गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990)

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यह लेख Clara D’costa द्वारा लिखा गया है। यह गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) के ऐतिहासिक मामले पर गहनता से चर्चा करता है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल पर लगाए गए खरीद कर की संवैधानिक वैधता को संबोधित किया था। लेख में उठाए गए मुद्दों, पक्षों द्वारा दिए गए तर्कों और न्यायालय के निर्णय, साथ ही इसके पीछे के तर्क की सावधानीपूर्वक जांच की गई है। यह मामला राज्य कराधान (टैक्सेशन) शक्तियों और मुक्त व्यापार (फ्री ट्रेड) और वाणिज्य (कॉमर्स) की संवैधानिक गारंटी के बीच संतुलन बनाता है। इस लेख का अनुवाद Himanshi Deswal द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें कर कानूनों की व्याख्या और केंद्रीय बिक्री अधिनियम, 1956 के तहत “बिक्री” की परिभाषा से संबंधित मुद्दों को संबोधित किया गया। यह मामला तब उठा जब टायर निर्माता गुडइयर इंडिया लिमिटेड ने हरियाणा राज्य द्वारा कुछ लेन-देन पर बिक्री कर लगाने को चुनौती दी, जिसके बारे में कंपनी ने तर्क दिया कि यह अधिनियम के तहत परिभाषित “बिक्री” नहीं है। अपने मूल में, यह मामला इस सवाल पर केंद्रित है कि क्या हरियाणा राज्य केवल राज्य से बाहर भेजे गए माल पर कर लगा सकता है, भले ही कोई वास्तविक बिक्री न हुई हो।

इस बहस ने सर्वोच्च न्यायालय को कानून के तहत “बिक्री” और “माल” की परिभाषा की विस्तृत जांच करने के लिए प्रेरित किया। न्यायालय का विश्लेषण केवल कानूनी परिभाषाओं की व्याख्या करने के बारे में नहीं था, बल्कि लेन-देन की प्रकृति और व्यापक विधायी इरादे (ब्रोडर लेजिस्लेटिव इंटेंट) को समझने के बारे में भी था। यह कर लगाने के राज्य के अधिकार को बनाए रखने और संभावित रूप से बोझिल राज्य विनियमों से अंतर-राज्यीय (इंटर-स्टेट) वाणिज्य की अखंडता (इंटीग्रिटी) की रक्षा करने के बीच संतुलन बनाने का कार्य था।

यह निर्णय, कर कानून की बारीकियों पर आधारित होते हुए भी, निष्पक्षता (फेयरनेस), संघवाद (फेडरलिस्म) के सिद्धांतों और भारत के कानूनी ढांचे के भीतर शक्ति के नाजुक संतुलन के बारे में बहुत कुछ कहता है। यह मामला इस बात की स्पष्ट याद दिलाता है कि कानूनी व्याख्याएं किस प्रकार आर्थिक परिदृश्य (इकोनॉमिक लैंडस्केप) को आकार दे सकती हैं और विधायी शक्तियों का स्पष्ट सीमांकन (डीमार्केशन) बनाए रखने का महत्व क्या है।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य
  • पक्षों का नाम:
  • याचिकाकर्ता: गुडइयर इंडिया लिमिटेड आदि
  • प्रतिवादी: हरियाणा राज्य और अन्य आदि
  • याचिका संख्या: 1985 की 1166-72
  • मामले का प्रकार: सिविल अपील
  • न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • न्यायपीठ: न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी, न्यायमूर्ति एस. रंगनाथन
  • निर्णय की तिथि: 19 अक्टूबर, 1989
  • समतुल्य उद्धरण (साइटेशन): 1990 एससीसी (2) 71, 1989 एससीआर सप्ल. (1) 510, 1989, जे.टी. 1989 (4) 229
  • चर्चा किए गए कानून:

मामले के तथ्य

गुडइयर इंडिया लिमिटेड (जिसे आगे अपीलकर्ता के रूप में संदर्भित किया जाएगा), हरियाणा के बल्लभगढ़ में अपने कारखाने में ऑटोमोबाइल टायर और ट्यूब के उत्पादन (प्रोडक्शन) और बिक्री में लगा एक पंजीकृत (रजिस्टर्ड) विक्रेता (डीलर) था। अपीलकर्ता नियमित रूप से हरियाणा राज्य के भीतर और बाहर से ऑटोमोबाइल टायर और ट्यूब के निर्माण के लिए आवश्यक कच्चे माल का स्रोत बनाता था। कंपनी हरियाणा राज्य के भीतर और बाहर दोनों जगह अपने माल का निर्माण और बिक्री करती थी। गुडइयर इंडिया लिमिटेड हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1973 और केंद्रीय राज्य अधिनियम, 1956 के तहत एक विक्रेता के रूप में पंजीकृत था। अपीलकर्ता अपने तिमाही (क्वार्टरली) रिटर्न को परिश्रमपूर्वक प्रस्तुत करेगा और कानून के नियम के अनुसार अपने करों का भुगतान करेगा।

हालाँकि, 1979 में, फरीदाबाद के मूल्यांकन प्राधिकरण (अस्सेस्सिन्ग अथॉरिटी) ने वर्ष 1973-1974 और उसके बाद वर्ष 1974-1975 और 1975-1976 के रिटर्न पर हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(b) के तहत खरीद कर लगाया। इसके अलावा, प्राधिकरण ने हरियाणा राज्य के बाहर भेजे जाने वाले किसी भी अन्य माल के निर्माण में प्रयुक्त माल पर भी कर लगाया। राजस्व (रेवेन्यू) अधिकारियों ने अन्य राज्यों में कंपनी के विभिन्न डिपो को भेजे जाने वाले निर्मित माल, अर्थात् ऑटोमोबाइल टायर और ट्यूब के प्रेषण (डिस्पैच) पर भी कर लगाया।

इसलिए अपीलकर्ता ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में विभिन्न रिट याचिकाएँ दायर करके खरीद कर लगाने को चुनौती दी। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 4 दिसंबर, 1982 को अपीलकर्ता के पक्ष में उक्त याचिका का निर्णय सुनाया। उच्च न्यायालय ने माना कि गुडइयर इंडिया लिमिटेड की राज्य के बाहर की अपनी शाखाओं को माल भेजना, हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(b) के तहत दिए गए अनुसार “बिक्री के अलावा किसी अन्य तरीके से माल का निपटान (डिस्पोज़ल)” नहीं माना जाता है।

उच्च न्यायालय ने माना कि उपर्युक्त धारा केवल निर्मित वस्तुओं के निपटान पर खरीद कर लगाने का प्रावधान करती है। हालाँकि, आक्षेपित अधिसूचना (नोटिफिकेशन) ने विक्रेता को माल भेजने मात्र को कर योग्य बना दिया। इससे एक नया कर सृजित (क्रिएट) हुआ, जो हरियाणा सामान्य विक्रय अधिनियम, 1973 की धारा 9 द्वारा अधिकृत (ऑथोराइज़्ड) नहीं था। इसलिए, इसे इस अधिनियम की धारा 9 के प्रावधानों के साथ विरोधाभासी (कंट्राडिक्टरी) और प्रतिकूल (कॉन्फ्लिक्ट) माना गया।

