आपराधिक गतिविधियाँ: उनकी प्रकृति, दायरा और पहचान में समस्याएं

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Criminal Law
Close-up. Arrested man handcuffed hands at the back

इस लेख को कोलकाता पुलिस लॉ इंस्टीट्यूट की Smaranika Sen ने लिखा है। यह लेख विस्तृत रूप से आपराधिक गतिविधियों और उनकी प्रकृति, दायरे आदि से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary ने किया है।

परिचय

कोई भी कार्य जिसे करने के लिए कानून द्वारा मना किया जाता है और वह किसी व्यक्ति द्वारा किया जाता है या कोई भी कार्य जिसे करने के लिए कानून द्वारा आदेश दिया जाता है लेकिन कोई व्यक्ति उसे करने से मना कर देता है, तो ऐसे कार्य या इनकार को अपराध कहा जाता है। एक अपराध एक गैरकानूनी या अवैध कार्य है। हालाँकि, इस तरह की गतिविधि को या तो आपराधिक गतिविधि या नागरिक गलत के रूप में विभेदित (डिफरेंशिएट) किया जा सकता है। सवाल यह उठता है कि आपराधिक गतिविधि या नागरिक गलत के रूप में क्या निरूपित (डेनोटेड) किया जा सकता है? 

इस लेख के माध्यम से, हम आपराधिक गतिविधियों की अवधारणा, उनकी प्रकृति, दायरे आदि को समझेंगे।

आपराधिक गतिविधियों का अर्थ

आपराधिक गतिविधियों का वर्णन करने के लिए कोई उचित परिभाषा नहीं है। भारत में, भारतीय दंड संहिता 1860 (आईपीसी) अधिकांश आपराधिक कार्यों के लिए सजा बताती है। आईपीसी ने आपराधिक गतिविधियों को भी परिभाषित नहीं किया है। हालाँकि, इसने कुछ ऐसे तथ्य निर्धारित किए हैं जिनके द्वारा माना जा सकता है कि आपराधिक कार्यों के दायरे में क्या आ सकता है। धारा 40 के अनुसार, आईपीसी के तहत दंडनीय किसी भी कार्य को अपराध कहा जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1908 भी एक सीमा तक आपराधिक कार्यों को परिभाषित करती है। इसमें कहा गया है कि कोई भी कार्य या चूक जो किसी भी कानून द्वारा दंडनीय है, और कोई भी कार्य जिस पर पशु-अतिचार (ट्रेसपास) अधिनियम, 1871 की धारा 20 के तहत शिकायत की जाती है, उसको अपराध के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।

कई न्यायविद (ज्यूरिस्ट) और दार्शनिक (फिलॉसफर) हुए हैं जिन्होंने अपराध की अपनी परिभाषा दी है। प्रसिद्ध अंग्रेजी न्यायविद विलियम ब्लैकस्टोन ने अपराध शब्द को परिभाषित किया था की ऐसा कोई भी कार्य जो किसी सार्वजनिक कानून के उल्लंघन में किया गया हो, उसे अपराध कहा जाता है। अंग्रेजी दार्शनिक सार्जेंट स्टीफन ने भी अपराध को परिभाषित किया था। उनकी परिभाषा के अनुसार, अपराध न केवल ऐसा कोई कार्य या चूक है जो कानून द्वारा दंडनीय है बल्कि ऐसे कार्य भी हैं जो समाज की नैतिक भावनाओं को आहत करते हैं। प्रो. केनी एक प्रसिद्ध न्यायविद ने भी अपराध को परिभाषित किया था। उनके अनुसार, अपराध को केवल ऐसे कार्यों के लिए निरूपित किया जा सकता है जो दंडनीय हैं और केवल राज्य द्वारा छूट दी जा सकती है, यदि राज्य ऐसा महसूस करता है। हालाँकि, इस परिभाषा को थोड़ी आलोचना मिली है। इस परिभाषा की इस तथ्य पर आलोचना की गई है कि आपराधिक गतिविधियों को केवल राज्य द्वारा ही माफ किया जा सकता है, लेकिन कुछ कंपाउंडेबल अपराधों को निजी व्यक्तियों के भीतर सौहार्दपूर्ण ढंग से भी सुलझाया जा सकता है।

