यह लेख Amrita Sony द्वारा लिखा गया है। यह लेख, व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) के तहत भारत में समान लिंग विवाह के बारे में संक्षिप्त (ब्रीफ) में बताता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
जब भी हम मानव और नागरिक अधिकारों के बारे में बात करते हैं, तो कई विकसित (डेवलप्ड) देशों ने समान लिंग विवाह को अपनाया है। लंबे समय से थर्ड जेंडर, लिंग आधारित भेदभाव को झेल रहे हैं। उन्होंने अपने अधिकारों की कानूनी मान्यता के लिए लगातार संघर्ष किया है। होमोसेक्शुअल संबंधों को कानूनी रूप से हेट्रोसेक्शुअल की तरह समान स्तर (लाइन) पर सुरक्षा अब एक इच्छा बन गई है। विवाह का अधिकार मानव अधिकार माना जाता है। हालांकि, ट्रांसजेंडरों के ऐसे अधिकार को कानूनी रूप से लागू करने वाला कोई कानून मौजूद नहीं है। जब सुप्रीम कोर्ट ने नालसा का फैसला सुनाया तो उन्हें एक उम्मीद दी गई थी। यह उनके लिंग और मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राईट) को कानूनी रूप से मान्यता देने का पहला प्रयास था जो किसी व्यक्ति के लिंग के बावजूद सभी को प्रदान किया गया था।
विवाह को राजनीतिक-कानूनी और सामाजिक-आर्थिक अर्थों में व्यक्ति की पहचान के महत्वपूर्ण तत्वों (एलिमेंट) में से एक माना जाता है। यह एक ऐसी संस्था (इंस्टीट्यूशन) है जो दो पक्षों के बीच संबंधों को मान्यता देने के लिए विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत कानूनी रूप से संहिताबद्ध (कोडीफाइड) है। यह सार्वजनिक महत्व का है क्योंकि यह संपत्ति, विरासत और अन्य प्रकार के अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में बहुत महत्व रखता है। ये अधिकार विवाह से उत्पन्न होते हैं। आज की दुनिया में विवाह की संस्था न केवल एक नागरिक अधिकार है, बल्कि इसे अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली है। विवाह का अधिकार राज्य पर अनिवार्य है। भारत में, विवाह के अधिकार को अब एक संवैधानिक (कांस्टीट्यूशनल) अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है, जो व्यक्ति को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता देता है।
ओल्गा टेलिस और अन्य बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और अन्य में कहा गया है कि, आर्टिकल 21 जीवन और स्वाधीनता (लिबर्टी) की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जो न केवल भौतिक अस्तित्व (फिजिकल एक्जिस्टेंस) के लिए बल्कि गरिमा (डिग्निटी) के साथ एक गुणात्मक (क्वालिटेटिव) और सार्थक (मीनिंगफुल) जीवन प्रदान करता है। मानवीय गरिमा, संविधान के आर्टिकल 21 के तहत अधिकारों को सुनिश्चित करने की एक पूर्व शर्त है। व्यक्तिगत गरिमा बनाए रखने और सार्थक मानव अस्तित्व का आनंद लेने के लिए विवाह का अधिकार महत्वपूर्ण है, इसलिए कोर्ट्स ने संविधान के आर्टिकल 21 के तहत विवाह को एक महत्वपूर्ण अधिकार के रूप में व्याख्यायित (इंटरप्रेट) किया है।
अपनी इच्छा के अनुसार विवाह करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है, वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) होमोसेक्शुअल को अपने अधिकारों का प्रयोग करने की अनुमति नहीं देता है। एलजीबीटी समुदाय (कम्युनिटी) को अपने सबसे बुनियादी (बेसिक) अधिकारों के प्रयोग के लिए भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। विधायक (लेजिस्लेटर) उन्हें उनके विवाह के मौलिक अधिकार की गारंटी देने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं। ज्यादातर विकसित देशों ने हेट्रोसेक्शुअल जोड़ों के समान कानूनी और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अपने कानून में समान लिंग विवाह को मान्यता दी है। विभिन्न लाभ जो हेट्रोसेक्शुअल जोड़ों को उपलब्ध हैं जैसे रखरखाव, उत्तराधिकार (सक्सेशन), पेंशन अधिकार लेकिन होमोसेक्शुअल जोड़ों को नहीं दिए जाते हैं।
सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन (इसके बाद कौशल के रूप में संदर्भित (रेफर)) में निर्णय के बाद, जिसने इंडियन पीनल कोड की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संभोग (कार्नल इंटरकोर्स) को अपराध घोषित किया, ज्यादातर तर्कों (आर्गुमेंट) ने कोर्ट के निर्णय को उलटने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित किया है। यह पत्र वर्तमान सामाजिक परिदृश्य और होमोसेक्शुअल्स की स्थिति पर प्रकाश नहीं डालता है बल्कि होमोसेक्शुअल संबंधों की कानूनी मान्यता के महत्व पर भी बहस करता है। यह एक निर्विवाद (अंडिस्पुटेबल) तथ्य है कि लिंग के आधार पर भेदभाव आर्टिकल 15 के तहत निहित (इंश्राइन) हमारे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
सेक्स के अंदर यौन अभिविन्यास (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) शामिल है और किसी व्यक्ति के यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव आपराधिक और नागरिक कानूनों के तहत आपत्तिजनक (ऑब्जेक्शनेबल) है। व्यक्तिगत कानूनों पर वर्तमान कानून केवल हेट्रोसेक्शुअल विवाहों को मान्यता देते हैं, जो निस्संदेह होमोसेक्शुअल जोड़ों को कानूनी और सामाजिक मान्यता के साथ-साथ उन लाभों से वंचित करते है जो इन कानूनों द्वारा विवाहित लोगों को प्रदान किए जाते हैं।
लेख का निष्कर्ष (कंक्लूज़न) है कि समान लिंग विवाह को वैध बनाने के लिए व्यक्तिगत कानूनों में अमेंडमेंट एक व्यवहार्य (फीजिबल) विकल्प नहीं हो सकता है क्योंकि यह कुछ वर्गों की धार्मिक भावनाओं को आहत कर सकता है और बाद में प्रतिकूल (अनफैवरेबल) परिणाम दे सकता है। इसलिए, होमोसेक्शुअल के अधिकारों को मान्यता देने के लिए उपलब्ध व्यवहार्य विकल्प स्पेशल मैरिज एक्ट में अमेंडमेंट करना है। ऐसा करने के लिए, कोई यह तर्क दे सकता है कि होमोसेक्शुअल को विवाह के अधिकार से वंचित करना उनके मूल अधिकार और एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बायसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय के खिलाफ अनुचित भेदभाव का उल्लंघन है।
अपने अधिकारों को मान्यता देने और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ एलजीबीटी समुदाय का संघर्ष, लंबा और कठिन है। एक ही वर्ग के लोगों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन कार्यों को अपराध से मुक्त करने का प्रारंभिक (प्रीलिमिनरी) उद्देश्य ज्यादातर देशों के कानूनों द्वारा या न्यायपालिका के माध्यम से ऐसे कानूनों को उलट कर प्राप्त किया जाता है। हालांकि पश्चिम एशिया और अफ्रीका में लगभग 76 देशों में अभी भी ऐसे रूढ़िवादी (कंजरवेटिव) कानून हैं। भारत उनके साथ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने कौशल में इंडियन पीनल कोड की धारा 377 की वैधता को बरकरार रखा था।
इसने नाज़ फाउंडेशन बनाम गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी ऑफ़ दिल्ली (बाद में नाज़ फाउंडेशन के रूप में संदर्भित) में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय को उलट दिया था, जिसने वयस्कों (एडल्ट्स) के बीच सहमति से यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। पत्र इस बिंदु पर केंद्रित है कि होमोसेक्शुअल की उचित मान्यता और स्वतंत्रता के लिए समान यौन कार्यों को डिक्रिमिनलाइज करना पर्याप्त नहीं है, उन्हें प्रासंगिक (रिलेवेंट) कानूनी अधिकार भी दिए जाने चाहिए। यह विभिन्न विकल्पों का भी सुझाव देता है जिन्हें मान्यता के लिए अपनाया जा सकता है।
