आईटी एक्ट, 2000 के तहत ऑनलाइन डिफेमेशन और संबंधित कंट्रोवर्शियल प्रोविजन पर भारतीय कानून

0
1229
Information Technology Act
Image Source- https://rb.gy/18t2fi

यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की छात्रा Mehak Jain ने लिखा है। यह एक विस्तृत (एक्जॉस्टिव) लेख है जिसका उद्देश्य ऑनलाइन डिफेमेशन से निपटने के लिए कानूनों की लिस्ट बनाना है और स्पीच की स्वतंत्रता और ऑनलाइन डिफेमेशन के बीच के अस्पष्ट क्षेत्र (ग्रे एरिया) को संबोधित (एड्रेस) करना है। इस लेख का अनुवाद Sonia Balhara द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

दुनिया में इंटरनेट का इस्तेमाल अब बहुत अधिक होने लगा है। यह पहले से लोगों को कहीं ज्यादा करीब लाया है और संचार (कम्युनिकेशन) के सबसे अच्छे साधनों (टूल्स) में से एक रहा है। हालांकि, अधिक मात्रा में किसी भी चीज से खतरा होता है। अपराध, इंटरनेट पर भी चले गए हैं, और उनमें नुकसान पहुंचाने की विनाशकारी (डिस्ट्रक्टिव) क्षमता है। ऑनलाइन डिफेमेशन से तात्पर्य किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा (रेप्युटेशन) और छवि (इमेज) को नुकसान पहुंचाने के लिए इंटरनेट पर फैलाई जा रही डेफेमेट्री जानकारी से है। इंटरनेट की व्यापक (वाइड) पहुंच और बढ़ती लोकप्रियता (पॉपुलैरिटी) इस अपराध को पहले से कहीं ज्यादा हानिकारक बनाती है, और इस मुद्दे के खिलाफ सुरक्षा के रूप में वैधानिक (स्टेच्यूटरी) प्रावधान (प्रोविजंस) बनाए गए हैं।

ऑनलाइन डिफेमेशन फिजिकल डिफेमेशन से अलग है

आई.पी.सी में हाल के संशोधनों (अमेंडमेंट्स) ने ऑनलाइन डिफेमेशन को फिजिकल डिफेमेशन से अलग कर दिया है। ऐसा करने की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इंटरनेट के विकास ने भी इसे ऑनलाइन अपराधों के प्रचार का एक माध्यम बना दिया है।

डिफेमेशन

आई.पी.सी की धारा 499 डिफेमेशन को ऐसे शब्दों के रूप में परिभाषित करती है जो बोले गए या लिखे गए हैं, या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह (ग्रुप) की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किए गए या प्रकाशित (पब्लिश) किए गए संकेत या दृश्य (विज़िबल) प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) हैं। डिफेमेशन को दो भागों में विभाजित (डिवाइड) किया जा सकता है:

  • लिबेल: एक लिखित में दिया गया डेफेमेट्री बयान।
  • स्लेंडर: मौखिक रूप से दिया गया डेफेमेट्री बयान।

ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक इसे प्रकाशित नहीं किया जाता है, तब तक डेफेमेट्री बयान डिफेमेशन के अपराध की श्रेणी (कैटेगरी) में नहीं आता है। इस तरह के बयान का प्रकाशन अपराध का गठन (कॉन्सीट्यूट) करने के लिए आवश्यक है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे प्रिंट में होना चाहिए।

इसके अलावा, इस अपराध का गठन करने के लिए एक और महत्वपूर्ण तत्व यह है कि यह आरोप दूसरों की नजर में किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने और उसके नैतिक (मोरल) और बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) चरित्र को कम करने के इरादे से लगाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि A, B को चोर बताते हुए एक पत्र भेजता है, तो यह डिफेमेशन का गठन करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि दूसरों के अनुमान में उसकी प्रतिष्ठा को कोई नुकसान नहीं हुआ है। हालांकि, अगर A किसी पत्रिका में ऐसा बयान प्रकाशित करता है, तो यह B की सार्वजनिक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा और A डिफेमेशन के लिए उत्तरदायी (लाइबल) होगा।

