अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच अंतर

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Indian Penal Code
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यह लेख स्कूल ऑफ एक्सीलेंस इन लॉ, चेन्नई से Sujitha S के द्वारा लिखा गया है। यह लेख प्रासंगिक इलस्ट्रेशन और निर्णयों के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 299 और धारा 300 पर ध्यान केंद्रित करता है। यह अपराधिक मानव वध (कल्पेबल होमिसाइड) और हत्या के बीच के अंतर पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

“सभी हत्याएं, अपराधिक मानव वध होती हैं, लेकिन सभी अपराधिक मानव वध, हत्या नहीं होते हैं।”

क्या उपरोक्त कथन भ्रमित करने वाला है? लेकिन आप लेख के अंत तक इस संबंध में भ्रमित नहीं रहेंगे। आरंभ करने के लिए, भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत धारा 299 और 300 क्रमशः अपराधिक मानव वध और हत्या से संबंधित है। आम तौर पर, उनके बीच अंतर की पतली रेखा ही वह कारण है, जिसकी वजह से कई लोग इसे दिलचस्प पाते हैं। यहां तक ​​कि यह उन अधिवक्ताओं (एडवोकेट्स) और कानून का अभ्यास करने वालों के लिए भी कठिनाई पैदा करता है, क्योंकि वह इस कारण से अनिश्चित होते हैं कि मामले को किस अपराध के तहत रखा जाए। हत्या और अपराधिक मानव वध, एक दूसरे की तुलना में बहुत अधिक समान प्रतीत होते हैं, लेकिन इन दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक दुसरे की जगह पर नहीं किया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 299, अपराधिक मानव वध को परिभाषित करती है, जबकि धारा 300 हत्या की अवधारणा से संबंधित है। जो व्यक्ति इन धारणाओं को सीखना शुरू करता है, वह हमेशा इन वाक्यांशों से घिरा रहता है। ‘मानव वध’ शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति को मार डालने से है, ‘अपराधिक मानव वध’ शब्द किसी व्यक्ति की गैर कानूनी हत्या को संदर्भित करता है और ‘हत्या’ शब्द का अर्थ भी किसी व्यक्ति को मार डालने से है। तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किन मामूली बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिए? यह लेख, इस विषय के ऐसे हर पहलू से पर ध्यान केंद्रित करता है। 

मानव वध (होमिसाइड)

होमिसाइड यानी की मानव वध लैटिन वाक्यांश होमी (आदमी) और सीडो (कट) से लिया गया है। मानव वध का शाब्दिक अर्थ है “एक इंसान की किसी दूसरे इंसान द्वारा हत्या करना।” हालांकि, सभी मानव वध अवैध या आपराधिक नहीं होते हैं। एक निर्दोष एजेंट, जैसे की एक बच्चे (डोली इनकैपैक्स) या विकृत दिमाग के व्यक्ति की वजह से एक हमलावर की मौत, या निजी प्रतिरक्षा (प्राइवेट डिफेंस) के अधिकार के प्रयोग में हमलावर की हत्या करना, यह सब अवैध नहीं है। पहले उदाहरण में, अपराधी को ‘माफ’ कर दिया जाता है, लेकिन दूसरे उदाहरण में, प्रतिवादी के कार्यों को ‘उचित’ ठहराया जाता है।

मानव वध के प्रकार

नतीजतन, दो प्रकार के मानव वध होते हैं: 

  1. वैध मानव वध और 
  2. गैर-कानूनी मानव वध। 

वैध मानव वध वे होते हैं जो आई.पी.सी. के सामान्य अपवादों (जनरल एक्सेप्शंस) के अध्याय के अंतर्गत आते हैं और इसलिए उन्हें दंडित नहीं किया जाता है। आई.पी.सी. के तहत दंडित किए जाने वाले मानव वध स्पष्ट रूप से गैर कानूनी मानव वध की श्रेणी में आते हैं।

वैध मानव वधों को ‘सामान्य अपवादों’ की प्रकृति के आधार पर दो श्रेणियों में विभाजित (डिवाइड) किया जा सकता हैं: माफ करने योग्य मानव वध, और न्यायोचित (जस्टीफाएबल) मानव वध। इसके नतीजतन, आई.पी.सी. तीन प्रकार के मानव वधों को मान्यता देता है। मानव वध तीन प्रकार के होते है:

  1. माफ करने योग्य
  2. न्यायोचित, और 
  3. गैरकानूनी या आपराधिक (अर्थात ऐसी हत्याएं जिन्हें न तो माफ किया गया है और न ही वे उचित है)।

आई.पी.सी. के अध्याय XVI के तहत ‘जीवन को प्रभावित करने वाले अपराध’ मानव वध के अपराधों से संबंधित है। यह चार मानव वध के अपराधों के बारे में बताता है, अर्थात्: 

  1. अपराधिक मानव वध जो हत्या की श्रेणी में नहीं आते हैं, 
  2. अपराधिक मानव वध जो हत्या की श्रेणी में आते है, 
  3. जल्दबाज़ी या लापरवाही से कोई कार्य करने से मौत, और 
  4. दहेज हत्या। 

अपराधिक मानव वध

आई.पी.सी. की धारा 299 के अनुसार, एक व्यक्ति जो अपराधिक मानव वध करता है, वह किसी व्यक्ति की हत्या करने के इरादे से या इस ज्ञान के साथ कोई कार्य करता है कि इस तरह के कार्य से मृत्यु होने की संभावना है।

इलस्ट्रेशन: 

A को पता है कि Z एक झाड़ी के पीछे छिपा है। B इससे पूरी तरह अनजान है। A, B को झाड़ी पर गोली मारने के लिए कहता है, और यहां तक की यह जानते हुए कि इससे Z की मृत्यु होने की संभावना है। Z, B की गोलियों से मारा जाता है। इस मामले में B निर्दोष हो सकता है, लेकिन A ने अपराधिक मानव वध का अपराध किया है।

आपराधिक संहिता की धारा 299 के तहत अपराधिक मानव वध को परिभाषित किया गया है। धारा 300 हत्या को कुछ विशिष्ट विशेषताओं के साथ एक अपराधिक मानव वध के रूप में परिभाषित करता है, और यह विशिष्ट विशेषताएं धारा 300 के खंड (क्लॉज) 1-4 में सूचीबद्ध की गई है, जो धारा 300 में निर्धारित बहिष्करण (एक्सक्लूजन) के अधीन है। धारा 300 में चार खंडों में से एक के भी भीतर होने वाले किसी भी अपराधिक मानव वध को हत्या माना जाता है। अपराधिक मानव वध के अन्य सभी मामले, जिनमें धारा 300 के अपवाद के अंतर्गत आने वाले मामले भी शामिल हैं, उन्हे हत्या के बजाय अपराधिक मानव वध माना जाता है। जबकि धारा 299 ‘अपराधिक मानव वध’ को परिभाषित करती है, लेकिन यह संपूर्ण नहीं है। 

अपराधिक मानव वध के आवश्यक तत्व

अपराधिक मानव वध के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं: 

