यह लेख Shivangi Tiwari द्वारा लिखा गया है, जो बी.ए. की पढ़ाई कर रही द्वितीय वर्ष की छात्रा है। एलएलबी हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर से। यह आईपीसी के तहत क्षेत्राधिकार से संबंधित एक विस्तृत लेख है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar
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परिचय
अधिकार क्षेत्र इस शब्द को लैटिन शब्दों, “जुरिस” और “डिसर”(dicere) से लिया गया है। ‘जुरिस’ का अर्थ है कानून और ‘डिसर’ का अर्थ है बोलना। क्षेत्राधिकार (जुरिसडिक्शन), व्यावहारिक अधिकार (प्रैक्टिकल राइट) या प्रभुत्व (डोमिनेंस) के बारे में बताता है, जो एक कानूनी निकाय (गवर्नमेंट कमिटी) को दिया जाता है, ताकि वह उस दिए गए क्षेत्र के अंदर ही न्याय कर सके। कानूनी निकाय शब्द के दायरे में एक अदालत, राजनीतिक या सरकारी कार्यालय या एक कानून प्रवर्तन एजेंसी (लॉ इन्फोर्समेंट एजेंसी) शामिल है। क्षेत्राधिकार के नियम को लागू करने के पीछे का कारण केवल इतना था कि कोई भी न्यायालय केवल उन मामलों में फैसला सुना सके जो उनके क्षेत्रीय(टेरीटोरियल) या आर्थिक(पिक्युनियरी) जुरिसडिक्शन के दायरे में आते हैं। अदालत प्रणाली (कोर्ट सिस्टम) में तीन प्रकार के क्षेत्राधिकार होते हैं, जो इस प्रकार हैं:
अधिकार क्षेत्र की विषय वस्तु (सब्जेक्ट मैटर ऑफ़ जुरिसडिक्शन)
यह विशेष विषय(पर्टिकुलर सब्जेक्ट) से संबंधित मामलों का ट्रायल करने के लिए अदालत के पास के अधिकार के बारे में बात करता है। उदाहरण के लिए, एक पारिवारिक न्यायालय (फैमिली कोर्ट) के पास केवल पारिवारिक कानून से संबंधित मामलों की सुनवाई का अधिकार क्षेत्र होता है।
प्रादेशिक क्षेत्राधिकार (टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन)
यह एक निश्चित भौगोलिक सीमा(सर्टेन ज्योग्राफिकल लिमिट) के अंदर होने वाले मामलों की सुनवाई के लिए अदालत के अधिकार को बताता है और जिसमें एक विशेष भौगोलिक सीमा में रहने वाले लोग शामिल होते हैं।
व्यक्तिगत क्षेत्राधिकार में (परसोनम जुरिसडिक्शन)
यह अदालत के उस क्षेत्राधिकार के बारे में बात करता है जो एक प्राकृतिक (नेचुरल) और कानूनी निकाय(लीगल बॉडी) पर आधारित जैसे कंपनी से संबंधित होता है। यह वह अधिकार है जिसमें अदालत दोनो पक्षों के अधिकारों और देनदारियों (लायबिलिटी) को तय करती है।
भारत का आधिकारिक आपराधिक कोड (ऑफिशियल क्रिमिनल कोड) भारतीय दंड संहिता, 1860 है और यह आपराधिक कानून के मुख्य पहलू से जुड़ी सभी बातों के बारे में बात करता है। यह वर्ष 1860 में तैयार किया गया था और 1862 में लागू हुआ। भारतीय दंड संहिता में हमें अंतर-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार (इंटर टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन) के बारे में देखने को मिलता है, जबकि कोड की धारा 3 और 4 से हमें, अतिरिक्त-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार (एक्स्ट्रा टेरिटोरियल जुरिसडिक्शन) के बारे में पता चलता है।
अंतर-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार और अतिरिक्त-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार
भारतीय दंड संहिता की धारा 2 के अंतर्क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार से संबंधित है। यह अधिनियम के प्रावधानों (प्रोविजंस ऑफ़ द ऐक्ट) के विरुद्ध प्रत्येक कार्य या चूक करने वाले सभी व्यक्तियों पर कोड को सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) रूप से लागू करता है। धारा 3 और धारा 4 संहिता को बाहरी क्षेत्राधिकार प्रदान करते हैं। जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को भारत के क्षेत्र से बाहर किए गए किसी भी कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
