438 में गिरफ्तारी से पहले जमानत का प्रावधान है जिसे आमतौर पर अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल) के रूप में भी जाना जाता है। अग्रिम जमानत का तात्पर्य गिरफ्तारी की प्रत्याशा (एंटीसिपेशन) में जमानत देने से है।

अग्रिम जमानत की अवधारणा (कांसेप्ट) ने तब गति पकड़ी जब किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के लिए उसे झूठा फंसाने की प्रवृत्ति को मान्यता मिली। ऐसे मामलों में वृद्धि हुई है, जहां प्रतिष्ठित व्यक्तियों को उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों (पॉलिटिकल राइवल) द्वारा उन्हें गिरफ्तार करके अपमानित और परेशान करने के लिए झूठा फंसाया गया था। किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसके जीवन के अधिकार का एक महत्वपूर्ण पहलू है और इसे खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए। इसके अलावा, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां एक आरोपी के मुकदमे से बचने के लिए फरार होने की संभावना नहीं है, उसका आपराधिक इतिहास नहीं है और सबूतों के साथ छेड़छाड़ की संभावना नहीं है। ऐसे लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करने की आवश्यकता ने गिरफ्तारी-पूर्व जमानत की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) को जन्म दिया। अग्रिम जमानत का सार सी.जे.आई डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कुछ इस प्रकार देखा:

 “एक व्यक्ति जिसने अभी तक गिरफ्तार होने से अपनी स्वतंत्रता खो दी है, गिरफ्तारी की स्थिति में स्वतंत्रता मांगता है। यही वह चरण है जिस पर यह आवश्यक है कि उसकी स्वतंत्रता की रक्षा की जाए ताकि इस धारणा को पूरी तरह से फॉलो किया जा सके कि वह निर्दोष है।”

विधि आयोग ( लॉ कमीशन) ने अपनी 41वीं रिपोर्ट में कहा, “अग्रिम जमानत देने की आवश्यकता मुख्य रूप से इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि कभी-कभी प्रभावशाली व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों (राइवल) को बदनाम करने या कुछ दिनों के लिए जेल में बंद करने के उद्देश्य से झूठे मामले में फंसाने की कोशिश करते हैं”

धारा 438 की सामग्री (कंटेंट्स ऑफ सेक्शन 438)

सीआरपीसी में अग्रिम जमानत शब्द का कहीं भी उपयोग नहीं किया गया है, बल्कि यह गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को जमानत देने का निर्देश प्रदान करता है। सीआरपीसी 1973 की धारा 438 में प्रावधान है कि जहां किसी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसे गैर-जमानती ( नॉन बेलेबल) संज्ञेय अपराध ( कॉग्निजेबल ऑफेंस) करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह जमानत देने के लिए कोर्ट ऑफ सेशन या हाई कोर्ट में ऐसी गिरफ्तारी के मामले मे आवेदन कर सकता है।

न्यायालय अन्य बातों के अलावा,जमानत दे या अस्वीकार कर सकता है, कुछ कारकों (फैक्टर्स) को ध्यान मे रखते हुए जैसे अभियुक्त का पूर्व-इतिहास (संज्ञेय अपराध में दोषसिद्धि पर कारावास सहित), अपराध की प्रकृति और गंभीरता, न्याय से भागने की संभावना और आवेदक (एप्लीकेंट) को घायल करने या अपमानित करने के लिए आरोप लगाने की संभावना।

न्यायालय आवेदक को अंतरिम जमानत भी दे सकता है और लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) और पुलिस अधीक्षक को आदेश की एक प्रति ( कॉपी) के साथ कम से कम सात दिनों का नोटिस दे सकता है, ताकि लोक अभियोजक को उचित अवसर दिया जा सके कि जब न्यायालय द्वारा अंतिम सुनवाई हो तब वह अपना मामला प्रस्तुत कर सके।

यदि इस संबंध में लोक अभियोजक द्वारा न्यायालय में आवेदन किया गया हो , न्यायालय न्याय के हित के लिए अंतिम सुनवाई में आवेदक (एप्लीकेंट) की उपस्थिति को आवश्यक मानता है, तो उसके लिए न्यायालय में उपस्थित होना अनिवार्य होगा।

