दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य का बहिष्करण

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Indian Evidence Act

यह लेख राजस्थान के बनस्थली विद्यापीठ की छात्रा Pankhuri Anand ने लिखा है। यह लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम के उन प्रावधानों पर चर्चा करता है जो दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के बहिष्करण (एक्सक्लूजन) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

सार

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का अध्याय VI दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के बहिष्करण के प्रावधानों से संबंधित है। यह पूरा विषय अधिनियम की धारा 91 से धारा 100 के अंतर्गत आता है। 

मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य

मौखिक साक्ष्य

जो साक्ष्य मुंह से बोले गए शब्दों तक ही सीमित है, वह मौखिक साक्ष्य होते है। यदि मौखिक साक्ष्य श्रेय के योग्य है, तो यह बिना किसी दस्तावेजी साक्ष्य के किसी तथ्य या शीर्षक को साबित करने के लिए पर्याप्त है। मौखिक साक्ष्य से संबंधित प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अध्याय IV के तहत दिए गए हैं। किसी गवाह के मौखिक साक्ष्य को संदिग्ध माना जा सकता है यदि वह पिछले बयान के विपरीत है।

दस्तावेज़ी साक्ष्य

दस्तावेजी साक्ष्य से संबंधित प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अध्याय-V के तहत दिए गए हैं। अधिनियम की धारा 3 “दस्तावेज़” शब्द को परिभाषित करती है। कोई भी सामग्री जिसे किसी पदार्थ पर अक्षरों, अंकों या टिप्पणियों या एक से अधिक माध्यमों से व्यक्त या वर्णित किया जाता है और जिसका उपयोग मामले को रिकॉर्ड करने के लिए किया जा सकता है, उसे “दस्तावेज़” माना जाता है।

सबसे आम दस्तावेज जो ज्यादातर उपयोग किया जाते है, वह अक्षरों द्वारा वर्णित किए जाते है। दस्तावेज़ संचार (कम्युनिकेशन) की किसी भी भाषा जैसे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि में लिखे जा सकते हैं।

साक्ष्य के रूप में अदालत के सामने पेश किए गए दस्तावेज, दस्तावेजी साक्ष्य होते हैं और दस्तावेजों की सामग्री को साबित करने के लिए प्राथमिक या द्वितीयक (सेकेंडरी) साक्ष्य होने चाहिए। प्राथमिक साक्ष्य को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 62 के तहत परिभाषित किया गया है और इसका अर्थ है मूल दस्तावेज जब निरीक्षण (इंस्पेक्शन) के लिए अदालत के समक्ष पेश किया जाता है।

द्वितीयक साक्ष्य को अधिनियम की धारा 63 के तहत परिभाषित किया गया है। द्वितीयक साक्ष्य साक्ष्य की साक्ष्यित प्रति या मूल दस्तावेजों की प्रति है। द्वितीयक साक्ष्य में दस्तावेज़ की सामग्री के बारे में किसी व्यक्ति, जिन्होंने स्वयं घटना को देखा है द्वारा दिए गए मौखिक बयान भी शामिल होते हैं।

मौखिक साक्ष्य और दस्तावेजी साक्ष्य के बीच अंतर

क्र.सं. मौखिक साक्ष्य  दस्तावेज़ी साक्ष्य
1. मौखिक साक्ष्य का अर्थ उन बयानों से है जो एक गवाह द्वारा अदालत के समक्ष दिए गए हैं। जब कोई दस्तावेज न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है तो ऐसे दस्तावेज को दस्तावेजी साक्ष्य माना जाता है।
2. यह मौखिक रूप में एक गवाह का बयान है। यह दस्तावेजों के माध्यम से प्रस्तुत एक बयान है।
3. मौखिक साक्ष्य को आवाज, भाषण या प्रतीकों के माध्यम से अदालत के समक्ष इसकी रिकॉर्डिंग के लिए दिया जाता है। दस्तावेज़ शब्दों, संकेतों, अक्षरों, अंकों और टिप्पणियों से बने होते हैं और अदालत के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं।
4. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 59 और धारा 60 के तहत मौखिक साक्ष्य पर चर्चा की गई है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 61 से धारा 66 के तहत दस्तावेजी साक्ष्य से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की गई है ।
5. मौखिक साक्ष्य का प्रत्यक्ष होना आवश्यक है और यदि कथन पिछले कथन के विपरीत है तो यह संदिग्ध हो जाता है। दस्तावेजी साक्ष्य की सामग्री को प्राथमिक या द्वितीयक साक्ष्य द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए।

दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य का बहिष्करण

दस्तावेज के रूप में बदले गए साक्ष्य 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 91 में प्रावधान है कि जब अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट), अनुदान (ग्रांट) और संपत्ति के अन्य अभिसाक्ष्य (डिपोजिशन) से संबंधित साक्ष्य को एक दस्तावेज के रूप में किया जाता है, तो उन मामलों में, साक्ष्य के लिए दस्तावेज को छोड़कर कोई अन्य साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे मामलों में द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य होते है।

कुछ प्रकार के अनुबंध, अनुदान और अन्य अभिसाक्ष्य  हैं जो मौखिक रूप से बनाई जा सकती हैं और उन्हें किसी दस्तावेज की आवश्यकता नहीं होती है।

उदाहरण

  • A, B को अपना कुत्ता 100 रुपये में बेचता है। इस मामले में कोई लिखित विलेख (डीड) अनिवार्य नहीं है।
  • B, C के पास कुत्ते को 100 रुपये में बंधक रखना चाहता है। इस मामले में कोई लिखित विलेख अनिवार्य नहीं है।
  • B, C को 100 रुपये का भुगतान करता है और कुत्ते का कब्जा वापस ले लेता है।

उपर्युक्त सभी लेनदेन लिखित विलेख के बिना भी मान्य होंगे।

लेकिन, अदालत के कई दस्तावेज और मामले हैं जिन्हें कानून द्वारा लिखित और पंजीकृत (रजिस्टर) होना अनिवार्य माना जाता है जैसे, निर्णय और डिक्री, गवाहों का बयान, जब एक आरोपी व्यक्ति की जांच की जाती है आदि।

मौखिक रूप से, कई अनुबंध, अनुदान और अन्य अभिसाक्ष्य प्रभावित हो सकते हैं लेकिन अनुबंध की शर्तों, जिस पर पक्ष सहमत होते है, को एक दस्तावेज़ के रूप में करना उस अनुबंध की शर्तों के लिए सबसे अच्छा साक्ष्य माना जाता है। जब इसे दस्तावेजों तक सीमित कर दिया जाता है, तो यह सबसे अच्छे साक्ष्य के रूप में कार्य करता है। भले ही दस्तावेज़ खो गया हो या प्रतिकूल कब्जे में हो तब भी उसे अदालत के समक्ष पेश किया जा सकता है, जैसा कि धारा 65 के तहत वर्णित है।

धारा 91 के पीछे का सिद्धांत

साक्ष्य अधिनियम की धारा 91, उस स्थिति के लिए प्रावधान करती है जब दस्तावेज़ में अनुबंध, अनुदान या संपत्तियों के अभिसाक्ष्य की शर्तों को लिख दिया गया हो, भले ही कानून के तहत इसे दस्तावेज़ के रूप में करना आवश्यक हो। इस स्थिति में, यदि साक्ष्य की आवश्यकता है, तो दस्तावेज़ को उसके असली रूप में प्रस्तुत करना जरूरी है या यदि द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य है तो द्वितीयक साक्ष्य का उपयोग किया जा सकता है।

दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के बहिष्करण के लिए पालन किए जाने वाले नियम

दस्तावेज़ की सामग्री को साबित करने के लिए मौखिक साक्ष्य की स्वीकृति को धारा 91 के तहत बाहर रखा गया है, सिवाय इसके कि द्वितीयक साक्ष्य को स्वीकार्य माना जाता है। अनुबंध की शर्तों का खंडन करने के लिए जहां विलेख साबित होता है, धारा 92 के तहत मौखिक साक्ष्य को भी बाहर रखा गया है। तो, इन धाराओं द्वारा निर्धारित नियमों को एक विशेष नियम के रूप में माना जा सकता है जैसा कि राजा राम जायसवाल बनाम गणेश प्रसाद के मामले में आयोजित किया गया था।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 91 के तहत निर्धारित नियम के अनुसार, दस्तावेज को छोड़कर और कुछ परिस्थितियों में, द्वितीयक साक्ष्य को छोड़कर, जब अनुबंध की शर्तों को लिखित रूप में कर दिया जाता है तो बयान को साबित करने के लिए अदालत के सामने कोई साक्ष्य पेश नहीं किया जा सकता है। 

