आई.पी.सी. की धारा 498A

0
2182
Indian Penal Code

यह लेख यूनिवर्सिटी फाइव ईयर लॉ कॉलेज, राजस्थान विश्वविद्यालय के कानून के छात्र Tushar Singh Samota के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A की धारणा पर चर्चा की गई है। इस लेख में इस धारा के तहत दंड के प्रावधानों के साथ-साथ इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) और महत्वपूर्ण तत्वों को समझकर इस चर्चा को और आसान बनाया जाएगा। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

समान अधिकारों के इन आधुनिक दिनों में, दहेज और महिला दासता (सर्विट्यूड) की प्राचीन रस्में अभी भी पूजनीय हैं। महिलाओं के प्रति दहेज और क्रूरता के खतरे को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत धारा 498A जोड़ी गई थी। आई.पी.सी. की धारा 498A महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करती है और साथ ही उन्हें सशक्त भी बनाती है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के तहत एक महिला को क्रूरता के अधीन करके किसी भी प्रकार की संपत्ति का विरूपण (एक्सटोर्शन) आपराधिक है। 26 दिसंबर, 1983 को, भारत सरकार के द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) को आपराधिक कानून (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1983) के साथ संशोधित किया गया था, जिसके द्वारा भारतीय दंड संहिता के अध्याय XX-A के तहत एक नई धारा 498 (A) सम्मिलित (इंसर्ट) की गई थी। दहेज हत्या होने की संभावना के जवाब में यह धारा पारित की गई थी। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113A को उसी संशोधन अधिनियम द्वारा, एक विवाहित महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने की धारणा को बढ़ाने के लिए जोड़ा गया था। धारा 498A का सबसे पहला लक्ष्य एक ऐसी महिला की रक्षा करना है जिसके साथ उसके पति या उसके परिवार के द्वारा दुर्व्यवहार किया जा रहा है। यह आई.पी.सी. का एकमात्र हिस्सा है जो महिलाओं के खिलाफ घरेलू दुर्व्यवहार को अपराध मानता है।

लेखक ने इस लेख में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के ऐतिहासिक संदर्भ और तत्वों की व्याख्या करते हुए इसकी ओर अधिक जांच की है। इस लेख में इस धारा के महत्व के साथ-साथ इसके दंडात्मक उपायों पर भी चर्चा की जाएगी।

आई.पी.सी. की धारा 498A की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

क्रूरता की घटनाएं पहले भी अक्सर होती थी, महिलाओं को अपमानित करने और निर्वस्त्र करने जैसी घटनाएं विशेष रूप से निचली जातियों की महिलाओं के बीच अक्सर होती थीं, लेकिन पहले महिलाओं और उन पर हो रही वैवाहिक क्रूरता पर ऐसा कोई शोध नहीं किया गया था। इसलिए, ब्रिटिश काल से पहले इस पर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। भारत में स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता की बाद दोनों आंदोलनों में परिवार और विवाह महत्वपूर्ण रहे हैं। 1970 और 1980 के दशक में महिलाओं के आंदोलन ने महिलाओं पर इस तरह के हमलों को परिवार के अंदर क्रूरता के रूप में बल दिया था; इसने उन तकनीकों पर भी प्रकाश डाला और उन पर अरुचि प्रकट की जिनके माध्यम से राज्य ने क्रूरता के उदाहरणों को खारिज कर दिया और उन्हें अनदेखा कर दिया था।

धारा 498A को, 1983 में “दुर्घटनावश रसोई में आग लगने” के कारण युवा महिलाओं की मृत्यु में वृद्धि के साथ महिलाओं के बारे में एक बड़ी चिंता के जवाब में अधिनियमित (इनैक्ट) किया गया था। बाद में यह निर्धारित किया गया कि विवाहित महिलाओं के दहेज उत्पीड़न के कारण मौतें हुईं हैं। इसके अलावा, धारा 304B, जिसे “दहेज मृत्यु” के रूप में भी जाना जाता है, को 1986 में आई.पी.सी. में पेश किया गया था। वर्तमान उपायों को 1961 के दहेज अधिनियम को मजबूत करने के लिए लागू किया गया था। तब से महिलाओं के द्वारा क्रूरता और अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार के मामलों में धारा 498A लागू की गई है। 2005 तक, यही एकमात्र उपाय उपलब्ध था। महिलाओं को इसकी शिकायत स्थानीय थाने में करने में काफी परेशानी होती थी।

जब तक वे साक्ष्य नहीं दिखाती थी, तब तक पुलिस उनके मामलों को गंभीरता से नहीं लेती थी। भयानक घटनाओं को कम करने के लिए, भारत सरकार के द्वारा 24 अप्रैल, 1959 को दहेज निषेध (प्रोहिबिशन) विधेयक (बिल), 1959 को अपनाया गया था। 1961 का दहेज निषेध अधिनियम संसद के संयुक्त सत्र में पारित किया गया था और 1 जुलाई, 1961 को प्रभावी हुआ था। 1984 और 1986 में इस अधिनियम को दो बार संशोधित किया गया था। कुछ अभियान, जैसे की 1978 में हैदराबाद में रमीज़ाबी के बलात्कार के खिलाफ प्रदर्शन और 1980 में मथुरा में बलात्कार के आरोपी बरी हुए अधिकारियों के खिलाफ नए सिरे से मुकदमे की मांग, साथ ही दहेज-संबंधी हत्याओं के बेतुके आरोप, नारीवादी सार्वजनिक विरोध के चरण में एक नए प्रतीक बन गए थे। औपनिवेशिक (कॉलोनियल) काल के दौरान महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बहुत सी घटनाएं हुईं थी।

1977 में आपातकाल की समाप्ति के साथ, भारत का महिला आंदोलन अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर गया था। इस अवधि के दौरान, दिल्ली में कई मौतें हुईं थी, जो आत्महत्या या दुर्घटनाओं के रूप में सामने आईं थी। दहेज विरोधी अभियान के दौरान भी नारीवादियों ने दहेज की मांग को महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई रूपों से जोड़ा था। वे पूरी तरह से महिलाओं के प्रति पति द्वारा की गई क्रूरता पर केंद्रित थे। जैसा कि आंदोलन ने जोर पकड़ा, कई पूर्व वर्जित विषयों को प्रकाश में लाया गया और उनकी जांच की गई थी। महिलाओं ने बोलना शुरू किया और अपनी कहानियां साझा कीं थी। 1980 के दशक में अभियान के आगे बढ़ने पर हिंसा की कई घटनाएं सामने आईं थीं। 1983 से पहले, घरेलू हिंसा को नियंत्रित करने वाला कोई विशिष्ट कानून नहीं था। हिंसा के खिलाफ कानूनों के लिए महिला प्रचारकों की मांगों के जवाब में, भारत सरकार ने 1983 और 1986 में आपराधिक अधिनियम प्रावधानों को सहर्ष बदल दिया था।

