यह लेख V. Krishna Laasya द्वारा लिखा गया हैं। यह लेख व्यादेश (इंजंक्शन) एवं अंतरिम आदेश (इंटेरिम ऑर्डर) के प्रावधानों का वर्णन करता है। इस लेख का अनुवाद Shubhya Paliwal द्वारा किया गया है।
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परिचय
आम तौर पर, “अंतरिम” (इंटरिम) शब्द का अर्थ होता है अस्थायी या अनंतिम, यह शब्द एक ऐसी चीज को दर्शाता है जो कि अंतिम नहीं है।
अंतरिम अर्थात् अंतर्वर्ती आदेश (इंटरलोक्यूटरी ऑर्डर) वे आदेश होते हैं जो वाद या कार्यवाही के लंबित रहने (लिस पेंडेंस) के दौरान पारित किए जाते हैं और पक्षों के अधिकार, देनदारियां भी आमतौर पर वाद के अनुसार पर्याप्त रूप से तय नहीं हुई होती हैं। ये आदेश न केवल कार्यवाही का कारण तय करते हैं, बल्कि यह वे आदेश होते हैं जो अस्थायी रूप से कार्यवाही के बीच का रास्ता भी तय करते हैं।
इस प्रकार के आदेश वे होते हैं जो वाद के प्रारंभ होने के समय और उसके अंतिम आदेश के बीच एक अस्थायी निर्णय प्रदान करते हैं। ये आदेश वाद की विषय-वस्तु की सुरक्षा करते हैं और पक्षों की भी उचित सहायता करते हैं।
उदाहरण– यदि वाद किसी भवन को गिराने से संबंधित है, तो संपत्ति से संबंधित अंतिम आदेश पारित होने तक, भवन के गिरने की प्रक्रिया को रोकने के लिए एक अंतरिम आदेश पारित किया जा सकता है।
न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियां (इन्हेरेंट पावर)
न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 151 के जटिल विश्लेषण के आधार पर वर्णित किया जा सकता है, इस धारा में शक्तियों का प्रयोग करने के लिए दो विचार निर्धारित किए गए हैं- न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने और प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए।
न्यायालयों को अंतरिम आदेश पारित करने की शक्ति के साथ निहित किया गया है, जिसका उद्देश्य मुख्य रूप से निर्दोष पक्ष के प्रति न्याय की विफलता को अक्षम करने पर केंद्रित किया गया है। ऐसी कोई बेहतर भूमिका या प्रक्रिया नहीं है जो किसी भी अंग को संहिता की धारा 151 के प्रावधानों की अवहेलना करने में सक्षम बनाती है और यह न्याय को कायम रखने में सर्वोच्च न्यायालय की रुचि को प्रदर्शित करता है। राम चंद एंड संस शुगर मिल्स प्राइवेट लिमिटेड बाराबंकी बनाम कन्हैयालाल भार्गव के अनुसार, यह तर्क दिया गया था कि पहले वाद के लंबित रहने के बाद भी कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनके कारण पहले वाद का कोई उपयोग नहीं रह गया।
न्यायालय में अंतरिम आदेश पारित करने से संबंधित शक्तियों का निवेश न्यायसंगत और सुविधा की आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया गया है। एक सामान्य दृष्टिकोण से देखा जाए तो, न्यायालय किसी भी दुरुपयोग या अदालती प्रक्रिया को रोकने के लिए दी गई अंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से अंतरिम आदेश देने की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। न्यायालय की स्थापना न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए की गई है और इसका एक अंश न्यायालय द्वारा अंतरिम आदेश पारित करने के माध्यम से देखा जा सकता है।
न्यायालय द्वारा वाद और वकालत के संचालन की प्रक्रिया को इस तरह के अंतरिम व्यादेश (इंजंक्शन) के माध्यम से बढ़ाया गया है।
