प्रोबेशन और पैरोल का तुलनात्मक अध्ययन

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Criminal Procedure Code
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यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज की छात्रा Adhila Muhammed Arif ने लिखा है। यह लेख भारतीय कानूनी प्रणाली में प्रोबेशन और पैरोल के प्रावधानों की तुलना करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है। 

परिचय 

आपराधिक कार्यों में लगे लोगों के लिए सजा देना आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण कार्य है। अपराधियों को क्यों और कैसे दंडित किया जाता है, इसके बारे में विभिन्न सिद्धांत हैं। सजा के मुख्य सिद्धांत प्रतिशोधी (रेट्रीब्यूटिव) सिद्धांत, निरोधक (प्रीवेंटिव) सिद्धांत, निवारक (डिटरेंट) सिद्धांत और सुधारात्मक (रिफॉर्मेटिव) सिद्धांत हैं। कारावास, सजा का सबसे लोकप्रिय रूप है और इसे निरोधक और निवारक दोनों कहा जाता है। हालांकि, हम सजा के प्रति समाज के दृष्टिकोण (एप्रोच) में बदलाव देख रहे हैं। अब, कई विद्वानों का मत है कि दंड का एक सुधारात्मक मॉडल आवश्यक है, क्योंकि हमारा प्राथमिक उद्देश्य अपराधियों का सुधार और पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) होना चाहिए। कई शिक्षाविदों और न्यायविदों की राय है कि शारीरिक दंड और कारावास छोटे अपराधियों, विशेष रूप से पहली बार अपराध कर रहे अपराधियों के दिमाग को कठोर कर देते हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि कुछ मामलों में, अपराधियों को खुद को छुड़ाने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। पैरोल और प्रोबेशन दोनों को भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार और पुनर्वास के तरीकों के रूप में मान्यता प्राप्त है। 

प्रोबेशन का अर्थ

प्रोबेशन यानी ‘प्रोबेशन’ शब्द लैटिन शब्द ‘प्रोबरे’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘परीक्षा करना’ या कुछ साबित करना’। यह सुधार का एक वैकल्पिक तरीका है जो हिरासत में रखने के बिना है। यदि यह स्थापित हो जाता है कि कैद अपराधी के लिए उपयुक्त नहीं है, तो अपराधी को जेल जाने के बजाय प्रोबेशन अधिकारियों की देखरेख में उसके समुदाय में छोड़ा जा सकता है। 

भारत में, भारतीय कानूनी प्रणाली में प्रोबेशन से संबंधित प्रावधान मुख्य रूप से दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और अपराधियों के प्रोबेशन अधिनियम (प्रोबेशन ऑफ़ ऑफेंडर्स एक्ट), 1958 के तहत प्रदान किए जाते हैं । प्रारंभ में, सी.आर.पी.सी., 1898 की धारा 562 में प्रोबेशन का प्रावधान दिया गया था। कई संशोधनों के बाद, वर्तमान में धारा 360 द्वारा इसका प्रावधान प्रदान किया गया है । 1973 में संशोधित सी.आर.पी.सी. के लागू होने से पहले भारत की संसद ने 1958 में अपराधियों की प्रोबेशन अधिनियम को अधिनियमित किया था, जिसमें सी.आर.पी.सी. द्वारा कवर नहीं किए गए कुछ प्रावधान शामिल थे। 

दंड प्रक्रिया संहिता

सी.आर.पी.सी. में, प्रोबेशन से संबंधित प्रावधान धारा 360 और 361 में प्रदान किए गए हैं । धारा 360(10) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धारा 360 और 361 के प्रावधान अपराधी प्रोबेशन अधिनियम या बाल अधिनियम, 1960 या ऐसे किसी भी कानून के प्रावधानों की वैधता को प्रभावित नहीं करते हैं। 

अच्छे आचरण के लिए प्रोबेशन पर रिहाई

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360(1) प्रोबेशन से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, यदि 