  • एक व्यक्ति की मृत्यु होनी चाहिए; 
  • मृत्यु किसी अन्य व्यक्ति के कार्य के कारण होनी चाहिए; तथा
  • मृत्यु का कारण बनने वाला कार्य निम्नलिखित कारणों के द्वारा किया जाना चाहिए: 
  1. हत्या करने के इरादे के साथ; या 
  2. शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से, जिसमें मौत कारित करने की संभावना हो सकती है; या 
  3. इस ज्ञान के साथ कि इस तरह के कार्य से मृत्यु होने की संभावना है।

धारा 299 आई.पी.सी. के लिए स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन)

इसकी परिभाषा स्वयं तीन परिदृश्यों (सिनेरियो) को निर्दिष्ट करती है, जिसमें मृत्यु को कारित करने में विशेष मानदंडों (क्राइटेरिया) की उपस्थिति या अनुपस्थिति, उस कार्य को अपराधिक मानव वध के रूप में मान्यता देती है। स्पष्टीकरण 1-3 इन परिदृश्यों से संबंधित हैं।

स्पष्टीकरण 1 

यह एक ऐसी परिस्थिति का वर्णन करता है जिसमें घायल व्यक्ति को कोई विकार (डिसऑर्डर), बीमारी या शारीरिक दुर्बलता है जिसकी वजह से अपराधी उसकी मृत्यु को शीघ्र कर देता है। यह तथ्य कि उसकी मृत्यु उस विकार या बीमारी से तेज या शीघ्र कर दी गई थी जिससे वह पहले से पीड़ित था, यह उस व्यक्ति को राहत नहीं देगा जो अपराध की क्षति का कारण बना है। दूसरे शब्दों में, नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति यह दावा करके अपराधिक मानव वध के लिए आपराधिक दायित्व से बच नहीं सकता है कि यदि वह घायल व्यक्ति उस स्थिति या बीमारी से पीड़ित नहीं होता तो उसकी मृत्यु नहीं होती।

उदाहरण के लिए, A मधुमेह से पीड़ित है। B ने A की मौत को शीघ्र करने के इरादे से उसे ढेर सारी मिठाइयाँ दीं। इच्छित पीड़ित पाक्षर ने मिठाई खा ली, जिसके परिणामस्वरूप, उसका रक्त शर्करा (ब्लड शुगर) का स्तर उच्च हो गया और अंत में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार, B आपराधिक रूप से उत्तरदायी है।

स्पष्टीकरण 2 

यह एक ऐसी परिस्थिति का वर्णन करता है जिसमें एक घायल व्यक्ति ठीक हो सकता है और मृत्यु से बच सकता है यदि उसने जल्दी और उचित चिकित्सा उपचार प्राप्त किया होता। ऐसे मामलों में, यह तथ्य कि पर्याप्त चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने में असमर्थता के कारण घायल व्यक्ति की मृत्यु हो गई, का उपयोग उस व्यक्ति को दोषमुक्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है, जिसने अपने पहले दायित्व के स्थान पर घायल या पीड़ित व्यक्ति को नुकसान पहुँचाया था।

उदाहरण के लिए, A मधुमेह से पीड़ित है। B ने A की मौत को शीघ्र करने के इरादे से उसे ढेर सारी मिठाइयाँ दीं। इच्छित पीड़ित ने मिठाई खा ली, और जिसके परिणामस्वरूप, उसका रक्त शर्करा का स्तर बड़ गया और अंततः तत्काल चिकित्सा देखभाल की कमी होने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। यहां, तत्काल चिकित्सा देखभाल की कमी के तथ्य को B को दायित्व से मुक्त करने के लिए नहीं माना जा सकता है।

स्पष्टीकरण 3 

यह कुछ अलग परिस्थिति को संदर्भित करता है। इसमें माँ के गर्भ में ही बच्चे की मौत को ध्यान में रखा गया है। कानून के अनुसार यदि बच्चा माँ के गर्भ में ही मर जाता है तो यह अपराधिक मानव वध नहीं है। हालांकि, अगर माँ के गर्भ से बच्चे का कोई हिस्सा निकलता है, भले ही वह पूरी तरह से विकसित न हुआ हो और बच्चे की मृत्यु हो जाती है, तो इसे अपराधिक मानव वध माना जाता है।

उदाहरण के लिए, A एक गर्भवती महिला है जिसने अभी तक अस्पताल में बच्चे को जन्म नहीं दिया है। अब, शिशु B का सिर गर्भ से बाहर आता है। यदि बच्चे की मृत्यु हो जाती है, तो यह अपराधिक मानव वध की श्रेणी में आता है।

जब्बर और अन्य बनाम स्टेट (1965) के मामले में जमना के भाई, सरजू को सरैया पहाड़ी से चूना पत्थर लाने के लिए, अपीलकर्ता इशाक के द्वारा मजदूर के रूप में काम पर रखा गया था और एसा कहा गया था कि इशाक ने सरजू को दो बार थप्पड़ मारा था, जब उसने इशाक की मांग के अनुसार, सात के बजाय सिर्फ पांच ही ‘धारा’ (सीर्स) चूने ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी। यह कहा गया था कि तीन भाई, जब्बर, इशाक और हबीब उसके बाद अपने निवास पर गए थे और देखा कि सरजू वहाँ बैठा हुआ था, जब कि श्रीमती पंगोली उनके गले के पिछले हिस्से में हल्दी लगा रही थी। इशाक जो की अपीलकर्ता था, पर यह आरोप लगाया गया की जैसे ही अपीलकर्ता घटनास्थल पर पहुंचा तो उसने सरजू पर दो बार लाठी से हमले किया था, जिससे डर कर वह अपने पास के कोठा में भाग गया था। उसके बाद यह बताया गया था कि जब्बर जो की एक अपीलकर्ता था, ने जमना के बारे में पूछताछ की थी। क्योंकि श्रीमती पंगोली उसे इस बारे में कुछ बता नहीं पा रही थी, इसलिए अपीलकर्ता जब्बार पर उसे धक्का देने का आरोप लगाया गया था, जिससे वह पेट के बल गिर गई थी, और फिर अपीलकर्ता ने उसके पेट के किनारे लात भी मारी थी। श्रीमती पैंगोली, जो उस समय गर्भवती थी, इसके परिणामस्वरूप अस्वस्थ हो गई थी और उसने समय से पहले ही सात महीने के बच्चे को जन्म दिया, जिसकी मृत्यु हो गई। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के अनुसार बच्चे के हाथ, पैर और शरीर के अन्य अंग विकसित हो चुके थे। दूसरे शब्दों में, कानून की नजर में बच्चे को माँ से एक स्वतंत्र इकाई (एंटिटी) समझा जाने के लिए पर्याप्त रूप से विकसित माना गया था। अदालत ने जब्बार को भारतीय दंड संहिता की धारा 304A के तहत अपराध का दोषी पाया और उसे एक साल के कठोर कारावास की सजा, साथ ही 500 रुपये के जुर्माने से दंडित किया और शुल्क का भुगतान ना कर पाने पर तीन माह का अतिरिक्त कठोर कारावास का प्रावधान भी किया था।

धारा 301 आई.पी.सी.: जिस व्यक्ति की मृत्यु का इरादा था, उसके अलावा किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करके अपराधिक मानव वध करना