यह केवल कानूनी पहलुओं से संबंधित प्रश्न नहीं है बल्कि यह मूल अधिकारों का मामला है जो कई व्यक्तियों के व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करता है। भारत जैसे देश में आधुनिकीकरण (मॉडर्नाइजेशन) के साथ-साथ पुनरुत्थानवादी (रिवाइवलिस्ट) और रूढ़िवादी विचार भी बढ़ रहे हैं। इसलिए, रीति-रिवाजों, प्रथाओं, धर्म, परंपरा के कारण विरोध उदार (लिबरल) कानून के लिए एक बाधा के रूप में कार्य करता है। नाज़ फाउंडेशन द्वारा दायर याचिका (पिटीशन) को शुरू में दिल्ली हाई कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि कार्रवाई का कोई कारण नहीं है और यह केवल एक अकादमिक मुद्दा था। इसके बाद इसे विशेष अनुमति याचिका (स्पेशल लीव पिटीशन) में चुनौती दी गई और फिर सुप्रीम कोर्ट ने विशेष अनुमति याचिका को नए फैसले के लिए भेज दिया। इसलिए, कौशल को देखते हुए यह नहीं समझा जाना चाहिए कि प्रगतिशील दृष्टिकोण (प्रोग्रेसिव एप्रोच) नहीं अपनाया जा सकता है।
होमोसेक्शुअलिटी और भारतीय पर्सपेक्टिव
होमोसेक्शुअलिटी को एक आकर्षण (अट्रैक्शन) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है चाहे वह एक ही वर्ग के लिंग के दो व्यक्तियों के बीच रोमेंटिक या यौन संबंध हो। यह एक ही लिंग के लोगों से यौन स्नेह के अनुभव के अलावा और कुछ नहीं है। इस सवाल का जवाब देने के लिए कि मानव में होमोसेक्शुअलिटी क्यों मौजूद है, वैज्ञानिकों ने कई शोध (रिसर्च) किए हैं। कुछ जैविक सिद्धांतों (बायोलॉजिकल थ्योरीज) का सुझाव है कि किसी व्यक्ति के यौन अभिविन्यास का कारण या तो आनुवंशिक कारकों (जेनेटिक फैक्टर) या प्रारंभिक गर्भाशय (यूटरिन) के वातावरण या दोनों के कॉम्बिनेशन से होता है। शोध से पता चलता है कि यह एक सामान्य और प्राकृतिक वेरिएशन है जिसे किसी भी व्यक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। हालांकि, 21वीं सदी में भी समाज का कुछ वर्ग इसे बेकार मानता है।
भारत में इसे सदियों से वर्जित (टैबू) माना जाता है। ज्यादातर व्यक्तिगत कानून विवाह को विभिन्न लिंगों के व्यक्तियों के बीच दो आत्माओं के मिलन और संस्कार के रूप में वर्णित करते हैं। समान लिंग संबंधों को अनैतिक (इम्मोरल) और रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन माना जाता है। चूंकि विवाह एक व्यक्तिगत मामला है और किसी के धार्मिक विश्वास में गे, लेस्बियन विवाह को अपवित्र माना जाता है। भारत में लोग अक्सर मानते हैं कि यह पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है और यह विदेशों का बुरा प्रभाव है। हालांकि, यह पश्चिमी प्रथा नहीं है, क्योंकि हमारे प्राचीन ग्रंथ और साहित्य कुछ इसी तरह की अवधारणा को दर्शाते हैं। हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में से एक ऋग्वेद में उल्लेख है, ‘विकृति एवम् प्रकृति’ जिसका अर्थ है कि, जो अप्राकृतिक लगता है वह भी प्राकृतिक है।
हिंदू मैरिज एक्ट के तहत
हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू धर्म से संबंधित दो व्यक्तियों के विवाह और तलाक आदि जैसे संबंधित पहलुओं को नियंत्रित करता है। यह किसी भी अन्य व्यक्ति पर भी लागू होता है जो भारत के क्षेत्र में जैन, बौद्ध या सिख धर्म से है। एक्ट के अनुसार हिंदू धर्म में विवाह को एक दैवीय मूल (डिवाइन ओरिजिन) माना जाता है और धार्मिक कर्तव्यों को निभाने के लिए दो व्यक्तियों का एक पवित्र मिलन है। वर्तमान में कार्रवाई का सबसे सुविधाजनक तरीका व्यक्तिगत कानूनों के तहत समान-लिंग वाले व्यक्तियों के बीच विवाह को मान्यता देना है।
