नवीनतम श्रम कानून संशोधन: 2020

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Labour Laws
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यह लेख स्कूल ऑफ लॉ, यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज, देहरादून से Chandana Pradeep द्वारा लिखा गया है। यह लेख “औद्योगिक संबंध संहिता (इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड), 2020” द्वारा लाए गए नए परिवर्तनों का विश्लेषण (एनालिसिस) करता है, और यह भी देखता है कि ऐसे संशोधनों (अमेंडमेंट) की आवश्यकता क्यों थी। इस लेख का अनुवाद Sakshi kumari ने किया हैl

परिचय

भारत के संविधान के अनुसार, “श्रम (लेबर)” समवर्ती सूची (कंक्योरेंट लिस्ट) के अंतर्गत आता है जो राज्य और विधायिका (लेजिस्लेचर) दोनों को कानून बनाने और उनमें संशोधन करने की शक्ति देता है। श्रम कानून (लेबर लॉ) की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) एक गतिशील (डायनेमिक) क्षेत्र रही है क्योंकि यह समय और परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है। संसद (पार्लियामेंट) ने हाल ही में एक बड़ा संशोधन किया है जहां श्रम कानून को तीन कानूनों में समेकित (कंसोलीडेट) किया गया है जो औद्योगिक संबंध कोड, सामाजिक सुरक्षा संहिता (सोशल सिक्योरिटी कोड) और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति बिल (द ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल) हैं जिन पर इस लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।

श्रम की अवधारणा

हालांकि “श्रम” को अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) की एक मजबूत रीढ़ (बैकबोन) माना जाता है लेकिन इसे अक्सर इतने महत्व से नहीं देखा जाता है। परिभाषा के अनुसार श्रम वह कार्य है जो लोगों द्वारा अपनी शारीरिक या मानसिक शक्ति के उपयोग से आय (इनकम) के लिए किया जाता है जो कि मौद्रिक प्रकृति (मोनेट्री नेचर) के रूप में सबसे अधिक जाना जाता है।

प्रो. मार्शल ने श्रम की अवधारणा को परिभाषित किया है, “श्रम से तात्पर्य मनुष्य का आर्थिक कार्य है, चाहे वह हाथ से हो या सिर से”।

विभिन्न प्रकार के कार्य जो श्रमिकों (लेबर्स) द्वारा नियोक्ता (एंप्लॉयर) के लिए किया जाता है, भले ही वह कुशल हो या न हो और जो कर्मचारी इसे करते हैं उन्हें उनके कर्मचारी माना जाता है।

भारत में मजदूरों को नियंत्रित करने वाले कानून

वर्षों से, मजदूरों की सुरक्षा को महत्व मिला है ताकि कर्मचारियों के अधिकारों की भी रक्षा की जा सके, न कि केवल नियोक्ताओं के अधिकारों की और इसके लिए भारत सरकार द्वारा भी बहुत सारे कानून बनाए गए हैं।

ऐसे कानूनों को बनाया गया जो कर्मचारियों की आवाज उठाए और उनकी चिंताओं का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट) किया जा सके और नियोक्ताओं द्वारा सुना जा सके।

अक्सर, नियोक्ता कर्मचारियों द्वारा किए गए काम को हल्के में लेते हैं क्योंकि उनका उन पर एक प्रमुख अधिकार (डॉमिनेंट अथॉरिटी) होता है, और इस वजह से, उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए समय के साथ विशिष्ट (स्पेसिफिक) कानून बनाए गए हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाए गए कुछ कानून इस प्रकार हैं:

  1. ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926:  यह अधिनियम कुछ प्राथमिक (प्राइमरी) अधिनियमों में से एक था, जिसे इसलिए बनाया गया था ताकि कर्मचारियों के पास अपने कार्यक्षेत्र (फील्ड ऑफ वर्क) से संबंधित किसी भी चीज़ के संबंध में अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिए एक मंच हो, जैसे कि नियोक्ता, वेतन, काम करने की स्थिति, आदि के रूप में कर्मचारियों को उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार है।
  2. औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट), 1947: यह अधिनियम ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 के साथ साथ चलता है। इस अधिनियम को लागू किया गया है और इसमें विशिष्ट धाराएँ दी गई हैं ताकि कर्मचारियों को उचित कारण के बिना उनके काम से हटाया न जा सके और ये अन्य कानूनों के साथ उचित रहे जो कामचारियो के अधिकारों की रक्षा करते हैं।
  3. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (मिनिमम वेज एक्ट), 1948: यह अधिनियम इसलिए बनाया गया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी दी जाएगी और इससे कम की राशि नहीं दी जा सकती है। न्यूनतम मजदूरी जो तय की गई है वह राज्यों के अनुसार भिन्न होती है क्योंकि न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने वाले कारक (फैक्टर) उस प्रकार के कार्य हैं जो व्यक्ति करता है और साथ ही मानव की जरूरतों को पूरा करने के लिए कितनी आय की आवश्यकता है उस हिसाब से तय होती है।
  4. अन्य कानून: अन्य कानून जो इन कर्मचारियों के अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में काम करते हैं, वे हैं फैक्ट्री एक्ट, 1948, मैटरनिटी बेनिफिट्स एक्ट, 1961, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट, 1965, आदि।

ये सभी कानून इसलिए बनाए गए हैं ताकि कर्मचारियों के पास अपनी चिंताओं के साथ-साथ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए एक मंच हो और यदि उनका उल्लंघन किया जाए तो वे अदालत की मदद भी ले सके।

समय के साथ, विभिन्न मुद्दों और चिंताओं को ध्यान में रखते हुए कानूनों में संशोधन किया गया है, जिनका सामना कर्मचारियों को उनके कार्यस्थल (वर्कप्लेस) पर करना पड़ रहा है।

हाल ही में एक कानून जो कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था, वह है कार्यस्थल पर महिला कर्मचारियों का यौन उत्पीड़न अधिनियम (सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वूमेन एंप्लॉय एट वर्कप्लेस एक्ट), 2013 जो यौन उत्पीड़न के मुद्दों की एक श्रृंखला (सीरीज) बढ़ने के बाद दिसंबर 2013 में लागू हुआ।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का इतिहास (हिस्ट्री ऑफ द इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन)

विश्व युद्ध के बाद श्रमिकों की दयनीय (डेप्लोरेबल) स्थिति को देखते हुए श्रम कानूनों को पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली थी और इसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का विकास हुआ था।

युद्ध की अवधि के बाद, सामाजिक अशांति बढ़ रही थी क्योंकि श्रमिकों से युद्ध के दौरान वादा कि गई चीजें उन्हें नही दी गई थी और उनके रहने की स्थिति दिन-ब-दिन बुरी होती जा रही थी। नए संगठन के पास श्रम के अंतरराष्ट्रीय मानकों (स्टैंडर्ड) को विकसित करने और उनके कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) की निगरानी करने की शक्ति थी। इस संगठन ने श्रमिकों के साथ-साथ नियोक्ताओं को भी समान निर्णय लेने की शक्तियाँ दीं और इसे धीरे-धीरे भारत सहित विभिन्न देशों में भी दोहराया जाने लगा।

आईएलओ का निर्माण प्रगति हासिल करने और हितों के टकराव (कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट) पर काबू पाने के सिद्धांत पर संवाद (डायलॉग) और समावेशन (इनकॉरपोरेशन) जैसे तरीकों के माध्यम से एक ऐसे वातावरण में किया गया था जो सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) और शांतिपूर्ण हो।

भारत में ट्रेड यूनियनों का इतिहास

1926 का ट्रेड यूनियन अधिनियम कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अधिनियमित (इनैक्ट) किए जाने वाले पहले अधिनियमों में से एक रहा है और वे विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) में आए क्योंकि श्रमिकों की स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि दैनिक जरूरतों के लिए चीजों की कीमत तेजी से बढ़ गई थी और पश्चिम के साथ-साथ, भारतीय श्रमिकों में भी अपने अधिकारों के लिए पूछने की जागृति (आवेकनिंग) आई।