आई.पी.सी. की धारा 301 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु कारित करके अपराधिक मानव वध का अपराध करता है, जिसकी मृत्यु का वह न तो इरादा रखता है और न ही एसा करने की संभावना होती है, तो अपराधी द्वारा किया गया अपराधिक मानव वध उसी प्रकार का होता है जैसे कि उसने किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु कारित की है, जिसकी मृत्यु का वह इरादा रखता था या जानता था कि उसकी मृत्यु कारित होने की संभावना है।

राजबीर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. (2006) के मामले में, अपीलकर्ता के द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि उसके भाई के घर पर एक पड़ोसी के द्वारा ईंटों से हमला किया गया था। इसके परिणामस्वरूप, उसके पिता और आरोपी के बीच मौखिक रूप से झगड़ा हुआ था, लेकिन अंत में स्थानीय लोगों के द्वारा समस्या का समाधान किया गया था। अगले दिन आरोपी और दो रिश्तेदार आग्नेयास्त्रों (फायरआर्म) के साथ पहुंचे थे। वे शिकायतकर्ता के व्यवसाय के पास पहुंचे, जहां उसके पिता खड़े थे। आरोपी ने कथित तौर पर अपने रिश्तेदारों को राजी किया या उनसे आग्रह किया की वह वहां उसके पिता की हत्या कर दे। आरोपी ने शिकायतकर्ता के पिता पर फायरिंग करनी शुरू कर दी जिसके कारण वह घायल हो गए थे और जमीन पर गिर गए। एक लड़की उस दुकान पर कुछ सामान खरीदने गई थी और वह भी वहीं घायल होकर गिर पड़ी। अस्पताल ले जाते समय दोनों घायलों की मौत हो गई थी। अपने बचाव में, आरोपी ने दावा किया कि लड़की की मृत्यु गलती से हो गई थी और उनका उसे मारने का कोई इरादा नहीं था। वह उस इलाके से गुजर रही थी, तभी वह घायल हो गई और उसकी मौत हो गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और प्रतिवादियों को दोषी ठहराया था और उस पर आई.पी.सी. की धारा 301 के तहत आरोप लगाया गया।

हत्या

धारा 300 के अनुसार, जब तक कि इसके विपरीत निर्दिष्ट न किया गया हो, अपराधिक मानव वध हत्या है: 

  • यदि मृत्यु कारित करने वाला कार्य, मृत्यु कारित करने के इरादे से किया गया है, या-

उदाहरण के लिए, A, Z को मारने के इरादे से उस पर गोली चलाता है। जिसके परिणामस्वरूप, Z की मृत्यु हो जाती है। इसलिए A हत्या का अपराध करता है।

  • यदि कार्य ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के इरादे से किया जाता है जिसे अपराधी जानता है कि इससे उस व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना है, जिसे क्षति हुई है, या-

उदाहरण के लिए, यह जानने के बाद भी भी, कि B एक ऐसी बीमारी से पीड़ित है, जिससे उसे घायल करने की वजह से उसकी मृत्यु होने की संभावना है, A उसे घायल करने के इरादे से मारता है। B को घायल करने के परिणामस्वरूप, उसकी मृत्यु हो जाती है। हालांकि, यदि आम तौर पर देखा जाए तो, प्रकृति के सामान्य क्रम (ऑर्डिनरी कोर्स) में इस प्रकार से घायल करने के परिणामस्वरूप किसी अच्छे स्वास्थ्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करना पर्याप्त नहीं हो सकता है, लेकिन तब भी A हत्या के अपराध का दोषी है। हालांकि, अगर A, इस बात से अनजान है कि B एक बीमारी से पीड़ित है, और वो उसे एक ऐसा झटका देता है, जो प्रकृति के सामान्य क्रम में, अच्छे स्वास्थ्य वाले किसी व्यक्ति को नहीं मार सकता है, तो A हत्या का दोषी नहीं होगा अगर उसका इरादा मृत्यु या शारीरिक चोट पहुंचाने का नहीं था, जो प्रकृति के सामान्य क्रम में, अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्ति को नहीं मार सकता है।

  • यदि यह किसी अन्य व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से किया गया हो, और दी गई शारीरिक चोट प्रकृति के नियमित (रेगुलर) क्रम में मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है, या-

उदाहरण के लिए, प्रकृति के नियमित क्रम में, A उद्देश्यपूर्ण ढंग से Z को तलवार से काट देता है या किसी व्यक्ति को मारने के लिए, उसे पर्याप्त रूप से घाव देता है, जिसके परिणामस्वरूप, Z की मृत्यु हो जाती है। इस मामले में A हत्या के अपराध का दोषी होगा, इस तथ्य के बावजूद कि उसने Z को मारने की योजना नहीं बनाई हो सकती है।

  • यदि कोई कार्य करने वाला व्यक्ति इस बात से अवगत है कि यह कार्य इतना जोखिम भरा है कि सभी संभावनाओं में, अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या शारीरिक नुकसान हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप भी मृत्यु हो सकती है और वह मृत्यु या चोट को कारित करने के लिए बिना किसी औचित्य (जस्टिफिकेशन) के ऐसा कार्य करता है जैसा कि ऊपर बताया गया है।

उदाहरण के लिए, औचित्य के बिना, A लोगों की भीड़ में एक भरी हुई तोप को गोली मारता है, जिसके कारण उनमें से एक की मृत्यु हो जातीकी मौत हो जाती है। A हत्या के अपराध का दोषी है, भले ही उसके पास विशेष रूप से किसी को मारने की योजना नहीं थी।

अपवाद (एक्सेप्शन)

अपवाद I: गंभीर और तत्काल उत्तेजना (प्रोवोकेशन)

आपराधिक मानव वध, हत्या की श्रेणी में नहीं आता है यदि अपराधी उस व्यक्ति की मृत्यु कारित करता है जिसने उसे उत्तेजित किया है या फिर उस गंभीर और तत्काल उत्तेजना से आत्म-नियंत्रण की क्षमता से वंचित होने के दौरान गलती या दुर्घटना से किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करता है।

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन)

Z kiकी उत्तेजनाउत्तेजना से उत्पन्न भावनाओं के प्रभाव में A, Y जो की Z का बच्चा है, की जान-बूझकर हत्या करता है। बच्चे द्वारा उत्तेजनाउत्तेजना की पेशकश नहीं की गई थी, और बच्चे की मृत्यु, उत्तेजना से प्रेरित कार्य करते हुए किसी दुर्घटना या दुर्भाग्य से नहीं हुई थी, इसलिए यह हत्या है।

यह अपवाद, स्वयं के तीन अपवादों के अधीन है:

  1. किसी को मारने या नुकसान पहुंचाने के औचित्य के रूप में अपराधी द्वारा स्वेच्छा से उत्तेजना की मांग नहीं की जानी चाहिए।
  2. उत्तेजना का कारण कानून के अनुसार या किसी सार्वजनिक अधिकारी द्वारा अपनी शक्तियों के वैध प्रयोग में किए गए कार्य के कारण नहीं होना चाहिए।
  3. उत्तेजना का प्रयोग, प्रति रक्षा (सेल्फ डिफेंस) के अधिकार में किए गए किसी भी कार्य से कोई संबंध नहीं होना चाहिए।

