न्यायिक संयम

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यह लेख आईएमएस यूनिसन यूनिवर्सिटी, देहरादून की Prabha Dabral ने लिखा है। यह एक विस्तृत लेख है जो न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म़) और न्यायिक संयम (ज्यूडिशियल रिस्ट्रेन्ट) के महत्व के साथ-साथ उनकी सीमाओं पर प्रकाश डालता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हमारे संविधान में शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) की अवधारणा है जिसके अनुसार सरकार की तीन शाखाओं (विधायिका, कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) और न्यायपालिका) के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखना चाहिए। विधायिका कानून पारित करती है, कार्यपालिका कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है, और न्यायपालिका कानून की व्याख्या करती है। कोई भी नागरिक जो कार्यपालिका की किसी कार्रवाई या किसी निष्क्रियता (इनैक्शन) के कारण पीड़ित होता है, वह न्याय के लिए न्यायपालिका के समक्ष पेश होता है। चूंकि न्यायपालिका हमारे संविधान की संरक्षक है और हमारे अधिकारों की रक्षा करती है, इसलिए इसे प्रत्येक नागरिक के लिए अंतिम उपाय माना जाता है।

न्यायपालिका केवल दर्शक नहीं है। न्यायिक सक्रियता के तहत, न्यायपालिका के पास न्यायिक समीक्षा (रिव्यू) की प्रक्रिया के माध्यम से सरकार की अन्य दो शाखाओं के कार्यों की समीक्षा करने की भी शक्ति है। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका सक्रिय है। कभी-कभी, न्यायपालिका, विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। न्यायपालिका की इस प्रथा को न्यायिक अतिरेक (ओवररीच) के रूप में जाना जाता है और इसके हस्तक्षेप के लिए अक्सर इसकी आलोचना की जाती है। इसलिए, न्यायिक संयम की अवधारणा पेश की गई थी। ये दो वैकल्पिक न्यायिक दर्शन (फिलोसॉफी) हैं, जिनका उपयोग न्यायाधीश निर्णय लेते समय करते हैं।

न्यायिक सक्रियता और न्यायिक संयम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए, न्यायिक सक्रियता की बात किए बिना न्यायिक संयम को एक अवधारणा के रूप में नहीं बताया जा सकता है। इस लेख में न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक के संक्षिप्त परिचय के साथ-साथ न्यायिक संयम के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है।

न्यायिक सक्रियता

यह माना जाता है कि कानून, अदालत के समक्ष किसी भी विवाद को सुलझाने में सक्षम हैं; इसलिए, विधायिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाती है। लेकिन तब क्या होता है जब अदालत के समक्ष किसी तथ्यात्मक स्थिति को संबोधित करने के लिए कोई मार्गदर्शन नहीं होता है? यहां से ही न्यायिक सक्रियता तस्वीर में आती है।

कभी-कभी, न्यायपालिका को आगे आना पड़ता है और लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करने के लिए कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करनी पड़ती है। यह तब होता है जब कानून अपना कार्य ठीक से करने में सक्षम नहीं होता है। यह न्यायिक सक्रियता है। दूसरे शब्दों में, न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों को कायम रखते हुए देश की संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था के संरक्षण में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका है।

न्यायिक सक्रियता के तरीकों में से एक न्यायिक समीक्षा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 के अनुसार, यदि विधायिका द्वारा बनाया गया कोई कानून संविधान के अनुरूप नहीं है, तो न्यायपालिका उस विशेष कानून को शून्य (वॉयड) घोषित कर सकती है। न्यायिक सक्रियता संवैधानिक सिद्धांतों और नागरिकों के अधिकारों को लागू करने के लिए एक प्रभावी उपकरण के रूप में कार्य करती है जब कार्यपालिका और विधायिका ऐसा करने में विफल होते हैं।

न्यायिक सक्रियता का दृष्टिकोण उन दिनों से काफी प्रभावी हो गया है जब वर्ष 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया गया था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार द्वारा लोकसभा की शक्ति का दुरुपयोग किया गया था। वह पूरे देश के लिए काला दिन माना जाता था। जैसे ही आपातकाल समाप्त हुआ, न्यायपालिका बहुत सक्रिय हो गई और हाल के दिनों में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका कई गुना बढ़ गई है। यह वास्तव में सरकारी सेवकों को उनके कर्तव्यों को ठीक से करने के लिए, पर्यावरण प्रदूषण की देखभाल करने के लिए अधिकारियों को चेतावनी देने के लिए, सड़क किनारे किए जाने वाले अवैध निर्माण को रोकने के लिए कदम उठाने, आदि में वास्तव में सक्रिय रहा है।

विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) का ऐतिहासिक मामला न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता को पूरी तरह से परिभाषित करता है। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय के लिए कार्यस्थलों में महिलाओं के उचित उपाय के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करना महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) के खिलाफ लैंगिक (जेंडर) समानता कानूनों से संबंधित अधिनियम का अभाव है। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि इन दिशानिर्देशों को संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत एक कानून के रूप में माना जाए जब तक कि इसके लिए कोई कानून नहीं बनाया जाता है। इस मामले ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम अधिनियम 2013 को पारित किया, जिसे पॉश अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है। विशाखा दिशानिर्देशों के समान, पॉश कानून यौन उत्पीड़न के खतरे से निपटने के लिए निषेध, रोकथाम और निवारण के त्रि-आयामी (थ्री प्रोंग्ड) दृष्टिकोण को अपनाता हैं। पॉश कानून विशाखा दिशानिर्देशों द्वारा प्रदान किए गए कानून के विभिन्न पहलुओं का विवरण और विस्तार करके विशाखा दिशानिर्देशों से एक कदम आगे जाते हैं।

न्यायिक सक्रियता के तरीके

न्यायिक सक्रियता विभिन्न तरीकों से हो सकती है। वे इस प्रकार हैं:

न्यायिक समीक्षा

सबसे आम तरीका न्यायिक समीक्षा है, जिसमें न्यायपालिका द्वारा विधायी और कार्यकारी कार्यों की समीक्षा की जाती है। यह मूल रूप से सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी कानून की संवैधानिकता की जांच करने की शक्ति देता है। यह उस स्थिति में किसी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है जब कोई कानून संविधान के प्रावधानों से असंगत पाया जाता है।

जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) (पीआईएल)

इसमें जनहित की रक्षा के लिए न्यायालय में वाद (सूट) दायर किया जाता है। प्रारंभ में, समाज के वंचित वर्गों, जो न्याय पाने की स्थिति में नहीं थे, तो इस स्थिति को सुधारने के लिए जनहित याचिका शुरू की गई थी। जनहित याचिका का पहला मामला हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) का था। इस मामले में विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदियों की अमानवीय दशाओं को बताते हुए एक लेख प्रकाशित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार कर लिया और कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई का अधिकार मौलिक अधिकार है।

संवैधानिक व्याख्या

यह एक ऐसा तरीका है जिसमें संविधान के पाठ और उसके “मूल इतिहास” के माध्यम से व्याख्या की जाती है।

न्यायिक सक्रियता के और भी कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, जी सत्यनारायण बनाम ईस्टर्न पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी (2004) के मामले में, यह माना गया था कि यदि किसी कर्मचारी को कदाचार (मिसकंडक्ट) के आधार पर निकाल दिया जाता है, तो एक अनिवार्य जांच की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति गजेंद्रगडकर द्वारा दिए गए इस फैसले ने श्रम कानून में ऐसे नियम जोड़े जिनकी कानून द्वारा अनदेखी की गई थी।

न्यायिक संयम क्या है?

न्यायिक संयम एक अवधारणा है जो न्यायपालिका को अपनी न्यायिक शक्तियों के प्रयोग को सीमित करने के लिए प्रोत्साहित करती है। दूसरे शब्दों में, एक न्यायाधीश को कानूनी कार्यवाही में अपनी प्राथमिकताओं को शामिल करने से रोक दिया जाता है।

न्यायिक संयम को न्यायिक सक्रियता के विपरीत माना जाता है, जिसमें न्यायाधीशों को लोकतांत्रिक राजनीति में हस्तक्षेप करने से प्रतिबंधित किया जाता है। यह आवश्यक है क्योंकि यह सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया को संचालित करने देता है। यह नीति निर्माताओं पर नीति छोड़ कर लोकतांत्रिक स्वशासन (सेल्फ गवर्नेंस) का समर्थन करता है।

न्यायिक संयम की अवधारणा स्पष्ट रूप से कहती है कि न्यायपालिका को सावधान रहना चाहिए। न्यायाधीशों की भूमिका सीमित होनी चाहिए और उनका काम कानूनों की व्याख्या करना होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, न्यायालय को सरकार के अंगों में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

