विभिन्न प्रकार के संविदा

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Indian Contract Act
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यह लेख नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ओडिशा की कानून की छात्रा Ansruta Debnath द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में उपलब्ध विभिन्न प्रकार के संविदा के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय

विभिन्न प्रकार के संविदा होते हैं और उन संविदाओं के विशिष्ट नियम और शर्तें अद्वितीय (यूनिक) होती हैं और उन्हें तैयार करने वाले पक्ष इसकी विशिष्ट आवश्यकताओ को पूरा करते हैं। फिर भी, विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए भी, इनमें कुछ समानताएं पाई जाती हैं। संविदा का वर्गीकरण इस आधार पर किया जा सकता है कि वे कैसे बनते हैं, क्या वे वैध हैं, उनकी प्रकृति के आधार पर और उनके निष्पादन (एग्जिक्यूशन) के आधार पर भी उन्हे वर्गीकृत किया जाता है। इस लेख में उल्लिखित संविदा की श्रेणियां इस अर्थ में एक दूसरे से समान हो सकती हैं क्योंकि ज्यादातर संविदा कई प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक संविदा मौखिक, वैध और एकतरफा हो सकता है। इस प्रकार उल्लिखित श्रेणियां अलग हैं और सभी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। 

संविदा के गठन के आधार पर संविदा के प्रकार

संविदा कई तरीकों से बनाए जा सकते हैं। निम्नलिखित प्रकार के संविदा हैं जिन्हें उनके गठन के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। 

मौखिक संविदा

मौखिक संविदा वे होते हैं जो मौखिक संचार (कम्युनिकेशन) द्वारा बनते हैं। बहुत समय से संविदा मौखिक रूप से ही किए जा रहे हैं। लेकिन, मौखिक संविदा को अदालतों में साबित करना मुश्किल होता है, इसलिए ये संविदा आमतौर पर अब नहीं बनाए जाते हैं। यह कहा जा सकता है कि, मौखिक संविदा वैध संविदा होते हैं और कानून द्वारा लागू करने योग्य होते हैं, बशर्ते यह कि वे भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 के तहत वैध संविदा की शर्तों को पूरा करते हों । 

नानक बिल्डर्स एंड इन्वेस्टर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम विनोद कुमार अलग (1991) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने देखा कि एक मौखिक समझौता एक वैध और लागू करने योग्य संविदा हो सकता है। नतीजतन, यह जरूरी नहीं है कि एक संविदा को लिखित रूप में होना चाहिए, जब तक कि कानून द्वारा इसकी आवश्यकता न हो या पक्ष अपनी इच्छा से समझौते की शर्तों को लिखित रूप मे रखने का इरादा रखते हैं।

मौखिक प्रस्तावों और स्वीकृति की वैधता परोक्ष (इनडायरेक्ट) रूप से भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 से आती है। धारा 2 (a) के अनुसार, एक व्यक्ति के द्वारा, प्रस्ताव दिया हुआ तब माना जाता है जब वह दूसरे को कुछ करने या न करने की, अपनी इच्छा दर्शाता है। इसके अलावा, धारा 2 (b) में कहा गया है कि प्रस्तावकर्ता (ऑफ़रर) को सहमति देकर स्वीकृति दी जाती है। शब्द ‘दर्शाना’ यह दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि प्रस्ताव और स्वीकृति वास्तव में लिखे बिना दी जा सकती है।

लिखित संविदा

लिखित और वास्तविक रूप में बनने वाले संविदा लिखित संविदा होते हैं। ये वर्तमान में सबसे प्रचलित प्रकार का संविदा हैं। जब वे धारा 10 की शर्तों को पूरा करते हैं, तो वे वैध संविदा होते हैं। 