के.एम. नानावती बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र 

के.एम. नानावती बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (1961) के मामले में प्रतिवादी, एक नौसेना प्राधिकारी था। उनके तीन बच्चे थे और उनकी शादी हो चुकी थी। उसकी पत्नी ने एक दिन उसको बताया कि उसका मृतक, प्रेम आहूजा के साथ प्रेम प्रसंग (अफेयर) था। क्रोधित होकर, आरोपी अपने जहाज पर लौट आया, और उसने जहाज की दुकान से एक सेमी-ऑटोमैटिक पिस्टल और छह राउंड लिए और फिर सीधा मृतक के फ्लैट में गया, उसके कमरे में प्रवेश किया, और उसे मार डाला। इसके बाद आरोपी ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया था। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को यह तय करना था कि क्या आरोपी के कार्यों को धारा 300 के अपवाद 1 के तहत कवर किया जा सकता है या नहीं। गंभीर और तत्काल उत्तेजना से संबंधित निम्नलिखित धारणाएं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित की गई थीं:

  • गंभीर और तत्काल उत्तेजना की परीक्षा यह है कि क्या आरोपी के समान सामाजिक समूह का एक उचित व्यक्ति इतना क्रोधित होगा कि वह उस स्थिति में अपना आत्म-नियंत्रण खो देगा जिसमें आरोपी को रखा गया था।
  • भारत में, शब्द और इशारों से किसी आरोपी को गंभीर और तत्काल रूप से उत्तेजित किया जा सकता है, इसलिए उसके कार्य को आई.पी.सी. की धारा 300 के पहले अपवाद के तहत लाया जा सकता है।
  • यह निर्धारित करने में कि क्या बाद की कार्रवाई ने अपराध करने के लिए महत्वपूर्ण और तत्काल उत्तेजना पैदा की है, पीड़ित के पहले के कार्य से बने मानसिक संदर्भ को ध्यान में रखा जा सकता है।
  • घातक रूप से वार करना निश्चित रूप से उस उत्तेजना से निकलने वाले जुनून के प्रभाव से जुड़ा होना चाहिए, न कि समय बीतने के कारण जुनून ठंडा होने के बाद या अन्यथा पूर्वचिन्तन (प्रीमीडिएशनप्रीमीडिएशन) और गणना के लिए अनुमति देने के बाद।

सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, पत्नी द्वारा मृतक के साथ अपने नाजायज संबंध को स्वीकार करने के बाद आरोपी ने अस्थायी रूप से नियंत्रण खो दिया हो सकता है। एक मूवी थियेटर में अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ने के बाद, वह जहाज पर चला गया, वहां से बंदूक को लिया, कुछ आधिकारिक कार्य किया, और फिर अपनी कार को मृतक के कार्यस्थल और बाद में फिर उसके घर ले गया। उस समय तक, तीन घंटे बीत चुके थे, और उसके पास अपना आपा बहाल करने का पर्याप्त अवसर था। नतीजतन, कोर्ट ने फैसला किया कि अपवाद 1 से धारा 300 की आवश्यकताएं लागू नहीं थीं। इसलिए प्रतिवादी को हत्या का दोषी पाया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

जूरी ट्रायल द्वारा तय किया गया यह आखिरी मामला था। जनता के बीच इस मामले की काफी चर्चा हुई थी। मामले को लेकर काफी आलोचना भी हुई थी। नानावती ने पहले वी.के. कृष्णा मेनन के रक्षा सहयोगी के रूप में काम किया था, जबकि बाद में वे यूनाइटेड किंगडम में उच्चायुक्त (हाई कमिश्नर) थे, और उस अवधि के दौरान नेहरू के करीब हो गए थे। जवाहरलाल नेहरू नानावती के मुकदमे और सजा के समय भारत के प्रधान मंत्री थे, और उनकी बहन, विजयलक्ष्मी पंडित, बॉम्बे राज्य की राज्यपाल (गवर्नर) थीं। इन सभी लाभों ने अन्य परिस्थितियों में नानावती की मदद की होगी, लेकिन इस समय में प्रेस और जनता द्वारा क्षमा को एक शक्तिशाली राजनीतिक परिवार के एक साथी की सहायता के लिए, अधिकार के दुरुपयोग के रूप में माना जा सकता था। दूसरी ओर, आम तौर पर रूढ़िवादी (कंजर्वेटिव) देश में जनता की राय नानावती के पक्ष में थी, जिन्हें मध्यम वर्ग के आदर्शों और सम्मान की एक मजबूत भावना के साथ एक ईमानदार नौसेना कमांडर के रूप में देखा जाता था। नानावती ने तीन साल जेल की सजा काट ली थी, और यह सोचा गया था कि उसे क्षमादान देने से सिंधी समुदाय नाराज हो जाएगा, जिसका तालुक आहूजा परिवार था। इस समय के आसपास ही, सरकार को एक सिंधी व्यवसायी, भाई प्रताप से क्षमा याचिका प्राप्त हुई थी, जिसे एक आयात (इंपोर्ट) लाइसेंस का दुरुपयोग करने का दोषी ठहराया गया था और वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी भागीदार रहे थे। एक स्वतंत्रता योद्धा के रूप में उनके इतिहास और उनके अपराध की छोटी प्रकृति के कारण सरकार, भाई प्रताप को क्षमा प्रदान करने के लिए इच्छुक थी। अंत में, मृतक की बहन मामी आहूजा ने भी नानावती को क्षमा प्रदान करने के लिए एक आवेदन पर हस्ताक्षर किए थे। लिखित रूप में, उसने अपनी क्षमा के लिए सहमति व्यक्त की थी। भाई प्रताप और नानावती को अंत में उस समय महाराष्ट्र की राज्यपाल विजयलक्ष्मी पंडित ने क्षमा दान प्रदान कर दिया था। 

शंकर दीवाल वडू बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (2008) के मामले में अभियोजन पक्ष के अनुसार, आरोपी शंकर वाडू, महू वाडू का भाई है, जिस पर उसके द्वारा हमला किया गया था और हमले के परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई थी। यह घटना 22 अक्टूबर, 1996 को कैमड़ वाडु पाड़ा, लालूका वाडा, ठाणे में हुई थी, जहां आरोपी और पीड़ित दोनों के साथ-साथ उनके अन्य करीबी रिश्तेदार भी रहते थे। अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के अनुसार आरोपी ने अपने भाई वसंत की विधवा कमलीबाई को अपनी गृहिणी बनाए रखने की मांग की थी, लेकिन उसने इनकार कर दिया था। घटना वाले दिन अपीलार्थी हिंसक रूप से कमलीबाई को घसीटकर अपने घर पर ले जा रहा था। उसके भाई महू (मृतक) ने उस समय उसे बताया कि वह कमलीबाई को अपने आवास पर जबरदस्ती और खींच नहीं सकता है। इस तरह की अवांछित (अनसॉलिसिटेटेड) सलाह से आरोपी नाराज हो गया और उसने एक लकड़ी का तख्ता (पट) उठा लिया और माहूर के सिर पर वार कर दिया, साथ ही उसे लात-घूंसे भी मारे थे। महू की तत्काल मृत्यु हो गई थी। येशुबाई, अपराधी और पीड़ित दोनों के एक करीबी रिश्तेदार ने उस पर हमले का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई। यह शिकायत मिलने के बाद जांच शुरू की गई और आरोपी को हिरासत में ले लिया गया था। अभियोजन पक्ष ने आरोपी के खिलाफ हत्या के आरोप को स्थापित करने के लिए आठ गवाहों को बुलाया, और ट्रायल जज ने सबूतों को देखने के बाद आरोपी को दोषी पाया और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और धारा 506 के तहत उम्र कैद की सजा सुनाई और साथ ही 50,000 रुपये के जुर्माने से भी दंडित किया।