न्यायिक संयम के तरीके

विभिन्न तरीके हैं जिनके माध्यम से न्यायिक संयम होता है। वे इस प्रकार हैं:

मिसालों (प्रिसिडेंट्स) के माध्यम से

मिसालें पहले के मामलों के फैसले होते हैं। न्यायाधीश पिछले न्यायाधीशों द्वारा सौंपी गई स्थापित मिसाल को कायम रखने के सिद्धांत का सम्मान करते हैं। इस सिद्धांत को स्टेयर डिसाइसिस के रूप में भी जाना जाता है।

संविधान निर्माताओं के इरादे का हवाला देकर

न्यायाधीश, विधायिका जिसने निर्णय लेने के लिए कानून लिखा था, के मूल इरादे का उल्लेख करते हैं 

न्यायिक संयम के कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (1977), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में शामिल नहीं होने का फैसला किया क्योंकि इसमें कुछ राजनीतिक जांच शामिल थी। इसलिए उन्होंने न्यायिक संयम के सिद्धांत का समर्थन किया हैं।

न्यायिक संयम का महत्व

न्यायिक संयम के महत्व का उल्लेख इस प्रकार है:

  1. यह शक्तियों के पृथक्करण को बनाए रखने में मदद करता है। अदालत के कानून बनाने के बजाय, कार्यपालिका और विधायिका वही कर रही है जिसके लिए वे वास्तव में जिम्मेदार हैं।
  2. यह अदालतों को अपने स्वयं के कर्तव्यों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है। इससे समय की बचत होती है क्योंकि आधी सदी से अदालत के समक्ष मामले लंबित रहते हैं। ऐसे में अदालत अपना कोई भी समय अनावश्यक तरीके से बर्बाद नहीं करेगी। इसके बजाय, इसे कार्यपालिका को एक विशिष्ट अवधि में कानून बनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

वर्ष 2007 में, संभागीय प्रबंधक (डिविजनल मैनेजर), अरावली गोल्फ बनाम चंदर हास और अन्य 6 दिसंबर, (2007) का मामला था। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) न्यायालयों को न्यायिक संयम अपनाने को कहा। यह माना गया कि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक अंग को अन्य अंगों के प्रति सम्मान रखना चाहिए। न्यायालय ने न्यायिक संयम के दो महत्वपूर्ण कार्य भी निर्धारित किए। न्यायिक संयम का पहला कार्य न्यायपालिका द्वारा अंतर-शाखा हस्तक्षेप को कम करके तीनों शाखाओं के बीच समानता को प्रोत्साहित करना है। दूसरा कार्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करना है। यदि न्यायाधीश, प्रशासकों (एडमिनिस्ट्रेटर) या विधायकों की तरह कार्य करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि उन्हें विधायिकाओं की तरह चुना जाना चाहिए या प्रशासकों की तरह चयनित और प्रशिक्षित (ट्रेंड) किया जाना चाहिए। इसके अलावा, अदालत ने फैसले में मोंटेस्क्यू की किताब ‘द स्पिरिट ऑफ लॉ’ का हवाला भी दिया। अदालत ने कहा कि 3 अंगों के बीच शक्तियों को अलग नहीं रखने के परिणामों पर फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक द्वारा दी गई चेतावनी आज भारतीय न्यायपालिका के लिए बहुत उपयुक्त है। जैसा कि इस युग में बहुत बार, कार्यपालिका और विधायिका की शक्ति पर हस्तक्षेप के लिए न्यायपालिका की आलोचना की जाती है।

न्यायिक संयम पर न्यायाधीश की राय 

भारत के संविधान ने न्यायपालिका को अन्य दो अंगों के विकल्प के रूप में नहीं बनाया है। इसलिए, न्यायपालिका को अपनी सीमाएं निर्धारित करने की आवश्यकता है।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई), न्यायमूर्ति ए.एस. आनंद ने एक सार्वजनिक व्याख्यान (लेक्चर) में न्यायिक संयम की बात की। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को अपने न्यायिक कार्यों का निर्वहन करते हुए आत्म-अनुशासित होने की आवश्यकता है। न्यायिक सक्रियता का सबसे बुरा परिणाम अप्रत्याशितता (अनप्रेडिक्टबिलिटी) है। एक समय ऐसा भी आ सकता है जब न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत पसंद के अनुसार निर्देश जारी करेगे। इसलिए, न्यायाधीशों को न्यायिक संयम का प्रयोग करना चाहिए ताकि न्यायिक सक्रियता, न्यायिक साहसिकता (एडवेंचरिज्म) न बन जाए, जो न्यायिक सक्रियता का एक चरम रूप है।

