आई.पी.सी. की धारा 353: लोक सेवक को उसके कर्तव्य के निर्वहन से रोकने के लिए हमला या आपराधिक बल का इस्तेमाल करना

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Indian Penal Code
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यह लेख नोएडा के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल के छात्र Ayush Tiwari ने लिखा है। इस लेख का उद्देश्य, भारतीय दंड संहिता की धारा 353 के तहत लोक सेवकों पर हमले (असॉल्ट) और आपराधिक बल (क्रिमिनल फोर्स) और साथ ही उसके दंड के बारे में सभी जानकारी प्रदान करना है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

भारत जैसे देश में, हम हमेशा आक्रमण, हमला, आदि जैसे अपराधों के बारे में खबरें देखते हैं; इस तरह के अपराध हमारे देश में बहुत आम हैं और लगभग हर एक दिन होते हैं। आजकल लोक अधिकारियों के मामले में भी ऐसा ही है, लोक सेवकों को अक्सर अपनी आधिकारिक जिम्मेदारियों के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण खतरों का सामना करना पड़ता है, और कानून, कानून का उल्लंघन करने वालों पर अत्यधिक निवारक (डिटरेन्ट) प्रतिबंध लगाकर उन्हें विशेष सुरक्षा प्रदान करता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) की धारा 353 इस समस्या से संबंधित है और यह लेख उसी को स्पष्ट करता है, धारा 353 को समझने से पहले हमें यह समझना चाहिए कि बल और हमला क्या है जिसके कारण लोक सेवक अपने कर्तव्य का पालन करने में सक्षम नहीं होता हैं।

बल 

बल को आई.पी.सी. की धारा 349 के तहत परिभाषित किया गया है। यह एक अपराध का गठन नहीं करता है; बल्कि, यह बल शब्द के अर्थ को स्पष्ट करता है। यह इंगित करता है कि जब भी कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को गति, गति में परिवर्तन, या गति की समाप्ति करित करता है, तो उस व्यक्ति को बल का प्रयोग करने वाला माना जाता है। इसके अलावा, गति शुरू करने वाला व्यक्ति नीचे वर्णित तीन तरीकों में से एक का उपयोग करता है:

  1. सबसे पहले, उसकी शारीरिक शक्ति के उपयोग के साथ।
  2. दूसरा, किसी भी सामग्री का इस तरह से निपटान करके कि उसके या किसी अन्य व्यक्ति की ओर से कोई अतिरिक्त कार्य किए बिना गति, परिवर्तन या गति की समाप्ति होती है।
  3. अंत में, किसी जानवर को गति में ला कर, उसकी गति को समायोजित (एडजस्ट) करके, या उसकी गति को रोक कर।

एक व्यक्ति को ऊपर सूचीबद्ध तीन तरीकों में से किसी एक में बल का प्रयोग करने के लिए कहा जाता है, भले ही ऐसा, वह किसी जानवर को गति में ला कर या दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को प्रभावित करके करता हो। आरोपी वह होगा जो जानवर को गति में लाने के लिए प्रेरित करता है। अपराध करने वाले व्यक्ति से सीधे संपर्क में आने की आवश्यकता नहीं होती है; इसके बिना भी ऐसा किया जा सकता है।

बाहरी वातावरण में गति या परिवर्तन का कारण बनने वाली ऊर्जा (एनर्जी) या शक्ति के प्रयास को बल के रूप में जाना जाता है। शब्द “बल” जैसा कि इस धारा में परिभाषित किया गया है, एक व्यक्ति द्वारा दूसरे मानव पर लगाए गए बल को संदर्भित करता है। यह निर्जीव वस्तुओं के खिलाफ हिंसा के उपयोग को शामिल नहीं करता है। नतीजतन, किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाए बिना गति, गति में परिवर्तन, या गति-प्रेरित संपत्ति की समाप्ति को इस प्रावधान के तहत बल का उपयोग नहीं माना जाता है।

आपराधिक बल

जो कोई भी व्यक्ति, अपराध कारित करने के आशय से किसी अन्य व्यक्ति पर उसकी अनुमति के बिना बल का प्रयोग करता है, इस उद्देश्य से की उस व्यक्ति को क्षति, भय या क्षोभ (इरीटेशन) के रूप में हानि हो, तो ऐसा कहा जाता है की उसने अन्य व्यक्ति पर आपराधिक बल का प्रयोग किया है। यह आई.पी.सी. की धारा 350 के तहत दंडनीय है।