व्यक्त संविदा

संविदा प्रस्थापना (प्रोपोजल) या प्रस्तावों और ऐसे प्रस्तावों या प्रस्थापना की स्वीकृति से बनाए जाते हैं। प्रस्ताव और उस की स्वीकृति व्यक्त या निहित (इम्प्लाइड) हो सकती है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 9 के अनुसार, जब शब्दों में प्रस्थापना दी जाती है तो वह एक व्यक्त प्रस्थापना होती है। इस प्रकार, एक व्यक्त संविदा को शब्दों में या तो मौखिक रूप से या लिखित रूप में किया जाता है। उदाहरण के लिए, A, B से पूछता है कि क्या वह अपना घर X राशि के लिए बेचना चाहता है। B हाँ कहकर सहमत हो जाता है। यह व्यक्त संविदा का एक उदाहरण है। इस प्रकार एक व्यक्त संविदा में, संविदा की शर्तें स्पष्ट रूप से व्यक्त की जाती हैं।

निहित संविदा

धारा 9 भी निहित संविदा को मान्यता देती है। इसमें कहा गया है कि शब्दों के अलावा किसी अन्य चीज़ के माध्यम से किया गया प्रस्ताव (या स्वीकृति) एक निहित प्रस्ताव (या स्वीकृति) है। एक निहित संविदा शामिल पक्षों के कार्यों, इशारों आदि पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, एक नीलामी में, ग्राहक द्वारा क्रमांकित (नंबर्ड) पैडल उठाना एक निहित प्रस्ताव है और जब कोई वस्तु बेची जाती है तो नीलामीकर्ता द्वारा गैवेल को अंतिम बार रखना यह दर्शाता है कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रकार यह निहित संविदा का एक उदाहरण है। किसी वस्तु पर वारंटी निहित संविदा का एक और उदाहरण है। जब आप कोई वस्तु खरीदते हैं, तो आपको एक वारंटी मिलती है कि यह अपेक्षित और विज्ञापित (एडवर्टाइज्ड) के अनुसार काम करेगी। यह एक निहित संविदा है क्योंकि यह तब से लागू होगा जब कोई एक विशिष्ट कार्य करेगा (यानी एक वस्तु की खरीद), भले ही इसे कहीं और नहीं लिखा गया है।

व्यक्त संविदा की तरह, दोनों पक्षों को समान बातों पर समान अर्थों में सहमत होना चाहिए। जब संविदा के नियमों और शर्तों का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया जाता है तो संविदा में समान बातों पर समान अर्थों में सहमत होने का पता लगाना अधिक कठिन होता है। न्यायालयों ने अक्सर निहित संविदा को मान्यता देने से इनकार किया है, क्योंकि इसमें दोनों की इच्छा को स्पष्टता के साथ सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। 

हरिदास रणछोड़दास बनाम मर्केंटाइल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड (1919) के मामले में, जब किसी बैंक के ग्राहक ने व्यवसाय के सामान्य क्रम के अनुसार चक्रवृद्धि (कंपाउंड) ब्याज दर देने पर आपत्ति नहीं की, तो यह माना गया की उसने नए चक्रवृद्धि ब्याज का भुगतान करने के लिए निहित संविदा किया है।

अर्ध संविदा (क्वासी कॉन्ट्रेक्ट)

कभी-कभी, अधिकार और दायित्व उस संविदा से उत्पन्न नहीं हो सकते हैं जिसमें शामिल पक्षों ने सहमति दी है, बल्कि कानून द्वारा भी उत्पन्न हो सकते है। ये कानूनी संबंध बनाते हैं जो संविदा के समान होते हैं और अर्ध-संविदा कहलाते हैं, “अर्ध” शब्द का अर्थ “प्रतीत होता है”। भारतीय संविदा अधिनियम का अध्याय 5 ‘कुछ संबंध जो संविदा द्वारा बनाए गए संबंध के समान हैं’ के बारे में बात करता है। यह भाग अर्ध-संविदा पर है, भले ही अधिनियम में कहीं भी ‘अर्ध-संविदा’ शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है।

अर्ध-संविदा के पीछे मूल तर्क अन्यायपूर्ण संवर्धन (एनरिचमेंट) का सिद्धांत है, हालांकि यह एक स्थापित सिद्धांत नहीं है। यह सिद्धांत एक पक्ष को दूसरे पक्ष की कीमत पर अन्यायपूर्ण रूप से समृद्ध होने से रोकता है। तो बिना संविदा के भी, न्याय और औचित्य (इक्विटी) के नाम पर, दायित्वों को उत्पन्न किया जा सकता है।   

