मध्यस्थता और सुलह के बीच अंतर

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Arbitration and Conciliation Act

यह लेख Mudit Gupta द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में मुंबई लॉ एकेडमी विश्वविद्यालय से बी.बी.ए. एल.एल.बी. (ऑनर्स) कर रहे हैं। यह लेख मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और सुलह (कॉन्सिलिएशन), जो विवादों को हल करने के तरीकों के रूप में उपयोग किए जाते है, ये एक दूसरे से कैसे भिन्न हैं, और कौन से विभिन्न प्रकार के विवादों के लिए उपयुक्त होते हैं, पर चर्चा करता है,। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

2018 में नीति आयोग द्वारा दिए गए रणनीति पत्र के अनुसार, भारतीय अदालतों में 29 मिलियन मामले लंबित थे, और उस समय यह कहा गया था कि नियुक्त न्यायाधीशों की संख्या के साथ इन लंबित मामले की संख्या पर निर्णय देने के लिए 324 साल से अधिक का समय लगेगा। ये संख्या निश्चित रूप से अब तक बढ़ी ही है। यह आंकड़े स्पष्ट रूप से भारतीय न्यायपालिका पर बोझ के साथ-साथ लोगों की भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में समय लेने वाली धारणा को परिभाषित करते हैं। साथ ही, पारंपरिक मुकदमेबाजी की प्रक्रिया प्रकृति में बहुत समय लेने वाली है, जो कई विवादों के लिए लागत या समय के संबंध में प्रभावी नहीं है। ऐसी स्थिति को देखते हुए आजकल लोग विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों पर विचार कर रहे हैं। विवाद समाधान के लिए मध्यस्थता और सुलह दो वैकल्पिक तंत्र हैं।

मध्यस्थता और सुलह: एक संक्षिप्त अवलोकन 

पारंपरिक मुकदमेबाजी के अलावा 3 प्रमुख निवारण तंत्र हैं। उनमें से दो मध्यस्थता और सुलह हैं। ये दो वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र हैं जिनका उपयोग दो या दो से अधिक पक्षों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए किया जाता है। इन दोनों तरीकों का उद्देश्य एक ऐसा समाधान खोजना है जो एक लंबी और महंगी अदालती सुनवाई की आवश्यकता के बिना, मामले में शामिल सभी पक्षों के लिए निष्पक्ष और स्वीकार्य हो। हालाँकि, इन दोनों तरीकों का उद्देश्य पक्षों के लिए पैसा और समय बचाना है, मध्यस्थता और सुलह के बीच कई महत्वपूर्ण अंतर हैं जिन्हें समझना जरूरी है। इस लेख का उद्देश्य मध्यस्थता और सुलह के बीच प्रमुख अंतरों का अवलोकन प्रदान करना है और पाठक को विभिन्न स्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त कार्रवाई का निर्धारण करने में मदद करना है।

मध्यस्थता को विवाद समाधान की एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया के रूप में समझाया जा सकता है जिसमें लोगों का एक तटस्थ (न्यूट्रल) समूह, जिसे सामूहिक रूप से मध्यस्थता न्यायधिकरण (ट्रिब्यूनल) के रूप में संदर्भित किया जाता है, को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों के अनुसार नियुक्त किया जाता है, और उनका मुख्य कार्य विवाद के लिए दोनों पक्षों की दलीलो को सुनना है और सभी प्रासंगिक सबूतों का लेखा-जोखा लेना और फिर उनके सामने प्रस्तुत तर्कों और सबूतों के आधार पर पक्षों के विवाद के बारे में एक बाध्यकारी निर्णय लेना, जिसे आम तौर पर एक मध्यस्थ पंचाट (आर्बिट्रल अवॉर्ड) के रूप में जाना जाता है। न्यायधिकरण का निर्णय अंतिम, बाध्यकारी और पक्षों पर लागू करने योग्य है, और अपील का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि यह साबित न हो जाए कि पंचाट उनके खिलाफ धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित था। मध्यस्थता का तंत्र मुख्य रूप से उन विवादों को हल करने के लिए उपयोग किया जाता है जो मुख्य रूप से रोजगार, निर्माण और अन्य वाणिज्यिक (कमर्शियल) मामलों से संबंधित संविदात्मक दायित्वों से संबंधित होते हैं। अक्सर, मध्यस्थता का उपयोग पारंपरिक अदालती मुकदमेबाजी के लिए एक वैकल्पिक निवारण तंत्र के रूप में किया जाता है, क्योंकि मध्यस्थता ज्यादातर मामलों में तेज, थोड़ी अनौपचारिक (इनफॉर्मल) और विवाद के पक्षों के लिए कम महंगी होती है।

