आई.पी.सी. की धारा 188

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Indian Penal Code

यह लेख मुंबई विश्वविद्यालय के रिजवी लॉ कॉलेज से विधि स्नातक Vandana Kumari द्वारा लिखा गया है। इस लेख में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 188 का एक संक्षिप्त अवलोकन शामिल है, और इसमें इसके तहत दी जाने वाली सजा और संबंधित मामलो पर भी चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

कुख्यात कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, आपने लॉकडाउन दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने के लिए लोगों को गिरफ्तार करने या जुर्माना लगाने के कई मामले सुने होंगे। जब से 25 मार्च, 2020 को देशव्यापी लॉकडाउन लागू हुआ है, तब से महाराष्ट्र राज्य में कोविड-19 दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए 1.04 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिसके कारण 19,838 गिरफ्तारियां हुईं और लगभग रु 3.97 करोड़ के जुर्माना का संग्रह हुआ है। यह मई 2020 तक का डेटा था। यदि लॉकडाउन के केवल दो महीनों में एक राज्य की यह कहानी थी, तो हम कल्पना कर सकते हैं कि महामारी के दौरान पूरे देश के लिए यह आंकड़ा क्या रहा होगा। इस विषय पर लौटते हुए, यहाँ प्रश्न यह है कि ये गिरफ्तारियाँ किस कानून के तहत की गईं थी? उस कानून के तहत निर्धारित सजा क्या है? यह लेख सीधे तौर पर इस प्रश्न पर चर्चा करेगा। 

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 188, संहिता के अध्याय X में अपना स्थान पाती है, जो लोक सेवकों के वैध प्राधिकरण (लॉफुल अथॉरिटी) की अवमानना ​​​​से संबंधित अपराधों पर है। लोक सेवकों को समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार सौंपा गया है। इस प्रकार, भूमि के कानून के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि वे अपने अधिकार को दृढ़ रहने के लिए आवश्यक सुदृढीकरण (रीइनफोर्समेंट) प्रदान करें। संहिता की धारा 188 इस उद्देश्य की पूर्ति करती है। यह जनहित में एक लोक सेवक द्वारा विधिवत रूप से उद्घोषित (प्रोमुलगेट) किए गए आदेश की अवज्ञा प्रदर्शित करने के लिए दंड का प्रावधान करता है। यहां आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत दिए गए आदेशों के कुछ उदाहरण दिए गए हैं:

  • पाँच या अधिक व्यक्तियों की सभा को तितर-बितर करने का आदेश देने वाला आदेश;
  • एक धार्मिक जुलूस को एक निश्चित सड़क से न गुजरने का निर्देश देने वाला आदेश; या
  • विवादित संपत्ति की यथास्थिति (स्टेट्स क्वो) बनाए रखने का आदेश

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत किस अपराध को परिभाषित किया गया है 

आई.पी.सी. की धारा 188 किसी ऐसे आदेश, जिसे कानून द्वारा सशक्त लोक सेवक द्वारा विधिवत रूप से उद्घोषित किया गया है, की जानबूझकर अवज्ञा को आपराध बनाती है। इस तरह का आदेश या तो किसी व्यक्ति या किसी समूह को किसी निश्चित कार्य से दूर रहने या उसके कब्जे में या उसके प्रबंधन (मैनेजमेंट) के तहत कुछ संपत्ति के साथ कुछ कार्य करने का निर्देश दे सकता है। उदाहरण के लिए, समन की तामील से बचना, किसी आदेश के जवाब में गैर-हाजिरी या गैर-उपस्थिति, सार्वजनिक व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए किए गए आदेशों का पालन न करना आदि। 

इस धारा के अनुसार एक्टस रीयस या गलत कार्य करना आदेश की अवज्ञा है। हालाँकि, मात्र अवज्ञा अपने आप में एक अपराध नहीं होती है। इस तरह की अवज्ञा को दंडनीय होने के लिए, किसी भी कानूनी रूप से नियोजित व्यक्ति के लिए बाधा, झुंझलाहट, या चोट, या बाधा या झुंझलाहट का जोखिम पैदा करने वाली या होने की क्षमता होनी चाहिए। यह भी दंडनीय होगा यदि इस तरह की अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य, या सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है या दंगे का कारण बनती है या उसमे ऐसा करने की प्रवृत्ति होती है।