इसके अनुसरण (परस्यूट) में, पहली हड़ताल (स्ट्राइक) वर्ष 1877 में बॉम्बे में हुई थी, जिसका उद्देश्य बॉम्बे मिल वर्कर्स में काम करने की स्थिति के खिलाफ कर्मचारियों द्वारा सामना की जाने वाली चिंताओं को दूर करना था और इसे धीरे-धीरे बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन द्वारा बंद कर दिया गया था। यह संगठन वर्ष 1890 में गठित किया गया था, और यह संगठन भारत में स्थापित पहले ट्रेड यूनियनों में से एक है।

भले ही ट्रेड यूनियन बनाई गई थीं, फिर भी बहुत सारे मुद्दे और समस्याएं उत्पन्न हो रही थीं क्योंकि ट्रेड यूनियनों को विभिन्न कारणों से ठीक से काम करने की अनुमति नहीं थी और प्रतिनिधियों को अक्सर जेल में डाल दिया जाता था, जो वास्तविक कारण के प्रतिकूल (काउंटर प्रोडक्टिव) था की पहले स्थान पर एक ट्रेड यूनियन क्यों बनाया गया था।

रॉयल कमिशन ऑफ लेबर की राय थी कि अधिनियम की हर तीन साल के बाद फिर से जांच की जानी चाहिए और ट्रेड यूनियनों पर लगाई गई सीमाओं पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 में कई संशोधन किए गए थे।

इसके बाद, अन्य अधिनियम भी थे जो कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए थे ताकि कानून श्रम के मानकों (स्टैंडर्ड) और विकास के अनुसार विकसित हो सकें।

2020 में श्रम कानूनों में पेश किए गए संशोधन 

हाल ही में, संसद ने तीन बिल पारित किए थे जिन्होंने श्रम कानूनों को पूरी तरह से बदल दिया था। सभी मौजूदा 29 श्रम क़ानूनों को समेकित (कंसोलिडेट) कर दिया गया है और केवल यह एक नया कानून जो पास किया गया है, वह भारत में श्रम कानूनों को नियंत्रित करेगा। संसद द्वारा पारित किए गए तीन नए बिल औद्योगिक संबंध कोड बिल (इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल), 2020, सामाजिक सुरक्षा बिल (सोशल सिक्योरिटी बिल), 2020 पर संहिता, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति बिल (द ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ, एंड वर्किंग कंडीशन बिल), 2020 हैं। इन सभी संहिता में  विभिन्न संशोधन किए गए हैं जो इस प्रकार हैं:

औद्योगिक संबंध संहिता बिल, 2020

1946 के औद्योगिक रोजगार स्थायी आदेश अधिनियम(इंडस्ट्रियल एम्प्लॉयमेंट स्टैंडिंग ऑर्डर एक्ट) के अनुसार, 100 से अधिक श्रमिकों को काम पर रखने वाले कार्यस्थलों के लिए यह महत्वपूर्ण था कि वे विशेष रूप से इस बात का उल्लेख करते हुए सेवा नियम तैयार करें कि श्रमिकों को स्वयं के साथ-साथ कार्यस्थल में पालन किए जाने वाले अन्य नियमों और विनियमों (रेगुलेशन) का पालन कैसे करना चाहिए। इन नियमों को श्रमिकों को अनिवार्य रूप से जानना था। अब नए बिल के मुताबिक इसे बढ़ाकर 300 से ज्यादा वर्कर्स वाले वर्कप्लेस तक कर दिया गया है। जिससे नियोक्ताओं के लिए इन नियमों को बनाना आवश्यक नहीं है यदि उनके पास 300 से कम कर्मचारी हैं और इसके कारण, कंपनियों के लिए कर्मचारियों को काम पर रखना और निकालना आसान हो जाता है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट) 1947 की धारा 22 के तहत कर्मचारियों के लिए किसी भी सार्वजनिक उपयोगिता (पब्लिक यूटिलिटी) के मामले में हड़ताल पर जाने से पहले 6 सप्ताह की नोटिस अवधि देना अनिवार्य किया गया था, इसमें संशोधन किया गया है और सार्वजनिक उपयोगिता को “कोई भी औद्योगिक प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) के साथ बदल दिया गया है” । इसके साथ ही, यदि न्यायालय में कोई विवाद का समाधान चल रहा है, तो जो कर्मचारी हड़ताल पर जाना चाहते हैं, उन्हें अपने नियोक्ताओं को 60 दिन की नोटिस अवधि देनी होगी, भले ही कार्यवाही पूरी हो गई हो। इस नए प्रावधान (प्रोविजन) के तहत हड़ताल पर जाने की गुंजाइश काफी कम कर दी गई है।