किसी विलेख के मामले में धारा 91 के तहत मौखिक साक्ष्य को बाहर रखा गया है, जब विलेख में अनुबंध की शर्तें शामिल हों या इसके माध्यम से कुछ संपत्ति का निपटान किया जाता है या कानून दस्तावेज़ की सामग्री को लिखित रूप में बाध्य करता है। जैसा कि ताहुरी शल बनाम झुनझुनवाला के मामले में कहा गया है, कि कानून गोद लेने को लिखित रूप में करने को अनिवार्य नहीं बनाता है। गोद लेने का कार्य इस तथ्य का सिर्फ एक रिकॉर्ड है कि किसी को गोद लिया गया है। इसके द्वारा कोई अधिकार नहीं बनाता है। यह साक्ष्य के एक हिस्से से ज्यादा कुछ नहीं है और जब कोई पक्ष इसे पेश करने में विफल रहता है, तो कानून उसे मौखिक साक्ष्य पेश करने से नहीं रोकता है।

कानून द्वारा लिखित में होने के लिए कोई भी मामला

जब किसी विशेष मामले को कानून द्वारा लिखित रूप में करना आवश्यक है तो इसे मौखिक साक्ष्य द्वारा प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) नहीं किया जा सकता है। कानून द्वारा आवश्यक दस्तावेजों को लिखित करने के कुछ उदाहरण हैं जैसे की निर्णय, दीवानी (सिविल) और आपराधिक मामलों में गवाहों का परीक्षण, भूमि के हस्तांतरण (ट्रांसफर) के कार्य, विभाजन के लिए विलेख, एक वसीयत आदि।

धारा 91 के अपवाद

अपवाद 1: लेखन के माध्यम से लोक अधिकारी  की नियुक्ति

सामान्य नियम के अनुसार, लेखन की सामग्री को साबित करने के लिए, लेखन को स्वयं अदालत के समक्ष पेश किया जाना आवश्यक है और इसकी अनुपस्थिति के मामले में, द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकता है। लेकिन, इस नियम का एक अपवाद है। जब एक लोक अधिकारी की नियुक्ति की जाती है और नियुक्ति लिखित रूप में की जानी आवश्यक होती है और यदि न्यायालय के समक्ष यह दिखाया जाता है कि किसी व्यक्ति ने उस अधिकारी के रूप में कार्य किया है जिसके द्वारा उस व्यक्ति को नियुक्त किया गया है, तो वह लेखन जिसके द्वारा उसे नियुक्त किया गया है, को साबित करने की आवश्यकता नहीं है। 

उदाहरण

एक प्रश्न उठता है कि क्या A उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है, तो नियुक्ति के वारंट को साबित करने की आवश्यकता नहीं है। यह तथ्य कि वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहा है, सिद्ध हो जाएगा।

तथ्य यह है कि कोई व्यक्ति अपने कार्यालय की उचित क्षमता में काम कर रहा है, यह भी उस व्यक्ति की कार्यालय में नियुक्ति का साक्ष्य है।

अपवाद 2: जब वसीयत के आधार पर प्रोबेट प्राप्त किया गया हो

स्वयं प्रस्तुत किए जाने वाले लेखन के सामान्य नियम का एक और अपवाद यह है कि जब वसीयत के आधार पर प्रोबेट प्राप्त किया गया है और यदि बाद में, उस वसीयत के अस्तित्व पर सवाल उठता है, तो मूल वसीयत को अदालत के सामने प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। 

इस अपवाद के लिए उस वसीयत की सामग्री को साबित करने की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा प्रोबेट प्रदान किया जाता है। शब्द “प्रोबेट” वसीयतकर्ता की संपत्ति को प्रशासन देने वाली अदालत की मुहर के साथ एक साक्ष्य पत्र की प्रतिलिपि (कॉपी) के लिए है।

वसीयत की प्रोबेट प्रतिलिपि एक सख्त अर्थ में मूल वसीयत की सामग्री का द्वितीयक साक्ष्य है लेकिन इसे प्राथमिक साक्ष्य के रूप में स्थान दिया गया है

धारा 91 के तहत स्पष्टीकरण

धारा 91 के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि लिखित दस्तावेज को केवल एक दस्तावेज में शामिल होना जरूरी नहीं है। एक अनुबंध या अनुदान जो निष्पादित (एग्जिक्यूट) किया जाता है वह एक दस्तावेज़ में हो सकता है या इसमें कई दस्तावेज़ शामिल हो सकते हैं। धारा 91 दोनों स्थितियों में लागू होती है अर्थात, चाहे अनुबंध एक ही दस्तावेज़ में शामिल हों या कई दस्तावेज़ों में शामिल हो।