आवेदक को जमानत देने के मामले में हाई कोर्ट या कोर्ट ऑफ सेशन, तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर कुछ शर्तों को शामिल कर सकता है जैसे; व्यक्ति जब कभी भी जांच के प्रयोजनों (पर्पज) के लिए आवश्यक हो, तब वह पुलिस अधिकारी के सामने उपलब्ध होगा , वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप (इंडिरेक्टली) से मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को कोई धमकी, प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) या वादा नहीं करेगा, जिससे उसे मना किया जा सके की न्यायालय या पुलिस अधिकारी को ऐसे तथ्यों का खुलासा नहीं करना और यह कि व्यक्ति न्यायालय की अनुमति के बिना देश नहीं छोड़ेगा। इसके अलावा, न्यायालय सीआरपीसी की धारा 437 (3) के तहत प्रदान की गई कोई भी शर्त लगा सकता है।

किसी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी की स्थिति में, जिसे न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत दी गई है, जैसे ही वह पुलिस अधिकारी को जमानत देने के लिए तैयार होता है, उसे रिहा कर दिया जाएगा। जब मजिस्ट्रेट ऐसे मामले में गिरफ्तारी वारंट जारी करने का फैसला करता है तो जमानती वारंट जारी किया जाएगा।

कानून के अपवाद (एक्सिप्शंस टू द लॉ)

आपराधिक संशोधन विधेयक 2018 ने खंड 4 को धारा 438 में जोड़ा और कानून के अपवाद बनाए। इस खंड के अनुसार, 16 वर्ष से कम आयु की महिला और 12 वर्ष से कम आयु की महिला से बलात्कार, 16 वर्ष से कम आयु की महिला और 12 वर्ष से कम आयु की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार के अपराध के आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है। यह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 (3), 376 एबी, 376 डीए और 376 डीबी के तहत दंडनीय है।

इसके अलावा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम) 1989 की धारा 18, अधिनियम की धारा 3 के तहत किए गए अपराधों के संबंध में अग्रिम जमानत देने से रोकती है।

न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से धारा 438 को डिकोड करना (डिकोडिंग सेक्शन 438 थ्रो ज्यूडिशियल इंटरप्रेटेशंस)

धारा 438 की विशेषताएं प्रावधान में प्रयुक्त कुछ शर्तों पर निर्भर करती हैं जो विधायिका (लेजिस्लेचर) के इरादे को व्यक्त करती हैं और धारा की व्याख्या में न्यायालयों का मार्गदर्शन करती हैं। समय के साथ कई मामलों ने न्यायालयों द्वारा अग्रिम जमानत देने की प्रथा विकसित की गई है। हालांकि, गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 एससीसी 565 यह ऐसा पहला मामला था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सावधानीपूर्वक विवरण के साथ अग्रिम जमानत देने के सिद्धांतों को निर्धारित किया था।

गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य में, पंजाब सरकार ने तत्कालीन सिंचाई और बिजली मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे। श्री गुरबख्श सिंह सिब्बिया ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष एक अर्जी दाखिल कर अग्रिम जमानत देने की प्रार्थना की, जिसे अदालत ने अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने माना कि धारा 438 के तहत शक्ति असाधारण है और केवल असाधारण मामलों में ही इसका प्रयोग कम से कम किया जाना चाहिए। यह देखा गया कि आवेदक को इस धारा के तहत जमानत देने के लिए एक विशेष मामला बनाना चाहिए। इसने आगे कहा कि जांच एजेंसी द्वारा पुलिस हिरासत में आरोपी की रिमांड की उचित मांग के मामले में धारा 438 के तहत शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने माना कि सार्वजनिक हित को संतुलित करने के लिए, गंभीर आर्थिक अपराधों में गंभीर भ्रष्टाचार से जुड़े विवेक का प्रयोग अदालत द्वारा नहीं किया जाना चाहिए।

इस आदेश के खिलाफ आवेदक ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ का गठन किया गया जिसने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विस्तृत दिशा-निर्देश निर्धारित किए, जो इस प्रकार हैं:

“विश्वास करने का कारण” (रीजन्स टू बिलीव)