आई.पी.सी. की धारा 498A 

हाल के वर्षों में, विवाह से संबंधित असहमति बहुत अधिक बढ़ रही है। इस देश में विवाह संस्था को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। धारा 498A को एक महिला द्वारा, उसके पति और उसके परिवार द्वारा पहुंचाए गए उत्पीड़न के खतरे से निपटने के उद्देश्य से बनाया गया था। धारा 498A के अनुसार, जो कोई भी, किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होने के नाते, ऐसी महिला के साथ क्रूरता करता है, तो उसे तीन साल तक की कैद और जुर्माने के साथ दंडित किया जाना चाहिए। इस अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित शब्द ‘क्रूरता’ का अर्थ है;

  1. इरादे से किया गया कोई भी व्यवहार जो महिला के जीवन, अंग, या स्वास्थ्य (शारीरिक या मानसिक) के लिए एक गंभीर जोखिम पैदा करता है या जो आत्महत्या के विचार को भड़काने की संभावना रखता है;
  2. महिला को परेशान करना या उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को मजबूर करना इस इरादे से की किसी भी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा के लिए किसी भी गैरकानूनी मांग को पूरा किया जा सके या क्योंकि वह या उससे संबंधित कोई भी व्यक्ति उस मांग को पूरा करने में विफल रहा है।

क्रूरता की अवधारणा

क्रूरता को आम तौर पर, महिला के शरीर या स्वास्थ्य पर शारीरिक या भावनात्मक चोट पहुंचाने के साथ-साथ उसके या उसके रिश्तेदारों को किसी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा के लिए किसी भी गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिए उन्हें मनाने के लिए उत्पीड़ित करने के रूप में परिभाषित किया गया है। ‘क्रूरता’ के घटकों में से एक यह है कि व्यक्ति ऐसी परिस्थिति पैदा करता है जो एक महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करती है।

कालियापेरुमल बनाम तमिलनाडु राज्य (2003) के मामले में, क्रूरता को आई.पी.सी. की धारा 304B और 498A दोनों के तहत अपराधों की एक अनिवार्य विशेषता माना गया था। जिन लोगों को दहेज हत्या के अपराध के लिए धारा 304B के तहत दोषी नहीं पाया गया है, उन्हें फिर भी आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत दोषी पाया जा सकता है क्योंकि दोनों प्रावधान अधिव्‍याप्‍त (ओवरलैप) नहीं होते हैं, लेकिन प्रत्येक धारा के तहत एक अलग अपराध का गठन किया गया है।

धारा 498A के स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन) के तहत क्रूरता की परिभाषा दी गई है। धारा 304B के तहत क्रूरता को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन धारा 498A के तहत दी गई क्रूरता या उत्पीड़न की परिभाषा, धारा 304B पर भी लागू होती है। आई.पी.सी. की धारा 498A क्रूरता को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करती है जो अपने आप ही होता है, लेकिन धारा 304B दहेज मृत्यु को एक ऐसे अपराध, जो की शादी के पहले सात वर्षों के दौरान होता है, के रूप में परिभाषित करती है। हालांकि, धारा 498A में ऐसी समय सीमा का कोई जिक्र नहीं किया गया है।

एक अन्य मामले में, जो की इंदर राज मलिक बनाम सुनीता मलिक (1986) का मामला है, में यह पाया गया था कि किसी महिला को किसी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा की गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिए उसे या उससे संबंधित किसी पक्ष को परेशान करना और उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करना ‘क्रूरता’ की अवधारणा के अंतर्गत आता है। इस मामले में, पति को आई.पी.सी. की धारा 306 के तहत अपनी पत्नी की आत्महत्या में उसकी मदद करने का दोषी पाया गया था क्योंकि पति का किसी अन्य महिला के साथ अवैध संबंध था और वह उसे पीटता था, जो 1872 के साक्ष्य अधिनियम की धारा 113A द्वारा परिभाषित निरंतर क्रूरता का गठन करता था।

आई.पी.सी. की धारा 498A के तत्व

आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत किए जाने वाले अपराध के लिए निम्नलिखित तत्व मौजूद होने चाहिए:

  1. महिला को विवाहित होना चाहिए;
  2. उस के द्वारा दुर्व्यवहार या उत्पीड़न का अनुभव किया गया हो; और 
  3. दुर्व्यवहार या उत्पीड़न महिला के पति या उसके पति के किसी रिश्तेदार द्वारा किया गया हो।

इस प्रावधान के एक तुरंत और संक्षिप्‍त परीक्षण से पता चलता है कि ‘क्रूरता’ शब्द में निम्नलिखित कार्य के होने की घटना शामिल है:

  1. कोई जानबूझकर किया गया कार्य जो किसी महिला के जीवन, अंग या सुरक्षा को खतरे में डालता है या जो उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर सकता है;
  2. एक महिला की शारीरिक या मानसिक स्थिति;
  3. किसी महिला को परेशान करना, अगर उसे परेशान किया जा रहा है तो उसे या उससे जुड़े किसी भी अन्य व्यक्ति को किसी भी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा के लिए गैरकानूनी मांग का पालन करने के लिए जबरदस्ती की जाती है।

अपराध की स्थिति

इस धारा के तहत अपराध की स्थिति पर चर्चा करते समय, निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिए।

  1. आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत लगाए गए आरोप को एक गंभीर अपराध माना जाता है और यह कानून के तहत गैर-जमानती अपराध है। जमानत, बाद की सुनवाई में उपस्थिति होने के लिए सुरक्षा के प्रावधान के बदले में एक संदिग्ध या कैदी की अस्थायी रूप से रिहाई है।
  2. इस अपराध की गंभीर प्रकृति के कारण, धारा 498A एक संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध है। संज्ञेय अपराध वे अपराध होते हैं जिनमें एक पुलिस अधिकारी को किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार होता है।
  3. इसके अलावा धारा 498A गैर शमनीय (नॉन-कंपाउंडेबल) अपराध है।
धारा  अपराध सज़ा यह संज्ञेय है या नहीं? यह जमानती अपराध है या नहीं? कौन सी अदालत मामले की सुनवाई कर सकती है?
498 A  विवाहित स्त्री के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने के लिए दंड। तीन साल की जेल और जुर्माना। संज्ञेय है, यदि अधिकारी को अपराध किए जाने के बारे में जानकारी दी जाती है। यह जमानती अपराध नहीं है। इसकी सुनवाई प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा की जा सकती है।

मालिमथ समिति का अवलोकन (ऑब्जर्वेशन)

गृह मंत्रालय के द्वारा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के तरीकों पर गौर करने के लिए 2000 में न्यायमूर्ति मालिमथ समिति का गठन किया गया था। धारा 498A की गहन जांच के बाद, यह निष्कर्ष निकाला गया था कि क़ानून में कुछ खामियां थीं और उसमे संशोधन करने का सुझाव दिया गया था। समिति ने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 498A, गैर-जमानती और गैर-शमनीय होने के कारण, पति और पत्नी दोनों के हितों के खिलाफ काम करती है क्योंकि;