इसके अलावा, इस अपराध के लिए मेंस रीआ का गठन करने के लिए, आदेश का मात्र ज्ञान ही पर्याप्त है। कोई भी व्यक्ति जो आदेश के उद्घोषणा के बारे में नहीं जानता है, उसकी अवज्ञा के लिए दंडित नहीं किया जा सकता है। धारा से जुड़ा स्पष्टीकरण भी उसी का वर्णन करता है। यह स्पष्ट करता है कि अपराधी को नुकसान पहुंचाने का इरादा नहीं होना चाहिए या उसकी अवज्ञा के द्वारा यह नहीं दिखना चाहिए की नुकसान होने की संभावना नहीं है। यह पर्याप्त है कि वह उस आदेश के बारे में जानता है जिसकी वह अवज्ञा करता है और यह कि उसके कार्य से नुकसान होगा, या नुकसान उत्पन्न होने की संभावना है। 

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत अपराध की प्रकृति

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की पहली अनुसूची के अनुसार, धारा 188 के तहत अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल), जमानती हैं, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमा चलाया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि धारा 188 के तहत आरोप में गिरफ्तारी की आवश्यकता होगी और इस धारा के तहत आरोपित व्यक्ति जमानत पर रिहा किया जा सकता है।

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत अपराध की अनिवार्यता

इस धारा का गहन अध्ययन इस अपराध की निम्नलिखित अनिवार्यताओं की ओर ले जाता है

एक लोक सेवक द्वारा उद्घघोषित एक आदेश होना चाहिए 

अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) ‘उद्घोषणा’ को संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, और यह उद्घोषणा के लिए किसी विशेष तरीके को निर्धारित नहीं करता है। हालाँकि, शाब्दिक अर्थ “सार्वजनिक घोषणा द्वारा ज्ञात करना, प्रकाशित करना या घोषित करना” है। यह कई निर्णयों में व्यापक चर्चा का विषय रहा है, जैसे की राज्य बनाम एस.एम. तुगला, (1955), कोथाकोटा पपैय्या और अन्य बनाम राज्य, (1975), भागीरथी श्रीचंदन और अन्य बनाम दामोदर @ दामा बराल और अन्य, (1986) आदि। इन सभी निर्णयों में यह देखा गया कि एक आदेश के उद्घोषणा का मतलब उस आदेश का सार्वजनिक रूप से और खुले तौर पर प्रकाशन करना है। यह ढोल पीटकर, राजपत्र (गैजेट) में अधिसूचना (नोटिफिकेशन) द्वारा, या सार्वजनिक रूप से आदेश को खुले तौर पर पढ़कर किया जा सकता है। खुली अदालत में एक आदेश की घोषणा कार्यवाही में संबंधित पक्षों के लिए एक वैध और पर्याप्त उद्घोषणा होती है। इसी तरह, बंबई उच्च न्यायालय ने एंपरर बनाम रघुनाथ विनायक (1925) में एक ऐसे मामले से निपटा जिसमें पुलिस के एक उप-निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर) ने मौखिक रूप से एक मस्जिद के सामने संगीत बंद करने का आदेश दिया और उसकी अवज्ञा की गई। अभियुक्त को जब गिरफ्तार किया गया तो उसने तर्क दिया कि उद्घोषित होने से पहले आदेश एक लिखित या मुद्रित रूप में होना चाहिए। उनके विवाद को खारिज कर दिया गया था, और यह माना गया था कि शब्द “उद्घोषणा” इंगित करता है कि प्रकाशन का कोई रूप होना चाहिए। लेकिन, यह जरूरी नहीं है कि प्रकाशन अखबारों, पोस्टरों या लीफलेट के जरिए ही हो। जब किसी आदेश को खुले न्यायालय में सुनाया जाता है, तो उसे सार्वजनिक कर दिया जाता है और उसे प्रकाशित करने के लिए और कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती है।

