यह लेख Subhashree S द्वारा लिखा गया है। इसमें हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य पर विस्तार से चर्चा की गई है जो सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के प्रावधान के संबंध में है। इसमें तथ्यों, मुद्दों, पक्षों की दलीलों और फैसले पर चर्चा की गई है। यह फैसले का मुद्दों के आधार पर विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
कानून में, दो प्रतिस्पर्धी (कंपीटिंग) सिद्धांत हैं- ” डुबियो प्रो रेओ” जिसका अर्थ है कि, जब संदेह हो, तो न्यायाधीश को आरोपी के पक्ष में फैसला देना चाहिए और “ज्यूडेक्स डैमनाटर कम नोसेन्स एब्सोलविटर” जिसका अर्थ है कि “न्यायाधीश की निंदा की जाती है जब एक दोषी व्यक्ति को बिना सजा दिए छोड़ दिया जाता है”। ये कहावतें न्याय सुनिश्चित करने की जटिलताओं को रेखांकित करती हैं और विधायिका के साथ-साथ न्यायपालिका से संतुलन बनाने और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के प्रयासों की मांग करती हैं और इस प्रकार, यह भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20 के तहत प्रदान किए गए संवैधानिक जनादेश (मैंडेट) जो अपराधों के लिए सजा के संबंध में व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है और अनुच्छेद 21 जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के बारे में बात करता है, को बनाए रखने के लिए है।
इसलिए, इसे ध्यान में रखते हुए, विधायिका ने न्याय सुनिश्चित करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (इसके बाद सी.आर.पी.सी. के रूप में संदर्भित) की धारा 319 को शामिल किया। न्यायपालिका ने ‘ज्यूडेक्स डैमनाटर कम नोसेन्स एब्सोलविटर’ सिद्धांत की सहायता से सी.आर.पी.सी. की धारा 319 की रचनात्मक व्याख्या की ओर हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य के प्रमुख मामले में आपराधिक न्याय को बनाए रखने के लिए इसके दायरे और प्रायोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) पर चर्चा की।
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का इतिहास
1898 की दंड प्रक्रिया संहिता (इसके बाद पुरानी संहिता के रूप में संदर्भित) में, सी.आर.पी.सी. की धारा 351, 1978 की धारा 319 के अनुरूप थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि विधि आयोग, 1970 की सिफ़ारिश, 48वीं रिपोर्ट के कारण पुरानी संहिता की धारा 351 को नई 1978 संहिता में व्यापक बनाया गया था।
कुछ सिफ़ारिशें इस प्रकार हैं:-
- सबसे पहले, सी.आर.पी.सी., 1898 की धारा 351 के तहत एक मजिस्ट्रेट आरोपियों के अलावा अन्य व्यक्तियों को भी बुला सकता है यदि सबूत उक्त अपराध के साथ उनका संबंध दिखाते हैं। लेकिन एक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को सम्मन कर सकता है और कार्यवाही में शामिल कर सकता है, केवल तभी जब वह व्यक्ति अदालत में उपस्थित हो। इसलिए, यदि कोई व्यक्ति अदालत में उपस्थित नहीं है तो इसके बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इसलिए, प्रावधान को व्यापक बनाने के लिए, इसे जोड़ने की सिफारिश की गई थी।
- दूसरा, धारा 315 के तहत, अभियुक्त के शामिल होने पर मामले का संज्ञान लेने की मजिस्ट्रेट की शक्ति का निपटारा किया गया। लेकिन संज्ञान (कॉग्निजेंस) कैसे लिया जाएगा, इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है। पुरानी संहिता की धारा 190 व्यापक रूप से संज्ञान लेने का एक तरीका प्रदान करती है, जो आगे इस सवाल को जन्म देती है कि धारा 351 के तहत संज्ञान कैसे लिया जाना चाहिए, या तो धारा 190(1) को लागू करके, या केवल उसी तरीके से जैसे अभियुक्त के लिए लिया जाता है। यह बात इसलिए जरूरी हो जाती है, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में जांच और विचारण (ट्रायल) के अलग-अलग तरीके अपनाए जाते हैं।
विधि आयोग ने सिफारिश की कि ऐसा लगता है कि इस विशेष प्रावधान का मुख्य उद्देश्य यह है कि मामले को सभी ज्ञात संदिग्धों के साथ शीघ्र और सुविधाजनक तरीके से आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इसलिए नए जोड़े गए आरोपी का संज्ञान भी उसी तरह लिया जाना चाहिए, जिस तरह अन्य आरोपियों का लिया गया है।
इसलिए, इन सभी सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए, सी.आर.पी.सी., 1978 में एक प्रावधान धारा 319 का मसौदा तैयार किया गया, जिसमें कहा गया है कि:-
- किसी अपराध की जांच या सुनवाई के दौरान, यदि साक्ष्य के माध्यम से अदालत को यह स्पष्ट हो जाता है कि आरोपी के अलावा अपराध में अन्य व्यक्ति भी शामिल हैं, तो अदालत आगे बढ़ सकती है और आरोपी के साथ-साथ दूसरे व्यक्ति पर भी मुकदमा चला सकती है।
- यदि ऐसा कोई व्यक्ति अदालत में उपस्थित नहीं होता है तो परिस्थितियों के अनुसार उसे सम्मन किया जा सकता है या गिरफ्तार किया जा सकता है। हालाँकि, यदि वह अदालत में उपस्थित होता है, तो उसे पूछताछ या अपराध की सुनवाई के उद्देश्य से हिरासत में लिया जा सकता है, भले ही उसे शुरू में गिरफ्तार किया गया हो या बुलाया गया हो।
- यदि अदालत किसी अपराध में आरोपी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को इस तरह शामिल करती है, तो अदालत को कार्यवाही शुरू करनी चाहिए, और गवाहों को नए सिरे से सुनना चाहिए। लेकिन अन्यथा, मामला ऐसे आगे बढ़ता है मानो उन्हें शुरू में आरोपी व्यक्ति माना गया हो।