उच्च न्यायालय ने धारा 9 का हवाला दिया और निष्कर्ष निकाला कि शब्द “निपटान” एक विशेष शब्द नहीं था और इस प्रकार, वेबस्टर के तीसरे नए अंतर्राष्ट्रीय शब्दकोश और कॉर्पस ज्यूरिस सेकंडम (खंड 27) में इसकी परिभाषा को देखा। इस प्रकार यह निर्णय लिया गया कि “निपटान करना” या “निपटान” को केवल अपने पास माल भेजने के बराबर नहीं माना जा सकता। इसलिए, उच्च न्यायालय ने माना कि अधिसूचना धारा 9 के दायरे से बाहर है, जो केवल निर्मित वस्तुओं के निपटान पर खरीद कर की अनुमति देता है। चूंकि न्यायालय ने अपीलकर्ता के पक्ष में निर्णय दिया था, इसलिए मूल्यांकन वर्ष 1976-77 से 1979-80 के संबंध में, गुडइयर इंडिया लिमिटेड ने मूल्यांकन वर्ष 1973-74, 1975-76 और 1980-81 के लिए उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की, जिसमें मूल्यांकन को चुनौती दी गई।

उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि “राज्य के बाहर किसी स्थान पर माल भेजना, अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान बिक्री के अलावा किसी अन्य तरीके से” अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य में माल की खेप (कन्साइनमेंट) के बराबर है। यह अनुच्छेद 269(1)(h) और संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 1 की प्रविष्टि संख्या 92-B द्वारा सम्मिलित किया गया है। इसके कारण, इन खेपों पर बिक्री या खरीद कर लगाने का अधिकार, साथ ही किसी भी संबंधित मामले, केवल संसद के पास है। राज्य विधानमंडल के पास इन लेन-देन पर ऐसे कर लगाने का अधिकार नहीं है।

हरियाणा सामान्य बिक्री कर (संशोधन और विधिमान्यकरण (वेलिडेशन)) अधिनियम, 1983 ने हरियाणा सामान्य बिक्री कर, 1973 की धारा 9(1)(b) में संशोधन किया, जिसके तहत राज्य के बाहर माल की खेप पर खरीद कर लगाया गया और इस प्रकार, यह हरियाणा राज्य की विधायी क्षमता से परे था। इसलिए, इसे निष्क्रिय (इनऑपरेशनल) और शून्य (वोयड) घोषित किया गया। उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि 46वें संशोधन के बावजूद, राज्य के बाहर माल भेजने मात्र पर कर लगाने का प्रयास सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि संख्या 54 के दायरे में नहीं आता। उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि न तो कच्चा माल खरीदना और न ही उसे अंतिम उत्पाद में बदलना, खरीद कर को लागू करता है।

इन कार्यों को कर योग्य घटनाएँ नहीं माना जाता। अपीलकर्ता कंपनियों ने उच्च न्यायालय में रिट याचिकाएँ दायर कीं, जिसमें मूल्यांकन अधिकारी के आदेशों को चुनौती दी गई, जिसमें 2% का अतिरिक्त कर लगाया गया था। उन्होंने बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13-AA की वैधता पर भी सवाल उठाया, जिसके तहत यह अतिरिक्त कर लगाया गया था। कंपनियों ने तर्क दिया कि कच्चे माल पर 2% अतिरिक्त कर, जब उनका उपयोग करके तैयार माल राज्य से बाहर भेजा जाता है, अनिवार्य रूप से एक खेप कर है, जिसे लगाने का अधिकार राज्य विधानमंडल के पास नहीं है।

उच्च न्यायालय ने याचिकाओं को खारिज कर दिया। इससे व्यथित (अग्ग्रिवड) होकर अपीलकर्ता कंपनियों ने सर्वोच्च न्यायालय में संयुक्त याचिका (जॉइंट पेटिशन) दायर करके उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी। इसलिए, वर्तमान मामला सामने आया।

उठाए गए मुद्दे

इस मामले में उठाए गए मुद्दे, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ गुडइयर इंडिया लिमिटेड द्वारा की गई अपील के विषय-वस्तु पर आधारित थे। इस मामले में उठाए गए मुद्दे/प्रश्न इस प्रकार थे:

  1. क्या किसी विनिर्माता (मैन्युफैक्चरिंग) द्वारा राज्य के बाहर अपनी शाखाओं को माल भेजना, हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(b) के अंतर्गत कर योग्य घटना के रूप में आता है?
  2. हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(b) के तहत “बिक्री के अलावा किसी अन्य तरीके से माल का निपटान” वाक्यांश की सही व्याख्या क्या है और क्या यह एक ही निर्माता द्वारा राज्य के बाहर एक गोदाम (वेयरहाउस) से दूसरे गोदाम में माल के हस्तांतरण (ट्रांसफर) को सम्मिलित करता है?
  3. क्या बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13AA राज्य विधानमंडल की विधायी क्षमता से परे है और संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 301 का उल्लंघन है?
  4. क्या राज्य विधानमंडल को संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 54 के अंतर्गत यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी विनिर्माता द्वारा राज्य के बाहर अपनी शाखाओं को भेजे गए माल पर क्रय कर लगा सके?
  5. क्या बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13AA मूलतः सार और तत्व (वैध) है और क्या यह खरीद पर नहीं बल्कि खेप पर कर लगाती है?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

अपीलकर्ताओं के विद्वान वकील राजा राम अग्रवाल ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि कर लगाने से पहले सटीक कर योग्य घटना का निर्धारण करना आवश्यक है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि यदि यह साबित हो जाता है कि धारा 9(1)(b) के संशोधित प्रावधानों के अनुसार, राज्य के बाहर एक गोदाम से दूसरे गोदाम में माल भेजने या खेप भेजने पर कर लगाया गया था, तो यह राज्य के अधिकार से बाहर होगा।

अपीलकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि विचाराधीन खरीद कर का अधिरोपण (इम्पोजिशन), सूची II की प्रविष्टि 54 के तहत राज्य विधानमंडल की विधायी क्षमता से परे है। वकील ने आगे तर्क दिया कि इसने व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 301 का उल्लंघन हुआ है।

अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री राजाराम अग्रवाल ने तर्क दिया कि तमिलनाडु राज्य बनाम कंडास्वामी (1975) का मामला, जिसका हवाला श्री तेवतिया (प्रतिवादियों के वकील) ने दिया था, को उस विशिष्ट मुद्दे के संदर्भ में समझा जाना चाहिए, जिसे उसने संबोधित किया था। उस मामले में यह बात सामने आई कि क्या मद्रास उच्च न्यायालय का यह कहना सही था कि कर से छूट प्राप्त बिक्री को अभी भी कर के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है, और यदि ऐसा है, तो क्या छूट का मतलब यह है कि कर देय नहीं है। श्री अग्रवाल ने इस बात पर जोर दिया कि यदि कर योग्य घटना की पहचान की गई थी, तो यह इस धारणा पर आधारित थी कि यदि माल को कर का भुगतान किए बिना खरीदा गया और फिर राज्य बिक्री/खरीद कर से बचने के लिए उसका निपटान किया गया, तो यह सामान्यतः कर योग्य है और तमिलनाडु सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 7A के अंतर्गत कर के अधीन है।

प्रतिवादी

राज्य के विद्वान वकील तेवतिया ने एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरियाणा राज्य पंजाब राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया। परिणामस्वरूप, कर कानून का विधायी इतिहास हरियाणा और पंजाब दोनों द्वारा साझा किया जाता है। विद्वान वकील ने पंजाब में खरीद कर के विकास पर भी प्रकाश डाला, जिसे पूर्वी पंजाब सामान्य बिक्री कर (संशोधन) अधिनियम, 1958 द्वारा पेश किया गया था। इस अधिनियम ने धारा 2(f) के तहत “खरीद” को परिभाषित किया और माल के खरीदारों को शामिल करने के लिए “विक्रेता” की परिभाषा का विस्तार किया। विक्रेता, विशेष रूप से तिलहन की पेराई (क्रशिंग आयल सीड्स) में शामिल लोगों को कच्चे माल पर खरीद कर का भुगतान करना आवश्यक था और इस संशोधन के माध्यम से “कर योग्य कारोबार” शब्द को भी संशोधित किया गया था।

