यह लेख राजीव गांधी राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पंजाब के Aryaman ने लिखा है। निम्नलिखित लेख वर्तमान परिदृश्य (सिनेरीओ) में भारत में मृत्युदंड की स्थिति के बारे में बात करता है।इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
मृत्युदंड अति प्राचीन (इम्मेमोरियल) काल से है और लगभग हर देश में मौजूद है। हालांकि प्लेटो जैसे विचारकों का यह मानना था कि इसे केवल अपरिवर्तनीय (इररेमेडिअल) मामलों में ही प्रदान किया जाना चाहिए, जिसे दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता हैं। कुछ अपराध इतने घोर(हीनियस) होते हैं कि उनके लिए मौत की सजा भी काफी नहीं लगती। जिन देशों में तानाशाही (डिक्टेटोरिअल) सरकार होती है, वहां अपराधियों को सार्वजनिक रूप से लटका दिया जाता है या भीड़ द्वारा पत्थर मारकर मौत के घाट उतार दिया जाता है, या उन्हें गोली मार दी जाती है और कई अन्य तरीकों से भी सजा दी जा सकती है, लेकिन भारत जैसे देश में जो लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) मूल्यों को बढ़ावा देता है, इसलिए वह उपर्युक्त तरीकों को नहीं अपना सकता है।
सवाल यह उठता है कि इससे ज्यादा और क्या? किसी भी व्यक्ति के लिए उसका जीवन सबसे बड़ी संपत्ति है और किसी की जान लेना सबसे बड़ी सजा होती है, जिसके बारे में सोचा जा सकता है। क्रूर (ब्रूटल) अपराधों के लिए कई सामाजिक कार्यकर्ता (सोशल एक्टिविस्ट), राजनीतिक दल (पॉलीटिकल पार्टीज) और आम लोग मौत की सजा दिलाने के लिए समर्थन करते हैं। मौत की सजा अंतिम सजा है जो एक अपराधी को दी जा सकती है। लेकिन क्या यह काफी है? क्या नियम पुस्तिका में मृत्युदंड की धारा जोड़ने से समाज में अवैध (इल) कुरीतियों (प्रैक्टिसेज) का अंत हो जाएगा? क्या इससे अपराधियों के मन में डर पैदा होगा? क्या यह अपराधियों को अपराध करने से रोकेगा? क्या इससे अपराधों पर पूर्ण विराम लगेगा? ये सभी प्रश्न एक बड़ा विस्मय बोधक चिह्न (एक्स्क्लमेशन मार्क) हैं। इस पूरे लेख में, हम उपरोक्त सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे।
भारत में मृत्युदंड का इतिहास और विकास (हिस्ट्री एंड इवोल्यूशन ऑफ डेथ पेनेल्टी इन इंडिया)
मृत्युदंड भारत में दशकों से विवाद और बहस का एक विषय रहा है। मौत की सजा एक औपनिवेशिक शासन (कोलोनियल) के समय का कानून है जो आजादी के बाद भी बना रहा। महात्मा गांधी की हत्या के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे, सबसे पहले ऐसे दो व्यक्ति थे जिनको फांसी की सजा दी गई थी। यह अभी भी प्रक्रिया में है और हमेशा से शोधकर्ताओं (रीसर्चर) और विधायकों (लेजिस्लेचर) के लिए एक मुद्दा है लेकिन उनके द्वारा अब तक कोई आम सहमति या निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका है। भारत में फांसी के बारे में आंकड़े ठीक से ज्ञात नहीं हैं। सरकारी रिकॉर्ड और विशेषज्ञों और विद्वानों द्वारा दावा किए गए आंकड़े अलग हैं। सरकारी रिकॉर्ड में लिखा है कि अब तक जिन लोगों को फांसी दी गई है, उनका आंकड़ा बहुत कम है में हैं, जबकि अन्य गैर-सरकारी संगठनों (नॉन गवर्नमेंट ऑर्गेनाइजेशंस) और शोध कार्यों का दावा है कि सिर्फ 1953 से 1963 तक लगभग 1500 लोगों को मृत्यु दंड दिया गया था। इसके लिए कोई ठोस रिकॉर्ड नहीं हैं, लेकिन संभावना है कि, दी गई