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 पर इस स्पष्टीकरण के साथ, यह हमें धारा 319 के स्पष्ट दायरे और सीमा को समझने के लिए एक बिंदु पर लाता है, जिसे हरदीप सिंह मामले में हल किया गया है।
हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014)
मामले के तथ्य और पृष्ठभूमि
2008 में, एक आपराधिक मामला था जिसमें कई प्रतिवादी शामिल थे, जहां भूमि को पट्टे (लीज) पर देने के लिए नीलामी पंचायत द्वारा आयोजित की गई थी और अपीलकर्ता की बोली स्वीकार कर ली गई थी और पट्टा प्रदान किया गया था। 24 जून 2004 को, अपीलकर्ता जमीन की जुताई कर रहा था, आरोपी व्यक्ति घातक हथियारों के साथ वहां गए और अपीलकर्ता के साथ-साथ अभियोजन पक्ष के अन्य गवाहों को भी चोटें पहुंचाईं। इस प्रकार, एफआईआर दर्ज की गई और आरोपी पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) (अब, बीएनएस) की धारा 326 (खतरनाक हथियारों या साधनों से स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना), 336 (दूसरों के जीवन या व्यक्तिगत सुरक्षा को खतरे में डालना), 427 (नुकसान पहुंचाने वाली रिष्टि (मिस्चीफ)) के तहत आरोप लगाए गए। कई आरोपियों में से, 2 व्यक्तियों ने खुद को निर्दोष बताया और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक द्वारा जांच के बाद शुरू में उन्हें बरी कर दिया गया। मुकदमे के दौरान इन दोनों व्यक्तियों को आरोपी के रूप में शामिल करने के लिए सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था। इसे अदालत ने खारिज कर दिया और बाद में, अस्वीकृति में संशोधन की मांग करते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई। उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के फैसले को इस आधार पर बरकरार रखा कि उन लोगों के खिलाफ मामला चलाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने राकेश बनाम हरियाणा राज्य (2001) के मामले में निर्णयों के टकराव पर ध्यान दिया, जिसमें इस अदालत द्वारा यह माना गया था कि जमा किए गए सबूतों के आधार पर, हालांकि कोई जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) नहीं हुई, अगर सबूत किसी अपराध में व्यक्ति की मिलीभगत को दर्शाता है तो फिर व्यक्ति को जोड़ा जा सकता है। हालाँकि, मोहम्मद शफी बनाम मोहम्मद रफीक और अन्य (2007) के मामले में अदालत ने माना कि धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करने के लिए अदालत को जिरह पूरी होने तक इंतजार करना होगा। इसलिए यह मामला 2008 में सर्वोच्च न्यायालय की 3 जजों की पीठ को भेजा गया।
2011 में, तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि धरम पाल और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य (2013) में इसी मुद्दे को शामिल करते हुए संवैधानिक पीठ को भेजा गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि भले ही सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के चरण में लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि धारा केवल मुकदमे के बाद ही लागू की जा सकती है, लेकिन सीआरपीसी की धारा 193 की सहायता से, जहां यह सत्र अदालत को मुकदमे से पहले एक आरोपी को शामिल करने की अनुमति देता है, सत्र अदालत किसी अन्य व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए आगे बढ़ सकती है।
इसलिए इस मामले में तीन जजों की बेंच को लगा कि संवैधानिक पीठ को ही इस मुद्दे को सुलझाने देना उचित है। अंत में, मामला सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ को भेजा गया, जिसे हरदीप सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2014) के नाम से जाना जाता है। हरदीप सिंह मामले के साथ, समान मुद्दों वाले 9 अन्य मामलों को भी जोड़ दिया गया। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत अदालतों के लिए पूछताछ या मुकदमे के दौरान किसी भी व्यक्ति को आरोपी के रूप में दोषी ठहराने की शक्तियों का दायरा और सीमा क्या है।
उठाए गए मुद्दे
- किस चरण पर सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है?
- क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319(1) के तहत “साक्ष्य” शब्द का अर्थ केवल जिरह द्वारा परीक्षण किए गए साक्ष्य होंगे या इसमें मुख्य परीक्षण में गवाहों द्वारा दिए गए बयान भी शामिल होंगे?
- क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319(1) के तहत “साक्ष्य” शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में जांच के दौरान एकत्र किए गए साक्ष्य को शामिल करने के लिए किया जा सकता है या सीमित अर्थ में केवल परीक्षण के दौरान दर्ज किए गए साक्ष्य पर विचार करने के लिए किया जा सकता है?
- सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का प्रयोग करने के लिए किस चरण की संतुष्टि की आवश्यकता है?
- क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति उन लोगों को दी गई है जिनका नाम एफआईआर में नहीं है, या जिनका नाम एफआईआर में है और आरोप पत्र में नहीं है, या जिन्हें बरी कर दिया गया है?