  1. यह विभाजित जोड़े के बीच विवाह संबंधों की वापसी के लिए एक महत्वपूर्ण बाधा प्रस्तुत करती है, क्योंकि ऐसी शिकायतें जीवन भर के लिए ऐसे संबंध को कलंकित करती हैं।
  2. क्योंकि पति या पति के रिश्तेदारों के विरुद्ध मामला गैर शमनीय है, इसलिए पक्षों की सुलह के बावजूद उनके विरुद्ध मामला बना रहता है।
  3. चूंकि यह अपराध जमानती नहीं है, इसलिए झूठे आरोप लगाने की स्थिति में यह पतियों और परिवारों का घोर उत्पीड़न करती है।

इस पुनर्वास उपकरण (रिहैबिलिटेटिव टूल) के बढ़ते दुरुपयोग के बारे में चिंतित हो कर, “इस अपराध के गैर-जमानती और गैर शमनीय होने के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को अपमान और कठिनाई का सामना करना पड़ता है,” इसलिए समिति ने धारा 498A को एक जमानती और शमन करने योग्य अपराध बनाने का प्रस्ताव दिया था।

आई.पी.सी. की धारा 498A और धारा 304B 

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा श्रीमती शांति और अन्य बनाम हरियाणा राज्य, (1990) के मामले में आई.पी.सी. की धारा 304 B के तहत दहेज मृत्यु के लिए एक दोष सिद्ध किया गया था। इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या आई.पी.सी. की धारा 304B और 498A के प्रावधान परस्पर अनन्य (म्यूचुअली एक्सक्लूसिव) थे और क्या धारा 498 A द्वारा दंडनीय अपराध से अपीलकर्ताओं को मिली मुक्ति से कोई फर्क पड़ेगा या नहीं। चूंकि आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत अपराधी को बरी कर दिया गया था, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय के पैरा 4 में उपर्युक्त प्रावधानों की जांच की थी। हालांकि, अदालत ने निम्नलिखित अवलोकन किया कि इन परिस्थितियों में धारा 498A के तहत अपीलकर्ताओं के केवल बरी होने से इस मामले में कोई फर्क नहीं पड़ता है।

ये धाराएं, 498A और 304B दो अलग-अलग अपराधों को संबोधित करती हैं। हालांकि यह सच है कि “क्रूरता” दोनों धाराओं में एक समान आवश्यक तत्व है, और इसे सिद्ध किया जाना चाहिए। “क्रूरता” की परिभाषा धारा 498A के स्पष्टीकरण में दी गई है। लेकिन धारा 304B में “क्रूरता” की ऐसी कोई परिभाषा नहीं है। हालांकि दोनों अपराधों के बीच समानता को देखते हुए, हमें यह मान लेना चाहिए कि “क्रूरता या उत्पीड़न” का वही अर्थ है जो धारा 498A में दिया गया है जो कहती है कि “क्रूरता” अपने आप में एक अपराध है और इसके लिए दंड दिया जाता है।

जैसा कि पहले भी कहा गया है, “दहेज मृत्यु” धारा 304B के तहत एक दंडनीय अपराध है, और ऐसी मृत्यु शादी के सात साल के भीतर होनी चाहिए। लेकिन धारा 498A में ऐसा कोई शब्द नहीं दिया गया है, और पति या उसके रिश्तेदार शादी के बाद किसी भी समय पत्नी के प्रति ‘क्रूरता’ के लिए जिम्मेदार होंगे। यहां पर यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अगर आरोपी व्यक्ति के खिलाफ ऐसा मामला बनता है तो उसे धारा 304B के तहत आरोपित और बरी किए बिना, बिना किसी आरोप के धारा 498A के तहत दोषी ठहराया जा सकता है। हालांकि, अभ्यास और प्रक्रिया के दृष्टिकोण से और तकनीकी खामियों से बचने के लिए, ऐसे मामलों में दोनों धाराओं के तहत आरोप तय करना आवश्यक है। यदि मामला सिद्ध हो जाता है, तो आरोपी को दोनों धाराओं के तहत दोषी पाया जा सकता है, लेकिन धारा 498A के लिए अलग से सजा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि धारा 304B पहले से ही बड़े अपराध के लिए एक मूल सजा प्रदान करती है।

अरुण गर्ग बनाम पंजाब राज्य (2004) के मामले में, जो बहुत बाद में रिपोर्ट किया गया था, इस मुद्दे को एक बार फिर उठाया गया था। माननीय न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आई.पी.सी. की धारा 304 B और 498 A परस्पर अनन्य नहीं हैं। वे विभिन्न प्रकार के विशिष्ट अपराधों को संबोधित करती हैं। क्रूरता दोनों धाराओं में एक लगातार विषय है। दूसरी ओर, क्रूरता एक अपराध है और धारा 498A के तहत इसे दंडित किया जाता है। दहेज मृत्यु धारा 304 B के तहत दंडनीय है, और यह शादी के सात साल के भीतर होनी चाहिए। जबकि धारा 498A में ऐसे समय का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

इसके अलावा, यदि कोई मामला बनता है, तो धारा 304B के तहत मुकदमा चलाने और बरी किए गए व्यक्ति को धारा 498A के तहत बिना किसी विशेष आरोप के दोषी ठहराया जा सकता है। वर्तमान मामले में विद्वान सत्र न्यायाधीश के द्वारा आरोपी को धारा 304 B के तहत दस साल तक के कारावास की सजा देने के अलावा, 2,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा निचली अदालत के फैसले के खिलाफ मजबूती से फैसला सुनाया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि वह धारा 304B के तहत दंड के रूप में शुल्क लगाने के लिए अधिकृत नहीं है।

आई.पी.सी. की धारा 498A और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113A 

साक्ष्य अधिनियम की धारा 113A, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के साथ मिलकर 1983 में एक विवाहित महिला द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने की उपधारणा को स्थापित करने के लिए अधिनियमित की गई थी।

इस धारा के अनुसार, यदि कोई महिला अपने पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता के संपर्क में आने के बाद शादी के 7 साल के भीतर आत्महत्या कर लेती है, तो यह माना जाता है कि इस तरह की आत्महत्या में पति या पति के रिश्तेदारों का सहयोग था। ऐसी परिस्थिति में, पति या उसके परिवार को अदालत में विपरीत साबित करने का भार उठाना पड़ता है जैसा कि पिनाकिन महिपत्रय रावल बनाम गुजरात राज्य (2013) के मामले में हुआ था ।

आई.पी.सी. की धारा 498A और घरेलू हिंसा

विवाहित महिलाओं के प्रति क्रूरता पर रोक लगाने वाली आई.पी.सी. की धारा 498A की शुरूआत घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 (डी.वी. अधिनियम) के लिए महत्वपूर्ण है। धारा 498A और डी.वी. अधिनियम के बीच महत्वपूर्ण अंतर यह ही है कि धारा 498A के तहत कार्यवाही अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा शासित होती है, जबकि डी.वी. अधिनियम के तहत प्रक्रियाएं नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा शासित होती हैं। इस प्रकार, आई.पी.सी. की धारा 498A और डी.वी. अधिनियम के तहत कार्यवाही समवर्ती (कंकर्रेंटली) रूप से चल सकती है।