हिंदू मैरिज एक्ट में विशेष रूप से कहा गया है कि विवाह के समय दूल्हे की उम्र 21 वर्ष होनी चाहिए, दुल्हन की उम्र 18 वर्ष होनी चाहिए। इसी तरह का प्रावधान क्रिश्चियन मैरिज एक्ट में पुरुष और महिला शब्द का उपयोग करके किया गया है। लगभग हर भारतीय व्यक्तिगत कानून शादी को हेट्रोसेक्शुअल के मिलन के रूप में मानता है। हालांकि, समान लिंग विवाह स्पष्ट रूप से हिंदू मैरिज एक्ट में प्रतिबंधित (प्रोहिबिटेड) नहीं हैं। व्यक्तिगत कानूनों के तहत उन्हें पहचानने के लिए कुछ दृष्टिकोण जो संभवतः (पॉसिबली) किए जा सकते हैं, वे इस प्रकार हैं:
- मौजूदा कानूनों की व्याख्या की जा सकती है ताकि समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सके।
- एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बायसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर) को एक अलग समुदाय के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है, जिसके रीति-रिवाज समान लिंग विवाह की अनुमति देते हैं।
- एक्ट की इस प्रकार व्याख्या करना जिससे समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सके, यदि नहीं तो यह असंवैधानिक होगा।
- एक्ट में ही प्रासंगिक अमेंडमेंट करें।
दूल्हा और दुल्हन शब्द का प्रयोग करने के अलावा यह एक्ट लिंग के मामले में तटस्थ (न्यूट्रल) है। समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सकती है बशर्ते उनमें से (होमोसेक्शुअल जोड़े में) एक को दूल्हे के रूप में और दूसरे को दुल्हन के रूप में पहचाना जाए। एक उदाहरण पर एक लेस्बियन जोड़े द्वारा एक ही दृष्टिकोण अपनाया गया था, एक को दूल्हे के रूप में प्रस्तुत किया गया था और दूसरे को दुल्हन के रूप में पहचाना गया था।
यद्यपि यह क़ानून की व्याख्या के नियमों का विरोध करता है और इस्तेमाल की जाने वाली शर्तों (दूल्हा और दुल्हन) की सामान्य समझ के अनुरूप (इन-लाइन) भी नहीं है, यह व्याख्या विवाह के अन्य पारंपरिक रूपों के साथ समान लिंग विवाह को मिलाने का प्रयास करती है। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि एलजीबीटी समुदाय को एक अलग समुदाय के रूप में मान्यता दी जाए, जिसके अपने रीति-रिवाज और प्रथाएं समान लिंग विवाह की अनुमति देती हैं। इसी तरह का दृष्टिकोण ब्राह्मण विरोधी और आर्य समाज द्वारा अपनाया गया था। उन्होंने स्वाभिमान (सेल्फ रिस्पेक्ट) के क्षण की शुरुआत की और विवाह के लिए अपने स्वयं के अनुष्ठान (रिचुअल्स) और प्रथाओं का गठन किया था। इसे कानूनी रूप से तब मान्यता दी गई थी जब 1967 में एक अमेंडमेंट द्वारा एक्ट में धारा 7A को शामिल किया गया था।
तीसरा दृष्टिकोण, एक्ट की व्याख्या इस तरह से की जा सकती है ताकि समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सके। यदि नहीं, तो एक्ट को इस आधार पर असंवैधानिक ठहराया जा सकता है कि यह लिंग के आधार पर भेदभाव करता है और उन्हें उनके मूल अधिकार से वंचित करता है। नाज़ फाउंडेशन के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने इस तर्क का समर्थन किया था।
हालांकि, कौशल के बाद कोर्ट्स इस तरह के विचारों के पक्ष में लचीली (फ्लेक्सिबल) नहीं हो सकती हैं। बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि व्यक्तिगत कानून को मौलिक अधिकारों के पैमाने पर नही परखा जा सकता है। अंतिम दृष्टिकोण संबंधित व्यक्तिगत कानूनों में वांछित (डिजायर्ड) अमेंडमेंट करना है। यह उपरोक्त सभी में सबसे व्यावहारिक समाधान है। हालांकि, समाज के कुछ वर्गों द्वारा एलजीबीटी समुदाय के प्रति अस्वीकृत (डिसअप्रूविंग) व्यवहार के कारण यह एक ही समय में सबसे कठिन और विवादास्पद (कॉन्ट्रोवर्शियल) साबित हो सकता है। यदि कोई अमेंडमेंट संभव नहीं है तो क्या मौजूदा कानून के भीतर समान लिंग विवाह हो सकता है?