आपराधिक गतिविधि की प्रकृति

कुछ सिद्धांत आपराधिक गतिविधि की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। वे सिद्धांत हैं:

  1. अपराध मनुष्य द्वारा किया गया कोई कार्य या चूक है, जो बड़े पैमाने पर समाज के लिए हानिकारक है। आपराधिक गतिविधि एक सार्वजनिक गलत होनी चाहिए।
  2. आपराधिक गतिविधियों में की जाने वाली हरकतें हमेशा रेम यानी पूरी दुनिया के खिलाफ होती हैं। जब कोई आपराधिक गतिविधि की जाती है, तो संबंधित राज्य या सरकार द्वारा आरोपी के खिलाफ कार्रवाई की जाती है।
  3. आपराधिक गतिविधियाँ हमेशा कानून द्वारा दंडनीय होती हैं। इस तरह के कार्यों को राज्य द्वारा प्रशासित दंड की धमकी या मंजूरी से रोका जाता है।
  4. आपराधिक गतिविधि का पता चलने के बाद एक विशेष कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाता है। आमतौर पर, इन मामलों में, आरोपी को कानून का पालन करते हुए हिरासत में ले लिया जाता है और जांच शुरू होती है, मुकदमे होते हैं, और अंत में फैसला सुनाया जाता है।

आपराधिक गतिविधि का दायरा 

अब तक, हमें इस बात का अंदाजा हो गया है कि आपराधिक गतिविधि किसे कहा जा सकता है। आइए हम अब ऐसी गतिविधियों के दायरे को देखें। भारतीय कानून के तहत, दंड प्रक्रिया संहिता अपराधों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत करती है। यह अपराधों को संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-संज्ञेय अपराधों में वर्गीकृत करता है। 

  • संज्ञेय अपराधों को ऐसे किसी भी अपराध के रूप में कहा जा सकता है जहां पुलिस बिना किसी वारंट के आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। ऐसे अपराधों में पुलिस अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के मामले की जांच शुरू कर सकता है। यह देखा गया है कि ऐसे अपराध आमतौर पर गंभीर और गैर-जमानती होते हैं। 
  • दूसरी ओर, गैर-संज्ञेय अपराध वे हैं जहां पुलिस मजिस्ट्रेट से गिरफ्तारी वारंट के बिना आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती है। ऐसे अपराधों में पुलिस को जांच शुरू करने के लिए मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है। ऐसे अपराध आमतौर पर कम गंभीर और जमानती होते हैं।

आईपीसी के तहत अपराधों का वर्गीकरण इस प्रकार है:

  • शरीर के खिलाफ अपराध – आईपीसी हत्या, व्यपहरण (किडनैपिंग), अपहरण (एबडक्शन), चोट, लापरवाही से मौत के रूप में शरीर के खिलाफ अपराध को मान्यता देता है।
  • संपत्ति के खिलाफ अपराध – आईपीसी लूट, चोरी, डकैती, डकैती की तैयारी को को संपत्ति के खिलाफ अपराध के रूप में मान्यता देती है।
  • सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ अपराध – आईपीसी  दंगों, आगजनी (आरसन) आदि को मान्यता देती है।
  • आर्थिक अपराध – आईपीसी  आपराधिक विश्वासघात, धोखाधड़ी, जालसाजी (काउंटरफिटिंग) आदि को मान्यता देती है। 
  • एक महिला के खिलाफ अपराध – बलात्कार, हमला, दहेज हत्या, पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता आदि।
  • आईपीसी  बच्चों के खिलाफ अपराधों को भी मान्यता देती है। उदाहरण के लिए, गुलामी के लिए व्यपहरण, वैध संरक्षकता (गार्जियन) से व्यपहरण, नाबालिग लड़कियों की खरीद आदि।
  • आईपीसी में उल्लिखित अन्य सभी अपराध आपराधिक गतिविधि के दायरे में आते हैं।

कुछ विशेष और स्थानीय अधिनियम भी आपराधिक गतिविधियों को निर्धारित करते हैं और दंड देते हैं। उनमें से कुछ नारकोटिक्स ड्रग एंड साइकोट्रोपिक अधिनियम, 1985, शस्त्र अधिनियम, 1959, सार्वजनिक जुआ अधिनियम, 186, उत्पाद शुल्क (एक्साइज) अधिनियम, 1958, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956, भारतीय रेलवे अधिनियम, 1989, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, आदि हैं।

