यह लेख Sahil Mehta द्वारा लिखा गया है तथा इसे Pruthvi Ramkanta Hegde द्वारा अद्यतन (अपडेट) किया गया है। यह लेख डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) के मामले में तथ्यों, मुद्दों, तर्कों, टिप्पणियों और निर्णयों की व्याख्या करता है। इस लेख में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता पर निर्णय की टिप्पणियां शामिल हैं। इसमें मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के कुछ प्रावधानों का अवलोकन भी शामिल है तथा पूर्ववर्ती मामलों को भी शामिल किया गया है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
विभिन्न कानूनी प्रणालियों में तलाकशुदा पति-पत्नी की वित्तीय भलाई की सुरक्षा के लिए विभिन्न प्रावधान हैं। भारत में, भरण-पोषण कानून उन महिलाओं की गरिमा और अधिकारों को बनाए रखने के लिए बनाए गए हैं जो आर्थिक रूप से अपने साथियों पर निर्भर हैं। इस संबंध में, पीड़ितों को न्याय दिलाने में भरण-पोषण एक बड़ी भूमिका निभाता है। यह एक प्रकार का वित्तीय सहयोग है जिसे तलाक के संदर्भ में एक पक्ष दूसरे पक्ष को प्रदान करने के लिए बाध्य है। मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 (जिसे आगे “अधिनियम” कहा जाएगा) के लागू होने के बाद भारत में मुस्लिम महिलाओं का ध्यान भरण-पोषण की अवधारणा की ओर गया। डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ (2001) के मामले में भी इसी पहलू पर चर्चा की गई थी।
इस लेख में लेखक ने डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ (2001) के फैसले का आलोचनात्मक विश्लेषण किया है। इस मामले में दिया गया निर्णय मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम एवं अन्य (1985) (जिसे शाह बानो मामला कहा जाता है) में दिए गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ तर्क से असंगत था। इस मामले में, 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। वर्तमान मामले में यह कहा गया कि अधिनियम 1986 इद्दत अवधि के बाद मुस्लिम महिलाओं को उचित भरण-पोषण देने में विफल रहा, जिससे मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ
- मामला संख्या: रिट याचिका (सिविल) 868/1986
- निर्णय की तिथि: 28 सितंबर, 2001
- न्यायालय का नाम: भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय
- समतुल्य उद्धरण (साइटेशन): एआईआर 2001 सर्वोच्च न्यायालय 3958, 2001 एआईआर एससीडब्लू 3932, 2007 (3) एससीसी(सीआरआई) 266, (2002) 1 सीजीएलजे 184, (2001) 8 जेटी 218 (एससी), 2001 (8) जेटी 218, 2001 (6) स्केल 537, 2001 (7) एससीसी 740, 2002 कैलक्रिएलआर 1, 2002 (1) एएलएल सीजे 490, 2001 (4) एलआरआई 36, (2002) आईएलआर(केईआर) 1 एससी 287, (2001) 4 एएलएलएमआर 829 (एससी), 2001 (10) एसआरजे 122, 2002 (1) बीएलजेआर 745, 2002 एएलएल सीजे 1 490, (2001) आईएलआर (केएनटी) (2) 5289, (2001) 2 आरइसीसीआरआईआर 58, (2001) 2 एएलएलसीआरआईएलआर 405, (2001) 21 ओसीआर 707, (2002) 1 सीयूआरसीआरआईआर 187, (2002) 1 सीएचएएनडीसीआरआईसी 101, (2001) 2 डीएमसी 714, (2002) 1 जीयूजे एलआर 531, (2001) 3 जीयूजे एलएच, (2001) 2 एचआईएनडीयू एलआर 528, (2001) 3 केइआर एलटी 651, (2002) 1 एमएडी एलजे 40, (2002) 2 एमएडी एलडब्ल्यू 372, (2001) 3 एमएएचएलआर 601, (2002) 1 एमएआरआरआईएलजे 18, (2002) एमएटीएलआर53, (2001) 4 आरईसीसीआरआईआर 468, (2001) 4 एससीजे 1, (2001) 4 सीयूआरसीआरआईआर 81, (2001) 6 एएनडीएचएलडी 63, (2001) 7 एसयूपीआरईएमई 297, (2001) 6 एससीएएलई 537, (2002) 1 यूसी 3, (2001) 45 एएलएल एलआर 426, (2002) 2 बीएलजे 237, (2001) 3 सीएएल एचएन 87, 2001 (2) एएनडीएचएलटी (सीआरआई) 327 एससी
- सर्वोच्च न्यायालय न्यायपीठ: माननीय न्यायमूर्ति डी.पी. महापात्रा, माननीय न्यायमूर्ति दोरईस्वामी राजू, माननीय न्यायमूर्ति शिवराज वी. पाटिल, माननीय न्यायमूर्ति जी.बी. पटनायक, माननीय न्यायमूर्ति एस. राजेंद्र बाबू
- मामले के पक्षकार-
- याचिकाकर्ता: डेनियल लतीफी और अन्य
- प्रतिवादी: भारत संघ
- संबंधित क़ानून और प्रावधान: मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125, धारा 127
मामले की पृष्ठभूमि
शाहबानो मामले में फैसले से पहले यह माना जाता था कि मुस्लिम पति को केवल इद्दत अवधि तक ही गुजारा भत्ता देना होता था। इद्दत अवधि के बाद मुस्लिम महिलाओं का भरण-पोषण का अधिकार समाप्त हो जाता है। इद्दत मुस्लिम कानून में वह समयावधि है जो तलाक या पति की मृत्यु के बाद एक महिला को गुजारनी होती है, तभी वह कानूनी रूप से दोबारा शादी कर सकती है। तलाक और पति की मृत्यु के मामले में यह अवधि आमतौर पर तीन से चार महीने तक होती है। इसके अलावा, यह माना गया कि सीआरपीसी की धारा 125 मुसलमानों पर लागू नहीं होती, जो मुस्लिम व्यक्तिगत कानून, शरीयत द्वारा शासित होते हैं।
शाहबानो मामले में मुद्दा यह था कि क्या धारा 125 मुसलमानों पर लागू होती है या नहीं। क्या एक मुस्लिम महिला, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, इद्दत अवधि के बाद अपने पति से भरण-पोषण की मांग कर सकती है या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 125 धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की है और इसका किसी व्यक्तिगत कानून से कोई संबंध नहीं है। इसे त्वरित भरण-पोषण तथा दरिद्रता एवं आवारागर्दी को रोकने के लिए अधिनियमित किया गया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि व्यक्तिगत कानून (शरीयत) संविधान द्वारा निर्मित कानून (धारा 125) को रद्द नहीं कर सकता। इसलिए, एक मुस्लिम महिला, जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, इद्दत अवधि के बाद भी अपने पति से भरण-पोषण की मांग कर सकती है। पति को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण देने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया गया है। एक अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) में देश में समान नागरिक संहिता लागू करने में विफल रहने के लिए सरकार की आलोचना भी की गई।