अध्याय 5 धारा 68-72 तक है । धारा 68 में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है (जैसे कि एक व्यक्ति A) और फिर उस व्यक्ति या उस व्यक्ति पर निर्भर किसी व्यक्ति को जीवन की आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाती है, तो वह व्यक्ति (जैसे, एक व्यक्ति B) जो उसकी आपूर्ति कर रहा है, वह अक्षम व्यक्ति की संपत्ति से प्रतिपूर्ति (रीइंबर्समेंट) का हकदार है। इसलिए, भले ही A और B के बीच कोई संविदा नहीं है, B मुआवजे या प्रतिपूर्ति की मांग कर सकता है, ताकि वे नकारात्मक रूप से प्रभावित न हों।

धारा 69, एक व्यक्ति की अनुपस्थिति में गारंटी का संविदा बनाता है। गारंटी का संविदा एक ऐसा संविदा है जिसमें एक व्यक्ति यानी की गारंटर दूसरे व्यक्ति यानी प्रमुख देनदार से वादा करता है कि यदि आवश्यकता हुई तो वह ऋण का भुगतान करेगा। लेकिन, यह धारा गारंटी के संविदा के अभाव में गारंटर के अधिकारों की रक्षा करती है। इसलिए यदि व्यक्ति A, B के ऋण में है और दूसरा व्यक्ति C, A की ओर से B का भुगतान करता है, तो C प्रतिपूर्ति का हकदार होगा, भले ही A और C पहले से सहमत न हों कि C, A के ऋण का भुगतान करेगा।

धारा 70 एक अननुग्रहिक (नॉन ग्रेट्युटियस) कार्य का फायदा उठाने वाले व्यक्ति के दायित्व प्रदान करती है, जबकि धारा 71 माल पाने वाले व्यक्ति के दायित्व के बारे में बात करती है, जिसे उस माल के मालिक को खोजने के लिए पर्याप्त कदम उठाने चाहिए। अंत में, धारा 72 कहती है कि जिस व्यक्ति को गलती या जबरदस्ती से पैसा या कुछ और दिया गया है, तो उसे उसको चुकाना होगा या वापस करना होगा।   

ई-संविदा

शब्द “इलेक्ट्रॉनिक संविदा” एक संविदा को संदर्भित करता है जो ई-कॉमर्स के माध्यम से किया जाता है, जिसमें दोनों पक्ष शायद ही कभी व्यक्तिगत रूप से मिलते हैं। यह इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्यिक (कमर्शियल) लेनदेन को संदर्भित करता है जिन्हे लिया और पूरे किया जाता है। पैसे निकालने के लिए ए.टी.एम. का उपयोग करने वाला उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक संविदा का एक उदाहरण है। जब कोई व्यक्ति ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट के माध्यम से सामान मंगवाता है, तो यह ई-संविदा का एक उदाहरण है। प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के प्रसार (स्प्रेड) और वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) ने दुनिया भर में ई-कॉमर्स उद्यमों (एंटरप्राइसेज) की उपस्थिति को तेज कर दिया है। ऑनलाइन नीलामी भी आम होती जा रही है, जहां लोग इंटरनेट पर बोली लगाकर वस्तुओं को खरीद और बेच सकते हैं।

भारतीय संविदा अधिनियम स्पष्ट रूप से ई-संविदा को मान्यता नहीं देता है। साथ ही, यह उन्हें प्रतिबंधित भी नहीं करता है। भारतीय अदालतों ने ई-संविदा को मान्यता दी है, लेकिन उन्हें धारा 10 के तहत एक वैध संविदा की अनिवार्यता को पूरा करना होगा, विशेष रूप से स्वतंत्र सहमति की शर्त को, जो अक्सर ई-संविदा में पाई जाती है।  