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता
- अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि माननीय विचारण न्यायालय का फैसला और माननीय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का फैसला, जिसने उत्तरदाताओं को आरोपी के रूप में शामिल करने को खारिज कर दिया, पूरी तरह से गलत है क्योंकि आरोपियों के खिलाफ घटना में उनकी भागीदारी और उनके पास हथियार थे दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं और निर्णय को अमान्य माना जाना चाहिए क्योंकि यह अन्याय का मार्ग प्रशस्त करता है।
- अपीलकर्ताओं ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 पर प्रकाश डाला और तर्क दिया कि अगर जांच के दौरान सबूत सामने आते हैं तो किसी व्यक्ति को आरोपी के रूप में जोड़ा जा सकता है, भले ही उसका नाम एफआईआर में उल्लेखित न हो।
प्रतिवादी
- प्रतिवादी के वकील मुकदमे और उच्च न्यायालय के फैसले पर कायम रहे और एक प्रतिवादी को आरोपी के रूप में शामिल करने से बचने के लिए इसे बरकरार रखने का तर्क दिया। उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि ये निर्णय तथ्यों और कानूनों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद किए गए हैं, और इसलिए वैध और न्यायसंगत हैं।
- उत्तरदाताओं ने तर्क दिया कि प्रतिवादियों में से एक, विजय प्रीति सिंह, घटना स्थल पर पहुंचे यानी अपीलकर्ता की भूमि पर घटना के बाद ही जुताई हो रही थी, और इस प्रकार उन्हें इस मामले में आरोपी नहीं माना जा सकता है।
- इसके अलावा एक अन्य प्रतिवादी, जगतार सिंह के संबंध में, यह संतोष व्यक्त किया गया कि उसका नाम एफआईआर में नहीं था और जगतार सिंह के खिलाफ जांच से कोई सबूत नहीं मिला था और इस प्रकार उसे आरोपी के रूप में जोड़ने से इनकार करने का अदालत का आदेश सही था।
- अंततः, राज्य के वकील भी प्रतिवादी के तर्क के साथ सहमत हुए और अपील को खारिज करने का तर्क दिया।
मामले में अदालत का विश्लेषण
मुख्य मुद्दों की चर्चा में जाने से पहले, अदालत ने स्पष्ट रूप से 3 चीजों को संबोधित किया जो मुख्य मुद्दों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे हैं-
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत ‘अदालत’ का अर्थ
- सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने के लिए “अदालत” के दायरे में कौन आता है?
अदालत ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 में “अदालत” शब्द की व्याख्या करते हुए, सी.आर.पी.सी. की धारा 2(g) के साथ तुलना की, जो जांच को “मजिस्ट्रेट या अदालत द्वारा मुकदमे के अलावा अन्य जांच” के रूप में परिभाषित करती है। लेकिन धारा 319(1) में विधायिका ने विशेष रूप से केवल “न्यायालय” शब्द का उल्लेख किया है, मजिस्ट्रेट का नहीं। और यह स्पष्ट तथ्य है कि आपराधिक अदालत के पदानुक्रम (हायरारकी) में “न्यायालय” शब्द को सी.आर.पी.सी. की धारा 6 में परिभाषित किया गया है, जिसमें “सत्र न्यायालय, न्यायिक मजिस्ट्रेट, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट और साथ ही कार्यकारी मजिस्ट्रेट” शामिल हैं।
तो यह निष्कर्ष निकाला गया कि धारा 319(1) के तहत केवल सत्र न्यायालय या मजिस्ट्रेट की अदालत ही कर्तव्यों का पालन कर रही है क्योंकि सी.आर.पी.सी. के तहत एक अदालत धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग कर सकती है, कोई अधिकारी नहीं। इस प्रकार, धारा 2(g) अदालत को चल रहे मुकदमे के दौरान आरोपी को बुलाने की अनुमति देती है। हालाँकि, इसका प्रयोग केवल सी.आर.पी.सी. के तहत सक्रिय रूप से कार्य करने वाली अदालत द्वारा और मजिस्ट्रेट द्वारा किया जा सकता है जो अदालत के रूप में कार्य नहीं कर रहा है।
वे व्यक्ति जिनके विरुद्ध सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत सम्मन जारी किया जा सकता है
- ऐसे व्यक्ति पर आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए जो पहले से ही मुकदमे का सामना कर रहा हो।
- वह या तो सी.आर.पी.सी. की धारा 173 (जांच एजेंसियों के लिए जांच के समापन पर रिपोर्ट दर्ज करने के लिए नियम और प्रक्रिया निर्धारित करता है) के तहत आरोप पत्र में उल्लिखित व्यक्ति हो सकता है। इसमें वे विवरण भी शामिल हैं जिनके खिलाफ पुलिस को कोई मामला नहीं मिला, या कोई व्यक्ति जिसका नाम किसी भी सामग्री जिसपर अपराध का विचारण करने के उद्देश्य से विचार किया गया है, में अदालत के सामने खुलासा किया गया है, लेकिन अभी तक जांच नहीं की गई है।
- वह व्यक्ति जिसकी संलिप्तता (कंप्लीविट) अपराध के घटित होने में इंगित की गई हो।
क्या प्रतिबद्धता के स्तर पर अभियुक्तों को शामिल किया जा सकता है?