दहेज और आई.पी.सी. कि धारा 498A

दहेज भारत की पुरानी विवाह प्रणाली में से एक प्रथागत प्रथा थी, जिसमें दुल्हन के परिवार से, दूल्हे के परिवार को धन सौंप दिया जाता था। 1961 के दहेज निषेध अधिनियम ने इस प्रथा को सामाजिक रूप से अस्वीकार्य और एक अपराध के रूप में बना दिया था। ‘गैरकानूनी मांगें’ शब्द धारा 498A और दहेज कानूनों के बीच की कड़ी को सामने लाता हैं।

आई.पी.सी. की धारा 498A की आवश्यकता

पुरुष संस्कृति ने परंपरागत रूप से महिलाओं के साथ कठोरता से व्यवहार किया है। इस तरह के कानून महिलाओं को वापस अपने अधिकारों के लिए लड़ने में मदद करते हैं। महिलाओं को आभास होता है कि उन्हें अब सुना जा रहा है। भारत जैसे देश में इस तरह के नियमों की सख्त जरूरत है –

  1. 2021 में, भारत में लगभग 6.8 हजार दर्ज मामले थे जो दहेज मृत्यु के थे। नतीजतन, महिलाओं को दुर्व्यवहार से बचाने के लिए इन कानूनों की सख्त जरूरत है।
  2. कुछ पाने के लिए महिलाओं पर लगातार दबाव डाला जाता है, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, धमकाया जाता है या उनके साथ गलत व्यवहार किया जाता है। आई.पी.सी. की धारा 498A महिलाओं को अदालत में जाने और अपराधी को दंडित करने की अनुमति देती है।
  3. कई बार महिला को भावनात्मक प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है। कोई भी कानून महिला की भावनात्मक पीड़ा को कम करने में उसकी मदद नहीं कर सकता है। इस तरह के कार्य महिलाओं को कई तरह से फायदा पहुंचाते हैं।
  4. कानूनों को, चाहे कितना भी गलत तरीके से लागू किया गया हो, लेकिन उसे भारतीय दंड संहिता से हटाया नहीं जा सकता है। कुछ अंतराल होंगे, लेकिन उन्हें एक दम बंद करने के लिए हमेशा एक प्रावधान डाला जा सकता है।

आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत सजा 

धारा 498A के तहत दोषी पाए जाने वाले सभी लोगों को या तो जेल की सजा दी जाएगी जो तीन साल तक हो सकती है या जुर्माना भरना होगा। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 से महिलाओं का संरक्षण, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, और अन्य कानून आई.पी.सी. की इस धारा के लिए प्रासंगिक (रिलेवेंट) हैं।

1872 का भारतीय साक्ष्य अधिनियम उन मामलों से संबंधित है जहां यह माना जाता है कि दहेज मांगने के क्रूर कार्य के रूप में भयानक शारीरिक और मानसिक शोषण या क्रूरता के परिणामस्वरूप महिला की मृत्यु हुई है। इस धारा की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) अभी भी सात साल के लिए वैध है। इसलिए, यह उन स्थितियों पर लागू होता है जहां पत्नी शादी के पहले सात वर्षों के दौरान खुद को मार लेती है या मर जाती है। धारा 498A की कार्यवाही में आई.पी.सी. की धारा 306 का भी काफी प्रभाव पड़ता है। किसी को अपनी जान लेने में सहायता करने की सजा या तो जुर्माना है या किसी भी तरह की जेल की सजा है जो 10 साल तक चल सकती है।

आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत प्राथमिकी (एफ.आई.आर.)

अगर किसी महिला के साथ अन्याय हुआ है, चाहे वह शारीरिक, भावनात्मक या यौन रूप से दुर्व्यवहार हो, तो उसे अधिकारियों से मदद लेने से नहीं डरना चाहिए। न्याय पाने के लिए अधिकारियों से संपर्क किया जाना चाहिए, गलत काम करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए, और ऐसे पति या उसके परिवार द्वारा पीड़ित को भविष्य में होने वाले नुकसान से बचाया जाना चाहिए। एक कुशल आपराधिक वकील को नियुक्त करने के अलावा, प्राथमिकी दर्ज करना प्रारंभिक कदम है। पुलिस से तुरंत संपर्क किया जाना चाहिए, और पीड़ित की ओर से प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए।

यदि पीड़ित गंभीर रूप से घायल हो गई है या भौतिक (फिजिकल) या लिखित शिकायत या प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए पुलिस स्टेशन जाने में असमर्थ है, तो उसका कोई अन्य मित्र या परिवार का सदस्य ऐसा कर सकता है। यदि शारीरिक रूप से थाने में उपस्थित होना संभव नहीं है, तो पुलिस हेल्पलाइन नंबर 100 पर कॉल की जानी चाहिए। एक बार पुलिस के पास ऐसी शिकायत दर्ज हो जाने के बाद, पीड़ित को कानूनी कार्रवाई के लिए आगे बढ़ने के लिए उसे जल्दी से इसका दस्तावेजीकरण (डॉक्यूमेंट) करना चाहिए। एक पुलिस रिपोर्ट, जिसे अक्सर प्राथमिकी के रूप में जाना जाता है, अभियुक्त या अपराधी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का सबसे पहला कदम है।

आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए कौन पात्र है

सी.आर.पी.सी. की धारा 198A के अनुसार, पति या उसके परिवार के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने के लिए आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत प्राथमिकी या शिकायत दर्ज करने की आवश्यकता होती है। निम्नलिखित व्यक्ति पीड़ित के लिए ऐसी शिकायत दर्ज करा सकते हैं:

  1. पीड़ित पक्ष, 
  2. विवाहित स्त्री,  
  3. उसकी माँ, भाई या बहन, 
  4. पिता या माता के भाई या बहन, और
  5. अदालत की मंजूरी के साथ, कोई भी व्यक्ति जो ऐसी महिला से रक्त, विवाह या गोद लेने से जुड़ा हो।

धारा 498A के तहत शिकायत दर्ज करने की सीमा अवधि 

शिकायत एक निश्चित समय के भीतर प्रस्तुत की जानी चाहिए। सी.आर.पी.सी. की धारा 468 के अनुसार, धारा 498A के तहत उल्लंघन के संबंध में शिकायत दर्ज, क्रूरता की अंतिम घटना का दावा किए जाने के तीन साल के भीतर की जानी चाहिए। जब न्याय की अत्यधिक आवश्यकता होती है, तो न्यायालय परिसीमाओं (लिमिटेशन) के क़ानून की समाप्ति के बाद भी ऐसे अपराध का संज्ञान दे सकता है।

धारा 498A के तहत परीक्षण और अदालती प्रक्रिया

जैसा कि पहले संकेत दिया गया है, मुकदमे या आपराधिक अदालत की प्रक्रिया प्राथमिकी दर्ज करने या पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने के साथ शुरू हो जाती है। निम्नलिखित एक व्यापक परीक्षण प्रक्रिया है:

  1. प्राथमिकी (प्रथम सूचना रिपोर्ट) / पुलिस शिकायत: प्राथमिकी जमा करना पहला कदम है। इसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत संबोधित किया गया है। एक प्राथमिकी पूरे मामले के लिए प्रारंभिक बिंदु होता है।
  2. अधिकारी द्वारा पूछताछ और रिपोर्ट: प्राथमिकी दर्ज होने के बाद, जांच अधिकारी जांच शुरू करता है। तथ्यों और परिस्थितियों के मूल्यांकन, साक्ष्य एकत्र करने, व्यक्तिगत जांच और अन्य लागू कदमों के बाद, अधिकारी जांच को पूरा करता है और रिपोर्ट तैयार करता है।
  3. मजिस्ट्रेट को आरोप पत्र (चार्जशीट) पेश करना: उसके बाद, पुलिस, मजिस्ट्रेट के सामने आरोप पत्र पेश करती है। आरोप पत्र आरोपी के खिलाफ लाए गए सभी आपराधिक आरोपों की एक सूची होती है।
  4. आरोप तय करना या आरोपो से मुक्ति करना : अभियुक्त और उनके वकीलों द्वारा आरोप पत्र देखने के बाद, अदालत आरोप तय करने की ओर बढ़ती है, जिसमें अभियुक्तों को उन अपराधों के बारे में सूचित करना शामिल है जिनके लिए उन पर आरोप लगाया गया है। यह वह चरण भी है जिस पर मजिस्ट्रेट यह निर्णय ले सकता है कि आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाने और उसे रिहा करने के लिए प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) कोई साक्ष्य नहीं है।
  5. अदालत में सुनवाई और आरोप तय करना: निर्धारित सुनवाई के दिन, मजिस्ट्रेट उन पक्षों की दलीलें सुनते हैं जो आरोप तय करने से पहले किए गए हैं।
  6. दोषी की याचिका: अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 241 के तहत दोषी की याचिका पर चर्चा की गई है। आरोपों के तय होने के बाद, अभियुक्त को दोष स्वीकार करने का अवसर दिया जाता है, और यह सुनिश्चित करना न्यायाधीश की जिम्मेदारी होती है कि दोषी की याचिका स्वेच्छा से की गई थी। अपने विवेक से, न्यायाधीश अभियुक्त को अपराधी ठहरा सकता है।
  7. अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) के द्वारा साक्ष्य: आरोपों का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करने और अभियुक्त के दोषी नहीं होने की दलील के बाद, अभियोजन पक्ष पहले साक्ष्य पेश करता है, शुरू में उस पर ही साक्ष्य पेश करने का भार होता है। मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों पेश किए जा सकते हैं। मजिस्ट्रेट के पास किसी को भी एक गवाह के रूप में बुलाने या किसी भी दस्तावेज को पेश करने का आदेश देने की शक्ति होती है।
  8. अभियुक्त के वकील द्वारा गवाहों का जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन): जब अभियोजन पक्ष के गवाहों को अदालत के समक्ष बुलाया जाता है, तो मुख्य परीक्षण के बाद अभियुक्त के वकील द्वारा उनसे जिरह की जाती है।
  9. यदि अभियुक्त के पास अपने बचाव में कोई साक्ष्य है, तो उसे इस समय पर न्यायालयों में पेश किया जाता है। उसे यह मौका दिया जाता है कि वह अपना पक्ष मजबूत करे। हालाँकि, क्योंकि अभियोजन पक्ष के पास साक्ष्य का भार होता है, इसलिए आरोपी को साक्ष्य पेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है।
  10. अभियोजन पक्ष के गवाहों की जिरह: अभियुक्त या उसके वकील अदालत में अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह करते हैं।
  11. साक्ष्य/ निष्कर्ष: अगर आरोपी के पास कोई साक्ष्य है, तो उसे इस बिंदु पर अदालतों में पेश किया जाता है। उसे अपने तर्क को मजबूत करने का अवसर दिया जाता है। हालाँकि, अभियुक्त को साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अभियोजन पक्ष पर साक्ष्य का भार होता है।
  • मौखिक/ अंतिम तर्क: अंतिम तर्क का चरण प्रक्रिया के अंत के करीब है। इस मामले में, दोनों पक्ष (अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष) बारी-बारी से अदालत के सामने अंतिम मौखिक बहस करते हैं।
  • न्यायालय का निर्णय: न्यायालय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के साथ-साथ पेश किए गए तर्कों और साक्ष्यों पर अपना निर्णय देता है। अभियुक्त को बरी करने या उसको अपराधी ठहराने के लिए अपने आधारों की व्याख्या करने के बाद न्यायालय अपना अंतिम निर्णय देता है।
  • दोषमुक्ति या दोषसिद्धि : यदि अभियुक्त दोषी पाया जाता है, तो उसे दोषी ठहराया जाता है; अगर वह दोषी नहीं पाया जाता है, तो आरोपी को बरी कर दिया जाता है।
  • दोषी पाए जाने पर सजा की मात्रा निर्धारित करने के लिए सुनवाई: यदि आरोपी को दोषी पाया जाता है और जेल की सजा सुनाई जाती है, तो सुनवाई सजा की मात्रा या सीमा निर्धारित करेगी।
  • उच्च न्यायालयों में अपील: यदि परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं तो उच्च न्यायालयों में अपील करना संभव है। व्यक्ति उच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है और आगे के चरणों में उच्चतम न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।

धारा 498A के तहत एक मामले में जमानत एक विकल्प है

जब किसी पर अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत एक लिखित प्राधिकरण (ऑथराइजेशन) जारी कर सकती है, जिसे ज़मानत कहा जाता है जो अपराधी को जेल जाने से बचाता है। पुलिस अधिकारी द्वारा शिकायतकर्ता की प्राथमिकी दर्ज करने के बाद केवल मजिस्ट्रेट धारा 498A के तहत जमानत जारी कर सकता है। हालाँकि, जैसे-जैसे समय बीतता गया, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे निर्णय दिए हैं जिन्होंने धीरे-धीरे आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत की गई गिरफ्तारियों को प्रतिबंधित कर दिया है। 

अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य (2014) के ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह फैसला सुनाया गया था कि कुछ मामलों में कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वहा आरोप गैर-जमानती और संज्ञेय है, और इसलिए ऐसा करना पुलिस कर्मियों के लिए अनुमत है। यह तथ्य कि गिरफ्तार करने की क्षमता मौजूद है, यह एक बात है; लेकिन इस क्षमता के इस्तेमाल करने का तर्क बिल्कुल अलग है। गिरफ्तारी के अधिकार के अलावा, पुलिस कर्मियों को अपने कार्यों का बचाव करने में सक्षम होना चाहिए। केवल उल्लंघन करने के आरोप में किसी व्यक्ति को नियमित रूप से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। किसी पुलिस अधिकारी के लिए यह बुद्धिमानी है कि जब तक दावे की सच्चाई की कुछ जांच के बाद उचित संतुष्टि प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक वह कोई गिरफ्तारी न करे।