एक सभा के मामले में, सीआरपीसी की धारा 144 के तहत एक निषेध आदेश के बारे में सभा को सूचित किया जाना चाहिए। सभा के अनुपालन में विफल होने के बाद ही इसे गैरकानूनी कहा जा सकता है। चूंकि यह दिखाने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं था कि उन्हें आदेश के बारे में  सूचित किया गया था, आरोपी को धारा 188 के साथ पठित आई.पी.सी. की धारा 34 के तहत सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था। यह हाल ही में राज्य बनाम राजेंद्र पाल गौतम और अन्य (2022) में दिल्ली जिला न्यायालय द्वारा देखा गया था, जिसे आम आदमी पार्टी के ईंधन मूल्य-वृद्धि (फ्यूल प्राइस हाइक) विरोध मामले के रूप में जाना जाता है।

लोक सेवक को इस तरह के आदेश को उद्घोषित करने के लिए कानूनी रूप से सशक्त होना चाहिए

आम तौर पर, आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत जिन आदेशों की बात की गई है, वे लोक सेवकों द्वारा सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए दिए जाते हैं। इस शक्ति का स्रोत मुख्य रूप से सीआरपीसी की  धारा 144 और धारा 145 से प्राप्त होता है।

इस तरह के एक आदेश में अभियुक्त को एक निश्चित कार्य से दूर रहने या अपने कब्जे या प्रबंधन में कुछ संपत्ति से संबंधित आदेश लेने का निर्देश दिया जाता है

धारा 188 के तहत आदेश सार्वजनिक शांति, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा या सुविधा बनाए रखने के लिए दिए जाते हैं। इसे या तो बड़े पैमाने पर जनता पर या किसी ऐसे व्यक्ति पर निर्देशित किया जा सकता है जो कानून और व्यवस्था के लिए खतरा पैदा करता है।

अभियुक्त को आदेश की जानकारी थी

अभियुक्त को आदेश की जानकारी थी या नहीं, यह तथ्य का प्रश्न है। अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष का यह कर्तव्य है कि वह सकारात्मक सबूतों से यह साबित करे कि अभियुक्तों ने आदेश के अस्तित्व का ज्ञान होने के बावजूद उस की अवहेलना की है। आदेश की उद्घोषणा करने वाली एक सामान्य अधिसूचना का मात्र प्रमाण आई.पी.सी. की धारा 188 की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है। यह कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा राम दास सिंह और अन्य बनाम एंपरर (1926) के मामले में देखा गया था।

हाल ही में, प्रसाद कोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी यही देखा था। इस मामले में, एक बैंक (इस मामले में आवेदक), जो एक पुराने डिफॉल्टर (शिकायतकर्ता) से पैसे वसूलने का हकदार था, ने कानून के अनुपालन के साथ उसके वाहन को अपने कब्जे में ले लिया। शिकायतकर्ता ने आई.पी.सी. की धारा 188 व धारा 379 के तहत प्राथमिकी दर्ज करायी। उसका तर्क था कि बैंक ने संबंधित वाहनों के अधिग्रहण के संबंध में कलेक्टर द्वारा पारित आदेश का पालन नहीं किया। लेकिन वह यह सुझाव देने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी रखने में विफल रहे कि आदेश आवेदक को दिया गया था या वे आदेश की सामग्री से अवगत थे। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि धारा 188 के तहत आरोप लागू करने योग्य नहीं है। चोरी के संबंध में, चूंकि यह एक शमनीय (कंपाउंडेबल) अपराध है, पक्षकार मामले को निपटाने के लिए सहमत हुए, और कार्यवाही रद्द कर दी गई। 

उसने आदेश की अवहेलना की होगी 

हालांकि धारा 188 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए केवल अवज्ञा पर्याप्त नहीं है, लेकिन फिर भी यह कार्रवाई शुरू करता है। उदाहरण के लिए, हाथरस सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद उत्तर प्रदेश में सीआरपीसी की धारा 144 लागू कर दी गई थी। कांग्रेस नेताओं, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को यूपी पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, जब वे पीड़ित परिवार से मिलने जा रहे थे। पूछने पर पुलिस अधिकारियों ने उन्हें बताया कि उन्हें धारा 144 के तहत आदेशों की अवहेलना करने पर धारा 188 के तहत गिरफ्तार किया गया है।