हिंदू मैरिज एक्ट की कुछ शब्दों की व्याख्या
हिंदू मैरिज एक्ट वैध विवाह के लिए कुछ शर्तें निर्धारित करता है, वे हैं:
- यूनियन ऑफ स्पिरिट्स- एक्ट विशिष्ट शब्दों जैसे पुरुष/महिला या आदमी/औरत का उपयोग नहीं करता है। तो, होमोसेक्शुअल को इसमें बहुत अच्छी तरह से शामिल किया जा सकता है।
- किन्हीं दो हिंदुओं के बीच- एक्ट में उल्लेख किया गया है, किसी भी दो हिंदुओं के बीच विवाह किया जा सकता है।
- कोई एक्सप्रेस निषेध नहीं है – एक्ट स्पष्ट रूप से यह नहीं कहता है कि विवाह केवल विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच ही किया जा सकता है। धारा 2 के तहत एक्ट में यह सूचीबद्ध (लिस्ट) किया गया है कि इसके तहत शादी करने के हकदार कौन हैं।
- कस्टमरी संस्कार और समारोह- धारा 7 में कहा गया है कि विवाह किसी भी पक्ष के कस्टमरी अनुष्ठानों से किया जा सकता है। संस्कार ठीक से न करने पर विवाह अमान्य हो जाता है। इन समारोहों को एक्ट के तहत वैध विवाह के लिए साबित करने की आवश्यकता है।
- दूल्हा और दुल्हन- केवल धारा 5(ii) और धारा 7(2) में दूल्हा और दुल्हन शब्द का इस्तेमाल किया गया है। बाकी सभी धाराओं में ‘व्यक्ति’ या ‘पक्ष’ जैसे तटस्थ शब्दों का उल्लेख है। दूल्हा और दुल्हन शब्द की व्याख्या उन भूमिकाओं के रूप में की जा सकती है जो पक्ष किसी रिश्ते में पसंद करते हैं। इसलिए, इन दो धाराओं में दूल्हा और दुल्हन का उपयोग करने के अलावा एक्ट तटस्थ है। इसलिए, हम यथोचित (रीजनेबली) रूप से यह तर्क दे सकते हैं कि यदि एक दूल्हे की भूमिका निभाता है और दूसरा दुल्हन की भूमिका निभाता है, तो समान लिंग उनके विवाह को संपन्न कर सकता है।
स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत
स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 पक्षों के बीच एक विशेष प्रकार के विवाह की अनुमति देता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, जो अपने व्यक्तिगत कानूनों से बाध्य नहीं होना चाहते हैं। एक विकल्प (अल्टरनेटिव) जिसे धार्मिक घृणा को नहीं भड़काना चाहिए, वह है होमोसेक्शुअल विवाह की सुविधा के लिए स्पेशल मैरिज एक्ट में अमेंडमेंट करना। इस एक्ट में विवाह के लिए हिंदू मैरिज एक्ट के जैसे एक वैध विवाह के लिए धार्मिक संस्कार और प्रथाओं की आवश्यकता नहीं होती है।
हालांकि, एक्ट का वर्तमान रूप केवल हेट्रोसेक्शुअल जोड़े पर लागू होता है क्योंकि यह “पुरुष” और “महिला” जैसे शब्दों का उपयोग करके आयु मानदंड (क्राइटेरिया) का वर्णन करता है। एक्ट के तहत होमोसेक्शुअल विवाहों को शामिल करने के लिए धारा 4 (c) में अमेंडमेंट की आवश्यकता है या यह स्पष्ट रूप से इसकी अनुमति देने के लिए एक विशिष्ट प्रावधान (प्रोविजन) जोड़ सकता है। इस बीच, अमेंडमेंट सबसे अच्छा विकल्प है, मौजूदा भाजपा सरकार के कारण यह मुश्किल साबित हो सकता है। जबकि कांग्रेस और सीपीआई (एम) दोनों ने लोकसभा चुनावों के लिए अपने घोषणापत्र में इसके गैर-अपराधीकरण को शामिल किया था, भाजपा फैसले के समर्थन में स्पष्ट थी- एक पार्टी के नेता ने टिप्पणी की कि होमोसेक्शुअल एक अप्राकृतिक कार्य है जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता है।