समय के साथ साथ, समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए बहुत से कार्य किए गए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध (सी.ए.डब्ल्यू.) प्रकोष्ठ (सेल) या महिला थाना में मुकदमेबाजी के पहले की मध्यस्थता (मीडिएशन) इन प्रक्रियाओं में से एक है। प्राथमिकी से पहले मध्यस्थता और परामर्श (काउंसलिंग) के बावजूद, महिला के पास प्राथमिकी दर्ज करने का विकल्प होता है यदि वह ऐसा करना चाहती है। शिकायतकर्ता द्वारा प्राथमिकी वापस नहीं ली जा सकती है, लेकिन उच्च न्यायालयों के पास सी.आर.पी.सी. की धारा 482 के तहत इसे रद्द करने का अधिकार है।

हालांकि, प्राथमिकी दर्ज होने के बाद अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत लेने की सलाह दी जाती है। जब अभियुक्त अग्रिम जमानत का अनुरोध करता/करती है तो अदालत उस पर विशिष्ट प्रतिबंध लगा सकती है। आवश्यकताओं में से एक भरण-पोषण (मेंटेनेंस) या अन्य दायित्व के हिस्से के रूप में पत्नी या अन्य आश्रितों के नाम पर डिमांड ड्राफ्ट जमा करना हो सकता है। हालांकि, जब पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण के लिए विशेष प्रावधान है, तो धारा 498A के तहत सशर्त अग्रिम जमानत जारी करना अवैध होगा।

क्या धारा 498A के मामले में अपील दायर करना संभव है?

इस प्रक्रिया का उपयोग करके एक निचली अदालत या अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) अदालत के फैसले या आदेश की अपील उच्च न्यायालय में की जा सकती है। निचली अदालत के समक्ष विवाद का कोई भी पक्ष अपील दायर कर सकता है। वह व्यक्ति जो अपील कर रहा है या निर्णय को उलट रहा है उसे अपीलकर्ता के रूप में जाना जाता है, और जिस अदालत में अपील प्रस्तुत की गई थी उसे अपीलीय न्यायालय के रूप में जाना जाता है। किसी मामले के पक्षकार को अदालत के फैसले या आदेश को उच्च या अधिक वरिष्ठ (सुपीरियर) अदालत में अपील करने का कोई अंतर्निहित (इन्हेरेंट) अधिकार नहीं है। एक अपील केवल तभी दर्ज की जा सकती है जब कानून द्वारा इसकी स्पष्ट रूप से अनुमति दी गई हो और इसे संबंधित अदालतों में आवश्यक तरीके से दायर किया जाना चाहिए। एक अपील भी एक उचित समय सीमा के भीतर प्रस्तुत की जानी चाहिए।

यदि इसको दायर करने के पीछे मजबूत कारण हैं, तो उच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है। जिला/मजिस्ट्रेट अदालत के फैसले के खिलाफ सत्र न्यायालय में अपील की जा सकती है। सत्र न्यायालय से उच्च न्यायालय में और उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। यदि तथ्य अनुमति देते हैं, तो पत्नी और अभियुक्त दोनों अपील दायर कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष मुकदमे में या किसी अन्य अदालत के समक्ष मुकदमे पर दोषी ठहराया गया है और उसी मुकदमे में खुद को या किसी अन्य व्यक्ति को 7 साल से अधिक की जेल की सजा सुनाई गई है, तो वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

धारा 498A से संबंधित मुद्दे

इस धारा के तहत संरक्षण विशेष रूप से विवाहित महिलाओं के लिए ही उपलब्ध है

आई.पी.सी. की धारा 498A केवल विवाहित महिलाओं को उनके पति या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा किए गए घरेलू दुर्व्यवहार से बचाती है। इस प्रकार यह परिभाषा उपपत्नी, प्रेमिकाओं और मंगेतरों द्वारा अनुभव की जाने वाली नियमित हिंसा की उपेक्षा करती है और उसे अवैध ठहराती है।

क्रूरता की अस्पष्ट परिभाषा

धारा 498A में प्रदान की गई क्रूरता की परिभाषा अस्पष्ट और संकीर्ण (नैरो) है, और इसमें महिलाओं पर सभी प्रकार के दुर्व्यवहार शामिल नहीं हैं। महिलाओं के अनुभव बताते हैं कि वे शारीरिक, मानसिक, भाषाई, मनोवैज्ञानिक, यौन और आर्थिक हमले का सामना करती हैं। धारा 498A केवल शरीर और मन के खिलाफ आक्रामकता को संबोधित करती है। विवाह में यौन हिंसा की महत्वपूर्ण आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) होती है और इस तथ्य के कारण कि भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत वैवाहिक बलात्कार विशेष रूप से बलात्कार की परिभाषा में शामिल नहीं है, विशेष रूप से यौन हिंसा को क्रूरता के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

क्रूरता को “उचित संदेह से परे” स्थापित करने में कठिनाई

आई.पी.सी. की धारा 498A के अनुसार, पति या पत्नी और उसके परिवार को उचित संदेह से परे क्रूर साबित होना चाहिए, जो कि आपराधिक कानून की एक शर्त है। जब दुर्व्यवहार एक घर की दीवारों के अंदर होता है, तो उचित संदेह से परे शारीरिक या मानसिक शोषण को प्रदर्शित करना अविश्वसनीय रूप से कठिन और लगभग असंभव होता है।

धारा 498A का दुरुपयोग

इस प्रावधान, इसके उद्देश्यों और इसकी महत्वाकांक्षाओं (एंबीशन) का उल्लंघन बढ़ रहा है, महिलाएं अपने पति से छुटकारा पाने या परिवार को नुकसान पहुंचाने के लिए अपने पति के खिलाफ तुच्छ, झूठे दावे कर रही हैं। इस धारा का दुरुपयोग बढ़ रहा है, और सुशिक्षित महिलाएं पूरी तरह से जानती हैं कि यह संज्ञेय और गैर-जमानती दोनों है, और पुलिस महिला के आरोप पर तेजी से काम करती है और पुरुष को जेल के पीछे रखती है। जैसे की सावित्री देवी बनाम रमेश चंद और अन्य (2003) के मामले में, अदालत के द्वारा स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला गया था कि इन प्रावधानों का दुरुपयोग और शोषण किया गया था, जहां वे स्वयं विवाह को कमजोर कर रहे थे और पूरे समाज के लिए हानिकारक साबित हो रहे थे।

अदालत ने कहा कि ऐसा होने से रोकने के लिए, विधायकों और सरकारी अधिकारियों को वर्तमान परिस्थितियों और लागू कानूनों का आकलन (एसेस) करने की आवश्यकता है। इस धारा को विवाहित महिलाओं को बेईमान पतियों से बचाने के लिए बनाया गया था, लेकिन कुछ महिलाओं द्वारा इसका दुरुपयोग किया गया है, जैसा कि सरिता बनाम आर. रामचंद्रन (2002) के मामले में कहा गया है, जहां अदालत ने विपरीत प्रवृत्ति (ट्रेंड) का उल्लेख किया और विधि आयोग और संसद से इसे असंज्ञेय और जमानती अपराध के रूप मे बनाने का अनुरोध किया। 