मृत्युदंड की संख्या, असली आंकड़ों (स्टेटिस्टिक्स) से उच्च स्तर पर हो सकते हैं। वर्षों से भारत ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है कि वह मौत की सजा के उन्मूलन (अबोलिशन) के समर्थन में नहीं है, जिसे उसने संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूनाइटेड नेशंस असेंबली) जो कि 2007 में बुलाई गयी थी, में मृत्युदंड पर रोक के खिलाफ मतदान (वोट) करके साबित किया और फिर 2012 में बैठाई गई महासभा में भी अपने फैसले पर कायम रहा। कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स ऑर्गेनाइजेशन) हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, यूरोपियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स, और अन्य जो मृत्युदंड के उन्मूलन की समर्थन करते हैं लेकिन भारत मृत्यु दंड का समर्थन करने से इनकार करता है।
भारत में मौत की सजा, एक आपराधिक साजिश (क्रिमिनल कांस्पीरेसी) का हिस्सा होने के लिए या एक मृत्युदण्ड (कैपिटल) अपराध करने, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने (वेजिंग वॉर), भारतीय सशस्त्र बलों (आर्म्ड फोर्सेज) के बीच विद्रोह (रिबेलीयन) को उकसाने, हत्या, नाबालिग को आत्महत्या के लिए उकसाने, अपहरण), नशीली दवाइयों को गैरकानूनी तरीके से बेचने (ट्रैफिकिंग) और उनमें से ज्यादातर बलात्कार के मामलों में पढ़ा जा सकता है। सभी उल्लिखित अपराधों के लिए मौत के लिए फांसी की सजा है। भारतीय न्यायिक प्रणाली (सिस्टम) निवारक (डिटरन्ट) उपायों के सिद्धांत पर आधारित है। दोषियों को दंडित करने के बजाय इसका उद्देश्य भविष्य में दूसरों को ऐसा करने से रोकना और पूरे (होल) रूप से समाज की रक्षा करना है। यदि अपराधों की रोकथाम का सवाल है तो, मृत्युदंड प्रभावी साबित नहीं हुआ। बेशक कुछ अपराधियों में इसने अपराध के प्रति भय पैदा किया है और उन्हें अपराध करने से रोका है। हत्या एक ऐसा अपराध है जिसके लिए मौत की सजा दी जाती है। आइए पहले उसी के संबंध में विश्व दिए गए मृत्यु दंड के आंकड़े देखें और फिर उसकी व्याख्या करें।
आंकड़े भारत में हत्याओं की दर (रेट) को दर्शाते है और यहां कोई उल्लेखनीय (रिमार्केबल) परिवर्तन नहीं दिखाई देता। यह घटता है और फिर से बढ़ता है, इसलिए दर कमोबेश (मोर ओर लेस) समान ही है। सैकड़ों अपराधी मौत की सजा पर हैं। उन्हें फांसी देने का आदेश दिया गया है लेकिन फिर भी यह ज्यादा रोकथाम नहीं कर पाया। सीधे तौर पर यह कहते हुए कि यह कोई बदलाव नहीं लाया, यह कहना सही नहीं होगा, सिर्फ इसलिए कि आंकड़े प्रस्तुत करते हैं और हम दावा कर सकते हैं कि इसके पीछे मौत की सजा ही होगी, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, भले ही यह प्रमुख कारण न हो। आंकड़ों में कम होने का कारण कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार होना भी हो सकता है।
मृत्युदंड से संबंधित मामले (केसेस रिलेटेड टू डेथ पेनल्टी)