दूसरी ओर, सुलह एक गैर-बाध्यकारी प्रक्रिया है जिसमें एक तटस्थ व्यक्ति, जिसे सुलहकर्ता (कॉन्सिलिएटर) के रूप में जाना जाता है, को नियुक्त किया जाता है, जिसका मुख्य कार्य पक्षों को उनके विवाद के लिए उनके बीच संचार की सुविधा ला कर उन्हे एक आम आधार प्राप्त करवाकर पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान तक पहुंचने में मदद करना है। सुलहकर्ता अपनी क्षमता में, पक्षों को सुझाव दे सकता है, लेकिन पक्षों पर लागू होने वाला बाध्यकारी निर्णय नहीं दे सकता है। इस प्रक्रिया का उपयोग आम तौर पर उन विवादों को हल करने के लिए किया जाता है जिनमें व्यक्तिगत या भावनात्मक मुद्दे शामिल होते हैं, जैसे पारिवारिक कानून या कार्यस्थल संबंधी विवाद, जहां संभावना है कि विवाद को संचार के माध्यम से हल किया जा सकता है। सुलह का उपयोग अक्सर पूर्व-मुकदमेबाजी या पूर्व-मध्यस्थता कदम के रूप में किया जाता है जो ज्यादातर मामलों में पक्षों के लिए समय और पैसा बचाता है।

ऊपर चर्चा की गई दोनों निवारण तंत्रों के अपने अनोखे फायदे और नुकसान हैं, और दोनों के बीच चयन पूरी तरह से केवल एक ही चीज़ पर निर्भर करता है: विवाद की विशिष्ट परिस्थितियाँ। इन दो तरीकों के बीच चयन करते समय, पक्षों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने विवाद की प्रकृति, वे जो परिणाम चाहते हैं, और उनकी अन्य विशिष्ट आवश्यकताओं पर विचार करें। दोनों निवारण तंत्रों के बीच अंतर की एक विस्तृत और स्पष्ट समझ, पक्षों को उनके विशेष विवाद के लिए सबसे उपयुक्त तंत्र के बारे में सूचित निर्णय लेने में मदद करती है ताकि वे इसका विकल्प चुन सकें। कई मामलों में, कानूनी परामर्शदाता (काउंसलर) पक्षों को उनके विशेष विवाद के निवारण के सर्वोत्तम तंत्र को चुनने में भी सहायता प्रदान करते हैं।

मध्यस्थता क्या है

अब हम समझते हैं कि “मध्यस्थता” शब्द का वास्तव में क्या अर्थ है। मध्यस्थता जिसे अंग्रेजी में आर्बिट्रेशन कहा जाता है, लैटिन शब्द “आर्बिट्ररी” के माध्यम से आया है, जिसका अर्थ है “निर्णय देना।” अंग्रेजी में, मध्यस्थता विवादों को निपटाने के लिए एक मध्यस्थ का उपयोग करने की प्रक्रिया को संदर्भित करती है, और उस मध्यस्थ की कार्रवाई वैकल्पिक विवाद समाधान के प्रकार को निर्धारित करती है जहां पक्ष मुकदमेबाजी का सहारा लेने के बजाय निजी अर्ध-न्यायिक अधिकारियों से सहमत होते हैं जो पक्षों के बीच विवाद को सुनते है और उसके आधार पर, उनके विवाद को हल करते हैं। 

मध्यस्थता का उपयोग आमतौर पर सिविल विवादों में किया जाता है। यह आपराधिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है। पक्षों को अपने समझौते में एक खंड शामिल करना चाहिए। जब कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो पक्षों को अपने दावों को सुनने के लिए एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण नियुक्त करना चाहिए, और उन दावों पर विवादों के आधार पर, मध्यस्थ न्यायाधिकरण एक फैसला जारी करता है, जिसे आमतौर पर एक पंचाट के रूप में जाना जाता है। 

मध्यस्थता हाल के वर्षों में विवाद समाधान के सबसे लोकप्रिय तरीकों में से एक बन गया है और इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला कारण यह है कि यह पक्षों के लिए बहुत समय बचाता है, समय बचाकर दोनों पक्षों के साथ-साथ भारत में न्यायपालिका की मदद करता है। दूसरा कारण यह है कि सामान्य मुकदमेबाजी की कार्यवाही में, जब मीडिया किसी मुकदमे के परिणाम की रिपोर्ट करती है, तो पक्षों को अक्सर बदनाम कर दिया जाता है, जो विवाद पर अनावश्यक ध्यान आकर्षित करके पक्षों की छवि को बदनाम करता है। मध्यस्थता में इस अनावश्यक ध्यान को कुछ हद तक टाला जा सकता है।