ई-संविदा का कानूनी आधार कुछ हद तक सूचना प्रौद्योगिकी (इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) अधिनियम, 2000 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 से लिया जा सकता है । आई.टी. अधिनियम मानता है कि प्रस्थापनाओं, स्वीकृति, और प्रस्तावों और स्वीकृति के निरसन (रिवोकेशन), या जैसा भी मामला हो, को इलेक्ट्रॉनिक रूप में या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का उपयोग करके व्यक्त किया जा सकता है और इस तरह के इलेक्ट्रॉनिक रूप या साधनों को लागू करने योग्य केवल इसलिए ही नहीं माना जाएगा, कि इन सब उद्देश्यों के लिए, इलेक्ट्रॉनिक रूप या साधन का उपयोग किया गया था।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम कंप्यूटर आउटपुट को मान्यता प्रदान करता है, जिसे किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित किसी भी जानकारी के रूप में परिभाषित किया गया है, जो कागज पर लिखी गई है, संग्रहीत (स्टोर्ड), रिकॉर्ड की गई है, या कंप्यूटर द्वारा उत्पादित ऑप्टिकल या मैग्नेटिक मीडिया पर पुन: प्रस्तुत की गई है (इसके बाद कंप्यूटर आउटपुट के रूप में संदर्भित है)। सबूत या मूल दस्तावेज को प्रस्तुत किए बिना, धारा 65b के अनुपालन (कंप्लायंस) में किसी भी जानकारी को स्वीकर किया जाएगा, जो किसी भी कार्यवाही में मूल दस्तावेज के किसी भी विषय या उसमें बताए गए किसी भी तथ्य के साक्ष्य, जिसका प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) साक्ष्य स्वीकार्य होगा, के रूप में शामिल होगी।

संविदा की वैधता के आधार पर संविदा के प्रकार

संविदा के साथ अक्सर समस्याएं उत्पन्न होती हैं और अदालतों को यह तय करना चाहिए कि वे वैध हैं या नहीं। विकसित न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) और कानूनों के आधार पर, संविदा वैध हो सकते हैं और कब अमान्य, शून्य (वॉयड), शून्यकरणीय (वॉयडेबल) या शुरुआत से ही शून्य (वॉयड एब इनिशियो) हो सकते हैं।

वैध संविदा

धारा 10 कुछ अनिवार्यताओं को निम्नानुसार प्रदान करती है, जिन्हें वैध माने जाने के लिए सभी संविदा को पूरा करना होता है: 

  1. इसमें शामिल पक्षों के बीच स्वतंत्र सहमति होनी चाहिए।
  2. पक्षों को संविदा करने के लिए सक्षम होना चाहिए।
  3. संविदा का प्रतिफल (कंसीडरेशन) और उद्देश्य वैध होना चाहिए।
  4. संविदा को कानून के तहत शून्य घोषित नहीं किया जाना चाहिए।

यह आवश्यकताएं जब एक संविदा में मौजूद होती हैं तो एक वैध संविदा बनता है। इन अनिवार्यताओं के अलावा, कुछ अन्य चीजों को भी अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त संविदा के लिए पूरा करने की आवश्यकता है। सबसे पहले, इसमें शामिल पक्षों को समान बातों पर समान अर्थों में सहमत होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि व्यक्ति A, B की घड़ी देखता है और उसे खरीदना चाहता है। घड़ी असली में धातु (मेटल) की है लेकिन इसके डिजाइन के कारण यह लकड़ी की लगती है। A, यह मानते हुए कि यह एक लकड़ी की घड़ी है, इसे खरीदने का प्रस्ताव करता है और B सहमत हो जाता है। इस स्थिति में, B जानता है कि यह एक स्टील की घड़ी है और मानता है कि वह वही बेच रहा है जबकि A का मानना ​​​​है कि वह लकड़ी की घड़ी खरीद रहा है। इस संविदा के उद्देश्य में, दोनों के मन मे एक अलग विचार होता है और इस प्रकार यह एक वैध संविदा नहीं है।

एक और तरीका जहां संविदा में पक्ष, समान बातों पर समान अर्थों में सहमत नहीं होते है, वह यह है जब शर्तें स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं होती हैं और व्याख्या (इंटरप्रेटेशन) के लिए खुली होती हैं। यदि कोई “वांछनीय (डिजायरेबल) राशि” के लिए एक घर खरीदने का प्रस्ताव पेश करता है और मालिक सहमत है, तो कोई संविदा नहीं है क्योंकि “वांछनीय राशि” की अवधारणा बहुत ही व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) और व्याख्या के लिए खुली है। 