श्री तेवतिया ने तमिलनाडु राज्य बनाम कंडास्वामी (1975) के मामले में की गई टिप्पणियों का हवाला देते हुए मालाबार फ्रूट प्रोडक्ट्स कंपनी और अन्य बनाम बिक्री कर अधिकारी और अन्य (1972), के मामले में उठाए गए बिंदुओं को और पुष्ट किया, जहां केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पोटी ने निर्णय दिया था कि कर योग्य घटना माल की खरीद/बिक्री थी, न कि उनका प्रेषण।

उन्होंने आगे तर्क दिया कि शुरू में पंजाब ने विक्रेताओं को कच्चे माल पर खरीद कर का भुगतान करने से छूट दी थी, अगर वे राज्य के भीतर निर्मित और बेचे गए थे। इस छूट के पीछे का विचार राज्य के भीतर निर्मित और बेचे गए माल पर बिक्री कर के माध्यम से राज्य के राजस्व में वृद्धि करना था। हालांकि, विक्रेताओं ने इस शर्त से बचने के तरीके खोज लिए और इसलिए, इस संशोधन ने अनुसूची C में सूचीबद्ध वस्तुओं को खरीद कर के अधीन कर दिया, जिससे निर्माताओं के लिए कर छूट समाप्त हो गई। राज्य ने आगे तर्क दिया कि हरियाणा अधिनियम के तहत कोई कर देय नहीं था, जब माल राज्य के बाहर निर्यात किया जाता था, चाहे अंतर-राज्यीय बिक्री या अंतरराष्ट्रीय निर्यात के माध्यम से। उन्होंने दावा किया कि कर देयता (लायबिलिटी) केवल तभी उत्पन्न होती है जब माल कुछ निर्दिष्ट डिपो, विशेष रूप से भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के लिए भेजा जाता है, जो अन्य राज्यों में स्थित हैं।

श्री तेवतिया ने अपने तर्कों में तमिलनाडु राज्य बनाम कंडास्वामी (1975) के मामले में इस न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों का उल्लेख किया, जिसमें उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सामान्य बिक्री कर अधिनियम, (1959) की धारा 7A पर विचार किया था।

राज्य के वकील ने केंद्रीय विक्रय अधिनियम, 1956 की धारा 9(1) के तहत प्रावधान को आगे समझाया, जो राज्य के भीतर माल की खरीद के लिए विक्रेताओं पर क्रय कर लगाता है, जब माल अनुसूची B में सूचीबद्ध नहीं होता हैं और उन्हें अनुसूची B के माल के उत्पादन में उपयोग किया जाता है, या यदि निर्मित माल राज्य के भीतर नहीं बेचा जाता हैं, अंतर्राज्यीय व्यापार या वाणिज्य में शामिल होता हैं, भारत के बाहर निर्यात किया जाता हैं, या यदि खरीदे गए सामान राज्य के बाहर निर्यात किया जाता हैं।  

आगे यह तर्क दिया गया कि कर योग्य घटना हरियाणा में माल की खरीद थी, जिसमें कुछ शर्तों के पूरा होने तक कर का भुगतान करने की बाध्यता (ऑब्लिगेशन) स्थगित थी। हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1974 की धारा 24 के तहत दिए गए एस.टी. फॉर्म में घोषणा प्रस्तुत करके विक्रेता द्वारा इसे टाला जा सकता है। आगे यह तर्क दिया गया कि यदि अधिनियम के केंद्रीय बिक्री कर की धारा 9 में उल्लिखित शर्तों को पूरा नहीं किया जाता है, तो कर दायित्व फिर से लागू हो जाता है। कर माल की खरीद पर था और यह सूची II की प्रविष्टि 54 के दायरे में आता था और राज्य विधानमंडल को संविधान के प्रावधानों के तहत खरीद कर लगाने का अधिकार था।

राज्य ने कहा कि कर कच्चे माल की खरीद पर लगाया गया था, न कि माल के निर्माण की प्रक्रिया पर। राज्य की विधायी मंशा और भाषा ने स्पष्ट रूप से कहा कि कर राज्य की विधायी शक्तियों के अनुरूप है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि धारा 9(1)(c) में कहा गया है कि राज्य के बाहर निर्यात पर कोई कर देय नहीं है। हालांकि, दूसरे राज्य में डिपो को भेजे गए माल पर कर लगाया जाता है।

राज्य ने तर्क दिया कि अधिनियम के विभिन्न भागों, विशेषकर धारा 13AA के अंतर्गत वस्तुओं को राज्य के भीतर पुनर्विक्रय (रिसेल) को प्रोत्साहित करने तथा कर चोरी को रोकने के उद्देश्य से उचित ठहराया गया था।

श्री ढोलकिया ने तर्क दिया कि अधिनियम मुख्य रूप से खरीद पर कर लगाता है, न कि माल की खेप पर। उन्होंने अपनी बात के समर्थन में कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी (1978) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णय का हवाला दिया। इस मामले में, न्यायालय ने ऐसे करों की प्रकृति को स्पष्ट किया। श्री ढोलकिया ने इस बात पर जोर दिया कि अधिनियम की धारा 13-AA, विशेष रूप से निर्मित वस्तुओं की खेप से संबंधित है। उन्होंने बताया कि इन निर्मित वस्तुओं के लिए धारा 13AA के तहत वास्तव में कोई कर नहीं लगाया जाता है, जो यह दर्शाता है कि कानून का ध्यान खेप पर कर लगाने पर नहीं है।

राज्य ने संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 54 के तहत कर लगाने के लिए कानून के अधिकार के बारे में अपनी दलीलों का बचाव किया। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि अन्य विधायिकाओं को सौंपे गए मामलों में हस्तक्षेप (इंटरफेरन्स) का मूल्यांकन सार (पिथ) और तत्व (सबस्टेंस) का सिद्धांत के तहत किया जाना चाहिए।

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) में शामिल कानून

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) के मामले में अंतर-राज्यीय व्यापार, वस्तुओं के कराधान, प्रक्रियात्मक अनुपालन और मौलिक अधिकारों के संरक्षण के संबंध में हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की संवैधानिकता, वैधता और अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) को निर्धारित करने के लिए इन कानूनी प्रावधानों और संवैधानिक लेखों का व्यापक रूप से उल्लेख किया गया था।

कानूनी मानदंडों और न्याय के सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित करने के लिए इन कानूनों और संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या के आधार पर तर्क और निर्णय तैयार किए गए।

बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13AA

धारा 13AA, बॉम्बे (अब महाराष्ट्र) राज्य के भीतर कराधान के उद्देश्य से वस्तुओं को वर्गीकृत करती है। यह वस्तुओं को दो श्रेणियों में विभाजित करती है- भाग I में वे वस्तुएं शामिल हैं जो राज्य के भीतर पुनर्विक्रय के लिए हैं, और भाग II में नए कर योग्य वस्तुओं के निर्माण में उपयोग की जाने वाली वस्तुएं शामिल हैं।

यह धारा अनुसूची C के भाग 1 के अंतर्गत उल्लिखित कुछ अघोषित वस्तुओं के लिए 2% क्रय कर निर्धारित करती है। यह कर पंजीकृत या गैर-पंजीकृत विक्रेताओं से खरीद पर उत्तरदायी विक्रेता या दलाल (कमीशन एजेंट) द्वारा भुगतान किया जाना है। यह तभी लागू होता है जब कर योग्य माल का निर्माण किया जाता है और उसे राज्य के बाहर भेजा जाता है। इसके अलावा, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह 2% खरीद कर, किसी भी अन्य खरीद या बिक्री कर के अतिरिक्त है जो भुगतान किया गया है या देय है।