अंतरिम आदेश से सम्बन्धित प्रावधान
- न्यायालय में भुगतान जमा करना (आदेश 24)
- खर्चों के लिए प्रतिभूति (सिक्योरिटी) (आदेश 25)
- कमीशन (आदेश 26)
- निर्णय के पहले गिरफ्तारी (आदेश 38)
- निर्णय के पहले कुर्की (अटैचमेंट) (आदेश 38)
- व्यादेश (आदेश 39)
- अंतर्वर्ती आदेश (आदेश 39)
- रिसीवरों की नियुक्ति (आदेश 40)
व्यादेश
व्यादेश और उससे संबंधित कानून इस प्रकार दिए गए हैं :
- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963, (स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट 1963) की धारा 36-42
- सिविल प्रक्रिया संहिता 1908, की धारा 94(c) और 94 (e)।
- सिविल प्रक्रिया संहिता 1908, का आदेश 39।
विर्निदिष्ट अनुतोश अधिनियम
धारा 37 के माध्यम से समझा जाए तो, व्यादेश के दो प्रकार अस्तित्व में हैं पहला अस्थायी, जिन्हें एक निर्दिष्ट समय होने तक या अदालत द्वारा मुकदमे के किसी भी चरण में आगे के आदेश पारित करने तक लागू किया जा सकता है, जिसे सिविल प्रक्रिया संहिता द्वारा आगे विनियमित (रेगुलेटेड) किया जाता है, और दूसरा स्थायी, जहां प्रतिवादी का अधिकार उस कथन या कार्य से जुड़ा है जो वादी और वादी के अधिकारों के खिलाफ है जिसे मामले के तथ्यों पर विचार करने के बाद समझा जा सकता है।
किसी भी अंतर्वर्ती व्यादेश या अस्थायी व्यादेश के लिए निर्धारित तीन परीक्षणों के समाधान की आवश्यकता होती है:
- मामला प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) वादी द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
- सुविधा का संतुलन।
- यदि व्यादेश के लिए ऐसी प्रार्थना स्वीकार नहीं की जाती है, तो वादी को एक गंभीर और भयानक हानि का सामना करना पड़ेगा।
यह एक ज्ञात और सदियों पुराना विवादित तथ्य है कि मिसालें (प्रीसिडेंट्स) आम तौर पर एक समान विचार नहीं रखती हैं और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार इसे बदला जा सकता है। इस प्रकार, दलपत कुमार बनाम प्रह्लाद सिंह, में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया था कि:
- विचाराधीन गंभीर विवाद इस प्रकार होना चाहिए कि राहत की संभावना न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत तथ्यों पर आधारित हो।
- न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए और यह कानूनी अधिकार प्रदान करना चाहिए।
- अधिक नुकसान को रोका जा सकता है और हानि और असुविधा के बीच तुलनात्मक कठिनाई है।
हालांकि आधार अनिवार्य हो सकते हैं और उनका प्रभाव समान हो सकता है, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि न्यायालय द्वारा उपयोग किए जाने वाले विवेक और भाषा का अधिक महत्व हो सकता है।
विर्निदिष्ट अनुतोश अधिनियम की धारा 38 के तहत, किसी भी दायित्व के उल्लंघन को रोकने के लिए स्थायी व्यादेश दिया जा सकता है :
- जब दायित्व का उल्लंघन करने के लिए विचार किया जाता है, जो अनुबंध के अस्तित्व से ही उत्पन्न होता है।
- प्रतिवादी वादी के संपत्ति के आनंद के अधिकार में बाधा उत्पन्न करता है या हस्तक्षेप करता है:
- प्रतिवादी वादी का ट्रस्टी है।
- इस तरह के आक्रमण के वास्तविक नुकसान का पता लगाने का कोई मानक (स्टैंडर्ड) नहीं है।
- पैसे के मामले में पता लगाने की कोशिश करने पर हस्तक्षेप से पर्याप्त राहत नहीं दिया जा सकता है।
- विशेष रूप से मामलों की बहुलता को रोकने के लिए व्यादेश आवश्यक है।