अब अगर हम अपना ध्यान बलात्कार के मामलों पर केंद्रित करें, तो भारत में सबसे अधिक तलाशा गया बलात्कार का मामला, निर्भया बलात्कार का मामला था। यह घटना, 16 दिसंबर, 2013 की रात की है, जब 6 अपराधी जो साधारण पुरुषों की तरह लग रहे थे, उन लोगों ने उसके साथ जबरन बलात्कार किया, उसकी आंतों को हटा दिया और उसे मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया। इन्हें इंसान कहना गलत होगा, ये इंसानियत के लिए शर्म की बात थी। 6 में से 4 दोषियों को हाल ही में फांसी पर लटकाया गया था। बलात्कार के दिन से ही उनकी मौत की मांग जोरों पर थी। उनमें से एक अपराधी जिसका नाम राम सिंह था उसकी पहले ही मृत्यु हो गई थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि जिस व्यक्ति ने उसके साथ दो बार बलात्कार किया और उसके अंगों में लोहा डालकर उसकी आंतों को बाहर निकाला, वह नाबालिग था और उसने 3 साल किशोर सुधार गृह (जुवेनाइल होम) में गुजारे और अब आजाद घूम रहा है। राष्ट्र के सामने यह स्पष्ट था कि नाबालिगों को छोड़कर अन्य को फांसी दी जाएगी लेकिन फिर भी इस मामले ने दूसरों को यह अपराध करने से नहीं रोका। 2019 में बलात्कार के कई मामले सामने आए। एक मामला आंध्र प्रदेश का था जहां 6 लोगों ने लगातार 5 दिनों तक 16 साल की लड़की के साथ बलात्कार किया, और उन 6 अपराधियों में से 3 नाबालिग थे। बलात्कार होने से कुछ दिन पहले एक आरोपी ने उससे दोस्ती की और फिर उसे एक कमरे में ले गया जहां उसने अपने 5 दोस्तों के साथ उसके साथ बलात्कार किया। लड़की किसी तरह भाग निकली और शिकायत की। गृह मंत्री ने कहा कि निवारक कदम उठाए जाएंगे।
एक और लोकप्रिय बलात्कार का मामला कठुआ बलात्कार का मामला था जहां पीड़िता की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में 8 साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद उसकी बेरहमी से हत्या कर दी गई। घटना का मुख्य अपराधी ग्राम प्रधान था और पुलिसकर्मी भी शामिल थे। इस घटना ने देश को डरा कर रख दिया। 7 आरोपियों में से एक नाबालिग था और उसे इसी का फायदा मिला। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में 4 साल की बच्ची के साथ भी बलात्कार के मामले सामने आए हैंI उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में 11 साल की बच्ची के साथ रेप के बाद हत्या कर दी गई। अगर 12 साल से कम उम्र की लड़की के बलात्कार और हत्या के खिलाफ इस तरह के सख्त कानून होने के बाद भी लोग छोटी लड़कियों को निशाना बना रहे हैं, तो उन्हें न तो कानून का डर है, और बल्कि उनकी मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है, और ऐसे कार्य कानूनी तरह से गलत की तुलना में यह सबसे पहले नैतिक (मोरल) तरह से गलत है। उन्हें ऐसा लगता है कि बलात्कार और दुष्कर्म करने के बाद पीड़िता की हत्या करने से पूरा मामला खत्म हो जाएगा। इस संबंध में एक प्रसिद्ध मामला डॉ. प्रियंका रेड्डी का था, जो उन दोनों अपराधियों के साथ फंस गई, जिन्होंने उनकी मदद की थी। अपराधी उन्हें सुनसान जगह पर ले गए और फिर उनके साथ बलात्कार किया और बाद में बलात्कारियों ने उसके शरीर को जला दिया और उस जगह से 25 किमी दूर फेंक दिया जहां उन्होंने उसे उठाया था। इस तरह के मामले, लोगों के मन में उन्हें मिलने वाली सजा को लेकर डर दिखाते हैं। अगर बलात्कार के मामले में मौत की सजा का प्रावधान (प्रोविजन) नहीं होता तो शायद पीड़िता को उनके द्वारा जिंदा छोड़ दिया जाता। अपराध के पता लगने और दोषी ठहराए जाने के डर से उन्होंने अपने पुराने अपराध को छुपाने के लिए एक और अपराध को अंजाम दिया।