अंतर-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार(इंट्रा टेरीटोरियल जुरिसडिक्शन)
भारतीय दंड संहिता की धारा 2 में कहा गया है कि हर एक व्यक्ति जो कोई कार्य करता है या कानून में दिए गए कार्य करने से चूक जाता है जो कि इस संहिता के प्रावधानों के विपरीत(अगेंस्ट) है, उसे सज़ा दी जायेगी। यहां, हर एक गलत काम करने वाले को उसकी राष्ट्रीयता(नेशनेलिटी), पद(रैंक), जाति(कास्ट) या पंथ(क्रीड) के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सजा के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है। इस धारा के अनुसार किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने की एकमात्र आवश्यकता यह है कि उस व्यक्ति ने भारत के क्षेत्र के अंदर कार्य या कोई चूक की हो। इस प्रकार एक विदेशी जिसने देश के क्षेत्र में गलत किया है, वह भारतीय कानून की अज्ञानता (इग्नोरेंस ऑफ़ लॉ) की दलील नहीं दे सकता है। हालांकि, कोड में सार्वभौमिक आवेदन के अपवाद(एक्सेप्शन)हैं और इसलिए विशिष्ट वर्ग(स्पेसिफिक क्लास) के लोग आपराधिक दायित्व (क्रिमिनल लायबिलिटी) से मुक्त हैं, उन लोगों के वर्ग में शामिल हैं:
- विदेशी संप्रभु (फॉरेन सोवरिन);
- राजनयिक (डिप्लोमेट);
- दुश्मन एलियंस (एनेमी एलायंस);
- विदेशी सेना और युद्धपोत (फॉरेन आर्मी एंड वारशिप);
- राष्ट्रपति और राज्यपाल (प्रेसिडेंट एंड गवर्नर)।
धारा 2 का दायरा: व्यक्तिगत क्षेत्राधिकार
संहिता की धारा 2 में कहा गया है, कि कोड के प्रावधान ‘प्रत्येक व्यक्ति’ पर लागू होते हैं जो भारत के क्षेत्र में कोई कार्य करता है या कोई कार्य करने से चूक जाता है जो अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन में लिखा गया है। संहिता के दायरे में आने वाले लोग इस प्रकार हैं:
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विदेशी नागरिक (फॉरेन सिटिज़न)
विदेशी नागरिक जो भारत के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, वह अपनी निहित इच्छा (इंप्लाइड कॉन्सेंट) से भारतीय कानून की रक्षा की मंजूरी देते हैं। एक व्यक्ति जो कुछ समय के लिए भारत में मौजूद है और भारत के क्षेत्र के बाहर किसी अपराध को करने के लिए उकसाता (अबेट) है, वह भी अधिनियम के तहत जिम्मेदार है। भारतीय अदालतों द्वारा यह भी तय किया गया है कि एक व्यक्ति जो भारत के क्षेत्र में होता है और भारत के क्षेत्र के बाहर अपराध शुरू करता है वह अधिनियम के तहत दी गई सज़ा के लिए जिम्मेदार होगा।
मोबारिक अली बनाम बॉम्बे राज्य के मामले में, एक व्यक्ति जो एक पाकिस्तानी नागरिक था, उसने बॉम्बे में रहने वाले एक व्यक्ति को टेलीग्राम, टेलीफोन, पत्रों के माध्यम से बातचीत कर, उसे पैसे भेजने का लालच दिखाकर उस व्यक्ति को अपराध करने के लिए प्रेरित किया। जब मामला अदालत के सामने आया, तो पाकिस्तानी नागरिक ने दलील दी कि वह धोखाधड़ी (फ्रॉड) के अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वह शारीरिक रूप से भारत के क्षेत्र में मौजूद नहीं था। अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि अधिनियम की धारा 2 के अनुसार अधिकार क्षेत्र का आधार अपराधी की शारीरिक उपस्थिति (फिजिकल प्रेजेंस) नहीं है, बल्कि वह इलाका है जहां अपराध किया गया है और क्योंकि अपराधी ने बॉम्बे में अपराध किया है, यह महत्वहीन है कि उस समय अपराध किए जाने पर वह भारत के राज्यक्षेत्र में मौजूद नहीं था। इसी तरह, महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर हंस जॉर्ज के मामले में, अदालत ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के तहत विदेशी को उत्तरदायी ठहराया, जहां उसने हवाई जहाज के माध्यम से अपनी यात्रा के दौरान सोने के बारे में एक स्पष्ट घोषणा किए बिना उसमे प्रयास किया और जैसे ही विमान भारतीय क्षेत्र में उतरा, उसे किए गए कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया गया।