धारा 91 के तहत एक और स्पष्टीकरण दिया गया है कि जब एक से अधिक मूल दस्तावेज होते हैं, तो उनमें से केवल एक को अदालत के समक्ष पेश करने की आवश्यकता होती है।

मौखिक समझौते के साक्ष्य को शामिल नहीं किया जाता

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 92 प्रावधान करती है कि जब धारा 91 के तहत निर्धारित दस्तावेज, जो लिखित रूप में होने चाहिए जैसे अनुबंध की शर्तें, संपत्ति का अनुदान या अन्य अभिसाक्ष्य या कानून द्वारा लिखित रूप में आवश्यक कोई अन्य मामला, तो अदालत अनुबंध से खंडन, भिन्नता, जोड़ या घटाव के उद्देश्य से पक्ष को अनुबंध या कानूनी प्रतिनिधि को मौखिक साक्ष्य द्वारा नेतृत्व करने की अनुमति नहीं दे सकती है।

धारा 92 तब लागू होती है जब धारा 91 के तहत दस्तावेजों को खंडन करने, अलग करने, जोड़ने या इसकी शर्तों से किसी भी संशोधन के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया हो।

अधिनियम की धारा 92 स्वयं को स्पष्ट करती है कि केवल ऐसे मौखिक तर्कों को बाहर रखा गया है जो अनुबंध की शर्तों, बयानों या लिखित रूप में आवश्यक किसी अन्य मामले के विपरीत हैं। यदि ऐसा दस्तावेज़ संपत्ति का अनुबंध, अनुदान या अभिसाक्ष्य नहीं है, तो इसकी सामग्री को बदलने के लिए मौखिक साक्ष्य को शामिल किया जा सकता है।

धारा 92 केवल लिखत (इंस्ट्रूमेंट) से संबंधित पक्षों पर लागू होती है न कि उस व्यक्ति पर जो लिखत के लिए अजनबी है। राम जानकी रमन बनाम राज्य के मामले में, अदालत ने यह माना कि अधिनियम की धारा 92 द्वारा निर्धारित रोक आपराधिक कार्यवाही के तहत लागू नहीं होती है।

परंतुक (प्रोविजो) (1): वे तथ्य जो दस्तावेज़ को अमान्य करते हैं

यदि कोई तथ्य अनुबंध को अमान्य कर देता है तो किसी भी व्यक्ति को उस तथ्य को साबित करने से वंचित नहीं किया जाता है। अनुबंध के नियमों के अनुसार, कोई भी अनुबंध जो धोखाधड़ी या अनुचित प्रभाव से बनाया गया है, वह प्रवर्तनीय (इनफोर्सेबल) नहीं है और उसे अमान्य माना जाता है। इसलिए, ऐसे तथ्यों को उन परिस्थितियों में साबित करना आसान होता है जब अनुबंध को लिखित रूप में कर दिया गया हो।

परंतुक (2): अलग मौखिक तर्क

इस संदर्भ में अलग मौखिक तर्क शब्द दस्तावेजों में प्रवेश करने से पहले किए गए मौखिक समझौतों को संदर्भित करता है। समसामयिक (कंटेंपोरेनियस) या पूर्व मौखिक समझौतों को धारा 92 के परंतुक (2) के तहत संदर्भित किया जाता है। 

जब किसी मामले पर कोई पूर्व मौखिक समझौता होता है जिसके बारे में दस्तावेज़ में कुछ नहीं लिखा होता है, तो इसे तभी साबित किया जा सकता है जब मौखिक समझौतों की ऐसी शर्तें अनुबंध की शर्तों के विपरीत न हों।

इसलिए, जैसा कि बाल राम बनाम रमेश चंद्र के मामले में कहा गया है, इस परंतुक की आवश्यकताएं निम्नलिखित हैं:

  1. जिस मामले पर दस्तावेज में कुछ नहीं लिखा है, उस पर एक अलग मौखिक समझौता होना चाहिए।
  2. ऐसा मौखिक समझौता दस्तावेज़ की शर्तों के साथ असंगत नहीं होना चाहिए।

परंतुक (3): एक शर्त के रूप में अलग मौखिक तर्क

वह स्थिति जब एक मौखिक समझौता इस आशय का है कि यह प्रभावी नहीं होगा या तब तक लागू नहीं किया जाएगा जब तक कि एक शर्त पूरी नहीं हो जाती है या जब तक कोई निश्चित घटना नहीं होती है, मौखिक समझौते इस मामले में यह दिखाने के लिए स्वीकार्य हैं कि इस तरह की स्थिति को नहीं किया गया था, और अनुबंध लागू करने योग्य नहीं था।