औद्योगिक संबंध संहिता (इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड) की धारा 83 के तहत इस बिल में एक और संशोधन पेश किया गया है कि नियोक्ता द्वारा छंटनी (रिट्रेंचड) किए गए किसी भी कर्मचारी को एक रीस्किलिंग फंड प्रदान किया जाएगा और व्यक्ति को राशि पिछले 15 दिनों में मिलेगी। 

सामाजिक सुरक्षा संहिता बिल, 2020

धारा 6 (1) के तहत इस बिल के प्रावधान में कहा गया है कि राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड नामक एक नया बोर्ड स्थापित किया जाएगा जो सरकार को नई योजनाओं पर सलाह देगा जो असंगठित (अनऑर्गेनाइज्ड) क्षेत्र के श्रमिकों या अस्थायी तौर पर काम करने वाले श्रमिकों को लाभान्वित करेगी। 

कोई भी नियोक्ता जो किसी व्यक्ति को अस्थायी (टेंपररी) आधार पर (गिग वर्कर) नियुक्त करता है, उसे इन गिग वर्कर्स की सामाजिक सुरक्षा के लिए अपने वार्षिक टर्नओवर का कम से कम 1 या 2% योगदान करना होता है।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति बिल, 2020

धारा 2 (zf) के तहत “अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिकों (इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर)” की परिभाषा 2019 के बिल से बदल गई थी। अब यह इस शब्द को परिभाषित करता है कि जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से दूसरे राज्य में काम की तलाश में आता है और उसकी आय 18,000 रुपये या उससे कम है, तो उसे अंतर राज्यीय प्रवासी श्रमिक कहा जाएगा, साथ ही यह नया बिल अंतर राज्यीय प्रवासी श्रमिक को बहुत सारे फायदे भी देता है। 

“कारखाना (फैक्ट्री)” की परिभाषा को 2019 के बिल से संशोधित किया गया है और इस बिल के अनुसार, यह खनन (माइनिंग) को परिभाषा से बाहर करता है। अन्य संशोधनों में यह शामिल है कि एक कर्मचारी के काम के कुल घंटे आठ घंटे प्रतिदिन निर्धारित किए गए हैं, और महिलाएं किसी भी कार्यस्थल पर काम कर सकती हैं और यदि उन्हें किसी खतरनाक कार्यस्थल पर काम करने की आवश्यकता होती है, तो नियोक्ता पहले आवश्यक सावधानी बरतने के लिए बाध्य हैं।

ऐसे संशोधनों के कारण

श्रम कानून में इतना बड़ा बदलाव क्यों हुआ है, इसका एक बड़ा कारण यह है कि यह समय की मांग है, विशेष रूप से इस कोविड युग को देखते हुए, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। कई श्रमिकों को अपने रोजगार के संबंध में बहुत सारे परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि कई कर्मचारियों को बिना किसी कारण के नौकरी से निकाल दिया जाता है या उनके कार्यस्थल के माहौल आदि से संबंधित चिंताओं का सामना करना पड़ता है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि श्रम के विकास के साथ-साथ कानूनों में भी संशोधन किया जाए ताकि अर्थव्यवस्था के कामकाज को सुचारू (स्मूथ) रूप से काम किया जा सके। 