अपवाद II : निजी प्रतिरक्षा का अधिकार

आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है यदि अपराधी, किसी व्यक्ति या संपत्ति की निजी प्रति रक्षा के अपने अधिकार के सद्भावपूर्वक (गुड फेथ) प्रयोग में, कानून द्वारा उसे दी गई शक्ति से अधिक हो जाता है और उस व्यक्ति की मृत्यु कर देता है, जिसके खिलाफ वह बिना किसी पूर्वचिन्तन के और ऐसी प्रति रक्षा के प्रयोजन के लिए आवश्यकता से अधिक हानि करने के किसी इरादे  के बिना अपने प्रति रक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग कर रहा है।

दृष्टांत 

Z, A को मारने की कोशिश करता है, लेकिन इस तरह से नहीं जिससे उसे गंभीर चोट लगे। A अपनी जेब से एक बंदूक निकालता है और Z के विरुद्ध आक्रमण जारी रखता है। A, यह विश्वास करते हुए कि Z के हमले से बचने का कोई अन्य उपाय नहीं है, वो Z को गोली चलाकर मार देता है। इसलिए A ने केवल अपराधिक मानव वध किया है, हत्या नहीं।

कुछ परिस्थितियों में, निजी प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित कर देने तक भी विस्तारित हो जाता है। यह धारा तब लागू होती है जब किसी व्यक्ति के निजी बचाव के अधिकार का उल्लंघन किया गया हो। यहां पर इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक व्यक्ति ने अपने अधिकार की सीमा से परे, निजी प्रति रक्षा के अपने अधिकार का प्रयोग किया है, तो इस छूट के तहत उसे पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं किया जा सकता है। इसका उपयोग केवल अपराध को हत्या से अपराधिक मानव वध तक कम करने के लिए एक शमन (मिटिगेटिंग) तत्व के रूप में किया जा सकता है जो कि हत्या का गठन (कांस्टीट्यूट) नहीं करता है। बेशक, इस अपवाद को लागू करने से पहले, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि आरोपी को आई.पी.सी. की धारा 96-106 के तहत एक निजी बचाव का अधिकार है। यह सवाल कि क्या आरोपी ने निजी बचाव के अपने अधिकार की सीमा को पार कर लिया है, तभी उठेगा जब अधिकार का अस्तित्व साबित हो जाएगा।

नाथन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास 

नाथन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास (1972) के मामले में आरोपी और उसकी पत्नी के पास कुछ जमीन थी जिस पर वे कुछ वर्षों से खेती कर रहे थे। वे मकान मालकिन को पट्टे के भुगतान में चूक गए थे। आरोपी को जबरन बेदखल कर दिया गया था और जमींदार ने फसल काटने का प्रयास किया था, जिसके नतीजतन, आरोपी ने निजी संपत्ति की प्रति रक्षा के अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए मृतकों को मार डाला। सर्वोच्च न्यायालय इस दावे से सहमत था कि यह घटना तब हुई जब आरोपी संपत्ति के खिलाफ निजी प्रति रक्षा के अपने कानूनी अधिकार का प्रयोग कर रहा था। निजी संपत्ति की प्रति रक्षा का अधिकार आई.पी.सी. की धारा 104 के तहत मृत्यु के अलावा कोई अन्य नुकसान पहुंचाने की डिग्री तक सीमित था, क्योंकि मृत व्यक्ति किसी भी घातक हथियार से लैस नहीं था और आरोपी और उसके पक्ष की ओर से मौत या गंभीर नुकसान का कोई डर नहीं हो सकता था। नतीजतन, आरोपी के निजी प्रति रक्षा के अधिकार का उल्लंघन किया गया था, और मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के अपवाद 2 के तहत अपराधिक मानव वध, जो की हत्या की श्रेणी मे नही आएगा, के रूप में वर्गीकृत किया गया था क्योंकि यह कार्य अच्छे विश्वास में किया गया था और मृत्यु कारित करने के इरादे के बिना किया गया था। और इसलिए आरोपी की मौत की सजा को उम्रकैद की सजा में बदल दिया गया था।

अपवाद III: एक लोक सेवक का वैध कार्य

आपराधिक मानव वध, हत्या के तहत नहीं आएगा यदि अपराधी, लोक सेवक के रूप में कार्य करते हुए या लोक न्याय के लाभ के लिए कार्य करते हुए, लोक सेवक की सहायता करते हुए, कानून द्वारा उसे दी गई शक्तियों से अधिक कार्य कर देता है और ऐसा कार्य करके वह सद्भाव में किसी की मृत्यु कारित करता है, और वह ऐसे कार्य एक लोक सेवक के रूप में अपने कर्तव्य के उचित निर्वहन के लिए और मारे गए व्यक्ति के प्रति बिना किसी द्वेष के वैध और आवश्यक मानता है। 

इस अपवाद के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं: 

  • अपराध किसी लोक सेवक या लोक सेवक की सहायता करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया हो; 
  • कथित कार्य लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किया गया होना चाहिए; 
  • उसने कानून द्वारा उसे दी गई शक्तियों को पार कर लिया हो; 
  • कार्य सद्भाव में किया गया होना चाहिए; तथा
  • लोक सेवक को यह सोचना चाहिए कि उसके कार्य कानूनी हैं और उसके कर्तव्यों की उचित पूर्ति के लिए आवश्यक हैं, और 
  • उसे अपने कार्यों के परिणामस्वरूप मरने वाले व्यक्ति के प्रति कोई घृणा नहीं रखनी चाहिए थी।

दखी सिंह बनाम स्टेट (1955) के मामले में, एक संदिग्ध चोर को एक पुलिस प्राधिकारी ने पकड़ लिया था और उसे रेलवे स्टेशन ले जाया जा रहा था। चोर तेज रफ्तार वाली ट्रेन से भागने में सफल रहा था। कांस्टेबल ने उनका पीछा किया, लेकिन गिरफ्तार न कर पाने के कारण उसने उस पर फायरिंग कर दी। हालांकि, उसने फायरमैन को टक्कर मार दी और इस प्रक्रिया में उसकी मौत हो गई। इसलिए इस मामले को इस अपवाद के तहत कवर किया गया था।

अपवाद IV: तत्काल झगड़ा

आपराधिक मानव वध, हत्या नहीं है यदि यह तत्काल झगड़े के दौरान भावनाओं की गर्मी में और अपराधियों द्वारा अनुचित लाभ उठाए बिना या क्रूर या असामान्य तरीके से कार्य किए बिना किया गया हो

इस अपवाद के लिए केवल आवश्यकताएं हैं: 

  • हत्या बिना सोचे-समझे की जानी चाहिए;  
  • यह अचानक लड़ाई में की जानी चाहिए; 
  • यह जुनून की गर्मी में की जानी चाहिए; 
  • यह अचानक झगड़े में की जानी चाहिए; तथा
  • यह अपराधी द्वारा अनुचित लाभ लेने या क्रूर या असामान्य तरीके से कार्य किए बिना की जानी चाहिए।

