सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शालीनता और नैतिकता को प्रभावित करने वाले अपराध (धारा 268-294A)

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Indian Penal Code
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यह लेख Vanya Verma द्वारा लिखा गया है जो एलायंस यूनिवर्सिटी, बैंगलोर से बी.बी.ए. एल.एल.बी. (ऑनर्स) कर रहीं हैं। यह एक विस्तृत (एग्जॉस्टीव) लेख है, जो भारतीय दंड संहिता और न्यायिक निर्णयों के तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शालीनता (डीसेंसी) और नैतिकता (मोरल्स) के साथ-साथ उनके प्रावधानों से संबंधित विभिन्न अपराधों के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय दंड संहिता, 1860 का अध्याय (चैप्टर) XIV, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शालीनता और नैतिकता के अपराधों से संबंधित है।

इस तरह के उपद्रव (न्यूसेंस) को दो प्रकारों में वर्गीकृत (क्लासिफाई) किया जा सकता है:

  1. निजी उपद्रव (प्राईवेट न्यूसेंस)
  2. सार्वजनिक उपद्रव (पब्लिक न्यूसेंस)

निजी उपद्रव एक ऐसा कार्य है जो किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की परेशानी या अशांति का कारण बनता है, जबकि एक सार्वजनिक उपद्रव एक सार्वजनिक प्रकार का गलत है जो सभी आम जनता के अधिकार में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) करता है। इस लेख में विशेष रूप से सार्वजनिक उपद्रव के बारे में बात की गई है।

सार्वजनिक उपद्रव

आई.पी.सी. की धारा 268 सार्वजनिक उपद्रव से संबंधित है। इसे एक ऐसे कार्य के रूप में परिभाषित किया गया है जो या तो आम जनता को परेशान करता है या किसी ऐसी चीज की अवहेलना (डिसरिगार्ड) करता है जो सामान्य तौर पर भलाई के लिए आवश्यक है। सार्वजनिक उपद्रव “सिक उतेरो तूओ उट रेम पब्लिकम नॉन लेडस” पर आधारित है, जिसका यह अर्थ है कि एक व्यक्ति को अपनी संपत्ति का आनंद इस तरह से लेना चाहिए कि वह जनता के अधिकारों को चोट न पहुंचाए।

आई.पी.सी. की धारा 12 के तहत ‘सार्वजनिक’ शब्द को परिभाषित किया गया है, इसमें समुदाय का कोई भी वर्ग (क्लास) या कोई भी जनता शामिल है। इसके तहत किसी विशेष इलाके में रहने वाले किसी भी समुदाय या किसी वर्ग को ‘सार्वजनिक’ शब्द के दायरे में शामिल किया जा सकता है।

शब्द ‘अवैध चूक (इल्लीगल ऑमिशन)’ की व्याख्या उसी तरह की जाती है जैसे आई.पी.सी. की धारा 32, धारा 33 और धारा 43 के तहत ‘एक कार्य’, ‘कार्यो’ और ‘अवैध’ के अर्थों को प्रदान किया गया है। जब एक चूक अवैध है तो यह सार्वजनिक उपद्रव के अपराध के रूप में मानी जाएगी।

आरोपी द्वारा यह बचाव नहीं किया जा सकता है कि उसके द्वारा किया गया उपद्रव उसके स्वयं के हितों की रक्षा के लिए था या आरोपी की संपत्ति या फसलों को किसी भी तरह के नुकसान से बचाने या कम करने के लिए था।

आई.पी.सी. की धारा 81 के तहत प्रदान किया गया एक अपवाद, एक व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से मुक्त करता है यदि कार्य सद्भाव (गुड फेथ) में किया गया हो या यह किसी अन्य नुकसान को रोकने के लिए किया गया हो। लेकिन, यदि आरोपी पर आई.पी.सी. की धारा 268 के तहत आरोप लगाया गया हो, तो वह आई.पी.सी. की धारा 81 के तहत अपवाद का लाभ नहीं उठा सकता है।

इस धारा के तहत दृढ़ विश्वास स्थापित (एस्टेब्लिश) करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवयवों (इंग्रेडिएंट) में से एक खतरे, परेशानी, जनता को चोट का मोजूद होना, या उस व्यक्ति का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) होना है जिसे सार्वजनिक अधिकार का उपयोग करने का अवसर मिल सकता है। उदाहरण के लिए- किसी राजमार्ग या नौगम्य (नेवीगेबल) नदी का उपयोग करना।

यदि कोई व्यापार, किसी पड़ोसी की शांति या आराम में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) कर रहा है या यदि यह स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाता है, तो इसे सार्वजनिक उपद्रव के बराबर माना जाएगा। इस तरह के उपद्रव के तथ्य और परिस्थितियां इस बात पर निर्भर करती हैं कि क्या इस धारा के तहत अपराध का गठन (कांस्टीट्यूट) करने के लिए आवश्यक सभी सामग्री संतुष्ट हैं या नहीं।

मामले

राम अवतार बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश, 1962 के मामले में, अपीलकर्ता द्वारा सब्जियों की नीलामी की गई थी। इस नीलामी के कारण, सड़कें अवरुद्ध (ब्लॉक्ड) हो जाती थीं, जिससे आस पास रहने वाले समुदाय के भौतिक (फिजिकल) आराम में बाधा उत्पन्न होती थी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि चूंकि अपीलकर्ता अपने निजी घर के अंदर नीलामी का कारोबार कर रहे थे और नीलामी में भाग लेने वाले लोग सड़क को अवरुद्ध कर रहे थे। तो इसलिए अदालत ने माना कि उन्हें सार्वजनिक उपद्रव के तहत आरोपों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

अदालत का यह विचार था कि इस तरह के व्यापार से कुछ शोर हो सकता है जिससे समुदाय के कुछ लोगों को असुविधा हो सकती है। जो समुदाय ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जहां आमतौर पर इस तरह का व्यापार होता है, उन्हें इस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है।

मुत्तुमिरा और अन्य बनाम द क्वीन एम्प्रेस, 1884 के मामले में, मुहर्रम के समय एक हिंदू मंदिर के पास एक गांव में एक छवि लगाई गई थी, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यह सार्वजनिक उपद्रव के तहत एक अपराध था क्योंकि इसका उद्देश्य एक वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाना था। हमारे देश में अक्सर ये कार्य एक विशेष पंथ (क्रीड) के अनुयायियों (फॉलोअर्स) द्वारा किए जाते हैं जो अन्य पंथों का पालन करने वालों की भावनाओं के लिए आक्रामक होते हैं। एक विशिष्ट स्थान पर पूजा स्थल के निर्माण से अक्सर कुछ अन्य पंथों के अनुयायियों की भावनाओं को ठेस पहुंचने की संभावना होती है जो पड़ोस में रहते हैं, लेकिन इस तरह की गतिविधियों को दंड संहिता के तहत सार्वजनिक उपद्रव नहीं माना जाता है।

इस प्रावधान का दायरा, पड़ोस में रह रहे लोगों की रक्षा करना है, जहां वे रहते हैं या किसी संपत्ति पर कब्जा करते हैं, या जब उन्हें सार्वजनिक अधिकार का उपयोग करने का अवसर मिलता है।

के रामकृष्णन और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ केरल, 1999 के मामले में यह माना गया था कि सार्वजनिक रूप से धूम्रपान का कार्य सार्वजनिक उपद्रव के दायरे में आता है, जिसे आई.पी.सी. की धारा 268 के तहत कवर किया गया है। सार्वजनिक रूप से धूम्रपान करना, धूम्रपान न करने वाले लोगों के लिए निष्क्रिय धूम्रपान (पैसिव स्मोकिंग) का कारण बनता है। केरल उच्च न्यायालय द्वारा जनता में धूम्रपान के एक कार्य को “सार्वजनिक उपद्रव” के साथ-साथ असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया था।

उच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि सिगरेट, बीड़ी, सिगार या तंबाकू से धूम्रपान करना आई.पी.सी. की धारा 268 के तहत एक अयोग्य (इनकल्पेटरी) कार्य है और साथ ही असंवैधानिक है क्योंकि यह जीवन के अधिकार का उल्लंघन करता है जिसे भारत के संविधान, 1949 के अनुच्छेद 21 के तहत वर्णित किया गया है। 

सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शालीनता और नैतिकता से संबंधित अपराध

सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधा, शालीनता और नैतिकता से संबंधित विभिन्न अपराध हैं, जिनकी चर्चा इस लेख मे की गई है और वे इस प्रकार हैं:

कोई भी ऐसा कार्य जिससे जीवन के लिए खतरनाक बीमारी के संक्रमण (स्प्रेड) का खतरा है

आई.पी.सी. की धारा 269 के तहत लापरवाही द्वारा किए गए ऐसे कार्यों को कवर किया गया है, जिनसे जीवन के लिए खतरनाक बीमारी का संक्रमण फैलने की संभावना है। आई.पी.सी. की धारा 270 एक घातक (मेलिगनेंट) कार्य को कवर करती है जिससे ऐसी बीमारी का संक्रमण फैलने की संभावना है, जो जीवन के लिए खतरनाक है।

धारा 269 और 270 का उद्देश्य ऐसे लोगों को दोषी ठहराना है, जो इस तरह के कार्यों को या तो ज्ञान के साथ या यह जानते हुए करते हैं कि उनके इन कार्यों से किसी बीमारी का संक्रमण फैल सकता है, जो जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।

सज़ा

इस अपराध की सज़ा को आई.पी.सी. की धारा 269 के तहत प्रदान किया गया है, जहां व्यक्ति को कारावास की सजा से दंडित किया जाता है जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है, जबकि आई.पी.सी. की धारा 270 के तहत ऐसे लोगों को एक ऐसी अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे दो साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों हो सकता है, क्योंकि धारा 270, धारा 269 के तहत अपराध का एक गंभीर रूप है। धारा 270 में इस्तेमाल किया गया शब्द ‘दुर्भावनापूर्ण’ आरोपी के मेंस रीआ (दोषी मन) को दर्शाता है जिसने जानबूझकर संक्रमण फैलाकर दुर्भावनापूर्ण तरीके से काम किया है। इस प्रकार धारा 269 की तुलना में धारा 270 के तहत कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है।

मामले 

मिस्टर ‘X’ बनाम हॉस्पिटल ‘Z’, 1998 के मामले में, यह पाया गया था कि मिस्टर X का रक्त नमूना (सैंपल) एच.आई.वी. पॉजिटिव था, जिसके कारण अस्पताल अधिकारियों द्वारा, उनके मंगेतर को उनकी रिपोर्ट दिखाए जाने के बाद उनकी शादी रद्द हो गई। इस घटना के कारण, मिस्टर X को समुदाय द्वारा गंभीर रूप से बहिष्कृत (ओस्ट्रेसाइज) कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, मिस्टर X ने अस्पताल के अधिकारियों को उनके निजता के अधिकार के उल्लंघन के लिए उत्तरदायी ठहराया था और उन्होंने इसके लिए मुआवजे का दावा किया था।

अपीलकर्ता की दलीलों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि अधिकारियों द्वारा किया गया कार्य असंवैधानिक नहीं था, क्योंकि यदि अधिकारियों ने मिस्टर X के एच.आई.वी. पॉजिटिव होने के बारे में खुलासा नहीं किया होता, तो उसकी मंगेतर उसी बीमारी से संक्रमित हो जाती, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो जाती। न्यायालय ने आगे यह भी निर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 सभी को स्वस्थ जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देता है। इस प्रकार, यदि कोई व्यक्ति जो एच.आई.वी. एड्स से पीड़ित है, वह जानबूझकर शादी करता है और इस तरह अपने साथी को अपनी बिमारी से संक्रमित करता है, तो उसे धारा 269 और धारा 270 के तहत उत्तरदायी माना जाएगा। अदालत द्वारा यह आगे जोड़ा गया कि अगर मंगेतर ऐसी बीमारी से अवगत होने के बाद भी यदि अभी भी अपने साथी से विवाह करने को तैयार है तो ऐसी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को धारा 269 और धारा 270 के तहत किसी भी अपराध का दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए।

संजय गोयल बनाम डोंगसन ऑटोमोटिव इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, 2016, मद्रास के उच्च न्यायालय ने इस मामले पर निर्णय दिया था जो की दूषित अपशिष्टों (एफल्यूएंट्स) से संबंधित था और एक कारखाने से निकलने वाले धूल के कणों को पड़ोस की भूमि में फेंक दिया जाता था, इस प्रकार उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा और जिसके कारण मच्छरों का प्रजनन भी बढ़ने लगा। तो, अदालत ने यह माना कि यह विभिन्न अपराधों के तहत एक प्रथम दृष्टया मामला था, जिसमें आई.पी.सी. की धारा 269 शामिल है।

रामकृष्ण बाबूराव मस्के बनाम किशन शिवराज शेल्के, 1974 के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि एक व्यावसायिक यौनकर्मी (कमर्शियल सेक्स वर्कर) जो उपदंश (सिफिल्स) की बीमारी से पीड़ित है, और वह यदि संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स) के दौरान किसी दूसरे व्यक्ति को बीमारी फैलाती है, तो उसे धारा 269 के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।

क्वारंटाइन के नियम की अवहेलना 

आई.पी.सी. की धारा 271 में क्वारंटाइन नियम का उल्लंघन प्रदान किया गया है।

क्वारंटाइन का नियम क्या है?

क्वारंटाइन शब्द का अर्थ बीमारी के संक्रमण को रोकने के लिए किसी के सख्त अलगाव (आइसोलेशन) को दर्शाता है। सरकार द्वारा संक्रामक रोगों के प्रसार को समाप्त करने के लिए क्वारंटाइन का उपयोग किया जाता है। क्वारंटाइन उन लोगों या समूहों के लिए है, जिनमें किसी बीमारी के लक्षण नहीं हैं, लेकिन वे बीमारी के संपर्क में आए थे। क्वारंटाइन के नियम की मदद से इन लोगों को दूसरों से दूर रखा जाता है ताकि अनजाने में ये किसी को संक्रमित न करें।

क्वारंटाइन का उपयोग इस दौरान किया जा सकता है:

  • प्रकोप (आउटब्रेक): यह एक ऐसी स्थिति है जब बीमारी के मामलों की संख्या में अचानक वृद्धि होती है।
  • महामारी (एपिडेमिक): यह प्रकोप के समान है, लेकिन इसे आम तौर पर बड़ा और अधिक व्यापक माना जाता है।
  • पैंडेमिक: ये महामारियों की तुलना में व्यापक हैं, आमतौर पर प्रकृति में वैश्विक (ग्लोबल) हैं और अधिक संख्या में लोगों को प्रभावित करता हैं।

धारा 271 का यह अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर किसी ऐसे नियम की अवहेलना करता है जो उन स्थानों को अलग करने के उद्देश्य से बनाया गया है जहाँ अन्य स्थानों से संक्रामक रोग व्याप्त (प्रीवेलिंग) है, तो ऐसे व्यक्ति को इस प्रावधान के तहत दोषी माना जाएगा। इस धारा की यह आवश्यकता है कि सरकार द्वारा बनाए गए और प्रख्यापित (प्रोमुलगेटेड) नियम के ज्ञान के साथ अवज्ञा होनी चाहिए।

इस धारा के उल्लंघन में व्यक्ति को 6 महीने तक की कैद, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

बिक्री के लिए भोजन या पेय में मिलावट करना और हानिकारक भोजन या पेय की बिक्री

आई.पी.सी. की धारा 272 बिक्री के उद्देश्य से खाने या पीने की किसी भी वस्तु में मिलावट करने को कवर करती है। आई.पी.सी. की धारा 273 में हानिकारक भोजन या पेय की बिक्री शामिल है।

कुछ चीजें हैं जिन्हें अभियोजन (प्रेसिक्यूशन) पक्ष द्वारा साबित करने की आवश्यकता है जो निम्नानुसार हैं:

  • आरोपी ने मिलावट की थी।
  • विचाराधीन वस्तु भोजन या पेय थी जिसका सेवन किसी भी जीवित व्यक्ति द्वारा किया जाना था।
  • ऐसी मिलावट के कारण, वह वस्तु बाद में हानिकारक हो गई थी।
  • खाने-पीने की वस्तु को बेचने के इरादे से वस्तु में मिलावट की गई थी, यह जानते हुए कि ऐसी वस्तु को कोई अन्य व्यक्ति पेय या भोजन के रूप में बेचेगा।

मिलावट का कार्य केवल तब तक धारा 273 के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता है जब तक कि मिलावट इस हद तक न की गई हो कि वस्तु को उपभोग के लिए हानिकारक बना दिया गया है। इस धारा के तहत न ही केवल हानिकारक वस्तु की बिक्री प्रतिबंधित (प्रोहिबिट) है बल्कि इसके तहत भोजन या पेय जैसी हानिकारक वस्तुओं की बिक्री भी मुख्य रूप से प्रतिबंधित है।