विधायिका द्वारा ‘विश्वास करने का कारण’ शब्द का उपयोग इस तथ्य को बल देता है कि न्यायालय आवेदक को अग्रिम जमानत तभी देगा जब उसके पास यह मानने का कारण होगा कि उसे गैर-जमानती संज्ञेय अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है। विश्वास करने का यह कारण उचित आधार पर स्थापित होना चाहिए न कि केवल संदेह पर। आधार पर पर्याप्त सार होना चाहिए जिससे आवेदक का यह विश्वास हो। आवेदन में विशिष्ट तथ्यों और घटनाओं को निर्धारित किया जाना चाहिए जिसके कारण आवेदक ने उस विश्वास का निर्माण किया। कारण दिखावटी या टालमटोल करने वाले नहीं हो सकते। केवल भय ‘विश्वास’ नहीं है, इस प्रकार एक अस्पष्ट आशंका है कि कोई उसके खिलाफ आरोप लगाने जा रहा है, जिसके अनुसरण में उसे गिरफ्तार किया जा सकता है, पर्याप्त नहीं है। इस तरह के विश्वास को कुछ ठोस आधारों पर स्थापित किया जाना चाहिए, जिसकी अदालत निष्पक्ष रूप से जांच कर सकती है।

न्यायिक विवेक (ज्यूडिशियल डिस्क्रेशन)

विधायिका (लेजिस्लेचर) हाई कोर्ट और कोर्ट ऑफ सेशन को धारा 438 में “हो सकता है, अगर वह ठीक समझे” शब्द को शामिल करके व्यापक (वाइड) विवेक (डिस्क्रीशन) प्रदान करती है। न्यायालय ने माना कि इस विवेक को क़ानून में ऐसी शर्तों को शामिल करके सीमित नहीं किया जाना चाहिए जो मूल रूप से नहीं है जैसा कि हाई कोर्ट ने किया है। अग्रिम जमानत के मामलों में न्यायिक विवेक का प्रयोग प्रत्येक व्यक्तिगत मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आलोक में और उन शर्तों को लागू करके किया जाना चाहिए जो मामला वारंट कर सकता है। हाई कोर्ट द्वारा किए गए किसी भी प्रकार के सामान्यीकरण (जनरलआइजेशन) जैसे “आर्थिक अपराध’ या ‘स्पष्ट भ्रष्टाचार का मामला’ विधायिका द्वारा न्यायालयों को दिए गए विवेक के उद्देश्य को नष्ट कर देता है। इस प्रकार, धारा 438 के तहत शक्ति के प्रयोग के लिए कोई सीधा (स्ट्रेटजैकेट) फॉर्मूला नहीं हो सकता है। सामान्यीकरण करके कच्चा नियम बनाने का कोई भी प्रयास आवेदक के हित में प्रतिकूल रूप से बाधा डालेगा।

पुलिस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जांच की शक्तियों को संतुलित करना (बैलेंसिंग पर्सनल लिबर्टी एंड इन्वेस्टिगेशन पॉवर्स ऑफ द पुलिस)

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पुलिस की जांच शक्तियों में पर्याप्त जनहित शामिल है, लेकिन अदालत को पुलिस की शक्तियों और आवेदक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाना चाहिए। जमानत से इनकार सीधे तौर पर किसी व्यक्ति की आवाजाही (मूवमेंट) की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक घटक माना गया है। इस प्रकार, धारा 438 के तहत शक्ति के प्रयोग में दो हितों को संतुलित करना न्यायालय का कार्य है। धारा 438 के तहत आदेश देते समय जांच एजेंसी के साथ सहयोग करने और साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ नहीं करने के लिए आवेदक पर सामान्य शर्तें लागू करना, निर्बाध जांच सुनिश्चित करेगा जिससे हितों के टकराव को रोका जा सके।

धारा 438 के तहत असाधारण चरित्र की शक्ति है (पॉवर अंडर सेक्शन 438 बीइंग एक्स्ट्राआर्डिनरी इन कैरेक्टर)

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष कि धारा 438 के तहत शक्ति असाधारण प्रकृति की है, अनुचित है। यह प्रावधान केवल इस मायने में असाधारण है कि आमतौर पर सीआरपीसी की धारा 437 और धारा 439 के तहत जमानत के लिए आवेदन किया जाता है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि शक्ति का प्रयोग संयम से करना होगा। न्यायालय ने अपनी स्थिति को दोहराया कि धारा 438 के तहत शक्ति का प्रयोग विशिष्ट मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आलोक में किया जाना चाहिए। चूंकि कोई भी दो मामले समान नहीं हैं, ऐसे मामलों में जमानत देने के लिए कोई सूत्र नहीं निकाला जा सकता है।