वर्तमान में, कई देशों ने समान लिंग विवाह की अनुमति के लिए कानून बनाए हैं। नीदरलैंड 2001 में होमोसेक्शुअल विवाह को वैध बनाने वाला पहला देश था। हालांकि, कई इनैक्टमेंट ऐसी भी थी जो समान लिंग के विरोधी थी। दक्षिण अफ्रीका में, संवैधानिक कोर्ट ने माना कि समान लिंग विवाह उसके संविधान का उल्लंघन है। जैसा कि इसके संविधान की धारा 9(3) में कहा गया है, राज्य गर्भावस्था, लिंग, वैवाहिक स्थिति, जातीय (एथिनिक) या सामाजिक मूल, रंग, नस्ल (रेस), यौन अभिविन्यास, उम्र, विकलांगता (डिसेबिलिटी), धर्म, विवेक (कॉन्सिएंस), विश्वास, संस्कृति, भाषा और जन्म सहित एक या एक से अधिक आधारों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (डायरेक्ट और इनडायरेक्ट) रूप से किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकता है।
नाज़ फाउंडेशन के निर्णय ने संविधान के आर्टिकल 15 पर जोर दिया जो जाति, नस्ल, लिंग, धर्म और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है। कोर्ट ने पाया कि आर्टिकल 15 में “लिंग” शब्द में यौन अभिविन्यास शामिल है। इस मामले में प्रस्तावों (प्रोपोजिशंस) का समर्थन करने के लिए कई विदेशी निर्णयों को देखा गया था। यह होमोसेक्शुअल जोड़ों के खिलाफ आर्टिकल 15 का भेदभाव और उल्लंघन होगा यदि कानून और व्यक्तिगत कानूनों ने उन्हें उनके यौन अभिविन्यास के आधार पर प्रतिबंधित किया है।
इसलिए, यह स्पष्ट है कि यदि स्पेशल मैरिज एक्ट समान लिंग विवाह की अनुमति देता है, तो एक तर्क दिया जा सकता था। हालांकि, सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन के निर्णय का उपयोग यह तर्क देने के लिए किया जा सकता है कि स्पेशल मैरिज एक्ट संवैधानिक है क्योंकि इसे संविधान के लागू होने के बाद लागू किया गया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंडियन पीनल कोड की धारा 377 को अपराध से मुक्त करने के बाद, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां होमोसेक्शुअल कमिटी के लोग अपने अधिकारों की स्थिति की मांग कर रहे हैं। शक्ति वाहिनी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में कोर्ट ने कहा कि एक साथी चुनने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
इसलिए, एक भी ऐसा कारण नहीं है कि समान लिंग वाले जोड़ों की जरूरतों को समझने की क्षमता की कमी और पूर्वाग्रह (प्रेज्यूडिस) के अलावा समान लिंग विवाह की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए। सरकार की ओर से महत्वपूर्ण विफलता है क्योंकि यह मौजूदा कानूनों में वांछित अमेंडमेंट लाने और इन मुद्दों के समाधान के लिए एक अलग कानून बनाने में असंतुलित (अनेबल) है।
नालसा निर्णय: एक स्पष्ट पक्ष
नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य (इसके बाद नालसा के रूप में संदर्भित) के निर्णय कि लिंग पक्षपाती (बायस्ड) भेदभाव की आलोचना (क्रिटिसाइज) करने और आशा की एक किरण लाने के लिए और कानूनी ढांचे (फ्रेमवर्क) के बाहर छोड़े गए वादे के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति के.एस. पनिकर राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति अर्जन कुमार सीकरी ने उन सभी व्यक्तियों को कानूनी पहचान दी, जिनका लिंग समाज के स्वीकृत मानकों (स्टैंडर्ड) से मेल नहीं खाता था।