“भोजन के रूप में हानिकारक” शब्द का तात्पर्य ऐसे भोजन से है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है या जो हानिकारक प्रकृति का है।

सज़ा

इस अपराध के लिए, एक व्यक्ति को आई.पी.सी. की धारा 272 और धारा 273 के तहत 6 महीने तक की कैद, या एक हजार रुपये तक जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

मामला

राम दयाल और अन्य बनाम एंपरर, 1923, इस मामले में, सुअर की चर्बी को घी में मिलाने का एक कार्य किया गया था, जिसे बाद में बेच दिया गया था। यह माना गया कि इस तरह की बिक्री के माध्यम से यह वस्तु को “भोजन के रूप में हानिकारक” नहीं बना देगा, भले ही यह लोगों के एक वर्ग की धार्मिक भावनाओं के लिए हानिकारक हो। इस मामले में अदालत का यह विचार था कि इस धारा के तहत दूध के साथ पानी मिलाना अपराध नहीं है, क्योंकि मिश्रण करना न तो हानिकारक है और न ही खाने या पीने के लिए अस्वस्थ है। इसी प्रकार गेहूँ को गंदगी, लकड़ी का कोयला, लकड़ी जैसे बाहरी पदार्थों के एक बड़े मिश्रण के साथ बेचना कोई अपराध नहीं माना जाता है। लेकिन अगर यह कृन्तकों (रोडेंट्स) के बालों या उनके मल मूत्र और बहुत सारे बाहरी स्टार्च के साथ मिला हुआ पाया जाता है, तो यह स्पष्ट रूप से ‘भोजन के रूप में हानिकारक’ होगा। खाने या पीने की वस्तु, जिसे बेचने का इरादा है, वह, समय की चूक के कारण या उचित देखभाल और सावधानी न बरतने या परिक्षकों (प्रिजर्वेटिव) को न मिलाने के कारण हानिकारक हो सकता है।

दवाओं की मिलावट

आई.पी.सी. की धारा 274, दवा में मिलावट से संबंधित है। यह धारा तब लागू होती है जब मिलावट के कारण दवाओं की प्रभावशीलता कम हो जाती है या दवाओं का प्रभाव या तो बदल जाता है या हानिकारक हो जाता है।

इस धारा के तहत यह आवश्यक है कि किसी दवा या किसी चिकित्सीय तैयारी में मिलावट की गई हो। इसे इस तरह से किया जाना चाहिए की इसकी प्रभावशीलता को कम किया गया हो या इसके असर दिखाने को बदला गया हो या इसे हानिकारक बनाया गया हो। आरोपी का इरादा इस दवा को बेचने का होना चाहिए या यह होना चाहिए कि इसे किसी चिकित्सीय उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, या उसे यह ज्ञान होना चाहिए कि इसे बेचा या इस्तेमाल किया जा सकता है, और साथ ही उसे यह दिखाना चाहिए कि ऐसी कोई मिलावट नहीं हुई है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि 6 महीने तक हो सकती है, या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

इस धारा के तहत उपलब्ध अपराध, गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) और गैर-शमनीय (नॉन कंपाउंडेबल) है और यह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मिलावटी दवाओं की बिक्री

आई.पी.सी. की धारा 275, मिलावटी दवाओं की बिक्री के साथ-साथ किसी भी डिस्पेंसरी से इसे बेचने पर रोक लगाती है। अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) ‘बिक्री के लिए इसे उजागर करती है’ का मतलब यह नहीं है कि दवा को दिखाने के लिए उजागर किया जाना चाहिए; इस धारा के तहत पर्याप्त है यदि ऐसी दवा किसी पैकेट या किसी अन्य रैपिंग में रखी हुई है। एक संकुचित (कॉम्प्रेसिव) कानून, द ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 अब दवाओं के निर्माण, वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन), बिक्री, आयात (इंपोर्ट) आदि को नियंत्रित करता है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को 6 महीने तक की कैद या एक हजार रुपये तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत उपलब्ध अपराध, गैर-संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और यह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

एक अलग दवा या तैयारी के रूप में दवाओं की बिक्री

आई.पी.सी. की धारा 276 के लिए यह आवश्यक है कि अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि दवा या कोई चिकित्सा तैयारी जानबूझकर बेची गई थी, या इसे बिक्री के उद्देश्य से पेश या उजागर किया गया था, या इसे किसी अलग दवा या चिकित्सा तैयारी के रूप में किसी चिकित्सा उद्देश्य के लिए किसी डिस्पेंसरी से बेचा गया था। यह धारा मिलावट का उल्लेख नहीं करती है।

इस धारा के तहत होने वाली हानि के लिए देयता (लायबिलिटी) तय नहीं की गई है, लेकिन ऐसी किसी दवा की बिक्री, पेशकश या उसे बेचने के लिए उजागर करने, या कोई दवा या चिकित्सा तैयारी जारी करने के लिए देयता तय की गई है।

सज़ा

इस धारा के तहत उत्तरदायी व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि 6 महीने तक की हो सकती है या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, गैर-संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और यह अपराध प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

सार्वजनिक झरने या जलाशय के पानी को दूषित करना

आई.पी.सी. की धारा 277 उस व्यक्ति से संबंधित है जो अपनी इच्छा से समुदाय के प्रत्येक सदस्य के किसी भी सार्वजनिक झरने या जलाशय को दूषित करता है। इस कार्य को इस उद्देश्य के लिए किया गया हो की ऐसे झरनों या जलाशयों का पानी उपयोग किए जाने के लिए कम योग्य किया जा सके, जिसके लिए इसे आम तौर पर उपयोग किया जाता है। यह कार्य उस व्यक्ति की इच्छा से किया जाना चाहिए।

इस धारा में ‘भ्रष्ट या बेईमानी’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो किसी भी सार्वजनिक झरने से पानी की स्थिति को भौतिक (फिजिकल) रूप से खराब करने या दूषित करने के कार्य को दर्शाता है। इस प्रकार, किसी निजी टैंक में स्नान करने का कार्य इस धारा के तहत अपराध कहलाया जाएगा।

इस धारा में, ‘अयोग्य (अनफिट)’ का प्रयोग करने के बजाय अभिव्यक्ति ‘कम योग्य’ का उपयोग जानबूझकर किया गया है क्योंकि पानी को उपयोग के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त नहीं बनाया जा सकता है, लेकिन भले ही इसे कम योग्य कर दिया गया हो, तब भी आरोपी को दोषी माना जाता है। ‘अपनी इच्छा से’ शब्द का वही अर्थ है जो आई.पी.सी. की धारा 39 के तहत दिया गया है।

सज़ा

इस धारा के तहत एक व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास जो 3 महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या अधिकतम पांच सौ रुपये का जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, गैर-संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और यह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

वातावरण को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बनाना

आई.पी.सी. की धारा 278, वातावरण को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बनाने के लिए दंड प्रदान करती है और ऐसे हानिकारक वातावरण के कारण आम जनता का स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

धारा 278 ऐसे व्यापारों पर लागू होती है जो हानिकारक और आपत्तिजनक गंध उत्पन्न करते हैं। व्यवसाय जैसे, बदबूदार चीजों को उबालकर मोमबत्तियां बनाना, सल्फर स्पिरिट, विट्रियल आदि बनाने की फैक्ट्री या टेनरी जहां जानवरों की खालों को पानी में डुबोया जाता है, ऐसे व्यवसाय वातावरण को दूषित करते हैं। ईंटों को जलाने से भी भट्ठे में चूने से धुंआ निकलता है जो हानिकारक होता है। एक आबादी वाले इलाके के आस पास एक हानिकारक व्यापार की स्थापना हमेशा एक उपद्रव के रूप में मानी जाती है।

सज़ा

इस धारा के तहत एक व्यक्ति को पांच सौ रुपये तक के जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

धारा 278 के तहत अपराध एक जमानती, गैर-संज्ञेय और गैर शमनीय है, और यह अपराध मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। अपराध और सम्मन को सामान्यतः (ऑर्डिनरिली) प्रथम दृष्टया जारी करना चाहिए।

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन)

X पर एक अपराध का आरोप लगाया गया था कि वह और उसका परिवार, शौचालय के रूप में एक खुले परिसर (ओपन कंपाउंड) का उपयोग कर रहे थे और इस तरह वातावरण को प्रदूषित कर रहे थे। इसे सार्वजनिक उपद्रव माना गया और इसलिए X को आई.पी.सी. की धारा 278 के तहत दोषी ठहराया गया था।