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत शक्ति का प्रयोग एक राजनीतिक प्रश्न था। इसलिए न्यायपालिका को दखल नहीं देना चाहिए। न्यायमूर्ति अहमदी ने कहा कि अगर अदालतें राजनीतिक फैसलों की जांच करती हैं तो वे राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करेंगी और राजनीतिक ज्ञान पर सवाल उठाएंगी। और इससे अदालत को बचना चाहिए।

अलमित्रा एच. पटेल बनाम भारत संघ (2000) का मामला दिल्ली को स्वच्छ बनाने की बात करता है। इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या दिल्ली को स्वच्छ बनाने के संबंध में नगर निगम को निर्देश जारी किए जाएं। अदालत ने माना कि वह केवल अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करने का निर्देश दे सकती है। यह सर्वोच्च न्यायालय का कार्य नहीं है कि वह उन्हें यह निर्देश दे कि वे अपने बुनियादी कार्यों को कैसे करें और उनकी कठिनाइयों का समाधान कैसे करें।

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय प्रारंभिक वर्षों में रूढ़िवादी (कंजर्वेटिव) रहा था लेकिन बाद में न्यायिक सक्रियता के माध्यम से सक्रिय हो गया। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) अप्रवर्तनीय (अनइंफोर्सेबल) हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कई डीपीएसपी को कुछ मौलिक अधिकारों के साथ पढ़कर उन्हें लागू करने योग्य बना दिया है। जैसे उन्नीकृष्णन के मामले में, जहां शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 में शामिल किया गया था।

यह अमेरिका के कानूनों से कैसे अलग है?

अमेरिका के संविधान ने सरकार की एक संघीय (फेडरल) प्रणाली बनाई है जिसमें दो सरकारों, यानी संघीय सरकार और राज्य सरकार के बीच शक्ति साझा की जाती है। इस संघवाद के कारण, दोनों सरकारों की अपनी-अपनी अदालतों की व्यवस्था है।

अमेरिकी कानूनी सिद्धांत के अनुसार, न्यायपालिका यह जांचने के लिए है कि विधायिका और कार्यपालिका ठीक से काम कर रही है या नहीं। इसमें कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में संघीय या किसी अन्य अदालत में न्यायाधीश अलोकतांत्रिक हैं, यानी वे गैर-वैकल्पिक (नॉन-इलेक्टिव) हैं। वे अमेरिका के नागरिकों के निर्णयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए नहीं हैं और देश की लोकप्रिय इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। वे न्यायाधीश हैं क्योंकि वे न्यायिक वर्ग से संबंधित हैं। इसलिए, वे विधायी और कार्यपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकते है। कानून बनाने की शक्ति सरकार के अधिक लोकतांत्रिक रूपों को दी जानी चाहिए। इसलिए यहां न्यायिक संयम वांछनीय (डिजायरेबल) माना जाता है। इसके अलावा, कानून की अदालत होने के नाते, एंग्लो-अमेरिकन कानूनी परंपरा का उत्तराधिकारी और संरक्षक होने के नाते, इसे राजनीति के स्तर तक बहुत दूर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि कानून ही निर्णय का कारण है।

न्यायिक संयम शब्द का अमेरिकी कानूनी सिद्धांत में एक लंबा इतिहास रहा है। फ्लेचर बनाम पेक (1810), के ममले में यूएस सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों को एक कानून को तभी रद्द करना चाहिए जब वे एक स्पष्ट और मजबूत धारणा महसूस करें। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (सेकेंड हाफ) में, मुख्य न्यायाधीश अर्ल वॉरेन (1953-69) के कार्यकाल के दौरान न्यायिक संयम एक सामान्य रूढ़िवादी राजनीतिक विषय बन गया। सामान्य तौर पर, न्यायिक संयम को इस आधार पर वांछनीय माना जाता था कि नीतियां बनाने की भूमिका लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित (इलेक्टेड) अधिकारियों को ही दी जानी चाहिए।