  1. कोई भी व्यक्ति जो 21 वर्ष से कम उम्र का नहीं है और किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है जिसके लिए सजा या तो सात साल की कैद या जुर्माना है, 
  2. या 21 वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति या कोई महिला, किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराए गए हैं जो आजीवन कारावास या मृत्युदंड से दंडनीय नहीं है और अपराधी को अतीत में दोषी नहीं ठहराया गया है, 
  3. और अदालत के सामने पेश होते है, तो अदालत अच्छे व्यवहार या अच्छे आचरण के वादे पर, तुरंत कोई दंडादेश देने के बजाय निदेश दे सकता है कि उसे प्रतिभुओं (सिक्योरिटीज) सहित या उसके बिना, उसके द्वारा एक बॉन्ड लिख देने पर छोड़ दिया जाएगा, कि वह एक निश्चित अवधि के दौरान, जितनी अदालत निदिष्ट करे, उसे बुलाए जाने पर हाजिर होगा। 

फूल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1979) के मामले में, न्यायालय ने कहा कि अच्छे आचरण के आधार पर प्रोबेशन किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं दी जा सकती, जिसने बलात्कार जैसा जघन्य (हीनियस) अपराध किया हो। 

सम्यक् भर्त्सना (एडमोनिशन) के बाद रिहा करना

धारा 360(3) के अनुसार, निम्नलिखित शर्तों के पूरा होने पर अपराधी को रिहा किया जा सकता है: 

  1. अपराधी को पहले कभी दोषी नहीं ठहराया गया है। 
  2. जिस अपराध के लिए उसे दोषी ठहराया गया है वह चोरी, किसी भवन में चोरी या बेईमानी से हेराफेरी या आई.पी.सी. के तहत कोई भी अपराध है, जो दो साल से अधिक के कारावास या केवल जुर्माने से दंडनीय है। 

अहमद बनाम राजस्थान राज्य (2000) के मामले में, अदालत ने कहा कि यह प्रावधान उस व्यक्ति पर लागू नहीं हो सकता जिसने सांप्रदायिक (कम्युनिटी) तनाव लाने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया हो। 

प्रोबेशन न देने के विशेष कारण

धारा 361 के अनुसार, यदि न्यायालय प्रोबेशन प्रदान नहीं करता है, तो अपराधी को प्रोबेशन प्रदान नहीं करने का कारण निर्णय में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए, चाहे वह सी.आर.पी.सी., अपराधियों की प्रोबेशन अधिनियम, बाल अधिनियम या ऐसा कोई भी कानून हो। 

अपराधियों की प्रोबेशन अधिनियम, 1958 

इस अधिनियम में, सम्यक् भर्त्सना पर रिहाई का प्रावधान धारा 3 द्वारा प्रदान किया गया है और अच्छे आचरण पर प्रोबेशन का प्रावधान धारा 4 द्वारा प्रदान किया गया है, और शर्तें वही हैं जो सी.आर.पी.सी. की धारा 360 में प्रदान की गई हैं। 

अधिनियम की धारा 5, अदालत को अनुमति देती है, यदि यह उपयुक्त पाया जाता है, तो वह अपराधी को पीड़ित को हुए नुकसान या हानि या कानूनी कार्यवाही की लागत के लिए मुआवजे का भुगतान करने का निर्देश दे सकता है। 

अधिनियम की धारा 6, 21 वर्ष से कम आयु के अपराधियों से संबंधित है। इस धारा में निम्नलिखित कहा गया है: 

  • अदालत को पहले यह देखना होगा कि 21 साल से कम उम्र के अपराधी के लिए अधिनियम की धारा 3 या धारा 4 लागू होगी या नहीं। इसके लिए अदालत को प्रोबेशन अधिकारी की रिपोर्ट मांगनी होगी, जो अनिवार्य है।  
  • रिपोर्ट मिलने पर, अदालत तय कर सकती है कि प्रावधान लागू होंगे या नहीं। 
  • यदि अदालत प्रोबेशन प्रदान नहीं करती है, तो उसे ऐसा नहीं करने के कारणों को स्पष्ट रूप से बताना होगा।