परंतुक (4): अनुबंध को नवीनीकृत (रिन्यू) या संशोधित करने के लिए बाद में किया गया विशिष्ट मौखिक समझौता

किसी भी बाद के मौखिक समझौते को साबित करने के लिए, सभी लिखित अनुबंधों की शर्तों में बदलाव के लिए, उन अनुबंधों को छोड़कर जो कानून द्वारा लिखित रूप में आवश्यक हैं, सब साक्ष्य में दिए जा सकते हैं।

जब एक लेन-देन को लिखित रूप में कर दिया जाता है, जो कानून द्वारा लिखित रूप में आवश्यक नहीं है, लेकिन पक्षों की सुविधा के लिए समझौता किया जाता है, तो इसे संशोधित करने के लिए बाद में किया गया एक मौखिक समझौता स्वीकार्य है।

परंतुक (5): कोई भी प्रथा या रीति-रिवाज जिसके द्वारा किसी भी अनुबंध में उल्लिखित घटनाओं को आमतौर पर अनुबंध के साथ संलग्न (एनेक्स) नहीं किया जाता है

प्रथा और रीति-रिवाजों के पैरोल साक्ष्य हमेशा स्वीकार्य होते हैं। जब उद्देश्य अदालत के समक्ष उस अर्थ के बारे में स्पष्ट करना है जिसमें पक्षों ने पैरोल का इस्तेमाल किया है, सामान्य आवेदन के किसी भी स्थानीय रीति रिवाज को साबित करने के लिए दिया जा सकता है, ताकि इसे अनुबंध की विषय वस्तु पर लागू किया जा सके और पक्षों को लिखित अनुबंध से बाध्य किया जा सके, जब तक कि ऐसा रीति रिवाज या प्रथा लेखन के साथ असंगत न हो।

परंतुक (6): आसपास की परिस्थितियों के बाहरी साक्ष्य

जब भी किसी दस्तावेज़ को न्यायालय के समक्ष साबित करने की आवश्यकता होती है, जिसका उद्देश्य उसके वास्तविक अर्थ का पता लगाने का प्रयास करना होता है और इस उद्देश्य के लिए बाहरी साक्ष्य आवश्यक होते हैं। आसपास की परिस्थितियों के साक्ष्य की स्वीकार्यता का उद्देश्य पक्षों के वास्तविक साक्ष्य का पता लगाना है, लेकिन दस्तावेज़ की भाषा से, पक्षों के इरादों को बाहरी साक्ष्य द्वारा समझाया जाना चाहिए।

धारा 91 और 92 के बीच अंतर्संबंध

धारा 91 और 92 एक दूसरे के पूरक (सप्लीमेंट्री) हैं। दोनों धाराएं एक दूसरे का समर्थन करती हैं और एक दूसरे को पूरा करती हैं। जब अनुबंध की शर्तें, संपत्ति का अभिसाक्ष्य या कानून के तहत लिखित में होने के लिए आवश्यक कोई भी मामला यदि दस्तावेज़ द्वारा साबित हो जाता है तो मौखिक साक्ष्य को इसका खंडन करने की आवश्यकता नहीं होती है।

धारा 91 के तहत अपनी शर्तों को साबित करने के लिए एक दस्तावेज पेश किए जाने के बाद, धारा 92 के प्रावधान किसी भी मौखिक समझौते या बयान के साक्ष्य को उसकी शर्तों से खंडन, भिन्नता, जोड़ या घटाव के उद्देश्य से बाहर करने के लिए होते हैं।

भले ही दोनों धाराएं एक-दूसरे की पूरक हैं, दोनों धाराएं विशेष रूप से कुछ मतों के बारे में अलग हैं। धारा 91 दस्तावेजों, चाहे उनका उद्देश्य अधिकारों का निपटान करना हो या नहीं, से संबंधित है, लेकिन धारा 92 उन दस्तावेजों पर लागू होती है जो प्रकृति में अभिसाक्ष्य हैं।

धारा 91 उस दस्तावेज पर लागू होती है जो द्विपक्षीय और एकतरफा दोनों दस्तावेज है लेकिन धारा 92 केवल उस दस्तावेज पर लागू होती है जो द्विपक्षीय प्रकृति का है।