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निगम (कॉर्पोरेशन)
भारतीय दंड संहिता की धारा 11 “व्यक्ति” शब्द का अर्थ उसकी परिभाषा द्वारा बताती है, इस धारा के अनुसार “व्यक्ति” में सभी प्राकृतिक और कानूनी व्यक्ति (लीगल पर्सन) शामिल हैं जिसमें कंपनी, संघ या व्यक्तियों का निकाय (बॉडी ऑफ़ पर्सन्स) शामिल है जिसका कानूनी अस्तित्व है। एक कंपनी को कानून के तहत उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, भले ही वह अनिगमित (अन-इनकॉरपोरेट) हो। एक कंपनी खुद से कोई अपराध नहीं कर सकती है लेकिन वह अपने मध्यस्थ कम करने वाले व्यक्ति (एजेंट) के माध्यम से ऐसा कर सकती है। कंपनी को जुर्माना लगाकर दंडित किया जा सकता है जबकि उसके नियोक्ताओं (नियोक्ताओं) को आपराधिक साजिश (क्रिमिनल कॉन्सपिरेसी) के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। महाराष्ट्र राज्य बनाम सिंडिकेट ट्रांसपोर्ट कंपनी के मामले में, अदालत ने माना कि किसी विशेष कंपनी के निदेशक (डायरेक्टर), अधिकृत एजेंट या नौकरों द्वारा आपराधिक कृत्य या चूक के मामलों में आपराधिक मनःस्थिति (मेन्स री) की उपस्थिति महत्वहीन है और कंपनी को अधिनियम का उल्लंघन या चूक के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जो संहिता के उल्लंघन में है। पश्चिम बंगाल बनाम कलकत्ता निगम के कानूनी मामलों के अधीक्षक और स्मरण करता (सुपरिटेंडेंट एंड रिमाइंडर) के मामले में, अदालत ने माना कि एक राज्य को भी अपने एजेंट के गलत कार्यों या चूक के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के दायरे में कौन नहीं आते हैं
भारतीय दंड संहिता की धारा 2 के प्रावधानों के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति जो कोई आपराधिक कार्य करता है या कोई ऐसा कार्य करने से चूक जाता है जो संहिता के प्रावधानों के विपरीत है, वह दंड के लिए भागी होगा। प्रत्येक गलत करने वाले को उसकी राष्ट्रीयता, पद, जाति या पंथ के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सजा दी जाएगी। हालांकि, भारत में कोड के इस सार्वभौमिक अनुप्रयोग के कुछ अपवाद हैं और कुछ लोग संहिता के तहत आपराधिक दायित्व से मुक्त हैं, जिन लोगों को दायित्व से छूट दी गई है, वह नीचे बताए गए हैं:
विदेशी संप्रभु
किसी भी देश का एक विदेशी संप्रभु देश का अंतिम या सर्वोच्च अधिकार रखता है और उसे संहिता के तहत अपराध से छूट दी जाती है।
राजदूत और राजनयिक
राजदूत एक मान्यता प्राप्त स्थायी प्रतिनिधि होता है जिसे एक देश दूसरे देश में भेजता है, लेकिन एक राजनयिक वह व्यक्ति होता है जो दूसरे देश में देश का प्रतिनिधित्व करता है। राजदूतों और राजनयिकों को संहिता के तहत दायित्व से छूट दी गई है, इस तरह की छूट का कारण यह है कि एक विदेशी संप्रभु अपने देश के प्रतिनिधि के रूप में राजदूतों और राजनयिकों को अच्छे विश्वास में भेजता है और इसलिए वे उस देश के स्वतंत्र संप्रभु (इंडिपेंडेंट सॉवरिन) के प्रतिनिधि हैं, इसलिए, उन्हें उसी प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) का आनंद लेना चाहिए, जो उस देश के संप्रभु को प्रदान की जाती है जिस देश का वह प्रतिनिधित्व करता है। उन्हें दी गई छूट संयुक्त राष्ट्र विशेषाधिकार (यू एन प्रिविलेज) और प्रतिरक्षा अधिनियम 1947 जैसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप है जो राष्ट्रीय कानूनों का एक हिस्सा है।