अधिनियम की धारा 7 में कहा गया है कि प्रोबेशन अधिकारी की रिपोर्ट गोपनीय होती है। ऐसी रिपोर्ट केवल 21 वर्ष से कम आयु के अपराधियों से निपटने के दौरान अनिवार्य है। 

सामंजस्यपूर्ण अर्थान्वयन (हार्मोनीयस कंस्ट्रक्शन) का सिद्धांत

भले ही नई सी.आर.पी.सी. को अपराधियों के प्रोबेशन अधिनियम के बाद अधिनियमित किया गया था, यह अधिनियम की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) को प्रभावित नहीं करता है, खासकर जब धारा 360(10) अधिनियम की वैधता को स्पष्ट रूप से मान्यता देती है। इसलिए, हम कह सकते हैं कि अपराधी सी.आर.पी.सी. और अपराधियों की प्रोबेशन अधिनियम दोनों के लाभों के हकदार हैं। सामंजस्यपूर्ण अर्थान्वयन के सिद्धांत के अनुसार, विधायिका खुद को अनुबंधित करने का इरादा नहीं रखेगी। इस प्रकार, नई संहिता का अधिनियमन, उपरोक्त अधिनियम की प्रयोज्यता को नष्ट नहीं करेगा। 

गुण और दोष (मेरिट्स एंड डीमेरिट्स)

प्रोबेशन की विधि द्वारा प्रस्तुत गुण निम्नलिखित हैं: 

  1. यह पहली बार अपराध कर रहे अपराधियों को जेल में रह रहे अपराधियों से प्रभावित होने से रोकने में मदद करता है। 
  2. यह किशोर अपराधियों की सुरक्षा और पुनर्वास करता है। 
  3. यह जेलों को अधिक भीड़भाड़ से बचाने में मदद करता है। 
  4. यह अपराधी को समाज में सामान्य रूप से कार्य करने का दूसरा मौका प्रदान करता है।  

प्रोबेशन प्रणाली के दोष निम्नलिखित हैं: 

  1. यह अपराधियों को कानूनी परिणामों से खुद को मुक्त करने की अनुमति देता है। 
  2. यह अपराध करने का इरादे रखने वाले लोगों को एक बुरा संदेश भेजता है कि वे मुक्त होकर बाहर निकल सकते हैं।  

पैरोल का अर्थ

पैरोल शब्द, फ्रांसीसी वाक्यांश ” जे डोने मा पैरोल” से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ “मैं अपना शब्द देता हूं” है। प्रोबेशन की तरह, पैरोल का उद्देश्य कैदी को खुद को छुड़ाने की अनुमति देना है। लेकिन पैरोल रिहाई का एक रूप है जो केवल उन अपराधियों के लिए लागू होता है जो अपनी जेल की सजा काट रहे हैं।

भारत में, पैरोल से संबंधित नियम जेल अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 द्वारा प्रदान किए जाते हैं । हालांकि, भारत में पैरोल का पूरी तरह से एक समान कानून नहीं है क्योंकि राज्य सरकारें पैरोल के लिए अपने स्वयं के कानून बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। पैरोल के दिशा-निर्देशों में एक राज्य से दूसरे राज्य में मामूली बदलाव होते हैं। 

पैरोल से इंकार करना

निम्नलिखित प्रकार के अपराधी हैं जिन्हें पैरोल नहीं दी जा सकती: 

  • जो भारत के नागरिक नहीं हैं। 
  • जिन्हे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाले अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया है। 
  • जिन्हे राज्य के खिलाफ अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया है। 
  • जिन्होंने जेल में अनुशासनात्मक नियमों का उल्लंघन किया है। 