आपराधिक गतिविधियों की पहचान में समस्या

कभी-कभी, यह पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है कि आपराधिक गतिविधि के रूप में क्या गठित किया जा सकता है। इस प्रकार, आपराधिक गतिविधि का निर्धारण करने के लिए, हम उन बुनियादी बातों पर गौर कर सकते हैं जो किसी गतिविधि को आपराधिक गतिविधि के रूप में निरूपित करने के लिए आवश्यक हैं। मूलभूत तत्व हैं:

मनुष्य

आईपीसी में मनुष्य शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन आईपीसी ने ‘पुरुष’, ‘महिला’, ‘व्यक्तियों’, ‘जनता’ और ‘लिंग’ को परिभाषित किया है। आईपीसी के अनुसार, ‘लिंग’ शब्द पुरुष और महिला दोनों को दर्शाता है जब तक कि किसी प्रावधान या क़ानून में स्पष्ट रूप से कुछ और न कहा गया हो। गिरधर गोपाल बनाम राज्य (1952) के मामले में मुद्दा यह था कि आईपीसी की धारा 354 में इस्तेमाल किए गए शब्द ‘वह’ केवल पुरुष या पुरुष और महिला दोनों को दर्शाता है। मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय ने माना था कि ‘वह’ शब्द पुरुषों और महिलाओं दोनों को दर्शाता है। इस प्रकार, मामले की परिस्थितियों के आधार पर एक महिला की शील (मोडेस्टी) भंग करने के लिए एक पुरुष या महिला को दोषी ठहराया जाएगा।

आईपीसी ने ‘पुरुष’ और ‘महिला’ शब्दों को भी परिभाषित किया है। आईपीसी के अनुसार, ‘पुरुष’ को किसी भी उम्र का पुरुष और ‘महिला’ को किसी भी उम्र की महिला कहा जा सकता है। आईपीसी की शुरुआत वर्ष 1860 में हुई थी। उस समय, तीसरे लिंग की अवधारणा को आईपीसी द्वारा मान्यता नहीं दी गई थी। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि आईपीसी और अन्य कानूनों के तहत तीसरे लिंग को मान्यता देने की आवश्यकता है। उनकी गैर-मान्यता के कारण, उनके साथ न्याय या अधिकार प्राप्त करने से भेदभाव किया गया और वे संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का आनंद नहीं ले सके। इस प्रकार, राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (अथॉरिटी) बनाम भारत संघ (2012) के ऐतिहासिक मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि वे सभी व्यक्ति जो अपने जन्म के समय न तो पुरुष थे और न ही महिला थे, उन्हें तीसरे लिंग के रूप में निरूपित किया जाएगा और उन्हें भारतीय कानून के तहत मान्यता दी जाएगी। यह मुख्य रूप से उनकी रक्षा करने और उन्हें अपने मौलिक अधिकारों, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य कानूनी अधिकारों का आनंद लेने में सक्षम बनाने के लिए किया गया था। ‘पुरुष’ और ‘महिला’ शब्द का दायरा बहुत विस्तृत है, लेकिन इसमें ऐसा कोई भी शामिल नहीं है जो अभी महिला के गर्भ में है।

आईपीसी ने ‘व्यक्ति’ शब्द को भी परिभाषित किया है। आईपीसी के तहत, एक ‘व्यक्ति’ किसी भी मनुष्य की तरह एक प्राकृतिक व्यक्ति और किसी भी निगम या कंपनी, या एसोसिएशन की तरह कोई भी कृत्रिम व्यक्ति हो सकता है। शब्द ‘व्यक्ति’ में व्यक्तियों का एक निकाय अथवा निगम या कोई मूर्ति भी शामिल है जिसे अक्सर कानूनी व्यक्ति के रूप में कहा जाता है। हालांकि, आपराधिक मामलों में, निगमों को केवल पुलों की मरम्मत न करने, उपद्रव (न्यूसेंस), अतिचार, जालसाजी आदि जैसे किसी भी अर्ध-आपराधिक अपराधों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। निगमों को हत्या, डकैती, या जो कुछ भी राज्यों के खिलाफ अपराध की श्रेणी में आता है और कोई भी अपराध जिसके लिए सजा कारावास या मृत्यु के रूप में निर्धारित की गई है जैसे अपराधों के लिए कभी भी उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। मां के गर्भ में अजन्मे बच्चे को भी आईपीसी की धारा 11 के तहत एक व्यक्ति माना जाता है।