एक वैध संविदा तभी बनता है जब कानूनी संबंध बनाने का इरादा होता है। अन्यथा, यह केवल एक समझौता रह जाता है और इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, एक वैध संविदा का प्रदर्शन संभव होना चाहिए। इसलिए मृत व्यक्ति को पुनर्जीवित करने का संविदा वैध संविदा नहीं है। 

शून्य संविदा

धारा 2 (j) कहती है कि एक संविदा जो कानून द्वारा लागू करने योग्य नहीं रहता है, उस क्षण से वह शून्य हो जाता है। कानून में “शून्य” शब्द का अर्थ “कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं” या “अमान्य” है। 

एक संविदा शून्य तब हो जाता है जब वह धारा 10 में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने में असमर्थ होता है। इस प्रकार, जब पक्ष संविदा बनाने में अक्षम होते हैं, जैसे नाबालिग या विकृत (अनसाउंड) दिमाग के लोग, तो संविदा शून्य हो जाता है। इसके अलावा, प्रदर्शन की असंभवता भी संविदा को शून्य बना देती है।

उपरोक्त के अलावा, शून्य संविदा की कुछ अन्य शर्तें निम्नलिखित हैं:

  1. धारा 20 में कहा गया है कि समझौते के एक जरूरी पहलू से संबंधित किसी तथ्य की गलती होने पर एक समझौता शून्य हो जाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कानून की गलती संविदा को शून्य नहीं बनाती है और न ही एकतरफा गलती इसे शून्य बनाती है।
  2. धारा 24 के अनुसार, एक अवैध उद्देश्य या प्रतिफल के साथ एक संविदा शून्य होता है।
  3. धारा 25 में कहा गया है कि बिना प्रतीफल के एक समझौता तब तक शून्य होता है जब तक कि यह लिखित और पंजीकृत (रजिस्टर्ड) न हो, या किसी किए गए कार्य के लिए क्षतिपूर्ति (कंपनसेट) करने का वादा हो या परिसीमा (लिमिटेशन) कानून द्वारा वर्जित ऋण के भुगतान का वादा हो।
  4. धारा 26 कहती है कि विवाह में बाधा डालने वाले समझौते शून्य है।
  5. धारा 27 कहती है कि व्यापार में बाधा डालने वाले समझौते शून्य है। 
  6. धारा 28, एक संविदा को शून्य कर देती है यदि यह कानूनी कार्यवाही के अवरोध (रिस्ट्रेंट) में है।
  7. यदि संविदा का अर्थ निश्चित नहीं किया जा सकता है तो धारा 29 एक संविदा को शून्य बना देती है।

शून्यकरणीय संविदा

शून्यकरणीय संविदा वे संविदा होते हैं जिन्हें किसी एक पक्ष की इच्छा पर शून्य बनाया जा सकता है। इन स्थिति में, आम तौर पर, सहमति स्वतंत्र नहीं होती है और इसे जबरदस्ती (धारा 15), अनुचित प्रभाव (अंड्यू इनफ्लुएंस) (धारा 16), धोखाधड़ी (धारा 17) और गलत बयानी (धारा 18) के तहत प्राप्त किया जाता है। यहां, धोखाधड़ी या अनुचित रूप से प्रभावित पक्ष के पास संविदा को शून्यकरणीय करने का विकल्प होता है। 

प्रारंभ से ही शून्य संविदा

ये एक विशेष प्रकार के शून्य संविदा हैं जिसका अर्थ “शुरुआत से ही शून्य” होता है। संक्षेप में, प्रारंभ से ही शून्य संविदा वे संविदा हैं जो अपने बनने के क्षण से कभी अस्तित्व में ही नहीं थे। प्रारंभ से ही शून्य संविदा का सबसे आम उदाहरण एक नाबालिग द्वारा किया गया संविदा है। मोहोरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (1903) में, यह निर्णायक रूप से घोषित किया गया था कि नाबालिग द्वारा संविदा प्रारंभ से ही शून्य होते हैं। 