चूंकि धारा 13AA वस्तुओं को उनके उपयोग के आधार पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत करती है, इसलिए इसका सीधा प्रभाव यह पड़ता है कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम के तहत वस्तुओं पर किस प्रकार कर लगाया जाता है, तथा इससे छूट और देयताएं प्रभावित होती हैं। वर्तमान मामले में, यह प्रावधान यह समझने के लिए प्रासंगिक था कि राज्य कानून के तहत कर उद्देश्यों के लिए वस्तुओं को किस प्रकार वर्गीकृत किया जाता है, जो संभावित रूप से गुडइयर इंडिया लिमिटेड की कर देनदारियों को प्रभावित करता है।

केंद्रीय राज्य अधिनियम, 1956 की धारा 3

धारा 3 यह परिभाषित करती है कि अंतर-राज्यीय बिक्री या खरीद क्या होती है, जो केंद्रीय बिक्री कर (सीएसटी) के आवेदन को निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह राज्य की सीमाओं के पार कर लगाने में स्पष्टता सुनिश्चित करता है। अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान बिक्री या खरीद होती है, यदि

  • माल को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाया जाता है, या
  • एक राज्य से दूसरे राज्य में माल के आवागमन के दौरान, माल के स्वामित्व के दस्तावेजों के हस्तांतरण से बिक्री या खरीद प्रभावित होती है।

इस धारा का उद्देश्य अंतर-राज्यीय बिक्री या खरीद के बारे में अस्पष्टता और विवादों को रोकना है। यह सीएसटी लगाने के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है और करदाताओं और कर प्रशासकों (टैक्स एडमिनिस्ट्रेटर्स) के लिए प्रक्रियात्मक स्पष्टता स्थापित करता है।

इस मामले में, धारा 3 यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण थी कि क्या गुडइयर के माल का हस्तांतरण अंतर-राज्यीय बिक्री के रूप में स्थानांतरित होता है और इस प्रकार, सीएसटी के अधीन होता है।

केंद्रीय राज्य अधिनियम, 1956 की धारा 9(1)

यह धारा उन परिस्थितियों को रेखांकित करती है जिनके तहत कर लगाया जाता है और पंजीकृत विक्रेताओं को बिक्री, निर्यात और विशिष्ट लेनदेन के लिए छूट दी जाती है। यह धारा राज्य की सीमाओं के पार बेचे जाने वाले माल की कर देयता निर्धारित करती है।

यह कहा गया है कि भारत सरकार अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान माल बेचने वाले किसी भी व्यापारी से कर लगाएगी और वसूल करेगी। जिस राज्य में यह वसूला जाएगा, वह वह राज्य है जहां से माल की आवाजाही शुरू हुई थी। पहली बिक्री के बाद, एक राज्य से दूसरे राज्य में माल की बाद की बिक्री के मामले में

  • यदि यह किसी पंजीकृत विक्रेता द्वारा किया जाता है, तो कर उस राज्य से एकत्र किया जाता है, जहां विक्रेता ने माल की खरीद के लिए आवश्यक फॉर्म प्राप्त किया होगा। 
  • यदि यह किसी अपंजीकृत विक्रेता द्वारा किया जाता है, तो कर उस राज्य से एकत्र किया जाता है, जहां बाद में बिक्री हुई थी।

धारा 9(1) के प्रावधान अनुच्छेद 269(1) के सिद्धांतों के अनुरूप हैं, जो अंतर-राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर करों को नियंत्रित करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि सीएसटी को इस तरह से लगाया जाता है कि कराधान की समानता और निष्पक्षता के संवैधानिक प्रावधानों का सम्मान किया जा सके।

यह धारा यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण थी कि गुडइयर लिमिटेड द्वारा माल का हस्तांतरण सीएसटी प्रावधानों के तहत छूट के लिए योग्य है या नहीं।

हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1974 की धारा 24(3)

धारा 24(3) में छूट और धनवापसी (रिफंड) का दावा करने के लिए आवश्यक घोषणाओं से संबंधित प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि करदाता कर लाभ को सही और कुशलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए प्रशासनिक नियमों का अनुपालन करें।

इस प्रावधान में कहा गया है कि यदि कोई व्यापारी उप-धारा (1) के अनुसार कर का भुगतान किए बिना माल खरीदता है, तो उस माल का उपयोग उस उप-धारा में निर्धारित विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए। यदि व्यापारी ऐसा करने में विफल रहता है, तो उसे माल के खरीद मूल्य पर कर का भुगतान करना होगा। कर की दर अधिनियम की धारा 15 के तहत निर्धारित की जाएगी। यदि माल पहले से ही इस अधिनियम के किसी अन्य प्रावधान के तहत कर के अधीन है, तो इस धारा के तहत कर नहीं लगाया जाएगा।

इस धारा ने सीएसटी छूट और धनवापसी की प्रक्रिया में कर प्रशासन की दक्षता को बढ़ाया। इसने करदाताओं और अधिकारियों को दावों का समर्थन करने के लिए आवश्यक दस्तावेज और साक्ष्य उपलब्ध कराए, जिससे विवादों और देरी को कम किया जा सका।

वर्तमान मामले में, धारा 24(3) का संदर्भ यह आकलन करने के लिए दिया गया था कि क्या गुडइयर इंडिया लिमिटेड ने सीएसटी से छूट पाने या अपने अंतर-राज्यीय लेनदेन के लिए धनवापसी पाने के लिए इन प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का अनुपालन किया है।

(यह धारा अब हटा दी गई है।)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 269(1)

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि माल की बिक्री, खरीद या खेप पर कर भारत सरकार द्वारा लगाया और एकत्र किया जाता है। हालाँकि, 1 अप्रैल, 1996 को और उसके बाद ये कर खंड (2) के तहत निर्दिष्ट मामलों के संबंध में राज्य को सौंपे जाएँगे।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 301

अनुच्छेद 301 बिना किसी प्रतिबंध के पूरे भारत में व्यापार, वाणिज्य और माल की आवाजाही की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। इसका उद्देश्य व्यापार में बाधाओं को दूर करना और यह सुनिश्चित करके आर्थिक एकता को बढ़ावा देना है कि राज्यों में वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही पर कोई प्रतिबंध न हो।

न्यायालय अनुच्छेद 301 की व्याख्या उन कानूनों या विनियमों को खत्म करने के लिए करते हैं जो राज्यों के बीच व्यापार में बाधाएँ पैदा करते हैं, जब तक कि ऐसे प्रतिबंध संविधान के अन्य प्रावधानों, जैसे अनुच्छेद 304 के तहत उचित न हों।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 304(b)

अनुच्छेद 304(b) राज्यों को सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए अंतर-राज्यीय व्यापार पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है, साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि ऐसे प्रतिबंध व्यापार को अनुचित रूप से बाधित न करें। यह राज्यों की विनियामक शक्तियों (रेगुलेटरी पावर्स) को सुनिश्चित करने और राज्यों के बीच व्यापार में अनुचित बाधाओं को रोकने के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता है।

सार और तत्व का सिद्धांत

सार और तत्व का सिद्धांत संवैधानिक कानून में प्रयुक्त एक सिद्धांत है, जिसका उपयोग किसी कानून की वास्तविक प्रकृति को निर्धारित करने के लिए किया जाता है, तथा इसके आकस्मिक पहलुओं (इन्सिडेंटल आस्पेक्ट्स) के बजाय इसके मुख्य उद्देश्य और प्रभाव पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि यह कानून अधिनियमित करने वाले प्राधिकारी की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है या नहीं।

