आई.पी.सी. के तहत हत्या की सजा

0
1896
Indian Penal Code
Image Source- https://rb.gy/45wuwk

यह लेख M.S.Sri Sai Kamalini द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में स्कूल ऑफ लॉ, सस्त्र से बी.ए. एल.एल.बी. (ऑनर्स) कर रही है। यह एक विस्तृत (एक्सहॉस्टिव) लेख है जो हत्या का अपराध करने के लिए सजा से संबंधित विभिन्न प्रावधानों (प्रोविजंस) के बारे में चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

हत्या एक ऐसा जघन्य (हीनियस) अपराध है जिसने पूरी मानव जाति को हैरान कर दिया है। यह लिंग की परवाह किए बिना समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है। हत्या को “मैलम इन से” माना जाता है जो कि वह कार्य है जो अपने आप में एक बुराई है। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2018 के अंत तक, 371 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी।

धारा 302 का दायरा (स्कोप) 

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में हत्या के लिए सजा का प्रावधान है। इस धारा के अनुसार जो कोई भी हत्या करता है उसे निम्नलिखित से दंडित किया जाता है:

  • मौत;
  • आजीवन कारावास;
  • दोषी को जुर्माना भी देना होता है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 300, हत्या को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार, गैर इरादतन हत्या (कल्पेबल होमीसाइड) को हत्या माना जाता है:

  • यदि कार्य मृत्यु करने के इरादे से किया गया हो।
  • यदि यह कार्य शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से किया गया हो, जिसके बारे में अपराधी को पता हो कि वह मौत का कारण बन सकता है।
  • यदि यह किसी व्यक्ति को शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से किया गया हो और शारीरिक चोट लगने का इरादा प्रकृति के सामान्य पाठ्यक्रम (कोर्स ऑफ़ नेचर) में मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है।
  • यदि कार्य करने वाले व्यक्ति को यह ज्ञान हो कि यह बहुत खतरनाक है और इससे मृत्यु या शारीरिक चोट लग सकती है, लेकिन फिर भी वह ऐसा कार्य करता है जो हत्या के समान होगा।

धारा 300 उन स्थितियों को भी अपवाद (एक्सेप्शन) प्रदान करती है, जहां कुछ स्थितियों में गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जाता है, जैसे:

  • जब गंभीर और अचानक उत्तेजना (ग्रेव एंड सडन प्रोवोकेशन) के कारण कार्य किया जाता है, तो उत्तेजना देने वाले किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है;
  • जब कार्य लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट) द्वारा किया जाता है, जो सार्वजनिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए ऐसे कार्य को करने के लिए अधिकृत (ऑथोराइज़्ड) होता है;
  • जब कार्य खुद को और नुकसान से बचाने के लिए किया जाता है (निजी रक्षा (प्राइवेट डिफेन्स) का अधिकार);
  • जब पीड़ित की सहमति से वह कार्य किया जाता है;
  • जब कार्य अचानक हुई लड़ाई का परिणाम हो।

अगर कार्य धारा 300 के तहत दिए गए अपवाद के दायरे में नहीं आती है, तो धारा 302 के तहत सजा दी जाएगी।

आजीवन कारावास एक नियम है और, मौत की सजा एक अपवाद

बचन सिंह का मामला, एक ऐतिहासिक मामला है। इस मामले में, यह अनिवार्य बनाया गया था कि मौत की सजा केवल दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर) मामलों में ही दी जा सकती है। राजू जगदीश पासवान बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र के मामले में इस सिद्धांत (प्रिंसिपल) पर फिर से विचार किया गया था। इस मामले में निचली अदालत ने नौ साल की बच्ची से बलात्कार के आरोप में अपीलकर्ता को मौत की सजा सुनाई थी। उच्च न्यायालय ने भी वही सजा सुनाई और अपील पर, सर्वोच्च न्यायालय ने सजा कम कर दी क्योंकि मौत की सजा केवल दुर्लभतम परिदृश्यों (सिनेरिओ) पर ही दी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आजीवन कारावास एक नियम है जबकि मौत की सजा इसका एक अपवाद है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में विभिन्न कारणों से मृत्युदंड नहीं दिया, जैसे:

  • हत्या का अपराध पहले से ही नियोजित (प्लैन्ड) नहीं था।
  • वह व्यक्ति समाज के लिए निरंतर (कंटीन्यूअस) खतरा नहीं था।
  • राज्य द्वारा यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं था कि व्यक्ति को सुधारा नहीं जा सकता है और
  • पुनर्वासित (रिहेबिलिटेट) नहीं किया जा सकता है।
  • अपीलकर्ता उम्र में बहुत छोटा था और अपराध करते समय केवल 22 वर्ष का था।

मूल (बेसिक) सिद्धांत यह है कि मानव जीवन बहुत मूल्यवान है और मौत की सजा तभी दी जानी चाहिए जब यह अनिवार्य हो और सजा का कोई अन्य विकल्प न हो और ऐसे मामलों में भी जहां अपराध की सीमा बहुत जघन्य हो।

सजा का चुनाव

सजा का चुनाव करने से पहले अदालत विभिन्न कारकों (फैक्टर्स) के बारे में विचार करती है। अदालत उचित जांच के बाद और किसी भी उचित संदेह से परे, अपराध साबित होने के बाद ही मौत की सजा या आजीवन कारावास जैसी सजा का चुनाव करती है। भारत में सजा के लिए अलग से कोई दिशा-निर्देश (गाइडलाइन) नहीं हैं और विभिन्न मामलों में दिशा-निर्देशों की आवश्यकता का उल्लेख किया गया है। स्टेट ऑफ़ पंजाब बनाम प्रेम सागर और अन्य के मामले में, यह नोट किया गया था कि सजा देने के लिए कोई न्यायपालिका (ज्यूडीशियरी) द्वारा संचालित (ड्राईवन) दिशा निर्देश नहीं हैं। स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश बनाम बबलू नट के मामले में, यह कहा गया था कि सजा का चुनाव मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

मौत की सजा: विधायी जनादेश (लेजिस्लेटिव मैंडेट)

पहला मामला जिसने मौत की सजा की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया था, वह जगमोहन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश का मामला था, जहां मौत की सजा को विभिन्न कारणों से चुनौती दी गई थी, जैसे:

  • मृत्युदंड आर्टिकल 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।
  • यह आर्टिकल 14 के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार को प्रभावित करता है क्योंकि मृत्युदंड देना पूरी तरह न्यायाधीशों के विवेक (डिस्क्रिशन) पर है।
  • यह आर्टिकल 19 के तहत गारंटीकृत विभिन्न स्वतंत्रताओं को भी प्रभावित करता है।
  • इसका भी विरोध किया गया है क्योंकि कानून मौत की सजा देने के लिए कोई जनादेश प्रदान नहीं करता है।

राजेंद्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश के मामले में, उन विशेष परिस्थितियों पर चर्चा की गई थी जिन पर मृत्युदंड देने से पहले विचार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि हमें न केवल अपराध की प्रकृति पर विचार करना चाहिए बल्कि मौत की सजा देने के लिए अपराधियों के विभिन्न कारकों को भी महत्व देना चाहिए। बचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले ने धारा 302 की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया था क्योंकि यह आर्टिकल 19 का उल्लंघन था। न्यायालय ने माना कि यह आर्टिकल 19 का उल्लंघन नहीं है क्योंकि हत्या करने की कोई स्वतंत्रता नहीं है। बचन सिंह के मामले में, अदालत ने “दुर्लभ से दुर्लभ” दिशा निर्देश पेश किए थे। अदालत ने उद्धृत (क्वोट) किया कि “इस प्रावधान के संदर्भ में अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) ‘विशेष कारण (स्पेशल रीज़न) का अर्थ’, स्पष्ट रूप से अपराध के साथ-साथ अपराधी से संबंधित विशेष मामले की असाधारण गंभीर परिस्थितियों पर आधारित ‘असाधारण कारण’ के रूप में होता है”।

मौत की सजा देना: कानून आयोग (लॉ कमीशन) की रिपोर्ट द्वारा प्रदान किए गए सामान्य दिशा निर्देश और सिद्धांत

मौत की सजा आमतौर पर गंभीर अपराधों के लिए दी जाती है। भारतीय दंड संहिता के तहत विभिन्न धाराओं के तहत विभिन्न गंभीर अपराधों का उल्लेख किया गया है, जैसे:

भारतीय दंड संहिता के तहत धाराएं सम्बंधित अपराध
धारा 121 राजद्रोह (ट्रीसन), या भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना  
धारा 132  विद्रोह का दुष्प्रेरण (म्यूटिनी) जो वास्तव में किया गया हो
धारा 302 हत्या
धारा 305 नाबालिग, पागल व्यक्ति या नशे में धुत व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाना (अबेटमेंट)
धारा 364A फिरौती के लिए अपहरण करना 
धारा 396 डकैती के साथ हत्या
धारा 376A बलात्कार और चोट, जो मृत्यु का कारण बनती है या महिला को लगातार वानस्पतिक (परसिस्टेंट वेजिटेटिव) अवस्था में छोड़ देती है

अगर मौत की सजा दी जाती है तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता और जेल नियमावली (प्रिजन मैन्युअल) में उल्लिखित विभिन्न प्रक्रियाओं का पालन करने के बाद ठीक से निष्पादित (एग्जीक्यूट) किया जाना चाहिए। अदालत सजा तय करने के लिए विभिन्न कारकों पर विचार करेगी, जैसे:

  • सुधार की संभावना;
  • आरोपी की उम्र;
  • आरोपी की मानसिक अस्वस्थता;
  • आरोपी के कारण भविष्य में समाज को खतरा होने की आशंका;
  • किसी अन्य व्यक्ति का उकसाना जिसके कारण आरोपी ने अपराध किया;
  • किसी अन्य व्यक्ति का जबरदस्ती करना जिसके कारण आरोपी ने अपराध किया हो।

मौत की सजा के निष्पादन में देरी- एक विलुप्त (एक्सटेनुएट) होने वाला कारक

मौत की सजा के निष्पादन में देरी, विभिन्न पहलुओं में बहुत सारे मुद्दे पैदा करती है क्योंकि यह न्याय की पूरी प्रक्रिया (प्रोसेस) को प्रभावित करती है क्योंकि यह आरोपी और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने त्रिवेणीबेन बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात के मामले में कहा कि केवल कार्यकारी देरी को भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन माना जा सकता है, लेकिन न्यायिक (एग्जीक्यूटिव) देरी को आर्टिकल 21 का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है। टी.वी. वथीस्वरन बनाम स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु, न्यायालय ने माना कि सजा के निष्पादन में दो साल से अधिक की देरी, आर्टिकल 21 द्वारा गारंटीकृत प्रक्रिया का उल्लंघन होगी।

हालाँकि, शेर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में, यह माना गया था कि देरी, आर्टिकल 21 को लागू करने का आधार हो सकती है, लेकिन यह कोई बाध्यकारी नियम नहीं है कि देरी के कारण कैदी, मौत की सजा को रद्द करने का हकदार होगा। शत्रुघ्न चौहान बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में, यह माना गया था कि मौत की सजा के दोषियों के हितों को बचाने के लिए विभिन्न दिशा निर्देश लाए जाने चाहिए। यदि निष्पादन में बहुत अधिक देरी होती है, तो दोषी कैदी को अदालत से अनुरोध करने का अधिकार है कि वह यह जांचने का अनुरोध करे कि क्या मौत की सजा को निष्पादित करने की अनुमति देना उचित है।

एक गर्भवती महिला की दोषसिद्धि (कन्विक्शन)

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 416, गर्भवती महिला की मौत की सजा के स्थगन (पोस्टपोनमेंट) से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, यदि दोषी महिला गर्भवती पाई जाती है, तो उच्च न्यायालय निम्न कार्य कर सकता है:

  • सजा के निष्पादन को स्थगित कर सकता है;
  • उच्च न्यायालय इस सजा को आजीवन कारावास तक भी कम कर सकती है।

इस धारा के तहत अजन्मे बच्चे के अधिकारों की रक्षा की जाती है। इस धारा के पीछे मुख्य तर्क यह है कि जिस बच्चे ने कोई गलती नहीं की उसकी हत्या नहीं की जानी चाहिए। गर्भावस्था (प्रेगनेंसी) को उचित चिकित्सा रिपोर्ट और परीक्षाओं (एग्जामिनेशन) के साथ साबित किया जाना चाहिए।