ऐसे कई बिंदु हैं जो अमेरिका में न्यायिक संयम की अवधारणा को अलग बनाते हैं। उनमें से एक यह है कि अमेरिका में अगर न्यायपालिका अपनी सीमा को पार करती है, तो न्यायपालिका खुद खतरे में है। इसका कारण यह है कि उनकी न्यायपालिका की शक्तियाँ संयुक्त राज्य की कांग्रेस (निचले निकाय, प्रतिनिधि सभा और ऊपरी निकाय, सीनेट से मिलकर बनी है) पर निर्भर हैं, और यदि वे सीमा पार करने की कोशिश करते हैं, तो कांग्रेस ऐसी कार्रवाई को प्रतिबंधित कर सकता है।

अश्वंदर नियम

अश्वंदर बनाम टेनेसी वैली अथॉरिटी (टीवीए) (1936) के मामले में, न्यायाधीश ब्रैंडिस ने अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के लिए कुछ नियमों को सामने रखा, ताकि वह संवैधानिक मामलों को तभी तय कर सके जब यह आवश्यक हो। इन नियमों को अश्वंदर नियम या ब्रैंडिस नियम के रूप में जाना जाता है।

नियम इस प्रकार हैं-

नकली या कपटपूर्ण मुकदमों के खिलाफ नियम

अदालत को मैत्रीपूर्ण, गैर-प्रतिकूल कार्यवाही में कानून की संवैधानिकता पर अपना निर्णय पारित नहीं करना चाहिए। ऐसे प्रश्नों का निर्णय करना तभी वैध है जब यह अत्यंत आवश्यक हो।

सिद्धता

अदालत को संवैधानिक मामलों को समय से पहले नहीं सुलझाना चाहिए, यानी इससे पहले कि यह अत्यंत आवश्यक हो।

न्यायिक अतिसूक्ष्मवाद (मिनिमलिज्म) 

संवैधानिक कानून के सवालों को संकीर्ण (नैरो) रूप से तय किया जाना चाहिए। न्यायालय को उन सटीक तथ्यों से अधिक व्यापक रूप से कानून तैयार नहीं करना चाहिए, जिन पर इसे लागू किया जाना है।

अंतिम उपाय नियम

अदालत को संवैधानिक आधारों के बजाय गैर-संवैधानिक आधार पर मामले को सुलझाने को प्राथमिकता देनी चाहिए।

स्टैंडिंग और मूटनेस

अदालत द्वारा किसी क़ानून की वैधता को पारित करने से पहले शिकायतकर्ता को वास्तविक चोट लगनी चाहिए।

संवैधानिक विबंध (एस्टॉपल)

किसी पक्ष को किसी कानून की संवैधानिकता को तब तक चुनौती नहीं देनी चाहिए, जब तक वह स्वयं इसका लाभ उठा रहा हो। ऐसी स्थिति में न्यायालय को किसी कानून की संवैधानिकता पर आदेश पारित नहीं करना चाहिए।

संवैधानिक-संदेह सिद्धांत

यदि संवैधानिकता के बारे में कोई गंभीर संदेह उठाया जाता है, तो अदालत पहले यह पता लगाएगी कि क्या क़ानून की व्याख्या संभव है जिसके द्वारा प्रश्न को टाला जा सकता है।

न्यायिक संयम का उपयोग करने के कारण

  1. यदि न्यायपालिका अन्य दो शाखाओं के कार्य में हस्तक्षेप कर रही है, तो यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन कर रही है। इसलिए, न्यायिक संयम न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित करने में मदद करता है ताकि तीनों अंग एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश किए बिना कार्य कर सकें।
  2. प्रशासनिक प्राधिकरण (यानी, जिला अधिकारी, आयकर मुख्य आयुक्त (कमिश्नर), आदि) है क्योंकि वे अपने विशेष क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। यदि उन्होंने अपनी आधिकारिक क्षमता में कोई निर्णय लिया है, तो उसे सम्मान दिया जाना चाहिए। न्यायपालिका को निर्णय देते समय प्रशासनिक अधिकारियों को शर्मिंदा नहीं करना चाहिए और उनके क्षेत्र में हस्तक्षेप करके उन्हें अपमानित नहीं करना चाहिए। यदि उनके निर्णय की आलोचना करनी है तो उचित तर्क और ढंग से किया जाना चाहिए। इसलिए न्यायिक संयम जरूरी है।
  3. न्यायपालिका के पास बहुत सारे लंबित मामले हैं, इसलिए उन्हें लंबित मामलों के निपटान पर अधिक ध्यान देना चाहिए।
  4. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, यदि सरकार के विधायी और कार्यकारी अंग ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, तो नागरिकों को भ्रष्ट सरकार के खिलाफ विद्रोह करने और उन्हें अपने कर्तव्यों की याद दिलाने का अधिकार है। विरोध का एक तरीका शांतिपूर्ण प्रदर्शन या शांतिपूर्ण हड़ताल है। न्यायपालिका को हर बार हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। यह स्वयं कानून बनाने के बजाय अन्य अंगों को केवल एक अनुस्मारक (रिमाइंडर) दे सकता है।