सुलह क्या है

सुलह जिसे अंग्रेजी में कॉन्सिलिएशन कहा जाता है, वह बहुत हद तक “सुलह करने” शब्द से संबंधित है, जो एक लैटिन शब्द “कॉन्सिलियरे” से लिया गया है, जिसका मूल अर्थ “एकजुट होना” है। कॉन्सिलियरे लैटिन शब्द “कॉन्सिलियम” से आया है, जिसका अर्थ है “परिषद”। सुलह एक अन्य प्रकार का वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र है जिसमें आमतौर पर एक तटस्थ-तृतीय पक्ष व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है, जिसका मुख्य कार्य पक्षों के बीच संचार और बातचीत को सुविधाजनक बनाकर पक्षों के बीच उत्पन्न होने वाले विवाद को हल करना है और उन्हें एक समान समाधान पर लाना है। सुलह कार्यवाहियों का मुख्य उद्देश्य पक्षों पर एक समाधान थोपने के बजाय परस्पर स्वीकार्य समझौते तक पहुँचने में मदद करना है।

विभिन्न प्रकार के विवादों में सुलह को प्राथमिकता दी जाती है, जिसमें रोज़गार, पारिवारिक, वाणिज्यिक और सामुदायिक विवाद शामिल हैं। सुलह की प्रक्रिया अनौपचारिक, लचीली और गोपनीय (कॉन्फिडेंशियल) है। इसे अक्सर चुना जाता है क्योंकि यह विवादों को जल्दी से हल करने में मदद करता है, और पूरी प्रक्रिया पारंपरिक अदालती कार्यवाही की तुलना में बहुत कम खर्चीली है। पक्ष परिणामों पर नियंत्रण बनाए रखने में सक्षम हैं और अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और हितों के लिए सुलह प्रक्रिया को अनुकूलित करने में सक्षम हैं। 

यदि पक्ष सुलह के माध्यम से एक समझौते पर पहुंचते हैं, तो इसे आमतौर पर दोनों पक्षों द्वारा लिखा और हस्ताक्षरित किया जाता है, जिसके बाद यह कानूनी रूप से बाध्यकारी हो जाता है। सुलह द्वारा पेश किए गए महत्वपूर्ण लाभों में प्रक्रिया का लचीलापन और अनौपचारिकता, कार्यवाहियों की गोपनीयता, और पक्षों की पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान तक पहुंचने की क्षमता शामिल है। हालांकि, विवाद समाधान के इस रूप से सहमत होने से पहले सुलहकर्ता की योग्यता और सुलह समझौते की शर्तों पर सावधानीपूर्वक विचार करना महत्वपूर्ण है।

मध्यस्थता की तुलना में सुलह कब चुननी चाहिए

किसे मध्यस्थता का विकल्प चुनना चाहिए 

हालांकि कई विवाद समाधान तंत्र हैं, लेकिन उन सभी को सभी विवादों पर लागू नहीं किया जा सकता है। इस बारे में निर्णय विवाद की प्रकृति और पक्षों की मंशा के बारे में सोचने के बाद किया जाता है। मध्यस्थता एक ऐसा तंत्र है जिसमें विवाद से पहले निर्णय लिया जाता है। उनके बीच विवाद होने से पहले पक्षों द्वारा उसी के संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जाते हैं। विवाद समाधान के साधन के रूप में मध्यस्थता को लोगों के विभिन्न समूहों द्वारा चुना जा सकता है। आइए नीचे कुछ समूहों पर चर्चा करें:

कंपनियां 

2013 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, विवाद समाधान के साधन के रूप में मध्यस्थता को 91% कंपनियों द्वारा चुना जाता है। कंपनियां व्यावसायिक विवादों को हल करने के लिए मध्यस्थता चुन सकती हैं, क्योंकि यह अदालत जाने की तुलना में तेज़ और अधिक लागत प्रभावी हो सकती है। साथ ही, यह मीडिया का ध्यान कम आकर्षित करता है और बाजार में कंपनी की साख को बरकरार रखने में मदद करता है। ये लाभ कंपनियों को अपने विवादों को निपटाने के लिए विवाद समाधान तंत्र के रूप में मध्यस्थता का विकल्प चुनने का एक बहुत अच्छा कारण देते हैं।