लागू न करने योग्य संविदा

यदि कोई संविदा लागू न करने योग्य पाया जाता है, तो न्यायालय संविदा की आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहने के लिए एक पक्ष को कार्य करने या दूसरे पक्ष को क्षतिपूर्ति करने का आदेश नहीं देगा। एक लागू करने योग्य संविदा में (प्रस्ताव, स्वीकृति और प्रतिफल) के तत्व सीधे दिखाई देते हैं, यह इसको गंभीर रूप से लागू करने के मानक (स्टैंडर्ड) हैं। एक संविदा को कई कारणों से शून्य घोषित किया जा सकता है, जिसमें हस्ताक्षर से संबंधित परिस्थितियां, समझौते की सामग्री, या संविदा पर हस्ताक्षर करने के बाद होने वाली घटनाएं शामिल हैं।

क्षमता की कमी, दबाव, अनुचित प्रभाव, धोखे, गैर-प्रकटीकरण (नॉन डिस्क्लोजर), अचेतनता (अनकंशनेबिलिटी), सार्वजनिक नीति, गलती, और असंभवता संविदा को लागू करने के लिए सभी विशिष्ट बचाव हैं। यदि ये शर्तें मौजूद हैं, तो एक संविदा जो वैध है, उसे लागू न करने योग्य बनाया जा सकता है। संक्षेप में, इन संविदा को दोनों पक्षों की सहमति से लागू किया जा सकता है लेकिन कानूनी रूप से अदालतों में लागू नहीं किया जा सकता है।

अवैध संविदा

पूरे देश भर में लागू किसी भी कानून का उल्लंघन करने वाले संविदा अवैध संविदा होते हैं। धारा 10 में कहा गया है कि किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल अवैध नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, धारा 10 अवैध संविदा को प्रतिबंधित करती है। उदाहरण के लिए, हत्या के लिए संविदा द्वारा की गई संविदा हत्याएं (कॉन्ट्रेक्ट किलिंग) अवैध हैं क्योंकि हत्या भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत एक अपराध है।

संविदा की प्रकृति के आधार पर संविदा के प्रकार

संविदा की प्रकृति विविध (डाइवर्स) है और इसमें शामिल पक्षों के लिए विशिष्ट है। व्यापक स्तर पर, उन्हें एकतरफा, द्विपक्षीय, अचेतन, आसंजन (अधेशन), संयोगाधीन (एलिएटरी) और विकल्प प्रकारों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। सभी संविदा इनमें से कम से कम एक व्यापक श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। 

एकतरफा संविदा

जैसा कि नाम से पता चलता है, एकतरफा संविदा वे संविदा होते हैं जहां केवल एक पक्ष वादा करता है। दूसरा पक्ष निर्दिष्ट नहीं है और संविदा प्रदर्शन द्वारा पूरा हो जाता है। प्रस्तावकर्ता को तब तक प्रस्ताव को पूरा करने के लिए नहीं कहा जा सकता जब तक कि कोई व्यक्ति प्रदर्शन नहीं करता। किया गया प्रस्ताव एक सामान्य प्रस्ताव होता है। सामान्य प्रस्ताव ऐसे प्रकार के प्रस्ताव होते हैं जो बड़े पैमाने पर दुनिया को दिए जाते हैं और कानून के तहत इसे वैध स्वीकृति के रूप में गठित करने के लिए उनकी स्वीकृति का संचार करने की आवश्यकता नहीं होती है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 8 सामान्य प्रस्तावों को मान्य करती है और इसलिए एकतरफा संविदा के तहत, प्रस्थापना में शर्तों को पूरा करके या प्रतिफल प्राप्त करके स्वीकृति को वैध स्वीकृति माना जाता है। मद्रास उच्च न्यायालय ने ए.टी. राघव चरियार बनाम ओए श्रीनिवास राघव चरियार (1916) में कहा था कि जब शुरू में एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव दिया जाता है, तो संविदा को पूरा करने के लिए दो पक्ष होने चाहिए और दोनों पक्षों को एक ही बात पर एक ही अर्थ में सहमत होना चाहिए।