वहीं एक अन्य मामले में 25 वर्षीय व्यक्ति ने नौ माह की बच्ची के साथ दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दीI घटना तब हुई जब उसके माता-पिता सो रहे थे; वह आदमी आया और लड़की को छत पर ले गया। माता-पिता ने अपनी बेटी को ढूंढा और उसे अस्पताल ले गए जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया। एक अन्य मामले में, एक एयर होस्टेस के साथ उसके सहकर्मी ने बलात्कार किया, जब वह उसके साथ ड्रिंक करने गई थी। उसने आरोप लगाया कि उसके सहयोगी के साथ उसके दो दोस्तों ने भी उसके साथ दुष्कर्म किए। इस मामले के साथ मुद्दा यह था कि दोषी, उसके द्वारा किए गए दुष्कर्म के परिणामों को जानता था फिर भी उसने ऐसा किया। वह अपनी यौन भूख (सेक्शूअल ऐपेटाइट) को नहीं रोक पाया। उसने उसका यौन उत्पीड़न करने के बाद उसे नहीं मारा, जिसका अर्थ है कि जिस समय वह अपराध कर रहा था, उसे इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि उसके कार्यों का क्या परिणाम हो सकता है। आपराधिक दिमागों के साथ यह मुख्य मुद्दा है: उनकी भूख और इच्छा, सब पर हावी हो जाती है, यह उन्हें ऐसी स्थिति में ले जाती है जहां वे उचित (फेयर) और अनुचित (अनफेयर), नैतिक और कानूनी रूप से सही या गलत के बीच अंतर नहीं कर सकते, वह इस अपराध को करने में इतना ज्यादा लीन हो जाते हैं कि वे सब कुछ भूल जाते हैं।
एक अंतिम उदाहरण उन्नाव बलात्कार कांड का है जिसमें कर्ता (डूअर) सत्ताधारी दल (रूलिंग पार्टी) का वर्तमान विधायक (एम.एल. ए) था। उसने एक नाबालिग लड़की के साथ बेरहमी से बलात्कार किया और फिर उसके परिवार के माध्यम से उस पर हमला किया। उनके गुंडों ने उन्हें धमकी दी। पीड़िता के खिलाफ प्राथमिकी (एफ.आई.आर) दर्ज की गई, गुंडों ने पीड़िता के पिता की हत्या कर दी, वह इस घटना से तंग आ गई और मुख्यमंत्री के घर के बाहर अपने आपको कुर्बान करने का फैसला किया और इस तरह मामला सामने आयाI जब वह अपने वकील और रिश्तेदारों के साथ जा रही थीं, तब उनके वाहन पर हमला किया गया। दोषी के भाई द्वारा दायर शिकायत में उसके चाचा को 10 साल की जेल की सजा मिली है। उसने भारत के मुख्य न्यायाधीश को लिखा और सुप्रीम कोर्ट ने मामले का संज्ञान (कॉग्निजेंस) लिया। सभी आरोपितों को दोषी करार दिया गया। इस स्थिति में अपराधी के कृत्यों में कोई भय नहीं लगा, और वहीं दूसरी ओर पीड़ित को कानूनी दायित्वों (ऑब्लिगेशन) का भी सामना करना पड़ा। यहां एक औपचारिक (फॉर्मल) विधायक ने कानून के प्रावधानों की अवहेलना (डिफाइ) करते हुए अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। जब अधिकार गृहस्थ लोग इस तरह का व्यवहार करेंगे तो किससे बचने की उम्मीद की जा सकती है। यह व्यक्ति एक जन प्रतिनिधि था, वह उन सभी प्रावधानों को जानता था जिनके तहत अपराध करते समय उस पर आरोप लगाया जा सकता था लेकिन सत्ता के अहंकार ने उसे एक के बाद एक अपराध करने के लिए मजबूर कर दिया। उसने सोचा होगा कि वह खुद ही कानून को अपने हाथ में ले सकता है। उपर्युक्त उदाहरणों में, हमने हत्या और बलात्कार से संबंधित अधिकांश (मोस्ट) प्रकार के अपराधों को शामिल किया है।
हम जानते हैं कि 2013 में निर्भया रेप केस के बाद सरकार ने यौन अपराधियों को मौत की सजा देने का प्रावधान किया था, अगर अपराध में पीड़ित की मौत हो जाती है। लगभग एक साल पहले हमने बाल यौन अपराधों की रोकथाम (पोक्सो) से संबंधित कानूनों में एक बड़ा संशोधन (अमेंडमेंट) देखा, जिसके बाद 2012 में बलात्कार के मामलों की संख्या 8541 से बढ़कर 2016 में 19765 हो गई।