उपभोक्ता 

उपभोक्ता कंपनियों के साथ विवादों को हल करने के लिए मध्यस्थता का चयन कर सकते हैं, क्योंकि यह उनके विवाद को निपटाने के लिए अदालत की तुलना में अधिक अनौपचारिक और कम डराने वाली प्रक्रिया प्रदान कर सकता है। साथ ही, कई बार ऐसे मामलों में, वादी को दी गई हर्जाने की राशि मुकदमेबाजी पर हुए खर्च से बहुत कम होती है, जो पीड़ित उपभोक्ताओं को हर्जाना देने के पूरे उद्देश्य को विफल कर देती है। यदि पक्ष अपने विवाद को हल करने के लिए मध्यस्थता का विकल्प चुनते हैं तो यह खर्च काफी कम हो जाता है।

कर्मचारी 

कर्मचारी अपने नियोक्ताओं के साथ विवादों को हल करने के लिए मध्यस्थता का चयन कर सकते हैं, क्योंकि यह अदालत जाने की तुलना में त्वरित और अधिक गोपनीय समाधान प्रदान करता है। पीड़ित कर्मचारियों के लिए मुकदमेबाजी थोड़ी डराने वाली हो सकती है। साथ ही, कभी-कभी कानूनी की कठिनाइयां कर्मचारियों के लिए कहीं और काम करना कठिन बना सकते हैं। यदि इस तरह के विवादों को मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाया जाता है तो आमतौर पर इन मुद्दों का सामना नहीं करना पड़ता है।

ठेकेदार

संभावित पक्षों का एक अन्य समूह जो मध्यस्थता का विकल्प चुन सकता है, वे ठेकेदार हैं, जो अपने ग्राहकों के साथ विवादों को हल करने के लिए मध्यस्थता का चयन कर सकते हैं, क्योंकि यह विवादों को हल करने के लिए अधिक तटस्थ और विशेष मंच प्रदान करता है। साथ ही, यह उनके लिए समय और धन के खर्च को कम करता है, जिससे उन्हें अधिक मुनाफा कमाने और बहुत कम समय में अपनी परियोजनाओं को पूरा करने में मदद मिल सकती है।

निवेशक 

वित्तीय संस्थानों के साथ विवादों को हल करने के लिए निवेशक मध्यस्थता का चयन कर सकते हैं, क्योंकि यह वित्तीय और निवेश विवादों में विशेषज्ञता के साथ एक विशेष मंच प्रदान करता है। कार्यवाही के लिए चुने जाने वाले मध्यस्थों को इस आधार पर चुना जा सकता है कि उन्हें वित्त उद्योग का पूर्व ज्ञान है, जो विवाद को पक्षों के लिए उच्च स्तर की संतुष्टि के साथ बहुत तेजी से हल करने में मदद कर सकता है।

आखिरकार, मध्यस्थता का विकल्प चुनना है या नहीं, यह कई कारकों पर निर्भर करtता है, जिसमें विवाद की विशिष्ट प्रकृति, शामिल पक्षों की पसंद और मध्यस्थता के लिए किसी भी समझौते की शर्तें शामिल हैं। हालाँकि, कई व्यक्तियों और संगठनों के लिए, मध्यस्थता विवादों को हल करने का एक तेज़, प्रभावी और कुशल साधन प्रदान कर सकती है।

सुलह का विकल्प किसे चुनना चाहिए

सुलह विवाद समाधान की एक प्रक्रिया है जिसका उपयोग लोगों के कई समूहों द्वारा किया जाता है जो किसी मुद्दे पर असहमत हैं और महसूस करते हैं कि सुलह का विकल्प चुनकर इसे हल किया जा सकता है। इनमें से कुछ पर नीचे चर्चा की गई है:

कंपनियां 

सुलह, विवाद समाधान तंत्र के रूप में, कंपनियों द्वारा आमतौर पर श्रम कानून विवादों, भेदभाव विवादों, उत्पीड़न संबंधी विवादों आदि से संबंधित मामलों में उपयोग की जाती है। कंपनियां इस प्रकार के विवादों के लिए सुलह का विकल्प चुनना पसंद करती हैं क्योंकि अगर उन्हें अदालत में ले जाया जाता है, वे कंपनी के लिए सभी पहलुओं, यानी लागत, समय और प्रतिष्ठा में बहुत अधिक खर्च कर सकते हैं। सुलह का विकल्प बहुत कम समय और प्रयास से विवादों को हल करता है, जो कंपनी और कर्मचारी दोनों के लिए अच्छा है।

व्यक्ति 

सुलह उन व्यक्तियों के लिए एक उपयुक्त विकल्प हो सकता है जो एक दूसरे के साथ विवाद में हैं, क्योंकि यह विवादों को हल करने के लिए अधिक अनौपचारिक और कम भयभीत करने वाला वातावरण प्रदान करता है। कई बार, पारिवारिक कानून विवाद में शामिल पक्ष विवाद समाधान के इस रूप का उपयोग करते हैं। इनमें से अधिकांश मामलों को शामिल पक्षों से बात करके और उन्हें आम समझ में लाकर आसानी से हल किया जा सकता है। इसलिए, ऐसे मामलों में विवादों को सुलझाने के लिए सुलह एक बहुत प्रभावी तरीका हो सकता है।