मनके राम बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (2003) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक पुलिस निरीक्षक को अपवाद 4 का लाभ प्रदान किया, जिसने परिस्थितियों के एक विचित्र संयोजन में अपने अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) को मार डाला था। उसने अपने कक्ष में मृतक को शराब पीने के लिए कहा था। जब वे शराब पी रहे थे, तब मृतक का भतीजा कमरे में आया और उसे खाने के लिए बुलाया। जैसे ही मृतक कमरे से बाहर निकलने के लिए उठा, अपीलकर्ता क्रोधित हो गया और अश्लील शब्दों में उसका अपमान करने लगा, जिसका मृतक ने विरोध किया। इससे प्रार्थी और भी भड़क गया था। उन दोनों के बीच कहासुनी हो गई। अपीलकर्ता ने अपनी बंदूक निकाली और मृतक पर दो गोलियां चलाईं, जो पास में खड़ा था। ये शॉट घातक थे। सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब उच्च न्यायालय की सजा को पलट दिया जो की संहिता की धारा 302 के तहत दी गई थी, और न्यायालय ने यह पाया कि घटना जुनून की गर्मी में हुई थी और याचिकाकर्ता को अपवाद 4 का लाभ प्रदान किया था। यह निर्णय लिया गया कि, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की समग्रता को देखते हुए, अपीलकर्ता ने असामान्य या कठोर तरीके से लड़ाई या आचरण का अनुचित लाभ नहीं उठाया था।

अपवाद V : सहमति से मृत्यु

यदि मृत व्यक्ति की आयु अठारह वर्ष से अधिक है और वह पीड़ित होने का जोखिम उठाने की या मृत्यु का जोखिम उठाने की सहमति देता है, तो अपराधिक मानव वध हत्या नहीं है।

दृष्टांत 

A जानबूझकर Z, अठारह वर्ष से कम आयु के एक नाबालिग को उत्तेजित कर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करता है। Z के युवा होने के कारण, वह अपनी मृत्यु के लिए सहमति देने में असमर्थ था; जिसके परिणामस्वरूप, A ने सहायता प्रदान की थी और उसे हत्या के लिए उत्तेजित किया था।

निम्नलिखित बातें साबित होने चाहिए: 

  • मृतक की अनुमति से मृत्यु को प्रेरित किया जाना चाहिए; 
  • मृतक की उम्र उस समय 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए; तथा 
  • प्रदान की गई सहमति स्वतंत्र और स्वैच्छिक होनी चाहिए, और डर या तथ्यों की गलतफहमी पर आधारित नहीं होनी चाहिए।

नरेंद्र बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (2014) के मामले में, मृतक जो, नाथी नाम की एक विवाहित महिला थी, वह अपना घर छोड़कर अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। वहां वह आरोपी नरेंद्र के करीब हो गई और दोनों ने शादी करने की इच्छा जताई। एक ही गोत्र के होने के कारण गांव वाले उनकी शादी की इच्छा के खिलाफ थे। गांव वालों के द्वारा उनके प्यार को ठुकराने से नाखुश होने के कारण दोनों ने आत्महत्या करने के लिए हामी भर दी। अन्य ग्रामीणों ने एक दिन आरोपी को लाश को नुकसान पहुंचाते हुए देखा, लेकिन इससे पहले कि वे उसे बचा पाते, पीड़िता की मौत हो चुकी थी। हालांकि आरोपी के पेट में चाकू से वार किए जाने के बाद भी उसे खुदकुशी करने से रोक लिया गया था। उच्च न्यायालय को रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं मिला कि मृतक ने अपनी स्वतंत्र और स्वैच्छिक सहमति दी थी। बाद में मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां न्यायाधीश ने कई तथ्यों पर जोर दिया जैसे की, मृतक ने लोगो का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश नहीं की, कि आरोपी घायल हो गया था, और यह भी कि उसके पास निवास में प्रवेश करने पर कोई हथियार नहीं था। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने मृतक के पक्ष में फैसला सुनाया और उसे अपवाद 5 के तहत लाभ प्रदान किया।

अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच अंतर

अपराधिक मानव वध एक जीनस है, और हत्या उसकी एक प्रजाति है। सभी अपराधिक मानव वधएं, हत्याएं होती हैं, लेकिन सभी हत्याएं अपराधिक मानव वध नहीं होतीं। तो यहां पर मुख्य अंतर अपराधिक मानव वध जो हत्या की श्रेणी मे आते हैं और अपराधिक मानव वध है जो हत्या की श्रेणी मे नहीं आते है, के बीच का है। अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच एकमात्र अंतर इसमें शामिल उद्देश्य और ज्ञान की डिग्री है। उच्च स्तर का उद्देश्य और ज्ञान होने पर मामले को हत्या के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि उद्देश्य या ज्ञान की मात्रा कम होती है तो मामले को अपराधिक मानव वध के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा। नतीजतन, अपराधिक मानव वध और हत्या के बीच स्पष्ट सीमांकन (डिमार्केशंस) स्थापित करना चुनौतीपूर्ण है।

इरादा

धारा 299 के खंड (a) और धारा 300 के खंड (1) समान हैं। यह धारा 299 (a) के तहत अपराधिक मानव वध है, यदि मृत्यु कारित करने के इरादे के साथ किए गए कार्य के कारण मृत्यु होती है, जब तक कोई एक अपवाद लागू नहीं होता, तो यह धारा 300 के खंड (1) के तहत हत्या की श्रेणी में आएगा।

ऐसी शारीरिक चोट पहुंचाना जिससे मृत्यु करित करने की संभावना है 

धारा 299 खंड (b) और धारा 300 खंड 2 और 3 दोनों शारीरिक चोट पहुंचाने के उद्देश्य से संबंधित हैं, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होने की संभावना है। धारा 299 (b) के संदर्भ में, यह केवल यह बताता है कि यदि मृत्यु, मृत्यु कारित करने वाली शारीरिक क्षति के इरादे के साथ किए गए कार्य के कारण होती है, तो इसे एक अपराधिक मानव वध माना जाता है। जबकि धारा 300 के खंड (2) में कहा गया है कि शारीरिक चोट के इरादे के साथ एक कार्य किया जाना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होने की संभावना है, धारा यह भी कहती है कि शारीरिक चोट के जानबूझकर कारित करने के साथ ज्ञान होना चाहिए कि शारीरिक चोट से मौत कारित होने की संभावना है। 

धारा 299 (b) में ‘संभावना’ शब्द एक साधारण संभावना को संदर्भित करता है कि चोट लगने के परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है। हालाँकि, धारा 300 के खंड (2) में ‘संभावना’ शब्द कुछ हद तक, मृत्यु की निश्चितता को व्यक्त करता है। यह दृष्टांत (b) से धारा 300 में समझाया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि आरोपी को मृतक की स्थिति का कुछ अनूठा (यूनिक) ज्ञान है, जैसे कि वह किसी भी बीमारी से पीड़ित हो सकता है, और यह जानकारी इस तथ्य को निश्चित रूप से जोड़ती है कि शारीरिक चोट होने के कारण मृत्यु होने की संभावना है। धारा 299 (b) और 300 (2) में ‘संभावना’ शब्दों के अर्थ के बीच एकमात्र अंतर संभावना की डिग्री है।