अनुच्छेद 245 विधायी शक्तियों को संघ और राज्य विधानमंडल के बीच विभाजित करता है। संसद पूरे भारत या उसके किसी भी हिस्से के लिए कानून बना सकती है, जबकि राज्य विधानमंडल पूरे राज्य या उसके किसी भी हिस्से के लिए कानून बना सकते हैं।

अनुच्छेद 246 उन विषयों को निर्दिष्ट करता है जिन पर संसद और राज्य विधानमंडल कानून बना सकते हैं। संसद के पास सातवीं अनुसूची (संघ सूची) में सूची I के अंतर्गत उल्लिखित मामलों से संबंधित कानून बनाने का विशेष अधिकार है। राज्य विधानमंडलों के पास सातवीं अनुसूची (राज्य सूची) में सूची II के अंतर्गत उल्लिखित मामलों से संबंधित कानून बनाने का विशेष अधिकार है। संसद और राज्य विधानमंडलों दोनों के पास सातवीं अनुसूची (समवर्ती सूची) में सूची III के अंतर्गत उल्लिखित मामलों से संबंधित कानून बनाने का अधिकार है।

ये प्रावधान सार और तत्व के सिद्धांत को प्रभावी बनाते हैं। वे कानून के उद्देश्य और विधायी क्षमता को निर्धारित करते हैं, जब यह संघ और राज्य सूचियों के बीच अतिव्याप्ति (ओवरलैप) होती है, तथा संवैधानिक व्याख्याओं का मार्गदर्शन करते हैं।

ये अनुच्छेद संघ और राज्य विधानमंडल की शक्तियों को अलग करते हैं और कानून की वास्तविक प्रकृति को निर्धारित करते हैं। सार और तत्व के इस सिद्धांत का उपयोग विधानमंडल की वास्तविक प्रकृति और क्षमता को निर्धारित करने के लिए किया जाता है जब वे उन मामलों पर कार्य करते हैं जो विधानमंडल के दोनों स्तरों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यह अधिकार के दायरे को स्पष्ट करता है और स्थापित करता है कि कौन से विषय सरकार के प्रत्येक स्तर के अनन्य (एक्सक्लूसिव) या समवर्ती (कंकररेंट) अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जिससे नए कानूनों की व्याख्या और अधिनियमन में सहायता मिलती है।

न्यायालय अनुच्छेद 245 और 246 के साथ-साथ सार और तत्व के सिद्धांत को लागू करते हैं, यह निर्धारित करने के लिए कि क्या कोई कानून अधिनियमित करने वाले प्राधिकरण की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है। इसमें यह आकलन करना शामिल है कि क्या कोई राज्य कानून संघ के लिए आरक्षित मामलों का अतिक्रमण करता है या नहीं या इसके विपरीत, यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक विधायी निकाय अपनी संवैधानिक रूप से परिभाषित सीमाओं के भीतर काम करता है।

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) में निर्णय

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य और अन्य (1990) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गुडइयर इंडिया लिमिटेड से जुड़े लेन-देन के लिए हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 के आवेदन पर निर्णय सुनाया। न्यायालय ने विश्लेषण किया कि क्या अधिनियम के तहत बिक्री कर लगाने से संवैधानिक प्रावधानों, विशेष रूप से अनुच्छेद 301 का उल्लंघन होता है, जो पूरे भारत में व्यापार, वाणिज्य और वस्तुओं की आवाजाही की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसने अधिनियम के तहत कर योग्य घटना को स्पष्ट किया, यह तय करते हुए कि यह बिक्री से संबंधित है या संपत्ति के हस्तांतरण से। न्यायालय ने बिक्री कर लगाने की वैधता को बरकरार रखा, बशर्ते कि यह बिना किसी उचित आधार के अंतरराज्यीय व्यापार को प्रतिबंधित न करे। निर्णय ने राज्य कराधान शक्तियों और आर्थिक स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी के बीच संतुलन पर जोर दिया, अंततः गुडइयर इंडिया लिमिटेड पर लागू बिक्री कर की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इसलिए, वर्तमान अपील खारिज कर दी गई।

निर्णय के पीछे तर्क

न्यायालय ने निर्णय सुनाते हुए कहा कि यह निर्धारित करना आवश्यक है कि विधानमंडल द्वारा लगाया गया कर वास्तविक है या नहीं। न्यायालय ने कहा कि इस मामले में हरियाणा विधानमंडल द्वारा दिया गया नामकरण (नोमेनक्लेचर) निर्णायक नहीं है और सभी पहलुओं का गहन अध्ययन करने के बाद ही इस पर निर्णय लिया जाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि राज्यों के बीच प्रेषण पर कर लगाया गया था। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सभी पहलुओं पर गहन विचार-विमर्श और संबंधित राज्यों के बीच आम सहमति के बाद माल कर लगाया गया है। दरों, छूट के अनुदान (ग्रांट ऑफ़ एक्सेम्पशन) और राज्यों के बीच आय के वितरण से संबंधित अनुपात (रेश्यो) पर विचार किया जाना चाहिए। हालांकि एक सहमत समाधान तक पहुंचने में समय लग सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि इस तरह के कर को विलंबित या निलंबित कर दिया जाना चाहिए। राज्यों को संभावित चोरी या राजस्व की कमी के कारण इस कर को लगाने की आवश्यकता का दावा नहीं करना चाहिए।

न्यायमूर्ति रंगनाथन ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय से सहमति व्यक्त की और आगे कहा कि इन अपीलों में उल्लिखित मुद्दे जटिल थे। उनकी टिप्पणियों के अनुसार, हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की धारा 9 और बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13AA खरीद कर लगाने के लिए प्रतीत होती है। हालाँकि, यह कर खरीद के बाद शुरू होता है, जब क्रेता या खरीदार कर योग्य वस्तुओं के निर्माण के लिए कच्चे माल के रूप में माल का उपयोग करता है, और निर्मित माल को बिक्री के माध्यम से नहीं, बल्कि राज्य के भीतर किसी स्थान पर ले जाता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कर कच्चे माल की खरीद मूल्य पर लगाया जाता है, न कि राज्य से बाहर भेजे गए तैयार माल के मूल्य पर।

न्यायमूर्ति रंगनाथन ने न्यायमूर्ति मुखर्जी से सहमति जताते हुए कहा कि आगे विचार करने के बाद यह उचित था कि मुद्दे में लगाया गया कर मानक खरीद कर (स्टैण्डर्ड परचेस टैक्स) से अलग है, क्योंकि यह विभिन्न श्रेणियों के सामानों पर लागू होता है। इसके अलावा, यह देखा गया कि उल्लिखित वस्तुओं की श्रेणी, एक ऐसी घटना से शुरू हुई थी जो माल की खरीद से संबंधित नहीं थी। यहाँ कर योग्य घटना निर्मित वस्तुओं की खेप है न कि माल की खरीद।

न्यायालय ने आगे इस बात पर सहमति व्यक्त की कि तमिलनाडु राज्य बनाम कंडास्वामी (1975) में दिए गए निर्णय में इस मामले में उल्लिखित विशिष्ट मुद्दों को संबोधित नहीं किया गया था, जिससे प्रतिवादियों की दलीलों को खारिज कर दिया गया।

न्यायालय ने अनुच्छेद 301 के महत्व पर भी जोर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति व्यक्त की कि ऐसे कर को लागू करना जो राज्य की सीमाओं के पार व्यापार के मुक्त प्रवाह को प्रभावी रूप से बाधित करता है, उसकी बारीकी से जांच की जानी चाहिए। अनुच्छेद 301 भारत के पूरे क्षेत्र में व्यापार, वाणिज्य और माल की आवाजाही की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो आर्थिक एकता में बाधा डालने वाले किसी भी प्रतिबंध को रोकने की आवश्यकता पर बल देता है। अनुच्छेद 304 (b) राज्यों को सार्वजनिक हित में व्यापार पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है, बशर्ते कि ये अंतर-राज्यीय वाणिज्य को अनुचित रूप से बाधित न करें। अनुच्छेद 269 (1) विशेष रूप से अंतर-राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर करों से संबंधित है, जिसका उद्देश्य राज्यों में कर संग्रह में एकरूपता और निष्पक्षता सुनिश्चित करना है।