शाहबानो मामले में आए फैसले को मुस्लिम नेताओं ने खुले दिल से स्वीकार नहीं किया। मुसलमानों ने इस फैसले को अपनी पहचान के लिए खतरा माना। उन्होंने इस फैसले को अपने निजी कानूनों के विरुद्ध माना। पहले से ही दो मुद्दे थे जो मुस्लिम समुदाय में अशांति का कारण बन रहे थे। एक था राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, और दूसरा था कलकत्ता उच्च न्यायालय में उस याचिका को स्वीकार करना जिसमें कुरान पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी क्योंकि उसमें हिंसा का उपदेश दिया गया है। शाहबानो मामले में आए फैसले ने आग में घी डालने का काम किया है।
मामले के तथ्य
यह मामला मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 से संबंधित है, जिसे अदालत में चुनौती दी गई थी। 1985 में, तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया गया था। उसके पति ने उसे इद्दत अवधि के लिए “माहर” और भरण-पोषण का भुगतान किया था और बाद में उसे भुगतान करने का कोई दायित्व नहीं था।
इस बीच, शाहबानो मामले में अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपना भरण-पोषण स्वयं नहीं कर सकती, तो वह इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण की मांग कर सकती है। शाहबानो के फैसले के बाद भारतीय संसद ने अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम का उद्देश्य पति के भरण-पोषण दायित्व को केवल इद्दत अवधि तक सीमित करना था। इस मामले में, याचिकाकर्ता (डेनियल लतीफी) और अन्य ने 1986 के अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती देते हुए याचिका दायर की कि यह अधिनियम अन्य धर्मों की महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करता है।
डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) के मुद्दे
- क्या मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को केवल इद्दत अवधि तक सीमित करता है?
- क्या यह सीमा अन्य धर्मों की महिला जो ऐसी सीमाओं के बिना सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव करके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है?
- क्या मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 भारत के संविधान का उल्लंघन करता है?
मामले के कानूनी पहलू
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 का अवलोकन
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, भारत में उन मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए लागू किया गया था, जिन्हें उनके पतियों ने तलाक दे दिया है, या जिन्होंने अपने पतियों से तलाक प्राप्त कर लिया है।
अधिनियम की धारा 3 में तलाक के समय मुस्लिम महिला को भरण-पोषण का प्रावधान है। उक्त प्रावधान पति को “उचित और न्यायसंगत प्रावधान और भरण-पोषण के लिए बाध्य करता है, जिसे इद्दत अवधि के भीतर बनाया और भुगतान किया जाना चाहिए।” उचित एवं निष्पक्ष प्रावधान तथा भरण-पोषण शब्द यह दर्शाते हैं कि भरण-पोषण प्रत्येक मामले के आधार पर भिन्न हो सकता है तथा न्यायिक व्याख्या के लिए खुला है। अधिनियम ने मुस्लिम महिलाओं को ‘उनके पति द्वारा’ भरण-पोषण पाने के अधिकार को केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित कर दिया। यदि महिला ने इद्दत अवधि के बाद पुनर्विवाह नहीं किया है और वह अपना भरण-पोषण स्वयं नहीं कर सकती है, तो वह अपने पूर्व पति से भरण-पोषण नहीं मांग सकती है।
अधिनियम की धारा 4 महिला के भरण-पोषण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी महिला को वित्तीय सहायता की आवश्यकता है, तो मजिस्ट्रेट उसके रिश्तेदारों को, जो उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी होंगे, उसे उचित एवं न्यायसंगत भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है। यदि महिला का कोई रिश्तेदार नहीं है या उसके रिश्तेदार भुगतान करने में सक्षम नहीं हैं, तो मजिस्ट्रेट राज्य वक्फ बोर्ड को महिला को आवश्यक भरण-पोषण प्रदान करने का आदेश दे सकता है।
अधिनियम की धारा 5, तलाकशुदा मुस्लिम महिला और उसके पूर्व पति को इस अधिनियम के नियमों के बजाय सीआरपीसी में दिए गए भरण-पोषण नियमों के तहत शासित होने का विकल्प चुनने का विकल्प देती है। वे यह विकल्प उसी दिन चुन सकते हैं, जब अदालत में भरण-पोषण के बारे में उनके मामले की सुनवाई शुरू होगी। महिला और उसके पूर्व पति दोनों को एक साथ या अलग-अलग, हलफनामे जैसे लिखित बयान में यह घोषित करना होगा कि वे भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी नियमों का पालन करना चाहते हैं। यदि वे यह विकल्प चुनते हैं और न्यायालय में घोषणापत्र प्रस्तुत करते हैं, तो न्यायालय सीआरपीसी के अनुसार भरण-पोषण के मुद्दे पर निर्णय करेगा। पहले यह सीआरपीसी की धारा 125 थी, अब भरण-पोषण को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 144 से बदल दिया गया है। “प्रथम सुनवाई” से तात्पर्य उस पहली तारीख से है, जब न्यायालय पूर्व पति को महिला के भरण-पोषण के आवेदन पर सुनवाई में उपस्थित होने के लिए कहता है।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125
सीआरपीसी की धारा 125 में पत्नी को भरण-पोषण का दावा करने के लिए कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं।
धारा 125(1) के अनुसार, यदि पत्नी अपना भरण-पोषण स्वयं नहीं कर सकती है, और पति के पास ऐसा करने के साधन हैं, लेकिन वह भरण-पोषण देने से इनकार करता है, तो वह अदालत से पति को भरण-पोषण के लिए मासिक राशि देने का आदेश देने के लिए कह सकती है। यदि पत्नी तलाकशुदा भी हो, तो भी वह भरण-पोषण की मांग कर सकती है, बशर्ते उसने दोबारा विवाह न कर लिया हो।