उपभोक्ता 

उपभोक्ता कंपनियों के साथ विवादों को सुलझाने के लिए सुलह का विकल्प चुन सकते हैं, क्योंकि यह विवादों को सुलझाने के लिए अधिक सुलभ और कम डराने वाला मंच प्रदान करता है। सुलह का विकल्प चुनकर धन के निवेश के साथ-साथ समय को भी काफी कम किया जा सकता है। एक सुलह कार्यवाही की सेटिंग बहुत कम डराने वाली है, जो उपभोक्ताओं को अपनी समस्याओं को खुलकर व्यक्त करने और उसी के संबंध में राहत पाने में मदद करती है।

कर्मचारी 

कर्मचारी अपने नियोक्ताओं के साथ विवादों को सुलझाने के लिए सुलह का विकल्प चुन सकते हैं, क्योंकि यह अदालत जाने की तुलना में एक तेज और अधिक गोपनीय समाधान प्रदान करता है। इससे उन्हें विवादों को लागत और समय प्रभावी तरीके से हल करने में मदद मिल सकती है, जो उन्हें उन विकल्पों का पता लगाने में मदद करेगा जो उनके लिए सबसे अच्छे हैं।

समुदाय

सामुदायिक संगठन पड़ोसियों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए सुलह का विकल्प चुन सकते हैं, क्योंकि यह विवादों को अधिक व्यक्तिगत और समुदाय-आधारित समाधान प्रदान करता है। पक्ष अपनी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं और उनके बारे में समाधान प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार के विवादों में, पक्षों के बीच गलतफहमी एक प्रमुख मुद्दा है जिसे पक्षों के बीच संचार को सुगम बनाकर बहुत प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा सकता है। सुलह की प्रक्रिया बहुत प्रभावी ढंग से ऐसा कर सकती है।

सुलह का विकल्प चुनना है या नहीं, इसका चुनाव कई कारकों पर निर्भर करता है। मामले के तथ्य और पक्षों की मंशा और इच्छा कुछ ऐसे कारक हैं जो यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि सुलह का विकल्प चुना जाए या नहीं। यदि संचार को सुविधाजनक बनाकर और उन्हें एक सामान्य आधार पर लाकर विवाद का समाधान किया जा सकता है, तो उस स्थिति में, पक्षों के लिए विवाद समाधान का सुलह एक पसंदीदा तरीका होना चाहिए।

मध्यस्थता और सुलह की प्रक्रिया 

मध्यस्थता की प्रक्रिया

भारत में मध्यस्थता, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा शासित होती है। इस कानून में दी गई प्रक्रिया के अनुसार, मध्यस्थता का विकल्प चुनने वाले पक्षों को निम्नलिखित प्रक्रिया का पालन करना होगा:

मध्यस्थता करने के लिए समझौता

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 7  के अनुसार, विवाद में शामिल पक्षों को मध्यस्थता के माध्यम से अपने विवाद को हल करने के लिए लिखित रूप में सहमत होना चाहिए। यह समझौता, ज्यादातर मामलों में, समझौते में एक खंड के रूप में प्रदान किया जाता है जिसमें पक्ष एक दूसरे के साथ अनुबंध करते हैं। धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार के मामलों को छोड़कर समझौते को अमान्य घोषित किए जाने पर भी मध्यस्थता का खंड मान्य है।

मध्यस्थता का नोटिस

अब जब समझौता हो गया है, दावेदार को मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू करने के इरादे की सूचना देते हुए, प्रतिवादी को मध्यस्थता का नोटिस देना चाहिए। यह नोटिस तब दिया जाता है जब पक्षों के बीच कोई विवाद उत्पन्न होता है। इस चरण के बाद, मध्यस्थों की नियुक्ति की जाती है और उसके बाद मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू की जाती है। हालांकि, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 21 के अनुसार, किसी विशेष विवाद के संबंध में मध्यस्थता की कार्यवाही उस दिन से शुरू होती है, जिस दिन उस विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने का अनुरोध दावेदार से प्रतिवादी द्वारा प्राप्त किया जाता है। 