हालांकि इस अपराध को असंज्ञेय और जमानती बनाने का विरोध कई महिला अधिकार संगठनों द्वारा किया जाता है, जो मानते हैं कि ऐसा करने से अभियुक्त को मुकदमों से बचने का अवसर मिलता है। हालांकि, यह व्यक्ति को एक उचित अवसर प्रदान करेगा और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करेगा।

न्याय को कमजोर व्यक्तियों का बचाव करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पीड़ित व्यक्ति के पास अपने हक की भरपाई करने का अवसर है। जब पत्नियां अपने पति पर आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत अपराध का आरोप लगाती हैं, जो अपराध को गैर-जमानती और संज्ञेय बनाता है, तो पुरुष के पास निर्दोष होने पर जल्द से जल्द न्याय प्राप्त करने का अवसर नहीं होता है, क्योंकि न्याय में देरी होने का मतलब न्याय से वंचित होना है। इसलिए विधायकों को सुझाव देना चाहिए कि इस धारा को सभी के प्रति निष्पक्ष कैसे बनाया जाए ताकि अपराध करने वालों को सजा मिले और पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिले।

उन्हें अभी भी समाज में प्रभावी ढंग से काम करने के लिए अधिकारों की आवश्यकता होती है लेकिन वे अक्सर दूसरों के अधिकारों की उपेक्षा करते हैं जबकि उनके अपने अधिकार सुरक्षित होते हैं। आज की शिक्षित महिलाओं को समानता के विचार का समर्थन करना चाहिए और इसकी मांग करनी चाहिए, लेकिन प्रवृत्ति धीरे-धीरे बदल रही है। अपने अधिकारों की गारंटी के आधार पर, महिलाएं इस तथ्य का लाभ उठा रही हैं कि उन्हें कमजोर लिंग माना जाता है और वे दूसरों के अधिकारों का हनन कर रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा, पुलिस को दुरुपयोग रोकने का निर्देश

भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत गिरफ्तारी के अधिकार के मनमाने उपयोग को सीमित करने से लेकर, सर्वोच्च न्यायालय ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) में कुछ आवश्यक निर्देश जारी किए, जब पुलिस बिना वारंट और संबंधित विषयों पर गिरफ्तारी कर सकती है। इस मामले में, याचिकाकर्ता, जो धारा 498A के तहत लाए गए एक मामले में गिरफ्तारी का सामना कर रहा था, ने उच्च न्यायालय द्वारा इस तरह की राहत प्राप्त करने के अपने पिछले प्रयास के बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एस.एल.पी. (विशेष अनुमति याचिका) दायर की थी। अपीलकर्ता पति ने एक मारुति ऑटोमोबाइल, और एक एयर कंडीशनर, और अन्य चीजों के साथ 8 लाख रुपये की मांग की थी और ऐसी मांगें पूरी न होने पर पुनर्विवाह करने की धमकी भी दी थी।

अभियुक्तों की अवांछित गिरफ्तारी को कम करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में पुलिस को निम्नलिखित आवश्यक निर्देश जारी किए थे:

  1. सभी राज्य सरकारों को अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देशित करना चाहिए कि जब आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत मामला दर्ज किया जाता है तो वे स्वतः गिरफ्तारी न करें, बल्कि सी.आर.पी.सी. की धारा 41, में उल्लिखित मानकों के आधार पर गिरफ्तारी की आवश्यकता का निर्धारण करें।
  2. सभी पुलिस अधिकारियों को धारा 41(1)(b)(ii) के तहत विशिष्ट उप-धाराओं वाली एक चेकलिस्ट दी जाती है।
  3. पुलिस अधिकारी कानूनी रूप से दायर चेकलिस्ट भेजेगा और अभियुक्त को आगे हिरासत में लेने के लिए मजिस्ट्रेट के सामने पेश करते समय गिरफ्तारी के लिए आधार और दस्तावेज प्रदान करेगा।
  4. अभियुक्त को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) करने से पहले मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी द्वारा दी गई रिपोर्ट को शर्तों के अनुसार पढ़ेगा और उसकी संतुष्टि दर्ज करने के बाद ही मजिस्ट्रेट हिरासत को अधिकृत करेगा।
  5. मामले के शुरू होने के दो सप्ताह के भीतर, एक अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं करने का निर्णय मजिस्ट्रेट को एक प्रति के साथ मजिस्ट्रेट को भेजा जाना चाहिए; इस समय सीमा को जिला पुलिस अधीक्षक द्वारा उन कारणों से बढ़ाया जा सकता है जिन्हें लिखित रूप में बताया जाना चाहिए।
  6. जिस दिन मामला शुरू किया गया था, उसके दो सप्ताह के भीतर, अभियुक्तों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41A के तहत उनकी उपस्थिति का नोटिस प्राप्त करना चाहिए। जिले के पुलिस अधीक्षक किसी कारण के लिए विस्तार दे सकते हैं जिसे लिखित रूप में बताया जाना चाहिए।
  7. उपर्युक्त निर्देशों का पालन करने में विफल रहने पर शामिल पुलिस अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई के साथ-साथ अदालत की अवमानना ​​​​की सजा होगी, जिसे क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र वाले उच्च न्यायालय के समक्ष लाया जाएगा।
  8. संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उपरोक्त कारणों का दस्तावेजीकरण किए बिना निरोध को अधिकृत करना सक्षम उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्रवाई के अधीन है।

आई.पी.सी. की धारा 498A की संवैधानिक वैधता

भारतीय संविधान, आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत विवाहित महिलाओं को ससुराल में दुर्व्यवहार से बचाता है। महिलाओं को घरेलू शोषण से बचाने के लिए आई.पी.सी. में यह प्रावधान शामिल किया गया था। भले ही महिलाओं के साथ व्यापक रूप से दुर्व्यवहार किया जाता है। यह आई.पी.सी. का सबसे चर्चित हिस्सा है। महिलाओं के खिलाफ आई.पी.सी. के तहत अपराधों की संख्या समय के साथ बढ़ी है। अधिकांश मामले दिल्ली में दर्ज किए गए हैं। हर साल महिलाओं के खिलाफ बड़ी संख्या में अपराध होते हैं। धारा 498A निर्विवाद रूप से आवश्यक है, और क्योंकि दुरुपयोग हो सकता है, इस आधार पर वास्तविक मामलों को टाला नहीं जा सकता है। खामियों को दूर करने के उपाय किए जा सकते हैं। 

इंदर राज मलिक और अन्य बनाम श्रीमती सुमिता मलिक (1986) के मामले में, यह तर्क दिया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 20 (2) का उल्लंघन करती है। दहेज निषेध अधिनियम भी इस प्रकृति की स्थितियों को संबोधित करता है; इसलिए, दोनों विधानों के संयोजन से एक ऐसी स्थिति पैदा होती है जिसे ‘दोहरे संकट’ के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया, यह फैसला सुनाते हुए कि यह धारा दोहरे खतरे का परिदृश्य (सिनेरियो) नहीं बनाती है। धारा 498A दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 से अलग है जिसमें दहेज निषेध अधिनियम सिर्फ दहेज की मांग को दंडित करता है और क्रूरता के किसी भी तत्व की आवश्यकता नहीं है, जबकि धारा 498A अपराध के उग्र संस्करण (अग्रवटेड वर्जन) से संबंधित है।