उसकी अवज्ञा के कारण कानूनी रूप से नियोजित किसी भी व्यक्ति को बाधा, झुंझलाहट या चोट, या बाधा, झुंझलाहट या चोट लगने का खतरा होता है, या शब्द “कानूनी रूप से नियोजित” इस संबंध में बहुत महत्व रखते हैं, और इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अवज्ञा का कार्य ऐसा होना चाहिए कि यह “कानूनी रूप से नियोजित” व्यक्ति के लिए बाधा, झुंझलाहट या चोट का कारण बनता है या नुकसान पहुंचाता है, न कि किसी व्यक्ति के लिए, चाहे वह एक निजी पक्ष हो या आम जनता, जिसके पक्ष में या उसके लिए जिसकी सुरक्षा के लिए लोक सेवक द्वारा एक आदेश प्रख्यापित किया जाता है।

इसके अलावा, झुंझलाहट को एक तथ्य के रूप में सिद्ध करना होगा। संबंधित अधिकारियों की मात्र मानसिक झुंझलाहट इस धारा के तहत अपराध गठित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। 

इस तरह की अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा, या दंगे के लिए खतरा पैदा करती है या करने की प्रवृत्ति की होती है

अवज्ञा का एक मात्र कार्य इस धारा के तहत एक्टस रीअस नहीं है। यह दिखाया जाना चाहिए कि अवज्ञा के उपरोक्त परिणाम होते हैं या उनके होने की प्रवृत्ति होती है। इसे स्पष्ट करने के लिए, माउंट लछमी देवी और अन्य बनाम एंपरर (1930) के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय का एक निर्णय है। मामले के तथ्य यह थे कि छह महिलाओं के एक समूह को धारा 188 के तहत एक जुलूस निकालने के लिए पुलिस आयुक्त से पूर्व अनुमति के बिना भजन गीत गाते हुए सड़क पर घूमने के लिए मामला दर्ज किया गया था। उन्होंने यह तर्क लिया की वे किसी राजनीतिक अभिव्यक्ति या किसी हानिकारक चीज में शामिल नहीं थे, बल्कि केवल गीत गा रहे थे। यह सुझाव देने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं था कि गायन या उनकी गिरफ्तारी के कारण कोई दंगे हुए या होने की प्रवृत्ति थी। उन्हें इस सामान्य धारणा के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि क्षेत्र में प्रचलित स्थिति में किसी भी गिरफ्तारी से दंगे हो सकते हैं। इस प्रकार, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। 

इस बात का ज्ञान न होना कि अवज्ञा से हानि हो सकती है, यह कोई बचाव नहीं हो सकता

जीवनानंदम बनाम राज्य (2018) में मद्रास उच्च न्यायालय के द्वारा, दृष्टांत (इलस्ट्रेशन) के माध्यम से, समझाया गया है कि यदि एक ऐसे शहर में जहां कुत्तों को जंजीरों में बांधने के लिए कोई आदेश पारित नहीं किया गया था, A अपने कुत्ते को खुला छोड़ देता है, A किसी भी रीष्टि (मिस्चिफ) के लिए दंड का भागी नहीं होगा, जो जानवर द्वारा की गई है, जब तक कि यह दिखाया नहीं जा सकता कि A जानता था कि जानवर खतरनाक है। हालांकि, अगर यह साबित हो जाता है कि A को एक आदेश के बारे में पता था जो कुत्तों को सीमित करने के बारे में बात करता था और फिर भी उसने ऐसा नहीं किया, तो वह इसे बचाव के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकता है। इसके अलावा, भले ही उसके पास यह मानने का कारण हो कि उसका कुत्ता हानिरहित था, वह अदालत में बचाव के रूप में कार्य नहीं करेगा। इसलिए, अगर अदालत को लगता है कि A की अवज्ञा से नुकसान या जोखिम हुआ है, तो A सजा पाने के लिए उत्तरदायी होगा। दूसरी ओर, अगर अदालत का मानना ​​है कि कोई खतरा नहीं था और स्थानीय आदेश अनुचित था, तो A सजा के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