अव्यक्त (लेटेंट) और पेटेंट अस्पष्टता

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 93 से 98 के तहत बाहरी साक्ष्य को स्वीकार करने या बहिष्करण करने का नियम निर्धारित किया गया है। बाहरी साक्ष्य का ऐसा बहिष्करण या स्वीकृति एक दस्तावेज में निहित तथ्यों के संबंध में है जो या तो एक अनुबंध है या नहीं।

किसी दस्तावेज़ की भाषा में अस्पष्टता को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. पेटेंट अस्पष्टता
  2. अव्यक्त अस्पष्टता

पेटेंट अस्पष्टता तब होती है जब दस्तावेज़ या विलेख की भाषा अनिश्चित होती है। अव्यक्त अस्पष्टता एक ऐसी अस्पष्टता है जो विलेख में मौजूद नहीं है लेकिन यह बाहरी कारकों के कारण उत्पन्न होती है।

अंतर का परीक्षण

इस अंतर को खोजने के लिए परीक्षण, कि क्या अस्पष्टता एक पेटेंट अस्पष्टता है या एक अव्यक्त अस्पष्टता है, दस्तावेज़ को एक सामान्य बुद्धिमान शिक्षित व्यक्ति को दिया जाता है।

  1. यदि दस्तावेज़ को पढ़ने पर अस्पष्टता का पता लगाया जा सकता है और कोई निश्चित अर्थ नहीं समझा जा सकता है तो ऐसी अस्पष्टता पेटेंट अस्पष्टता है।
  2. यदि दस्तावेज़ के अवलोकन (पेरूसल) पर उसके द्वारा कोई अस्पष्टता नहीं पाई जा सकती है और अर्थ निश्चित है लेकिन उस दस्तावेज़ को तथ्यों के साधन के साथ लागू किया जाता है, और अस्पष्टता उत्पन्न होती है और इसका अर्थ अनिश्चित हो जाता है, तो अस्पष्टता, अव्यक्त अस्पष्टता है।

पेटेंट अस्पष्टता और अव्यक्त अस्पष्टता के बीच अंतर

क्र.सं पेटेंट अस्पष्टता अव्यक्त अस्पष्टता
1. जब दस्तावेज़ की भाषा इतनी अनिश्चित और प्रभावी हो कि दस्तावेज़ को कोई अर्थ नहीं दिया जा सकता है तो इसे पेटेंट अस्पष्टता कहा जाता है। जब किसी दस्तावेज़ की भाषा निश्चित और सार्थक हो लेकिन दस्तावेज़ वर्तमान परिस्थिति में कोई प्रासंगिकता (रिलेवेंसी) नहीं रखता है तो यह अव्यक्त अस्पष्टता है।
2. पेटेंट अस्पष्टता प्रकृति में व्यक्तिगत है और यह दस्तावेज़ को निष्पादित करने वाले व्यक्ति से संबंधित है। अव्यक्त अस्पष्टता वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) प्रकृति की होती है और यह दस्तावेज़ की विषय वस्तु और उद्देश्य से संबंधित होती है।
3. पेटेंट अस्पष्टता को दूर करने के लिए मौखिक साक्ष्य की अनुमति नहीं है। अव्यक्त अस्पष्टता को दूर करने के लिए मौखिक साक्ष्य की अनुमति है।
4. पेटेंट अस्पष्टता जिस नियम पर आधारित है वह यह है कि पेटेंट अस्पष्टता दस्तावेज़ को बेकार बना देती है। अव्यक्त अस्पष्टता के मामले में मौखिक साक्ष्य देना इस सिद्धांत पर आधारित है कि अव्यक्त अस्पष्टता किसी दस्तावेज़ को बेकार नहीं बनाती है। 
5. एक पेटेंट अस्पष्टता दस्तावेज़ को देख कर और दस्तावेज़ के निरीक्षण से ही स्पष्ट है। दस्तावेज़ के प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) निरीक्षण से अव्यक्त अस्पष्टता स्पष्ट नहीं होती है, लेकिन यह तब स्पष्ट हो जाती है जब किसी दस्तावेज़ की भाषा मौजूदा परिस्थितियों पर लागू होती है।

किसी दस्तावेज़ में अस्पष्टता की व्याख्या करने के लिए बाहरी साक्ष्य 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम एक दस्तावेज में अस्पष्टता की व्याख्या करने के लिए बाहरी साक्ष्य को शामिल करने का प्रावधान करता है।

बाहरी साक्ष्य कब नहीं दिए जा सकते हैं? 