आपराधिक बल की अनिवार्यता

धारा 349 में निर्दिष्ट बल एक आपराधिक बल में बदल जाता है जब धारा 350 की अनिवार्यताएं संतुष्ट हो जाती हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • किसी के खिलाफ जानबूझकर बल का प्रयोग: बल का प्रयोग जानबूझकर किया जाना चाहिए।
  • सहमति के बिना: एक व्यक्ति जो किए जा रहे कार्य की प्रकृति को नहीं समझता है, उसके लिए यह नही माना जा सकता है कि वह इससे सहमत है क्योंकि उसने इसे स्वीकार कर लिया है। जब दावा किए गए हमले में अवैध आचरण शामिल हो, तो सहमति का उपयोग बचाव के रूप में नहीं किया जा सकता है। इस कानून के कुछ अपवाद हैं, जैसे कि मित्रतापूर्ण खेल प्रतियोगिताओं के दौरान की गई हड़तालें, लेकिन इन्हें अपवादों के तहत मान्यता नहीं दी जाती है।
  • बल का प्रयोग अपराध करने के लिए या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति, भय या क्षोभ पहुंचाने के लिए किया होना चाहिए।

हमला करना

भारतीय दंड संहिता की धारा 351 में हमले को परिभाषित किया गया है, “जो कोई भी संकेत या तैयारी इस आशय से करता है, या यह जानते हुए करता है कि ऐसे संकेत या तैयारी करने से किसी उपस्थित व्यक्ति को यह आशंका हो जाएगी कि जो वैसा संकेत या तैयारी करता है, वह उस व्यक्ति पर आपराधिक बल का प्रयोग करने ही वाला है, तो उसे हमला करना कहते हैं।”

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार हमला “एक ऐसा कार्य है जो किसी व्यक्ति को शारीरिक क्षति की धमकी देता है (चाहे वास्तविक नुकसान हुआ हो या नहीं)”। यह एक ऐसा शब्द है जिसे समझना आसान है लेकिन परिभाषित करना थोड़ा कठिन है। एक साधारण खतरे को हमले के रूप में देखा जा सकता है। अपराध का सार मनोवैज्ञानिक प्रभाव है, जो पीड़ित के लिए खतरा है।

केवल कहे हुए शब्दों से ही हमले का गठन नहीं किया जाता है। हालाँकि, एक व्यक्ति जो शब्द बोलता है, वह उसके कार्यों या तैयारियों को ऐसा अर्थ दे सकते है कि वे एक हमला बन जाए।

हमले की अनिवार्यताएं

  • संकेत या तैयारी करना: आरोपी को गैर कानूनी बल का प्रयोग करने के लिए संकेत या तैयारी करनी चाहिए।
  • ऐसी तैयारी या संकेतों को उस व्यक्ति की उपस्थिति में किया जाना चाहिए जिसके संबंध में यह किया जाता है।
  • ऐसा कार्य, क्षति या हानि का डर पैदा करने के लक्ष्य के साथ किया होना चाहिए;
  • कार्य ने पीड़ित को भयभीत कर दिया कि किसी अन्य व्यक्ति के कार्यों के परिणामस्वरूप उसे हानि हो सकती है।

हमला एक गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) अपराध है, जिस पर आरोप लगाया जा सकता है, जमानत दी जा सकती है और शमनीय (कंपाउंडेबल) है। कोई भी मजिस्ट्रेट मामले की सुनवाई कर सकता है।

हमले और आपराधिक बल के लिए सजा

जब आई.पी.सी. की धारा 353 से 358 में निर्दिष्ट कोई गंभीर परिस्थितियाँ नहीं हैं, तो धारा 352 के तहत हमला या आपराधिक बल का प्रयोग दंडनीय है।

जब कोई बिना उकसाए दूसरे पर हमला करता है या आपराधिक बल का प्रयोग करता है, तो उस व्यक्ति को तीन महीने की जेल, 500 रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकता है। धारा 352 इसे परिभाषित करती है।

आई.पी.सी. की धारा 353 

यह धारा तब लागू होती है जब सार्वजनिक कर्मचारियों पर उनके कानूनी रूप से अनिवार्य आधिकारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए हमला किया जाता है।