नाबालिग की दोषसिद्धि

बच्चे हर राष्ट्र का भविष्य होते हैं, इसलिए जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड और आजीवन कारावास जैसी बड़ी सजा प्रदान करने से पहले इसका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन (इवैल्यूएशन) किया जाना चाहिए। दोषसिद्धि को साक्ष्य (एविडेंस) के कानून के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय, किशोर न्याय समिति (जुवेनाइल जस्टिस कमेटी) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा कि “जैसा कि कहा गया है कि बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों से संबंधित हर मामले में किशोर दोषियों को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति जो लगभग 17 वर्ष या 18 वर्ष के करीब है, उसे मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती है सिर्फ इसलिए की उसने एक जघन्य अपराध किया है, मामले से संबंधित सभी सबूतों के माध्यम से एक उचित निष्कर्ष प्राप्त किया जाना चाहिए।

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम (जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन) एक्ट) 2000 के अनुसार, अपराध के समय 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को फांसी नहीं दी जा सकती है। 2015 के किशोर न्याय अधिनियम ने उस अधिनियम को बदल दिया जो 2000 में लाया गया था। जिस अधिनियम में संशोधन (अमेंडमेंट) किया गया था, वह 16 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के व्यक्तियों को बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध करने पर वयस्कों (एडल्ट्स) के रूप में पेश करने की अनुमति देता है। यह विधेयक (बिल) पास करने का मुख्य कारण दिल्ली बलात्कार का मामला था, जहां अपराध करने के दौरान एक आरोपी की उम्र 17 साल थी। किशोर न्यायालय द्वारा उन पर अलग से मुकदमा चलाया गया और उन्हें केवल तीन साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी। इसने बहुत सारे विवाद खड़े कर दिए और यह अनिवार्य कर दिया कि अधिनियम में जघन्य अपराध करने वाले किशोरों की आयु को संशोधित किया जाना चाहिए।

सह आरोपी (को अक्यूज़ड) को सजा

एक ही अपराध के आरोपियों को एक ही प्रकार की सजा दी जानी चाहिए। भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस एक्ट) की धारा 30 के तहत सह-आरोपी का स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) प्रदान किया गया है। सह- आरोपी द्वारा किए गए स्वीकारोक्ति का एक उचित साक्ष्य मूल्य (एविडेंशिअरी वैल्यू) है और यह खुद को और अन्य आरोपियों को भी प्रभावित करता है। समता सिद्धांत (पैरिटी प्रिंसिपल) यह सुनिश्चित करता है कि सजा, समान अपराधियों या समान अपराध के दोषी व्यक्तियों के लिए समान होनी चाहिए। यह सिद्धांत सजा देते समय निष्पक्षता और समानता सुनिश्चित करता है।

आजीवन कारावास

एकान्त, कठोर और साधारण कारावास तीन प्रकार के कारावास होते हैं। आजीवन कारावास का मतलब है कि व्यक्ति को उसके जीवन भर के लिए कैद किया जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 53 में प्रावधान है कि कुछ प्रकार के दंड ऐसे हो सकते हैं जहां आजीवन कारावास की सजा भी एक स्वीकृत रूप में दी जा सकती है। जीवन के लिए परिवहन (ट्रांस्पोर्टशन) शब्द को वर्ष 1955 में आजीवन कारावास की अवधि के साथ बदल दिया गया था। धारा 302 के अनुसार, आजीवन कारावास भी हत्या करने की सजा है। आजीवन कारावास, मौत की सजा की तरह हिंसक सजा नहीं है लेकिन फिर भी यह आरोपी और समाज को प्रभावित करती है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 55 आजीवन कारावास के मामलों में सजा के रूपान्तरण (कम्यूटेशन) से संबंधित है। इस धारा के अनुसार, यह उल्लेख किया गया है कि कारावास की अवधि 14 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए या यह कोई अन्य अवधि हो सकती है जिसे उपयुक्त सरकार द्वारा तय किया जाना चाहिए। यह एक गलत धारणा (आईडिया) है कि आजीवन कारावास केवल 14 वर्ष के लिए होती है लेकिन यह हर मामले में सच नहीं होता है। ऐसी कुछ विशेष परिस्थितियाँ हैं जहाँ दोषी को उचित सरकार द्वारा उचित विचार-विमर्श (कन्सिडरेशन) के बाद 14 वर्ष के बाद रिहा कर दिया जाता है, अन्यथा उसकी कारावास की अवधि जीवन भर तक के लिए बढ़ जाती है।