ऑनलाइन डिफेमेशन

साइबर स्पेस में हो रहा डिफेमेशन ऑनलाइन है और साइबर डिफेमेशन है। यह तब होता है जब किसी कंपनी को बदनाम करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल एक माध्यम के रूप में किया जाता है। उदाहरण के लिए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक, व्हाट्सएप आदि पर किसी के बारे में डेफेमेट्री बयान पोस्ट करना, साइबर डिफेमेशन के अंदर आता है। दुर्भावनापूर्ण (मलीशियस) सामग्री वाले ई-मेल फैलाना, जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है, वह भी इस अपराध के अंदर आता है।

इंटरनेट की पहुंच और व्यापक प्रकृति ने मौद्रिक (इनएक्सहॉस्टिव) मूल्य में किए गए धन-संबंधी नुकसान का आकलन (अस्सेस) करना मुश्किल बना दिया है। इसके अलावा, पीड़ित पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है क्योंकि इंटरनेट पर हुई क्षति व्यापक (वाइडस्प्रेड) और अपूरणीय (इरेपरेबल) है।

दायित्व (लायबिलिटी)

दायित्व (लायबिलिटी) इस पर टिका है:

  1. डेफेमेट्री सामग्री के लेखक;
  2. इंटरमीडियरी का सेवा प्रदाता (प्रोवाइडर)। हालांकि, सेवा प्रदाताओं को इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 की धारा 79 द्वारा सुरक्षित किया जाता है, बशर्ते, वह केवल सामग्री की सुविधा के लिए जिम्मेदार होंगे और इसके संशोधन या शुरुआत में उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। इस धारा की सुरक्षा इस तथ्य के अधीन भी है कि सेवा प्रदाता संबंधित सरकार की अधिसूचना (नोटिफिकेशन) प्राप्त होने पर ऐसी सामग्री को हटा देंगे और मध्यस्थ (इंटरमीडियरी) दिशानिर्देशों (गाइडलाइन्स) की आवश्यकताओं का विधिवत (ड्यूली) पालन करेंगे।

ऑनलाइन डिफेमेशन के उदाहरण

आइए ऑनलाइन डिफेमेशन की अवधारणा (कांसेप्ट) को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण देखें। मान लीजिए, आपने फेसबुक पर एक स्टेटस पोस्ट करते हुए कहा कि B अपनी पत्नी को धोखा दे रहा है। यदि कथन सत्य है, तो यह डेफेमेट्री नहीं होगा। हालांकि, अगर कथन झूठा है, तो इसमें ऑनलाइन डिफेमेशन का गठन करने की सभी सामग्रियां हैं।

डिफेमेशन और फ्री स्पीच की तुलना

उसी उदाहरण को लेते हुए, मान लीजिए, यदि A ने लिखा था, “मुझे लगता है कि B अपनी पत्नी को धोखा दे रहा है”। इस मामले में, ऐसा प्रतीत होता है जैसे A केवल एक राय बता रहा है। हालांकि, मामले में डिफेमेशन की गंभीरता के आधार पर राय के बयान को तथ्य के बयान के रूप में माना जा सकता है। केवल “मेरी राय में” खंड के साथ राय को स्पष्ट करने से इसे ऑनलाइन डिफेमेशन के अपराध से छिपाने में मदद नहीं मिलती है।

भारत का संविधान अपने आर्टिकल 19(1)(a) में अपने नागरिकों को स्पीच और एक्सप्रेशन की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, यह उचित प्रतिबंधों (रेस्ट्रिक्शन्स) के अधीन है। अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता और दुर्भावनापूर्ण इरादे से बयान देने में काफी अंतर है। अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने की सुरक्षा, एक उचित प्रतिबंध के अंदर आती है।

क्या होगा यदि स्टेटमेंट आधी सच्ची हो?