इसके अलावा, श्रम कानून के संबंध में सभी विभिन्न कानूनों को समेकित करना आसान है और कानूनों की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिट) के बारे में भी कोई भ्रम नहीं है।

ऐसे संशोधनों के परिणाम

सिक्के के दो पहलुओं की तरह इस संशोधन के भी नतीजे हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

  1. निश्चित अवधि के अनुबंधों (फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट) की अवधारणा- यह, हालांकि प्रमुख भाग के लिए श्रमिकों के लिए एक वरदान है क्योंकि एक निश्चित अवधि के अनुबंध के माध्यम से वे लाभ प्राप्त कर सकते हैं, भले ही वे थोड़े समय के लिए नियोजित हों लेकिन प्रभुत्व (डॉमिनेंस) का मुद्दा उत्पन्न हो सकता है लेकिन यहां पावर प्ले हो सकता है क्योंकि यहां बिचौलियों (मिडिल मैन) का कोई रूप नहीं है और बातचीत सिर्फ कर्मचारी और नियोक्ता के बीच की जाती है, पावर प्ले एक नकारात्मक कारक (नेगेटिव फैक्टर) हो सकता है।
  2. हड़तालें और कठिन हो गईं- वर्तमान बिल श्रमिकों के लिए हड़ताल पर जाना और भी कठिन बना देता है क्योंकि संशोधित प्रक्रिया के कारण वास्तव में हड़ताल करने की प्रक्रिया में देरी होती है।
  3. सभी शर्तें निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) नहीं हैं- हालांकि परिभाषा में नए समावेश (इंक्लूजन) किए गया हैं, लेकिन इसमें उन शब्दों की कुछ अन्य परिभाषाएं भी शामिल नहीं हैं, जिनका उपयोग अक्सर संहिता में किया जाता है, जैसे कि 18,000 रुपये से अधिक वेतन पाने वाले श्रमिकों की परिभाषा, या “प्रबंधक (मैनेजर)”, “पर्यवेक्षक (सुपरवाइजर)” आदि को शामिल नहीं किया गया है।
  4. दीवानी न्यायालय (सिविल कोर्ट) पर रोक लगा दी गई है- दीवानी अदालत इस बिल के संबंध में मामलों की सुनवाई नहीं कर सकती है, लेकिन विवादों के मामले में कर्मचारी विशिष्ट अपीलीय प्राधिकारी (स्पेसिफिक अपीलैंट अथॉरिटी) को सूचित कर सकते हैं और वे केवल उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर करके उपाय (रेमेडी) की तलाश कर सकते हैं। इसलिए यह एक तरह से लोगों को निचली अदालत मे अपने मामले दर्ज करने की अनुमति नहीं देता है।

सुझाव

एकमात्र सुझाव यह होगा कि नए कोड कारण और प्रभाव के संदर्भ में संतुलित हो और वे कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों के संबंध में अधिक न्यायसंगत हैं।

निष्कर्ष

श्रमिक अनादि काल से अर्थव्यवस्था के विकास में एक मजबूत स्तंभ रहे हैं और इन कानूनों को मजदूर वर्ग की जरूरतों और विकास के साथ सुधारने की जरूरत है ताकि कानून भी समय बीतने के साथ विकसित हों और  श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा भी की जाती है।

वैश्विक संकट (ग्लोबल क्राइसिस) के संबंध में नए संशोधन बहुत आवश्यक थे, जिसके कारण सैकड़ों लोगों ने अपनी नौकरी खो दी है और ये कानून नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों के साथ संतुलन बनाने में भी मदद करते हैं जिसकी बहुत आवश्यकता है।

संदर्भ

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