मामला

के रामकृष्णन और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ केरल और अन्य, 1999 के मामले में यह माना गया था कि सार्वजनिक स्थान पर किसी भी रूप में तंबाकू का धूम्रपान करना, धूम्रपान न करने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए, वातावरण को हानिकारक बनाता है। इसलिए, सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान करना आई.पी.सी. की धारा 278 को आकर्षित करता है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत इसे असंवैधानिक माना जाता है।

सार्वजनिक रास्ते पर जल्दबाजी में गाड़ी चलाना या सवारी करना

आई.पी.सी. की धारा 279, सार्वजनिक रास्ते पर किसी भी वाहन को जल्दबाजी या लापरवाही से चलाने या सवारी करने के अपराध से संबंधित है। ऐसे वाहन चलाने या सवारी करने से या तो मानव जीवन खतरे में पड़ जाता है या इससे दूसरे को हानि पहुंचने या चोट लगने की संभावना होती है।

इसलिए, ऐसे मामलों में, अपराधी को उस तरीके के लिए दंडित किया जाता है जिसमें पूरी घटना घटित हुई थी, यहां घटना से उत्पादित परिणामों के आधार पर दंडित नहीं किया जाता है।

धारा 279 के तहत अपराध को सिद्ध करने के लिए अभियोजन पक्ष को निम्नलिखित तत्वों को साबित करने की आवश्यकता है-

  • आरोपी सार्वजनिक रास्ते पर वाहन चला रहा था या उस पर सवार था।
  • जिस तरीके से आरोपी उस वाहन को चला रहा था वह इस हद तक जल्दबाजी में और लापरवाही से था कि वह मानव जीवन को खतरे में डाल सकता है या किसी अन्य व्यक्ति को संभावित रूप से घायल कर सकता या उसे चोट पहुंचा सकता है।

इस तरह के कार्यों में, आवश्यक घटक (इंग्रेडिएंट) आपराधिकता का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) है। केवल लापरवाही या त्रुटि की उपस्थिति, उस व्यक्ति को इस धारा के तहत दोषी साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

हॉर्न की आवाज न आना या तेज गति से वाहन चलाना अपने आप में इस धारा के तहत अपराध का संकेत नहीं है। अपराध के तहत व्यक्ति के दोष को निर्धारित करने के लिए समय, स्थान, यातायात (ट्रैफिक) आदि महत्वपूर्ण कारक होते हैं।

एक बच्चा वाहन का हॉर्न सुनते ही भ्रमित (कन्फ्यूज) हो जाता है और घबरा जाता है, अचानक सड़क पार करने की कोशिश करता है जिसके परिणामस्वरूप वाहन से दुर्घटना हो जाती है, इस तरह का कार्य चालक को इस धारा के तहत दोषी नहीं बना सकता है।

एक बस चालक, हालांकि वह उचित गति से बस चला रहा था, लेकिन चौराहे पर मोड़ लेने से पहले दाईं ओर नहीं देख पाने के कारण उसने एक साइकिल चालक के ऊपर बस चढ़ा दी, इसलिए, इस मामले में बस चालक को उसके लापरवाह से चलाने के लिए दोषी ठहराया गया था।

सज़ा

इस धारा के तहत उत्तरदायी व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि 6 महीने तक की हो सकती है, या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

इस धारा के तहत उपलब्ध अपराध, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मामले

स्टेट बाय जे.सी.नगर पी.एस. बनाम संतानम, 1997, के मामले मे, आरोपी सैन्यकर्मी था, उसने एक सैन्य ट्रक को ज़िगज़ैग तरीके से चलाया और पहले एक मोपेड सवार को टक्कर मार दी और फिर ऑटोरिक्शा पर मारा जिससे उसे नुकसान हुआ। ऑटोरिक्शा चालक ने दूसरे ऑटोरिक्शा में बैठ कर ट्रक का पीछा किया और उसे एक परिसर की दीवार और फिर एक जंगला से टकराते भी देखा। तो इस मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि ट्रक चालक इस संहिता की धारा 279 के तहत दोषी था।

ब्रह्म दास बनाम स्टेट ऑफ़ हिमाचल प्रदेश, 1988 के मामले में, बस चालक ने बस-स्टॉप पर बस को रोक दिया, एक यात्री, बस से नीचे उतरकर, अपना सामान उतारने के लिए बस की छत पर चढ़ गया था। चालक को इसकी भनक नहीं लगी और उसने बस स्टार्ट कर दी। कंडक्टर की ओर से कोई जांच नहीं की गई। ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे बस चालक की ओर से कोई लापरवाही दिखाई दी हो। तो इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 279 लागू नहीं की जाएगी।

जलयान (वेसल) को जल्दबाजी से चलाना

आई.पी.सी. की धारा 280 के लिए यह आवश्यक है कि जलयान को या तो जल्दबाजी से या लापरवाही से चलाया जाना चाहिए, और इस तरह की जल्दबाजी या लापरवाही मानव जीवन के लिए हानिकारक होनी चाहिए, या इसके द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को चोट या हानि पहुंचनी चाहिए। जलयान शब्द को संहिता की धारा 48 के तहत परिभाषित किया गया है, जो कहती है की ऐसी कोई भी चीज जो मनुष्यों या किसी संपत्ति को पानी से ले जाने के लिए बनाई गई हो।

सज़ा

भारतीय दंड संहिता की धारा 280 के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जो 6 महीने तक बढ़ सकती है, या एक हजार रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

भ्रामक (फॉल्स) प्रकाश, चिन्ह या बोये का प्रदर्शन

आई.पी.सी. की धारा 281 के अनुसार आरोपी को कुछ भ्रामक प्रकाश, चिन्ह या बोये का प्रर्दशन करना चाहिए। अभियोजन द्वारा यह स्थापित किया जाना चाहिए कि ऐसा करते समय आरोपी का इरादा या ज्ञान था कि उसके कार्यों से किसी भी नाविक (नेविगेटर) को ऐसी प्रदर्शनी से गुमराह करने की संभावना है। इस धारा के तहत दिए गए दंड की मात्रा यह इंगित (इंडिकेट) करती है कि इस अपराध को बहुत गंभीरता से लिया गया है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से, जिसकी अवधि 7 साल तक हो सकती है, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

इस धारा के तहत उपलब्ध अपराध, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और यह अपराध प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

अक्षमकर (अनसेफ) या अति लदे हुए जलयान में भाड़े के लिए जलमार्ग से किसी व्यक्ति का प्रवहण (कन्वे)

आई.पी.सी. की धारा 282 के तहत अभियोजन पक्ष के द्वारा, आरोपी के ज्ञान या लापरवाही को स्थापित करना आवश्यक है, जब वह किसी भी व्यक्ति को जलमार्ग से किसी जलयान में प्रवहण कर ले जाता है। यह धारा उन मामलों में भी लागू होती है जहां पैसे के भुगतान पर किसी व्यक्ति को किसी जलयान में जलमार्ग के द्वारा ले जाया जाता है। दोनों ही मामलों में, जलयान या तो अक्षमकर या अति लधा हुआ होना चाहिए, ताकि उस पर सवार होने वाले व्यक्ति के जीवन के लिए खतरा हो।

सज़ा

इस धारा के तहत एक व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से, जिसकी अवधि 6 महीने तक हो सकती है, या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जाएगा।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, गैर-शमनीय और संज्ञेय है, और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मामला

वी.आर. भाटे और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र 1970 के मामले में, एक यात्री जल यान था जो भगदड़ के कारण एक तरफ झुक गया था और झुके हुए हिस्से पर सारा भार डाल दिया गया था, जिसके कारण पानी जलयान में बहने लगा। ऐसी स्थिति में यात्रियों में दहशत हो गई थी।

इस घटना के लिए जलयान के मालिकों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था क्योंकि पानी का प्रवाह (फ्लो) यात्रियों के अधिक भार के कारण नहीं बल्कि उनकी भगदड़ के कारण था।

लोक मार्ग या पथ प्रदर्शन मार्ग में संकट या बाधा कारित करना

आई.पी.सी. की धारा 283, किसी भी ऐसे व्यक्ति से संबंधित है, जो किसी कार्य को करके या किसी कार्य को ना करके, अपने अधीन किसी सम्पत्ति के कब्जे या प्रभार (चार्ज) के तहत किसी आदेश को लेता है और वह सम्पत्ति किसी लोकमार्ग या जलयान के लोक पथ में किसी व्यक्ति को संकट, बाधा या क्षति कारित करता है।