दृष्टांत 

एक लोक सेवक द्वारा एक आदेश उद्घोषित किया जाता है जो इस तरह के एक आदेश को उद्घोषित करने के लिए कानूनी रूप से सशक्त होता है, और यह आदेश निर्देश देता है कि एक धार्मिक जुलूस एक निश्चित सड़क से नहीं गुजरेगा। A जानबूझकर आदेश की अवहेलना करता है और इस प्रकार दंगे के खतरे का कारण बनता है। यह कहा जा सकता है कि A ने इस धारा में परिभाषित अपराध किया है।

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत क्या प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत अपराध संज्ञेय और जमानती है। इसका तात्पर्य यह है कि पुलिस के पास सीआरपीसी की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करने, मामले की जांच करने और संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत अंतिम रिपोर्ट दर्ज करने की शक्ति है।

आदर्श रूप से, ऐसी स्थितियों में, मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 190 के तहत किसी भी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है जब उसे ऐसे तथ्यों की शिकायत प्राप्त होती है जो इस तरह के अपराध का गठन करते हैं, या ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर, या आगे, पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर।

हालांकि, सीआरपीसी की धारा 195 आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत आने वाले मामलों के लिए एक अपवाद बनाती है। यह मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट का संज्ञान लेने से रोकता है। धारा 195(a)(i) अदालत को आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत दंडनीय किसी भी अपराध का संज्ञान लेने या ऐसा करने के लिए उकसाने या प्रयास करने से रोकती है, जब तक कि संबंधित लोक सेवक द्वारा उसके वैध आदेश की अवमानना ​​​​के लिए लिखित शिकायत नहीं की जाती है।

सी. मुनियप्पन व अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (2010) के प्रमुख मामले में धारा 195 के पीछे विधायी मंशा पर चर्चा की गई थी। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान किसी व्यक्ति को द्वेष, दुर्भावना या स्वभाव की तुच्छता से प्रेरित व्यक्तियों द्वारा अपर्याप्त आधार पर स्थापित किसी भी आपराधिक मुकदमे का सामना करने से बचाने के लिए बनाया गया था। इसके अलावा, यह आपराधिक अदालतों के समय को अंतहीन मुकदमे द्वारा बर्बाद होने से बचाने के लिए भी था।

धारा 195 के तहत प्रतिबंध की प्रकृति को सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम राज सिंह और अन्य  (1998) के ऐतिहासिक मामले में स्पष्ट किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 195 का एक सादा पठन यह स्पष्ट करता है कि प्रतिबंध, संज्ञान लेने के चरण में संचालन में आता है, और एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली प्राथमिकी की जांच करने के लिए पुलिस की वैधानिक शक्ति से इसका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे शब्दों में, संहिता के तहत जांच करने की पुलिस की वैधानिक शक्ति सीआरपीसी की धारा 195 द्वारा किसी भी तरह से नियंत्रित या सीमित नहीं है।

आई.पी.सी. की धारा 188 का उल्लंघन करने पर प्राथमिकी कैसे दर्ज की जाती है

जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, यह तय है कि सीआरपीसी की धारा 195 का प्रतिबंध मजिस्ट्रेट पर संज्ञान लेने पर लागू होता है न कि पुलिस पर प्राथमिकी दर्ज करने और जांच करने में लागू होता है। इसलिए, धारा 188 के तहत किए गए अपराध के लिए प्राथमिकी दर्ज करने पर पुलिस पर कोई रोक नहीं है। 

हालाँकि, एक बार जांच पूरी हो जाने के बाद, जिस लोक सेवक के आदेश की अवहेलना की गई है, उसे एक लिखित शिकायत करनी होती है, जो अंतिम रिपोर्ट का हिस्सा बन जाती है। मजिस्ट्रेट के आगे बढ़ने के लिए इस शिकायत को दर्ज करना एक शर्त है। मजिस्ट्रेट, संतुष्ट होने पर कि यह धारा 188 की सामग्री को आकर्षित करता है, संज्ञान लेगा और आगे की कार्यवाही करेगा। 

जीवनानंदम बनाम राज्य (2018) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 188 के तहत किसी अपराध के आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सीआरपीसी की धारा 195 की प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है; अन्यथा, ऐसी कार्रवाई शुरू से ही शून्य मानी जाएगी। उस लोक सेवक द्वारा शिकायत की जानी चाहिए जिसके वैध आदेश का अनुपालन नहीं किया गया है। पुलिस अधिकारियों की शक्ति निवारक कार्रवाई तक सीमित है, और उसे संबंधित लोक सेवक को तत्काल सूचित करना होगा ताकि वह न्यायालय के समक्ष शिकायत के साथ आगे बढ़ सके।

आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत अपराध के लिए सजा

धारा 188 के तहत दंड, कार्य के परिणामों की गंभीरता के साथ भिन्न होता है:

  1. यदि आदेश की अवज्ञा कानूनी रूप से नियोजित व्यक्ति के लिए बाधा या झुंझलाहट या चोट, या उसी के जोखिम का कारण बनती है, तो अपराधी को एक महीने तक की साधारण कैद या 200 रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा, या दोनों;
  2. यदि इस तरह की अवज्ञा अधिक गंभीर प्रकृति की है, जिससे मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो, या यह दंगे का कारण बनता है या इसमें दंगे होने की प्रवृत्ति होती है, तो अपराधी को एक अवधि के लिए किसी भी विवरण के कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या 1000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है, या दोनों। 

यह सजा अपर्याप्त लग सकती है, लेकिन यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि जब किसी अभियुक्त पर इस धारा के तहत आरोप लगाया जाता है, तो उस पर अक्सर एक साथ किए गए अपराध का आरोप लगाया जाता है। राम समुझ और अन्य बनाम राज्य (1966), में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आई.पी.सी. की धारा 188 और 454 (कारावास के साथ दंडनीय अपराध करने के लिए घर-अतिचार (ट्रेसपास) या घर तोड़ना) के तहत सत्र न्यायाधीश द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा था। मामले के तथ्य यह थे कि उच्च न्यायालय द्वारा सीआरपीसी की धारा 145 के तहत घर की कुर्की (अटैचमेंट) के लिए प्रारंभिक आदेश पारित करने के बाद पुलिस ने घर पर ताला लगा दिया और चाबी मालिक को सौंप दी। अभियुक्तों ने ताला तोड़कर मकान पर जबरन कब्जा कर लिया। यह दिखाया गया कि आदेश की उद्घोषणा अभियुक्तों को ज्ञात थी। 

खोशी महतोन व अन्य बनाम राज्य (1964) में सीआरपीसी की धारा 144 के तहत कार्यवाही दो पक्षों के बीच हुई थी, और उन्हें उस भूमि के एक विशेष टुकड़े पर जाने से रोक दिया गया जहां धान की खड़ी फसल थी। एक पक्ष ने फसल काट कर हटा दी। मजिस्ट्रेट ने कहा कि कार्रवाई अवज्ञा के बराबर है और यह एक दंगे का कारण बनता है, और उन्होंने आरोपी को 2 महीने के कठोर कारावास और जुर्माने के रूप में 55 रुपये का भुगतान करने की सजा सुनाई। जुर्माना अदा न करने पर उन्हें 15 दिन का अतिरिक्त कठोर कारावास भुगतना होगा। उन्होंने सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपील दायर की। उनकी राय थी कि अवज्ञा से किसी भी तरह के दंगे का खतरा नहीं था, और सत्र न्यायाधीश ने जुर्माना बरकरार रखते हुए सजा को एक महीने तक के साधारण कारावास तक कम कर दिया। जब मामला पटना उच्च न्यायालय के सामने आया, तो उसने देखा कि अवज्ञा के ऐसे कार्यों ने शांति भंग की आशंका पैदा की, और यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि अवज्ञा से दंगे भड़कने की प्रवृत्ति थी। इसने माना कि सत्र न्यायाधीश का निष्कर्ष गलत था और आवेदन को खारिज कर दिया गया। 

इसी तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं। इन मामलों को तय करना तीन कारकों पर निर्भर करता है, अर्थात्-

  1. आदेश की उद्घोषणा; 
  2. अभियुक्त का ज्ञान और अवज्ञा; और अंत में, 
  3. धारा के तहत उल्लिखित परिणामों का होना। 