आईपीसी के तहत ‘सार्वजनिक’ शब्द का प्रयोग किसी भी वर्ग की जनता या समुदाय के लिए किया जाता है। आईपीसी परिभाषा नहीं देता है, लेकिन यह बताता है कि ‘सार्वजनिक’ शब्द के तहत क्या आ सकता है। इस शब्द की व्यापक रूप से व्याख्या नहीं की जा सकती है। 

मेन्स रीआ 

यह एक कार्य का आपराधिक गतिविधि के रूप में दावा करने के लिए आवश्यक, सबसे महत्वपूर्ण अनिवार्यताओं में से एक है। आपराधिक कानून उस व्यक्ति के व्यवहार या आचरण को ध्यान से देखता है जिसने अपराध किया था। यह माना जाता है कि किसी आरोपी के दोषी या निर्दोष होने का निर्धारण करने के लिए किसी व्यक्ति का आचरण बहुत महत्वपूर्ण है। आपराधिक कानून में, एक गतिविधि को आपराधिक गतिविधि के रूप में निरूपित किये जाने के लिए, इस कार्य में अपराध को अंजाम देने के लिए शारीरिक व्यवहार की एवं किसी भी प्रकार के मानसिक तत्व की कुछ अभिव्यक्ति शामिल होनी चाहिए।

‘मेन्स रीआ’ का अर्थ एक प्रकार की मानसिक स्थिति है जो अपराध करने के इरादे या ज्ञान का निर्माण करती है। कोई भी कार्य तभी आपराधिक बनता है, जब वह दोषी मन से किया जाता है। हालांकि, दोषी इरादे के लिए जरूरी नहीं है कि वह ऐसा कोई भी कार्य करे जिसे करने के लिए कानून द्वारा मना किया गया हो। यह कुछ गलत करने की मंशा मात्र हो सकती है। अब सवाल यह उठता है कि इरादा क्या है? इरादे को आम तौर पर एक उद्देश्य या कुछ परिस्थितियों से परिणाम प्राप्त करने की इच्छा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। मेन्स रीआ का निर्धारण करने के लिए कुछ परीक्षण किए गए हैं। पहला यह परीक्षण करना है कि किया गया कार्य स्वैच्छिक था या नहीं। दूसरा परीक्षण यह है कि क्या आरोपी ने परिणाम का पूर्वाभास किया था।

अक्सर एक इरादे और मकसद की अवधारणा को भ्रमित करने वाला देखा जाता है। यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि इरादा और मकसद एक ही चीज नहीं हैं और उन्हें अलग किया जाना चाहिए। इरादा इच्छा को पूरा करने के लिए कार्य का निष्पादन (एक्जिक्यूशन) है। दूसरी ओर, मकसद सिर्फ किसी अन्य व्यक्ति से बदला लेने की भावना है। आपराधिक गतिविधि में, मकसद की तुलना में इरादे के दायित्व को काफी हद तक ध्यान में रखा जाता है। यह माना जाता है कि इरादा आपराधिक गतिविधि का आधार बनता है और इसका कोई मकसद नहीं होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई आदमी अपने भूखे बच्चे के लिए खाना चुराता है, तो यहाँ मकसद अच्छा है लेकिन यहाँ इरादा चोरी करना है। इस प्रकार, कानून चोरी को पहचानता है न कि मकसद को। 