सज़ा

आई.पी.सी. की धारा 283 के तहत एक व्यक्ति को दो सौ रुपये तक के जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत किया गया अपराध जमानती, गैर-शमनीय और संज्ञेय है, और मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

विषैले (पॉइजनस) पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण (नेगलिजेंट कंडक्ट)

आई.पी.सी. की धारा 284 के तहत, विषैले पदार्थों के संबंध में एक कार्य होना चाहिए। यह कार्य या तो जल्दबाजी या उपेक्षापूर्ण होना चाहिए, जिससे मानव जीवन को खतरा हो या इससे किसी को क्षति या चोट लगने की संभावना हो। यदि ऐसा नहीं होता है, तो किसी व्यक्ति द्वारा ज्ञान या लापरवाही के साथ, किसी भी पदार्थ के साथ ऐसा आदेश लेने में चूक होनी चाहिए, और उस व्यक्ति के पास उस पदार्थ का कब्जा होना चाहिए, जो किसी ऐसे विषैले पदार्थ से उत्पन्न होने वाले मानव जीवन को किसी भी स्पष्ट खतरे से बचाने के लिए पर्याप्त है। 

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जो अधिकतम 6 महीने तक हो सकती है या एक हजार रुपये तक के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

अग्नि या ज्वलनशील (कंबस्टिबल) पदार्थ के सम्बन्ध में उपेक्षापूर्ण आचरण

आई.पी.सी. की धारा 285 के अनुसार आरोपी द्वारा कुछ जल्दबाजी या लापरवाही भरा काम होना चाहिए। यह कार्य मानव जीवन के लिए खतरा होना चाहिए या इस कार्य के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को क्षति या चोट पहुंचाने की संभावना होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है, तो किसी व्यक्ति द्वारा जानबूझकर या लापरवाही से, आग से या किसी भी ज्वलनशील पदार्थ के साथ ऐसा आदेश लेने में चूक होनी चाहिए जो उसके कब्जे में है जो आग या ज्वलनशील पदार्थ से उत्पन्न होने वाले मानव जीवन के लिए ऐसे किसी संभावित खतरे से बचाव के लिए पर्याप्त है। 

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जो अधिकतम 6 महीने तक की हो सकती है या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मामला

कुर्बान हुसैन मोहम्मदल्ली रंगवाला बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र, 1964 के मामले में आरोपी की पेंट और वार्निश फैक्ट्री में आग लग गई थी, जिसके कारण 7 श्रमिकों की जान चली गई थी और कई श्रमिक जल गए थे। मृत लोग एक मचान (लॉफ्ट) में काम करते थे जहां निर्मित (मैन्युफैक्चर) पेंट जमा किया जाता था।

तो इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मानव जीवन के लिए खतरनाक आग को रोकने के लिए आरोपी ने बिना किसी सावधानी के एक ही कमरे में चार बर्नर जलाने की अनुमति देकर लाइसेंस की एक विशेष शर्त का उल्लंघन किया था। चूंकि यह आग या किसी अन्य ज्वलनशील पदार्थ के साथ बिजली का आदेश देने के लिए एक उपेक्षापूर्ण चूक थी जो मानव जीवन के लिए किसी भी संभावित खतरे से बचाव के लिए पर्याप्त थी, तो ऐसे में आरोपी को दोषी माना गया था।

विस्फोटक पदार्थ के बारे में उपेक्षापूर्ण आचरण

आई.पी.सी. की धारा 286 के तहत सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व यह है की कोई व्यक्ति किसी भी विस्फोटक पदार्थ के साथ कार्य कर रहा होना चाहिए। यह कार्य या तो जल्दबाजी या उपेक्षापूर्ण वाला कार्य होना चाहिए। यह मानव जीवन को खतरे में डालने वाला होना चाहिए या इससे किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचने या चोट लगने की संभावना होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो उस व्यक्ति के द्वारा, ज्ञान या लापरवाही के साथ, किसी भी विस्फोटक पदार्थ के साथ ऐसा आदेश लेने में चूक होनी चाहिए जो उसके कब्जे में है और जो ऐसे विस्फोटक पदार्थ से उत्पन्न होने वाले मानव जीवन के संभावित खतरे से बचाव के लिए पर्याप्त है।

भले ही ‘विस्फोटक पदार्थ’ शब्द को इस संहिता के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसे विस्फोटक पदार्थ अधिनियम (एक्सप्लोसिव सस्ब्टांस एक्ट), 1908 की धारा 2 के तहत परिभाषित किया गया है, जिसमें कहा गया है की इसमें ऐसी कोई भी सामग्री शामिल होती है जो किसी भी विस्फोटक पदार्थ को बनाने के लिए आवश्यक होती है; इसमें कोई भी मशीन, सामग्री, उपकरण या उपयोग किया गया कार्यान्वयन (इंप्लीमेंट), या उपयोग करने का इरादा है, या किसी भी विस्फोट या पदार्थ के कारण, या कारण के लिए सहायता के लिए अनुकूलित (एडेप्टेड) है, ऐसी मशीन, उपकरण या कोई कार्यान्वयन के किसी भी हिस्से के साथ भी शामिल है। 

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि अधिकतम 6 महीने हो सकती है या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, गैर-शमनीय और संज्ञेय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मशीनरी के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण

आई.पी.सी. की धारा 287 के लिए किसी व्यक्ति द्वारा किसी भी मशीनरी के साथ कार्य करने की आवश्यकता होती है। वह कार्य या तो जल्दबाजी में होना चाहिए या उपेक्षापूर्ण होना चाहिए। यह कार्य मानव जीवन को खतरे में डालने वाला भी होना चाहिए या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति या चोट पहुंचाने की संभावना होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो उस व्यक्ति के द्वारा ज्ञान या लापरवाही के साथ किसी भी मशीनरी के साथ ऐसा आदेश लेने में चूक होनी चाहिए जो उसके पास है या उसकी देख रेख में है और ऐसी मशीनरी से उत्पन्न होने वाले मानव जीवन के संभावित खतरे से बचाव के लिए पर्याप्त है। 

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि 6 महीने तक की हो सकती है या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

इमारतों को गिराने या उनकी मरम्मत करने के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण

आई.पी.सी. की धारा 288 के तहत या तो आरोपी किसी इमारत को गिरा देता है या उसकी मरम्मत करता है और ऐसा करते समय वह जानबूझकर या लापरवाही से कार्य करता है, और आरोपी की ओर से उस इमारत के साथ ऐसा आदेश लेने में चूक होनी चाहिए जो उस इमारत या उसके किसी हिस्से के गिरने से मानव के जीवन के लिए किसी भी स्पष्ट खतरे से बचाने के लिए पर्याप्त हो। 

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या अधिकतम एक हजार रुपये तक के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

मामला

अब्दुल कलाम बनाम स्टेट (दिल्ली की एन.सी.टी. सरकार), 2006 के मामले में याचिकाकर्ता एक इमारत का मालिक था, उसने घर के निर्माण कार्य के लिए एक ठेकेदार को नियुक्त किया था। प्लास्टर करते समय एक मजदूर, ठेकेदार द्वारा लगाई गई मचान (स्कैफोल्डिंग) से नीचे गिर गया था। तो, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह माना कि यह धारा 288 के तहत नहीं आ सकता क्योंकि याचिकाकर्ता ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिसे मानव जीवन को खतरे में डालने के लिए जल्दबाजी या उपेक्षापूर्ण माना जा सके और इसलिए, उसे इस धारा के तहत दोषी नहीं ठहराया गया था।

जानवरो के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण

आई.पी.सी. की धारा 289 में आरोपी की ओर से चूक की आवश्यकता है। यह चूक ज्ञान या लापरवाही से होनी चाहिए और यह उस व्यक्ति के कब्जे में रह रहे किसी भी पशु के संबंध में होनी चाहिए। आदेश, मानव के जीवन के लिए किसी भी स्पष्ट खतरे से बचाव के लिए पर्याप्त होना चाहिए, या ऐसे जानवर को गंभीर चोट पहुंचाना चाहिए।

इस धारा में प्रयुक्त ‘पशु’ शब्द किसी वश में या क्रूर पशु के संबंध में हो सकता है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है या अधिकतम एक हजार रुपये के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

दृष्टांत (इलस्ट्रेशन)