धारा 300 के खंड (3) को देखें तो, शारीरिक चोट पहुँचाने का उद्देश्य इस निश्चितता के साथ है कि ऐसी शारीरिक चोट प्रकृति के नियमित क्रम में मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है। शब्द ‘पर्याप्त’ प्रकृति के नियमित क्रम में मृत्यु का कारण बनता है, जैसे कि धारा 299 (b) में ‘संभावित’ शब्द, मृत्यु की निश्चितता को एक उच्च सीमा में लागू करता है। इस प्रकार, धारा 299 (b) और 300 (2) और (3) के तहत मृत्यु के बीच आवश्यक अंतर यह है कि धारा 299 (b) के तहत, शारीरिक चोट के कारण मृत्यु होने की संभावना कम है, जबकि धारा 300 (2) और (3) के तहत शारीरिक चोट के कारण मृत्यु होने की संभावना अधिक होती है।

ज्ञान

धारा 299 (c) और 300 (4) उन स्थितियों से निपटते हैं, जिनमें आरोपी को यह जानकारी होती है कि उसके कार्य के परिणामस्वरूप किसी की मृत्यु होने की संभावना है। धारा 300 (4) के तहत ज्ञान की आवश्यकता पिछली धारा के समान मृत्यु के जोखिम का एक उच्च स्तर है। मौत की यह उच्च संभावना धारा के अंतिम खंड में इंगित की गई है, जिसमें कहा गया है कि कार्य इतना खतरनाक होना चाहिए कि यह लगभग निश्चित रूप से मृत्यु या शारीरिक चोट का परिणाम होगा जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होने की संभावना है, और यह कार्य जोखिम लेने के कोई औचित्य के बिना किया जाना चाहिए। धारा 299 की धारा (c) और 300 की धारा (4) दोनों ही उन परिस्थितियों पर लागू होती हैं जिनमें आरोपी का, मृत्यु करने या शारीरिक चोट पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन वह जानता था कि कार्य मूल रूप से खतरनाक है। मानव जीवन के लिए जोखिम की डिग्री निर्धारित करती है कि आचरण हत्या है या अपराधिक मानव वध है। यदि मृत्यु एक संभावित परिणाम है तो यह अपराधिक मानव वध है; यदि मृत्यु सबसे अधिक संभावित परिणाम है तो यह हत्या है।

स्टेट ऑफ़ ए.पी. बनाम आर पुन्नय्या

स्टेट ऑफ़ ए.पी.बनाम रायवरप्पु पुन्नया (1977) के ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इन दोनो के बीच प्रमुख अंतरों को समझने के लिए एक तुलना तालिका (टेबल) बनाई थी, जो इस प्रकार है:

धारा 299 आई.पी.सी. धारा 300 आई.पी.सी.
एक व्यक्ति अपराधिक मानव वध करता है यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु हुई है वह –  कुछ अपवादों के अधीन अपराधिक मानव वध हत्या है यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु हुई है, वह-
इरादा:

मौत कारित करने के इरादे से; या शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु होने की संभावना है; या

इरादा:

यदि कोई कार्य मौत कारित करने के इरादे से; या शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया गया जिसे अपराधी जानता है कि उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी जिसे नुकसान पहुँचाया गया है; या किसी व्यक्ति को शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से और शारीरिक चोट पहुँचाने का इरादा प्रकृति के सामान्य क्रम में मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है, या

ज्ञान:

यह जानकर कि उसके कार्य से मृत्यु होने की संभावना है।

ज्ञान:

इस ज्ञान के साथ कि उसका कार्य इतना तत्काल हानिकारक है कि इसका लगभग निश्चित रूप से मृत्यु या शारीरिक चोट का परिणाम होगा जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है और बिना किसी औचित्य या मृत्यु या चोट के जोखिम के कारण ऊपर वर्णित है।

अपराधिक मानव वध और हत्या से संबंधित केस

वसंत बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 

वसंत बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (1983) के मामले में आरोपी और मृतक के बीच पहले से ही दुश्मनी थी। आरोपी और मृतक आपस में लड़ते देखे गए थे। वहां मौजूद कुछ लोगों ने दोनों को अलग कर दिया। इसके बाद आरोपी अपने वाहन की ओर दौड़ा, उसे सड़क के गलत साइड पर ले गया और सीधे मृतक को टक्कर मार कर उसे नीचे गिराकर उसे कुचल दिया, जिससे उसकी मौत हो गई। जिस रास्ते पर हादसा हुआ वह चौड़ा और सुनसान था। आरोपी के पास गलत तरीके से जीप चलाने का कोई कारण या आवश्यकता नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि आरोपी ने जानबूझकर अपनी जीप को मृतक के ऊपर चड़ाया है और उसे मारने के उद्देश्य से ऐसा किया है। यह ध्यान देने योग्य है कि धारा 300 का पहला खंड, ‘मृत्यु कारित करने के उद्देश्य से किया गया कार्य’, धारा 299 के पहले खंड के समान है, जो इसी तरह ‘मृत्यु कारित करने के इरादे से कार्य करना’ है। परिणामस्वरूप, धारा 300 के खंड (1) के तहत आने वाला एक कार्य भी धारा 299 के तहत आएगा, और यह दोनों मामलों में हत्या के लिए अपराधिक मानव वध का गठन करेगा।

स्टेट ऑफ़ राजस्थान बनाम धूल सिंह

स्टेट ऑफ़ राजस्थान बनाम धूल सिंह (2003) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को मृतक की गर्दन पर तलवार से काटकर घायल करने के लिए हत्या का दोषी पाया, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक रक्तस्राव (ब्लड फ्लो) हुआ और ऑर्गन फेलियर हुआ और न्यायालय ने इस आधार पर यह पाया की आरोपी जानता था कि उसके द्वारा पहुंचाई गई शारीरिक चोट के परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है।

पुलिचेरला नागराजू बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश (2006)

पुलिचेरला नागराजू बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश (2006) में, न्यायालय ने उन पहलुओं को रेखांकित किया, जिन पर अदालतों को विचार करना चाहिए कि क्या कोई कार्य हत्या, अपराधिक मानव वध, या हत्या की श्रेणी में न आने वाले अपराधिक मानव वध के रूप में दंडनीय है, और कहा कि अदालत को यह निर्धाती करते समय सावधानी के साथ आगे बढ़ना चाहिए की मामला धारा 302 या 304 के भाग I या II के अंतर्गत आता है या नहीं। परिणामस्वरूप, यह सुनिश्चित करना न्यायालयों की जिम्मेदारी है कि धारा 302 के तहत दंडित हत्या के मामलों को धारा 304 भाग I / II के तहत दंडनीय अपराधों में नहीं बदला जाता है, या अपराधिक मानव वध के मामलों को हत्या के रूप में माना जाता है और यह धारा 302 के तहत हत्या के रूप में दंडनीय है। अन्य बातों के अलावा, निम्नलिखित में से कुछ या कई के संयोजन का उपयोग मृत्यु का कारण निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है:

  • हथियार के गुण;
  • आरोपी के पास हथियार था या नहीं, या उसे मौके पर ही उठाया गया था।
  • क्या घायल करना एक महत्वपूर्ण शारीरिक भाग पर निर्देशित था;
  • किसी को घायल करने के लिए प्रयुक्त बल की मात्रा;
  • क्या कार्य अचानक हुए विवाद, अचानक हुई लड़ाई, या सभी के लिए मुक्त विवाद के दौरान हुआ था;
  • घटना संयोग से हुई या इसकी योजना पहले से बनाई गई हो;
  • क्या कोई पिछली दुश्मनी थी या यदि मृतक एक अजनबी था;
  • क्या कोई गंभीर और तत्काल उत्तेजना का मामला था, और यदि हां, तो इसका क्या कारण था; 
  • क्या वह भावनाओं की गर्मी में किया गया था; 
  • क्या नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्ति ने क्रूर और असामान्य तरीके से काम किया है; 
  • आरोपी ने एक ही वार किया या कई वार। 

बेशक, शर्तों की पूर्ववर्ती (प्रीसीडिंग) सूची पूरी नहीं है, और व्यक्तिगत स्थितियों में अन्य विशेष परिस्थितियां हो सकती हैं जो उद्देश्य के प्रश्न पर प्रकाश प्रदान करती हैं।

अपराधिक मानव वध और हत्या के लिए सजा

धारा 304 आई.पी.सी. : अपराधिक मानव वध के लिए दंड जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता

यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कारित होती है, मृत्यु कारित करने या ऐसी शारीरिक चोट कारित करने के इरादे से की जाती है जिससे मृत्यु होने की संभावना हो; तो ऐसे कार्य को दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकती है, और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा।

हालांकि धारा स्वयं इस तरह से भागों को विभाजित नहीं करता है, इस धारा के तहत दंड को दो भागों में विभाजित किया जाता है, जिसे अक्सर धारा 304, भाग 1 और धारा 304, भाग 2 के रूप में जाना जाता है। यदि कार्य, मृत्यु या शारीरिक चोट कारित करने के उद्देश्य से किया जाता है जिससे मृत्यु होने की संभावना है, तो धारा 304, भाग I, दस साल तक की अवधि के लिए आजीवन कारावास या किसी भी प्रकार के कारावास की सजा जिसे 10 साल तक बड़ाया जा सकता है और जुर्माना निर्दिष्ट करता है। यह दंड धारा 299, खंड (a) और (b) को संदर्भित करता है।

धारा 304, भाग II इस ज्ञान के साथ किए गए अपराधों पर लागू होता है कि उनके परिणामस्वरूप मृत्यु होने की संभावना है, लेकिन इस उद्देश्य से नहीं कि मृत्यु या शारीरिक चोट हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है। यह वाक्यांश धारा 299, खंड (c) से मेल खाता है। हालाँकि, यदि कोई अपराध इस ज्ञान के साथ किया जाता है कि यह इतना खतरनाक है कि इसका परिणाम लगभग निश्चित रूप से मृत्यु या शारीरिक चोट के रूप में होना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो सकती है, और यह कार्य बिना औचित्य के किया जाता है, तो अपराध को धारा 304, भाग II के दायरे से हटा दिया जाता है और धारा 302 के तहत लाया जाता है, क्योंकि अपराध धारा 300 (4) के तहत हत्या की श्रेणी में आएगा।

विश्वनाथ बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (1959) के मामले में, आरोपी ने मृतक को चाकू मार दिया, जो उसके दिल में घुस गया क्योंकि मृतक आरोपी की पत्नी और बहन को जबरदस्ती ले जाने का प्रयास कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय  ने फैसला सुनाया कि मुकदमा धारा 304, भाग II के तहत आता है।

 

धारा 302 : हत्या

धारा 302 के तहत हत्या दंडनीय है। यह मौत की सजा या आजीवन कारावास, साथ ही एक मौद्रिक जुर्माना निर्दिष्ट करती है। यदि कोई अदालत किसी अपराधी को धारा 300 के तहत हत्या का दोषी पाती है, तो अदालत को अपराधी को मौत या आजीवन कारावास की सजा देनी चाहिए। अदालत द्वारा कोई अन्य कम सजा नहीं दी जा सकती है।

1973 में, आपराधिक प्रक्रिया संहिता को फिर से अपडेट किया गया था, जिससे आजीवन कारावास का नियम बना। मौत की सजा देने की न्यायाधीश की क्षमता को नई संहिता की धारा 354 (3) द्वारा सीमित कर दिया गया है, जिसके लिए अदालत को मौत की सजा लगाने के लिए विशेष कारण स्थापित करने की आवश्यकता होती है। जब हत्या के लिए सजा देने की बात आती है, तो उसने अब आजीवन कारावास को नियम और मौत की सजा को अपवाद बना दिया है।

रेड्डी संपत कुमार बनाम स्टेट

रेड्डी संपत कुमार बनाम स्टेट (2005) में, सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी, एक डॉक्टर, जो अपने ससुराल वालों की कई हत्याओं में लिप्त था, को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। हालाँकि, अदालत ने उन्हें कुछ अवसरों पर एक निवारक के रूप में सेवा करने के लिए किसी भी तरह की छूट लेने से रोक दिया। इसी तरह, लहना मामले (2002) में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी माँ, भाई और भाभी की हत्या के आरोपी की निचली अदालत द्वारा लगाई गई मौत की सजा और उच्च न्यायालय द्वारा इस सजा को बरक़रार करने को असंवैधानिक घोषित किया और इस दंड को आजीवन कारावास में कम कर दिया और यह तर्क दिया कि कई हत्याएं, क्रूर, शैतानी और भयावह योजना का परिणाम नहीं थीं।

निष्कर्ष

हालांकि हत्या और अपराधिक मानव वध की श्रेणियां कुछ मायनों में समान प्रतीत होती हैं, लेकिन वे मृत्यु की संभावना की डिग्री, या गैरकानूनी कार्यों की गंभीरता के संदर्भ में भिन्न हैं। यदि अपराधी द्वारा किया गया कार्य या तो एक भीषण अपराध है या विशेष रूप से खतरनाक आचरण है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, जिसका कोई अन्य परिणाम नहीं होता है, तो इसे अपराधिक मानव वध की तुलना में हत्या के रूप में वर्गीकृत किए जाने की अधिक संभावना है। यदि अपराधी का आचरण पीड़ित को जीवित छोड़ देता है, लेकिन जीवित रहने की संभावना के साथ गंभीर पीड़ा में है, तो इसे अपराधिक मानव वध कहा जाता है, जो हत्या के समान नहीं है। बलात्कार और हत्या जैसे अपराध महिलाओं और बच्चों के लिए खतरनाक होते जा रहे हैं। हाल के अनुमानों के मुताबिक, ये अपराध दर हर दिन बढ़ रहे हैं। इस पर बात करके, विधायक कानून बनाने पर विचार कर सकते हैं जिसमें निरोध सिद्धांत और परिणाम शामिल हैं। नतीजतन, यह विचार अपराध दर को कम करने में मदद कर सकता है। सजा मजबूत होने से अपराध में कमी आएगी। 

संदर्भ 

 

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