अंतरिम व्यादेश
इस तरह के व्यादेश या तो एक पक्षीय (एक्स पार्टे) आदेश के माध्यम से पारित किए जाते हैं या यदि प्रतिवादी को पूरी तरह से नहीं सुना गया, तो भी पारित किया जाता है। आमतौर पर यह देखा गया है कि:
- इस तरह के व्यादेश याचिकाकर्ता को हुई गंभीर क्षति के माध्यम से इस तरह से पारित किया जाता है कि केवल एक पक्षीय आदेश ही राहत दे सकता है।
- विवादित कार्य की सूचना न्यायालय द्वारा सूचित की जाती है।
- याचिकाकर्ता को “उबेरिमे फिडेई” (अत्यंत अच्छा विश्वास) के सिद्धांत का पालन करना चाहिए।
- आदेश अस्थायी प्रकृति का होता है।
व्यादेश की प्राथमिक स्थिति को आम तौर पर यथास्थिति (स्टेटस क्यो) के रूप में माना जाता है, अर्थात यथास्थिति में मामले का संरक्षण व्यादेश के लिए आदेश पारित करने का प्राथमिक कारण है।
व्यादेश एक न्यायसंगत उपाय है और इसलिए, इसे प्रदान करते समय शासी सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए। समानता के आवेदन का दावा करने के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि व्यादेश की मांग करने वाले व्यक्ति को साफ हाथों से आना चाहिए।
सिविल प्रक्रिया संहिता
एक वाद के विचार, अवधि और चरण, व्यादेश को प्रमुख रूप से निम्नलिखित वर्गीकृत किया जा सकता है:
- अस्थायी व्यादेश
- स्थायी व्यादेश
व्यापक वर्गीकरण के अलावा, जहां व्यादेश ऐसे आचरण (कंडक्ट) और निषेध (प्रोहिबिटरी) की बात करता है जो कि आचरण की अवधारणा (कॉन्सेप्ट ऑफ कंडक्ट) के खिलाफ हो, वहां व्यादेश अनिवार्य हो जाता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत, 1908 धारा 94 (c) एक अस्थायी प्रकृति के व्यादेश की बात करती है और धारा 151 कहती है कि किसी भी आदेश के अनुपालन के लिए व्यादेश देने की कोई सीमा या रोक नहीं है।
पक्षों के व्यवहार के प्रबंधन और भविष्य में कोई बदलाव होने पर संशोधन के लिए एक व्यादेश अधिक बार पारित नहीं किया जा सकता है।
उद्देश्य – यह समझा जा सकता है कि विवाद में संपत्ति को तब तक संरक्षित रखा जाना चाहिए जब तक कि संपत्ति के सभी दावों और अधिकारों पर न्यायालय द्वारा निर्णय और विश्लेषण नहीं किया जाता है। यह तब है जब व्यादेश की अवधारणा मूल्य रखती है और यथास्थिति बनाए रखना महत्वपूर्ण है। किसी भी संभावित हानि से बचने के लिए व्यादेश सुरक्षा की प्रकृति में है। इस प्रकार, यह पक्षों को एक सुरक्षात्मक राहत देता है।
व्यादेश की अवधारणा इस प्रकार उपयोगी है कि दो पक्षों के बीच के हितों में, जो परस्पर विरोधी हैं, को ध्यान में रखा जाता है, जबकि उनके समाधान का विश्लेषण न्यायालय द्वारा किया जाता है। यद्यपि इस अवधारणा के कई उपयोग हैं जैसे ‘संरक्षण’, ‘प्रबंधन’, ‘रखरखाव’ आदि, यह अंततः न्यायालय है जिसके पास अंतरिम व्यादेश (राहत) देने या नहीं देने का विवेक है।
रोक और व्यादेश के बीच अंतर
रोक में किसी घटना की स्थिति या घटना तब शामिल होती है जब एक न्यायाधीश अस्थायी रूप से कार्यवाही को रोकता है या न्यायिक कार्यवाही को निलंबित करता है। दूसरी ओर व्यादेश किसी भी कार्रवाई से किसी व्यक्ति की रोकथाम को संदर्भित करता है। रोक का आदेश अदालत द्वारा दिया जाता है और इसके लिए यह आवश्यक है कि जिस अदालत ने इसे दिया है उसे एक पक्ष को व्यादेश जारी करते समय इसे बताना चाहिए और यह जारी होने के तुरंत बाद लागू होता है।