विदेशी शत्रु
जब कोई विदेशी शत्रु देश पर आक्रमण करता है, भले ही वे जिस देश से संबंधित हों, वह युद्ध में हो या हमारे देश के साथ शांति से हो, वह देश के आपराधिक कानूनों के अधीन नहीं होगा, लेकिन वह देश के मार्शल लॉ से निपटा जाएगा। यदि कोई विदेशी शत्रु कोई ऐसा अपराध करता है जो किसी भी तरह से युद्ध से जुड़ा नहीं है, तो उन कार्यों को आपराधिक कानूनों के अधीन किया जाएगा।
विदेशी सेना
जब विदेशी सेनाएं अपने देश की अनुमति से दूसरे देश की धरती पर होती हैं। उन्हें जिस जमीन पर वे खड़े हैं उस राज्य की आपराधिक देनदारियों से छूट दी गई है।
युद्धपोत
युद्धपोत जो पानी में प्रवेश करते हुए दूसरे देश के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में आते हैं, वे उस देश के दंड कानूनों के अधीन नहीं होते हैं।
राष्ट्रपति और राज्यपाल
संविधान के भाग 19 के तहत अनुच्छेद 361 के प्रावधान भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 14 और धारा 2 के अपवाद हैं। यह बताता है की:
- कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को पद की अवधि के दौरान अपने कर्तव्य करते समय किसी भी न्यायालय के सामने जवाबदेह (अंसराबल) नहीं बनाया जा सकता है,
- राज्यपाल और राष्ट्रपति के पद की अवधि के दौरान, उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती है,
- पद की अवधि के दौरान, राष्ट्रपति और राज्यपाल को गिरफ्तार या कैद नहीं किया जा सकता है,
- यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने व्यक्तिगत दायित्व में कोई कार्य करते हैं, तो उनके कार्यकाल के दौरान उनके खिलाफ कोई दीवानी कार्यवाही (सिविल प्रोसीडिंग्स) नहीं की जा सकती है।
धारा 5: धारा 2 का अपवाद
धारा 5 एक बचत खंड (सेविंग्स क्लॉज) है और, उस मामले पर संहिता के आवेदन (एप्लीकेशन ऑफ द कोड) को छोड़कर जिसके लिए विशिष्ट कानून पहले से मौजूद हैं वहां भारतीय दंड संहिता, 1860 के क्षेत्राधिकार को सीमित करने का प्रावधान बताता है। यह उन लोगों के विशिष्ट वर्ग पर कानून की प्रयोज्यता (एप्लिकेबिलिटी) को सीमित करता है जिनके लिए देश में पहले से ही विभिन्न कानून मौजूद हैं। अधिनियम में निहित ऐसा कुछ भी लागू नहीं किया जाएगा जो धारा 5 के अनुसार, किसी भी विशेष और स्थानीय कानूनों और किसी भी मौजूदा कानून के मामलों में हस्तक्षेप करता है।
- भारत सरकार के लिए काम करने वाले किसी अधिकारी, नाविक (सैलरी), सैनिक या वायुसैनिकों की सजा, विद्रोह या परित्याग।
- धारा 5 धारा 2 का अपवाद है, धारा 2 भारत के क्षेत्र के भीतर प्रत्येक व्यक्ति पर उसकी राष्ट्रीयता, पद, जाति या पंथ के बावजूद संहिता को सार्वभौमिक बनाती है जबकि धारा 5 संहिता के संचालन को सीमित करती है।
धारा 5 का दायरा
- धारा 5 उन अधिकारियों, सैनिकों, नाविकों, वायुसैनिकों पर लागू होती है जो भारत सरकार को अपनी सेवाएं देते हैं और जिन्हें भारत सरकार के खिलाफ परित्याग या विद्रोह के लिए उत्तरदायी बनाया गया है।
- ऐसे उपर्युक्त लोगों को अधिनियमों, किसी विशेष या स्थानीय कानूनों के प्रावधानों के अनुसार दंडित किया जाता है और इस तरह की गलतियों से अलग से निपटने की मांग की जाती है।
- यह धारा भारत सरकार को अपनी सेवाएं देने वाले अधिकारियों, सैनिकों, नाविकों, वायुसैनिकों द्वारा भारत सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए दंड के प्रावधान में अधिनियमों पर संहिता के आवेदन (एप्लिकेशन) को सीमित करती है। इस संबंध में मुख्य अधिनियम सेना अधिनियम, 1950, वायु सेना अधिनियम, 1950, नौसेना अधिनियम 1957, वायु सेना और सेना कानून (संशोधन) अधिनियम, 1975 हैं।