एक लोक सेवक कौन होता है

इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्य को निष्पादित (एग्जीक्यूट) करते समय या किसी कर्तव्य को निष्पादित करते समय, सक्षम प्राधिकारी (अथॉरिटी), प्रत्येक मध्यस्थ (अर्बिट्रेटर), और केंद्र सरकार या सक्षम प्राधिकारी द्वारा अधिकृत किसी भी अधिकारी को भारतीय दंड संहिता की धारा 21 के तहत एक लोक सेवक माना जाएगा। 

आई.पी.सी. की धारा 353 क्या है  

धारा 353 हमें बताती है कि, “जो भी किसी ऐसे व्यक्ति पर, जो लोक सेवक हो, उस समय जब लोक सेवक के नाते वह अपने कर्तव्य का निष्पादन (एग्जीक्यूट) कर रहा हो, या उस व्यक्ति को लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य के निर्वहन से निवारित (प्रीवेंट) या रोकने के आशय से, या लोक सेवक के नाते उसके अपने कर्तव्य के विधिपूर्ण निर्वहन में किए गए या किए जाने वाले किसी कार्य के परिणामस्वरूप हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करेगा, तो उसे दंडित किया जाएगा।”

एक सार्वजनिक कर्मचारी को अक्सर अपने आधिकारिक कार्यों के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण खतरों का सामना करना पड़ता है, और कानून उन लोगों के लिए असाधारण रूप से निवारक दंड प्रदान करके उनकी रक्षा करता है, जो कानून का उल्लंघन करते हैं। हालांकि, केवल एक प्राधिकारी जो आधिकारिक कार्यों को करने के लिए बाध्य है, वह सुरक्षा का हकदार है। एक समय-सीमा समाप्त वारंट के तहत, कब्जे का आत्मसमर्पण करने की मांग करने वाले एक आयुक्त (कमिश्नर) को भी निष्पादन का विरोध करने वाले पक्ष की भूमि में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। यह खंड उन लोगों को छूट देता है जो अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) से प्रतिरोध (रेसिस्ट) की पेशकश करते हैं। एक सार्वजनिक कर्मचारी, अपने से ऊंचे पद के अधिकारी के तहत एक गैरकानूनी निर्देश का पालन करते हुए धारा 353 की वकालत नहीं कर सकता, भले ही वह इसकी अवैधता से अनजान ही क्यों न हो।

आई.पी.सी. की धारा 353 की अनिवार्यताएं

इस धारा का उपयोग करने के लिए, निम्नलिखित अनिवार्यताओं को पूरा करना होगा: –

  1. एक लोक सेवक पर हमला किया जाना चाहिए या उसे आपराधिक बल के अधीन किया जाना चाहिए; तथा
  2. इसका प्रयोग एक लोक सेवक पर किया जाना चाहिए-
  • जब वह अपनी जिम्मेदारियों को निभा रहा था, या
  • उसे अपने कर्तव्यों को करने से रोकने या हतोत्साहित करने के लक्ष्य के साथ, या
  • अपने कर्तव्यों को करने के दौरान उसने जो कुछ भी किया है उसके परिणामस्वरूप।

आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत सजा

यह एक गैर-संज्ञेय, जमानती और गैर-शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल) अपराध है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा इसका विचारण किया जा सकता है। इस प्रावधान के तहत दोषी पाए जाने वाले आरोपी को दो साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।

आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत विचारण की प्रक्रिया

यदि धारा 353 के तहत अपराध किया जाता है, तो मुकदमा उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे आई.पी.सी. में निर्दिष्ट किसी अन्य अपराध पर किया जाता है। धारा 353 के तहत किसी अपराध की सुनवाई के लिए प्रक्रिया के विभिन्न चरण हैं, जो धारा 353 के तहत प्राथमिकी दर्ज करने से शुरू होकर अदालत के फैसले के साथ समाप्त होता है। आइए एक नजर डालते हैं कि नीचे दिए गए चरणों का पालन करके इस धारा के तहत लाए गए मामले को अदालत में कैसे संभाला जाता है।

प्राथमिकी दर्ज करना

पुलिस द्वारा आरोपी के पकड़े जाने के बाद प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए और गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।

पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट

आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1974 की धारा 173 के तहत, पुलिस को अपराध की जांच (सी.आर.पी.सी.) पूरी करने के बाद अदालत में अंतिम रिपोर्ट दाखिल करनी होती है। यह रिपोर्ट जांच एजेंसी की जांच को अंतिम रूप से प्रस्तुत करने का काम करती है। यदि कोई मामला आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत लाया जाता है, तो अंतिम रिपोर्ट में पुलिस द्वारा मौके पर हासिल किए गए सभी मौजूद सबूत शामिल होंगे, जो यह निर्धारित करने में अदालत की सहायता करते हैं की तत्वों को पूरा किया गया है या नहीं।

चार्जशीट में मामले के तथ्यों के साथ-साथ पुलिस जांच की सभी विशिष्ट शामिल होती हैं। पूछताछ के दौरान आरोपी द्वारा की गई कोई भी टिप्पणी इसमें शामिल होती है और प्राथमिकी की एक प्रति चार्जशीट के साथ जोड़ी जाती है। चार्जशीट दाखिल होने पर मजिस्ट्रेट सी.आर.पी.सी. की धारा 190 के तहत मामले का संज्ञान लेते हैं। अदालत के पास चार्ज शीट को खारिज करने और आरोपी को आरोपमुक्त करने या उसके अपराध को स्वीकार करने और मामले को सुनवाई के लिए निर्धारित करने के लिए आरोप तय करने का विकल्प है।

अभियोजन पक्ष द्वारा की जाने वाली कार्रवाई

अभियोजन पक्ष यह घोषणा करेगा कि चार्ज शीट में आरोपी के खिलाफ आरोपों में मौखिक दुर्व्यवहार और जानबूझकर अपमान शामिल है जैसा कि आई.पी.सी. की धारा 353 द्वारा परिभाषित किया गया है। अभियोजक को संबंधित नियम के तहत आरोपी को दोषी साबित करने के लिए आरोपी के खिलाफ प्राप्त साक्ष्य और गवाहों से दर्ज की गई गवाही के साथ अपने बयान को मजबूत करना आवश्यक है। हालांकि, सी.आर.पी.सी. की धारा 227 के तहत, धारा 353 के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को यह साबित करने का अधिकार है कि मुकदमे को जारी रखने के लिए उसके खिलाफ लगाए गए आरोप झूठे और/ या बेहद अशक्त (वीक) हैं।

अंतिम तर्क

सी.आर.पी.सी. की धारा 314 के अनुसार, कार्यवाही में कोई भी पक्ष अपने सबूत को पेश करने के बाद संक्षिप्त मौखिक तर्क दे सकता है, और फिर मौखिक तर्क समाप्त करने से पहले, वह अदालत को एक ज्ञापन (मेमोरेंडम) प्रस्तुत कर सकता है जिसमें उसके समर्थन में तर्कों की घोषणा स्पष्ट रूप से और अलग-अलग शीर्षकों के तहत की जा सकती है, और ऐसा प्रत्येक ज्ञापन रिकॉर्ड का हिस्सा होगा। विरोधी पक्ष को इसकी एक प्रति तुरंत दी जानी चाहिए।

निर्णय

दोनों पक्षों के तर्कों पर विचार करने के बाद, न्यायाधीश मामले पर निर्णय करते है और दोषसिद्धि (कनविक्शन) या दोषमुक्ति (एक्विटल) का निर्णय जारी करते है, जैसा भी मामला हो।

मामले

दुर्गाचरण नाइक और अन्य बनाम उड़ीसा राज्य, (1966)

इस मामले में, शिकायतकर्ता को राहत देते हुए आरोपी के खिलाफ डिक्री सुनाई गई थी। उन्होंने उस आदेश के निष्पादन में चल संपत्ति की कुर्की (अटैचमेंट) का अधिग्रहण (एक्वायर) किया, यदि 952.10 रुपये की डेक्रेटल राशि का भुगतान नहीं किया गया तो। जब अदालत का चपरासी, कुर्की वारंट लेकर पहुंचे और कुछ चल संपत्ति को जब्त करने जा रहे थे, तो आरोपी ने लाठियों से उनका विरोध किया।