द्विपक्षीय संविदा

ये ऐसे संविदा हैं जिनमें शामिल पक्षों द्वारा पारस्परिक (रिसिप्रोकल) वादे किए जाते हैं। इस प्रकार, इसमें शामिल होने वाले पक्ष पहले से ही तय होते हैं और संविदा, प्रस्ताव और स्वीकृति के संचार के माध्यम से बनता है। इन्हें दो तरफा संविदा भी कहा जाता है और यह उपयोग में आने वाले सबसे सामान्य प्रकार के संविदा हैं।

अचेतन संविदा

एक अचेतन संविदा वह होता है जो स्पष्ट रूप से एकतरफा होता है और इसमें शामिल पक्षों में से एक, दूसरे के लिए अनुचित होता है और इसलिए इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। यदि एक अनुचित संविदा के खिलाफ मुकदमा लाया जाता है, तो अदालत निश्चित रूप से इसे शून्य घोषित कर देती है। कोई मौद्रिक (मॉनेटरी) हर्जाना नहीं दिया जाता है, लेकिन पक्षों को उनके संविदात्मक कर्तव्यों से मुक्त कर दिया जाता है। यह तय करना अदालतों पर निर्भर होता है कि संविदा अचेतन है या नहीं। वे अक्सर एक संविदा को अचेतन मानते हैं, यदि यह ऐसा संविदा प्रतीत होता है जिस पर कोई मानसिक रूप से सक्षम व्यक्ति हस्ताक्षर नहीं करता, कोई भी ईमानदार व्यक्ति प्रस्थापना नहीं देता, या जो उस क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिकशन) में अदालत की विश्वसनीयता को खतरे में डाल देता है जहां इसे लागू किया गया था। 

आई.सी.ओ.एम.एम. टेली लिमिटेड बनाम पंजाब राज्य जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड (2019) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कुछ संविदा, जब निजी खिलाड़ियों और राज्य के बीच होते हैं तो वह रद्द करने के लिए उत्तरदायी होते है क्योकि वह अचेतन होते है। हालांकि, इस सिद्धांत में कोई चूक नहीं होती, जहां खिलाड़ी निजी होते हैं और संविदा वाणिज्यिक प्रकृति का होता है, जैसा कि इस मामले में देखा गया था। संविदा को तब एक आसंजन संविदा के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। 

आसंजन संविदा

एक आसंजन संविदा, जिसे कभी-कभी “बॉयलरप्लेट” संविदा या संविदा के “मानक रूप” के नाम से जाना जाता है, ये दो पक्षों के बीच एक संविदा है जिसमें एक पक्ष (अधिक सौदेबाजी की ताकत वाला) संविदा के सभी या ज्यादातर प्रावधानों को स्थापित करता है। विरोधी पक्ष (जिसकी सौदेबाजी की ताकत कम है) के पास स्वीकार्य समझौते तक पहुंचने के लिए बहुत कम या कोई लाभ नहीं है। आसंजन संविदा प्रत्येक ग्राहक के लिए व्यक्तिगत रूप से अनुरूपित (टेलर्ड) संविदा की आवश्यकता को समाप्त करते हैं। हालांकि आसंजन संविदा में दक्षता (एफिशिएंसी) बढ़ाने और खरीद प्रक्रिया को तेज करने की क्षमता है, लेकिन कुछ संभावित लाभों और कमियों के कारण उनका उपयोग विवादास्पद है। गैर-परक्राम्य खंड (नॉन नेगोशिएबल क्लॉज) आसंजन संविदा में शामिल हैं, जो प्रभावी रूप से “इसे लें या छोड़ दें” संविदा हैं। अधिकांश देशों में, आसंजन संविदा वैध हैं, लेकिन लागू होने से पहले अदालतों द्वारा उनकी अक्सर समीक्षा (रिव्यू) की जाती है। संविदा का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करने वाले पक्ष अक्सर इस तरह से ऐसा करते हैं कि जो वस्तुएं खरीदी जा रहीं हैं, तो उनके नुकसान या क्षति से जुड़ी कोई भी लागत खरीदार द्वारा वहन की जाएगी। अदालतों का लक्ष्य सौदेबाजी करने वाले पक्ष को अनुचित या अन्यायपूर्ण परिस्थितियों से बचाना है।