अतिरिक्त-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार (एक्सट्रा टेरीटोरियल जुरिसडिक्शन)
भारतीय दंड संहिता की धारा 3 और धारा 4 संहिता को बाहरी क्षेत्राधिकार देती है। जब अपराध को उस देश के अलावा किसी अन्य देश में करने की कोशिश की जाती है, या जिसमें अपराध किया जाता है, उसे बाहरी क्षेत्र कहा जाता है। अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो देश की राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर कार्य करता है, लेकिन उस कार्य का परिणाम ऐसा होता है कि जैसे वह भारत के क्षेत्र के अंदर किया गया हो। तब ऐसे व्यक्ति के साथ उसके द्वारा किए गए कार्य के लिए संहिता के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही की जा सकती है, भले ही उस देश में जहां उसने यह कार्य किया हो वहा यह अपराध सामान्य कानूनों के अनुसार अपराध नहीं है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 4, अधिनियम की धारा 3 के लागू होने के दायरे का विस्तार करती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 4 के अनुसार, जब एक अपराधी ने भारत के क्षेत्र के बाहर अपराध किया है, लेकिन वह भारत के क्षेत्र में पाया गया है। फिर कार्रवाई के दो पाठ्यक्रम (पार्ट्स/सिलेबस) हैं जिनका सहारा लिया जा सकता है:
प्रत्यर्पण (एक्सट्राडीशन)
उसे उस देश में भेजा जा सकता है जहां उसके गलत काम का असर हुआ था,
बाहरी क्षेत्राधिकार
उस पर भारत के आपराधिक कानूनों के अनुसार मुकदमा चलाया जा सकता है।
धारा 3 और 4 का दायरा, भारतीय दंड संहिता 1860
धारा 4 के अनुसार, संहिता का अधिकार क्षेत्र भारत के क्षेत्र से बाहर किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है जो अपराध करता है। इस अनुभाग में नीचे दिए गए वर्गो के लोगों को भी शामिल किया गया है:
- कोई भी भारतीय नागरिक जो भारत के क्षेत्र से बाहर मौजूद है और उसने गलत कार्य किया है,
- भारत में पंजीकृत (रजिस्टर्ड) किसी भी जहाज या विमान से यात्रा करने वाला कोई भी व्यक्ति,
- किसी भी स्थान पर मौजूद कोई भी व्यक्ति जो भारत की क्षेत्रीय सीमा के अंतर्गत नहीं है और भारत में मौजूद कंप्यूटर संसाधनों को लक्षित (टारगेट) करता है।
भारत में किए गए अपराधों के लिए एक विदेशी की देयता (लायबिलिटी) के बारे में
भारत में अपराध करने वाला एक विदेशी भारतीय कानूनों के प्रावधानों के अधीन होगा और उसे अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार दंडित किया जाएगा, भले ही वह अपराध के समय भारत में शारीरिक रूप से मौजूद न हो। नजर मोहम्मद बनाम राज्य के मामले में अदालत ने माना कि भारत में अपराध करने वाले विदेशी नागरिक को भारतीय कानूनों के तहत दोषी ठहराया जाएगा और भारतीय कानूनों को वह या कोई अनदेखा करने का कोई बहाना नहीं दे सकता है, हालांकि सजा के शमन (मिटीगेशन) के समय अज्ञानता (इग्नोरेंस) की दलील दी जा सकती है। धारा, 3 और धारा 4 के आवेदन की शर्त अपराधी की भौतिक उपस्थिति (फिजिकल प्रेजेंस) नहीं है बल्कि केवल आवश्यकता यह है कि गलत कार्य या अपराध हुआ होना चाहिए। धारा का अर्थ केवल यह है कि अपराध भारत में होना चाहिए, हालांकि अपराधी बाहर है।
महाराष्ट्र राज्य बनाम एम.एच. जॉर्ज, जब प्रतिवादी ने अदालत के सामने इस आधार पर अनभिज्ञता जताई कि वह विदेशी मुद्रा को विनियमित (रेगुलेट) करने वाले भारतीय कानून के अभी के परिवर्तनों के बारे में नहीं जानता है, तो इस मामले ने अदालत ने याचिका को खारिज कर दिया और उसे अधिनियम के तहत उत्तरदायी ठहराया और आयोजित कि मौजूदा भारतीय कानूनों में किए गए परिवर्तनों का प्रकाशन हर देश में किए जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है और इसलिए भारतीय कानून की अनभिज्ञता की दलील नहीं दी जा सकती है यह कहा।