“पत्नी” शब्द में वह महिला शामिल है जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है या जिसने उससे तलाक प्राप्त कर लिया है, बशर्ते उसने विवाह न किया हो।
धारा 125(2) के अनुसार, कानूनी प्रक्रिया के खर्च के साथ भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान अदालती आदेश की तारीख से किया जाना चाहिए। वैकल्पिक रूप से, न्यायालय भरण-पोषण के लिए आवेदन दायर किये जाने की तारीख से भुगतान शुरू करने का निर्णय ले सकता है।
धारा 125(3) के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति बिना किसी वैध कारण के न्यायालय द्वारा आदेशित भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करने में विफल रहता है, तो मजिस्ट्रेट:
- जिस प्रकार जुर्माना वसूला जाता है, उसी प्रकार बकाया राशि वसूलने के लिए वारंट जारी करेगा।
- व्यक्ति को एक माह तक या भुगतान होने तक, जो भी पहले हो, कारावास की सजा दी जाएगी। यदि पति अपनी पत्नी को इस शर्त पर भरण-पोषण देने का प्रस्ताव करता है कि वह उसके साथ रहेगी, और वह इनकार कर देती है, तो मजिस्ट्रेट उसके इनकार के कारणों पर विचार करेगा।
यदि पत्नी का उसके साथ रहने से इनकार करना उचित है तो भी अदालत पति को भरण-पोषण देने का आदेश दे सकती है। यदि पति ने किसी अन्य महिला से विवाह कर लिया है या किसी रखैल को रख रखा है, तो यह पत्नी के उसके साथ रहने से इंकार करने का वैध कारण माना जाता है।
धारा 125(4) के अनुसार व्यभिचारि (एडल्टरी) पत्नी अपने पति से भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है।
- जो पत्नी बिना किसी वैध कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है, वह भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है।
- यदि पति और पत्नी दोनों सहमति से अलग रह रहे हैं, तो पत्नी भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती।
धारा 125(5) के तहत न्यायालय भरण-पोषण के आदेश को रद्द कर सकता है यदि यह साबित हो जाए कि पत्नी:
- व्यभिचार में जी रहा है
- बिना किसी वैध कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार कर देती है।
- आपसी सहमति से अपने पति से अलग रह रही है।
तर्क
याचिकाकर्ता की दलीलें
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अधिनियम का मुख्य लक्ष्य शाहबानो मामले को खत्म करना है। उन्होंने आगा महोमेद जाफर बिंदानीम बनाम कूलसम बी एवं अन्य (1897) के मामले का हवाला दिया, जिसमें दावा किया गया था कि अपरिचित भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करना सुरक्षित नहीं plहै।
- याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि यह अधिनियम सीआरपीसी की धारा 125-128 की तुलना में कम लाभकारी है।
- इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि यह मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के साथ अनुचित रूप से भेदभाव करता है और संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 21 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- इसके अतिरिक्त वादी ने सर सैयद अहमद खान और बशीर अहमा के धार्मिक लेखों का हवाला देते हुए दावा किया कि मुस्लिम समाज तलाकशुदा महिलाओं की देखभाल कर रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि पवित्र कुरान की सूरा 241 में ‘उपहार’ शब्द को मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार समझा जाना चाहिए।
- उन्होंने आगे तर्क दिया कि शाहबानो मामले में कुरान की कुछ आयतों का न्यायालय द्वारा किया गया अनुवाद और व्याख्या गलत थी और उसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि “माता” देना केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही आवश्यक है, जैसे कि जब तलाक से पहले विवाह संपन्न नहीं हुआ हो।
- याचिकाकर्ता ने दावा किया कि अधिनियम की धारा 4 किसी महिला को इस प्रकार का लाभ प्रदान नहीं करती है। उन्होंने तर्क दिया कि यह अधिनियम अन्य धर्मों की तुलना में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के साथ अनुचित व्यवहार करता है। दूसरी ओर, इसने आगे दावा किया कि अधिनियम के प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करते हैं।
- उन्होंने आगे तर्क दिया कि अधिनियम की भाषा का अर्थ यह समझा जाना चाहिए कि तलाकशुदा महिलाओं को केवल इद्दत अवधि के दौरान ही सहायता नहीं, बल्कि दीर्घकालिक सहायता मिलनी चाहिए। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि अधिनियम के तहत पतियों को अपनी पत्नियों की भविष्य की जरूरतों के लिए व्यवस्था करने की आवश्यकता होती है, न कि केवल इद्दत अवधि के दौरान अस्थायी जरूरतों के लिए है।
प्रतिवादी के तर्क
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि भरण-पोषण मुसलमानों के समुदाय के व्यक्तिगत कानून का एक हिस्सा है। आगे तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 3 के तहत, “उचित और निष्पक्ष प्रावधान और रखरखाव” इद्दत अवधि के भीतर किया जाना है, न कि जीवन भर के लिए।
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि व्यक्तिगत कानून भेदभाव के लिए एक वैध आधार बन सकता है और यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है।
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि यह अधिनियम सीआरपीसी की धारा 125 के अनुसार मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। उन्होंने तर्क दिया कि अधिनियम भरण-पोषण को इद्दत अवधि तक सीमित नहीं करता है, बल्कि इसमें दीर्घकालिक सहायता भी शामिल है, जब तक कि महिला पुनर्विवाह न कर ले।
- उन्होंने तर्क दिया कि विधायिका ने शाहबानो मामले में अदालत के फैसले को गलत समझा है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि अधिनियम इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण के अधिकार को संहिताबद्ध करता है।