कोई ब्लैंकेट आदेश जारी नहीं किया जाएगा ( नो ब्लैंकेट ऑर्डर टू बी इश्यूड)

धारा 438 अग्रिम जमानत के व्यापक आदेश पर विचार नहीं करती है। किसी भी अपराध के लिए आवेदक को जमानत पर रिहा करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है। आवेदन में विशिष्ट आरोप होना चाहिए जिसके खिलाफ राहत की प्रार्थना की गई है। एक व्यापक आदेश जिसमे उन अपराधो को निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) नही किया हो जिनके लिए जमानत दी गई हो तो इन मामले की जांच के लिए पुलिस के अधिकार में हस्तक्षेप होगा।

गिरफ्तारी के बाद कोई अग्रिम जमानत नहीं ( नो एंटीसिपेटरी बेल आफ्टर अरेस्ट)

कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अग्रिम जमानत का प्रावधान आवेदक की गिरफ्तारी से पहले जमानत देना है। एक बार आवेदक गिरफ्तार हो जाने के बाद, वह सीआरपीसी की धारा 437 या 439 के तहत जमानत के लिए आवेदन कर सकता है लेकिन धारा 438 के तहत नहीं।

प्राथमिकी ( एफआईआर) दर्ज करना, कोई शर्त नहीं (रजिस्ट्रेशन ऑफ एफआईआर, नॉट ए कंडीशन प्रेसिडेंट)

धारा 438 के प्रावधानों के तहत आवेदक के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है। ‘विश्वास करने का कारण’ शब्दों का उपयोग इंगित (इंडिकेट्स) करता है कि गिरफ्तारी की संभावना के लिए केवल उचित आधार ही न्यायालय को जमानत देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

ध्यान रखने योग्य बातें (कंसीडरेशंस टू बी केप्ट इन माइंड)

जबकि न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विचार असंख्य हैं, उसने कुछ विचार निर्धारित किए जैसे; आरोपों की प्रकृति और गंभीरता, मुकदमे में आवेदकों की उपस्थिति सुरक्षित नहीं होने की एक उचित संभावना, उचित आशंका कि गवाहों के साथ छेड़छाड़ की जाएगी, आरोपी की जांच को प्रभावित करने में सक्षम होने की आशंका और जनता और राज्य के बड़े हित, कि अदालत को धारा 438 के तहत मामले का फैसला करते समय ध्यान में रखना है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21, 1950 (आर्टिकल 21 ऑफ द कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया,1950)

धारा 438 किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहती है जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का एक घटक (कंपोनेंट) है। धारा 438 के तहत शक्तियों को लागू करते समय निष्पक्षता (फेयरनेस) की परीक्षा निहित है और न्यायालय प्रावधान के दायरे का निर्धारण करते समय किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं। ऐसी कोई भी सीमा अनुच्छेद 21 के लिए अस्थिर होगी।

जमानत की समय पर अवधि (ऑन टाइम पीरियड ऑफ बेल)

अदालत ने कहा, जमानत की समय अवधि को सीमित करना आवश्यक नहीं है और आमतौर पर इसे मुकदमे के अंत तक जारी रहना चाहिए। हालांकि, यदि ऐसा करने के लिए कारण हैं, तो न्यायालय एफआईआर के बाद एक उचित अवधि तक समय सीमित कर सकता है और आवेदक को धारा 437 या 439 के तहत जमानत का आदेश प्राप्त करने का निर्देश दे सकता है। सामान्य आदेश के तहत आदेश को सीमित नहीं करना चाहिए समय के बिंदु में धारा 438।

‘सिब्बिया’ के बाद न्यायिक फैसले (ज्यूडिशियल डिसीजनस आफ्टर सिब्बीया)

‘सिब्बिया’ के बाद सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश फैसलों ने मामले में निर्धारित कानून को दोहराया है। हालाँकि, ऐसे निर्णय भी हैं जो स्थापित कानून से थोड़ा सा विचलन (डायवर्जेंस) व्यक्त करते हैं।