एक भैंस जो एक खतरनाक जानवर मानी जाती है, उसने एक बूढ़ी औरत को धकेल दिया था जो अपने सिर पर घास का भार ढोते हुए एक खेत में जा रही थी और इस कारण उसकी मौत हो गई थी। मालिक और नौकर, जिनका उस समय वहां पर तत्काल नियंत्रण (इमेडियट कंट्रोल) था, उन दोनों को इस धारा के तहत दोषी ठहराया गया था।

अन्यथा अनुपबन्धित (प्रोवाइडेड) मामलों में सार्वजनिक उपद्रव के लिए दंड

आई.पी.सी. की धारा 290 में सार्वजनिक उपद्रव के ऐसे सभी मामले शामिल हैं जिनके लिए संहिता के तहत सजा के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं प्रदान किया गया है।

धारा 290 के तहत प्रतिवादी संघ (रिस्पॉन्डेंट एसोसिएशन) ने अपीलकर्ता नगर पालिका के खिलाफ शहर में सफाई बनाए रखने के अपने कर्तव्य में लगातार और व्यवस्थित रूप से विफल रहने के लिए मामला दर्ज किया था। मामले में शामिल महत्वपूर्ण प्रश्न यह थे कि क्या नगर पालिका को ‘जो कोई’ शब्द के भीतर शामिल माना जा सकता है, और दूसरी बात यह है कि क्या नगर पालिका पर मुकदमा चलाने से पहले आंध्र प्रदेश नगर पालिका अधिनियम, 1965 के तहत मंजूरी लेने की आवश्यकता थी।

तो, अदालत ने माना कि एक नगर पालिका को ‘जो भी’ शब्द के भीतर शामिल किया गया है क्योंकि इस धारा के तहत सजा की प्रकृति ऐसी है जो नगरपालिका को दी जा सकती है, और ‘व्यक्ति’ शब्द में एक कंपनी या संघ या व्यक्तियों का निकाय शामिल है, चाहे वह आई.पी.सी. की धारा 11 के तहत निगमित (इनकॉरपोरेटेड) हो  या नहीं। मंजूरी का सवाल अप्रासंगिक (इर्रेलेवेंट) है क्योंकि उपरोक्त अधिनियम, आंध्र प्रदेश नगर पालिका अधिनियम, 1965 की धारा 395 ऐसे किसी भी अभियोजन का उल्लेख नहीं करती है।

दूसरा उदाहरण यह है की जहां एक विशेष स्थान पर लगभग 7 या 8 वर्षों के लिए कोयला डिपो का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) था, उसको सार्वजनिक उपद्रव नहीं माना गया क्योंकि केवल दो व्यक्तियों ने इसकी शिकायत की थी, जो सार्वजनिक उपद्रव की पहचान करने के लिए क्रम में उचित मानदंड (क्राइटेरिया) के अंतर्गत नहीं आता है। लेकिन, अदालत ने कहा कि अगर इसे निजी उपद्रव के रूप में साबित किया जा सकता है, तो कानून के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है।

इस धारा के तहत स्कूल प्रबंधक (मैनेजर) को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है यदि स्कूल की इमारत का एक हिस्सा गिर जाता है और जिसके कारण कई छात्रों और अन्य लोगों की मौत हो जाती है और कई अन्य लोग घायल हो जाते हैं, क्योंकि इमारत का निर्माण राजमिस्त्री द्वारा किया गया था और प्रबंधक के पास, एक आम आदमी होने के नाते, इस बारे में जानकारी रखने कि उम्मीद नहीं की जा सकती है कि, क्या इमारत के निर्माण के दौरान सीमेंट, मोर्टार लाइम अन्य पदार्थों और सामग्रियों की उचित मात्रा और गुणवत्ता (क्वालिटी) का उपयोग किया गया था या नहीं। जिन नगरपालिका अधिकारियों पर स्कूल के समय-समय पर निरीक्षण (इंस्पेक्शन) की जिम्मेदारी थी, उन्हें अधिक सतर्क और सावधान रहना चाहिए था और आसानी से यह पता लगाने में सक्षम हो जाना चाहिए था कि इमारत स्कूल बनाने के लायक नहीं थी।

यह धारा सार्वजनिक गली में झगड़ा करने के लिए लोगों को दंडित नहीं करती है क्योंकि इससे स्थानीय लोगों को कोई परेशानी नहीं होती है। एक सार्वजनिक उपद्रव बहुत लंबे समय तक जारी रहने पर भी वैध नहीं होता है।

सड़क पर गायों के पेशाब करने से जगह का गंदा होना इस धारा के तहत अपराध नहीं माना गया है।

विषम (ऑड) समय में उच्च पिच पर रेडियो बजाना और दूसरों को परेशान करना बहुत तुच्छ माना जाता है और इसलिए इस धारा के तहत दंडनीय नहीं है।

सज़ा

इस धारा के तहत कोई सजा प्रदान नहीं की गई है। यह धारा कहती है कि किसी भी मामले में जो कोई भी सार्वजनिक उपद्रव करता है, जो भारतीय दंड संहिता के तहत अन्यथा दंडनीय नहीं है, उसे दो सौ रुपये तक के जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

इस संहिता की धारा 290 के तहत अपराध जमानती, गैर-संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

न्यूसेन्स बन्द करने के व्यादेश (इंजंक्शन) के पश्चात उसको चालू रखना

आई.पी.सी. की धारा 291 के तहत, आरोपी को या तो सार्वजनिक उपद्रव दोहराना होगा या उस को जारी रखना होगा। आरोपी को एक लोक सेवक द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए। लोक सेवक के पास कानून के तहत इस तरह का व्यादेश जारी करने का अधिकार होना चाहिए ताकि इस तरह के उपद्रव को दोहराया या जारी न रखा जा सके। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 142 और धारा 143 के तहत मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया है कि वह खतरे को रोकने के लिए इस तरह का व्यादेश जारी कर सकता है और किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक उपद्रव रोकने का आदेश दे सकता है। अदालत को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत अस्थायी व्यादेश (टेंपरेरी इनजंक्शन) जारी करने का अधिकार है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को छह महीने तक के साधारण कारावास से दंडित किया जाएगा, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

अश्लील पुस्तकों, आदि की बिक्री करना, आदि

उपर चर्चा की गई धारा 292 और धारा 293 को एक प्रस्ताव का अनुपालन करके संहिता में जोड़ा गया था, जिसे द इंटरनेशनल कन्वेंशन फॉर द सप्रेशन ऑफ द सर्कुलेशन एंड ट्रैफिक इन ऑबसीन पब्लिकेशन जिनेवा, 1923 द्वारा पास किया गया था। जिसके बाद भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम 1969 के माध्यम से इन धाराओं में कुछ बदलाव लाए गए थे। 

आई.पी.सी. की धारा 292 ने पुरानी धारा 292 को प्रतिस्थापित (रिप्लेस) कर दिया था, जिसे वर्ष 1925 के अधिनियम VIII द्वारा आई.पी.सी. में सम्मिलित (इंसर्ट) किया गया था। इस वर्तमान धारा के तहत कार्य जैसे की किसी भी पुस्तक को बेचना, किराए पर देना, वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) करना या सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना, प्रसारित (सर्कुलेट) करना, आदि, या किसी आकृति या वस्तु का कोई भी प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) जिसे अश्लील माना जाता है, यह सब इस धारा के तहत एक अपराध है और साथ ही उपरोक्त चीजों को बिक्री आदि के उद्देश्य से रखना या अपने कब्जे में रखना भी एक अपराध है।

यह धार दायित्व से छूट देता है जब प्रकाशन सुझाई गई तर्ज पर जनता की भलाई के लिए होता है या जब इसका उपयोग कुछ धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इसी तरह, किसी प्राचीन मंदिर या स्मारक पर किसी भी प्रतिनिधित्व आदि, या किसी भी कार जिसे मूर्तियों या धार्मिक उद्देश्यों के लिए रखा या इस्तेमाल किया जाता है, को इस धारा के तहत दायित्व से छूट दी गई है।

इस धारा में ‘अश्लील’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन धारा 292 की उप धारा (1) में ‘अश्लील माना जाएगा’ शब्दों का उपयोग एक कल्पना का निर्माण करता है, क्योंकि कुछ भी जो कामुक (लेसीवियस) माना जाता है या कोई भी चीज जो मूल हित के लिए अपील करती है  या ऐसे प्रभाव जो लोगों को भ्रष्ट और वंचित करने की प्रवृत्ति (टेंडेंसी) रखते है, वह सब इस धारा के अर्थ में ‘अश्लील’ माने जाते है।