ओम प्रकाश बनाम उत्तराखंड राज्य , (2003) के मामले में , यह माना गया था कि अपराध का मकसद दोषसिद्धि निर्धारित करने के लिए आवश्यक नहीं है। इस मामले में, अदालत ने अपराध के घटित होने के लिए मकसद की अनुपस्थिति की याचिका को खारिज कर दिया, जहां आरोपी का अपराध पहले ही साबित हो चुका था। भारतीय कानून के तहत मेन्स रीआ के सिद्धांत का इस्तेमाल दो अलग-अलग तरीकों से किया गया है। सबसे पहले, आईपीसी में, अपने आप में अपराधों को ‘स्वेच्छा से’, ‘नीयत से’ और ‘जानबूझकर’ जैसे शब्दों के साथ कहा गया है, जो इस प्रकार सिद्धांत के उपयोग को दर्शाता है। दूसरे, मेन्स रीआ के सिद्धांत को आईपीसी के अध्याय IV में भी शामिल किया गया था जहां सामान्य अपवाद बताए गए हैं।

एक्टस रीअस

‘एक्टस रीअस’ का अर्थ है किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य। आम तौर पर, इसका अर्थ है किसी कार्य का भौतिक रूप से घटन की या तो कुछ ऐसा करना जो कानून द्वारा निषिद्ध था या किसी भी कार्य को करने से इनकार करना जिसे करने के लिए कानून द्वारा कहा गया था। यह मानव आचरण का भौतिक परिणाम है। मोती सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1963) के मामले में, यह देखा गया कि पीड़ित पर दो गोलियां चलाई गईं। पीड़ित ने, दो से तीन सप्ताह के बाद, चोटों के कारण दम तोड़ दिया। हालांकि, यह साबित करने के लिए कि पीड़ित की हत्या की गई थी, यह साबित करना आवश्यक था कि पीड़ित की मौत उस पर गोली चलाने से हुई थी। मेन्स रीआ और एक्टस रीअस एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक्टस रीअस के बिना कोई मेन्स रीआ नहीं है। बिना किसी कार्य के केवल द्वेष की उपस्थिति को आपराधिक गतिविधि नहीं माना जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी पुरुष के मन में किसी महिला को मारने का विचार हो, लेकिन उसने ऐसा कोई कार्य नहीं किया हो, तो यह अपराध नहीं होगा।

चोट

चोट को आईपीसी द्वारा परिभाषित किया गया है। आईपीसी के तहत चोट शब्द का दायरा व्यापक है। इसमें न केवल शारीरिक नुकसान शामिल है बल्कि किसी के दिमाग, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान पहुंचाना भी शामिल है। एक चोट केवल एक अपराध के एक तत्व के रूप में निर्धारित की जाएगी यदि यह अवैध रूप से हुई है। यदि चोट किसी अवैध गतिविधि के कारण नहीं हुई है, तो यह किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा। चोट एक व्यक्ति, व्यक्तियों के समूह या बड़े पैमाने पर समाज के खिलाफ हो सकती है।

निष्कर्ष

किसी भी आपराधिक गतिविधि का असर सिर्फ पीड़ित या उसके परिवार पर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज पर भी पड़ता है। यह समाज में आजीवन आघात पैदा करता है क्योंकि समाज और अपराध परस्पर जुड़े हुए हैं। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि आरोपी अपने जीवन के किसी समय पर एक ही समाज का हिस्सा रहा है और जहां वह इस तरह के गैरकानूनी कार्य करता है, वह भी समाज है। ऐसे में इस तरह की आपराधिक गतिविधियों को रोकना बेहद जरूरी है। अपराधियों को दंडित करने के लिए विभिन्न कानून बनाए गए हैं। 2021 तक, भारत की राजधानी दिल्ली द्वारा यह बताया गया है कि दिल्ली में पिछले वर्ष की तुलना में अपराध दर लगभग 15% तक गिर गई है। हालांकि, भारत के कुछ अन्य राज्यों में, अपराध दर पिछले वर्ष की तुलना में खतरनाक दर तक बढ़ गई है। आपराधिक गतिविधियों की रोकथाम के संबंध में, मुख्य शक्ति राज्य सरकारों के पास है, इसलिए ऐसी गतिविधियों से निपटने के लिए और अधिक सख्त और त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यदि किसी राज्य को लगता है कि कुछ कानूनों में संशोधन की आवश्यकता है जो ऐसी आपराधिक गतिविधि को रोकने में मदद करेंगे, तो उन्हें तुरंत संबंधित प्राधिकरण (अथॉरिटी) को इसकी सूचना देनी चाहिए।

संदर्भ

  • KD Gaur, Indian Penal Code

 

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