इन सभी संशोधनों के बावजूद भी, भारतीय न्यायिक प्रणाली अभी भी मृत्युदंड देने में हिचकिचाती (हेजिटेट) है। यह दुर्लभतम से दुर्लभतम मामलों से जुड़ा है। जिसकी व्याख्या कोर्ट के विवेक (डिस्क्रीशन) पर छोड़ दी गई है। इस फैसले ने इसके सही या गलत होने की चर्चा को जन्म दिया। कई विशेषज्ञों ने इस फैसले का स्वागत किया लेकिन लगभग इतने ही लोगों ने इसका विरोध भी किया। विवाद यह था कि क्या यह निर्णय, प्रतिरोध प्रदान करने में सक्षम होगा और यदि सक्षम है तो क्या इतना प्रतिरोध पर्याप्त है? कानून के साथ खोट यह है कि कानून को लागू करने वाले प्रावधान सही नहीं हैं, इरादा अच्छा हो सकता है, लेकिन मौत की सजा देने के कानून ने कभी भी आवश्यक प्रतिरोध नहीं किया बल्कि समाज में अपराध के स्तर को ही बढ़ा दिया है। अगर किसी लड़की के साथ बलात्कार हुआ और मौत की सजा की कोई गुंजाइश नहीं है, तो ज्यादातर मामलों में दोषी उसे जिंदा छोड़ देते हैं। निर्भया मामले में करीब 7 साल लग गए, क्योंकि वहां अपूर्ण (पेंडिंग) मुक़दमा था। इससे अपराधियों को और हिम्मत मिलती है और वे दोषी ठहराए जाने के डर के बिना अधिक से अधिक अपराध करते हैं। इस लेख में हमने उन मामलों के बारे में बात की जो रिपोर्ट किए गए थे,लेकिन कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जहां यौन उत्पीड़न करने वाले लोगों की संख्या उतनी ही होती है, मगर किसी कारण से वे उस मामले को अधिकारियों के पास तक नहीं पहुंचा पाते।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
मामले कम होते नहीं दिख रहे हैं। देश में किसी भी कानून को लागू करना एक बड़ी चुनौती है। पीड़िता के पक्ष में सख्त कानूनों के बावजूद, अभी भी कई ऐसे हैं जो बलात्कार करते हैं और पकडे नहीं जाते। ग्रामीण भारत के कुछ हिस्सों में जब एक लड़की के साथ बलात्कार होता है, तो उसे बलात्कारी से शादी करने का आदेश दिया जाता है। ऐसी ही हमारे समाज की कठोरता है। इसलिए, ऐसा कोई विवेकपूर्ण कारण नहीं है जिससे अपराधी डरें। मृत्युदंड, पीड़ित के जीवन को अधिक जोखिम में डालता है इसलिए अपराधी निश्चित रूप से पीड़ित को जीवित नहीं छोड़ते, और अगर पीड़ित ही नहीं बचेगा तो इसका मतलब दोषियों के खिलाफ गवाही देने वाला कोई नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायधीश का कहना है कि ऐसी प्रवृत्ति होती है कि अपराधी किसी भी तरह से कानून को चकमा दे सकता है।
एक मामला जो उपर्युक्त पात्रों पर सबसे अधिक उचित बैठता है, वह है उन्नाव बलात्कार का मामला, जहां एक शक्तिशाली विधायक ने हर संभव तरीके से कानून को चकमा दिया। लोग मजबूत लोगों के साथ लड़ाई नहीं करना चाहते, वह वही था जिसकी रिपोर्ट मिली और देश हैरान हो गया। कई ताकतवर लोग अपने कर्मचारियों और नौकरों का यौन शोषण करते हैं और ऐसे मामले कभी दर्ज नहीं होते। विरोध कहीं नजर नहीं आता।
भारत के विधि आयोग (लॉ कमीशन) ने भी मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश की और यह सुझाव दिया कि मृत्युदंड पर्याप्त निवारक नहीं है।
साथ ही, मौत की सजा जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। यह एक क्रूर, शातिर और अमानवीय आचरण है। यह मानव अधिकारों के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।