आजीवन कारावास के दोषी द्वारा की गयी हत्या के लिए सजा

भारतीय दंड संहिता की धारा 303 में प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति जिसे आजीवन कारावास की सजा दी जाती है, वह हत्या करता है तो उस स्थिति में उस व्यक्ति को मौत की सजा दी जाएगी। इस धारा की संवैधानिक वैधता पर मिठू बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में सवाल उठाया गया था। इस धारा को इस मामले में असंवैधानिक (अन कॉन्स्टीट्यूशनल) माना गया था क्योंकि अदालत ने माना कि आजीवन कारावास के दोषी को अनिवार्य मौत की सजा देना अनुचित और मनमाना (आर्बिट्ररी) है, जैसे की विभिन्न कारणों से, जो निम्नलिखित है:

  • आजीवन कारावास की सजा पाने वाला, जेल परिसर (प्रिमाइस) में पहले से ही काफी तनाव में होता है;
  • आजीवन कारावास की सजा पाने वाले व्यक्ति द्वारा जेल के अंदर या बाहर किए गए हत्या के अपराध के लिए मौत की अनिवार्य सजा निर्धारित (प्रिस्क्राइब) करने के लिए कोई औचित्य (जस्टिफिकेशन) और समझदार अंतर (इंटेलिजिबल डिफ्रेंशिया) नहीं है;
  • एक मानकीकृत (स्टैंडर्डाइज़्ड) अनिवार्य सजा और वह भी मौत की सजा, प्रत्येक विशेष मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखने में विफल रहती है।

गैर इरादतन हत्या (कल्पेबल होमीसाइड) के लिए सजा

गैर इरादतन हत्या, हत्या के अपराध से अलग है और इन दोनों के बीच का अंतर भारतीय दंड संहिता के तहत प्रदान किया गया है। भारतीय दंड संहिता, गैर इरादतन हत्या को जाति (जीनस) मानती है जबकि हत्या को एक प्रजाति (स्पीशीज़) मानती है। इसे संक्षेप में कहा जाये तो, “सभी हत्याएं गैर इरादतन हत्या होती हैं लेकिन सभी गैर इरादतन हत्याएं, हत्याएं नहीं होती हैं”। मौत का कारण, हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच मुख्य अंतर होता है। अगर यह धारा 300 के तहत उल्लिखित 5 अपवादों में से किसी एक के तहत आता है तो गैर इरादतन हत्या को हत्या नहीं माना जा सकता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304 गैर इरादतन हत्या के लिए विभिन्न दंड प्रदान करती है जो हत्या की श्रेणी (केटेगरी) में नहीं आते है। गैर इरादतन हत्या के लिए प्रदान की गई विभिन्न सजाएँ हत्या की श्रेणी में नहीं आती हैं:

  • आजीवन कारावास;
  • किसी भी प्रकार का कारावास जिसे 10 वर्ष तक के लिए बढ़ाया जा सकता है;
  • जुर्माना।

सुधार के लिए प्रस्ताव (प्रोपोज़ल्स फ़ॉर रिफॉर्म)

इन प्रावधानों को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न सुधार किए जाने की आवश्यकता है, जैसे की:

  • उचित समान न्यायिक दिशा निर्देश (ज्यूडिशियल गाइड लाइन) होने चाहिए जो सजा तय करने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करें।
  • मुकदमे को तेजी से भी निपटाया जा सकता है लेकिन यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दंड प्रक्रिया संहिता की सभी प्रक्रियाओं का पालन भी किया जाना चाहिए।
  • मृत्युदंड देने के लिए उचित दिशा निर्देश होने चाहिए।
  • विभिन्न नए प्रावधान लाने होंगे जो दंड के सुधारात्मक (रिफॉर्मेटिव) रूप से निपटेंगे।
  • धारा 303 को असंवैधानिक माना जाता है लेकिन फिर भी, इसे अधिनियम से हटाया नहीं गया है, इसलिए उस पहलू में एक आवश्यक संशोधन की आवश्यकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

अदालत, जीवन के मूल्य को समझती है और हाल के दिनों में केवल तीन लोगों को फांसी की सजा हुई हैं। न्यायालय को केवल दुर्लभ परिस्थितियों में ही मृत्युदंड देना चाहिए जैसे की यदि आरोपी समाज के लिए खतरा है, अन्यथा न्यायालय के पास सजा को कम करने के सभी अधिकार होते हैं। यदि विभिन्न न्यायालय सजा देने के लिए एक समान दिशा-निर्देश लाने का प्रयास करते हैं तो यह भी एक बड़ी प्रगति होगी।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here