यह पत्नी या उसके परिवार के सदस्यों से महत्वपूर्ण सुरक्षा या संपत्ति के उन अनुरोधों को दंडित करता है जो उसके खिलाफ दुर्व्यवहार के साथ होते हैं। इसलिए, एक व्यक्ति को दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 के तहत आने वाले दोनों अपराधों के लिए आरोपों का सामना करना पड़ सकता है। यह धारा अदालत को यह निर्धारित करने का व्यापक अधिकार भी देती है कि कानूनों की भाषा की व्याख्या कैसे की जाए और अपराधियों को कैसे दंडित किया जाए। यह धारा असंवैधानिक नहीं है। यह अदालतों को बेलगाम (अनब्रिडल्ड) अधिकार नहीं देता है।

वज़ीर चंद बनाम हरियाणा राज्य (1988) के प्रसिद्ध मामले के तथ्य एक नवविवाहित महिला की जलती हुई मौत से सम्बन्धित थे, जो किसी तीसरे पक्ष द्वारा की गई हत्या या आत्महत्या को प्रदर्शित नहीं करते थे। नतीजतन, ससुराल वाले आई.पी.सी. की धारा 300 और 306 के प्रावधानों से बच गए, लेकिन वे दहेज उत्पीड़न की रोकथाम के लिए हाल ही में बनाई गई इस धारा के जाल में फंस गए। उन वस्तुओं का उल्लेख नहीं करने के लिए जो वे लड़की की ओर से मांग करना जारी रखते हैं, तथ्य यह कि उसके पिता ने उसकी मृत्यु के बाद उसके ससुराल से महत्वपूर्ण मात्रा में संपत्ति हटा दी थी, यह दर्शाता है कि उसके ससुराल वालों पर दबाव लागू किया गया था और यह तब तक बना रहा जब तक कि वह लड़की अतिरिक्त धन और संपत्ति प्राप्त करने के लिए मौत को प्राप्त नहीं हो गई। 

आधुनिकीकरण (मॉडराइजेशन), शिक्षा, वित्तीय स्थिरता और नई मिली स्वतंत्रता के विकास के साथ, नारीवादी (फेमिनिज्म) ने धारा 498A को एक हथियार में बदल दिया है। कई बदकिस्मत पति-पत्नी और ससुराल वाले अपनी द्वेषी बहुओं के शिकार हुए हैं।

अधिकांश मामले जिनमें धारा 498A का उपयोग किया जाता है, नकली साबित होते हैं, जैसा कि भारतीय उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगातार स्वीकार किया जाता है क्योंकि वे एक मुश्किल शादी का सामना करने पर पत्नी या उसके करीबी रिश्तेदारों द्वारा सिर्फ ब्लैकमेल की रणनीति हैं। ज्यादातर स्थितियों में, 498A की शिकायत के बाद बड़ी रकम की मांग की जाती है या अदालत के बाहर मामले को सुलझाने के लिए जबरन वसूली की जाती है।

निष्कर्ष 

भारत एक विविध संस्कृति और परंपरा वाला देश है, लेकिन यह परिवार की धारणा की सराहना और सम्मान भी करता है। यह धारा केवल महिलाओं के लिए उपचार प्रदान करता है, और यह हाल ही में एक अत्यधिक विवादास्पद विषय बन गया है। विवाह को एक दैवीय सामाजिक संस्था माना जाता है। हालांकि, हाल के दशकों में विवादित खंड के तहत लाए गए मुकदमों में वृद्धि के कारण विवाह की पवित्रता खतरे में पड़ गई है। महिलाओं द्वारा अपने निर्दोष पतियों और ससुराल वालों से बदला लेने के लिए धारा 498A का व्यापक शोषण गंभीर चिंता का कारण है। इस तरह की कार्रवाइयां उस सटीक उद्देश्य को कमजोर करती हैं जिसके लिए कानून बनाया गया था। यदि इस मुद्दे को कानून द्वारा नहीं संभाला गया, तो यह समाज के लिए एक भयावह बुराई बन जाएगा। यहां तक ​​कि अगर वे इसके बारे में जानते हैं, तो कई महिलाएं जिन्हें वास्तव में घरेलू हिंसा से सुरक्षा की आवश्यकता है, वे शायद इसका उपयोग कभी नहीं करेंगी। 

यह कानून बेईमान महिलाओं के हाथों में सिर्फ एक और उपकरण होगा, जो अपने लाभ के लिए इसका फायदा उठाएंगी। जब किसी व्यक्ति को घरेलू दुर्व्यवहार या क्रूरता के वास्तविक या झूठे दावों के आधार पर उसके अपने घर से बेदखल कर दिया जाता है, तो उस पर निर्भर सभी लोग पीड़ित होते हैं। यहां तक ​​कि अगर एक आरोपी व्यक्ति वास्तव में दुर्व्यवहार करता है, तो उसके पूरे परिवार को दंडित करना अन्यायपूर्ण है। नतीजतन, यह जरूरी है कि इस तरह के शोषण से निपटने के लिए खंड में उचित संशोधन किए जाएं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न 

क्या शादी के 7 साल बाद 498A याचिका दायर की जा सकती है?

हां, फॉर्म 498A फाइल करते समय शादी के वर्षों की संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि पत्नी या कोई रिश्तेदार किसी भी समय पति के खिलाफ धारा 498A दायर कर सकता है। सी.आर.पी.सी. की धारा 468 के अनुसार, 498A दाखिल करने की समय सीमा अंतिम दावा की गई घटना से तीन वर्ष है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 में क्या अंतर है?

धारा 498A दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 से अलग है जिसमें बाद वाला सिर्फ दहेज की मांग को दंडित करता है और क्रूरता के किसी भी तत्व की आवश्यकता नहीं है, जबकि धारा 498A अपराध के उग्र संस्करण से संबंधित है।

धारा 498A के तहत जमानत के बाद क्या होता है?

अग्रिम जमानत प्राप्त करने के बाद, आपको न्यायालय द्वारा ही सभी शर्तें दी जाएंगी जिनका आपको पालन करने की आवश्यकता है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या आपको एक विशिष्ट समय के बाद एक विशिष्ट पुलिस स्टेशन में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी चाहिए या अन्य बातों के अलावा, आप अदालत की अनुमति के बिना, शहर या देश नहीं छोड़ सकते।

धारा 498A के तहत मामला आपराधिक है या सिविल?

धारा 498A एक पति और उसके रिश्तेदारों के लिए एक विवाहित महिला को क्रूरता के अधीन करने के कार्य को एक अपराध बनाती है जिससे उसे आत्महत्या करने या पर्याप्त शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाने की संभावना होती है, साथ ही उसे या उसके किसी भी  रिश्तेदार को किसी भी अवैध संपत्ति की मांग को पूरा करने के लिए मजबूर करने के इरादे से उत्पीड़ित किया जाता है। 

संदर्भ

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here