पैरोल के प्रकार

पैरोल मुख्यतः दो प्रकार की होती है, जो कस्टडी पैरोल और नियमित पैरोल हैं। 

कस्टडी पैरोल 

कस्टडी पैरोल को आपातकालीन पैरोल भी कहा जाता है। यह 14 दिनों के लिए परिवार के करीबी सदस्यों जैसे दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों, जीवनसाथी आदि की मृत्यु, परिवार के किसी सदस्य की शादी जैसे भाई-बहन या बेटे या बेटी आदि की शादी के लिए दी जाती है। 

नियमित पैरोल

नियमित पैरोल अधिकतम एक महीने की अवधि के लिए दी जाती है, आमतौर पर उन अपराधियों के लिए जिन्होंने अपनी सजा के कम से कम एक वर्ष को पूरा कर लिया है। यह निम्नलिखित कारणों के लिए दी जाती है: 

  • परिवार के कोई सदस्य के गंभीर रूप से बीमार होने के कारण। 
  • परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु या दुर्घटना। 
  • जब दोषी की पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया हो। 
  • पारिवारिक संबंध बनाए रखने के लिए।
  • जब किसी प्राकृतिक आपदा से उनके परिवार को जान-माल की गंभीर क्षति हुई हो। 
  • विशेष अनुमति याचिका दायर करने के लिए। 

प्रक्रिया 

पैरोल के लिए याचिका दायर करने पर, आमतौर पर जेल अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) उस थाने से रिपोर्ट का अनुरोध करता है जिसने दोषी को गिरफ्तार किया था। रिपोर्ट, पैरोल के अनुरोध और अधीक्षक की सिफारिश के औचित्य (जस्टिफिकेशन) के लिए आवश्यक सभी जरूरी दस्तावेजों के साथ, उप सचिव (डेप्युटी सेक्रेटरी), गृह (सामान्य), राज्य सरकार के समक्ष प्रस्तुत की जाती है, और वह तय करता है कि दोषी को पैरोल दी जानी चाहिए या नहीं। 

कुछ राज्यों में, उपर्युक्त दस्तावेज जेल के महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जेनरल) को भेजे जाते हैं और फिर वह उन्हें जिला मजिस्ट्रेट के पास भेजते हैं। जिला मजिस्ट्रेट, राज्य सरकार के परामर्श पर, यह तय करता है कि पैरोल दी जानी है या नहीं। 

गुण और दोष

जैसा कि बुद्धि बनाम राजस्थान राज्य (2005) और चरणजीत लाल बनाम राज्य (1985) के मामलों में स्थापित किया गया था, पैरोल के प्रावधान के कुछ उद्देश्य हैं। निर्णयों के अनुसार पैरोल के प्रावधान के गुण या उद्देश्य निम्नलिखित हैं: 

  1. यह कैदियों को उनके परिवार और समुदाय के संपर्क में रहने में सक्षम बनाता है। 
  2. यह उन्हें अपने परिवार से संबंधित महत्वपूर्ण मामलों में शामिल होने में मदद करता है, और उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को भी हल करता है। 
  3. यह उन्हें जेल में रहने के दुष्परिणामों से थोड़े समय के लिए राहत देता है। 
  4. यह कैदी के पुनर्वास और सुधार के उद्देश्य को प्राप्त करता है। 
  5. यह कैदियों को जेल में अच्छा आचरण बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करता है। 

पैरोल के प्रावधान के दोष निम्नलिखित हैं: 

  1. कारावास के दौरान अच्छा आचरण होना, रिहाई के बाद अच्छे आचरण होने की गारंटी नहीं देता है। 
  2. राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना बहुत अधिक है। राजनीतिक संबंध रखने वाले विशेषाधिकार (प्रिविलेज) प्राप्त कैदियों को पैरोल प्राप्त करना आसान होता है।  