मध्यस्थों की नियुक्ति

जब भी विवाद उत्पन्न होता है, पक्षों को अपने समझौते की शर्तों के अनुसार मध्यस्थ नियुक्त करना होता है। ऐसे मामलों में जहां न्यायाधिकरण को 3 मध्यस्थों से बना होना है, जिनमें से दो पहले से ही नियुक्त हैं और तीसरे को अभी नियुक्त किया जाना है, और यदि पक्ष या दो मध्यस्थ आवश्यक मध्यस्थ नियुक्त करने में सक्षम नहीं हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के पास मध्यस्थ संस्थानों को उनके संबंधित अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) के अनुसार नामित करने की जिम्मेदारी है। विवाद के पक्ष विवाद पर निर्णय लेने के लिए मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए अदालतों से संपर्क करते हैं। अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिए नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नामित संस्था द्वारा की जाती हैं। घरेलू मध्यस्थता के लिए संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा नामित संस्थान द्वारा नियुक्तियां की जाती हैं। अधिनियम का अध्याय III एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण की संरचना से संबंधित है।

मध्यस्थों की नियुक्ति के बाद, विवाद के लिए मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू की जाती है।

दावों को प्रस्तुत करना

दावेदार विवाद की प्रकृति और मांगी गई राहत को रेखांकित करते हुए मध्यस्थ को दावे का विवरण प्रस्तुत करता है। ये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 23 के प्रावधानों के अनुसार प्रस्तुत किए जाते हैं। हालांकि, पक्ष मध्यस्थता की कार्यवाही की अवधि के दौरान अपनी प्रस्तुति में संशोधन या कुछ जोड़ सकती है, अगर मध्यस्थता न्यायाधिकरण इसे अनुचित मानता है तो इसे अस्वीकार किया जा सकता है। 

दावों का जवाब

प्रतिवादी को दावे के प्रति अपने बचाव को निर्धारित करते हुए, दावेदार के दावे के बयान पर प्रतिक्रिया प्रस्तुत करनी चाहिए। ये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 23 के प्रावधानों के अनुसार प्रस्तुत किए जाते हैं। हालाँकि, पक्ष मध्यस्थता की कार्यवाही की अवधि के दौरान अपने बचाव में संशोधन या कुछ जोड़ सकती है, यदि मध्यस्थ न्यायाधिकरण इसे अनुचित मानता है तो इसे अस्वीकार किया जा सकता है। 

सुनवाई

जब दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुतियाँ दी जाती हैं, तो मध्यस्थ सबूत इकट्ठा करने और दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के लिए सुनवाई करते हैं। अधिनियम का अध्याय-V मध्यस्थ कार्यवाही के संचालन से संबंधित है। उन्हें सारी जानकारी और सबूत इकट्ठा करने होंगे क्योंकि वे अर्ध-न्यायिक अधिकारियों के रूप में काम कर रहे हैं। यह मध्यस्थता की कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि न्यायाधिकरण को प्रस्तुत किए गए साक्ष्य और तर्क न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए पंचाट में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पंचाट

मध्यस्थ, सभी सूचनाओं और साक्ष्यों के आधार पर, एक पंचाट देते हैं, जो विवाद पर एक बाध्यकारी निर्णय है। अधिनियम का अध्याय-VI पंचाट के प्रावधानों से संबंधित है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 29A के अनुसार, मध्यस्थता न्यायाधिकरण द्वारा अभिवचन (प्लीडिंग्स) पूरा होने की तारीख से बारह महीने की अवधि के भीतर पंचाट दिया जाएगा।

प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) 

मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा पंचाट दिए जाने के बाद, मुख्य कार्य इसे लागू करना है। यदि कोई पक्ष पंचाट से असंतुष्ट है, तो वे प्रवर्तन के लिए या पंचाट को रद्द करने के लिए भारतीय न्यायालय में आवेदन कर सकते हैं। अधिनियम का अध्याय-VIII मध्यस्थ पंचाटों की अंतिमता और प्रवर्तन से संबंधित है। पंचाट का प्रवर्तन मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 36 के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है ।

भारत में, मध्यस्थता की प्रक्रिया अदालतों के माध्यम से विवादों को सुलझाने की तुलना में तेज और अधिक लागत प्रभावी है, और मध्यस्थों के फैसले भारतीय कानून के तहत लागू करने योग्य हैं। यह प्रक्रिया पारंपरिक मुकदमेबाजी की कार्यवाही के समान है, लेकिन विवाद में पक्षों को जो लाभ प्रदान करता है, वह इसे चुनने के लिए अधिक कुशल विकल्प बनाता है।

सुलह की प्रक्रिया

भारत में सुलह की कार्यवाही मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा शासित होती है। भारत में सुलह की प्रक्रिया के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करने की आवश्यकता होती है:

सुलह के लिए अनुरोध

सुलह की कार्यवाही शुरू करने के लिए, कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष को नोटिस देकर सुलह की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध कर सकता है। कभी-कभी, न्यायाधीश पक्षों से यह भी पूछ सकते हैं कि क्या वे सुलह का विकल्प चुनना चाहते हैं यदि उन्हें लगता है कि पक्षों के बीच विवाद को उनके बीच संचार को सुगम बनाकर प्रभावी ढंग से हल किया जा सकता है। यदि पक्ष सहमत होते हैं, तो सुलह की कार्यवाही में आगे के चरणों का पालन किया जाता है।

सुलहकर्ता की नियुक्ति

एक बार पक्षों ने सुलह का अनुरोध किया है, तो उन्हें एक सुलहकर्ता नियुक्त करना होगा। पक्ष स्वयं एक सुलहकर्ता नियुक्त कर सकते हैं, या यदि वे ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो भारतीय न्यायालय किसी को नियुक्त कर सकता है। सुलहकर्ता का प्राथमिक काम पक्षों के बीच गलतफहमियों को दूर करना है, उन्हें आम आधार पर लाने की कोशिश करना है, और फिर उनके लिए समाधान विकल्पों का पता लगाना है, जो सुलह की कार्यवाही के परिणाम पर निर्भर हैं।

सुलह की कार्यवाही का शुरू होना 

विवाद की प्रकृति और पक्षों की स्थिति को समझने के लिए सुलहकर्ता पक्षों के साथ प्रारंभिक बैठक आयोजित करके सुलह की कार्यवाही शुरू करता है। सुलहकर्ता अनुरोध कर सकता है कि प्रत्येक पक्ष वर्तमान मामले से संबंधित तथ्यों के बारे में एक लिखित बयान प्रदान करे। दोनों पक्षों के लिए सुलहकर्ता को एक लिखित बयान प्रस्तुत करना आवश्यक है। सुलहकर्ता के साथ-साथ पक्षों से भी अनुरोध किया जाता है कि वे एक-दूसरे को लिखित बयान भेजें।

संचार की सुविधा 

सुलहकर्ता पक्षों के बीच संचार की सुविधा प्रदान करता है और उन्हें समझौते और असहमति के क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करता है। सुलहकर्ता दोनों पक्षों से तथ्यों को सुनता है और फिर उन्हें एक आम समझ में लाने की कोशिश करता है। यह सुलहकर्ता को पक्षों के बीच गलतफहमी को दूर करने और उन्हें एक सामान्य आधार पर लाने में मदद करता है।

समझौते तक पहुंचना

संचार की सुविधा के बाद, सुलहकर्ता पक्षों के साथ संभावित समझौते तक पहुंचना है और उन्हें समझौते की शर्तों पर एक समाधान तक पहुंचने में मदद करता है। यदि वे समझौते के लिए एक सामान्य आधार पर नहीं आ सकते हैं, तो उस स्थिति में पक्ष अपने विवाद समाधान के लिए मुकदमेबाजी या मध्यस्थता जारी रखते हैं।

समाधान समझौता

यदि पक्ष एक सामान्य आधार पर पहुंचते हैं और उनके द्वारा तय किए गए समझौते की शर्तों पर सहमत होते हैं, तो सुलहकर्ता एक समझौते का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करता है, जो दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित होता है और उन पर बाध्यकारी होता है। समाधान समझौते की शर्तों को अंत में विवाद को समाप्त करने के लिए लागू किया जाता है।

भारत में सुलह की प्रक्रिया विवादों को सुलझाने का एक लचीला और अनौपचारिक तरीका है जो पक्षों के बीच आपसी समझ और सहयोग को बढ़ावा देने की कोशिश करता है और अदालती कार्यवाही के लिए एक तेज़ और कम खर्चीला विकल्प हो सकता है। पक्षों को एक आम आधार पर लाकर मामलों को आसानी से सुलझाया जा सकता है, जो कई मामलों में बहुत संभव है।