रेजिना बनाम हिकलिन 1868, के प्रसिद्ध मामले में, कॉकबर्न, सी.जे. ने अश्लीलता परीक्षण निर्धारित किया था, जिसे व्यापक रूप से कानून की वैध प्रदर्शनी के रूप में स्वीकार किया गया था। उनके अनुसार, अश्लीलता की परीक्षा में यह शामिल है कि क्या अश्लीलता के रूप में आरोपित किसी मामले की प्रवृत्ति उन लोगों को भ्रष्ट करने की है जिनके दिमाग इस तरह के अनैतिक (इम्मोरल) प्रभाव के लिए खुले हैं और जिनके हाथों में इस प्रकार का प्रकाशन हो सकता है। यह पूरी तरह से निश्चित करता है कि यह युवाओं के मन में या तो संभोग के लिए, या यहां तक ​​​​कि अधिक उम्र वाले व्यक्तियों के मन में भी, सबसे अधिक अश्लील और अशुद्ध चरित्र के विचारों को संदर्भित करता है।

इस परीक्षण को सर्वोच्च न्यायालय ने रंजीत डी. उदेशी बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र, 1964 के मामले में स्वीकार कर लिया था। इस मामले में अपीलकर्ता चार अन्य व्यक्तियों के साथ, एक फर्म के भागीदार थे और एक बुक स्टॉल के मालिक थे, उन्हें धारा 292 के तहत दोषी ठहराया गया था। मजिस्ट्रेट ने उनके स्टॉल में ‘लेडी चैटरलीज लवर्स’ नाम की एक किताब को बिक्री के लिए रखने के लिए, उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता की दोषसिद्धि (कनविक्शन) को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि संभोग के साथ इस तरह से व्यवहार करना जिससे कि कामुक पक्ष की अपील की जा सके या जिसकी प्रवृत्ति अश्लील हो, और यह देखा जाना चाहिए कि क्या ऐसा मामला भ्रष्ट होने और उन लोगों को भ्रष्ट करने की संभावना रखता है, जिनका दिमाग ऐसे प्रभावों के लिए खुला है और जिनके हाथों में ऐसी सामग्री होने की संभावना है।

अश्लीलता जिसे शालीनता या शील के लिए अपमानजनक माना जाता है, उसे भारत के संविधान, 1949 के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर गारंटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि इस तरह की स्वतंत्रता नैतिकता या शालीनता के सार्वजनिक हित के उचित प्रतिबंधों के अधीन है। 

केवल एक महिला के शरीर को नग्न दिखाने के कार्य का मतलब यह नहीं है कि वह अश्लील है। अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होता है कि यह दर्शकों के मन में अस्वस्थ और वासनापूर्ण विचारों को जगाने की संभावना रखता है।

जहां पुस्तक या उपन्यास के लेखक ने किसी भी अभद्र (इम्मोडेस्ट) या अश्लील भाषा का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन अगर कुछ स्थानों पर लेखक ने पाठक की कल्पना को विकसित करने की कोशिश की है, तो इसे अश्लीलता के रूप में नहीं माना जा सकता है।

कोई भी सामग्री जो यौन संभोग के संबंध में बहुत अधिक अनैतिक विकृति (परवर्जन) को उकसाती है, जो अध: पतन (डी जेनरेशन) और भ्रष्टता की ओर ले जाती है और अनैतिक संतुष्टि प्राप्त करने के लिए कामुक इच्छाओं को सामने लाती है, उसे इस धारा के तहत दंडित किया गया है।

अदालत को यह तय करने के लिए कि कोई विशेष सामग्री अश्लील है या नहीं, यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि समाज के सामान्य सदस्यों पर प्रकाशन का क्या प्रभाव पड़ सकता है। पाठक का स्तर न तो बिना किसी संवेदनशीलता (सेंसिबिलिटी) के होता है और न ही असाधारण संवेदनशीलता का होता है।

अपराधी इस बचाव का उपयोग नहीं कर सकता है कि किसी विशेष आपत्तिजनक पुस्तक की जानकारी किसी अन्य स्रोत से कॉपी की गई है। यदि वह अपमानजनक पुस्तक संभोग के मामले से संबंधित है, और इस तरह से वह यौन आवेगों (सेक्स इंपल्स) को उत्तेजित करता है, जो युवाओं में अशुद्ध यौन विचारों को जन्म देती है और इस प्रक्रिया में उनके दिमाग को भ्रष्ट करती है, तो उसे इस धारा के तहत दोषी ठहराया जाएगा।

वर्तमान समय में अश्लीलता के कानून की उचित परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) में व्याख्या की जानी चाहिए, क्योंकि अब भारत द्वारा, देश में जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए उठाए जाने वाले कदमों के बारे में यथार्थवादी दृष्टिकोण (रियलिस्टिक व्यू) अपनाने की आवश्यकता है। किताबों, पोस्टरों और ऐसी अन्य सामग्रियों में परिवार नियोजन (फैमिली प्लैनिंग) और यौन शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें ऑडियो और वीडियो कैसेट थोड़े अधिक खुले तरीके से शामिल हों, लेकिन वह नैतिकता को भ्रष्ट या नीचा न करें। राष्ट्रीय हित में यौन की शिक्षा के प्रति सही जन जागरूकता से अश्लील साहित्य के साथ-साथ अश्लील यौन संबंधी कार्यों को खत्म करने के लिए अदालतों को न्यायसंगत (जस्ट) और उचित रुख अपनाने के लिए व्याख्या के मामलों को अधिक अक्षांश (लैटिट्यूड) देने की आवश्यकता है।

मामले

चंद्रकांत कल्याणदास काकोदर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र और अन्य, 1969 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की यह राय थी कि जहां तर्क का समर्थन किया जाता है क्योंकि कथित रूप से अश्लील मामला वास्तव में साहित्यिक (लिटरेरी) योग्यता का एक कार्य है, तो अग्रणी साहित्य (लीडिंग लिटरेचर) के विचारों का हमेशा उपयोग किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में संपूर्ण कार्य का समग्र दृष्टिकोण न्यायालय द्वारा लिया जाना चाहिए और फिर निर्णय लिया जाना चाहिए क्योंकि उसमें लिखी गई कुछ विशिष्ट सामग्री वास्तव में अश्लील हैं, जो हमेशा समकालीन समाज की सामाजिक नैतिकता पर पुस्तक के प्रभाव को ध्यान में रखते हैं।

समरेश बोस और अन्य बनाम अमल मित्रा और अन्य, 1985 के मामले में, अपीलकर्ता जो एक प्रसिद्ध बंगाली लेखक हैं, उन्होंने एक बंगाली पत्रिका में अपना उपन्यास ‘प्रजापति’ प्रकाशित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 292 के तहत उनकी सजा को खारिज करते हुए यह कहा कि एक अश्लील लेखन जरूरी नहीं कि अश्लील हो। अश्लीलता से घृणा और द्वेष की भावना पैदा होती है जिसमें ऊब (बोरडम) भी शामिल है, लेकिन इससे उपन्यास के पाठकों की नैतिकता को भ्रष्ट करने, नीचा दिखाने का प्रभाव नहीं है, जबकि अश्लीलता में उन लोगों को भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति है जिनके दिमाग इस तरह के अनैतिक प्रभाव के लिए खुले हैं।

एक न्यायाधीश, यह निर्णय करते हुए कि क्या कोई सामग्री अश्लीलता-विरोधी कानून का उल्लंघन करती है या नहीं, उन्हें पहले खुद को लेखक के स्थान पर रखना चाहिए और फिर उसके दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करना चाहिए। उसके बाद, उन्हें खुद को एक पाठक के स्थान पर रखना चाहिए और यह विश्लेषण करने का प्रयास करना चाहिए कि संबंधित सामग्री को पढ़ते समय वह वास्तव में कैसा महसूस करते है। इसके बाद उन्हे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अपने न्यायिक दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए। इस प्रक्रिया में, उन्हें यह जानने के लिए प्रख्यात (एमिनेंट) साहित्यकारों के विचार पूछने के लिए अधिकृत (ऑथराइज्ड) किया जाता है कि वे इस तरह की सामग्री के प्रति कैसा महसूस करते हैं।