यह मुद्दा सिर्फ इस हरदीप सिंह मामले को स्पष्टता देने के लिए था, क्योंकि इस मुद्दे का जवाब इस अदालत द्वारा पहले ही धर्मपाल (सुप्रा) के मामले में एक संवैधानिक पीठ के साथ दिया जा चुका था।
धरम पाल (सुप्रा) के मामले में, इस अदालत ने किशुन सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य के निर्णयों में विरोधाभास को इंगित किया है और रणजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य और मामले को संवैधानिक पीठ को भेज दिया। किशुन सिंह (सुप्रा) मामले में इस अदालत ने पाया कि अदालत केवल सी.आर.पी.सी. की धारा 209 (जब अपराध विशेष रूप से सत्र अदालत के द्वारा विचारणीय हो तो मामले को उस को सौंपना) में संदर्भित आरोपियों से निपट सकती है सत्र अदालतों द्वारा सीआरपीसी की धारा 230 (अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख) में बताए गए चरण तक प्रतिबद्धता के चरण से लेकर कोई भी वृद्धि नहीं की जा सकती है। जबकि रंजीत मामले (सुप्रा) में, यह माना गया था कि सी.आर.पी.सी. की धारा 193 को लागू करके आरोपियों को अपराध के चरण में ही जोड़ा जा सकता है, और धारा 319 के चरण तक पहुंचने तक इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है।
धर्मपाल सिंह (सुप्रा) के मामले में, यह स्पष्ट किया गया कि दोनों निर्णयों को अलग-अलग प्रभाव दिया जाना था। कम गंभीर अपराध जिनकी सुनवाई मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है, सत्र न्यायालय के पास किसी भी समय आरोपी को शामिल करने की शक्ति होती है जब अदालत आरोपी के साथ उस व्यक्ति की मिलीभगत से संतुष्ट हो जाती है, लेकिन गंभीर अपराधों के लिए अदालत को तब तक इंतजार करना पड़ता है जब तक कि यह मामला सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के चरण तक न पहुंच जाए।
इसलिए, हरदीप सिंह के इस मामले में, अदालत ने राय दी कि वह उक्त मुद्दे पर ध्यान नहीं देगी क्योंकि इसका जवाब पहले ही 5 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया जा चुका है। हालाँकि, इसने स्पष्टता प्रदान की और कहा कि सी.आर.पी.सी. की धारा 193 में केवल सत्र अदालत के प्रतिबद्ध होने के बाद ही संज्ञान लिया जा सकता है और जहां तक धारा 319 की बात है तो यह एक सक्षम प्रावधान है और इस प्रकार धरमपाल सिंह मामले में चर्चा की गई स्थिति से निपटने के लिए कोई विरोधाभास नहीं है।
हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014) में निर्णय
इस मामले में, अदालत ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 की बारीकियों की व्याख्या और प्रायोज्यता पर गहराई से विचार किया और धारा 319 से जुड़े कई सवालों को स्पष्ट किया। यह माना गया कि धारा 319 को किसी भी स्तर पर लागू किया जा सकता है यदि ठोस सबूत अपराध में किसी व्यक्ति की संलिप्तता को प्रदर्शित करता है। इसके अलावा, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 319 के तहत साक्ष्य में न केवल जिरह शामिल है, बल्कि मुख्य परीक्षण के दौरान किए गए सबूत भी शामिल हैं। इसके अलावा, धारा में साक्ष्य शब्द का उपयोग सीमित अर्थ में किया जाता है, जिसमें केवल परीक्षण के दौरान साक्ष्य शामिल होते हैं। इसके अलावा, इस धारा के तहत शक्ति का प्रयोग करने के लिए अपराध के कमीशन में भागीदारी की संतुष्टि की आवश्यकता प्रथम दृष्टया से अधिक कठोर है लेकिन सजा के संबंध में निश्चितता से कम है।
एफआईआर या आरोप पत्र में नामित नहीं किए गए व्यक्तियों के संबंध में, अदालत ने कहा कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जो आरोपी नहीं है, जिसमें पुलिस जांच के दौरान राहत मिली व्यक्ति भी शामिल है, धारा 319 के तहत बुलाया जा सकता है, अगर मुकदमे के दौरान पेश किए गए सबूत उन्हें दोषी ठहराते हैं। निष्पक्षता सुनिश्चित करने और सत्ता के दुरुपयोग से बचने के लिए बर्खास्त किए गए व्यक्तियों को भी बुलाया जा सकता है।
मुद्दे के अनुसार निर्णय
अब, आइए एक-एक करके उन मुख्य मुद्दों पर गौर करें जिन्हें हरदीप सिंह मामले में निपटाया गया था।
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत किस स्तर पर शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है
इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, यह समझना कि धारा 139(1) में “जांच या परीक्षण की प्रक्रिया” का क्या अर्थ है, बाद में उठाए गए मुद्दे का उत्तर देगा।