लोकतंत्र की अवधारणा के लिए इसकी प्रासंगिकता (रिलेवेंसी)

लोकतंत्र और सरकार के अन्य रूपों के बीच बुनियादी अंतर यह है कि लोकतंत्र में लोगों की इच्छा को एक निर्वाचित प्रतिनिधि के माध्यम से चलाया जाना चाहिए जो उनका प्रतिनिधित्व करता है। निर्वाचित प्रतिनिधि विधायक (विधान सभा के सदस्य) और सांसद (संसद के सदस्य) हैं। वे वहां हैं क्योंकि वे चुनाव से अपना अधिकार प्राप्त करते हैं। वे लोगों द्वारा चुने जाते हैं और उन लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए, वे जो कुछ भी कहते हैं उसे उन लोगों का आशीर्वाद माना जाता है जिन्होंने उन्हें वोट दिया है।

दूसरी ओर, एक न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है और आम लोगों द्वारा नहीं चुना जाता है। इसलिए, उन लोगों के हाथों में बहुत अधिक शक्ति नहीं हो सकती है जो लोगों द्वारा नहीं चुने जाते हैं। उन्हें यह तय करने के लिए बहुत अधिक शक्ति नहीं दी जानी चाहिए कि कानून क्या होना चाहिए। अन्यथा, यह लोकतंत्र की व्यवस्था के खिलाफ होगा। इसलिए न्यायिक संयम हमारी व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

न्यायिक संयम और न्यायिक अतिरेक के बीच अंतर

जब न्यायपालिका समाज के लिए जो सही है उसे परिभाषित करने और लागू करने के लिए न्यायिक अधिकार का उपयोग करती है, तो इसे न्यायिक सक्रियता के रूप में जाना जाता है। लेकिन जब न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) से आगे निकल जाती है और सरकार की विधायी और कार्यकारी शाखाओं में हस्तक्षेप करती है, तो इसे न्यायिक अतिरेक के रूप में जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, जब न्यायिक सक्रियता अपनी सीमा को पार कर जाती है, तो इसे न्यायिक अतिरेक कहा जाता है।

दूसरी ओर, न्यायिक संयम, न्यायिक सक्रियता के ठीक विपरीत है। यह एक सिद्धांत है जो न्यायाधीशों को अपनी शक्ति का प्रयोग करने से रोकता है। दूसरे शब्दों में, यह नीति निर्माण में हस्तक्षेप करने के बजाय न्यायाधीशों को कानून की व्याख्या करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

न्यायिक अतिरेक के कुछ मामले यहां दिए गए हैं। न्यायपालिका आगे निकल जाती है, और यह अक्सर विधायिका और न्यायपालिका के बीच विवाद का कारण बनती है। यहाँ कुछ उदाहरण हैं। हाल ही में राजीव शर्मा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2019), के मामले में एक भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) युवा मोर्चा की नेता, प्रियंका शर्मा ने एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर एक मीम साझा किया। सर्वोच्च न्यायालय ने उसके जमानत आदेश में उनसे इस तरह का मीम साझा करने के लिए माफी मांगने को कहा। अदालत ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता तब समाप्त होती है जब यह दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करती है।

दोनों के बीच प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं-

न्यायिक संयम न्यायिक अतिरेक
न्यायिक संयम न्यायिक सक्रियता के विपरीत है। जब न्यायिक सक्रियता खत्म हो जाती है, तो इसे न्यायिक अतिरेक के रूप में जाना जाता है।
न्यायिक संयम एक सिद्धांत है जो न्यायाधीशों को अपनी शक्ति के प्रयोग को सीमित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। न्यायिक अतिरेक सरकार के विधायी और कार्यकारी अंगों के उचित कामकाज में हस्तक्षेप करने वाली न्यायपालिका के कार्य को संदर्भित करता है।
न्यायिक संयम वांछनीय है क्योंकि अदालतों को कानून की व्याख्या करनी चाहिए और नीति-निर्माण में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में न्यायिक अतिरेक अवांछनीय है क्योंकि यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