निर्णय एक क्रांतिकारी (रिवॉल्यूशनरी) कदम साबित हुआ, जिसका गोद लेने, शादी, विरासत आदि से संबंधित वर्तमान कानूनों पर बहुत प्रभाव पड़ा, जो अब इन कानूनी और सामाजिक अधिकारों को तीसरे लिंग तक विस्तारित (एक्सटेंड) करने के लिए पुरुष और महिला की सामान्य प्रणाली (सिस्टम) से दूर ले जाएगा। यह क्रांतिकारी निर्णय सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन के कुछ महीने बाद दिया गया था, जिसने इंडियन पीनल कोड की धारा 377 की वैधता को बरकरार रखते हुए एक प्रतिगामी (रिग्रेसीव) निर्णय दिया था।
हालांकि, कोर्ट ने धारा 377 की भेदभावपूर्ण प्रकृति को स्वीकार किया, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि यह कौशल के निर्णय को बिना व्याख्या किए हुए छोड़ती है और केवल तीसरे लिंग की मान्यता पर ध्यान केंद्रित करती है। कोर्ट ने कहा, तीसरे लिंग के समुदाय के लिए मौलिक अधिकार उसी तरह उपलब्ध हैं जैसे पुरुषों और महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। अब तक हिजड़ा समुदाय को तीसरे लिंग के रूप में माना जाता है, लेकिन अब ट्रांस-पर्सन को पुरुष या महिला के बीच चयन करना होगा या तीसरे लिंग की श्रेणी में बने रहना होगा। उन्हें अल्पसंख्यक (माइनोरिटी) वर्ग के तहत सरकारी नीतियों द्वारा दिए जाने वाले लाभ दिए जाएंगे क्योंकि वे सामाजिक रूप से पिछड़े (बैकवर्ड) और वंचित वर्ग (डिसएडवांटेज क्लास) के योग्य हैं। मुख्य रूप से ये आदेश केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश देते हुए कोर्ट द्वारा बनाए गए थे:
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तीसरे लिंग की कानूनी मान्यता
तीसरे लिंग के लिए मौलिक अधिकार उपलब्ध कराए गए जैसे कि यह देश के किसी भी अन्य नागरिक के लिए उपलब्ध है। तलाक, गोद लेने, शादी से संबंधित कानूनों (आपराधिक या नागरिक) में उन्हें नही पहचानना समुदाय के खिलाफ स्पष्ट भेदभाव है।
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सामाजिक और आर्थिक अधिकार
केंद्र और राज्य सरकार दोनों समुदाय को कई सामाजिक कल्याण योजनाएँ देंगे। समुदाय को “सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग” (एसईबीसी) के रूप में माना जाएगा ताकि उन्हे आरक्षण का भी लाभ मिले।
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स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य
दोनों सरकारें को समुदाय को उचित चिकित्सा उपचार (ट्रीटमेंट) प्रदान करने और सार्वजनिक स्थानों पर अलग शौचालय उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए हैं। सरकारें। उन्हें एचआईवी/सीरो-सर्वेलिएंस उपाय उपलब्ध कराने के भी निर्देश दिए गए हैं।
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सार्वजनिक जागरूकता
दोनों सरकारें को समाज में समुदाय के उचित समावेश (इनकॉरपोरेशन) के लिए जागरूकता पैदा करने के लिए कदम उठाने के निर्देश दिए गए हैं।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
विवाह की व्याख्या विभिन्न संस्कृतियों के आधार पर भिन्न होती है। मुख्य रूप से यह एक ऐसी संस्था है जो किसी व्यक्ति के परिवार और यौन संबंधों जैसे व्यक्तिगत संबंधों को स्वीकार करती है। यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि होमोसेक्शुअल्स को भेदभाव और असहिष्णुता (इनटोलरेंस) और सामान्य समाज से बहिष्कार (एक्सक्लूजन) का सामना करना पड़ता है। इसके कारण व्यक्तिगत या सामाजिक हो सकते हैं। वर्तमान में 195 में से 29 देशों ने समान लिंग विवाह को वैध कर दिया है।