व्यादेश को प्रभावित करने वाले सिद्धांत
आम तौर पर, जब कोई प्रतिवादी विवाद में संपत्ति के संबंध में वादी को हानि पहुंचाने की धमकी देता है या मजबूर करता है, तो न्यायालय एक अस्थायी व्यादेश देता है जो प्रश्न में विवादित कार्य की रोक को प्रभावित करता है। अस्थायी व्यादेश इस प्रकार, एक अस्थायी उपाय है जो विषय वस्तु की अस्तित्व में स्थिति को बनाए रखने या स्थिर करने के लिए दिया जाता है, न कि ऐसी स्थिति जो अतीत या भविष्य में थी।
अस्थाई व्यादेश तब दिया जाता है, जब इसे चाहने वाले व्यक्ति के पास ऐसा अधिकार होता है जो इस तरह के व्यादेश से लागू होने में सक्षम होता है। अधिकार का निर्णायक होना आवश्यक है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 39 नियम 3 अत्यधिक अत्यावश्यक परिदृश्य में एक पक्षीय अस्थायी व्यादेश पारित करने के लिए निर्धारित करता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह नियम अलग से दायर किए जाने वाले आवेदन के लिए प्रदान नहीं करता है, बल्कि आवेदन द्वि-पक्षीय व्यादेश आवेदन का एक हिस्सा होना चाहिए और आवेदक द्वारा इसे लागू करने के लिए तात्कालिकता दिखाई जानी चाहिए।
दिशानिर्देशों को संरक्षित करने के लिए सुरक्षा उपाय
- तात्कालिकता की उपस्थिति को स्पष्ट रूप से दिखाया जाना चाहिए और स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए।
- एक अस्थायी व्यादेश के अनुदान के तत्वों को या तो सिविल प्रक्रिया संहिता या विर्निदिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 द्वारा स्पष्ट रूप से सर्वोच्च न्यायालय के उदाहरणों में स्पष्ट रूप से दिखाया जाना चाहिए।
- इस तरह के आदेश को पारित करने के कारणों को न्यायालय द्वारा लिखित मैं बताया जाना चाहिए।
- अस्थायी व्यादेश प्रदान करने के लिए आवेदन के समर्थन में वादपत्र (प्लेंट), शपथ पत्र और दस्तावेजों के साथ नोटिस की तामील (सर्विस) करने का कर्तव्य हमेशा आवेदक का होगा। फिर आवेदक को आदेश के उसी दिन या अगले दिन नोटिस तामील करने का शपथ पत्र दाखिल करना होता है।
- नियम 3A के तहत, न्यायालय की ओर से यह अनिवार्य है कि उसके द्वारा एकपक्षीय आदेश पारित करने के बाद, 30 दिनों के भीतर द्वि-पक्षीय कार्यवाही जारी, संसाधित और निपटारा किया जाएगा और एक-पक्षीय आदेश की समाप्ति 30 दिन के बाद स्वचालित रूप से हट जाएगी लेकिन निर्धारित समय से आगे बढ़ाया जा सकता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 95 व्यादेश के कानून निर्धारित करती है और यह उस मुआवजे से संबंधित है जो अपर्याप्त आधार पर व्यादेश प्राप्त करने पर उपलब्ध कराया जाता है।
यदि अस्थायी व्यादेश दिया गया है और यदि :
- अदालत को ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा व्यादेश अपर्याप्त आधारों के लिए प्राप्त किया गया है।
- वादी का वाद विफल हो जाता है और पहली बार में इसे स्थापित करने का कोई उचित आधार नहीं था।
प्रतिवादी एक आवेदन कर सकता है और अदालत वादी द्वारा देय मुआवजे का अवॉर्ड दे सकती है क्योंकि वह उसे हुई प्रतिष्ठा की चोट के लिए उचित समझता है। परंतु यह भी कहा गया है कि न्यायालय ऐसी राशि का निर्णय नहीं करेगा जो न्यायालय के आर्थिक क्षेत्राधिकार (ज्यूरिस्डिकशन) से अधिक हो।