साबू मैथ्यू जॉर्ज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, वादी एक कार्यकर्ता था और उसने भारतीय सर्च इंजन में एक विज्ञापन के प्रदर्शन को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि यह प्री-नेटल डायग्नोस्टिक तकनीक की धारा 22 का उल्लंघन है। (विनियमन और दुरुपयोग निवारण अधिनियम), 1994 क्योंकि विज्ञापन प्रसव पूर्व लिंग भेदभाव से संबंधित था। अदालत ने इस मुद्दे को ध्यान में रखा और प्रतिवादी गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और याहू को विज्ञापन को ऑटो-ब्लॉक करने का आदेश दिया।
धारा 3 और धारा 4 के तहत प्रावधानों का आवेदन भारत के क्षेत्र की परिबद्ध (बाउंड) सीमा के भीतर किए गए अपराधों तक सीमित है। भारत के क्षेत्र का गठन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1(3) के तहत परिभाषित किया गया है। जो कहता है कि भारत के क्षेत्र में शामिल हैं:
- राज्यों के क्षेत्र,
- केंद्र शासित प्रदेश जो पहली अनुसूची में बतलाया हुआ है , और
- अन्य अधिग्रहीत क्षेत्र।
एक विदेशी के रूप में अपराध करने के बाद भारतीय नागरिकता प्राप्त करने वाले विदेशी का दायित्व
फातमा बीबी अहमद पटेल वी.एस. गुजरात राज्य, अपीलकर्ता मॉरीशस का नागरिक था और उसका बेटा और बहू कुवैत में रह रहे थे। अपीलकर्ता अक्सर वीजा पर भारत आती थी और अपने रिश्तेदार के घर में रहती थी। अपीलकर्ता हनीफ अहमद पटेल के बेटे ने शिकायतकर्ता से शादी की। कुछ समय बाद अपीलकर्ता के दामाद और बहू के बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए और इसलिए बहू ने अपने पति द्वारा कथित शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना (फिजिकल एंड मेंटल टॉर्चर) के खिलाफ गुजरात में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष एक याचिका दायर की। अदालत ने माना कि धारा 4 के लागू होने के लिए आवश्यक शर्त यह है कि अपराध भारत में किया जाना चाहिए और इसलिए कानून एक विदेशी पर लागू नहीं होता है जो अपराध करने के बाद भारत की नागरिकता प्राप्त करता है। अत: अपीलार्थी की बहू द्वारा दायर याचिका विचारणीय नहीं है।
धारा 3 और 4 को, भारतीय दंड संहिता, 1860, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 188 के साथ
दंड प्रक्रिया, 1973 की धारा 188 के साथ पढ़ने के अनुसार, जब भारत के क्षेत्र के बाहर कोई गलत किया जाता है:
- भारत के किसी भी नागरिक द्वारा, या तो उच्च समुद्र (हाई सीज) पर या कहीं और, या
- भारत में पंजीकृत जहाज या विमान पर किसी भी गैर-नागरिक द्वारा कोई ग़लत कार्य होता है।
उसे भारतीय कानूनों के प्रावधानों के अनुसार उत्तरदायी बनाया जा सकता है जैसे कि अपराध भारत के क्षेत्र में किया गया हो।
इस प्रकार, धारा 3, धारा 4 और धारा 188 एक साथ एक ऐसे व्यक्ति के मुकदमे से निपटने के लिए कानून का एक वर्ग बनाते हैं जिसने भारत के क्षेत्र के बाहर कोई कार्य या चूक की है, लेकिन उस कार्य या चूक के परिणामस्वरूप प्रावधानों के अनुसार गलत हुआ है भारत में लागू कानूनों की। धारा 188 भारत के क्षेत्र के बाहर किए गए हर एक गलत काम परीक्षण (इन्वेस्टिगेशन) के लिए भारत सरकार की मंजूरी को जरूरी बनाती है।
समरुद्दीन बनाम सहायक प्रवर्तन निदेशक के मामले में, अदालत ने माना कि देश में अदालतों को केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना भारत के क्षेत्र के बाहर किए गए अपराध का ट्रायल करने का अधिकार नहीं है।