- प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि यह अधिनियम शाहबानो मामले में दिए गए फैसले को संबोधित करने के लिए लागू किया गया था, ताकि मुसलमानों के व्यक्तिगत कानून ढांचे के भीतर भरण-पोषण सुनिश्चित किया जा सके और अधिनियम की धारा 3(1)(a) मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के अनुरूप हो।
- प्रतिवादियों ने कहा कि इस अधिनियम का उद्देश्य सीआरपीसी की धारा 125 के लाभों को बढ़ाए बिना मुस्लिम महिलाओं को निराश्रित होने से बचाना है, तथा एक ऐसा ढांचा प्रदान करना है जो मुस्लिम व्यक्तिगत कानून पर विचार करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं को असुरक्षित न छोड़ा जाए।
डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) में निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह अधिनियम विशेष रूप से उन मुस्लिम महिलाओं पर लागू होता है, जिनका मुस्लिम कानून के तहत तलाक हुआ है। हालाँकि, यह अधिनियम अन्य कानूनों के तहत तलाकशुदा लोगों पर लागू नहीं होता है। इसमें परित्यक्त या अलग हुई मुस्लिम पत्नियाँ शामिल नहीं हैं। भरण-पोषण केवल इद्दत अवधि के दौरान ही आवश्यक है; उसके बाद, जिम्मेदारी महिला के रिश्तेदारों पर आती है या यदि आवश्यक हो, तो यह राज्य वक्फ बोर्ड पर आती है। अदालत ने कहा कि एक मुस्लिम पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को उचित एवं न्यायसंगत भरण-पोषण प्रदान करना चाहिए, जिसमें इद्दत अवधि के बाद भी सहायता शामिल है। इस भरण-पोषण की व्यवस्था इद्दत अवधि के दौरान की जानी चाहिए, जैसा कि अधिनियम की धारा 3(1)(a) में अपेक्षित है।
इसके अलावा यह भी माना गया कि धारा 3(1)(a) के तहत भरण-पोषण प्रदान करने का पति का कर्तव्य केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इससे आगे तक फैला हुआ है। यदि कोई तलाकशुदा मुस्लिम महिला, जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है, इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो वह अपने रिश्तेदारों से भरण-पोषण की मांग कर सकती है। अधिनियम की धारा 4 में यह निर्दिष्ट किया गया है कि रिश्तेदारों को मुस्लिम कानून के अनुसार, उससे प्राप्त विरासत के अनुपात में भरण-पोषण प्रदान करना चाहिए। यदि रिश्तेदार महिला को आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करने में असमर्थ हैं, तो अदालत राज्य वक्फ बोर्ड को भरण-पोषण का भुगतान करने का निर्देश दे सकती है।
इस प्रकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। अदालत ने आगे कहा कि यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन नहीं करता है। न्यायालय ने कहा कि जब राज्य किसी विशेष समुदाय के लिए विशिष्ट प्रावधान करता है जो सामान्य कानून के समान या उससे अधिक लाभकारी है तो इसमें कोई भेदभाव नहीं होता है। यह अधिनियम शाहबानो मामले के निर्णय को न तो रद्द करता है और न ही उसके विरुद्ध जाता है, बल्कि केवल उसे संहिताबद्ध करता है।
मामले के पीछे के तर्क
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक संबंधों से संबंधित कानूनों के तहत मामलों का निर्णय करते समय समाज की सामाजिक स्थितियों पर विचार करना बहुत आवश्यक है। हमारे समाज में, चाहे लोग बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक, पुरुषों और महिलाओं के बीच काफी आर्थिक असमानता है।
माननीय न्यायालय ने आगे कहा कि समाज में सामाजिक और आर्थिक दोनों रूप से पुरुषों का वर्चस्व है। दूसरी ओर, महिलाएं अक्सर स्वयं को आश्रित की भूमिका में पाती हैं। कई महिलाएं, भले ही वे उच्च शिक्षित हों, शादी के बाद अपने परिवार पर ध्यान देने के लिए अपना करियर छोड़ देती हैं। विवाह में उनका योगदान बहुत बड़ा है और इसे केवल पैसों के आधार पर नहीं मापा जा सकता हैं। जब ऐसा रिश्ता खत्म हो जाता है, तो भावनात्मक क्षति या व्यक्तिगत निवेश की भरपाई करना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। तलाकशुदा महिला को भरण-पोषण के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करना एक बुनियादी मानव अधिकार तथा लैंगिक और सामाजिक न्याय का मामला है। इसे सभी धर्मों में सार्वभौमिक रूप से मान्यता प्राप्त है। अधिनियम में तलाकशुदा महिला की देखभाल की जिम्मेदारी असंबंधित पक्षों जैसे कि वारिसों या वक्फ बोर्ड पर नहीं डाली जानी चाहिए।
न्यायालय ने आगे कहा कि अधिनियम की प्रस्तावना दर्शाती है कि इसका उद्देश्य तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना है। इसके अलावा न्यायालय ने धारा 2(a) का हवाला देते हुए कहा कि अधिनियम के तहत तलाकशुदा महिला वह है जिसे मुस्लिम कानून के अनुसार तलाक दिया गया है। न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम विशेष रूप से उन मुस्लिम महिलाओं पर लागू होता है, जिनका इस्लामी कानून के सिद्धांतों के तहत तलाक हुआ है। धारा 2(b) इद्दत अवधि को परिभाषित करती है, जो वह प्रतीक्षा अवधि है जो तलाकशुदा महिला को पुनर्विवाह करने से पहले पूरी करनी होती है।
न्यायालय ने कहा कि इस अवधि के दौरान अपनी पूर्व पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करने का पति का दायित्व इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप है तथा तलाक के बाद महिला के लिए भी यह आवश्यक है। धारा 3 और धारा 4 अधिनियम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। धारा 3 के अनुसार तलाकशुदा महिला इद्दत अवधि के भीतर अपने पूर्व पति से उचित भरण-पोषण पाने की हकदार है। इसमें बच्चों के भरण-पोषण तथा उन्हें दिए गए मेहर या महर तथा अन्य संपत्तियों की वापसी से संबंधित प्रावधान भी शामिल हैं। यदि पति ये सुविधाएं प्रदान करने में विफल रहता है, तो तलाकशुदा महिला आदेश के लिए मजिस्ट्रेट के पास आवेदन कर सकती है।