इसके अलावा, यह उल्लेख करना उल्लेखनीय है कि इस धारा के तहत दी जाने वाली सजा को महामारी रोग अधिनियम, 1897 में भी जगह मिली है। यह खतरनाक महामारी रोगों के प्रसार की बेहतर रोकथाम प्रदान करने के लिए एक अधिनियम है। अधिनियम की धारा 3 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो इस धारा के तहत बनाए गए किसी नियम या आदेश की अवज्ञा करता है, उसे आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत दंडनीय अपराध माना जाएगा। कोविड-19 लॉकडाउन की अवधि के दौरान पूरे देश में इस धारा का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था। 

महत्वपूर्ण मामले 

नगर परिषद, रतलाम बनाम श्री वर्धीचंद और अन्य (1980) 

मामले की तथ्य : 

इस मामले में नगर परिषद को सीआरपीसी की धारा 133 के तहत एक मजिस्ट्रेट द्वारा इलाके में रहने वाले लोगों को 6 महीने के अंदर सुविधाएं प्रदान करने और उपद्रव को कम करने, कुछ गड्ढों को बंद करने, नालियों की मरम्मत करने, गंदगी हटाने और सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करने का आदेश दिया गया था। यह मामला निगम द्वारा विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया था। 

मुद्दा :

क्या अदालत एक वैधानिक निकाय को बड़ी लागत पर और समयबद्ध आधार पर स्वच्छता सुविधाओं का निर्माण करके समुदाय के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य कर सकती है? 

परिषद द्वारा तर्क:

उन्होंने धन की कमी के मुद्दे को बताया। 

न्यायालय का निर्णय:

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब भी कोई सार्वजनिक उपद्रव होता है, तो यह मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह आदेश में निर्धारित समय के भीतर उपद्रव को दूर करे। यह शक्ति सीआरपीसी की धारा 133 से ली गई है। यह जनता की ओर से और सार्वजनिक कार्यवाही के अनुसरण में प्रयोग की जाने वाली सार्वजनिक शक्ति में निहित एक सार्वजनिक कर्तव्य है। निर्देश का पालन करने में विफल रहने पर आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत सजा दी जा सकती है। इस मामले में, अवज्ञा का परिणाम सार्वजनिक उपद्रव के निकटता से संबंधित है, क्योंकि मजिस्ट्रेट के आदेश का पालन न करने से स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा होंगी।

न्यायालय ने यह भी कहा कि धन की कमी लोगों के अक्षम्य (इनएफेबल) “मानवाधिकारों” के खिलाफ एक बहाने के रूप में नहीं खड़ी होगी। सार्वजनिक क्षेत्रों के रखरखाव के लिए नगरपालिका से राज्य सरकार से प्राप्त धन का उचित उपयोग करने की अपेक्षा की गई थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अधिकारियों के माध्यम से नगरपालिका परिषद को अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 133 के तहत एक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश की अवज्ञा और गैर-अनुपालन के लिए धारा 188 के तहत उत्तरदायी ठहराया।

ओम प्रकाश और अन्य बनाम राज्य (दिल्ली की एनसीटी सरकार) (2019)

मामले की तथ्य: 

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हिंसक सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे। उस पर अंकुश लगाने के लिए, 31 अक्टूबर, 1984 को दिल्ली में एक निषेधाज्ञा पारित की गई, जिसमें अगले आदेश तक पाँच से अधिक लोगों के जमावड़े और हथियार ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 1 नवंबर, 1984 को शाम 6 बजे, पुलिस आयुक्त द्वारा सीआरपीसी की धारा 144 के तहत एक आदेश जारी किया गया था, जिसमें संबंधित जिले के पुलिस उपायुक्त द्वारा दिए गए परमिट आदेश के बिना दिल्ली में किसी के भी बाहर आने पर प्रतिबंध लगाया गया था। 2 नवंबर 1984 को थाने को दूरभाष पर सूचना मिली कि इलाके में जनसंहार (जेनोसाइड) हो रहा है। पुलिस मौके पर पहुंची तो देखा कि कुछ घर जले हुए हैं। 

चश्मदीद विद्या वती के बयान के अनुसार, गैर-सिखों की एक बड़ी भीड़ इलाके में आई, और उन्होंने उसके पति ठाकुर सिंह को तीन बार चाकू मारा और उसके बाद उसे आग लगा दी। उनके तीन पहियों वाले स्कूटर को भी आग के हवाले कर दिया गया। उसने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता ओम प्रकाश और ओम प्रकाश के छोटे भाई वेदी ने उसके पति की हत्या की थी। 