बयान में आधी सच्चाई किसी को डिफेमेशन से नहीं बचाती है अगर बयान से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा में बाधा आती है। तथ्यों की जांच की जानी चाहिए और उसके बाद ही उसे पोस्ट किया जाना चाहिए। आधी जानकारी रखना हमेशा डिफेमेशन है। नेट पर क्या प्रसारित होता है, इस पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि सेंड बटन पर क्लिक करने के बाद वह वापस नहीं आता है।

ऑनलाइन डिफेमेशन पर भारतीय कानून

धारा 499, आई.पी.सी: डिफेमेशन की परिभाषा

यह धारा डिफेमेशन को परिभाषित करती है। जब कोई व्यक्ति, बोले गए या पढ़े जाने वाले शब्दों के माध्यम से, या संकेतों या प्रकाशित किए गए दृश्य के प्रतिनिधित्व से, किसी अन्य व्यक्ती को नुकसान पहुँचाने का इरादा रखता है या उसके पास यह मानने का कोई कारण होता है कि उसके इस कार्य से ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान हो सकता है, तो यह कहा जाता है कि उसने डिफेमेशन का अपराध किया है। डिफेमेशन एक से अधिक व्यक्तियों के लिए भी किया जा सकता है, जैसे की एक कंपनी या व्यक्तियों के समूह। 

इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 की शुरूआत के साथ, डिफेमेशन की परिभाषा के दायरे को विस्तृत किया गया था ताकि, इलेक्ट्रॉनिक रूप में “स्पीच” और “दस्तावेजों” को समायोजित (एकोमोडेट) किया जा सके।    

धारा 500, आई.पी.सी: डिफेमेशन के लिए सजा

यह धारा, डिफेमेशन के अपराध के लिए साधारण सजा का प्रावधान करती है जिसे 2 साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना या दोनों हो सकता है।

धारा 469, आई.पी.सी: फॉर्जरी, जब किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से की जाती है

इस धारा के तहत, कोई भी व्यक्ति जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के प्रयास के साथ कोई दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड बनाता है, तो उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जो 3 साल तक की हो सकतो है, और वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।

इससे पहले, “फॉर्जड दस्तावेज़  का इरादा” वाक्यांश (फ्रेज) मौजूद था। हालाँकि, आईटी एक्ट की शुरूआत ने इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को भी समायोजित करने के लिए इसमें संशोधन किया।

धारा 503, आई.पी.सी: आपराधिक धमकी

इस धारा के तहत, जो कोई भी किसी व्यक्ति को धमकी देता है, उसके मन में भय पैदा करने के उद्देश्य से, उसकी प्रतिष्ठा या संपत्ति को चोट पहुंचाने में दिलचस्पी लेता है या ऐसे व्यक्ति को अवैध रूप से कार्य करने को कहता है या ऐसे व्यक्ति को अवैध रूप से कार्य करने या किसी ऐसे कार्य को करने से रोकने के लिए मजबूर करता है जिसको करने के लिए वे कानूनी रूप से हकदार है, तो वह आपराधिक धमकी के अपराध का दोषी है। यह एक मृत व्यक्ति की प्रतिष्ठा को बाधित (हैंपर) करने के लिए भी खतरा है। प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए ई-मेल और संचार के अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का उपयोग, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के साधन के रूप में किया जा सकता है और यह इस धारा के दायरे में हैं।

आईटी एक्ट, 2000 की विवादास्पद धारा 66A

धारा 66A का उद्देश्य

आईटी एक्ट, 2000 की धारा 66A विशेष रूप से ऑनलाइन डिफेमेशन से संबंधित नहीं है। हालांकि, यह किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से या आपराधिक धमकी के लिए आपत्तिजनक (ऑफेंसिव) सामग्री भेजने को दंडनीय अपराध बनाता है। इसके अनुसार, यदि कोई व्यक्ति कंप्यूटर संसाधन (रिसोर्स) या उपकरण (डिवाइस) का उपयोग, खतरनाक और आपत्तिजनक या ऐसी जानकारी प्रसारित करने के लिए करता है जिसे वह जानता है कि वह झूठी है, लेकिन फिर भी इसे किसी गलत मकसद से इंटरनेट पर भेजता है या प्राप्तकर्ता (रेसिपिएंट) को उसके मूल (ओरिजिन) के बारे में धोखा देने के उद्देश्य से एक ई-मेल भेजता है, तो उसे कारावास से दंडित किया जा सकता है, जिसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है, साथ ही वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।