न्यायालय ने आगे कहा कि पति का दायित्व सिर्फ इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इससे आगे तक फैला हुआ है। अदालत ने आगे कहा कि इद्दत अवधि के दौरान प्रदान की गई राशि से महिला की भविष्य की जरूरतें पूरी होनी चाहिए। धारा 4 में कहा गया है कि यदि तलाकशुदा महिला इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती है और उसके पास रिश्तेदारों से सहायता पाने का कोई साधन नहीं है, तो मजिस्ट्रेट राज्य वक्फ बोर्ड को भरण-पोषण प्रदान करने का निर्देश दे सकता है। हालाँकि, यह खंड रखरखाव के अलावा अन्य प्रावधानों पर विचार नहीं करता है।
न्यायालय ने धारा 5 की भी समीक्षा की, जो तलाकशुदा महिला को सीआरपीसी की धारा 125 से 128 के प्रावधानों के तहत शासित होने का विकल्प चुनने की अनुमति देती है। न्यायालय ने कहा कि यह आवेदन की पहली सुनवाई के समय आपसी घोषणा के द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय ने इसे उन महिलाओं के लिए वैकल्पिक उपाय के रूप में देखा जो सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के सामान्य कानून को प्राथमिकता देती हैं। तदनुसार, तलाकशुदा महिला और उसके पूर्व पति भरण-पोषण के मामलों में सीआरपीसी की इन धाराओं का पालन करने पर सहमत हो सकते हैं।
प्रासंगिक मामले जिन पर चर्चा की गई
ओल्गा टेलिस एवं अन्य बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एवं अन्य (1985)
तथ्य
ओल्गा टेलिस एवं अन्य बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एवं अन्य (1985) मामले में, फुटपाथ पर रहने वालों का एक समूह बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन द्वारा अपने घरों से बेदखल होने का सामना कर रहा था। ये लोग फुटपाथ पर अस्थायी आश्रयों में रहते थे।
मुद्दा
- मुख्य मुद्दा यह था कि क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में आजीविका का अधिकार और सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है।
- क्या वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराए बिना फुटपाथ पर रहने वालों को बेदखल करना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा?
तर्क
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उन्हें बेदखल करने से वे अपनी आजीविका के मूल साधन से वंचित हो जाएंगे और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
निर्णय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। अदालत ने फैसला किया कि पर्याप्त वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराए बिना फुटपाथ पर रहने वालों को बेदखल करना उनके सम्मान के साथ जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
प्रासंगिकता
अदालत ने इस मामले का उल्लेख इस बात पर जोर देने के लिए किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। अदालत ने इस सिद्धांत का प्रयोग किया और माना कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को इद्दत अवधि के बाद उसके पति से भरण-पोषण से वंचित करना उसके सम्मान के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन होगा।
अरब अहमदिया अब्दुल्ला और आदि बनाम अरब बेल मोहमुना सैय्यदभाई और अन्य (1988)
तथ्य
अरब अहमदिया अब्दुल्ला एवं अन्य बनाम अरब बेल मोहमुना सैयदभाई एवं अन्य (1988) मामले में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला, अरब बेल मोहमुना सैयदभाई और उसके पूर्व पति, अरब अहमदिया अब्दुल्ला के बीच विवाद था। विवाद इस बात को लेकर था कि तलाक के बाद पति को कितना भरण-पोषण और अन्य सुविधाएं देनी होंगी। याचिकाकर्ता ने इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण के दावे को चुनौती दी।
मुद्दा
मुख्य मुद्दा यह था कि क्या इस्लामी कानून के तहत मुस्लिम पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को केवल इद्दत अवधि के दौरान ही भरण-पोषण देने के लिए बाध्य है, या क्या उसे इद्दत अवधि के बाद भी उसके भविष्य के लिए उचित और उचित प्रावधान करने की आवश्यकता है।
निर्णय
गुजरात उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक मुस्लिम पति वास्तव में अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए उचित और उचित प्रावधान करने के लिए उत्तरदायी है, जो इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है। अदालत ने कहा कि पति का दायित्व इद्दत अवधि से आगे तक फैला हुआ है।
प्रासंगिकता
इस मामले का संदर्भ इस तर्क के समर्थन में दिया गया था कि एक मुस्लिम पति का अपनी तलाकशुदा पत्नी की देखभाल करने का दायित्व इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं होना चाहिए।
कुन्हम्मद हाजी बनाम अमीना (1995)
तथ्य
कुन्हम्मद हाजी बनाम अमीना (1995) मामले में याचिकाकर्ता कुन्हम्मद हाजी प्रतिवादी अमीना के पूर्व पति थे। अमीना ने अधिनियम की धारा 3 के तहत भरण-पोषण याचिका दायर की थी। इसके अलावा, उन्होंने निम्नलिखित तीन बातों का दावा करने के लिए यह मुकदमा दायर किया:
- मुस्लिम कानून के अनुसार महर राशि।
- इद्दत की अवधि के लिए भरण-पोषण।
- उसके भविष्य की आजीविका के लिए एक उचित और उचित प्रावधान।
मजिस्ट्रेट ने इद्दत अवधि के दौरान उसे भरण-पोषण की अनुमति दी तथा उसके भविष्य की आजीविका के लिए उचित एवं उचित प्रावधान के रूप में 30,000 रुपए दिए, लेकिन महर के लिए उसके दावे को खारिज कर दिया।
याचिकाकर्ता ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की तथा तर्क दिया कि अधिनियम के तहत उसका दायित्व केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित है, उससे आगे नहीं।
मुद्दा
क्या अधिनियम की धारा 3(1)(a) के तहत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला का भरण-पोषण का अधिकार इद्दत अवधि तक सीमित है या इद्दत अवधि से परे उसके भविष्य की आजीविका के लिए उचित और उचित प्रावधान तक विस्तारित है?