धारा 95 इस प्रकार, एक वैकल्पिक उपाय प्रदान करती है, न कि निवारक या सुरक्षात्मक उपाय। कानून के इस बिंदु को बैंक ऑफ इंडिया बनाम लक्ष्मीमणि दास और अन्य में विस्तृत किया गया है, जहां यह आयोजित किया गया था कि धारा 95 के तहत प्रदान किए गए चूक से एक नियमित मुकदमा वर्जित नहीं है और यदि एक आवेदन का निपटारा किया गया है, तो निपटाया गया आवेदन एक नियमित वाद के लिए वर्जित के रूप में कार्य करेगा। इसका मतलब यह है कि आवेदक को यह साबित करने में सक्षम होना चाहिए कि व्यादेश दाखिल करने का एक संभावित कारण था और यह भी साबित करना था कि प्रतिवादी का दुर्भावनापूर्ण मकसद था।
मोहिनी मिसर और अन्य बनाम सुरेंद्र नारायण सिंह और अन्य में, यह माना गया था कि केवल द्वेष के कारण, व्यादेश के लिए एक मुकदमा स्थापित नहीं किया जा सकता है। अस्थायी व्यादेश जो एक मुकदमे में दी गई है, न्यायालय द्वारा एक स्थायी व्यादेश के अनुदान से भंग हो जाती है।
निष्कर्ष
यह निर्धारित करने के लिए कि व्यादेश दिया जा सकता है या नहीं, तीन परीक्षण की पूर्ति की आवश्यकता है, अर्थात्:
- प्रथम दृष्टया मामले की उपस्थिति।
- वादी को अपूरणीय क्षति की घटना।
- सुविधा का संतुलन।
इस प्रकार, एक व्यादेश, चाहे वह अस्थायी हो या स्थायी, उसके विवाद को वर्गीकृत करने के लिए तीन परीक्षणों को लागू किया जाना चाहिए।
इस तरह का विश्लेषण महत्वपूर्ण है क्योंकि कारणों की रिकॉर्डिंग, न्यायसंगत उपाय, और नोटिस, जैसे कई पहलू अवधारणा की इस समझ पर आधारित हैं कि कब व्यादेश दिया जा सकता है, कब व्यादेश नहीं दिया जा सकता है।
व्यादेश की अवधारणा को समझने में सक्षम होने के लिए, अंतरिम आदेशों का पूर्व ज्ञान महत्वपूर्ण है। अवधारणाओं की दक्षता (एफिशिएंसी) और प्रभावकारिता का चित्रण किया गया है और हालांकि यह आमतौर पर मामले का फैसला करने के लिए न्यायालय का विवेक है, दिशा-निर्देश हमेशा पक्षों और आम लोगों को अवधारणा के सार को समझने और उसके अनुसार कार्य करने में मदद करते हैं।
संदर्भ
वेबसाइट्स
- For the Civil Procedure Code, Orders and Rules-https://www.wipo.int/edocs/lexdocs/laws/en/in/in056en.pdf
- For the aspects of Interim Orders and the Inherent Powers of the Court- http://mja.gov.in/Site/Upload/GR/Title%20NO.62(As%20Per%20Workshop%20List%20title%20no62%20pdf).pdf
- Temporary and Perpetual Injunctions, Nuances- https://blog.ipleaders.in/temporary-permanent-injunction/#:~:text=Order%2039%20(Rules%201%20to,rather%20than%20a%20permanent%20solution
- For a generalized view on the law of Injunctions in India- https://blog.ipleaders.in/all-about-the-law-of-injunction-india/
- For injunctions and Inherent powers of the Court- https://acadpubl.eu/hub/2018-120-5/3/213.pdf
लेख
- Anushka, Vipul Vinod- Dr. Ram Manohar Lohiya National Law University. Article titled “Effects of Injunctions granted on Insufficient rounds” on 2019-20. Last accessed on 27 Sep 2020.
- Puneet Garg, India: Law of Injunction: Temporary Injunction on 13 Aug 2013. Last accessed on 27 Sep 2020.
- Devaang Savla, Principles of Civil Procedure: Governance of Interim Remedies (Injunctions) on 8 Dec 2019. Last accessed on 27 Sep 2020.
किताब
- C. K. Takwani, Civil Procedure with Limitation Act, 1963. 8th Edn, 2017. Reprinted 2020.