प्रोबेशन और पैरोल के बीच का अंतर

  1. अपराधियों को प्रोबेशन तब दी जाती है, जब उन्हे कैद किए जाने के बजाय, कड़ी निगरानी के तहत उनके समुदाय में छोड़ दिया जाता है। लेकिन पैरोल कैदियों के लिए एक अस्थायी रिहाई है और इसमें कुछ शर्ते होती हैं जिनका पालन कैदी को उस अवधि के दौरान करना होता है। 
  2. भारत में, प्रोबेशन दंड प्रक्रिया संहिता और अपराधियों की प्रोबेशन अधिनियम द्वारा शासित होती है। लेकिन हम पैरोल के लिए नियमों और विनियमों (रेगुलेशन) का एक समान और ठोस सेट नहीं ढूंढ सकते हैं। हालांकि इसे जेल अधिनियम और कैदी अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त है, राज्य सरकारें अपने स्वयं के पैरोल दिशा-निर्देश जारी करने के लिए अधिकृत हैं, जिससे पूरे देश में पैरोल दिशानिर्देशों में भिन्नता होती है। 
  3. प्रोबेशन का मतलब अदालत द्वारा दोषियों को दिए गए फैसले से है। इस बीच, पैरोल कैदियों की अस्थायी रिहाई की व्यवस्था है। 
  4. प्रोबेशन कारावास के बजाय दी गई सजा का एक वैकल्पिक रूप है, लेकिन पैरोल कारावास के दौरान दी जाती है। पैरोल कारावास का विकल्प नहीं है। 
  5. प्रोबेशन अदालत द्वारा सुनाया जाता है। प्रोबेशन प्रकृति में न्यायिक है। भारत में पैरोल आमतौर पर राज्य के गृह मंत्रालय के उप सचिव या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा तय की जाती है। पैरोल ज्यादातर अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्युडिशल) प्रकृति की होती है। 
  6. कैदी को कारावास से गुजरने से पहले प्रोबेशन दी जाती है और कैदी को कारावास की न्यूनतम अवधि से गुजरने के बाद पैरोल दी जाती है। 
  7. उन अपराधियों को प्रोबेशन प्रदान नहीं की जाती है जो पहले कैद या दोषी ठहराए जा चुके हैं। कारावास से गुजर रहे किसी भी अपराधी को पैरोल दी जाती है। 
  8. जब एक अपराधी जो प्रोबेशन पर रिहा किया गया है, प्रोबेशन की किसी भी शर्त पर चूक करता है, तो उसे एक विशेष अवधि के लिए जेल में बंद कर दिया जाता है। लेकिन पैरोल की शर्तों का उल्लंघन करने वाले को मूल फैसले के आधार पर कारावास को फिर से शुरू करने के लिए जेल में वापस भेज दिया जाता है। 
  9. प्रोबेशन एक अपराधी की सुधार प्रणाली में पहला चरण है। लेकिन अपराधी को सजा की अवधि से गुजरने के बाद पैरोल अंतिम चरण होता है।
  10. प्रोबेशन के दौर से गुजर रहे व्यक्ति के लिए कम कलंक है क्योंकि उसे जेल की सजा नहीं दी जाती हुई है। लेकिन जब कोई कैदी पैरोल पर छूटता है तो उसे समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। 

निष्कर्ष

संक्षेप में, पैरोल और प्रोबेशन दोनों भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में पुनर्वास और सुधार के कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त तरीके हैं, हालांकि इन्हें ‘अधिकार’ के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। यह दोषियों पर कारावास के दुष्प्रभाव को कम करने में मदद करता है और अन्य दोषियों के मन में कठोर अपराधियों के नकारात्मक प्रभाव को कम करता है। हालांकि, यह दुर्भावनापूर्ण इरादों वाले कई लोगों पर यह धारणा बना सकता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली उदार (लीनिएंट) है और उन्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा। 

संदर्भ

 

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