निर्णय
केरल उच्च न्यायालय ने निचली अदालतों के फैसले को बरकरार रखा है। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता के दायित्व में न केवल इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण शामिल है, बल्कि तलाकशुदा पत्नी की भविष्य की आजीविका के लिए उचित और उचित प्रावधान भी शामिल है।
अदालत ने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 3(1)(a) के तहत, पत्नी के लिए प्रावधान करने का पति का दायित्व केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसकी आजीविका के लिए भी इसके आगे बढ़ाया गया है।
प्रासंगिकता
अदालत ने इस मामले का संदर्भ दिया और इस सिद्धांत पर बल दिया कि अधिनियम के तहत, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला इद्दत अवधि के बाद अपनी आजीविका के लिए उचित और उचित प्रावधान की हकदार है।
के. ज़ुनैदीन बनाम अमीना बेगम और अन्य (1997)
तथ्य
के. जुनैदीन बनाम अमीना बेगम एवं अन्य (1997) मामले में, के. जुनैदीन का विवाह अमीना बेगम से हुआ था, और उनका विवाह तलाक के माध्यम से भंग हो गया था। अमीना बेगम ने अपने पूर्व पति जुनैदीन से भरण-पोषण अधिनियम, 1986 के तहत गुजारा भत्ता मांगने के लिए याचिका दायर की।
मुद्दा
क्या तलाकशुदा मुस्लिम महिला अधिनियम के तहत इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण पाने की हकदार है?
तर्क
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस्लामी कानून के अनुसार भरण-पोषण प्रदान करने की उसकी जिम्मेदारी इद्दत अवधि तक ही सीमित है, तथा अधिनियम के तहत उस अवधि के बाद कोई अन्य दायित्व मौजूद नहीं है।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 3(1)(a) के तहत पूर्व पति को उसके भविष्य के लिए उचित और उचित प्रावधान करना आवश्यक है, जिसमें इद्दत अवधि से परे भरण-पोषण भी शामिल है।
निर्णय
अदालत ने अमीना बेगम के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने भविष्य के लिए उचित और उचित भरण-पोषण पाने की हकदार है, जो इद्दत अवधि से आगे भी जारी रहेगा।
न्यायालय ने अधिनियम की धारा 3(1)(a) और 4 की व्याख्या की और न्यायालय ने अधिनियम की धारा 3(1)(a) में “बनाया गया” और “भुगतान किया गया” शब्दों के महत्व की व्याख्या की। पूर्व पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए उचित प्रावधान करना आवश्यक है, जिसमें इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण और उसके भविष्य की भलाई शामिल है। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पूर्व पति का दायित्व केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसे तलाकशुदा पत्नी की भविष्य की जरूरतों को भी पूरा करना होगा।
प्रासंगिकता
इस मामले में दिए गए फैसले में तलाकशुदा मुस्लिम महिला को इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण पाने के अधिकार का समर्थन किया गया।
उस्मान खान बहमनी बनाम फातिमुन्निसा बेगम और अन्य (1990)
तथ्य
उस्मान खान बहमनी बनाम फातिमुन्निसा बेगम और अन्य (1990), फातिमुन्निसा बेगम (प्रतिवादी) ने उस्मान खान बहमनी (याचिकाकर्ता) से तलाक के बाद इद्दत अवधि के बाद भरण-पोषण की मांग की थी। दम्पति के बीच तलाक हो चुका था और इद्दत अवधि के दौरान उस्मान खान ने इस्लामी कानून के अनुसार उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान की थी। हालाँकि, फतिमुन्निसा बेगम ने दावा किया कि वह इस अवधि के बाद भी भरण-पोषण पाने की हकदार हैं।
मुद्दा
इस मामले में प्राथमिक मुद्दा यह था कि क्या मुस्लिम पति का अपनी तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करने का दायित्व अधिनियम के तहत इद्दत अवधि से आगे भी जारी रहता है।
तर्क
- याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस्लामी कानून के अनुसार इद्दत अवधि पूरी होने के साथ ही उसकी तलाकशुदा पत्नी का भरण-पोषण करने का दायित्व समाप्त हो गया।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि इद्दत अवधि के बाद भी उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसके पति की होनी चाहिए, क्योंकि वह स्वयं अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं है।
निर्णय
अदालत ने कहा कि तलाकशुदा पत्नी की देखभाल करने की पति की जिम्मेदारी केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित है। इद्दत अवधि समाप्त होने पर उसका दायित्व समाप्त हो जाता है। अदालत ने आगे कहा कि यदि तलाकशुदा पत्नी को तलाक के समय पहले से ही उचित और उचित मात्रा में वित्तीय सहायता मिल चुकी है, तो वह अपने पूर्व पति से अपने भविष्य के लिए किसी अतिरिक्त राशि का दावा नहीं कर सकती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि इद्दत अवधि के बाद यदि महिला अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, तो उसे सबसे पहले अपने रिश्तेदारों से सहायता लेनी होगी। यदि उसके रिश्तेदार मदद करने में असमर्थ हैं, तो वह वक्फ बोर्ड से संपर्क कर सकती है, जो निराश्रित मुस्लिम महिलाओं की सहायता के लिए जिम्मेदार है।
डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) का आलोचनात्मक विश्लेषण
वर्तमान मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। अदालत के फैसले से यह स्पष्ट हो गया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधान तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल ‘इद्दत’ अवधि के दौरान भरण-पोषण तक सीमित करके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं। इसके अलावा, इस मामले में अदालतों ने धार्मिक प्रथाओं को मौलिक अधिकारों के साथ संतुलित करने की आवश्यकता को पहचाना तथा अधिनियम के प्रावधानों की इसी तरह से व्याख्या की हैं।
दूसरी ओर, अदालत ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने की हकदार है। हालाँकि, यदि उसका पति अधिनियम में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने में विफल रहता है। विशेष रूप से, यदि पति इद्दत अवधि के दौरान उसके शेष जीवन के लिए वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त भरण-पोषण प्रदान नहीं करता है, तो वह धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है। अदालत की व्याख्या “उचित और निष्पक्ष प्रावधान करना” और “भरण-पोषण का भुगतान करना” शब्दों के आधार पर की जाती है।