  • समंदर सिंह बनाम राजस्थान राज्य(1987) 1 एससीसी 466 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को दहेज हत्या के मामले में शामिल व्यक्ति को निश्चित रूप से अग्रिम जमानत नहीं देनी चाहिए।
  • प्रवर्तन निदेशालय बनाम पी.वी प्रभाकर राव(1997) 6 एससीसी 647 में, एक ‘यूरिया घोटाला मामला’ जिसमें भारी राशि शामिल थी, सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिम जमानत की राहत से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने माना कि एकत्र की गई सामग्री ने प्रतिवादी के खिलाफ एक ‘आरोप लगाने वाली उंगली’ का खुलासा किया और उसने जांच को पूरा न करने में भी योगदान दिया। ऐसे में धारा 438 के तहत शक्ति का प्रयोग उचित नहीं है।
  • इन-स्टेट (सीबीआई) बनाम अनिल शर्मा (1997) 9 एससीसी 187 एक विधायक और पूर्व केंद्रीय दूरसंचार मंत्री (फॉर्मर यूनियन मिनिस्टर फॉर टेलीकम्युनिकेशन) के बेटे को इस आधार पर अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया गया था कि उच्च पदों पर भ्रष्टाचार के मामलों में जहां आरोपी ने उच्च पद धारण किए हैं, वह इस आधार पर काम कर सकता है व्यापक प्रभाव और जांच प्रभावित हो सकती है। कोर्ट ने कहा, “इस तरह के मामले में संदिग्ध व्यक्ति से प्रभावी पूछताछ से कई उपयोगी सूचनाओं को बाधित करने में काफी फायदा होता है और ऐसी सामग्री भी होती है जिसे छुपाया जाता अगर संदिग्ध व्यक्ति जानता है कि वह अच्छी तरह से संरक्षित और अपमानित है तो इस तरह की पूछताछ का उत्तराधिकार नहीं होगा। पूछताछ के दौरान गिरफ्तारी से पहले की जमानत”।
  • सिद्धराम मेहत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011) 1 एससीसी 694 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता को अग्रिम जमानत देने से इनकार करने वाले हाई कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और ‘सिब्बिया’ पर भरोसा करते हुए अग्रिम जमानत देने पर अपनी स्थिति को दोहराया। यह माना गया कि ऐसे मामले में हिरासत में पूछताछ से बचा जाना चाहिए जहां आरोपी जांच में शामिल हो गया है, सहयोग करने को तैयार है और उसके मुकदमे से भागने की कोई संभावना नहीं है। कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि धारा 438 के तहत शक्ति का मतलब असाधारण नहीं है कि इसका प्रयोग केवल असाधारण या दुर्लभ मामलों में ही किया जाना चाहिए। अपीलकर्ता को जांच में शामिल होने और जांच एजेंसी को पूरा सहयोग करने के निर्देश के साथ जमानत दी गई।
  • भद्रेश सेठ बनाम गुजरात राज्य (2016) में, सुप्रीम की खंडपीठ ने ‘सिब्बिया’ और ‘मेहतर’ मामले में निर्धारित सिद्धांतों पर भरोसा किया और अपीलकर्ता को यह देखते हुए जमानत दे दी कि उसके भागने की कोई संभावना नहीं है। न्याय की ओर से और अपीलकर्ता ने जांच की अवधि के दौरान कार्यवाही में भाग लिया है। पीठ ने आगे कहा कि जैसा कि इस न्यायालय की संविधान पीठ ने ‘सिब्बिया’ में कहा है, धारा 438 एक उदार व्याख्या की मांग करती है क्योंकि यह अनुच्छेद 21 में जीवन का अधिकार प्रदान करती है।
  • पी चिदंबरम बनाम प्रवर्तन निदेशालय 2019 में, अपीलकर्ता, एक पूर्व केंद्रीय मंत्री, ने आईएनएक्स मीडिया के एफडीआई लेनदेन में मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाते हुए एक मामले में अग्रिम जमानत देने से इनकार करने वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील की। अपीलकर्ता पर आईएनएक्स मीडिया के एफडीआई के लिए एफआईपीबी मंजूरी के लिए ‘रिश्वत’ प्राप्त करने का आरोप लगाया गया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने “यह मनी लॉन्ड्रिंग का एक उत्कृष्ट मामला है” कहते हुए आवेदन को अस्वीकार कर दिया। विद्वान न्यायाधीश (जज) ने कहा कि “अपराध की गंभीरता को देखते हुए और अपीलकर्ता द्वारा अदालत के संरक्षण में रहने के दौरान दिए गए टालमटोल जवाब दो कारक हैं जो आरोपी को गिरफ्तारी से पहले जमानत से इनकार करते हैं”। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने राज्य (सीबीआई) बनाम अनिल शर्मा के मामले में अपने फैसले पर भरोसा किया और कहा कि इस स्तर पर गिरफ्तारी से पहले जमानत देना आरोपी के रूप में जांच की सफलता को खत्म कर देगा। जानता है कि वह आदेश द्वारा संरक्षित है। कोर्ट ने आगे कहा कि आर्थिक अपराधों में गिरफ्तारी से पहले जमानत देने से निश्चित रूप से जांच में बाधा आएगी। पीठ ने कहा, “अग्रिम जमानत अधिकार के रूप में नहीं दी जा सकती। इसे कम से कम प्रयोग करना होगा, विशेष रूप से आर्थिक अपराधों में जो एक वर्ग को अलग करते हैं”