न्यायिक सक्रियता, न्यायिक अतिरेक और न्यायिक संयम के बीच अंतर

अंतर  न्यायिक सक्रियता न्यायिक अतिरेक न्यायिक संयम
अर्थ  यह न्यायपालिका का सक्रिय दृष्टिकोण है। यह एक ऐसी स्थिति है जब न्यायिक सक्रियता हद से ज्यादा बढ़ जाती है या अपनी हदें पार कर जाती है। यह कानून को खत्म करने के लिए न्यायाधीशों की शक्तियों को सीमित करता है।
वांछनीयता यह तभी वांछनीय है जब न्यायालय लोगों के अधिकारों की रक्षा करना चाहता है और सरकार की आलोचना नहीं करना चाहता है। यह अवांछनीय है। यह वांछनीय है।
उपयोग इसका उपयोग तब किया जाता है जब कानूनी व्यवस्था को संरक्षित करने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। इसका उपयोग तब किया जाता है जब एक अन्य शिकायत निवारण तंत्र उपलब्ध हो और शक्तियों के पृथक्करण को बनाए रखने की गुंजाइश हो।
उदाहरण अदालतें स्वत: (सूओ मोटो) संज्ञान (कॉग्निजेंस) लेने वाले मामलों की सुनवाई करती हैं, जैसे जनहित याचिका की शुरूआत। फिल्म जॉली एलएलबी II की सेंसरशिप, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने सेंसर के रूप में काम किया और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) और सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 दोनों का उल्लंघन किया। जब न्यायालय विधायी निर्णयों में हस्तक्षेप करने से इनकार करता है जब तक कि वे स्पष्ट रूप से संविधान का उल्लंघन नहीं करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध मामले विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997)। श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2017)।  एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994)।

निष्कर्ष

देश के इतिहास से यह बहुत स्पष्ट है कि न्यायिक सक्रियता ने हमारे समाज में जेल सुधार, पर्यावरण, व्यक्तिगत स्वतंत्रता आदि से संबंधित बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इस भूमिका की कुछ सीमाएँ भी होनी चाहिए। सरकार के किसी अन्य अंग की तरह न्यायपालिका को भी सीमाएं जाननी चाहिए। उन्हें विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों को करने के लिए अनुचित रूप से प्रयास करना बंद कर देना चाहिए।

जब न्यायपालिका यह सोचने लगती है कि वे समाज की सभी समस्याओं का समाधान कर सकती हैं, तो निस्संदेह न्यायपालिका चरम मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकती है। यह भारतीय संविधान में निहित शक्ति के नाजुक संतुलन का उल्लंघन है। न्यायपालिका अन्य दो अंगों के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के बजाय दो अंगों को ठीक से काम करने के लिए प्रेरित कर सकती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

  • न्यायालय को न्यायिक संयम का प्रयोग कब करना चाहिए?

न्यायिक संयम, न्यायिक व्याख्या का एक सिद्धांत है। न्यायाधीशों से न्यायिक संयम बरतने की अपेक्षा की जाती है यदि वे ऐसे कानूनों को रद्द करने में हिचकिचाते हैं जो स्पष्ट रूप से असंवैधानिक नहीं हैं।

  • न्यायिक सक्रियता और न्यायिक समीक्षा कैसे संबंधित हैं?

न्यायिक सक्रियता किसी स्थिति को सुलझाने या सुधारने के लिए न्यायपालिका के सक्रिय दृष्टिकोण को संदर्भित करती है। दूसरी ओर, न्यायिक समीक्षा न्यायिक सक्रियता के तरीकों में से एक है।

न्यायिक समीक्षा संसद द्वारा पारित कानून की वैधता का निर्धारण करने वाले न्यायपालिका के कार्य को संदर्भित करती है। उदाहरण के लिए, यदि संसद एक कानून पारित करती है जो भारत के संविधान के अनुपालन में नहीं है, तो न्यायपालिका न्यायिक समीक्षा की शक्ति के तहत ऐसे कानून को रद्द कर सकती है।

संदर्भ

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