विवाद (कॉन्ट्रोवर्सी)

श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, महाराष्ट्र की दो लड़कियों ने, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार के कारण लॉकडाउन लगने के बारे में बात करने वाली एक पोस्ट पर अपनी टिप्पणियों (कमैंट्स) के कारण गिरफ्तारी के बाद, ठाणे पुलिस में इस धारा के खिलाफ पहली याचिका (पिटिशन) दायर की। उनकी गिरफ्तारी के कारण देश भर में साइबर कानून के इस्तेमाल को लेके व्यापक गुस्से और बहस का जन्म हुआ। फेसबुक पर ममता बनर्जी पर कैरिकेचर फॉरवर्ड करने की गिरफ्तारी के साथ इस तरह की और भी गिरफ्तारियां होती रहीं।

मुद्दा (इश्यू)

धारा के शब्दों में “परेशान करना, असुविधा, खतरा, बाधा, अपमान, चोट, आपराधिक धमकी, दुश्मनी, घृणा या दुर्भावना पैदा करने” के लिए झूठी सामग्री फैलाने का उल्लेख है। इस धारा का दायरा बहुत व्यापक है। यह हर चीज को शामिल करने का प्रयास करता है। हर गंभीर राय, जिसके लिए असहमति व्यक्त होगी, उसको ia धारा के तहत लाया जा सकता है। यह तर्क दिया गया था कि धारा की अधिकांश शर्तों को एक्ट में परिभाषित नहीं किया गया था और यह स्पीच और एक्सप्रेशन की स्वतंत्रता के लिए एक गंभीर खतरा है।

धारा को रद्द करना 

श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा को अमान्य करार दिया और 2015 में अस्पष्ट और खुले होने के कारण इसे रद्द कर दिया गया। उन्होंने धारा के व्यापक दायरे पर ध्यान दिया और सहमति व्यक्त की कि यह एक खतरा है और स्पीच और एक्सप्रेशन कि स्वतंत्रता के लिए “उचित प्रतिबंध” के रूप में कार्य करने से परे है।

शिकायत कहाँ दर्ज करें

साइबर क्राइम, जैसे ऑनलाइन डिफेमेशन इन्वेस्टिगेशन सेल में दायर किए जा सकते हैं, जो कि क्रिमिनल इन्वेस्टिगेशन सेल की एक शाखा (ब्रांच) है। इन सेल्स की शाखाएँ नई दिल्ली, तमिलनाडु, गुड़गांव, पुणे आदि जैसे विभिन्न शहरों में  हैं। वह उन सभी अपराधों से निपटते हैं, जिनका विषय साइबर स्पेस में अपराधों और कंप्यूटर, कंप्यूटर संसाधनों, इंटरनेट आदि अपराधों से संबंधित है। ऑनलाइन डिफेमेशन का दावा दायर करने से पहले, शिकायतकर्ता (कम्प्लेनेंट) को यह ध्यान में रखना चाहिए कि इन अपराधों को गंभीरता से लिया जाता है और उनकी प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगाया जाता है। सबूत का भार शिकायतकर्ता पर होता है और यदि वे अपराध को स्थापित करने में सक्षम नहीं होते हैं, तो प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) डिफेमेशन और नुकसान के लिए प्रतिवाद (काउंटर सूट) दायर कर सकता है।

ऐतिहासिक निर्णय

एस.एम.सी न्यूमेटिक्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड बनाम जोगेश क्वात्रा के मामले में, एक असंतुष्ट कर्मचारी, ने अपने बाकी नियोक्ताओं के साथ-साथ कंपनी की सहायक कंपनियों को पूरी दुनिया में, कंपनी और मैनेजिंग डायरेक्टर की प्रतिष्ठा को बाधित करने के इरादे से अश्लील (ऑब्सेने), डिफेमेट्री, आपत्तिजनक और अपमानजनक ई-मेल भेजे। दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा कर्मचारी को शारीरिक और साइबर डिफेमेशन दोनों में शामिल होने से रोकने के खिलाफ निषेधाज्ञा (इन्जंक्शन) जारी की गई थी।