धारा 93: अस्पष्ट दस्तावेज की व्याख्या या संशोधन करते समय साक्ष्य का बहिष्करण

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 93, पेटेंट अस्पष्टता से संबंधित है और पेटेंट अस्पष्टता को दूर करने के लिए कोई मौखिक साक्ष्य नहीं दिया जाता है।

धारा 93 के अनुसार जब दस्तावेज़ की भाषा अस्पष्ट या अपने आप में ही दोषपूर्ण है, तो वह साक्ष्य जो इसका अर्थ दिखा सकता है या इसके प्रभाव की आपूर्ति (सप्लाई) कर सकता है, उसे नहीं दिया जा सकता है।

उदाहरण

A और B के बीच एक समझौता किया जाता है कि A अपनी फसलों को 1000 या 2000 रुपये में बेचेगा। यह साक्ष्य नहीं दिया जा सकता कि कौन सी कीमत दी जानी थी।

केशव लाल बनाम लाल भाई टी. मिल्स लिमिटेड के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि बाहरी साक्ष्य पर भरोसा करके अस्पष्टता को दूर करने के लिए पक्षों या अदालत के लिए खुला नहीं होगा।

धारा 94: मौजूदा तथ्यों के लिए दस्तावेज के आवेदन में, इसके खिलाफ आवेदन को बाहर रखा जाना चाहिए 

धारा 94 के अनुसार, जब दस्तावेज़ में भाषा सरल और स्पष्ट है और यह मौजूदा तथ्यों पर सटीक रूप से लागू होती है, तो यह दिखाने के लिए साक्ष्य नहीं दिया जा सकता है कि यह ऐसे तथ्यों पर लागू होने के लिए नहीं था।

जब न तो पेटेंट अस्पष्टता है और न ही अव्यक्त अस्पष्टता है तो इसका खंडन करने के लिए साक्ष्य नहीं दिया जा सकता है।

जनरल कोर्ट मार्शल बनाम कर्नल अनिल तेज सिंह धालीवाल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि धारा 94 तभी लागू होती है जब दस्तावेज़ के निष्पादन को अदालत के समक्ष स्वीकार किया जाता है और इसके खिलाफ कोई खराब परिस्थितियां नहीं होती हैं।

बाहरी साक्ष्य कब दिए जा सकते हैं? 

धारा 95: साक्ष्य देने की अनुमति तब दी जाती है जब दस्तावेज अपने आप में स्पष्ट हो

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 95 अव्यक्त अस्पष्टता से संबंधित है और अव्यक्त अस्पष्टता को दूर करने के लिए मौखिक साक्ष्य दिए जा सकते हैं। जब दस्तावेज़ में प्रयोग की गई भाषा सरल और स्पष्ट हो, लेकिन यह वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) साक्ष्य में गलतियों के कारण मौजूदा तथ्यों के अर्थ में नहीं है और ऐसी गलती को दिखाया जा सकता है कि यह एक अजीबोगरीब अर्थ में इस्तेमाल किया गया था।

उदाहरण

A ने अपना घर B को “लखनऊ में अपना घर” बताते हुए बेच दिया।

लेकिन, A के पास लखनऊ में कोई घर नहीं था लेकिन उसके पास कानपुर में एक घर था जिसमें B, विलेख के निष्पादित होने के बाद से रह रहा है। फिर साक्ष्यों का इस्तेमाल इस तथ्य को साबित करने के लिए किया जा सकता है कि विलेख कानपुर के घर से संबंधित था।

धारा 96: साक्ष्य की अनुमति तब दी जाती है जब भाषा का प्रयोग केवल एक व्यक्ति पर लागू होता है, कई व्यक्तियों पर लागू होता है

जब तथ्यों की भाषा ऐसी हो कि, जो केवल एक व्यक्ति पर लागू होती है, कई व्यक्तियों पर लागू होती है, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 96 के तहत यह स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि उनमें से कौन से व्यक्ति या वस्तु, पर तथ्य को लागू करने का इरादा है।

उदाहरण

A अपनी सफेद गाय को B को 2000 रुपये में बेचने के लिए सहमत है और विलेख में उन्होंने “मेरी सफेद गाय” का उल्लेख किया है। A के पास दो सफेद गाय हैं। यह साबित करने के लिए साक्ष्य दिए जा सकते हैं कि उस विलेख में उसका मतलब किस सफेद गाय से था।

धारा 97: जब दो या दो से अधिक तथ्यों की भाषा के लागू होने पर दोनों में से कोई भी सही ढंग से लागू नहीं होता है, तो साक्ष्य को स्वीकार किया जाता है