वर्तमान मामले में, इन प्रावधानों की व्याख्या राज्य कर कानूनों के विरुद्ध सुरक्षा के लिए की गई थी, जो अंतरराज्यीय वाणिज्य पर बोझ डाल सकते हैं या अनुच्छेद 301 में निहित व्यापार की मौलिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकते हैं। न्यायालय ने राज्यों की वित्तीय स्वतंत्रता और आर्थिक एकता को बढ़ावा देने के राष्ट्रीय हित के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया।

न्यायालय ने आगे तर्क दिया कि, हालांकि कर के वास्तविक अधिरोपण में कुछ समय लग सकता है जब तक कि कोई स्वीकार्य समाधान नहीं मिल जाता, लेकिन देरी के कारण माल कर को निलंबित नहीं किया जा सकता। इसने उन्हें यह मानने के लिए प्रेरित किया कि कर को माल कर के रूप में घोषित किया जाता है, उसे उसी रूप में मान्यता दी जाती है। ऐसा करों की किसी भी चोरी को रोकने के लिए किया जाता है। न्यायालय ने यह देखा और निष्कर्ष निकाला कि ये संशोधन साबित करते हैं कि व्यापार में लोगों द्वारा वास्तव में बिक्री कर से बचने के प्रयास किए गए थे। उन्होंने स्थानीय स्तर पर खरीदे गए कच्चे माल से बने सामानों को राज्य के भीतर बेचने के बजाय, खेप के रूप में दूसरे राज्यों में भेजकर ऐसा किया, क्योंकि ऐसा करने पर कर देयता होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 के तहत कर प्रावधानों को असंवैधानिक करार देते हुए अमान्य कर दिया। न्यायालय ने राज्य कराधान शक्तियों को भारत भर में मुक्त व्यापार और वाणिज्य की संवैधानिक गारंटी के साथ संतुलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया, जिससे एकीकृत राष्ट्रीय बाजार के सिद्धांत को बरकरार रखा जा सके।

न्यायालय ने अपनी राय में कहा कि, श्री ढोलकिया ने सही तर्क दिया कि एक विशिष्ट तरीके से खातों को बनाए रखने की आवश्यकता, देयता उत्पन्न होने पर निर्धारण के लिए एक वैध मानदंड या साक्ष्य नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि कर बनाने वाले विशिष्ट कानूनों की व्याख्या ही कर का भुगतान करने की बाध्यता निर्धारित करने के लिए आवश्यक है। सार और तत्व के सिद्धांत के अनुसार, केरल राज्य विद्युत बोर्ड बनाम भारतीय एल्युमिनियम कंपनी (1975) और प्रफुल्ल कुमार मुखर्जी बनाम बैंक ऑफ कॉमर्स लिमिटेड एआईआर (1947) में भी यही कहा गया है।

इसलिए, न्यायालय ने इन कार्यवाहियों को असफल घोषित करते हुए हरियाणा सामान्य विक्रय अधिनियम, 1973 के तहत दंड के बारे में विवाद के संबंध में अपनी राय व्यक्त की।

मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 के विभिन्न प्रावधानों, विशेषकर “बिक्री”, “खरीद” की परिभाषा और अर्थ तथा खरीद या बिक्री कर लगाने की शर्तों के संबंध में, की व्याख्या करने के लिए अनेक उदाहरणों का हवाला दिया।

तमिलनाडु राज्य बनाम कंडास्वामी (1975)

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस मामले में दिया गया निर्णय इस विचार के लिए वारंट नहीं है कि एक गोदाम से दूसरे गोदाम में माल भेजना ही माल के निपटान के दायरे में आता है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह गारंटी नहीं देता कि ‘प्रेषण’ और ‘निपटान करना’ अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) का अर्थ समान है। बल्कि, माल का “निपटान” अभिव्यक्ति ‘प्रेषण’ अभिव्यक्ति से अलग और भिन्न है।

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि यह धारा कर वसूली और उपचारात्मक (रेमेडियल) प्रावधान दोनों के रूप में कार्य करती है, जिसका मुख्य उद्देश्य कर क्षरण (लीक) और चोरी को रोकना है। कानूनी प्रावधानों का विश्लेषण करते समय, उद्देश्य को विफल करने वाली व्याख्याओं से बचना चाहिए। यदि कई व्याख्याएं मौजूद हैं, तो सबसे प्रभावी और कार्यात्मक व्याख्या को चुना जाना चाहिए। इस बात पर जोर दिया गया कि कर कानूनों की व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए। इन कानूनों में इस्तेमाल किए गए शब्दों के अर्थ को बिना किसी धारणा के, अंकित मूल्य पर लिया जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि धारा 7A के शब्द उसके उद्देश्य के बारे में स्पष्ट नहीं थे और यह नहीं बताया कि कर योग्य घटना क्या है।

यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक कानूनी मिसाल केवल उस विशिष्ट निर्णय के लिए अधिकार के रूप में कार्य करती है, न कि किसी ऐसे निहितार्थ (इम्प्लिकेशन्स) के लिए जो तार्किक (लॉजिकली) रूप से अनुसरण कर सकते हैं। इस सिद्धांत का समर्थन क्विन बनाम लेथम (1901) और उड़ीसा राज्य बनाम सुधांशु शेखर मिश्रा (1967) के मामलों से भी होता है। इसलिए, कंडास्वामी मामले में दिया गया निर्णय वर्तमान मामले में कर योग्य घटना का निर्धारण करने के लिए धारा 9(1)(b) की व्याख्या करने पर सीधे लागू नहीं होता है।

बाटा इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1983)

बाटा इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1983) में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि राज्य के बाहर माल भेजना, अंतर-राज्यीय व्यापार के माध्यम से बिक्री के माध्यम से नहीं, माल की खेप के अंतर्गत आता है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 269(1)(h) और सातवीं अनुसूची की सूची 1 की प्रविष्टि संख्या 92-B के तहत परिभाषित किया गया है। इसका अर्थ यह है कि ऐसे प्रेषणों या खेपों तथा संबंधित मामलों पर बिक्री या खरीद कर लगाने का अधिकार केवल संसद के पास है, राज्य विधानसभाओं के पास नहीं।

इसलिए, हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(b), जिसे हरियाणा सामान्य बिक्री कर (संशोधन और मान्यता) अधिनियम, 1983 द्वारा संशोधित किया गया था, जो अंतर-राज्यीय व्यापार द्वारा राज्य के बाहर भेजे गए माल पर खरीद कर लगाती थी, को हरियाणा की विधायी क्षमता से परे होने के कारण शून्य माना गया। न्यायालय ने 19 जुलाई, 1974 की अधिसूचना और उसके तहत की गई कार्रवाइयों की पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) मान्यता को भी रद्द कर दिया।

उच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि किसी निर्माता द्वारा राज्य के बाहर केवल अपने लिए माल का निर्माण और प्रेषण करना संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि संख्या 54 के तहत बिक्री या निपटान नहीं माना जाता है। इस प्रकार, 46वें संशोधन से पहले और बाद में, अंतर्राज्यीय व्यापार द्वारा राज्य के बाहर निर्मित माल की मात्र खेप या प्रेषण पर कर लगाने का प्रयास, राज्य विधानमंडलों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, बल्कि अनुच्छेद 248 (विधान की अवशिष्ट शक्तियाँ) और सूची I की प्रविष्टि संख्या 97 के अनुसार संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है।