सेंट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन लिमिटेड बनाम ब्रोजो नाथ गांगुली, (1986) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आसंजन संविदा अचेतन संविदा बन सकते हैं।

संयोगाधीन संविदा

यह एक प्रकार का संविदा है जिसमें शामिल पक्षों को एक विशिष्ट घटना होने तक संविदा करने की आवश्यकता नहीं होती है। ये घटनाएं आम तौर पर वे होती हैं जिन्हें शामिल पक्षों द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। संयोगाधीन संविदा का सबसे आम प्रकार एक बीमा संविदा है। यहां, बीमा प्रीमियम का भुगतान बीमा कंपनी के किसी भी प्रकार के प्रदर्शन के बिना किया जाता है। केवल जब कोई विशिष्ट घटना होती है, जैसे, कार बीमा के संबंध में कार को क्षति होना, तो तभी कंपनी भुगतान करने के लिए बाध्य होगी  कभी-कभी ही ऐसा होता है कि कुल भुगतान किए गए बीमा की प्रीमियम की राशि कंपनी द्वारा भुगतान किए जा रहे बीमा के बराबर नहीं होती है। कभी-कभी बीमा प्रीमियम की राशि उस बीमा की तुलना में बहुत अधिक होती है जो कंपनी भुगतान करती है जबकि अन्य समय में, कंपनी द्वारा भुगतान की जाने वाली बीमा की राशि की तुलना में प्रीमियम बहुत कम होता है।

विकल्प संविदा

विकल्प संविदा एक पक्ष को बाद की तारीख में एक अलग पक्ष के साथ एक नया संविदा करने में सक्षम बनाता है। विकल्प का प्रयोग करने का अर्थ है एक दूसरे संविदा में प्रवेश करना है, और इसका एक सामान्य उदाहरण अचल संपत्ति से है, जहां एक संभावित खरीदार एक विक्रेता को बाजार से एक संपत्ति को हटाने के लिए भुगतान करता है, फिर बाद की तारीख पर अगर वे चाहते हैं तो संपत्ति को सीधा खरीदने के लिए एक नया संविदा बनाया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने वी. पेचिमुथु बनाम गौरम्मल (2001) में कहा कि विकल्प स्पष्ट रूप से संविदा की शर्तों द्वारा दिया जा सकता है या निहित हो सकता है। इसके अलावा, इस मामले में यह भी कहा गया था कि एक विकल्प के आधार पर अधिकार का प्रयोग एकतरफा है और जिस व्यक्ति को अधिकार दिया जा रहा है उसे पक्ष द्वारा उक्त अधिकार का प्रयोग करने का विकल्प देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

संविदा के निष्पादन के आधार पर संविदा के प्रकार

संविदा को तुरंत या कुछ समय की अवधि में निष्पादित या पूरा किया जा सकता है। प्रतिफल के लिए महत्वपूर्ण बात वादे को पूरा करने के लिए समय सीमा है। इस समय सीमा के आधार पर, संविदा कार्यकारी (एग्जीक्यूटरी) या निष्पादित हो सकते हैं।

कार्यकारी संविदा

ये ऐसे संविदा हैं जो प्रकृति में निरंतर हैं। उदाहरण के लिए, एक पट्टा (लीज) समझौता। यहां, संविदा की अवधि के दौरान, मालिक किरायेदार को पूर्व की संपत्ति में रहने की अनुमति देता है और किरायेदार मासिक किराए का भुगतान करता है। 

निष्पादित संविदा

ये ऐसे संविदा हैं जिनका दायित्व पूरा हो गया है। तो किसी उत्पाद या सेवा की खरीद एक निष्पादित संविदा है।

संदर्भ

  • Dr Avtar Singh, Contract and Specific Relief

 

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