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं की वर्तमान स्थिति
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को न केवल अपने पर्सनल लॉ के तहत बल्कि सीआरपीसी के तहत भी भरण-पोषण मांगने का अधिकार है। न्यायपालिका ने कई मामलों में इद्दत अवधि के बाद भी मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकार को बरकरार रखा है। हाल के कुछ निर्णय इस प्रकार हैं:
मोहम्मद क़मरुज्जमां बनाम बेगम आरा (2019) मामले में, मोहम्मद क़मरुज्जमां (याचिकाकर्ता) का विवाह बेगम आरा (प्रतिवादी) से हुआ था। समय के साथ, उनके रिश्ते खराब हो गए और क़मरुज्जमां ने दावा किया कि बेगम आरा ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया, जिसके कारण उन्होंने दूसरी महिला मोमिना खातून से शादी कर ली। क़मरुज़्ज़मान ने यह भी आरोप लगाया कि बेगम आरा का एक अन्य व्यक्ति निहारुल हक के साथ अवैध संबंध था और इसी कारण उसने उसे तलाक दिया। क़मरुज्जमां ने बेगम आरा को तलाक देने का दावा किया, लेकिन रिकॉर्ड में तलाक का विवरण दिखाने वाला कोई ठोस सबूत नहीं था, जैसे कि यह कब और कहाँ हुआ, क्या सुलह का कोई प्रयास किया गया था, और क्या उन्होंने इस्लामी कानून के अनुसार “इद्दत” अवधि के लिए आवश्यक भरण-पोषण का भुगतान किया था।
अदालत ने पाया कि मोहम्मद कुमरुज्जमां ने यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं दिए कि उन्होंने बेगम आरा को तलाक दे दिया है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अधिनियम, 1986 के लागू होने के बाद भी, एक मुस्लिम पति अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए उचित और निष्पक्ष प्रावधान करने के लिए जिम्मेदार है, जिसमें “इद्दत” अवधि से परे रखरखाव भी शामिल है।
अदालत ने डेनियल लतीफी एवं अन्य बनाम भारत संघ (1973) मामले का हवाला दिया, जिसमें 1986 के अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा गया था और इस बात की पुष्टि की गई थी कि मुस्लिम पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए प्रावधान करना चाहिए, जो “इद्दत” अवधि से आगे तक फैला हुआ है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि 1986 के अधिनियम के संक्रमणकालीन प्रावधानों के अनुसार, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत तलाकशुदा महिला द्वारा भरण-पोषण के लिए किया गया कोई भी आवेदन, जो अधिनियम के लागू होने के समय लंबित है, का निपटारा 1986 के अधिनियम के अनुसार किया जाना चाहिए।
राणा नाहिद @ रेशमा @ सना बनाम साहिदुल हक चिश्ती (2020) मामले में, अपीलकर्ता, राणा नाहिद का विवाह प्रतिवादी, साहिदुल हक चिश्ती से हुआ था। तलाक के बाद अपीलकर्ता ने अधिनियम के तहत भरण-पोषण की मांग की। उसने इद्दत अवधि पूरी होने के बाद भरण-पोषण के लिए आवेदन दायर किया और दावा किया कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। अदालत के समक्ष प्राथमिक मुद्दा यह था कि क्या 1986 के अधिनियम के लागू होने के बाद तलाकशुदा मुस्लिम महिला दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है। एक अन्य प्रमुख मुद्दा यह था कि क्या पारिवारिक न्यायालय को 1986 अधिनियम की धारा 3 और 4 के अंतर्गत भरण-पोषण के लिए आवेदनों पर सुनवाई करने का अधिकार है।
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि वह 1986 के अधिनियम के अनुसार इद्दत के बाद भरण-पोषण पाने की हकदार है और उसे सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
दूसरी ओर, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि 1986 का अधिनियम विशेष रूप से तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण को नियंत्रित करता है। इस प्रकार यह सीआरपीसी की धारा 125 के आवेदन को बाहर करता है। इसके अतिरिक्त, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि पारिवारिक न्यायालय को 1986 अधिनियम के तहत दायर आवेदनों पर अधिकार नहीं है।
अपने फैसले में अदालत ने कहा कि 1986 के अधिनियम के अनुसार तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि अधिनियम में ऐसे भरण-पोषण के लिए विशिष्ट प्रावधान हैं। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि 1986 के अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला भरण-पोषण पाने की हकदार है, यदि वह इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है और उसने दोबारा शादी नहीं की है। अदालत ने यह भी माना कि पारिवारिक न्यायालय को पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 के अंतर्गत 1986 के अधिनियम के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन पर विचार करने का अधिकार है। ऐसे आवेदनों पर विचार करने वाले मजिस्ट्रेट को जिला न्यायालय के अधीनस्थ सिविल न्यायालय माना जाएगा।
मुजीब रहमान बनाम थसलीना (2022) मामले में विवाद एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के भरण-पोषण के अधिकार के इर्द-गिर्द घूमता है। पारिवारिक न्यायालय ने प्रारम्भ में पत्नी थसलीना को याचिका दायर करने की तिथि से 6,000 रुपये मासिक भरण-पोषण देने का आदेश दिया था। पति मुजीब रहमान ने तर्क दिया कि चूंकि उनका पहले ही तलाक हो चुका है, इसलिए अदालत को तलाक की तारीख के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का आदेश नहीं देना चाहिए था। उन्होंने आगे दावा किया कि उन्होंने अधिनियम के तहत अपेक्षित भविष्य के भरण-पोषण के लिए उचित और उचित प्रावधान के रूप में पहले ही ₹1,00,000 भेज दिए हैं।
हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम, जो तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और दायित्वों को संहिताबद्ध करता है, सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मांगने के तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकार को खत्म नहीं करता है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला तब तक धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है, जब तक कि उसका पूर्व पति अधिनियम की धारा 3 के तहत अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर लेता हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य (2024) के मामले में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखा। इस मामले में, अपीलकर्ता मोहम्मद अब्दुल समद का विवाह प्रतिवादी संख्या 02 से 15.11.2012 को हुआ था। उनके रिश्ते खराब हो गए और प्रतिवादी संख्या 02 को वैवाहिक घर छोड़ना पड़ा। उन्होंने अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 498A और धारा 406 के तहत एफआईआर दर्ज कराई। कानूनी कार्यवाही के जवाब में, अपीलकर्ता ने 25.09.2017 को तीन तलाक बोला और क्वाथ के कार्यालय के माध्यम से एकपक्षीय तलाक प्राप्त किया, जिसका तलाक प्रमाण पत्र 28.09.2017 को जारी किया गया। अपीलकर्ता ने इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण के लिए 15,000 रुपये देने का प्रयास किया, जिसे प्रतिवादी संख्या 02 ने अस्वीकार कर दिया। इसके बजाय, उसने पारिवारिक न्यायालय में सीआरपीसी 1973 की धारा 125(1) के तहत अंतरिम भरण-पोषण के लिए याचिका दायर की, जिसने 09.06.2023 को 20,000 रुपये प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण प्रदान किया। अपीलकर्ता ने तेलंगाना उच्च न्यायालय में पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती दी, जिसने 13.12.2023 को अंतरिम भरण-पोषण राशि को संशोधित कर 10,000 रुपये प्रति माह कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है, जिनमें मुस्लिम महिलाएं भी शामिल हैं, साथ ही सभी गैर-मुस्लिम तलाकशुदा महिलाएं भी शामिल हैं। विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाहित और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए, उस अधिनियम के तहत उपलब्ध उपायों के अतिरिक्त, सीआरपीसी की धारा 125 के प्रावधान भी लागू होते हैं। मुस्लिम कानून के तहत विवाहित और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए, सीआरपीसी की धारा 125 और अधिनियम, 1986 दोनों लागू होते हैं। इन महिलाओं के पास इनमें से किसी एक या दोनों कानूनों के तहत उपचार प्राप्त करने का विकल्प है, क्योंकि 1986 का अधिनियम सीआरपीसी की धारा 125 को प्रतिस्थापित करने के बजाय उसका पूरक है। इसके अलावा, यदि कोई तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत राहत चाहती है, तो 1986 अधिनियम के तहत किए गए किसी भी आदेश पर सीआरपीसी की धारा 127(3)(b) के अनुसार विचार किया जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे फैसला दिया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिला के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता, भले ही उसने पहले ही अधिनियम के तहत भरण-पोषण का दावा कर लिया हो। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि भरण-पोषण केवल दान का मामला नहीं बल्कि “समानता और अधिकार” का मामला है। न्यायालय ने पुनः कहा कि यद्यपि लोग अपनी धार्मिक प्रथाओं का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तथापि उन प्रथाओं को भारतीय संविधान में उल्लिखित न्याय और समानता के व्यापक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। इसी प्रकार, धार्मिक कानूनों को संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, जैसे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत पुष्टिकृत समानता का अधिकार।
निष्कर्ष
लेखक ने निष्कर्ष निकाला है कि सीआरपीसी में धारा 125 को शामिल करते समय एक धर्मनिरपेक्ष कदम उठाया गया था। यह सभी महिलाओं को, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, भरण-पोषण का अधिकार देता है। शाहबानो मामले में अदालत ने भी इसी बात की पुष्टि की। हालाँकि, विधायिका ने शाहबानो मामले में दिए गए फैसले को रद्द करने के लिए अधिनियम लाया और डेनियल लतीफी मामले में अदालत ने भी इसकी पुष्टि की है।
हालाँकि, न्यायालय ने डेनियल लतीफी मामले में विशिष्ट विवादास्पद मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया है। यह शाहबानो में दिए गए अनुपात से भटक गया है। अधिनियम की वैधता को बरकरार रखते हुए, न्यायालय इस बात पर विचार करने में विफल रहा कि धारा 125, जो देश में समान नागरिक संहिता प्राप्त करने की दिशा में एक कदम है, को किसी अन्य व्यक्तिगत कानून पर प्राथमिकता क्यों नहीं दी जानी चाहिए। इसके अलावा, इसने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि महिलाओं के भरण-पोषण के लिए उनके रिश्तेदार और वक्फ बोर्ड क्यों बाध्य हैं, उनके पतियों के लिए नहीं। न्यायालय ने अधिनियम के पीछे संसद की मंशा और उस समय देश में चल रही परिस्थितियों को भी नजरअंदाज किया है। यदि न्यायालय ने उपरोक्त तर्कों पर विचार किया होता तो निर्णय अलग हो सकता था।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
मुस्लिम कानून में “महर” क्या है?
मुस्लिम कानून में, “महर” विवाह के समय दूल्हे द्वारा दुल्हन को दिया जाने वाला अनिवार्य भुगतान या उपहार है।
मुस्लिम कानून के तहत “इद्दत अवधि” क्या है?
मुस्लिम कानून में, “इद्दत” अवधि से तात्पर्य उस अवधि से है जो एक महिला को अपने विवाह विच्छेद के बाद से गुजारनी पड़ती है। यह तलाक या पति की मृत्यु के कारण हो सकता है। इस अवधि का मुख्य कारण यह निर्धारित करना है कि महिला गर्भवती है या नहीं। जिन महिलाओं का मासिक धर्म चक्र नियमित होता है, उनके लिए इद्दत अवधि तलाक के बाद तीन मासिक चक्रों तक चलती है। जिन महिलाओं को मासिक धर्म नहीं होता, उनके लिए यह तीन चन्द्र मास होते हैं। हालाँकि, यदि तलाक या पति की मृत्यु के समय महिला गर्भवती है, तो ऐसी परिस्थितियों में इद्दत अवधि तब तक जारी रहती है जब तक वह बच्चे को जन्म नहीं दे देती। पति की मृत्यु की स्थिति में इद्दत की अवधि चार चंद्र महीने और दस दिन मानी जाती है। इद्दत अवधि के दौरान महिला को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं होती है। आमतौर पर उनसे घर पर रहने और सामाजिक गतिविधियों से दूर रहने की अपेक्षा की जाती है। यदि उसके पति की मृत्यु हो गई हो तो इद्दत शोक की अवधि भी होती है।
“माता” का क्या अर्थ है?
मुस्लिम कानून में, “माता” का अर्थ एक प्रकार का भुगतान या सहायता है जो पति को तलाक के बाद अपनी पूर्व पत्नी को देना चाहिए, खासकर जब पति तलाक की पहल करता है। यह अवधारणा निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों में अंतर्निहित है, कि विवाह विच्छेद के बाद पत्नी को आर्थिक कठिनाई में न छोड़ा जाए।
संदर्भ
- Mulla, Principles of Mohammedan Law (20th edn, LexisNexis 2014)
- Shukla, V.N. & Singh, M.P, Constitution of India (13th edn, Eastern Book Company 2017)