इसलिए, अदालत ने इस बात पर विचार करते हुए कि किस चरण में धारा 319 लागू की जा सकती है, व्यापक रूप से उन अर्थों को समझा जो सी.आर.पी.सी. की धारा 319 में प्रयुक्त ‘पूछताछ’ और ‘परीक्षण’ शब्दों के कई निर्णयों से सुनिश्चित किए जा सकते हैं।
रघुबंस दुबे बनाम बिहार राज्य मामले का जिक्र करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संज्ञान अपराध के लिए लिया जाता है, अपराधी के लिए नहीं। इस प्रकार, अतिरिक्त अभियुक्त को सम्मन करना मजिस्ट्रेट का कर्तव्य बन जाता है। इसके अलावा धारा 2(g) के संदर्भ में अदालत ने कहा कि जांच का चरण आरोप पत्र दाखिल करने और अदालत द्वारा अभियोजन पक्ष द्वारा एकत्र की गई सामग्री पर विचार करने से शुरू होता है। अदालत ने मोली और अन्य बनाम इन केरल का हवाला देकर स्पष्ट किया कि पूछताछ मुकदमे की अग्रदूत (फोररनर) होगी, अदालत ने कहा कि यद्यपि “विचारण” शब्द परिभाषित नहीं है, यह पूछताछ से स्पष्ट रूप से अलग है। अदालत ने कॉमन कॉस बनाम भारत संघ और अन्य का हवाला दिया, जहाँ यह आयोजित किया गया था कि:-
- जहां तक सत्र न्यायालय की बात है तो सी.आर.पी.सी. की धारा 228 के तहत आरोप तय होने पर मुकदमा शुरू माना जाता है।
- वारंट मामलों के मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा सुनवाई: यदि मामला पुलिस रिपोर्ट पर शुरू हुआ, तो सुनवाई उस समय से शुरू मानी जाएगी जब सी.आर.पी.सी. की धारा 240 के तहत आरोप तय किए गए थे । हालाँकि, अन्य मामलों में जब सी.आर.पी.सी. की धारा 246 के तहत आरोप तय किए जाते हैं तो इसे शुरू हुआ माना जाएगा।
- सम्मन मामलों में, मुकदमा तब शुरू हुआ माना जाएगा जब मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने वाले या लाए गए आरोपियों से पूछा जाए कि क्या वे अपना दोष मानते हैं या धारा 251 के तहत उनके पास बचाव का मौका है।
उपरोक्त विश्लेषण से, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि आरोप तय करने के चरण में अदालत आरोपी को सूचित करती है कि उसके खिलाफ क्या मामला है, और इस प्रकार आरोप तय होने पर ही मुकदमा शुरू होता है। इसके अलावा सी.आर.पी.सी. की धारा 2 (g) का हवाला देते हुए, इसमें कहा गया है कि “पूछताछ” शब्द वह नहीं है जो जांच एजेंसी द्वारा की जाती है, बल्कि यह अदालत के समक्ष आरोप पत्र दाखिल करने के बाद की जाती है। इसके अलावा, यह निष्कर्ष निकाला गया कि धारा 319 में “क्रम” शब्द इंगित करता है कि धारा केवल उस अवधि के दौरान लागू की जा सकती है जब जांच शुरू हो गई है और मुकदमा चल रहा है।
इसलिए, एक बार जब अदालत के समक्ष आरोप पत्र दायर किया जाता है तो यह माना जाता है कि अदालत जांच के चरण में पहुंच गई है और जैसे ही आरोप तय हो जाते हैं तो यह माना जाता है कि मुकदमा शुरू हो गया है। इस प्रकार, धारा 319 में “क्रम” शब्द का उपयोग अदालत को सी.आर.पी.सी. की धारा 207 (आरोपी को पुलिस रिपोर्ट और अन्य दस्तावेजों की प्रति की आपूर्ति) और धारा 208 के चरण को छोड़कर, जांच के चरण से मुकदमे के समापन तक धारा को लागू करने की अनुमति देता है, क्योंकि इसका उद्देश्य केवल प्रक्रिया को गति देना है क्योंकि इस समय मजिस्ट्रेट केवल प्रशासनिक कार्य करता है। यह निष्कर्ष एस.डबल्यू.आई.एल लिमिटेड बनाम दिल्ली राज्य और अन्य (2001) मामले के संदर्भ में लाया गया है, जहां यह निष्कर्ष निकाला गया था कि एक बार प्रक्रिया जारी होने के बाद, यह न तो कोई जांच है और न ही मुकदमा है और इस प्रकार सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू नहीं किया जा सकता है।
शिकायत मामलों में, जो आपराधिक मामलों की श्रेणियों में से एक है, अदालत के सामने आने वाले सबूतों के आधार पर सी.आर.पी.सी. की धारा 319 लागू की जा सकती है। लेकिन धारा 319 के प्रयोजन के लिए मुकदमे के दौरान दर्ज किए गए साक्ष्य का उपयोग इन मामलों में केवल पुष्टिकारक के रूप में किया जा सकता है, क्योंकि अदालत के समक्ष कोई आरोपी मौजूद नहीं है।
इस प्रकार संक्षेप में, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को कार्यवाही के चरण के बजाय अपराध में अन्य व्यक्तियों की संलिप्तता दिखाने वाले साक्ष्य के आधार पर लागू किया जा सकता है।
क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319(1) के तहत “साक्ष्य” शब्द का अर्थ केवल जिरह द्वारा परीक्षण किए गए साक्ष्य होंगे या इसमें मुख्य परीक्षण में गवाहों द्वारा दिए गए बयान भी शामिल होंगे?
इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, अदालत ने बताया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के तहत साक्ष्य के रूप में क्या जाना जाता है और इस धारा के तहत कहा गया है कि साक्ष्य में मुद्दे के तथ्यों और दस्तावेजी साक्ष्य के संबंध में अदालत के समक्ष गवाहों के बयान शामिल हैं। अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान साक्ष्य हैं, इसलिए साक्ष्य में मुख्य रूप से परीक्षण में दिए गए बयान शामिल हैं। इसके अलावा, अदालत ने राकेश (सुप्रा) मामले का हवाला दिया, जहां यह माना गया था कि मुख्य रूप से परीक्षण में दिए गए बयानों पर विचार करते हुए, प्रथम दृष्टया अदालत की राय है कि व्यक्ति की अपराध में मिलीभगत है, तो वह सी.आर.पी.सी. की धारा 319 लागू कर सकती है। हालाँकि कोई जिरह शुरू नहीं हुई है।
इसके अलावा, जब रणजीत सिंह (सुप्रा) का मामला संदर्भित किया गया था, अदालत ने कहा कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए पूरे सबूत एकत्र होने तक इंतजार करना जरूरी नहीं है।
इसके अलावा, अदालत ने माना कि इस अदालत ने मोहम्मद शफ़ी (सुप्रा) के मामले के फैसले को गलत पढ़ा है। यह माना गया कि धारा 319 लागू करने के लिए अदालत की संतुष्टि आवश्यक है। संतुष्टि पाने के लिए अदालत जिरह तक इंतजार कर सकती है और यह गैरकानूनी नहीं है। और अदालत यह नहीं मानती कि अदालत को सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए जिरह तक इंतजार करना चाहिए।
सभी विविध राय पर विचार करने के बाद, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मुख्य रूप से परीक्षण में दर्ज किए गए बयान रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाते हैं और इसका खंडन कहां किया जा रहा है या नहीं, यह निर्णय के समय विचार का विषय नहीं बनता है। इसके बावजूद, यह वह सबूत है, जिसके आधार पर अगर अदालत को मिलीभगत यानी किसी गलत काम में शामिल होने का पता चलता है, तो वह उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। इसके अलावा, यह माना गया कि ऐसा कोई सीधा-सीधा फार्मूला नहीं है जो किसी राय पर पहुंचने के लिए पूर्व शर्त के रूप में निर्धारित किया गया हो कि व्यक्ति की मिलीभगत है, इसलिए भले ही मजिस्ट्रेट ने मुख्य परीक्षण के सबूतों के आधार पर भी आश्वस्त कर लिया हो, वह सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग कर सकता है
चूंकि धारा में “मुकदमा चलाया जाना चाहिए” के स्थान पर “ऐसे व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जा सकता है” शब्द का उपयोग किया गया है, इसलिए धारा 319 को लागू करने के लिए मुख्य परीक्षण और जिरह करके और फिर पहुंचने के लिए लघु-परीक्षण आयोजित करने की आवश्यकता नहीं है। इस निर्णय पर कि उस व्यक्ति को शामिल किया जाए या नहीं।
क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319(1) के तहत “साक्ष्य” शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में जांच के दौरान एकत्र किए गए साक्ष्य को शामिल करने के लिए किया जा सकता है या सीमित अर्थ में केवल परीक्षण के दौरान दर्ज किए गए साक्ष्य पर विचार करने के लिए किया जा सकता है?
इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 की जांच की, जो साक्ष्य का अर्थ बताती है, तदनुसार साक्ष्य का अर्थ है और इसमें निम्नलिखित शामिल है;
- अदालत के समक्ष गवाहों द्वारा दिए गए सभी बयान जांच के तहत तथ्य के मामले से संबंधित होते हैं, जिन्हें मौखिक साक्ष्य के रूप में जाना जाता है
- ई-रिकॉर्ड सहित निरीक्षण के उद्देश्य से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले सभी दस्तावेज़ दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में जाने जाते हैं।
परीक्षण के बाद अदालत ने महालक्ष्मी ऑयल मिल्स बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 1988 आदि जैसे मामलों का जिक्र करते हुए कहा कि परिभाषा प्रकृति में व्यापक है, क्योंकि “साधन और शामिल” शब्द का उपयोग किया जाता है जो इस तथ्य को इंगित करता है कि यह एक पूर्ण परिभाषा है।
इसके अलावा, अदालत ने लोक राम बनाम निहाल सिंह और अन्य, 2006 के मामले का उल्लेख किया, जहां यह माना गया था कि, भले ही व्यक्ति का नाम एफआईआर और आरोप पत्र में उल्लेखित नहीं है, लेकिन अगर अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए गए साक्ष्य संबंध के अस्तित्व को दर्शाते हैं जिस व्यक्ति पर अपराध है, तो उस व्यक्ति को भी आरोपी के रूप में जोड़ा जा सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रस्तुत साक्ष्य आरोप पत्र और केस डायरी में उपलब्ध सामग्रियों पर आधारित नहीं होना चाहिए।
किशुन सिंह (सुप्रा) के मामले का आगे जिक्र करने पर, जहां यह माना गया कि धारा 319 (1) को पढ़ने पर यह स्पष्ट है कि केवल पूछताछ या परीक्षण के दौरान प्राप्त साक्ष्य से ही आरोपी को जोड़ा जा सकता है। यदि साक्ष्य से ऐसा प्रतीत हो कि उसने अपराध किया होगा, इसके अलावा, लाल सूरज उर्फ सूरज सिंह और अन्य बनाम झारखंड राज्य, 2008 का जिक्र करते हुए अदालत ने स्पष्ट किया कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए, आरोप तय करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा आवश्यक सभी सामग्रियों के साथ नए साक्ष्य विचार के लिए प्रस्तुत किए जाने चाहिए।
इस संदर्भ में, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्री का अधिकतम उपयोग साक्ष्य अधिनियम की धारा 157 के तहत प्रदान किए गए उद्देश्य के लिए किया जा सकता है, यानी गवाह के बयान की पुष्टि या खंडन करने के लिए। इस प्रकार, सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करने के लिए, केवल उन सामग्रियों का उपयोग किया जा सकता है जो पूछताछ या परीक्षण के दौरान अदालत के सामने आई हैं।
इसके अलावा, अदालत ने माना कि यद्यपि सख्त अर्थों में, पूछताछ के दौरान एकत्र की गई सामग्री एक सबूत नहीं है, बल्कि यह एक जानकारी है, लेकिन यह जानकारी अदालत के लिए अपराध में मिलीभगत जानने के लिए प्रथम दृष्टया संतुष्टि होगी। इस प्रकार, इसका उपयोग सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करने के लिए किया जा सकता है। यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केवल मुकदमे के दौरान एकत्र किए गए साक्ष्य का उपयोग सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए किया जा सकता है। संज्ञान की बात करने के बाद और मुकदमा शुरू होने से पहले अदालत को प्राप्त अन्य सभी सामग्रियों का उपयोग केवल पुष्टिकारक प्रकृति में किया जा सकता है, और इस प्रकार सी.आर.पी.सी. की धारा 319 में प्रयुक्त साक्ष्य शब्द सीमित अर्थ में है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का प्रयोग करने के लिए किस स्तर की संतुष्टि की आवश्यकता है?
इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, अदालत ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 में “प्रकट” शब्द पर प्रकाश डाला और कहा कि प्रकट शब्द का अर्थ है “समझ के लिए स्पष्ट”, या “साबित” का पर्याय नहीं होने पर निकट वाक्यांश। यह प्रमाण की तुलना में कम संभावना प्रदान करता है।
अदालत ने राम सिंह और अन्य बनाम राम निवास और अन्य, 1951 के मामले का हवाला दिया। अदालत ने निर्धारित किया कि किसी व्यक्ति पर संदेह करने की शर्त को पूरा करने के लिए उसने अपराध किया है, उसे धारा 319 के तहत असाधारण शक्ति का प्रयोग करने की अनुमति देने वाली असाधारण परिस्थितियों की उपस्थिति सुनिश्चित करनी चाहिए। इसमें यह आश्वस्त होना शामिल है कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों को, यदि चुनौती नहीं दी गई तो परिणाम दोषसिद्धि हो सकता है।
न्यायालय ने आगे कहा कि मामले का संज्ञान लेने के लिए प्रथम दृष्टया संतुष्टि की आवश्यकता होती है, लेकिन सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए संतुष्टि की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, राजेंद्र सिंह मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत आगे बढ़ने के लिए, अदालत को यह आश्वस्त होना जरूरी नहीं है कि व्यक्ति ने अपराध किया है, बल्कि उसका ऐसा होना ही काफी है। जिसके बाद भी यह न्यायालय का विवेक है क्योंकि धारा में ‘करेगा’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। सरबजीत सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य, 2021 का हवाला देकर इसे और भी पुष्ट किया जाता है, जिसमें अदालत ने कहा कि चूंकि धारा 319 निम्नलिखित सामग्रियों पर सशर्त है,
- इसे केवल “असाधारण मामले” में प्रयोग करना, और
- जिस संतुष्टि की आवश्यकता है वह प्रथम दृष्टया संतुष्टि से अधिक है।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि धारा 319 को लागू करने की प्रथा वास्तविक सच्चाई का पता लगाने के लिए है, हालांकि पलानीसामी गौंडर और अन्य बनाम राज्य, पुलिस निरीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व, 2003 पर भरोसा करके किसी व्यक्ति के खिलाफ सम्मन करने का कोई वैध आधार नहीं है।
इस प्रकार, अदालत ने माना कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 को लागू करने के लिए, प्रथम दृष्टया संतुष्टि की आवश्यकता अधिक है, लेकिन उससे कम होने पर यदि सबूतों का खंडन नहीं किया जाता है, तो निश्चित रूप से दोषसिद्धि हो जाएगी।
क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत शक्ति उन लोगों को दी गई है जिनका नाम एफआईआर में नहीं है, या जिनका नाम एफआईआर में है और आरोप पत्र में नहीं है, या जिन्हें बरी कर दिया गया है?