न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि न तो माल की मूल खरीद पर, और न ही केवल तैयार उत्पाद के रूप में उनके निर्माण पर ही क्रय कर लगता है। अधिनियम की धारा 9(1)(b) के तहत वास्तविक कर योग्य घटना राज्य के भीतर बिक्री के अलावा किसी भी अन्य तरीके से निर्मित वस्तुओं का निपटान है।

अतिबारी टी कंपनी लिमिटेड बनाम असम राज्य एवं अन्य (1960)

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले में अपने निर्णय में अतिबारी टी कंपनी लिमिटेड बनाम असम राज्य एवं अन्य (1960) के निर्णय का संदर्भ दिया। इस ऐतिहासिक निर्णय ने अंतर-राज्यीय व्यापार के संबंध में राज्य कराधान शक्तियों पर संवैधानिक सीमाओं के बारे में सिद्धांत स्थापित किए। यह पाया गया कि सभी कर अनुच्छेद 301 का उल्लंघन नहीं करते हैं, बल्कि केवल वे कर हैं जो सीधे और तुरंत वस्तुओं के अंतरराज्यीय हस्तांतरण में बाधा डालते हैं।

अतिबारी मामले का संदर्भ अनुच्छेद 301 की व्याख्या के संबंध में निर्धारित सिद्धांतों पर केंद्रित था। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि यद्यपि राज्यों को कर लगाने का अधिकार है, लेकिन ऐसे कानूनों से अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर अनुचित बोझ नहीं पड़ना चाहिए या उसमें बाधा नहीं डालनी चाहिए, जैसा कि संविधान द्वारा गारंटी दी गई है।

सर्वोच्च न्यायालय का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि गुडइयर मामले में बिक्री कर का अधिरोपण संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हो, विशेष रूप से अनुच्छेद 301 तथा आर्थिक स्वतंत्रता और अंतर-राज्यीय वाणिज्य पर इसके प्रभाव के संबंध में।

कल्याणी स्टोर्स बनाम उड़ीसा राज्य एवं अन्य (1966)

यह निर्धारित करने में कि क्या कोई प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत व्यापार या वाणिज्य की मुक्त आवाजाही पर प्रतिबंध लगाता है, सर्वोच्च न्यायालय ने, जैसा कि कल्याणी स्टोर्स बनाम उड़ीसा राज्य एवं अन्य (1966) में कहा था, इस बात पर जोर दिया था कि शुल्क या कर का हर अधिरोपण अनुच्छेद 301 का उल्लंघन नहीं है। अनुच्छेद 301 के तहत केवल उन उपायों पर प्रतिबंध लगाया गया है जो सीधे और तत्काल व्यापार के मुक्त प्रवाह में बाधा डालते हैं।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कर लगाने से कुछ मामलों में व्यापार में बाधा आ सकती है, लेकिन प्रत्येक स्थिति का मूल्यांकन उसकी विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 301 का उल्लंघन करने वाले कर के लिए, बिना किसी औचित्य (जस्टिफिकेशन) के व्यापार या वाणिज्य गतिविधि में महत्वपूर्ण रूप से बाधा उत्पन्न करनी चाहिए।

वर्तमान मामले में, जहां कर लगाए गए सामान कच्चे माल के रूप में राज्य से बाहर नहीं जाते हैं, बल्कि राज्य के भीतर प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) से गुजरते हैं, वहां व्यापार के मुक्त प्रवाह में कोई प्रत्यक्ष, तत्काल या पर्याप्त बाधा नहीं थी। इसलिए, न्यायालय उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष से सहमत था कि अनुच्छेद 301 के तहत कर लगाने को चुनौती देना उचित नहीं है। नतीजतन, इस बात पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी कि संविधान के अनुच्छेद 304(b) के तहत कर लगाने को बचाया जा सकता है या नहीं, जो राज्यों को कुछ शर्तों के अधीन आयातित (इम्पोर्टेड) वस्तुओं पर कर लगाने की अनुमति देता है।

यह दृष्टिकोण न्यायालय द्वारा प्रत्येक मामले के तथ्यात्मक संदर्भ पर सावधानीपूर्वक विचार करने को रेखांकित करता है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि अनुच्छेद 301 का उल्लंघन हुआ है या नहीं, जिससे संविधान द्वारा गारंटीकृत आर्थिक स्वतंत्रता और अंतरराज्यीय वाणिज्य के सिद्धांतों को कायम रखा जा सके।

आंध्र शुगर्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1968)

न्यायालय ने कहा कि विशिष्ट तरीके से वर्णित वस्तुओं पर क्रय कर लगाना, जैसा कि आंध्र शुगर्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1968) जैसे मामलों में देखा गया है, वर्तमान मामले से काफी भिन्न है। यहां, कर को यद्यपि क्रय कर के रूप में अंकितक (लेबल) किया गया है, लेकिन यह पूरी तरह से अलग श्रेणी के सामान पर लागू होता है तथा केवल क्रय के कार्य से असंबंधित किसी घटना पर ही लागू होता है। इस संदर्भ में, यदि किसी को “कर योग्य घटना” की पहचान करनी हो, तो वह क्रय की क्रिया के बजाय निर्मित वस्तुओं की खेप होगी।

केरल राज्य विद्युत बोर्ड बनाम इंडियन एल्युमिनियम कंपनी (1975)

केरल राज्य विद्युत बोर्ड मामले में न्यायालय ने कर लगाने की राज्य की शक्ति की सीमा और उन सीमाओं पर चर्चा की जिनके भीतर ऐसी शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस संदर्भ का उपयोग इस तर्क का समर्थन करने के लिए किया गया था कि राज्य अपने कर कानूनों को अपने संवैधानिक अधिदेश से परे नहीं बढ़ा सकते हैं, खासकर जब ऐसे कानून अंतर-राज्यीय व्यापार और वाणिज्य को प्रभावित करते हैं।

प्रफुल्ल कुमार मुखर्जी बनाम बैंक ऑफ कॉमर्स लिमिटेड एआईआर (1947)

इस मामले में, न्यायालय ने सार और तत्व के सिद्धांत पर जोर दिया, जिसका उपयोग कानून की वास्तविक प्रकृति और चरित्र को निर्धारित करने के लिए किया जाता है। प्रिवी काउंसिल ने स्पष्ट किया कि किसी कानून की वैधता का मूल्यांकन करते समय, किसी को उसके स्वरूप के बजाय उसके सार को देखना चाहिए। यह सिद्धांत यह पहचानने में मदद करता है कि कोई विशेष विधायी कार्रवाई अधिनियमित करने वाली संस्था की क्षमता के अंतर्गत आती है या नहीं। संदर्भ यह स्थापित करने के लिए प्रासंगिक था कि हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 द्वारा लगाया गया माल कर अनिवार्य रूप से अंतर-राज्य व्यापार पर एक कर था, जो राज्य के नहीं बल्कि केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है।