ओम हेमराजनी बनाम यूपी राज्य के मामले में, आरोपी को यू ए ई के एक बैंक से ली गई ऋण राशि (लोन) को वापस करने में असमर्थ होने का पूरा ज्ञान था और इस तरह से बैंक को धोखा देकर वह वहां से फरार हो गया। गाजियाबाद में मजिस्ट्रेट की अदालत में आईपीसी की धारा 120-बी के साथ धारा 415, 417, 418 और 420 के तहत बैंक द्वारा आरोपी के खिलाफ अपील में, अदालत ने मामले का संज्ञान लेते हुए आरोपी को जिम्मेदार ठहराया और उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया। आरोपी ने मजिस्ट्रेट के आदेश को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी और यह भी आरोप लगाया कि उक्त अदालत का इस मामले पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। अदालत ने माना कि सीआरपीसी की धारा 188 पीड़ितों के लिए एक विदेशी भूमि पर इसे लोचदार (लचीला) बनाती है, जिसे भारत के क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति द्वारा भारत के किसी भी अदालत में शिकायत दर्ज करने के लिए गलत बताया गया है, जिसमें से उनसे संपर्क करना आसान लगता है। कोई भी विदेशी जो भारत के क्षेत्र के भीतर किसी व्यक्ति द्वारा पीड़ित किया गया है, उससे पहले क्षेत्र में आने की उम्मीद नहीं की जा सकती है और फिर यह पता लगाया जा सकता है कि अपराधी कहां है या पाया जा सकता है जिससे अदालत का निर्धारण होता है जिसके पास सक्षम अधिकार क्षेत्र है। इसलिए, पीड़ित को सीआरपीसी की धारा 188 के अनुसार किसी भी अदालत का दरवाजा खटखटाने की स्वतंत्रता है, जिसमें वह जाने के लिए सुविधाजनक लगता है।
नौवाहनविभाग क्षेत्राधिकार (एडमिरल्टी जुरीसडिक्शन)
नौवाहनविभाग क्षेत्राधिकार वह क्षेत्राधिकार है जो उच्च समुद्रों पर किए गए अपराधों का ट्रायल करने की शक्ति प्रदान करता है। भारतीय कानून में नौवाहनविभाग क्षेत्राधिकार का समावेश विभिन्न चार्टरों और ब्रिटिश कानूनों का परिणाम था, उदाहरण के लिए, नौवाहनविभाग अपराध अधिनियम, 1849, नौवहन अधिनियम की औपनिवेशिक अदालतें 1890 संयुक्त रूप से भारतीय नौसेना न्यायालयों के नौवाहनविभाग अधिनियम 1891। यह धारणा कि एक जहाज जो ऊंचे समुद्रों पर तैरता है, एक तैरते हुए द्वीप की तरह है, यह एडमिरल्टी क्षेत्राधिकार के पीछे का मूल सिद्धांत है। नौवाहनविभाग क्षेत्राधिकार का विस्तार उन मामलों पर है जिनमें नीचे दिए गए अपराध शामिल हैं:
- उच्च समुद्रों पर भारतीय जहाजों पर किए जाने वाले अपराध;
- भारतीय क्षेत्रीय जलक्षेत्र के भीतर विदेशी जहाजों पर किए जाने वाले अपराध।
एनरिका लेक्सी मामले में, केरल के तट से गुजरते समय एनरिका लेक्सी नामक एक इतालवी जहाज ने भारत में पंजीकृत एक मछली पकड़ने वाली नाव पर गोलीबारी की। फायरिंग में 2 मछुआरों की मौके पर ही मौत हो गई। इतालवी नाविकों के खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई और इतालवी नौसैनिकों को गिरफ्तार किया गया। जिसके जवाब में इटली के नाविकों ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर कर चुनौती दी कि प्राथमिकी बराबर नहीं है क्योंकि यह घटना भारत के तट से 20.5 समुद्री मील की दूरी पर हुई थी। अदालत ने रिट को रद्द कर दिया और कहा कि आईपीसी की धारा 2 ने ऐसे मामलों में केरल पुलिस को अधिकार क्षेत्र प्रदान किया है। बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, 1982 के अनुच्छेद 100 के प्रावधानों के अधीन, भारतीय संघ को अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने का अधिकार था। समुद्र के कानून पर 1982 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के अनुच्छेद 100 में कहा गया है कि ऐसे मामले अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं कि ऐसे मामले राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं और केवल संघीय / केंद्र सरकार के स्तर पर ही आयोजित किए जा सकते हैं। इसलिए अदालत ने केंद्र सरकार को ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत तैयार करने का निर्देश दिया और इस मामले में केरल राज्य का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था।