हालांकि, भारत में अभी भी इसे वर्जित माना जाता है क्योंकि उन्हें अपवित्र और अप्राकृतिक कहा जाता है। नाज़ फ़ाउंडेशन और नालसा में भेदभाव-विरोधी निर्णय कौशल को खत्म करने और कानूनी और सामाजिक रूप से समान-विवाहों की मान्यता प्राप्त करने के लिए और अधिक बनाया जाना चाहिए। सबसे उपयुक्त तरीका व्यक्तिगत कानूनों के तहत होमोसेक्शुअल विवाहों को शामिल करना होगा। हालांकि, समान-लिंग संबंधों की वैधता को पहचानने के लिए व्यक्तिगत कानूनों में अमेंडमेंट करना वास्तव में एक कठिन काम है क्योंकि व्यक्तिगत कानूनों में किसी भी हस्तक्षेप (इंटरवेंशन) को धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। फिर एक अन्य विकल्प स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत वांछित अमेंडमेंट करना है, क्योंकि यह समुदाय के “विवाह के अधिकार” को कानूनी रूप से मान्यता नहीं देकर होमोसेक्शुअल के साथ भेदभावपूर्ण है, इसलिए संवैधानिक रूप से अमान्य है।
यदि कौशल के फैसले को खारिज कर दिया जाता है, तो नाज फाउंडेशन मामले में निर्धारित सिद्धांत की बहुत संभावना है कि आर्टिकल 15 के तहत भेदभाव होने पर निषेध की पुष्टि (अफर्म) करेगा, जो यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया जैसे विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, नाज़ फाउंडेशन और नालसा में न्यायपालिका ने एलजीबीटी समुदाय से जुड़े कलंक को दूर करने के लिए प्रारंभिक लेकिन महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं और अब इन निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों को संबोधित (एड्रेस) करने और लागू करने की देश के नागरिकों की बारी है।
हिजड़ा समुदाय पर पैसा फेंकना और हर बार नीचे गिराना मानवता का अपमान है। इस तरह की हरकतें एलजीबीटी समुदाय के संघर्ष को और भी कठिन बना देंती है। इसलिए उनके लिए काले और सफेद अक्षरों में कानून बनाना बेहद जरूरी है और साथ ही संबंधित समुदाय की मानवीय गरिमा को ठीक से पहचानने के लिए उन्हें सख्ती से लागू भी करना होगा।
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- Swarajya Lakshmi v. G.G. Padma Rao, AIR 1974 SC 165.
- Vishnu Prakash v. Sheela Devi, 2001 4 SCC 729.
संविधान
- Constitution of the Republic of South Africa, 1996.
- The Indian Constitution, 1950.
कानून और कोड
- Christian Marriage Act, 1872.
- Hindu Marriage (Tamil Nadu Amendment) Act, 1967.
- Hindu Marriage Act, 1955.
- Indian Penal Code, 1860.
- The Special Marriage Act, 1954.
ऑनलाइन सोर्सेज
- SC verdict on Sec 377: Why is BJP on the wrong side of history?, First Post (December 15, 2013), http://www.firstpost.com/india/sc-verdict-on-sec-377-why-is-bjp-on-the-wrong-side-ofhistory-1286931.html
- UN Human Rights Council, Report of the United Nations High Commissioner for Human Rights on Discriminatory laws and practices and acts of violence against individuals based on their sexual orientation and gender identity, (November 17,2011), https://www.refworld.org/docid/4ef092022.html