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) का विश्लेषण

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) के इस मामले में भारत के संविधान 1950 के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 245, अनुच्छेद 246, अनुच्छेद 269(1), अनुच्छेद 301, अनुच्छेद 304(b) के संदर्भ में केंद्रीय राज्य अधिनियम, 1956 की धारा 9(1) और हरियाणा सामान्य बिक्री अधिनियम, 1974 की धारा 24(3) की गहन जांच शामिल थी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वैध राज्य कराधान और केंद्रीय प्राधिकरण के लिए आरक्षित क्षेत्रों में अतिक्रमण (ओवर रीच) के बीच अंतर करके, भारत के संविधान के तहत राज्य विधायी शक्तियों के दायरे को स्पष्ट किया। न्यायालय के निर्णय ने संवैधानिक सिद्धांत की पुष्टि की कि राज्य विधानमंडल उन लेन-देन पर कर नहीं लगा सकते जो उनके अधिकार क्षेत्र में वास्तविक बिक्री का गठन नहीं करते हैं। यह निर्णय राज्यों को अपने कर कानूनों को केवल राज्य के बाहर भेजे जाने वाले सामानों को शामिल करने से रोकता है, जिससे अंतर-राज्य व्यापार की अखंडता की रक्षा होती है।

विधायी क्षमता में स्पष्ट अंतर की आवश्यकता पर बल देते हुए, निर्णय ने संघवाद के मौलिक सिद्धांतों को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि राज्यों को संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर काम करना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य के कानून केंद्रीय अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न करें, विशेष रूप से अंतरराज्यीय वाणिज्य को प्रभावित करने वाले मामलों में।

इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण कर प्रणाली में निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है, राज्यों को ऐसे लेन-देन पर कर लगाने से रोकता है जो वास्तव में उनकी विधायी क्षमता के अंतर्गत नहीं आते हैं। इसलिए, यह निर्णय यह सुनिश्चित करके कानून के शासन को बनाए रखता है कि कर कानून न्यायसंगत और समान रूप से लागू किए जाएं। इसने राज्य कराधान शक्तियों की संवैधानिक सीमाओं को मजबूत किया, कर प्रणाली में निष्पक्षता को बढ़ावा दिया और अंतर-राज्य व्यापार के मुक्त प्रवाह को सुगम बनाया।

निर्णय के बाद

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) के इस मामले को भारत में विभिन्न न्यायालयों द्वारा बिक्री कर और मूल्यांकन से संबंधित सिद्धांतों की व्याख्या और लागू करने के लिए संदर्भित किया गया है। यहाँ कुछ उल्लेखनीय उदाहरण दिए गए हैं जहाँ इस मामले का हवाला दिया गया है:

हरियाणा राज्य बनाम हरियाणा कॉनकास्ट लिमिटेड (2019) में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा मूल्य वर्धित कर अधिनियम, 2003 के तहत सर्वोत्तम निर्णय मूल्यांकन करने के लिए मूल्यांकन प्राधिकारी की शक्तियों पर चर्चा करते समय इस मामले का उल्लेख किया था। न्यायालय ने ऐसे आकलन में निष्पक्षता और तर्कसंगतता (रिज़नेबलनेस) की आवश्यकता पर बल दिया।

पंजाब राज्य बनाम श्रेयांस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (2016) में, सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोत्तम निर्णय आकलन करने में कर अधिकारियों की विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) शक्ति और ऐसे आकलन के लिए कारणों को दर्ज करने की आवश्यकता के संबंध में गुडइयर मामले में निर्धारित सिद्धांतों का उल्लेख किया।

ये भारत के विभिन्न न्यायक्षेत्रों में बिक्री कर कानूनों और निर्णय निर्धारण के सिद्धांतों की व्याख्या करने में गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) मामले की प्रासंगिकता (रेलेवंस) को दर्शाते हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष में, गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (1990) व्यापार और वाणिज्य उद्योग में एक महत्वपूर्ण निर्णय था। यह अंतर-राज्यीय व्यापार और कराधान से संबंधित भारतीय न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण निर्णय है।

इस मामले ने राज्य की राजकोषीय स्वायत्तता (फिस्कल ऑटोनोमी) को आर्थिक एकता और राष्ट्रीय एकीकरण (नेशनल इंटीग्रेशन) के साथ संतुलित करने के महत्व को उजागर किया। न्यायालय ने आगे निष्कर्ष निकाला कि राज्यों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि ये उपाय राज्य की सीमाओं के पार माल की मुक्त आवाजाही में बाधा न डालें और इस प्रकार, निर्णय ने अंततः आर्थिक मामलों पर कराधान और संवैधानिक कानून के विकास में योगदान दिया और अंतरराज्यीय व्यापार और कराधान से संबंधित किसी भी भविष्य के निर्णयों में न्यायालयों का मार्गदर्शन करने के लिए एक मिसाल कायम की।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

इस मामले में न्यायालय के निर्णय के अनुसार क्रय कर और खेप कर में क्या अंतर है?

इस मामले में न्यायालय के निर्णय के अनुसार, क्रय कर वह कर है जो राज्य के भीतर माल की खरीद के दौरान लगाया जाता है। जब माल निर्माण प्रक्रिया में उपयोग किए जाने के बाद राज्य के बाहर भेजा जाता है, तो खेप कर लगाया जाता है। विनिर्माण कर वह है जो माल की खरीद पर नहीं, बल्कि माल की आवाजाही पर लगाया जाता है।

क्रय कर किस पर लगाया जाता है? 

क्रय कर माल के खरीदार पर लगाया जाता है। यह आम तौर पर तब लागू होता है जब खरीदार कोई व्यवसाय होता है, जो उपयोग, उपभोग या निर्माण के लिए सामान खरीदता है। कर खरीद के समय लगाया जाता है और यह व्यवसाय द्वारा माल प्राप्त करने के लिए किए गए कुल खर्च के अतिरिक्त होता है, जिससे उनके परिचालन व्यय (ऑपरेशनल एक्सपेंसेस) पर असर पड़ता है।

जीएसटी लागू होने के बाद क्रय कर की स्थिति क्या है?

भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के साथ ही खरीद कर को भी इस एकीकृत (यूनिफाइड) कर प्रणाली के अंतर्गत शामिल कर दिया गया है। जीएसटी का उद्देश्य केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पहले लगाए जाने वाले विभिन्न अप्रत्यक्ष (इनडाइरेक्ट) करों को एक कर ढांचे में समाहित (कंसोलिडेट) करना है।

परिणामस्वरूप, खरीद कर के साथ-साथ वैट, उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) और सेवा कर (सर्विस टैक्स) जैसे कई अन्य अप्रत्यक्ष करों को अब अलग से लागू नहीं किया जाता है। व्यवसाय अब अपनी खरीद (इनपुट टैक्स) पर जीएसटी का भुगतान करते हैं, जिसे वे अपनी बिक्री (आउटपुट टैक्स) पर लगाए गए जीएसटी के विरुद्ध अन्तर्लम्ब (ऑफसेट) कर सकते हैं। यह प्रणाली आपूर्ति श्रृंखला में ऋण का कुशल प्रवाह (एफ्फिसिएंट फ्लो) सुनिश्चित करती है, जिससे कर प्रशासन में दक्षता (एफिशिएंसी) को बढ़ावा मिलता है।

खेप कर का भार कौन वहन करता है?

खेप कर, जिसे माल बिक्री कर के रूप में भी जाना जाता है, का भुगतान माल भेजने वाले द्वारा किया जाता है, अर्थात वह इकाई जो माल को माल प्राप्तकर्ता को भेजती है। माल के लेन-देन में, माल प्राप्तकर्ता द्वारा माल बेचे जाने या वापस किए जाने तक माल का स्वामित्व माल भेजने वाले के पास रहता है। माल प्राप्तकर्ता एक प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है जो माल भेजने वाले की ओर से माल बेचता है।

माल भेजने वाला व्यक्ति माल कर का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार होता है, जो आमतौर पर माल प्राप्तकर्ता को भेजे गए माल के मूल्य पर आधारित होता है। यह कर तब लगाया जाता है जब माल को विभिन्न राज्यों में शाखाओं या संस्थाओं के बीच स्थानांतरित किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य-विशिष्ट कर विनियमों का अनुपालन किया जाता है।

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