सुधार के प्रस्ताव
- आईपीसी की धारा 2 में विशेष रूप से कहा गया है कि संहिता के प्रावधानों के विपरीत कार्य या चूक को किसी अन्य तरीके से नहीं बल्कि संहिता के प्रावधानों के अनुसार दंडित किया जाएगा। इस तरह के प्रावधान को शामिल करने का मुख्य कारण यह था कि जिस समय आईपीसी लागू हुआ था, उस समय देश में कई अन्य कानून लागू थे, लेकिन वास्तव में भारतीय दंड संहिता के लागू होने के बाद से अधिकांश पुराने कानूनों को पहले ही निरस्त कर दिया गया था और इसलिए आज के परिदृश्य में आईपीसी का यह प्रावधान बेमानी (रेदुलंट) है और इसे क़ानून से हटाया जा सकता है।
- धारा 3 और धारा 4 न्यायालयों के साथ बाहरी क्षेत्राधिकार से संबंधित है, इन धाराओं के अनुसार एक व्यक्ति को किसी भी कार्य या चूक के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जो अधिनियम के प्रावधानों के विरुद्ध है, भले ही ऐसा कार्य या चूक भारत के क्षेत्र में विदेशियों से किया गया हो। धारा 18 जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर भारत के क्षेत्र के रूप में भारत के अर्थ को स्पष्ट करती है। सवाल यह उठता है कि क्या भारत का प्रादेशिक जल भारत के क्षेत्र में शामिल है। इस प्रश्न को इस स्थिति के साथ और भी ठोस बनाया गया है कि क्या होगा यदि एक विदेशी मछली पकड़ने वाली नाव में पुरुष भारतीय मछली पकड़ने वाली नाव में पुरुषों को चोट पहुंचाते हैं, जब वह नावें भारत के क्षेत्र से 10 मील की दूरी पर हों। इसलिए अधिनियम की धारा 18 में उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि प्रादेशिक जल भारत के क्षेत्र के अर्थ में शामिल हैं।
- संहिता की धारा 4(1) उन प्रावधानों को लागू करती है जो भारतीय नागरिकों द्वारा भारत के क्षेत्र से बाहर किए गए अपराधों पर लागू होते हैं। राज्य या केंद्र सरकार को सेवा प्रदान करने वाले एलियंस के लिए कोड के अलौकिक अनुप्रयोग का विस्तार करना वांछनीय है;
- तकनीकी विस्तार के साथ, साइबर स्पेस की नई योजना सामने आई है और इसलिए संहिता को इसके संबंध में प्रावधान करने के साथ-साथ अपने व्यापक स्वरूप को बनाए रखना चाहिए।
निष्कर्ष
क्षेत्राधिकार व्यावहारिक अधिकार या प्रभुत्व को संदर्भित करता है जो एक कानूनी निकाय को प्रदान किया जाता है ताकि वह अधिकार के उस परिभाषित क्षेत्र के भीतर न्याय का प्रशासन कर सके। कानूनी निकाय शब्द में इसके दायरे में एक अदालत, राजनीतिक या सरकारी कार्यालय या एक कानून प्रवर्तन एजेंसी शामिल है। न्यायिक प्राधिकरण के संबंध में क्षेत्राधिकार, मामलों, अपीलों और अन्य कानूनी कार्यवाही से निपटने के लिए न्यायिक प्राधिकरण की सीमा या सीमा है। क्षेत्राधिकार की योजना और विचार की शुरुआत के पीछे का कारण यह सुनिश्चित करना है कि अदालतें केवल उन मामलों का निर्णय लें और उन पर विचार करें जो अदालत की क्षेत्रीय और आर्थिक सीमाओं के भीतर आते हैं। विधायिका बार-बार एक अधिकार क्षेत्र से संबंधित विभिन्न कानून बनाती है जो न्याय के उचित फैलाव के लिए उपयोगी है। इस प्रकार, न्यायिक संस्था को अधिक व्यवस्थित और संगठित बनाकर देश को रहने के लिए एक बेहतर स्थान बनाना।
संदर्भ
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