सुहास कट्टी बनाम तमिलनाडु के मामले में, आरोपी ने याहू मैसेज ग्रुप में एक तलाकशुदा के बारे में अश्लील, और डिफेमेट्री सामग्री फैलाई। उसने फर्जी अकाउंट से जानकारी मांगने के लिए अपमानजनक ईमेल भी भेजे। आरोपी को धारा 469 के तहत संदेश पोस्ट करने के कारण उसे परेशान करने के लिए फोन आए और उसने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। आई.पी.सी की धारा 509 और आईटी एक्ट, 2000 की धारा 67 के तहत अपराधी का दोषी ठहराया गया था।

एक अन्य मामले में, टाटा संस बनाम टर्टल इंटरनेशनल, दिल्ली हाई कोर्ट ने डिफेमेशन के संदर्भ में “प्रकाशन” शब्द के अर्थ को दोहराया और माना कि यह इंटरनेट सहित सभी माध्यमों को अपनाता है। सिर्फ इसलिए कि इंटरनेट पर प्रकाशन कम समय में बड़े पैमाने पर पहुंचता है, यह नहीं बदलता और तब भी यह संचार का एक माध्यम ही रहता है। साइबर अपराधों के लिए निषेधाज्ञा तुरंत दी जानी चाहिए क्योंकि इसकी विशेषताओं जैसे कि इसकी आसान पहुंच और एक स्व-प्रकाशन (सेल्फ-पब्लिश्ड) प्रकृति, जो पीड़ित को अधिक नुकसान पहुंचा सकती है। इसलिए, नेट पर होने वाले अपराधों को नियंत्रित करने वाले कानूनों को एक माध्यम के रूप में अपनी अलग प्रकृति के कारण उचित रूप से परिभाषित और प्रतिष्ठित (डिस्टिंगुइश) किया जाना चाहिए।

अभी हाल ही में, स्वामी रामदेव और अन्य बनाम फेसबुक इंक और अन्य के मामले में, जस्टिस प्रतिभा सिंह ने बाबा रामदेव के खिलाफ सभी अपमानजनक सामग्री को हटाने का आदेश दिया, जिसे भारत में कंप्यूटर या कंप्यूटर संसाधन से अपलोड किया गया था। निर्णय बिना किसी क्षेत्रीय (टेरीटोरियल) सीमा के दिया गया था, और यदि जैसा कहा गया था, उस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो भारतीय कोर्ट्स के पास निषेधाज्ञा पास करने का अंतर्राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र (इंटरनेशनल ज्यूरिस्डिक्शन) होगा। फेसबुक ने इस फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में एक अपील दायर की, जिसमें कहा गया था कि भले ही वे जानते थे कि सामग्री का लेखक कौन था, वे मुकदमे के पक्षकार बनने के लिए उत्तरदायी नहीं थे। साथ ही, इस सामग्री ने बाबा रामदेव की छवि को कोई मजबूत या अपूरणीय क्षति (इररेपरबल लॉस) नहीं पहुंचाई थी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यह, अन्य कोर्ट्स में उन्हें दी गई प्रतिरक्षा (इम्यूनिटी) में हस्तक्षेप (इंटरफेर) करता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

लोगों को दी जाने वाली स्पीच और एक्सप्रेशन की स्वतंत्रता पर अंकुश (कर्ब) लगाने के लिए साइबर कानूनों का तेजी से उपयोग किया जा रहा है। क्या डिफेमेट्री है और क्या नहीं के बीच एक महीन (फाइन) रेखा है। कानून का सदुपयोग होना चाहिए, दुरुपयोग नहीं। डिफेमेशन के तुच्छ दावों को अलग कर देना चाहिए और कानूनों को स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि स्पीच की स्वतंत्रता पर अंकुश न लगे। यह समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है और जैसा कि धारा 66A के साथ किया गया है, अन्य साइबर कानूनों के दायरे को बड़ा किया जाना चाहिए और लगातार नुकसान से बचने के लिए मजबूत किया जाना चाहिए।

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here