इसके बाद, शिकायतकर्ताओं ने पुलिस सुरक्षा की मांग की और उसी दिन आरोपी के घर चले गए। आरोपी वहां नहीं था। आरोपी के पिता, जो निर्णय का एक हिस्सा भी थे, ने 952.10 रुपये का भुगतान किया। जब शिकायतकर्ता का पूरा समूह वापस आया तो आरोपी दस-बारह लोगों के साथ पहुंचा और कहा कि पैसा उसे दे दिया जाए। कुछ अन्य लोगों के बीच-बचाव करने पर, आरोपी मौके से फरार हो गया। आरोपी को आई.पी.सी.की धारा 353 के तहत दोषी पाया गया, लेकिन सी.आर.पी.सी. की धारा 195, के तहत लिखित शिकायत की कमी के कारण आई.पी.सी. की धारा 186  के तहत बरी कर दिया गया। आरोपी की ओर से तर्क दिया गया था की धारा 353 के तहत आरोप, आई.पी.सी. की धारा 186 के तहत आरोप के समान तथ्यों पर स्थापित किया गया था। 

चूंकि धारा 186 के तहत अपराध का कोई संज्ञान सी.आर.पी.सी. की धारा 195 में निर्धारित प्रक्रिया को पूरा किए बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है, समान परिस्थितियों के आधार पर आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत एक सजा, सी.आर.पी.सी. की धारा 195 के प्रतिबंधों को दूर करने का प्रयास होगा। इस तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। यह निर्णय लिया गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 186 और 353 के तहत अपराध दो अलग-अलग अपराध हैं। धारा 353 एक अपराध है, जबकि धारा 186 नहीं है। ऐसे मामले में जब आरोपी किसी लोक सेवक को उसकी आधिकारिक जिम्मेदारियों के प्रयोग में जानबूझ कर बाधा डालता है, तो धारा 186 लागू होती है। हालांकि, जब सरकारी अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है, तो हमले या आपराधिक बल के उपयोग का तत्व आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि दोनों अपराध काफी अलग थे। नतीजतन, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 195 एक आरोपी को उसी परिस्थितियों के आधार पर एक अलग अपराध के लिए मुकदमा चलाने से नहीं बल्कि उस प्रावधान के दायरे से बाहर करती है। नतीजतन, आरोपी को आई.पी.सी. की धारा 353 के तहत दोषी पाया गया था।

पी. रामा राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (1983)

इस मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार, धारा 353 का मूल एक सार्वजनिक अधिकारी के खिलाफ हमला है, ताकि उसके कार्य में बाधा डाली जा सके। इस मामले में एक सब-इंस्पेक्टर ने आरोपी को सड़क किनारे रोक लेने का अनुरोध किया। मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर वह कार को रोकने के लिए भागा और वह कार मोटरसाइकिल के मडगार्ड से टकरा गई, जिस पर सब-इंस्पेक्टर पीछे बैठा था। अदालत ने निर्धारित किया कि मामले के तथ्य आई.पी.सी. की धारा 353 के आवेदन को उचित नहीं ठहराते है। जब सरकारी कर्मचारी अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन कर रहा हो, तब हमला होना आवश्यक नहीं है। भले ही वह एक सार्वजनिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के दौरान जो कुछ भी करता है, और उसके “परिणाम में” घायल हुआ हो, तो धारा 353 लागू हो सकती है।

निष्कर्ष 

हमले को इस डर के रूप में परिभाषित किया गया है कि दूसरा व्यक्ति घायल हो सकता है। यह आपराधिक बल का उपयोग करके दूसरे व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रतिबद्ध है। इससे सरकारी अधिकारियों समेत लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। नतीजतन, यह अपरिहार्य (अनअवॉयडेबल) था कि हमले और आपराधिक बल से संबंधित कड़े नियमों को अधिनियमित किया जाए और पर्याप्त रूप से क्रियान्वित (इंप्लीमेंट) किया जाए, ताकि कोई भी व्यक्ति जो आधिकारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए आपराधिक बल का सामना करता है, उसे कानून द्वारा संरक्षित किया जाए। भारतीय दंड संहिता के अनुसार, जो कोई भी किसी अन्य व्यक्ति पर आपराधिक बल से हमला करता है, उसे दंडित किया जा सकता है या जुर्माना या दोनों हो सकता है।

संदर्भ

  • PSA Pillai’s Criminal Law 14th Ed.
  • KD Gaur’s textbook on Indian Penal Code 6th Ed.

 

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