अनुपात निर्णय: 

लागू निषेधाज्ञा के बावजूद, अभियुक्तों ने खुले तौर पर आदेशों की अवहेलना की। उन्होंने दंगों के साथ-साथ समुदाय में लोगों के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा किया। यह धारा 188 के तहत दंडनीय अपराध के सभी अवयवों को पूरा करता है। 

न्यायालय का निर्णय:

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को आई.पी.सी. की धारा 302 (हत्या की सजा) के साथ धारा 149 (गैरकानूनी सभा में शामिल हर व्यक्ति को अपराधी है और सामान्य उद्देश्य का अभियोजन करता है) के तहत दंडनीय अपराध के लिए निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा। और आई.पी.सी. की धारा 147 के तहत दंडनीय अपराध के लिए, अदालत ने अपीलकर्ताओं को क्रमशः दो साल की अवधि के कठोर कारावास की सजा सुनाई। इसके अलावा, आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत दंडनीय अपराध के लिए, अपीलकर्ताओं को क्रमशः छह महीने की अवधि के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। अदालत ने कहा कि सभी सजाएं साथ-साथ चलेंगी।

निष्कर्ष 

कुछ समय पहले, डीकाथलॉन स्पोर्ट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली (2022) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 और आई.पी.सी. की धारा 188 के तहत मामलों के त्वरित निपटान की आवश्यकता को हरी झंडी दिखाई थी। यह मामला 2021 में लॉकडाउन के दौरान तय समय सीमा के बाद शोरूम खोलने से संबंधित था, जिससे मौजूदा आदेशों का उल्लंघन हो रहा था। यहां मुद्दा यह है कि धारा 188 के तहत अधिकतम अवधि छह महीने तक है, लेकिन विचाराधीन मामले को बिना किसी कारण किए सात महीने से अधिक समय तक खींचा गया। 

यह समझ से बाहर है कि धारा 188 के तहत मामलों को अधिक उद्देश्यपूर्ण तरीके से क्यों नहीं निपटाया जा सकता है। धारा 188 के पीछे विधायिका की मंशा उल्लेखनीय है, लेकिन सीआरपीसी की धारा 195 के तहत प्रक्रियात्मक तंत्र इसे सुस्त बना देता है। सीआरपीसी की धारा 195(1)(a) के अनुसार, अदालत को संबंधित लोक सेवक द्वारा लिखित शिकायत के अलावा धारा 188 के तहत अपराधों का संज्ञान लेने से रोक दिया गया है। एक सक्षम लोक सेवक द्वारा प्राप्त जानकारी को शिकायत में बदलना, प्राथमिकी दर्ज करना, सीआरपीसी की धारा 41A के तहत नोटिस जारी करना, और सीआरपीसी की धारा 173 के तहत रिपोर्ट दाखिल करने की परिणामी आवश्यकता ने मामलों में केवल जटिलताओं और समय और मानव संसाधनों की भारी बर्बादी को जन्म दिया है। उपरोक्त मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उन मामलों में सरल दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव दिया, जिनमें आम नागरिक शामिल हैं और जिनकी कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। इसने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत के समक्ष शिकायत पेश किए जाने के बावजूद प्राथमिकी का अस्तित्व, अदालत को मामले का संज्ञान लेने से नहीं रोकेगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू) 

क्या धारा 188 एक जमानती अपराध है? 

सीआरपीसी की पहली अनुसूची के अनुसार, धारा 188 एक संज्ञेय और जमानती अपराध है। 

धारा 188 का मुकदमा किस न्यायालय में चलाया जा सकता है ?

इसे किसी भी मजिस्ट्रेट की अदालत में चलाया जा सकता है।

क्या धारा 188 एक शमनीय अपराध है?

सीआरपीसी की  धारा 320 के अनुसार, धारा 188 एक गैर-शमनीय अपराध है।

संदर्भ 

  • Ratanlal and Dhirajlal, 2019, The Indian Penal Code, LexisNexis.
  • RV Kelkar’s Criminal Procedure, Lucknow, Eastern Book Company.

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