विचाराधीन उपन्यास, जिसमें एक महिला के शरीर को उसकी पूरी संवेदनशीलता के साथ वर्णित किया गया है। लेकिन केवल उसी आधार पर अश्लीलता या अन्यथा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और न ही लगाया जाना चाहिए। उपन्यास का उद्देश्य समाज में चल रही विभिन्न परेशानियों और बुराइयों को उजागर करना है। इस उपन्यास में संभोग पर जोर दिया गया था, गालियों का उपयोग और भावनाओं का वर्णन, महिला शरीर का विवरण, विचार और कार्य, ये सभी अभिव्यक्ति के भाग थे जिन्हें लेखक ने सदमे और घृणा को बाहर लाने के लिए एक दृष्टिकोण के साथ चुना था। जो आज के समाज में मौजूद है। इस प्रकार उपन्यास को कामुक नहीं माना गया था और नैतिकता से वंचित नहीं किया गया था और इसलिए वह अश्लील नहीं था।

प्रोमिला कपूर बनाम यश पाल भसीन और अन्य, 1989 के मामले में, अपीलकर्ता ‘इंडियन कॉलगर्ल्स’ पुस्तक की लेखिका थीं, जो उनकी पुस्तक ‘द लाइफ एंड वर्ल्ड ऑफ कॉलगर्ल्स इन इंडिया’ का संक्षिप्त संस्करण (अब्रिज एडिशन) थी। लेखक एक समाजशास्त्री (सोशियोलॉजिस्ट) हैं और पुस्तक का प्रकाशन उनके शोध का एक अंश था। पुस्तक में उन साक्षात्कारों (इंटरव्यू) को भी शामिल किया गया है जो लेखक ने कॉल गर्ल के साथ किए थे और उन्होंने पुरुषों के साथ उनके मुठभेड़ों का वर्णन किया था जिसमें उनमें से कुछ के पहले अनुभव शामिल थे। चूंकि इस तरह की अस्वस्थता से लड़ने की रणनीति बनाने की दृष्टि से पुस्तक लिखी गई थी, इसलिए इसे धारा 292 के अपवाद के तहत रखा गया था और इस प्रकार यह पुस्तक अश्लील नहीं थी।

जगदीश चावला व अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान, 1999 के मामले में, उच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि एक अश्लील वस्तु का कब्जा, इस संहिता की धारा 292 के तहत दंडनीय है, यदि वह कब्जा, वितरण, बिक्री, किराए पर देना, संचलन या सार्वजनिक प्रदर्शनी के उद्देश्य के लिए है और इसलिए, यदि व्यक्ति ऐसे वीडियो कैसेट रिकॉर्डर की सहायता से टेलीविजन पर अश्लील फिल्म देखते हुए पाए जाते हैं तो इस धारा के तहत उसे दोषी के रूप में आरोपित नहीं किया जा सकता है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को पहली बार दोषी ठहराए जाने पर अधिकतम दो साल तक के कारावास और दो हजार रुपये तक के जुर्माने से दंडित किया जाएगा और दूसरी बार या बाद में दोषी ठहराए जाने की स्थिति में अधिकतम पांच साल तक कारावास से और साथ-साथ पांच हजार रुपये तक का जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा। 

धारा 292 के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

एक युवा व्यक्ति को अश्लील वस्तुओं की बिक्री, आदि

आई.पी.सी. की धारा 293 में ऐसी किसी भी वस्तु की बिक्री, उसको किराये पर देना, प्रदर्शन, वितरण या संचलन की आवश्यकता होती है, जिसका उल्लेख संहिता की धारा 292 के तहत किया गया है, इसमें पेशकश करना या ऐसा करने का प्रयास शामिल है। इस धारा के तहत आवश्यक शर्त यह है कि ऐसा कार्य उस व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए जिसने अभी तक 20 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की है। युवाओं के दिमाग को भ्रष्ट करने या बिगाड़ने को धारा के तहत अधिक गंभीर माना जाता है।

सज़ा

इस धारा के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति को पहली बार दोषी ठहराए जाने पर, अधिकतम तीन साल तक की अवधि के लिए एक साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, साथ ही जुर्माना जो दो हजार रुपये तक हो सकता है, और, दूसरी बार या बाद में दोषी ठहराए जाने की स्थिति में, उसे 7 साल तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसके साथ साथ वह पांच हजार रुपये तक का जुर्माना देने के लिए उत्तरदायी होगा।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

अश्लील कार्य करना और गाने सुनना

आई.पी.सी. की धारा 294 अश्लील कार्यों और गानों से संबंधित है। धारा 294 निजी तौर पर किए गए कार्य का गठन नहीं करती है।

इस धारा के तहत एक दृढ़ विश्वास स्थापित करने के लिए निम्नलिखित अवयवों को संतुष्ट करना होगा:

  • अश्लील कार्य किसी सार्वजनिक स्थान पर किया जाना चाहिए या सार्वजनिक स्थान के आसपास किसी गाने या शब्दों का पाठ या उच्चारण किया जाना चाहिए।
  • इसके परिणामस्वरूप लोगो को परेशानी होनी चाहिए।

मामला

दीपा और अन्य बनाम एस.आई. ऑफ पुलिस और अन्य 1985 के मामले में, एक पॉश होटल में कैबरे नर्तकियों द्वारा किए गए नृत्य पर सवाल उठाया गया था। अदालत ने माना कि नृत्य प्रदर्शन अश्लीलता है क्योंकि नर्तकियों ने प्रदर्शन के दौरान अपने निजी अंगों को दिखाया और नृत्य दर्शकों को परेशान किया था।

इस प्रदर्शन के लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह किसी निजी स्थान में किया गया था क्योंकि होटल और रेस्टोरेंट आम जनता के लिए सुलभ हैं।

स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम जॉयस ज़ी अलियास टेमिको, 1973 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय लिया गया था कि होटल जहां कैबरे नर्तक प्रदर्शन करते हैं, वे निजी और संलग्न (इनक्लोज्ड) स्थानों के अंतर्गत आते हैं, जहां केवल उन व्यक्तियों को प्रवेश की अनुमति है जो इस तरह के प्रदर्शन को देखने के लिए इच्छुक है, एक व्यक्ति जो इस तरह के प्रदर्शन को देखने के बाद पीड़ित या ‘नाराज’ है, उसको इस धारा के तहत संरक्षित नहीं किया जा सकता है।

एक वयस्क (एडल्ट) व्यक्ति ऐसी जगहों पर ऐसा प्रदर्शन देखने के लिए तब ही जाता है जब वह ऐसे कार्यों को देखने के लिए सहमति देता है।

सज़ा

इस धारा के तहत उत्तरदायी व्यक्ति को या तो साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे 3 महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

इस धारा के तहत अपराध जमानती, संज्ञेय और गैर-शमनीय है और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

लॉटरी कार्यालय रखना

आई.पी.सी. की धारा 294A सरकार द्वारा अनाधिकृत (अनऑथराइज्ड) लॉटरी रखने वालों को दंडित करती है। इस धारा का उद्देश्य लोगों को ऐसे खेलों में फंसने से बचाना है जिनका स्वभाव जुए के समान होता है।

यह धारा भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1870 द्वारा सम्मिलित की गई है।

पैसे के इस तरह के संचलन को प्रतिबंधित करने के लिए दो तरीके तैयार किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • ऐसी लॉटरी निकालने वाले स्थानों या कार्यालयों को रखने के लिए शुल्क लगाना।
  • उनके लिए प्रासंगिक विज्ञापनों को दंडित करना।

सज़ा

इस धारा का पहला तत्व कहता है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसी लॉटरी निकालने के उद्देश्य से कोई स्थान या कार्यालय रखता है जो न तो राज्य की लॉटरी है और न ही राज्य सरकार द्वारा अधिकृत है, तो उसे अधिकतम छह महीने तक की अवधि के लिए साधारण या कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा, या जुर्माना, या दोनों से भी दंडित किया जा सकता है।

इस धारा का दूसरा तत्व लॉटरी से संबंधित किसी भी प्रस्ताव के प्रकाशन को दंडित करता है जो सरकार द्वारा अधिकृत नहीं है। अगर कोई ऐसा करता है तो उसे एक हजार रुपये तक के जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

संहिता की धारा 294A के तहत अपराध गैर-संज्ञेय, जमानती और गैर-शमनीय है, और किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।

निष्कर्ष

यह लेख विभिन्न अपराधों पर चर्चा करता है जो सार्वजनिक उपद्रव के अंतर्गत आते हैं, और उनकी प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी), और दंड भी प्रदान करता है, जो भारतीय दंड संहिता के तहत दिए गए है और साथ ही उनके दृष्टांत और न्यायिक निर्णयों पर भी चर्चा करता है।

संदर्भ

 

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