मध्यस्थता और सुलह के बीच मुख्य अंतर

मध्यस्थता सुलह
मध्यस्थता एक अर्ध-न्यायिक कार्यवाही है, जहां विवाद के पक्ष उक्त विवाद के समाधान के लिए समझौते द्वारा एक मध्यस्थ नियुक्त करते हैं।  सुलह विवाद समाधान का एक तरीका है जिसमें पक्षों को एक आम आधार पर लाने और फिर उनके बीच विवाद को सुलझाने के लिए एक सुलहकर्ता नियुक्त किया जाता है।
मध्यस्थता की कार्यवाही मध्यस्थों द्वारा की जाती है, जिन्हें मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के प्रावधानों के अनुसार नियुक्त किया जाता है। सुलह की कार्यवाही सुलहकर्ता द्वारा की जाती है, जिसे मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 64 के प्रावधानों के अनुसार नियुक्त किया जाता है।
मध्यस्थों का निर्णय, जिसे एक पंचाट के रूप में जाना जाता है, विवाद के पक्षों के विरुद्ध प्रवर्तनीय है। सुलहकर्ता अपने निर्णय को लागू नहीं कर सकता है।
मध्यस्थों को पक्षों के साथ सीधे मुद्दों पर चर्चा करने या निपटान या बातचीत की शर्तों के लिए विकल्प उत्पन्न करने की अनुमति नहीं है।  सुलहकर्ताओं को पक्षों के साथ सीधे मुद्दों पर चर्चा करने या निपटान या बातचीत की शर्तों के लिए विकल्प तैयार करने की अनुमति है। 
मध्यस्थता को वर्तमान और साथ ही भविष्य के विवादों दोनों के लिए विवाद समाधान तंत्र के रूप में चुना जा सकता है।   विवाद समाधान तंत्र के रूप में सुलह को केवल  वर्तमान विवाद के लिए ही चुना जा सकता है। इसे भविष्य के विवादों के लिए नहीं चुना जा सकता है।
विवाद समाधान के लिए मध्यस्थता का विकल्प तभी चुना जा सकता है जब इसे चुनने वाले पक्षों के पास इसके बारे में पूर्व सहमति हो। विवादित पक्षों के बीच बिना किसी पूर्व समझौते के विवाद समाधान में सुलह का विकल्प चुना जा सकता है।

निष्कर्ष 

आजकल, हम सभी अपनी समस्याओं का त्वरित समाधान चाहते हैं, और अदालती कार्यवाही हमेशा लंबी और थकाऊ होने के लिए बदनाम रही है। मुकदमेबाजी की कार्यवाही की समय लेने वाली प्रकृति के कारण, मध्यस्थता और सुलह विवाद समाधान के लिए उपयोगी विकल्प साबित हो रहे हैं क्योंकि मुकदमेबाजी की तुलना में ये पक्षों के लिए समय और धन निवेश को कम करते हैं और उनके कानूनी विवादों को हल करने में मदद करते हैं। ये तरीके पक्षों को अनावश्यक मीडिया के ध्यान से भी दूर रखते हैं, जिसे संभालना कुछ मामलों में बहुत मुश्किल हो सकता है। दोनों तंत्र एक दूसरे से काफी अलग हैं और विवाद की गंभीरता और पक्षों के इरादों के अनुसार चुने जा सकते हैं। लेकिन जो फायदे वे प्रदान करते हैं वे एक दूसरे के समान ही हैं। वे विवाद में पक्षों के लिए समय और पैसा दोनों बचाते हैं और बहुत कम डराने वाली प्रक्रिया में उनके विवाद को सुलझाने में उनकी मदद करते हैं। इसलिए, मध्यस्थता और सुलह, विवाद समाधान के बहुत ही कुशल तरीके हैं, और पक्षों को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर इन तरीकों का चुनाव करना चाहिए।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों

क्या एक सुलहकर्ता बाद की मध्यस्थता की कार्यवाही में मध्यस्थ के रूप में कार्य कर सकता है?

नहीं, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 80(a) में दिए गए प्रावधानों के अनुसार, जब तक कि पक्षों द्वारा सहमति नहीं दी जाती है तब तक सुलहकर्ता उसी विवाद के लिए किसी भी मध्यस्थता या न्यायिक कार्यवाही में मध्यस्थ या किसी भी पक्ष के कानूनी प्रतिनिधि के रूप में कार्य नहीं करेगा।

क्या सुलहकर्ता सुलह के बाद की कार्यवाही में गवाह के रूप में कार्य कर सकता है?

नहीं, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 80(b) के अनुसार, जब तक कि पक्षों द्वारा सहमति नहीं दी जाती है, तब तक सुलहकर्ता आगे की किसी भी कार्यवाही में किसी भी पक्ष के लिए गवाह के रूप में कार्य नहीं करेगा।

क्या मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान सुलह का विकल्प चुना जा सकता है?

हाँ, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 30 के अनुसार, मध्यस्थ न्यायाधिकरण मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान किसी भी समय बिचवाई (मिडिएशन), सुलह या अन्य प्रक्रियाओं का उपयोग कर सकता है ताकि विवाद के पक्षों की सहमति से समाधान को प्रोत्साहित किया जा सके।

क्या मध्यस्थ न्यायाधिकरण अंतरिम (इंटरीम) उपायों के लिए आदेश दे सकता है?

हां, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 17 के अनुसार, मध्यस्थ न्यायाधिकरण अधिनियम में निर्धारित कुछ मुद्दों के लिए अंतरिम उपायों का आदेश दे सकता है।

संदर्भ

 

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