‘सिब्बिया’ और ‘चिदंबरम’ के फैसलों के बीच संघर्ष (कॉन्फ्लिक्ट बिटवीन रूलिंगस ऑफ सिब्बिया एंड चिदंबरम)

पी चिदंबरम को अग्रिम जमानत देने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी ने कानूनी बिरादरी में अशांति पैदा कर दी है। आर्थिक अपराधों के संबंध में अदालत द्वारा किया गया सामान्यीकरण कि वे एक ‘अलग वर्ग’ का गठन करते हैं, ‘सिब्बिया’ में न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों को गहराई से कम करते हैं, कि इस तरह का कोई भी सामान्यीकरण न्यायिक विवेक के अनुदान के उद्देश्य को नष्ट कर देता है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी माना कि धारा 438 के तहत शक्ति का प्रयोग संयम से किया जाना है, जबकि यह ‘सिब्बिया’ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देखा गया है और ‘म्हेत्रे’ और ‘भद्रेश सेठी’ में दोहराया गया है कि शक्ति केवल इस अर्थ में असाधारण है कि जमानत आमतौर पर सीआरपीसी की धारा 437 या 439 के तहत लागू होती है। गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य में निर्णय को ध्यान में रखते हुए न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा अग्रिम जमानत के विषय पर शासन करने वाली अब तक की सबसे बड़ी पीठ थी, यह एक बाध्यकारी मिसाल है। न्यायिक अनुशासन वारंट करता है कि बाध्यकारी मिसालों का पालन तब तक किया जाना चाहिए जब तक कि एक बड़ी पीठ द्वारा खारिज नहीं कर दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट ने सुभाष चंद्रा और एक अन्य बनाम दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड और एक अन्य (2009) 15 एससीसी 458 में तय कानूनी स्थिति को दोहराया कि संविधान पीठ के विपरीत विचार करने वाली छोटी ताकत की एक पीठ प्रति अपराध है (निर्णय देखभाल की कमी के माध्यम से पारित किया गया है जो निचली अदालत द्वारा पालन करने की आवश्यकता नहीं है)। पी चिदंबरम के मामले में खंडपीठ को अस्पष्ट सामान्यीकरण के बजाय ‘सिब्बिया’ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित मामले के विशेष तथ्यों और परिस्थितियों के आलोक में मामले का फैसला करना चाहिए था।

निष्कर्ष (कंक्लूजन)

दोषी साबित होने तक किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण के प्रशंसनीय (लौडेबल) उद्देश्य ने सांसदों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में धारा 438 डालने के लिए प्रेरित किया। एक अपराध किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि एक समाज के हित के खिलाफ किया जाता है और इसलिए एक अपराध की उचित जांच में एक समाज की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी होती है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जनहित के इन दो प्रतिस्पर्धी (कंपटिंग) हितों को अदालतों द्वारा धारा 438 के तहत अपने व्यापक विवेक का प्रयोग करते हुए सावधानीपूर्वक संतुलित किया जाना है। न्यायपालिका द्वारा अग्रिम जमानत पर कानून के दायरे और दायरे को बार-बार स्पष्ट किया गया है। यह व्यापक जनहित में है कि धारा 438 की व्याख्या अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्षता की कसौटी के आलोक में की गई है, ताकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर मनमानी और अनुचित सीमाओं को दूर रखा जा सके। इसके अलावा, कानून पर लगातार न्यायिक निर्णयों में असंगति चिंता का कारण है, क्योंकि उच्च और शक्तिशाली द्वारा कानून को दुरुपयोग के लिए खाली छोड़ देता है और अग्रिम जमानत पर स्पष्टता के लिए बहुत कम जगह छोड़ता है।

 

 

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