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 97 के अनुसार, जब किसी तथ्य में प्रयुक्त भाषा आंशिक रूप से मौजूदा तथ्य के एक सेट पर और आंशिक रूप से मौजूदा तथ्य के दूसरे सेट पर लागू होती है, लेकिन यदि इसे समग्र रूप से लागू किया जाता है, तो यह सही ढंग से लागू नहीं होती है, तो साक्ष्य को यह स्पष्ट करने के लिए, कि कौन सा तथ्य वास्तव में अभिप्रेत (इंटेंडेड) था, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है।

उदाहरण

X अपनी भूमि Y को यह कहते हुए बेचता है कि “A पर मेरी भूमि, B के कब्जे में है”। X के पास A जगह पर जमीन थी लेकिन यह B के कब्जे में नहीं है और X के पास जमीन है जो B के कब्जे में है लेकिन यह A स्थान पर नहीं है। तब X अदालत के सामने साक्ष्य पेश कर सकता है कि वह वास्तव में कौन सी जमीन बेचना चाहता है।

धारा 98: अस्पष्ट वर्णों का अर्थ बताने के लिए दिया गया साक्ष्य

अस्पष्ट वर्णों का अर्थ दिखाने के लिए जो सामान्य रूप से समझने योग्य वर्ण नहीं हैं जैसे कि विदेशी, अप्रचलित (ऑब्सोलेट), तकनीकी, स्थानीय या प्रांतीय (प्रोविंस) शब्दों या संक्षिप्त शब्दों के अक्षर जो एक अजीब अर्थ में उपयोग किए जाते हैं, साक्ष्य को अदालत के समक्ष भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 98 के तहत प्रस्तुत किया जा सकता है। 

उदाहरण

A अपनी कलाकृति “मेरे सभी तरीके” बताते हुए B को बेचता है। यहाँ, “तरीके” शब्द का क्या अर्थ है, इसे साक्ष्य की स्वीकृती के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है।

दस्तावेज़ की अलग-अलग शर्तों के समझौते का साक्ष्य कौन दे सकता है? 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 99 के तहत, वे व्यक्ति भी साक्ष्य दे सकते हैं जो किसी दस्तावेज के पक्ष नहीं हैं या किसी ऐसे तथ्य के संबंध में हित के प्रतिनिधि नहीं हैं जो दस्तावेज़ की शर्तों को बदलते हुए एक समसामयिक समझौते को दर्शाता है।

अधिनियम की धारा 92 के रूप में अनुबंध के पक्ष को दस्तावेज़ प्रस्तुत करने से बाहर रखा गया है, लेकिन यह उन लोगों को बाहर नहीं करता है जो अनुबंध करने वाले पक्ष हैं। अतः इस धारा यानि धारा 99 के अंतर्गत वही प्रावधान दोहराया जा रहा है।

बाई हीरा देवी बनाम बॉम्बे की आधिकारिक असाइनी के मामले में धारा 92 केवल अनुबंध, अनुदान और संपत्ति के अन्य अभिसाक्ष्य के मामले से संबंधित है, लेकिन धारा 99 सभी प्रकार के दस्तावेजों से संबंधित है, चाहे वह अनुबंध हो या नहीं। धारा 99 केवल एक दस्तावेज़ की शर्तों को बदलने के बारे में बताती है।

वसीयत से संबंधित भारतीय उत्तराधिकार (सक्सेशन) अधिनियमों के प्रावधान बहिष्कार किए जाएंगे 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 100 के अनुसार, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अध्याय VI के तहत निर्धारित प्रावधानों को भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1865 के  तहत वसीयत के निर्माण के संबंध में किसी भी प्रावधान पर लागू नहीं किया जाता है।

निष्कर्ष

भारतीय साक्ष्य अधिनियम का अध्याय VI दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य के बहिष्करण के प्रावधानों से संबंधित है। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जब मौखिक साक्ष्य को दस्तावेजी समर्थन के लिए न्यायालय के समक्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता है और ऐसे भी उदाहरण हैं जब मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य होते है। सभी प्रावधानों को इस अध्याय के अनुसार निपटाया जाना है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत वसीयत से संबंधित प्रावधानों को इन प्रावधानों से बाहर रखा गया है।

संदर्भ

  • Lal Batul, The Law of Evidence, 22nd Edition (2018), Central Law Agency.
  • The Indian Evidence Act, 1872

 

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