इस मुद्दे का उत्तर देने के लिए, अन्य निर्णयों के विभिन्न संदर्भ दिए गए। जोगिंदर सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य, 1979 में, सर्वोच्च न्यायालय ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 की भाषा के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि यह धारा सी.आर.पी.सी. की धारा 169 (साक्ष्य की कमी होने पर आरोपी की रिहाई) के तहत पुलिस द्वारा रिहा किए गए व्यक्तियों पर लागू नहीं होती है) और आरोप पत्र कॉलम 2 में सूचीबद्ध है जिसमें उन व्यक्तियों के नाम शामिल हैं जिनके खिलाफ पुलिस द्वारा जांच के बाद कोई मामला नहीं पाया गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह धारा “किसी भी व्यक्ति के आरोपी नहीं होने” को संदर्भित करती है, जिसमें ऐसे व्यक्ति भी शामिल हैं जो पहले आरोपी थे लेकिन बाद में रिहा हो गए हैं। इसके अलावा, यह निर्धारित किया गया था कि जांच के दौरान पुलिस द्वारा छोड़े गए व्यक्ति, फिर भी अपराध में सबूतों के आधार पर फंसाए गए है, सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत आते हैं।
इसके अलावा सुमन बनाम राजस्थान राज्य और अन्य, 2009 में, अदालत ने कहा कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 की भाषा में कोई बाधा नहीं है, जो अदालत को उस व्यक्ति के खिलाफ धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करने से रोकती है जिसका नाम एफआईआर या शिकायत में है, लेकिन जिनके खिलाफ कोई आरोप पत्र नहीं है। इसके अलावा, धर्म पाल (सुप्रा) मामले में संविधान पीठ ने व्याख्या की कि अदालत धारा 319 लागू कर सकती है और ऐसे व्यक्ति को बुला सकती है जिसका नाम एफआईआर और आरोप पत्र के कॉलम 2 में है लेकिन आरोप पत्र के मुख्य भाग में नहीं है।
बरी किए गए व्यक्तियों के संबंध में, अदालत ने यह रुख अपनाया कि बरी किए गए व्यक्तियों को अलग स्तर दिया जाना चाहिए क्योंकि वे पहले ही पूछताछ के चरण का सामना कर चुके हैं और अदालत ने जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्रियों के आधार पर उन्हें बरी कर दिया है। इसलिए, डिस्चार्ज किए गए व्यक्ति के खिलाफ गवाह के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है, अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गवाह केवल बदला लेने के लिए या किसी अन्य बाहरी उद्देश्य के लिए गवाही नहीं दे रहा है। सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद, यदि अदालत ने आरोप लगाया कि आरोपमुक्त किए गए व्यक्ति के खिलाफ सबूत मौजूद हैं, तो वह सीधे सी.आर.पी.सी. की धारा 319 लागू किए बिना, सी.आर.पी.सी. की धारा 398 (जांच का आदेश देने की शक्ति) के तहत आगे बढ़ सकती है। इसके अलावा, दिल्ली नगर निगम बनाम राम किशन रोहतगी और अन्य, 1982 का जिक्र करते हुए, अदालत ने कहा कि यदि अभियोजन किसी भी स्तर पर सबूत प्रदान करता है जो यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त है कि आरोपमुक्त किया गया व्यक्ति भी अपराध में शामिल होगा, तो सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के तहत न्यायालय संज्ञान ले सकता है।
इस प्रकार, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का प्रयोग ऐसे व्यक्ति के खिलाफ किया जा सकता है जो जांच का हिस्सा नहीं है, या आरोप पत्र के कॉलम 2 में नामित है, या बरी कर दिया गया है, बशर्ते कि बरी किए गए व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्यवाही सी.आर.पी.सी. की धारा 300(5) के साथ पठित धारा 398 को लागू किए बिना, सीधे धारा 319 के माध्यम से नहीं की जा सकती है।
निष्कर्ष
इस ऐतिहासिक फैसले में, अदालत ने सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के दायरे का विस्तार करके एक अधिक मजबूत और न्यायसंगत आपराधिक न्याय प्रणाली की दिशा में मार्ग प्रशस्त किया।
इसके अलावा, अदालत ने “ज्यूडेक्स डैमनटूर कम नोसेन्स एब्सोलविटूर” के सिद्धांत पर जोर दिया, जो सी.आर.पी.सी. की धारा 319 के सार को रेखांकित करता है। इसने वास्तविक गलत काम करने वाले को सजा सुनिश्चित करने और न्याय को कायम रखने की अदालत की जिम्मेदारी को रेखांकित किया। यह निर्णय अदालतों को अतिरिक्त आरोपी व्यक्तियों को बुलाने का अधिकार देकर एक संतुलन स्थापित करता है, साथ ही तुच्छ या प्रतिशोधी आवेदनों से सुरक्षा प्रदान करता है। संक्षेप में, यह निर्णय न्याय के सिद्धांत को बनाए रखने और कानून के समक्ष सभी व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए हमारी अदालतों के अटूट समर्पण का एक प्रमाण है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का दायरा क्या है?
यह धारा अदालत को मुकदमे या पूछताछ के दौरान किसी भी व्यक्ति को आरोपी के रूप में जोड़ने का अधिकार देती है, यदि अपराध में उनकी संलिप्तता दिखाने वाले सबूत हों। इस शक्ति का प्रयोग तब भी किया जा सकता है जब व्यक्ति का नाम एफआईआर या आरोप पत्र में उल्लेखित न हो।
क्या जांच के दौरान एकत्र किए गए सबूतों को धारा 319 के तहत माना जा सकता है?
हां, इस धारा में “साक्ष्य” शब्द व्यापक है और इसमें जांच चरण के दौरान एकत्र किए गए साक्ष्य भी शामिल हैं।
धारा 319 लागू करने के लिए किस स्तर की संतुष्टि की आवश्यकता है?
संतुष्टि प्रथम दृष्टया से अधिक और दोषसिद्धि के संबंध में निश्चितता से कम होनी चाहिए।
अगर किसी व्यक्ति का नाम एफआईआर में तो है लेकिन आरोप पत्र में नहीं, क्या कोई अदालत ऐसे व्यक्ति के खिलाफ धारा 319 लगा सकती है?
हां, अदालत सी.आर.पी.सी. की धारा 319 का प्रयोग एफआईआर में नामित व्यक्ति के खिलाफ कर सकती है, लेकिन आरोप पत्र में नहीं। लेकिन ऐसा करने के लिए, अपराध में व्यक्ति की संलिप्तता दर्शाने वाले ठोस सबूत होने चाहिए।
क्या बर्खास्तगी किए गए व्यक्ति के खिलाफ धारा 319 लगाई जा सकती है?
हां, यह किया जा सकता है। लेकिन आरोपमुक्त व्यक्ति के खिलाफ गवाह के बयानों पर अदालत द्वारा सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गवाह केवल बदला लेने या किसी अन्य बाहरी उद्देश्य के लिए गवाही नहीं दे रहा है।